Thursday 4 September 2014

पड़ोसी देश


पड़ोसी देशों का साथ अच्छी शुरुआत

नवभारत टाइम्स | May 26, 2014,

नवनियुक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शपथ ग्रहण समारोह कई मामलों में विशिष्ट है। पहली बार ऐसे मौके पर सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया है। इस तरह एक नई परंपरा की शुरुआत होने जा रही है जो निश्चय ही स्वागतयोग्य है। खासकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की इस समारोह में मौजूदगी सोने पर सुहागे जैसी है। इस पहल को लेकर कई तरह के विवाद भी खड़े हो गए हैं। कांग्रेस ने सवाल किया है कि कल तक पाकिस्तान को पानी पी-पीकर कोसने वाले मोदी ने नवाज शरीफ को कैसे बुला लिया? क्या पाकिस्तान को लेकर उनका स्टैंड बदल गया है? अगर हां, तो इस संबंध में वे अपनी नीति स्पष्ट करें। उसी तरह श्रीलंका के प्रेजिडेंट महिंद्रा राजपक्षे को बुलाए जाने पर दक्षिण की तमाम पार्टियां नाराज हैं। श्रीलंका के तमिलों से हमदर्दी रखने वाली डीएमके, एआईडीएमके के अलावा एनडीए में शामिल एमडीएमके की भी शिकायत है कि राजपक्षे ने अपने देश के तमिलों का हक मार रखा है। इस राजनीति की आंच श्रीलंका तक पहुंच गई है। राजपक्षे ने जब तमिल बहुल उत्तरी प्रांत के सीएम को शपथ ग्रहण समारोह में चलने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। नवाज शरीफ के आने को लेकर भी संदेह था पर उन्होंने न्योता कबूल करके यह संकेत दिया है कि मोदी की कोशिश को वे महत्व दे रहे हैं। दरअसल पाकिस्तान की तरह कई दूसरे देश भी मोदी को लेकर उत्सुक हैं। उन्हें लगता है कि भारत में भारी बहुमत से बन रही एक मजबूत सरकार के साथ रिश्तों का नया समीकरण शुरू हो सकता है। जहां तक मोदी का प्रश्न है, तो इस पहल के जरिए वह एक तरफ तो अपनी उग्र राष्ट्रवादी छवि से बाहर निकलना चाहते हैं और जताना चाहते हैं कि कूटनीतिक मोर्चे पर वे काफी गंभीर हैं, दूसरी तरफ अपनी पूर्ववर्ती सरकार से कुछ अलग करने का उनका इरादा भी है। दरअसल गुजरात दंगों के कारण पाकिस्तान और बांग्लादेश में उन्हें लेकर लोगों में संदेह रहा है। मोदी वह शक दूर करना चाहते हैं। उस दिशा में उनका यह पहला कदम है जो निश्चय ही चुनौतीपूर्ण है। हां, उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि शपथ ग्रहण समारोह की मुलाकात बस एक रस्म अदायगी बनकर न रह जाए। यहां से संवाद की एक ज्यादा गहरी प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए। कई बार राष्ट्र प्रमुखों के आपसी संबंध अच्छे हो जाते हैं पर नागरिकों के बीच खाई बनी रहती है। इसलिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि बदलाव के प्रॉसेस में नागरिक भी शामिल हों। मामला भारत-पाकिस्तान का हो या भारत-बांग्लादेश का, संवाद सीधे जनता के बीच बनना चाहिए। साथ में कारोबार से जुड़ी अड़चनें दूर करने के प्रयास हों। सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़े। पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैचों का सिलसिला तत्काल शुरू किया जाना चाहिए। पड़ोसी देशों को यह भी संकेत देना होगा कि भारत उनके साथ बड़े भाई का रिश्ता नहीं रखना चाहता, बराबरी के स्तर पर दोस्ती करना चाहता है। आज पड़ोसी राष्ट्राध्यक्ष हमारे यहां आए हैं, कल भारत की भागीदारी भी उन मुल्कों के शपथ ग्रहण समारोहों में इसी स्तर पर होनी चाहिए।
---------------------------

भरोसेमंद पड़ोसी  

 First Published:16-06-14 

विदेश नीति के मोर्चे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शायद एक अच्छी शुरुआत करना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने अपने पहले विदेश दौरे के लिए भूटान को चुना। भूटान भारत का अकेला ऐसा पड़ोसी है, जिसके साथ आपसी रिश्तों में किसी तरह की कोई खटास नहीं है। पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका, सभी के साथ छोटी-बड़ी उलझनें और समस्याएं हैं, लेकिन भारत और भूटान के बीच मोटे तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं है। कुछ साल पहले दोनों के बीच गलतफहमी की जो आशंका बनी थी, वह भी अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है। इस समय पूरे उपमहाद्वीप में भूटान भारत के लिए कई तरह से सबसे महत्वपूर्ण देश है। खासतौर पर ऐसे समय में, जब चीन तकरीबन हर तरफ से भारत को घेरने की कोशिश में जुटा है- वह श्रीलंका में बंदरगाह बना रहा है, नेपाल में सड़कें बना रहा है, म्यांमार के तेल कारोबार पर पकड़ बनाने की कोशिश तो वह पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से कर रहा है, बांग्लादेश के बाजार में भी उसकी अच्छी-खासी दखल है, पाकिस्तान तो खैर उसे अपना सदाबहार दोस्त मानता ही है। ऐसे में, अकेला भूटान ही है, जहां चीन की दाल अभी बहुत ज्यादा नहीं गल सकी है। भारतीय विदेश नीति के लिए भूटान में चीन के प्रवेश को रोकना फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती भी है, क्योंकि चीन ने वहां संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी है। ऐसी खबर भी है कि चीन भूटान की राजधानी थिंपू में अपना दूतावास खोलना चाहता है। इस पर फैसला अंतत: भूटान को ही करना होगा, क्योंकि वह अपने आप में एक संप्रभुता संपन्न देश है। यदि चीन दूतावास खोल भी लेता है, तो वह भूटान की अर्थव्यवस्था और राजनीति में अपनी पकड़ न बना सके, इसके लिए भारत को अभी से अपने सारे घोड़े खोलने होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूटान यात्रा इसकी शुरुआत हो सकती है। भूटान का भारत के साथ रवैया हमेशा सहयोग का रहा है और यह रवैया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की थिंपू यात्रा में भी दिखाई दिया। जिस तरह से वहां भारतीय प्रधानमंत्री का स्वागत किया गया और जिस तरह से भूटानी संसद को संबोधित करने का उन्हें मौका दिया गया, वह बताता है कि भूटान अपना भविष्य भारत के साथ ही देख रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां न सिर्फ एक विद्युत परियोजना का शिलान्यास किया, बल्कि आपसी कारोबारी रिश्ते बढ़ाने पर भी जोर दिया। भारत अभी तक भूटान पहुंचने का एकमात्र सप्लाई रूट है, जबकि भूटान भारत के ऊर्जा संकट को कुछ कम कर सकता है। भविष्य की मजबूत आधारशिला दरअसल इसी परस्पर निर्भरता को बढ़ाकर रखी जा सकती है। अगर भूटान के आर्थिक हित भारत के साथ जुड़ते हैं, तो यह दोनों देशों के लिए दीर्घकालिक फायदे की बात तो होगी ही, साथ ही दोनों देशों को लंबे समय तक एक-दूसरे से जोड़े भी रखेगी। चीन को पांव पसारने से रोकने का यही सबसे अच्छा तरीका है। रिश्ते सुधारते समय हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भूटान अब पुराना राजशाही वाला देश नहीं रहा। बेशक, राजशाही वहां अब भी है, लेकिन अब वहां लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार काम करती है। लोकतांत्रिक राजनीति में कई तरह के जोखिम होते हैं, इसे हम नेपाल के मामले में अच्छी तरह देख चुके हैं, जहां पिछले कुछ साल में ऐसी ताकतें सक्रिय हो गईं, जो वहां भारत विरोधी माहौल बनाती रही हैं, जिससे नेपाल भारत से छिटककर चीन के करीब चला गया है। ऐसे खतरे फिलहाल भूटान में नहीं हैं, फिर भी सतर्कता बहुत जरूरी है। वैसे भारत की तरह भूटान भी चीनी सेना की घुसपैठ से काफी पीड़ित है, यह बात भी दोनों को करीब लाती है।
-----------------------------

भूटान यात्रा से हुई एक नई शुरुआत

नवभारत टाइम्स | Jun 19, 2014

अवधेश कुमार
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यकीनन अपनी दो दिवसीय भूटान यात्रा से संतुष्ट होंगे। आखिर यह पहली बार था जब भूटान की संसद में किसी नेता के भाषण के लिए तालियां बजीं। भूटान की परंपरा में ताली बजाना अच्छा नहीं माना जाता। वहां मान्यता है कि ताली सिर्फ बुरी आत्माओं के लिए बजाई जानी चाहिए। लेकिन भूटानी संसद ने इस रिवाज को बदल दिया। वहां हिंदी में मोदी के संबोधन से सभी सांसदों के साथ-साथ भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे भी इतने प्रभावित हो गए कि वे अपने को रोक न सके। इसकी चर्चा इसलिए, क्योंकि इस एक तथ्य से हम यात्रा के दौरान बने माहौल का संदेश पढ़ सकते हैं।
निजी समझ की छाप
जाने से पहले मोदी ने भूटान पर पूरा होमवर्क किया था और इसे केवल नौकरशाहों पर नहीं छोड़ा था। इसलिए उन्होंने जब तोबगे या अन्य नेताओं से बातचीत की तो उससे वे काफी प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि यह आदमी संबंधों को उनकी संवेदनशीलता और व्यावहारिकता के साथ समझता है। यही नहीं, इसके पास हमारे साझा विकास के लिए भी दीर्घकालीन योजना है। नेतृत्व का ऐसा प्रभाव दो देशों के संबंधों में बेहतरीन सीमेंट की भूमिका निभाता है। वैसे भी पहली विदेश यात्रा के लिए भूटान का चयन मोदी के विचार को स्पष्ट करता है। दक्षिण एशिया को एक प्राकृतिक इकाई मानकर वे इसके सहकारी विकास के पक्ष में हैं, यह तो उन्होंने शपथग्रहण समारोह में ही साफ कर दिया था।  हिमालय क्षेत्र के अध्ययन के लिए विशेष टास्क फोर्स के गठन की तो घोषणा उन्होंने पहले ही कर दी है। भूटान में उन्होंने हिमालय केंद्रीय विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव रखा। हिमालय इस क्षेत्र की साझी विरासत ही नहीं, हमारी सभ्यता, संस्कृति और जीवन का मुख्य आधार है। ग्लोबल वार्मिंग हो या पर्यावरण के अन्य संकट, इनकी धमक सबसे पहले हिमालय तक पहुंचती है। जाहिर है, सभी देशों के समेकित कदमों से ही इसे बचाया जा सकता है, और इसका लाभ पूरे क्षेत्र को मिलेगा। मोदी की इस सोच की भूटान के प्रधानमंत्री ही नहीं, राजा जिग्मे खेसर वांगचुक ने भी काफी सराहना की। यदि वहां हिमालय केंद्रीय विश्वविद्यालय खुल जाता है, उसका भारत के कार्यबल से सीधा संबंध होता है तो यह एक स्थायी संबंध व सहकार का आधार बनेगा। चीन के साथ सामरिक रिश्तों में भी यह हमारे लिए मददगार साबित होगा। चीन से हमारा सीमा विवाद तो है ही, तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद भूटान और चीन के बीच भी 495 वर्गमील क्षेत्र विवादित है, हालांकि दोनों की आपसी सीमा सिर्फ 470 किलोमीटर की ही है। हमारे लिए भूटान का सामरिक महत्व इसलिए भी है कि सिलीगुड़ी का पतला इलाका, जिसे चिकन नेक कहा जाता है, जहां से पूर्वोत्तर के साथ हमारे संपर्क का एकमात्र रास्ता गुजरता है, वह भूटान की चुंबा घाटी के काफी करीब है। चीन की इस इलाके पर हमेशा से गहरी नजर रही है। इधर वह लगातार भूटान के साथ संपूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करने की कवायद करता रहा है और पिछली सरकार में उसे सफलता भी मिल रही थी। लेकिन भारत ने इसे अच्छा नहीं माना। भूटान में एक पक्ष चीन का समर्थक है और वह भारत विरोधी रुख अपनाता है। लेकिन वहां की जनता ने पिछले वर्ष चुनाव में उन ताकतों को पराजित कर दिया। चीन भारत से हर हाल में बेहतर संबंधों की बात करता है, लेकिन वह इसे घेरने की रणनीति से भी बाज नहीं आता। आप देख लीजिए, नेपाल में वह हमारी सीमा तक पहुंच रहा है। म्यांमार के सैनिक जुंटा के साथ रिश्ते बनाकर वह वहां गैस और तेल समेत कई क्षेत्रों में अपने पांव जमा चुका है। श्रीलंका में उसकी हैसियत काफी बढ़ चुकी है। बांग्लादेश में भी वह प्रवेश कर चुका है। पाकिस्तान में उसकी हैसियत के बारे में कहने को कुछ नहीं बचता। इसीलिए मोदी की दक्षिण एशिया पहल का महत्व सभी दृष्टियों से बढ़ जाता है। कम से कम भूटान में तो हम उसे सफल न होने दें। इसलिए मोदी ने यदि उसे आर्थिक दृष्टि से भरपूर मदद का वायदा किया है तो यह स्वागत योग्य है। इसी तरह दोनों देशों ने राष्ट्रीय हितों को लेकर सहयोग करने के साथ यह सहमति भी दुहराई कि वे अपनी जमीन का इस्तेमाल एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं होने देंगे। चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने कहा कि भारत और भूटान के रिश्ते से वह विचलित नहीं है। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में भारत और चीन के रिश्ते भी और मजबूत होंगे।
हालांकि उन्होंने यह कहा कि हम भूटान के साथ चीन के रिश्ते को महत्व देते हैं और इसे शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों पर विकसित करना चाहते हैं।सार्क के नए आयाम भूटान का महत्व हमारे लिए बिजली उत्पादन की दृष्टि से भी है। भारत ने भूटान में तीन जल विद्युत परियोजनाएं बनाने में मदद दी है और तीन अभी निर्माणाधीन हैं। इसी साल दोनों देशों के बीच 2120 मेगावाट की चार परियोजनाओं के लिए संयुक्त उपक्रम संबंधी समझौते पर हस्ताक्षर हुए। मोदी ने वहां 600 मेगावाट खोलुंगचू परियोजना का शिलान्यास भी किया। मोदी ने भूटान की मजबूती का सूत्र बिजली और पर्यटन को बताया और दोनों क्षेत्रों में पूरी मदद का आश्वासन दिया। इस यात्रा से सार्क रिश्तों के भी कुछ नए आयाम उभरते दिखे हैं।
----------------------------

सहयोग का सफर

जनसत्ता 5 अगस्त, 2014 : द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से भारत के किसी प्रधानमंत्री का नेपाल जाना सत्रह साल बाद हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेपाल जाने से कुछ दिन पहले विदेशमंत्री सुषमा स्वराज वहां गई थीं और तभी विदेश नीति में नेपाल की अहमियत बढ़ने के संकेत मिल गए थे। उन्होंने कहा कि नेपाल को भारत अपनी विदेश नीति में सर्वोच्च प्राथमिकता देता है, और अब मोदी ने दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊंचाई पर ले जाने की इच्छा जताई है। भारत और नेपाल के लोगों में सदियों से एक दूसरे के प्रति वास्तव में काफी लगाव भरा रिश्ता रहा है। इसलिए स्वाभाविक ही मोदी की यात्रा को लेकर न केवल नेपाल के राजनीतिक वर्ग में बल्कि आम लोगों में भी उत्साह का आलम था। मोदी ने भी उन्हें निराश नहीं किया। उन्होंने जहां एक तरफ नेपाल के विकास में भारत की तरफ से मिलते आ रहेसहयोग का भरोसा बढ़ाया, वहीं लोगों के दिलों को भी छूने की कोशिश की। उन्होंने बचपन में भारत आकर खो गए नेपाल के एक युवक को उसके परिजनों से मिलाने का यही वक्त चुना, और संविधान सभा को संबोधित करते हुए पहले कुछ पंक्तियां नेपाली भाषा में कहीं।    मोदी किसी बाहरी देश के दूसरे राजनेता हैं जिन्होंने नेपाली संसद को संबोधित किया; इससे पहले 1990 में जर्मनी के चांसलर हेलमुट कोल को यह मौका मिला था। नेपाल की संविधान सभा से मुखातिब होते हुए मोदी ने कहा कि दोनों देशों के संबंध हिमालय और गंगा जितने पुराने हैं। तमाम सौहार्दपूर्ण संबंध के बावजूद नेपाल में किसी हद तक यह धारणा भी रही है कि भारत उसके अंदरूनी मामलों में दखल देता है। शायद इसी के मद््देनजर मोदी ने कहा कि नेपाल की शांति प्रक्रिया उसका आंतरिक मामला है और इसे कैसे तर्कसंगत परिणति तक ले जाना है यह नेपाल को ही तय करना है। मोदी ने नेपाल के विकास में भारत के सहयोग की प्रतिबद्धता का इजहार करते हुए रियायती ब्याज दर पर एक अरब डॉलर के कर्ज की घोषणा की, जो कि खासकर ढांचागत परियोजनाओं के लिए होगा। बांग्लादेश के लिए भी भारत ने 2010 में इतना ही रियायती ऋण मंजूर किया था, जब वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना दिल्ली आई थीं। इसके अलावा, मोदी और नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला की मौजूदगी में तीन समझौते हुए, जो घेघा रोग से जूझ रहे नेपाल को आयोडीनयुक्त नमक की आपूर्ति, वहां आयुर्वेद को बढ़ावा देने और पर्यटन की संभावनाएं बढ़ाने से संबंधित हैं। भारत फिलहाल तीन हजार नेपाली छात्रों को वजीफा देता है। मोदी ने इसमें बढ़ोतरी का आश्वासन दिया। दोनों देशों के बीच महाकाली नदी पर बनने वाली पांच हजार छह सौ मेगावाट की बहुउद््देश्यीय परियोजना का काम तेज करने की सहमति बनी। मगर जिस ऊर्जा करार की काफी चर्चा थी, उस पर हस्ताक्षर नहीं हो सके, इसलिए कि इसमें निवेश संबंधी प्रावधान के स्वरूप को लेकर नेपाल को यह शंका थी कि उसकी ऊर्जा परियोजनाओं में भारत की दखलंदाजी का रास्ता खुल जाएगा। इस करार को विस्तृत समीक्षा के लिए टाल दिया गया। यह प्रसंग बताता है कि नेपाल के साथ अपने रिश्तों को नई ऊंचाई देने के प्रयास में हमें उत्साह के साथ-साथ सावधानी भी बरतने की जरूरत है। मोदी की यात्रा संपन्न होने के साथ ही यह भी खबर आई कि बिहार के कोशी क्षेत्र से हजारों लोगों को बाढ़ की आशंका के चलते पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। यह बात काफी समय से कही जाती रही है कि बिहार की बाढ़ की समस्या का समाधान नेपाल के सहयोग के बिना नहीं हो सकता। दोनों देशों को इस बारे में जल्द ही कोई ठोस साझा पहल करनी चाहिए। मोदी ने काठमांडो के पशुपतिनाथ मंदिर में रुद्राभिषेक करवाया और पच्चीस करोड़ की राशि धर्मशाला निर्माण के लिए मंदिर प्रबंधन को दी। बेहतर हो प्रधानमंत्री के नाते मोदी एकतरफा धार्मिक संदेशों के प्रसार को लेकर सजग दिखाई दें।
=============

नजदीकी की झलक
:Monday,Aug 04,2014 

नेपाल यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जैसा भव्य स्वागत हुआ उससे यह लगता है कि यह यात्रा दोनों देशों के बीच के रिश्तों को प्रगाढ़ करने में सहायक होगी। इसका संकेत नरेंद्र मोदी की ओर से नेपाल की संसद में दिए गए भाषण से भी मिलता है। उन्होंने दोनों देशों के अटूट ऐतिहासिक संबंधों पर जैसी रोशनी डाली वह उल्लेखनीय है। इसमें किसी को कोई संशय नहीं हो सकता और न होना चाहिए कि भारत और नेपाल के संबंध सदियों पुराने हैं। ये संबंध धार्मिक स्तर पर भी हैं और सांस्कृतिक स्तर पर भी। इसके अलावा दोनों देशों में बहुत कुछ ऐसा है जो साझा है और जिसके चलते दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे के प्रति मैत्री भाव भी रखते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले वषरें में इस मैत्री भाव को बढ़ाने का काम न तो भारत की ओर से हुआ और न ही नेपाल की ओर से। इसके चलते दोनों देशों के रिश्तों में खटास भी पैदा हुई और दूरियां भी बढ़ती दिखीं। इसके लिए एक हद तक भारत भी जिम्मेदार है और नेपाल भी। चूंकि नेपाल इस बीच उथल-पुथल के दौर से गुजरा और खासकर माओवादी संगठनों की हिंसक गतिविधियों से दो चार हुआ इसलिए भारतीय नेतृत्व का यह दायित्व बनता था कि वह इस पड़ोसी देश में अपने हितों की रक्षा के प्रति कहीं अधिक सतर्कता के साथ सक्रियता का परिचय देता। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि सांस्कृतिक-धार्मिक स्तर पर भारत के सबसे निकटतम पड़ोसी देश में किसी भारतीय प्रधानमंत्री को पहुंचने में 17 वर्ष लग गए। यह अंतराल इसी बात को रेखांकित करता है कि दोनों देशों के संबंध जिस तरह से आगे बढ़ने चाहिए थे उनमें अवरोध उत्पन्न हुआ। दोनों देशों के संबंधों में जो खिंचाव पैदा हुआ उसका लाभ चीन ने उठाया। देखना यह है कि मोदी सरकार नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने का काम कैसे करती है? उन्होंने अपनी इस यात्रा के दौरान नेपाल को यह जो भरोसा दिलाया कि वह एक संप्रभु राष्ट्र है और अन्य किसी को उसे दिशा देने की जरूरत नहीं उसका इसलिए विशेष महत्व है, क्योंकि नेपाल के कुछ लोगों में यह भावना रही है कि भारत उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता रहा है। इस दुष्प्रचार के आधार पर ही नेपाल का एक वर्ग अपने देश में भारत विरोधी भावना पैदा करने में सफल रहा और इससे कुल मिलाकर नेपाल को ही नुकसान उठाना पड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल को हर क्षेत्र में हरसंभव सहायता देने के वायदे के साथ जो विभिन्न परियोजनाएं दोनों देशों के सहयोग से संचालित हो रही हैं उन्हें पूरा करने की आवश्यकता पर बल दिया है। उनके इस कथन के संदर्भ में देखना यह होगा कि ये लंबित परियोजनाएं किस तेजी से आगे बढ़ पाती हैं, क्योंकि कई परियोजनाएं वषरें से लंबित हैं और उनकी लागत राशि भी बढ़ चुकी है। इसके विपरीत चीन ने जो परियोजनाएं अपने हाथ में ली हैं उन्हें कहीं अधिक तेजी से पूरा करने का काम कर दिखाया है। यह आवश्यक है कि भारत और नेपाल मिलकर उन परिस्थितियों को दूर करने की दिशा में आगे बढ़ें जो परियोजनाओं को समय रहते पूरा करने में बाधक बन रही हैं।
---------------------

ब्रिक्स बैंक से उम्मीदें

नवभारत टाइम्स | Jul 17, 2014

ब्राजील के फोर्टालेजा शहर में एक अलग ढंग का इतिहास रचा गया है। ब्रिक्स न्यू डिवेलपमेंट बैंक से न सिर्फ ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका की, बल्कि अन्य विकासशील देशों की भी विकास संबंधी अहम जरूरतें पूरी हो सकती हैं। इतना अहम प्रस्ताव पिछले दो वर्षों से लटका पड़ा था, क्योंकि बैंक के मालिकाना ढांचे का मसला हल होने में कुछ कसर रह जा रही थी। पांचों ब्रिक्स देशों में एक आर्थिक शक्ति के रूप में चीन का पलड़ा बहुत भारी है। उसकी अर्थव्यवस्था ब्रिक्स के संयुक्त जीडीपी की तकरीबन दो तिहाई है। चीन अपनी इस ताकत का असर ब्रिक्स बैंक की मालिकाना बनावट में भी जाहिर होते देखना चाहता था। उसका कहना था कि आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक की तरह ब्रिक्स बैंक की पूंजी में भी सदस्य देशों की साझेदारी उनके जीडीपी के हिसाब से हो। लेकिन भारत और ब्राजील का एतराज था कि ऐसा हुआ तो यह चीन को छोड़कर बाकी सभी ब्रिक्स देशों के लिए कुएं से निकलकर खाई में गिरने जैसा होगा। करीब सत्तर साल पहले स्थापित अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के कामकाज को लेकर विकासशील देशों का एतराज यही रहा है कि ये ताकतवर और अमीर देशों के असर में चलते हैं। कर्ज लेने वाले देशों पर ये कर्ज से जुड़ी इतनी शर्तें थोप देते हैं कि उन्हें निभाने में ही उनकी कमर टूट जाती है। दोनों देशों का कहना था कि ब्रिक्स बैंक के नेता के रूप में अगर चीन भविष्य में ऐसे ही तौर-तरीके अपनाता है तो एक न्यायसंगत वित्तीय ढांचे की उनकी रही-सही उम्मीद भी जाती रहेगी। गनीमत है कि चीन को यह बात समझ में आ गई। अभी न्यू डिवेलपमेंट बैंक को लेकर जो सहमति बनी है, उसके मुताबिक पांचों देश इसमें दस-दस अरब डॉलर की पूंजी लगाएंगे और बैंक इनके बराबर के मालिकाने में काम करेगा। कुल 100 अरब डॉलर की पूंजी और इतनी ही राशि के सुरक्षित विदेशी मुद्रा भंडार के साथ शंघाई स्थित मुख्यालय वाले इस बैंक की शुरुआत होनी है। भारत के लिए इसके दो फायदे तय हैं। एक, सड़क, रेल, बंदरगाह जैसे ढांचागत निर्माण कार्यों में कर्ज आसानी से मिल जाया करेगा, और दो, पिछले साल अमेरिकी स्टिमुलस में कटौती के वक्त विदेशी पूंजी के पलायन से देश के पूंजी बाजारों में जैसी अफरा-तफरी देखने को मिली थी, वैसी नौबत आगे उतनी आसानी से नहीं आएगी। भारत को पहले छह वर्षों के लिए इस बैंक की अध्यक्षता प्राप्त हुई है, जो गौरव का विषय तो है, लेकिन खुद में एक अतिरिक्त जिम्मेदारी भी है। एक अंतरराष्ट्रीय बैंक को जड़ से खड़ा करने की मुख्य जवाबदेही लेना गौरव से ज्यादा परिश्रम और कौशल का विषय माना जाना चाहिए। पश्चिमी देशों में, खासकर अमेरिका में ब्रिक्स की इस पहल को लेकर खासी हलचल है, क्योंकि इसकी कामयाबी से दुनिया का वित्तीय संतुलन बदल सकता है। शायद इसीलिए उधर के अखबारों का मूल स्वर यह है कि बना तो लिया, अब चलाकर दिखाओ। 

ब्रिक्स का हासिल

जनसत्ता 17 जुलाई, 2014 : रूस, चीन, ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका के समूह का छठा शिखर सम्मेलन शायद अब तक का सबसे सफल सम्मेलन कहा जाएगा। अक्सर ऐसी वार्ताएं आपसी सहयोग, निवेश और व्यापार बढ़ाने की सहमति जता कर ही पूरी हो जाती हैं। लेकिन ब्राजील के समुद्रतटीय शहर फोर्तालेजा में ब्रिक्स का ताजा शिखर सम्मेलन एक अहम फैसले के साथ संपन्न हुआ। सभी पांच सदस्य देशों की सहमति से एक विकास बैंक की स्थापना करने की घोषणा की गई। यों इस तरह का बैंक शुरू करने की सैद्धांतिक सहमति ब्रिक्स के पिछले यानी डरबन सम्मेलन में ही बन गई थी। लेकिन उसके कोष, सदस्य देशों की हिस्सेदारी और संचालन के तौर-तरीकों को लेकर तब कोई साफ रूपरेखा नहीं बन सकी। अब ब्रिक्स ने ये मसले सुलझा लिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए पड़ोसी देश भूटान को चुना। पर किसी बहुपक्षीय बातचीत के लिए उनकी पहली विदेश यात्रा ब्राजील की रही और इसमें भारत को अहम कामयाबी मिली। इस अवसर पर मोदी को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ द्विपक्षीय मसलों पर भी बातचीत का मौका मिला। मोदी ने उनसे सीमा विवाद स्थायी रूप से हल करने की इच्छा जताई। इस बारे में चीन का रुख अब भी साफ नहीं है। पर जिनपिंग ने इक्कीस सदस्य देशों वाले एपेक यानी एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग के नवंबर में होने वाले शिखर सम्मेलन में शिरकत के लिए मोदी को न्योता देकर सौहार्द का संकेत जरूर दिया है। ब्रिक्सके तत्त्वावधान में विकास बैंक स्थापित करने का प्रस्ताव सबसे पहले भारत की तरफ से ही आया था। पर तब से यही धारणा थी कि इसके कोष में चीन का हिस्सा औरों से अधिक होगा। पर मोदी ने जोर दिया कि सबकी समान भागीदारी हो। और आखिरकार यह बात मान ली गई। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के अनुभवों के मद््देनजर इसकी अहमियत समझी जा सकती है। विश्व बैंक के फैसलों को अमेरिका और जापान ज्यादा प्रभावित करते हैं, क्योंकि उसमें उनका हिस्सा अधिक है। विश्व बैंक का अध्यक्ष अमूमन कोई अमेरिकी ही होता आया है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का कोई यूरोपीय। फिर, इन दोनों वैश्विक वित्तीय संस्थानों की ऋण देने की नीति विकासशील देशों को रास नहीं आती, क्योंकि वे बहुत तरह की शर्तें जोड़ देते हैं। समान भागीदारी की बात स्वीकार कर लिए जाने का व्यावहारिक नतीजा यह होगा कि ब्रिक्स का कोई देश अपनी मनमर्जी नहीं चला सकेगा, जैसा कि चीन को लेकर अंदेशा था। विकास बैंक का मुख्यालय चीन के सबसे बड़े व्यापारिक शहर शंघाई में होगा, पर बैंक की अध्यक्षता का पहला मौका भारत को मिलेगा। इसकी एक क्षेत्रीय शाखा दक्षिण अफ्रीका में होगी। सौ अरब डॉलर से शुरू होने वाला यह बैंक ब्रिक्स के सदस्य देशों और अन्य विकासशील मुल्कों को ढांचागत परियोजनाओं और दूसरे विकास-कार्यों के लिए कर्ज देगा। बैंक की एक और अहम भूमिका आकस्मिक निधि या आपातकालीन मदद की होगी। 
विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के कड़वे अनुभवों को देखते हुए बहुत-से विकासशील देश ब्रिक्स बैंक की तरफ आकर्षित हो सकते हैं। हो सकता है इसका दूरगामी असर यह भी हो कि अमेरिका, यूरोप और जापान विश्व बैंक और मुद्राकोष की रीति-नीति में कुछ बदलाव लाने के बारे में सोचें। अलबत्ता यह कब और किस हद तक होगा, इसके बारे में कुछ कहना फिलहाल जल्दबाजी होगी। ब्रिक्स के सभी सदस्य देश बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले हैं और जी-20 में भी सहभागी रहे हैं। जी-20 में उनकी सहभागिता ने एक समय दुनिया को बड़ी राहत दी थी। जब 2008 की मंदी के दौर में अमेरिका गहरे संकट में था और अन्य विकसित देशों के भी हाथ-पांव फूले हुए थे, ब्रिक्स के सदस्य देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को कमोबेश संभाले रखा। अपने विकास बैंक के साथ ब्रिक्स विश्व की आर्थिक गतिविधियों में और भी उपयोगी भूमिका निभा सकता है। 

ब्रिक्स विकास बैंक

8, Jul, 2014, Friday

ब्राजील के फोर्टेलिजा शहर में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण उपलब्धि रही ब्रिक्स विकास बैंक की स्थापना की घोषणा। यूं पहले के सम्मेलनों में इस आशय के प्रस्ताव आए, लेकिन उसे मूर्तरूप दिए जाने में अड़चनें आती रहीं। ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के इस संगठन में आर्थिक रूप से सबसे अधिक संपन्न और सक्षम चीन ही है, इसलिए उसकी स्वाभाविक इच्छा थी कि उसका वर्चस्व इस बैंक पर रहे। इसके लिए उसका प्रस्ताव था कि ब्रिक्स बैंक में सदस्यों की हिस्सेदारी उनके जीडीपी के मुताबिक रहे। इस स्थिति में पलड़ा हमेशा चीन का ही भारी रहता। अन्य देशों को यह स्थिति कतई मंजूर नहींथी। इसलिए बैंक स्थापित करने का प्रस्ताव टलता रहा। लेकिन इस बार सबके बीच सहमति बनी कि सौ अरब डालर की संयुक्त पूंजी से इस बैंक को बनाया जाए। बैंक का मुख्यालय चीन के शंघाई में होगा, एक क्षेत्रीय कार्यालय दक्षिण अफ्रीका में होगा, तथा इसका सबसे पहला अध्यक्ष भारत से होगा। इन तमाम बातों से महत्वपूर्ण यह है कि विश्व के कारोबार, अर्थव्यवस्था, विकासशील और पिछड़े देशों में आर्थिक दखल देने वाले वल्र्ड बैंक और इंटरनेशनल मानेटरी फंड (आईएमएफ) के बढ़ते वर्चस्व और प्रभुत्व को रोका जा सकेगा, संतुलित किया जा सकेगा। भारत जैसे विकासशील देश से अधिक इस बात को कौन समझ सकता है कि किस तरह विकास को बढ़ावा देने की आड़ में ये दोनों वित्तीय संस्थाएं तरह-तरह की शर्तों और प्रावधानों के साथ ऋण देती हैं। इस ऋण से एक ओर निर्माण के भारी-भरकम कार्य होते दिखते हैं और दूसरी ओर चुपके से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर ऐसा प्रहार होता है कि आजीवन ऋण के चंगुल में देश फंस जाता है। फिर ऋणमुक्ति के नाम पर देश की राजनैतिक व्यवस्था में दखलंदाजी होती है, सरकारों को कठपुतली की तरह नचाया जाता है। अमरीका और यूरोप की समूची दुनिया में दादागिरी इन दो संस्थाओं के बल पर ही कायम हुई है। यह अकारण नहींहै कि विश्वबैंक का अध्यक्ष हमेशा कोई अमरीकी और आईएमएफ का अध्यक्ष कोई यूरोपीय रहता आया है। बहरहाल ब्रिक्स विकास बैंक के निर्माण से यह उम्मीद जरूर कायम हुई है कि दुनिया के विकासशील और पिछड़े देशों को वल्र्ड बैंक और आईएमएफ पर निर्भर होने की आवश्यकता नहींरहेगी। यह बैंक न केवल ब्रिक्स के सदस्य देशों वरन अन्य देशों को भी उनकी जरूरत के मुताबिक कर्ज देगा। विश्व बैंक और आईएमएफ ने आर्थिक वर्चस्व तो बनाए रखा, किंतु ढांचागत परियोजनाओं व अन्य जरूरतों के लिए जितने कर्ज की आïवश्यकता होती है, उतना वे कभी नहींदे पाए। विश्व बैंक की ही वेबसाइट बताती है कि विकासशील देशों को हर साल 40 से 60 अरब डालर के करीब कर्ज दिया जाता है, जबकि उनकी जरूरत एक खरब डालर के आसपास है। ब्रिक्स विकास बैंक विकासशील देशों की जरूरत के मुताबिक उन्हें कर्ज मुहैया कराएगा, तो विश्वबैंक और आईएमएफ पर निर्भरता कम होगी।
पिछले कुछ सालों से वैश्विक मंदी के कारण अमरीका व यूरोप की अर्थव्यवस्था डांवाडोल रही है, जबकि ब्रिक्स देश इस मंदी में संभले रहे। इसका कारण उनकी पारंपरिक आर्थिक नीतियां रही हैं। ब्रिक्स विकास बैंक भी कम समय में अधिक मुनाफा कमाने के फेर में पड़े बिना पारंपरिक आर्थिक नीतियों को अपनाए रहेगा और वैश्विक अर्थव्यवस्था में आने वाले उतार-चढ़ाव में खुद को संभाले रहेगा, तो इससे न केवल उसके सदस्य देशों को लाभ होगा, बल्कि विश्व के कई मंझोले और छोटे देश भी लाभान्वित होंगे। विश्व के विकसित देशों की तरह विकासशील देशों में अधोसंरचना का विकास हो, सड़क, रेल, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग जैसे अनेक क्षेत्रों में समान रूप से बढऩे के अवसर मिलें तो मौजूदा वक्त के कई संकटों से निजात पायी जा सकती है। विश्व शांति और मानवता के विकास के लिए यह जरूरी है कि विश्व में आर्थिक असमानता निरंतर घटे। ब्रिक्स विकास बैंक इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। 
-----------------------------

सही दिशा में विदेश नीति

Sun, 31 Aug 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वर्तमान जापान यात्रा रणनीतिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इससे समान विचारधारा वाली विश्व की एक बड़ी शक्ति के साथ हमारे संबंधों को और प्रगाढ़ करने में मदद मिलेगी। यह यात्रा इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि इससे चीन केंद्रित एशिया के उभार को रोका जा सकेगा। चीन के लगातार आक्त्रामक होते रुख के कारण एशिया के वर्तमान हालात को शक्ति असंतुलन के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। भारत-जापान धुरी के माध्यम से शक्ति संतुलन को वापस बहाल करने में मदद मिलेगी। चीन, भारत और जापान एशिया के सामरिक त्रिकोण का निर्माण करते हैं। इस त्रिकोण के एक तरफ चीन है तो दूसरी तरफ भारत और तीसरी तरफ जापान है। यदि देखा जाए तो इस त्रिकोण की दो भुजाएं भारत और जापान का योग सदैव चीन पर भारी पड़ेगा, फिर बात चाहे आर्थिक हो अथवा सैन्य संबंधी। यही तर्क अथवा संभावना जापान और भारत को एक-दूसरे के करीब लाती है। यह संभावना ही वह प्रमुख कारण है जिसके चलते चीन भारत और जापान की धुरी से भयभीत है।
जापान-भारत संबंध एशिया में सबसे तेजी से मजबूत हो रहे द्विपक्षीय संबंध हैं। आने वाले वषरें में यह सहभागिता एशियाई सामरिक संदर्भ में निर्णायक भूमिका निभाएगी। जापान की यात्रा मोदी के लिए तीन महत्वपूर्ण द्विपक्षीय बैठकों में प्रथम है। सितंबर के मध्य में वह चीन के राष्ट्रपति से नई दिल्ली में मुलाकात करेंगे और फिर 30 सितंबर को वाशिंगटन यात्रा पर जाएंगे, जहां वह अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात करेंगे। इन तीन बैठकों के माध्यम से वह न केवल भारतीय विदेश नीति पर अपनी छाप छोड़ेंगे, बल्कि आने वाले वषरें के लिए वह देश की कूटनीति के मानदंडों को भी तय करने का काम करेंगे। मोदी की वर्तमान जापान यात्रा से निश्चित ही दोनों लोकतांत्रिक देशों के बीच संबंध और गहरे होंगे। इनमें से एक दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो दूसरा देश एशिया का सबसे पुराना लोकतंत्र होने के साथ ही सर्वाधिक धनी देश भी है। यह यात्रा भारत के विकास में जापान की वृहद भूमिका की नींव तैयार करने का काम करेगी। दोनों के बीच सैन्य मामलों में भी व्यापक सहयोग की संभावना है। जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबी ने हाल ही में किसी भी देश से हथियारों के आयात पर लगी रोक हटा ली है।
जब चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग नई दिल्ली यात्रा पर आएंगे तो मोदी के समक्ष अधिक कठिन चुनौती होगी, क्योंकि सीमा पर चीन दिनोंदिन अधिक मुखर हो रहा है। अपने चुनाव अभियान के दौरान मोदी ने चीन से अपनी विस्तारवादी नीति को त्यागने को कहा था। कहने की आवश्यकता नहीं कि मोदी चीन के विशाल विदेशी मुद्रा भंडार की दृष्टि से भारत के विकास में भागीदार के रूप में बीजिंग का भी सहयोग चाहेंगे। यह कुछ उन विश्लेषकों के शुरुआती आकलन के विरुद्ध है जो मानते थे कि मोदी सरकार का रुख बीजिंग के प्रति वैसा नहीं होगा जैसा कि पूर्ववर्ती सरकार का था। माना जा रहा है कि मोदी का विशेष रूप से ध्यान दोनों देशों के बीच असंतुलित व्यापार संबंधों को ठीक करने पर केंद्रित होगा। भारत के आयात के मुकाबले बीजिंग तीन गुना अधिक निर्यात करता है। वह अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए पड़ोसी देशों के कच्चे माल का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करता है। प्रधानमंत्री ने इस बारे में पहले ही खाका तैयार कर लिया है ताकि भारत के बुनियादी ढांचे के आधुनिकीकरण की उनकी योजना के लिए चीनी निवेश को आकर्षित किया जा सके। यह निवेश विशेषकर रेलमार्ग, बिजली स्टेशन और औद्योगिक पार्क के लिए हो सकता है। शी चिनफिंग की यात्रा के लिए जमीन तैयार करते हुए मोदी चीन के साथ मित्रवत व्यवहार चाहते हैं। प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने किसी भी अन्य विदेशी उच्चाधिकारी का स्वागत करने से पूर्व सबसे पहले चीनी विदेश मंत्री का स्वागत किया। किसी भी बड़े देश के शासनाध्यक्ष के साथ द्विपक्षीय मुलाकात के तौर पर उन्होंने ब्राजील में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन के दौरान शी चिनफिंग से मुलाकात की। उन्होंने सितंबर में शी चिनफिंग को भारत आने के लिए आमंत्रित किया, जबकि उन्होंने अपनी जापान यात्रा को आठ सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया था। इतना ही नहीं, मोदी प्रस्तावित नए ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक की मेजबानी शंघाई को सौंपने पर सहमत हुए और तय हुआ कि एक भारतीय व्यक्ति ही इसका प्रथम अध्यक्ष होगा। हालांकि केवल इससे ही तनाव खत्म नहीं हो जाता।
मोदी ने चुनावी जीत के बाद घोषणा की कि आने वाला दशक और यह शताब्दी भारत की होगी। इस संदर्भ में चीन का भी मानना है कि 21वीं शताब्दी उसकी होगी। भारत के गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू ने हाल ही में संसद को बताया कि चीनी सीमा अतिक्रमण की घटनाएं बढ़ी हैं, जो प्रतिदिन एक से अधिक हैं। बीते चार अगस्त तक इस तरह की कुल 334 घटनाएं हुई हैं। भारत के लिए यह साफ है कि चीन अभी भी उसके लिए आर्थिक संभावनाओं से कहीं अधिक सामरिक प्रतिद्वंद्वी है। मोदी ने अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताएं स्पष्ट रखी हैं। अमेरिका को अधिक महत्व देना यही बताता है कि मोदी ने व्यक्तिगत मसलों के बजाय राष्ट्रीय हितों को तरजीह दी है। पूर्व में अमेरिका उन्हें वीजा देने से इन्कार करता आया था, लेकिन चुनावों में जीत हासिल होने के बाद अमेरिका ने तेजी से अपने रुख में बदलाव किया। मई में चुनावों में जबरदस्त जीत के बाद मोदी ने तत्काल राष्ट्रपति ओबामा द्वारा व्हाइट हाउस आने का आमंत्रण स्वीकार करने से पूर्व अमेरिकी अधिकारियों के आने का इंतजार किया। सच्चाई यही है कि अमेरिका-भारत संबंध ओबामा के नेतृत्व में धीरे-धीरे कमजोर हुए हैं और बमुश्किल ही अब वाशिंगटन भारत का सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता रह गया है। दिसंबर में एक भारतीय महिला राजनयिक की न्यूयार्क में गिरफ्तारी और पुलिस द्वारा उनकी अशालीन तरीके से जांच किए जाने के बाद ये संबंध नकारात्मक रूप से और भी प्रभावित हुए। मोदी द्विपक्षीय संबंधों को फिर से गति देने के लिए संभवत: तैयार हैं, लेकिन वह ऐसे समय में वाशिंगटन में होंगे जब ओबामा घरेलू और विदेशी मोचरें पर तमाम संकटों का सामना कर रहे हैं। चीन के बजाय मोदी जापान के साथ अपने संबंधों को अधिक प्रगाढ़ करना चाहते हैं।
जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबी ने मोदी की यात्रा को सफल बनाने के लिए कठिन परिश्रम किया है, क्योंकि दोनों देशों के बीच संबंधों को टोक्यो में इस रूप में देखा जाएगा कि इससे जापान विश्व शक्ति के रूप में पुन: उभरेगा। बदले में भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को लाभ होगा। एबी जानते हैं कि मोदी जापान के साथ सामरिक संबंध के माध्यम से बीजिंग को संदेश देना चाहते हैं। मोदी की अत्यधिक सफल रही नेपाल और भूटान यात्रा और महत्वपूर्ण जापान यात्रा यही बताती है कि आगे की ओर देखने वाली विदेश नीति को लेकर उनका दृष्टिकोण स्पष्ट है। भारत के लिए वषरें की कमजोर नीति के बाद यह एक कदम आगे की बात है।
[लेखक ब्रह्मा चेलानी, सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
-----------------------

दोस्ती की बुनियाद

Tue, 02 Sep 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टोक्यो में जापान के साथ मित्रता की नई आधारशिला रखते हुए जिस तरह चीन को भी यह संदेश दिया कि वह अपनी विस्तारवादी नीति का परित्याग करे उसका महत्व इसलिए और बढ़ जाता है, क्योंकि कुछ ही दिनों बाद चीनी राष्ट्रपति भारत की यात्रा पर आने वाले हैं। चीन को संदेश देकर नरेंद्र मोदी ने यह स्पष्ट किया कि उसके मुकाबले भारत और जापान के संबंध कहीं अधिक मजबूत आधार वाले हैं। इस आधार को बल प्रदान करने का काम किया दोनों देशों के बीच हुए विभिन्न समझौतों ने। इन समझौतों के तहत जापान अगले पांच वषरें में भारत में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में 35 अरब डॉलर निवेश करेगा। यह हर लिहाज से एक बड़ी रकम है। नरेंद्र मोदी ने जापानी उद्यमियों को जिस तरह भारत के बदले हुए माहौल के बारे में बताया और इस दौरान उन्हें यह भरोसा दिलाने की कोशिश की कि अब देरी और अड़ंगेबाजी के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है उससे उन्होंने परोक्ष रूप से दुनिया के उद्यमियों को भी एक संदेश दिया। ऐसे संदेश की आवश्यकता इसलिए थी, क्योंकि संप्रग सरकार के दौर में भारत एक तरह से इसके लिए कुख्यात हो गया था कि यहां कोई भी काम समय पर नहीं होता और कदम-कदम पर बाधाएं सामने आती रहती हैं।
यह सही है कि भारत और जापान के बीच असैन्य परमाणु समझौता नहीं हो पाया, लेकिन इसकी उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में नाभिकीय ऊर्जा के मोर्चे पर भी भारत को जापान का सहयोग मिलेगा। इसके लिए जापान के साथ-साथ भारत को भी लचीला रुख अपनाना पड़ सकता है। अभी जहां जापान की कुछ नीतियां भारत के साथ असैन्य परमाणु समझौते को अंतिम रूप देने में आड़े आ रही हैं वहीं भारत की भी ऐसी ही स्थिति है। इस संदर्भ में यह किसी से छिपा नहीं कि भारत ने परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश करने वाली विदेशी कंपनियों पर ऐसी कठोर शतरें वाला कानून तैयार किया है जिसके चलते कोई भी विकसित देश भारत से समझौता करने में हिचक रहा है। देखना यह है कि भारत सरकार अपने इस कानून पर नए सिरे से विचार करने के लिए तैयार होती है या नहीं? यह आश्चर्यजनक है कि भारत और जापान के स्वाभाविक मित्र बनने के पर्याप्त आधार होने के बावजूद दोनों देशों की दोस्ती आगे क्यों नहीं बढ़ सकी? दोनों देशों में आर्थिक-सामाजिक सहयोग की तमाम संभावनाएं तो हैं ही, सांस्कृतिक स्तर पर भी बहुत कुछ ऐसा है जिससे दोनों देश खुद को एक-दूसरे के निकट पाते हैं। सांस्कृतिक स्तर पर साम्य किसी भी दो देशों की मित्रता का आधार होता है। मोदी की जापान यात्रा जैसे ही समाप्त होगी वैसे ही चीन के राष्ट्रपति की भारत यात्रा की ओर देश-दुनिया की निगाहें होंगी। चीन भारत से संबंध सुधार का इच्छुक है, लेकिन उसके साथ संबंध सुधार में भरोसे की कमी आड़े आ रही है। उम्मीद है कि चीनी राष्ट्रपति अपने आगामी भारत दौरे में इस कमी को दूर करने में सफल होंगे। चीनी राष्ट्रपति के भारत आगमन के बाद मोदी अमेरिका की यात्रा के लिए रवाना होंगे और इस यात्रा से दोनों देशों को तमाम उम्मीदें हैं। यदि वे पूरी होती हैं तो सितंबर माह विदेश नीति के मोर्चे पर एक मील के पत्थर के रूप में जाना जा सकता है।
[मुख्य संपादकीय]
--------------------

दोस्ती का नया रंग

नवभारत टाइम्स | Sep 3, 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी यात्रा से भारत-जापान संबंध में एक नई जीवंतता ला दी है। यूं तो जापान से हमारी दोस्ती बहुत पुरानी रही है पर मोदी ने तमाम राजनयिक चौखटों से आगे बढ़कर इसमें विश्वास और स्नेह की गर्माहट पैदा की है। यहां यह कहना जरूरी है कि ठीक वैसी ही गर्मजोशी जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे की तरफ से भी देखने को मिली है। जापान की सांस्कृतिक नगरी क्योतो को काशी से जोड़कर मोदी ने दोनों देशों की जनता को यह संदेश देने का प्रयास किया कि हमारे आपसी संबंध कूटनीति और कारोबार से ज्यादा एक साझा संस्कृति की बुनियाद पर टिके हैं। हालांकि इस ऐतिहासिक मौके पर चीन का उल्लेख इशारों में भी करने से बचना चाहिए था। वैसे तो भारतीय प्रधानमंत्री ने चीन पर टिप्पणी उसका नाम लिए बगैर की, पर दो देशों की वार्ता में तीसरे का परोक्ष उल्लेख भी कूटनीतिक दृष्टि से उचित नहीं माना जाता। ठीक है कि एशिया में चीन के बढ़ते वर्चस्व को संतुलित करने के लिए भारत और जापान का यह समीकरण वक्त की जरूरत है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन के साथ भी हमारे रिश्ते, खासकर कारोबारी रिश्ते बेहद महत्वपूर्ण हैं। जब तक बहुत जरूरी न हो, तब तक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए, जिससे इन रिश्तों में खटास पैदा हो। एक तरह से देखें तो एशिया के बदलते कूटनीतिक समीकरणों में भारत फिलहाल लाभ की स्थिति में है। चीन के साथ जारी टकराव को देखते हुए जापान किसी भी कीमत पर भारत को अपने साथ लेना चाहता है। कमोबेश ऐसी ही चाहत अमेरिका की भी है। लेकिन हमारे रिश्ते तीनों के साथ अच्छे हैं और इस समीकरण को निभाते रहने का फायदा हमें कई स्तरों पर मिलने वाला है। जापान के साथ नजदीकी बढ़ाते हुए हमें यह भी देखना होगा कि कोरिया, वियतनाम और सिंगापुर जैसे छोटी-मझोली एशियाई ताकतों की स्मृति में जापान की छवि एक निर्मम साम्राज्यवादी देश की है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान से इन्हें जो घाव मिले हैं, उन्हें वे शायद कभी भुला न पाएं। ऐसे में सारी अनौपचारिकता के बावजूद एशियाई कूटनीति हमसे थोड़ी सजगता की मांग करती है। बहरहाल, भारतीय प्रधानमंत्री की इस यात्रा में जापान अपनी तरफ से अधिकतम जो कुछ भी दे सकता था, वह सब उसने दिया। शिंजो एबे ने भारत के निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में अपने निवेश को दोगुना करने की घोषणा करते हुए कहा कि अगले पांच साल में उनका देश यहां 35 अरब डॉलर लगाएगा। यह राशि आधारभूत संरचना, मैन्युफैक्चरिंग, स्मार्ट सिटी, स्वच्छ ऊर्जा और नदियों की साफ-सफाई से जुड़ी परियोजनाओं पर खर्च की जाएगी। अमेरिका की तरह एटमी डील अभी जापान के साथ नहीं हो पाई है, लेकिन दोनों देशों के बीच परमाणु सहयोग बढ़ाने पर सहमति हुई है। जापान ने निर्यात के लिए प्रतिबंधित भारत की अंतरिक्ष और रक्षा से जुड़ी छह संस्थाओं को फॉरेन एंड यूजर लिस्ट से हटा दिया। निश्चय ही दोनों देशों का यह नया रिश्ता दुनिया पर गहरा असर डालेगा।

No comments: