Thursday 4 September 2014

मोदी सरकार के फैसले


पहला फैसला   
     Thursday,May 29,2014  

मोदी सरकार ने अपने पहले फैसले के तहत जिस तरह कालेधन की जांच व निगरानी करने के लिए विशेष जांच दल गठन के प्रस्ताव को अपनी सहमति प्रदान की, उससे न केवल उसके इरादों की झलक मिलती है बल्कि समस्याओं के समाधान के प्रति उसकी गंभीरता भी रेखांकित होती है। इस फैसले से यह भी पता चलता है कि किस तरह सरकार बदलते ही उसकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। कालेधन के कारोबार पर नकेल कसने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल के गठन का फैसला 2011 में किया था और वह भी इसलिए, क्योंकि तत्कालीन मनमोहन सरकार इस मसले पर आनाकानी कर रही थी। माना यह जा रहा था कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अपनी सहमति प्रदान करेगी, लेकिन उसने तमाम किंतु-परंतु के साथ यह कहना शुरू कर दिया कि इस तरह का कोई जांच दल बनाना ठीक नहीं होगा। आम जनता को यह अजीब लगा, लेकिन सरकार हीलाहवाली दिखाती रही। उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका भी दायर कर दी। यह सब तब किया गया, जब आम जनता कालेधन पर सरकार के रवैये को लेकर क्षुब्ध थी। हालांकि तत्कालीन सरकार के अड़ियल रवैये के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय पहले एक बार फिर न केवल विशेष जांच दल के गठन की जरूरत पर बल दिया, बल्कि इस दल के गठन से संबंधित खाका भी तैयार कर दिया। इसके बावजूद संप्रग सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने से बचती रही और जब उसे लगा कि उसकी सत्ता में वापसी नहीं हो रही तो उसने हाथ खड़े कर दिए। यह हास्यास्पद है कि मोदी सरकार के फैसले पर कांग्रेस के नेता यह तर्क दे रहे हैं कि कालेधन पर विशेष जांच दल के गठन के लिए नई सरकार को किसी तरह का श्रेय लेने से बचना चाहिए। ऐसे विचित्र तर्क देने के पहले उन्हें इस पर गौर करना चाहिए कि उनके नेतृत्व वाली सरकार इस तरह का श्रेय लेने के बजाय सुप्रीम कोर्ट का समय क्यों बर्बाद करती रही? उन्हें यह भी समझना होगा कि जनता की याददाश्त इतनी कमजोर भी नहीं होती। कांग्रेस के नेताओं को यह बताना चाहिए कि अगर कालेधन पर विशेष जांच दल को लेकर उनकी सरकार का रवैया सही था तो फिर सुप्रीम कोर्ट से उसे बार-बार फटकार क्यों पड़ती रही? बेहतर हो कांग्रेसजन यह समझें कि संप्रग सरकार के ऐसे ही रुख-रवैये के कारण उसकी इतनी फजीहत हुई और उसे सत्ता से बाहर होना पड़ा। कालेधन का मसला एक लंबे अर्से से चर्चा में है। यह महज एक धारणा ही नहीं, बल्कि तथ्य भी है कि विदेशों में जमा कालेधन का एक बड़ा हिस्सा वह है जो अवैध तरीके से अर्जित किया गया। यह शर्मनाक है कि भ्रष्ट उपायों से अर्जित कालेधन पर अंकुश लगाने के बजाय तब की सरकार ने आनाकानी करना बेहतर समझा। कालेधन के कारोबार पर अंकुश लगे, यह देखना अदालत का काम नहीं, लेकिन संप्रग सरकार के रवैये के कारण सुप्रीम कोर्ट को यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा। सच तो यह है कि संप्रग सरकार के ढीले-ढाले रवैये के कारण न्यायपालिका को कार्यपालिका के हिस्से के और तमाम काम अपने हाथ में लेने पड़े। इसके चलते ही आम जनता को यही संदेश गया कि संप्रग सरकार तो कुछ कर ही नहीं रही है।
(मुख्य संपादकीय)
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मोदी ने पेश किया 10 सूत्रीय एजेंडा
29-05-14

नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार के कामकाज के लिए 10 सूत्रीय एजेंडा पेश कर दिया है और अपने मंत्रियों को तीन मंत्र दिए हैं। एजेंडे के तहत अर्थव्‍यवस्‍था, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, ऊर्जा और सड़क जैसी चीजों को प्राथमिकता देने की बात कही गई है। जबकि, मंत्रियों को दिए गए मंत्र में सुशासन, कार्यकुशलता और योजनाओं क्रा क्रियान्‍वयन शामिल हैं। 

नई सरकार के गठन के तीसरे दिन गुरुवार को मोदी कैबिनेट की दूसरी बैठक में यह फैसला हुआ। मंत्रियों को अपनी प्राथमिकता सूची तैयार करने के लिए भी कहा गया है। कैबिनेट की बैठक के बाद संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडू ने इन बातों की जानकारी दी: 

- चार जून को लोकसभा का सत्र बुलाया जाएगा। सत्र चार जून से लेकर 11 जून तक चलेगा।
- कमलनाथ प्रोटेम स्‍पीकर होंगे और राष्‍ट्रपति ने इसकी मंजूरी दे दी है।
- राज्‍यसभा की कार्यवाही 9 जून से एक संयुक्‍त सत्र के साथ शुरू होगी।
- चार और पांच जून को सांसदों को शपथ दिलाई जाएगी।
- प्रधानमंत्री ने सरकार की प्राथमिकताएं तय की हैं। सुशासन, कार्यकुशलता और नीतियों को लागू करने पर रहेगा जोर।
- शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, पानी, ऊर्जा और सड़क जैसे मामले सरकार की प्राथमिकता।

मोदी ने अपनी सरकार के लिए जो 10 सूत्रीय एजेंडा पेश किया है, वह इस प्रकार है:  

1. नौकरशाहों में विश्वास पैदा कर उनका मनोबल बढ़ाया जाएगा ताकि वे नतीजों का सामना करने से डरे नहीं।
2. नए विचारों और सुझावों का स्वागत किया जाएगा।
3. शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, ऊर्जा और सड़क जैसे मामलों को दी जाएगी प्राथमिकता।
4. सरकार में पारदर्शिता लाई जाएगी। टेंडर और अन्य सरकारी कामों के लिए ई-ऑक्शन (ऑनलाइन माध्यम से बोली) 
की व्यवस्था होगी।
5. जीओएम गठित करने के बजाय मंत्रालयों के बीच तालमेल विकसित किया जाएगा।
6. जनता से किए गए वादों को पूरा करने के लिए सिस्टम बनाया जाएगा।
7. अर्थव्यवस्था से जुड़े मुद्दों पर विचार-विमर्श।
8. इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश मामलों में संबंधित सुधार।
9. समय पर योजनाओं को पूरा किया जाएगा।
10. सरकारी नीतियों में निरंतरता और स्थायित्व लाई जाएगी।

मंत्री बिना लाल बत्‍ती की गाडि़यों में चलते दिखे
गुरुवार को कई मंत्रियों ने अपना कार्यभार भी संभाला। मोदी सरकार के मंत्रियों ने गुरुवार को एक संदेश भी देने की कोशिश की। कई केंद्रीय मंत्री बिना लाल बत्‍ती की गाड़ियों में चलते दिखे। मोदी ने गुरुवार को अपने मंत्रियों के लिए कई निर्देश जारी किए थे। इनमें यह भी कहा गया था कि वे अपने रिश्‍तेदारों को पीएस/पीए नहीं बनाएं और ठेके न दिलाएं।

मोदी के दस मुद्दे

30-05-14 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ा है, उनमें से जो मुद्दा मोदी लहर के लिए सबसे ज्यादा प्रभावी सिद्ध हुआ, वह सुशासन का था। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी का ‘गुजरात मॉडल’ चर्चा और विवादों का केंद्र बना रहा। यह कहा गया कि मोदी के प्रशासनिक तौर-तरीकों की वजह से गुजरात सुशासन की एक मिसाल बन गया है। तमाम विरोधों के बावजूद भारतीय मतदाताओं ने इस बात को स्वीकार किया और नरेंद्र मोदी को बहुमत सौंपा। जाहिर है, मतदाताओं की उम्मीद यह है कि मोदी के ‘गुजरात मॉडल’ के मुताबिक, देश का प्रशासन भी बेहतर होगा। मोदी ने भी सत्ता संभालने के बाद कुछ ऐसे फैसले किए हैं, जिनसे उनके कामकाज की दिशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल को अपनी 10 प्रशासनिक प्राथमिकताएं बताई हैं और मंत्रियों से कहा है कि इन प्राथमिकताओं के आधार पर वे काम करें। इनसे प्रशासन के तमाम क्षेत्रों के बारे में उनके नजरिये का परिचय तो मिलता है। मोदी की ये दस प्राथमिकताएं मुख्यत: प्रशासन के ढांचे और उसकी जनोन्मुखता से जुड़ी हुई हैं। इन प्राथमिकताओं के शुरुआती सूत्र यह बताते हैं कि अगर सरकारी तंत्र से बेहतर काम करवाना है, तो अधिकारियों को आजादी देना जरूरी है और उनमें फैसले करने और उन्हें लागू करने का आत्मविश्वास भी होना चाहिए। यह तभी मुमकिन है, जब राजनीतिक नेतृत्व खुद प्रशासनिक अधिकारियों पर विश्वास रखेगा और उन्हें नई योजनाओं पर सोचने और जरूरत के हिसाब से अमल करने की छूट देगा। यह माना जाता है कि गुजरात में वरिष्ठ अधिकारियों को बेझिझक राय देने और अपने विचार व्यक्त करने को प्रोत्साहित किया जाता है और अपेक्षाकृत काम करने की आजादी भी ज्यादा होती है। केंद्र सरकार में भी मोदी ने यह स्पष्ट किया है कि हर विभाग के महत्वपूर्ण नीति-निर्धारण में प्रधानमंत्री कार्यालय का दखल होगा और प्रधानमंत्री कार्यालय सीधे वरिष्ठ अधिकारियों से संपर्क बना सकता है। यह तो माना जा ही रहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय अब फिर से ताकतवर होने जा रहा है। इसे राजनीतिक सत्ता का केंद्रीकरण कह सकते हैं, लेकिन इससे प्रशासन का विकेंद्रीकरण तो होगा ही। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा प्रशासन में पारदर्शिता का है और इसके लिए सरकारी ठेकों में ई-नीलामी को बढ़ावा देने की बात है। ऐसे मामलों में सबसे ज्यादा जरूरी है कि हर काम की नियमित प्रक्रिया निश्चित की जाए और मनमानी या बंदरबांट को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए। इन प्राथमिकताओं में यह भी कहा गया है कि प्रशासन को जनोन्मुख होना चाहिए। यह काफी कठिन होगा, क्योंकि पूरे सरकारी तंत्र की आदत है कि वह अपने को जनता का शासक मानता है। उसे समझना होगा कि सरकारी तंत्र जनता की सेवा के लिए बना है, उस पर राज करने के लिए नहीं। आर्थिक तरक्की के लिए एक बहुत जरूरी मुद्दा सरकारी नीतियों के स्थायित्व और निरंतरता का है। कोई उद्योगपति तभी निवेश करने का साहस करेगा, जब उसे यकीन हो कि सरकारी नीतियां और फैसले अचानक बदल नहीं जाएंगे और राजनीतिक तथा प्रशासनिक फेरबदल के बावजूद उसका निवेश सुरक्षित रहेगा। इस तरह इन दस मुद्दों में प्रशासन, आम जनता और उद्योग-व्यापार तीनों को समेटा गया है। इन मुद्दों को लेकर किसी को असहमति नहीं हो सकती और यह भी तय है कि अगर इनका पालन किया जाए, तो प्रशासन की शक्ल बदल जाएगी। नरेंद्र मोदी ने अपनी प्राथमिकताएं बता तो दी हैं, लेकिन बतौर प्रधानमंत्री उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती इन पर अमल सुनिश्चित करने की है।
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इसी रास्ते चलें

नवभारत टाइम्स | May 31, 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकार का दस सूत्री अजेंडा घोषित कर जता दिया है कि वे बेहतर गवर्नेंस से जुड़ी अपनी जवाबदेही को लेकर सजग हैं। उनकी यह पहल निश्चित रूप से स्वागत योग्य है। पीएम ने सरकार का अजेंडा तय करने के साथ अपने मंत्रियों से कहा है कि वे अपने मंत्रालय के लिए सौ दिन का लक्ष्य निर्धारित करें और उन्हें हासिल करने का प्रयास करें। सरकार के अजेंडे में सबसे प्रमुख है नौकरशाही का मनोबल बढ़ाना, ताकि अफसर निडर होकर फैसले कर सकें। गवर्नमेंट ने तय किया है कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली पर खास तौर पर ध्यान देगी, और हर स्तर पर ट्रांसपेरेंसी बनाए रखेगी। सरकारी ठेकों में हुए घपलों को देखते हुए उसने ई-ऑक्शन को बढ़ावा देने का फैसला लिया है। अर्थव्यवस्था को सबसे चुनौतीपूर्ण क्षेत्र मानते हुए उसने तय किया है कि सबसे ज्यादा जोर वह बुनियादी ढांचे को सुधारने और निवेश बढ़ाने पर देगी। नीतियों में स्थायित्व और तय समय सीमा के भीतर उनपर अमल भी सरकार का दिशासूत्र बनेगा। सरकार के कामकाज में नए विचारों का स्वागत और सभी मंत्रालयों में तालमेल एक और महत्वपूर्ण प्रस्थापना है। गौर से देखें तो यह कोरे सिद्धांतों से अलग एक ठोस कार्यक्रम नजर आता है। प्रधानमंत्री पुराने वर्क कल्चर और रूढ़ियों से बाहर निकलने को उत्सुक दिखते हैं। अपनी जीवनी को स्कूली सिलेबस में शामिल करने से रोकना भी इसी का एक संकेत है। दस सूत्री कार्यक्रम में नौकरशाही का आत्मविश्वास बढ़ाने का फैसला अभी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। पिछली सरकार के कई घोटालों की गाज अफसरों पर गिरी है, जिससे वे फाइलें छूने में भी डरने लगे हैं। अगर सरकार उनमें फिर से उत्साह जगा सकी तो इसका कामकाज पर सकारात्मक असर होगा। वैसे ये घोटाले पारदर्शिता की कमी की वजह से ही संभव हुए। अगर मोदी सरकार परियोजनाओं में ट्रांसपैरेंसी ला सकी तो यह उसकी उपलब्धि होगी। इस दृष्टि से ई-ऑक्शन एक बड़ा फैसला है और इससे करप्शन पर अंकुश लगेगा। पिछले कई वर्षों से इंफ्रास्ट्रक्चर डिवेलपमेंट का काम ठप पड़ा है। इसे प्राथमिकता पर लाकर अगर मोदी इस क्षेत्र में निवेश करवा सके तो इसका फायदा मिलेगा। वैसे नरेंद्र मोदी रक्षा और रेल जैसे कई और क्षेत्रों में भी इन्वेंस्टमेंट बढ़ाना चाहते हैं, जो फिलहाल बेहद जरूरी है। सभी परियोजनाओं को समय पर पूरा करने का कोई स्पष्ट लक्ष्य न होने के कारण यूपीए सरकार के कार्यकाल में कई प्रोजेक्ट लटके रह गए थे। आगे ऐसा नहीं होना चाहिए। बहरहाल, अजेंडा आकर्षक है लेकिन लक्ष्य तभी पूरे होंगे जब दृढ़ संकल्प के साथ काम किया जाए। आशा है, टीम मोदी देश को निराश नहीं करेगी।

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मंत्री समूहों से मुक्ति

Sunday,Jun 01,2014

यह तय ही था कि नई सरकार पुरानी सरकार के तरीके से काम नहीं करेगी और उसकी ओर से गठित किए गए किस्म-किस्म के मंत्री समूहों के दिन लदने वाले हैं। बावजूद इसके इन मंत्री समूहों को भंग किए जाने की घोषणा का अपना महत्व है। यह फैसला इसकी पुष्टि करता है कि अब प्रधानमंत्री कार्यालय पूरे अधिकार के साथ काम करेगा और फैसले लेने में बेवजह की देरी नहीं होगी। मनमोहन सरकार ने भले ही समस्याओं के समाधान के लिए मंत्री समूह और उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूह गठित किए हों, लेकिन वे खुद अपने आप में समस्या बनकर रह गए थे। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि कई बार इन मंत्री समूहों का गठन केवल विवादों को ठंडा करने या फिर समस्या को टालने के लिए किया गया। ध्यान रहे कि कुछ मंत्री समूह ऐसे भी थे जिनकी एक-दो बैठकें ही हो सकीं। इन मंत्री समूहों के कारण कुछ मुद्दे तो ठंडे बस्ते में ही चले गए। बतौर उदाहरण संप्रग सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग गठित किया था। वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले इस आयोग ने बड़े परिश्रम से अपनी रिपोर्ट तैयार की, लेकिन उनकी सिफारिशों पर अमल करने के बजाय उन्हें एक मंत्री समूह के हवाले कर दिया गया। बाद में किसी ने इसकी सुध ही नहीं ली कि इस मंत्री समूह ने क्या किया और इस तरह एक जरूरी काम की अनदेखी कर दी गई। विडंबना यह रही कि वीरप्पा मोइली ने प्रशासनिक सुधार की दिशा में कुछ न हो पाने पर अफसोस तब जताया जब आम चुनाव के नतीजे सामने आए। स्पष्ट है कि पिछले शासन में मंत्री समूहों पर कोई खास जवाबदेही नहीं थी और शायद यही कारण रहा कि उन्होंने फैसले लेने में तत्परता का परिचय नहीं दिया। एक समय तो ऐसा था कि जब भी कोई समस्या सामने आती थी या फिर किसी मसले पर तत्काल फैसले की आवश्यकता होती थी तो मंत्री समूह का गठन कर दिया जाता था। कभी-कभी उन्हें उच्चाधिकार प्राप्त समूहों का दर्जा भी दे दिया जाता था। इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि कुछ ऐसे मंत्री समूह भी गठित किए गए जिनकी सिफारिशों पर अमल आवश्यक नहीं था। ऐसे मंत्री समूहों पर संगठन अथवा सरकार के अंदर से ही कहीं कोई आवाज क्यों नहीं उठी-और वह भी तब जब प्रमुख मुद्दों पर मंत्री समूहों का गठन हुआ। इनमें उर्वरकों की कीमतें तय करने से लेकर जल प्रबंधन, कोयला खनन, दवा और ऊर्जा संबंधी नीति तय करने के मसले भी शामिल थे। ऐसा लगता था कि प्रधानमंत्री कार्यालय अपनी ओर से कोई काम ही नहीं करना चाह रहा था। रही-सही कसर मंत्री समूहों की सुस्ती ने पूरी कर दी। इन स्थितियों के चलते ही अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क हुआ और समस्याओं का अंबार लगा। संप्रग सरकार के दोनों कार्यकाल में जिस तरह करीब-करीब सौ मंत्री समूह गठित हुए उससे यह भी पता चलता है कि प्रधानमंत्री किस तरह खुद फैसले लेने का साहस नहीं दिखा पा रहे थे। यह अच्छी बात है कि मंत्री समूहों के साथ ही शासन की उस कार्यप्रणाली से भी मुक्ति मिली जिसने देश को समस्याओं से घेरने के अलावा और कुछ नहीं किया।
[मुख्य संपादकीय]

मोदी ने अपने मंत्रियों को दिया ब्रैंडिंग का 'गुरुमंत्र'

नवभारत टाइम्स | Jun 1, 2014, 

जोसफ बर्नाड, नई दिल्ली

लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की जीत में उनकी ब्रैंडिंग की अहम भूमिका रही। मोदी ने गुजरात में जो काम किया था, उसकी जमकर मार्केटिंग भी की। गुजरात के विकास मॉडल के बलबूते मोदी ने खुद को विकास के ब्रैंड के तौर पर स्थापित किया और इसी वजह से उन्हें जमकर वोट भी मिले। अब मोदी चाहते हैं कि मंत्री भी खुलकर अपनी ब्रैंडिंग करें, खासकर आर्थिक मंत्रालय से जुड़े मंत्री। नरेंद्र मोदी ने मंत्रियों को सलाह दी है कि वे जो भी काम करें, उसकी जमकर मार्केटिंग होनी चाहिए। लोगों तक यह बात जरूर पहुंचनी चाहिए कि मंत्रालय ने लोकहित में क्या-क्या काम किए, क्या-क्या कदम उठाए। इसके अलावा मोदी चाहते हैं कि नीतियों को बनाने, उसको लागू करने से लेकर उसके रिजल्ट को भी लोगों तक पहुंचाया जाए। मोदी ने मंत्रियों से कहा है कि वे राज्यों की बातों को महत्व दें। अगर वित्तीय समस्याएं लेकर कोई राज्य आता है तो उस पर तुरंत गौर कर उस समस्या का समाधान करने का प्रयास किया जाना चाहिए। वित्त मंत्रालय के एक उच्चाधिकारी का कहना है कि केंद्र सरकार चाहती है कि जो भी नीतियां बनाई जाएं और उसे लागू किया जाए, उसका पता पीएमओ और आम लोगों को जरूर होना चाहिए। मोदी की सलाह का राज़ : मार्केट एक्सपर्ट के. के. मदान का कहना है कि मोदी इस वक्त दो बातों पर ध्यान दे रहे हैं। वह है, काम करो और साथ में उसका प्रचार यानी मार्केटिंग भी। निश्चित रूप से इसका एक ही लक्ष्य लोगों तक यह पहुंचाना है कि मोदी सरकार ने काम शुरू कर दिया है। दूसरा, उनका फोकस राज्य सरकारों पर है, खासकर उन राज्यों पर है, जहां पर गैर-बीजेपी पार्टियों का शासन है, और जहां पर जल्द विधानसभा चुनाव होने हैं। यहां भी मोदी का लक्ष्य साफ है, वह चाहते हैं कि राज्य सरकारों के साथ वहां की जनता को यह भरोसा दिलाना है कि केंद्र सरकार उनके साथ है, जिससे चुनाव के साथ नीतियां पारित कराने में मोदी सरकार को ज्यादा मुश्किलें न हो।
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पीएम का मंत्रियों को स्पष्ट संदेश,

 बर्दाश्त नहीं होगा कोई दाग

Tuesday,Jun 03,2014

नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। सरकार गठन के बाद पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पूरी मंत्रिपरिषद के साथ बैठक की तो सभी मंत्रियों को स्पष्ट कर दिया कि नाम हो या काम, कोई दाग बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हर किसी को पूरी जवाबदेही के साथ जिम्मेदारी निभाते हुए जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरना होगा।
प्रधानमंत्री आवास पर चली तीन घंटे की बैठक में सभी मंत्रियों को व्यक्तिगत और सरकार की छवि को साफ रखने की नसीहत भी दे दी गई। साथ ही मोदी ने 100 दिन के एजेंडे को लेकर अपनी सोच भी जाहिर कर दी।
मोदी सरकार का एक हफ्ता बीत गया। बुधवार से संसद का सत्र शुरू होने वाला है। इससे पहले सोमवार को मोदी ने अपने सभी 45 मंत्रियों को बुलाया था। बताते हैं कि एजेंडा वही था जिसका संकेत और संदेश वह पहले ही दे चुके थे। नाश्ता और चाय के साथ सुखद माहौल में ही मोदी यह संकेत देने से नहीं चूके कि सगे-संबंधियों को मंत्रालय से दूर रखना होगा। ऐसा कोई अवसर देने से बचना होगा, जिससे सरकार की छवि धूमिल हो और कामकाज पर बुरा असर पड़े। राज्यमंत्रियों की पीड़ा अक्सर यह रही है कि उनके पास काम नहीं होता है। मोदी ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें भी हर काम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना होगा।
कैबिनेट समेत राज्यमंत्रियों को भी संकेत दे दिया गया कि कामकाज के जानकार लोगों को तवज्जो दें। अधिकारियों में विश्वास जगाकर उनसे काम लें और समयसीमा का ध्यान रखें। सूत्रों के अनुसार इस क्रम में उन्होंने यह भी जाहिर कर दिया कि समय-समय पर अपने मंत्रालयों में चलने वाली योजनाओं और परियोजनाओं की रिपोर्ट पेश करनी होगी। बैठक में मौजूद मंत्री के अनुसार मोदी ने हर किसी को बोलने का अवसर दिया। उन्हें सुना और अपनी सोच एक बार फिर बता दी। कुछ मंत्री चाहते थे कि मंत्रलयों को एजेंडा बनाने से पहले खुद मोदी उन मुद्दों पर अपनी सोच बता दें। मोदी ने यह बता दिया कि पूरी सोच सिर्फ इतनी है कि जनता का भरोसा न टूटे और देश आगे बढ़ता दिखे। उन्होंने मंत्रियों को सुझाव दिया कि नई सलाहों पर ध्यान दें और लीक से हटकर फैसला करना पड़े तो संकोच न करें। बशर्ते उसके हर पहलू पर गंभीरता से विचार किया गया हो।
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सामाजिक सुरक्षा का सवाल
28-08-14

सरकार ने तय किया है कि एक सितंबर से कर्मचारी पेंशन योजना के तहत न्यूनतम पेंशन 1,000 रुपये होगी। इससे उन 28 लाख लोगों को फायदा होगा, जिन्हें अब तक इससे भी कम पेंशन मिल रही थी। इसके अलावा कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड में हिस्सेदार बनने के लिए न्यूनतम तनख्वाह की सीमा बढ़ाकर 15,000 रुपये कर दी गई है। इससे भी लगभग 50 लाख नए कर्मचारी इसके तहत आ पाएंगे। विधवा और अनाथ पेंशन भी बढ़ा दी गई है। ये फैसले पिछली सरकार ने फरवरी में किए थे, पर चुनावी आचार संहिता लागू हो जाने से इन पर अमल नहीं हो पाया। अब नई सरकार ने इन फैसलों के लिए अधिसूचना जारी कर दी है। जाहिर है, भारत में कीमतों का जो स्तर है, उसे देखते हुए यह रकम काफी नहीं है। 1,000 रुपये में महीना भर गुजर-बसर करना लगभग नामुमकिन है, फिर भी देश में काफी लोग हैं, जिनके लिए यह भी बड़ा सहारा है। यह याद रखना जरूरी है कि कर्मचारी भविष्य निधि संगठन की पेंशन योजना के दायरे में अब तक सिर्फ 44 लाख लोग हैं और इससे पता चलता है कि देश की आबादी का कितना छोटा हिस्सा सरकारी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के दायरे में आता है। सरकारी कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए फिर भी काफी सुरक्षा है, लेकिन असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी या बेसहारा लोगों के लिए कोई सुरक्षा नहीं है। यह जरूरी है कि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की संख्या भी बढ़ाई जाए, ताकि ऐसे लोग भी इसके दायरे में आ पाएं, जो अब तक की योजनाओं के दायरे में नहीं आते, लेकिन जिन्हें ऐसी योजनाओं की जरूरत है। जाहिर है, इसके लिए आर्थिक संसाधनों की जरूरत पड़ेग, लेकिन अर्थव्यवस्था जिस दिशा में जा रही है, उसे देखते हुए ऐसी ज्यादा योजनाएं चाहिए और उनमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को समेटने की भी जरूरत है। भारत की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा ऐसे रोजगारों से चलता है, जिन्हें अनौपचारिक क्षेत्र के रोजगार कहते हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 60 फीसदी से ज्यादा आर्थिक गतिविधियां अनौपचारिक क्षेत्र में हैं। अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगारों की एक बड़ी कमी यह है कि उनमें भविष्य की सुरक्षा नहीं होती। भारत में श्रम सुधारों का अभाव संगठित क्षेत्र में रोजगारों की कमी का एक बड़ा कारण है।
जानकार यह कहते हैं कि श्रम सुधार जरूरी तो है, लेकिन कर्मचारियों के भविष्य की सुरक्षा के लिए भी प्रावधान भी जरूरी हैं, ताकि अचानक रोजगार खत्म होने पर भी कर्मचारी जीवन निर्वाह कर सके। लेकिन इसके लिए सिर्फ भविष्य निधि संगठन काफी नहीं है। यह संगठन उस दौर का है, जब मुख्य रोजगार सरकारी होते थे और संगठित क्षेत्र के रोजगार भी लगभग सरकारी रोजगार जैसे सुरक्षित थे। अब उदारीकरण के बाद के माहौल में रोजगार की स्थिति बदल गई है, साथ ही तेज शहरीकरण की वजह से परंपरागत सामाजिक सुरक्षा के साधन भी खत्म हो रहे हैं। जरूरी यह है कि सामाजिक सुरक्षा में पेंशन, स्वास्थ्य बीमा, खाद्य सुरक्षा आदि को शामिल किया जाए। अभी सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण की सबसे बड़ी वजह उनसे मिलने वाली सुरक्षा है। सबको सरकारी नौकरी देना किसी सरकार के लिए संभव नहीं है, न ही यह वांछनीय है। अब ज्यादा रोजगार निजी क्षेत्र में हैं, भविष्य में यह और ज्यादा बढ़ेगा। अगर सामाजिक सुरक्षा ज्यादा व्यापक होगी, तो लोग निजी क्षेत्र में नौकरी पसंद करेंगे या अपना उद्यम शुरू करने का जोखिम ज्यादा उठाएंगे। जरूरी यह है कि सामाजिक सुरक्षा को औपचारिकता न मानकर, उसे नए अर्थतंत्र का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए।
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नया अध्याय

जनसत्ता 8 सितंबर, 2014: आस्ट्रेलिया से परमाणु सहयोग समझौता भारत की एक खास उपलब्धि है, साथ ही यह दोनों देशों के रिश्तों में एक नया अध्याय है। इस समझौते के तहत आस्ट्रेलिया से यूरेनियम मिलने का रास्ता साफ हो गया है। यों दोनों देशों के बीच इसके अलावा तीन और समझौते भी हुए जो खेल, जल संसाधन प्रबंधन और व्यावसायिक शिक्षा से संबंधित हैं, पर आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट के दिल्ली आने का मुख्य मकसद असैन्य परमाणु करार को ही अंजाम देना था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी जापान यात्रा के दौरान बहुत चाहा कि मेजबान देश से परमाणु ऊर्जा करार हो जाए। पर इसमें सफलता नहीं मिली, क्योंकि जापान एनपीटी यानी परमाणु अप्रसार संधि को लेकर चली आ रही अपनी नीति में ढील देने को तैयार नहीं हुआ। भारत भले इस करार के लिए बहुत इच्छुक रहा हो, पर आस्ट्रेलिया के लिए इस पर राजी होना आसान नहीं था। जापान की तरह आस्ट्रेलिया की भी लंबे समय से यही नीति रही है कि जिस देश ने एनपीटी पर हस्ताक्षर न किए हों, उसके साथ किसी तरह का एटमी करार न किया जाए।  लेकिन यूपीए सरकार के दौरान भारत और अमेरिका के बीच हुए परमाणु ऊर्जा संबंधी समझौते के बाद आस्ट्रेलिया के रुख में नरमी के संकेत मिलने लगे और इस क्षेत्र में भी आपसी सहयोग की बातचीत शुरू हुई। इस लिहाज से देखें तो ताजा करार का श्रेय बहुत कुछ दोनों देशों की पूर्ववर्ती सरकारों को भी जाता है। यह समझौता ऐसे समय हुआ है जब कुछ दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका जाना है, जहां परमाणु करार पर अमल भी एक अहम मुद्दा होगा। भारत में यूरेनियम के इस्तेमाल से पैदा होने वाली बिजली कुल विद्युत उत्पादन में महज दो फीसद है। इतने के लिए भी देश में मिलने वाला यूरेनियम पूरा नहीं पड़ता, बाहर से मंगाना पड़ता है। आस्ट्रेलिया के साथ खास बात यह है कि दुनिया के दो-तीन सर्वाधिक यूरेनियम-संपन्न देशों में वह एक है। इसलिए यूरेनियम निर्यात के लिए उसका राजी होना भारत के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र की एक बड़ी बाधा दूर कर सकता है। इस समझौते से जाहिर है कि आस्ट्रेलिया ने परमाणु अप्रसार के प्रति भारत की वचनबद्धता और इस मामले में उसके बेदाग रिकार्ड के दावे को मान लिया है। पर करार के पीछे सिर्फ यही बात नहीं रही होगी। आस्ट्रेलिया को लगा होगा कि इस समझौते के बाद दोनों देशों के आपसी व्यापार और अन्य क्षेत्रों में भी आदान-प्रदान बढ़ाना आसान हो जाएगा। फिलहाल दोनों देशों के बीच सालाना व्यापार पंद्रह अरब डॉलर का है। एबॉट ने इस पर असंतोष जताते हुए इसे और बढ़ाने की बात कही है। इसके लिए यह जरूरी है कि यूरेनियम आपूर्ति के अलावा दूसरे मामलों में भी उत्साह दिखाया जाए। आस्ट्रेलिया यूरेनियम के अतिरिक्त दूसरे खनिजों और प्राकृतिक गैस के मामले में भी समृद्ध है और खनन क्षेत्र में सबसे अव्वल देशों में उसकी गिनती होती है। साथ ही वह विज्ञान और तकनीक में भी अग्रणी है। इन क्षेत्रों में अनुसंधान संबंधी सहयोग की संभावनाएं तलाशी जानी चाहिए। शीत युद्ध के काल में अमेरिका ही नहीं, उसके मित्र देशों के साथ भी भारत के रिश्ते बहुत दोस्ताना नहीं हो पाए, क्योंकि भारत के गुटनिरपेक्ष खेमे में रहते हुए भी उसका सोवियत संघ की तरफ झुकाव किसी से छिपा नहीं था। लेकिन उस दौर के बीतने के साथ अमेरिका से संबंध बेहतर होने शुरू हुए। यही बात उसके मित्र देशों से भारत के संबंधों पर भी लागू होती है। अलबत्ता आस्ट्रेलिया के साथ इसका क्रम और देर से शुरू हुआ और बहुत ढीलेढाले ढंग से चलता रहा है। देर से ही सही, अब ये प्रयास एक खास मुकाम पर पहुंचे हैं।
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जरूरी फैसला

Tue, 21 Oct 2014

कोयले की किल्लत और उसके चलते बिजली संकट बढ़ने के आसार देखते हुए कोयला खदानों के नए सिरे से आवंटन के लिए अध्यादेश लाने का फैसला एक तरह से आवश्यक ही था। हाल में सुप्रीम कोर्ट की ओर से 214 कोयला खदानों के आवंटन रद किए जाने के बाद कोयला संकट कहीं अधिक गंभीर रूप लेता हुआ दिख रहा था, क्योंकि इनमें से कुछ खदानें ऐसी भी थीं जिनसे कोयले का खनन किया जा रहा था। यह भी किसी से छिपा नहीं कि पिछले कुछ समय से लगातार ऐसी खबरें आ रही थीं कि एक बड़ी संख्या में बिजली संयंत्र कोयले की कमी से जूझ रहे हैं। कोयले की कमी ने बिजली उत्पादन को प्रभावित करना शुरू कर दिया था और इसके चलते देश के कई हिस्सों में बिजली कटौती की अवधि बढ़नी भी शुरू हो गई थी। इन परिस्थितियों में केंद्र सरकार के लिए कोयले का उत्पादन बढ़ाकर बिजली कंपनियों और साथ ही उद्योगों को कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करना आवश्यक हो गया था। मौजूदा हालात में इस आवश्यकता की पूर्ति अध्यादेश के जरिये ही हो सकती थी। यह सर्वथा उचित है कि सरकार ने कोयला खनन की सुविधा कोल इंडिया के साथ-साथ अन्य सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और राज्य बिजली बोर्डो को भी देने पर विचार किया। इसमें भी हर्ज नहीं कि कोयला खदानों के नए सिरे से आवंटन में उन कंपनियों को भी शामिल होने का अवसर दिया जाएगा जिनकी कोयला खदानें रद हुई हैं और जो सीबीआइ की जांच का सामना नहीं कर रही हैं।
कोयला खनन के काम में निजी कंपनियों की भागीदारी इसलिए जरूरी है, क्योंकि कोल इंडिया इतनी सक्षम नहीं कि जरूरत भर के कोयले का उत्पादन खुद कर सके। कोल इंडिया कहने को तो कोयला खनन क्षेत्र की दुनिया की सबसे बड़ी सरकारी कंपनी है, लेकिन उसकी उत्पादकता बेहद निराशाजनक है। उसके सही ढंग से काम न करने का ही यह दुष्परिणाम है कि कोयले के भारी भंडार के बावजूद देश में कोयले का आयात हो रहा था। क्या इससे बड़ी विडंबना कोई और हो सकती है कि कोयले की भंडार की दृष्टि से दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश वर्तमान में कोयले का सर्वाधिक आयात करने वाले देशों की सूची में तीसरे नंबर पर पहुंच गया है। यह तो अपने प्राकृतिक संसाधनों का सही तरीके से इस्तेमाल न कर पाने की पराकाष्ठा है। नीलामी के जरिये कोयला खदानों के फिर से आवंटन के लिए अध्यादेश लाने का फैसला यह भी बताता है कि मोदी सरकार आर्थिक सुधारों की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने और आर्थिक माहौल बदलने के लिए प्रतिबद्ध है। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया कि करीब दो दशकों से कोयला खदानों का आवंटन मनमाने तरीके से किया जा रहा था, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एक बड़ी संख्या में इस तरह के आवंटन संप्रग सरकार ने किए और अंतत: वे घोटाले में तब्दील हो गए। इस घोटाले से बचा जा सकता था, क्योंकि तत्कालीन विधि मंत्रालय की ओर से कोयला आवंटन की नीति बदलने पर जोर दिया गया था। कोई नहीं जानता कि कोयला खदानों के आवंटन की नीति को बदलने से क्यों इन्कार किया गया? अब जब यह तय हो गया है कि केंद्र सरकार रद हुईं कोयला खदानों का नए सिरे से आवंटन करेगी तब फिर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कोयला घोटाले की जांच भी अंजाम तक पहुंचे।
[मुख्य संपादकीय]



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