Thursday 4 September 2014

प्रधानमंत्री जन-धन योजना


अभूतपूर्व अभियान

Fri, 29 Aug 2014

महज एक दिन में करीब डेढ़ करोड़ बैंक खाते खोले जाना एक कीर्तिमान तो है ही, सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी किसी योजना की आवश्यकता का प्रमाण भी है। दुनिया के लिए यह कल्पना करना मुश्किल हो सकता है कि भारत सरीखे देश में एक दिन में इतनी बड़ी संख्या में बैंक खाते खुल सकते हैं। यह संभवत: विश्व का सबसे बड़ा सरकारी और साथ ही बैंकिंग अभियान है। प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत जनवरी 2015 तक साढ़े सात करोड़ लोगों के बैंक खाते खोलने का लक्ष्य है। करीब पांच माह में इतने ज्यादा खाते खोलना हर लिहाज से एक बड़ा लक्ष्य है, लेकिन शुरुआती सफलता से इस लक्ष्य की प्राप्ति के प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री जन-धन योजना की घोषणा 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से हुई और फिर चंद दिनों के अंदर ही उसके अमल की जमीन तैयार कर ली गई। मोदी सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना में शामिल होने के लिए जिस तरह इतनी बड़ी संख्या में लोग आगे आए उससे यह भी पता चल रहा है कि आम आदमी किस तरह बैंक खातों की कमी महसूस कर रहा था। प्रधानमंत्री जन-धन योजना की शुरुआत के साथ ही जिस तरह कर्मचारी भविष्य निधि के तहत आने वाले सेवानिवृत्त कर्मचारियों की न्यूनतम मासिक पेंशन बढ़ाकर एक हजार रुपये करने की अधिसूचना जारी की गई उससे यही स्पष्ट होता है कि मोदी सरकार सामाजिक सुरक्षा के प्रति कहीं अधिक प्रतिबद्ध है। नि:संदेह महंगाई के इस दौर में एक हजार रुपये की मासिक पेंशन पर्याप्त नहीं, लेकिन इस पर संतोष व्यक्त किया जा सकता है कि कुछ तो सुधार हुआ।
दरअसल हमारे नीति नियंताओं को समय रहते सामाजिक सुरक्षा की दिशा में जैसे कदम उठाने चाहिए थे वैसे नहीं उठाए गए। इसके दुष्परिणाम सामने हैं। देश में एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसके पास सामाजिक सुरक्षा का कोई आवरण नहीं। यह आबादी कितनी विशाल है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि करीब 68 प्रतिशत आबादी के पास बैंक खाते ही नहीं। इस तथ्य की रोशनी में प्रधानमंत्री के इस कथन से असहमत होना कठिन है कि देश में वित्तीय छूआछूत की स्थिति है। उन्होंने यह भी कहा कि इस योजना के लागू होने के साथ ही साहूकारों के दिन पूरे हुए, लेकिन निर्धन जनता को साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है। सबसे पहले तो यह सुनिश्चित करना होगा कि जो भी निर्धन-वंचित हैं, प्रधानमंत्री जन-धन योजना के दायरे में आएं और वे बिना किसी परेशानी के आवश्यक लाभ उठाने में सक्षम रहें। ऐसा करके ही इस योजना के जरिये गरीबी से लड़ने में मदद मिलेगी। यह सही है कि गरीबी से लड़ने की यह इकलौती महत्वाकांक्षी योजना नहीं। निर्धनता निवारण के लिए अन्य अनेक योजनाएं अस्तित्व में हैं, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनके जरिये निर्धन तबके को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने में अपेक्षित मदद नहीं मिली। बतौर उदाहरण मनरेगा के बारे में यह तो कहा जा सकता है कि उसने एक हद तक गरीब परिवारों को सहारा दिया है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी भी बने। प्रधानमंत्री जन-धन योजना के प्रावधान ऐसे हैं जो इस भरोसे को बल प्रदान करते हैं कि इस योजना के जरिये निर्धन तबका अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है।
[मुख्य संपादकीय]
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समाज कल्याण का बड़ा कदम

Sat, 30 Aug 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 अगस्त को जिस जन-धन योजना की शुरुआत की है उसका मुख्य उद्देश्य है देश के हर परिवार को बैंकिंग तंत्र से जोड़ना और आर्थिक छुआछूत मिटाना। आजादी के 68 साल हो गए और 68 प्रतिशत आबादी बैंकिंग तंत्र के बाहर है। यह स्थिति तब है जब भारत में बैंकिंग व्यवस्था का अपना एक इतिहास रहा है। प्राचीन काल से लोग आमदनी का एक हिस्सा बचाकर रखने के आदी रहे हैं। हुंडी का रिवाज बहुत पुराना है, जो व्यापार में पूंजी लाने के एक तरीके के रूप में इस्तेमाल होता रहा है। आज देश में बैंकों की एक लाख से अधिक शाखाएं हैं। 12 लाख से अधिक लोग बैंकों में काम करते हैं। बैंकों में जमा राशि 70,000 करोड़ रुपये के ऊपर है, किंतु बैंकिंग व्यवस्था का ज्यादा लाभ कंपनियों और शहरी आबादी को है, दूर-दराज के लाखों गांवों तक बैंक अभी भी अपनी सेवाएं नहीं दे रहे हैं। प्रधानमंत्री की यह योजना गरीबी दूर करने और समाज कल्याण की दिशा में एक कदम और आगे जाने के प्रयास के रूप में भी देखी जा सकती है। गरीबों और विशेषकर छोटे किसानों को जब ऋण की आवश्यकता होती है तो वे साहूकारों के पास जाते हैं और शोषण के शिकार होते हैं। हजारों किसान प्रतिवर्ष इन परिस्थितियों में आत्महत्या तक कर लेते हैं। साहूकारों की मनमानी दूर-दराज गांवों में अब भी है। जब तक आर्थिक छुआछूत समाप्त नहीं होती, गरीबों को बैंकिंग तंत्र से जोड़ा नहीं जाता तब तक इस समस्या का निदान संभव नहीं है।1मेरा खाता भाग्यविधाता के नारे के साथ प्रारंभ की गई प्रधानमंत्री की जन-धन योजना का क्त्रियान्वयन दो चरणों में होना है। इस योजना के पहले ही दिन डेढ़ करोड़ खाते खोले गए और पूरी दुनिया की बैंकिंग व्यवस्था में एक नया कीर्तिमान जुड़ गया। प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी भाषणों में अर्थिक छुआछूत मिटाने का जो वादा किया था उसको पूरा करने का प्रयास प्रारंभ तो हो गया, लेकिन यह कितना सफल होगा, इसका पता आने वाले दिनों में ही चलेगा। प्रथम चरण में जो खाते खोले जाएंगे उनके धारकों को 30,000 रुपये का जीवन बीमा और एक लाख रुपये का दुर्घटना-मृत्यु बीमा मुफ्त में दिया जाएगा। जिन लोगों के अभी तक बैंकों में खाते नहीं हैं उन्हें इस योजना के तहत एक डेबिट कार्ड भी उपलब्ध कराया जाएगा। खाता छह महीने तक चलते रहने पर धारक को 2500 रुपये का ऋण और उसके बाद खाता बराबर चलने पर 5000 रुपये तक का ऋण मिल सकता है। मृत्यु या दुर्घटना बीमा राशि देय तभी होगी जब घटना के 45 दिन पूर्व तक खाता चलता रहा। इस योजना तहत अगले वर्ष 26 जनवरी तक साढ़े सात करोड़ नए खाते खोलने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। गरीबों, छोटे किसानों और कुटीर उद्योगों में लगे करोड़ों नागरिकों के अतिरिक्त यह योजना महिलाओं और युवकों को विशेष लाभ पहुंचाना चाहती है। महिलाएं अब अपनी बचत के पैसे बैंकों में सुरक्षित रख सकती हैं। अपनी एक सामाजिक हकीकत पर ध्यान दें तो यह एक बहुत बड़ी बात है। सब जानते हैं कि किस तरह महिलाओं की कमाई भी नशे की लत पूरी करने में फूंक डालने के मामले हमारे सामने आते रहते हैं। युवाओं के बीच भी बचत की प्रवृत्ति बढ़ेगी और इसके अच्छे सामाजिक नतीजे सामने आ सकते हैं। इस योजना का दूसरा चरण 2015 से 2018 तक क्त्रियान्वित होगा। इसमें बीमा (माइक्त्रो इंश्योरेंस) और पेंशन की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। 1प्रधानमंत्री जन-धन योजना के उद्देश्य प्रशंसनीय हैं, किंतु इसका क्त्रियान्वयन आसान नहीं है। हमें अपनी बैंकिंग व्यवस्था का तेजी से विस्तार करना होगा। अगले दो-तीन वर्षो में कम से कम 50,000 नई बैंक शाखाएं खोलनी होंगी, जो दूर-दराज के गांवों, पहाड़ी और रेगिस्तानी इलाकों को जोड़ सकेंगी। शाखाओं के अभाव में मोबाइल बैंकिंग का नेटवर्क विकसित करना होगा। इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में प्रशिक्षित कर्मचारियों की आवश्यकता होगी और केंद्रीय बजट में अच्छी-खासी धनराशि इसके लिए आवंटित करनी होगी। इस योजना पर सही तरह अमल के लिए राज्य सरकारों का साथ भी जरूरी है। प्रशासन में समन्वय और चुस्ती से ही बेहतर नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। इसके साथ ही ऐसी कोई पहल भी करनी होगी जिससे बैंकों का अपने उपभोक्ताओं के प्रति रवैया बदले। अभी भी खाता धारक बैंकों में छोटे-छोटे कामों के लिए धक्के खाते देखे जाते हैं। यह स्थिति बदलनी होगी। प्रधानमंत्री जन-धन योजना में बड़े पैमाने पर सरकारी खजाने से जनता के पास कैश ट्रांसफर होगा। जहां खाता धारकों द्वारा इसके दुरुपयोग की संभावना हो सकती है वहीं इस बात की भी आशंका है कि बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज की वसूली में कठिनाई आए। प्रधानमंत्री का यह विचार सराहनीय है कि आम भारतीय ईमानदार होते हैं और कर्ज चुकाने में गड़बड़ी बड़ी कंपनियों के मामले में ज्यादा होती है।1प्रधानमंत्री आम जनता से जो अपेक्षा कर रहे हैं यदि वास्तव में वैसा ही हुआ तो इस योजना की सफलता पर कोई संदेह नहीं रहेगा, लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि अगर बड़े पैमाने पर गड़बड़ी हुई तो बैंकों को अपना पैसा वापस पाने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री की प्रशासनिक कुशलता और योजना से उनके लगाव को देखते हुए आशा की जाती है कि योजना का सुचारु रूप से संचालन हो सकेगा। राष्ट्रीय बैंकों की नॉन परफार्मिग एसेट्स (एनपीए) लगातार बढ़ती जा रही हैं। संप्रग सरकार में ऐसी कई योजनाएं बनीं, जिनमें कैश ट्रांसफर और कर्ज बड़े पैमाने पर दिए गए। इनकी उगाही न होने से बैंकों के ऊपर बोझ बढ़ता गया। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का 4.42 प्रतिशत से अधिक धन नॉन परफार्मिग एसेट्स के रूप में है। नई स्कीम इसे बढ़ा सकती है। गरीबी मिटाने और समाज कल्याण के लिए यह कोई बड़ा बलिदान नहीं होगा, लेकिन हम चाहें तो इससे बच सकते हैं। [लल्लन प्रसाद: लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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जन-धन की सार्थकता

Wed, 03 Sep 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जन-धन योजना का शुभारंभ बड़ी शान से किया है। आम आदमी को बैंकों के माध्यम से अर्थव्यवस्था से जोड़ने का एक साहसिक कदम है। लाभार्थियों को सब्सिडी की रकम सीधे नगद वितरण करने में यह योजना सहायक होगी, परंतु इससे गरीब अथवा किसान की आय में वृद्धि होगी, इसमें मुझे संदेह है। मोदी का मानना है कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें साहूकारों से ऊंची ब्याज दर पर ऋण लेने होते हैं। प्रथम दृष्टया यह सही दिखता है, परंतु गंभीरता से चिंतन करने पर पता चलता है कि बैंकों से ऋण लेने पर उनकी स्थिति और बदतर हो सकती है।
लगभग 40 वर्ष पूर्व मैं बेंगलूर की एक झुग्गी बस्ती में सामाजिक कार्य कर रहा था। स्थानीय साहूकार द्वारा 20 रुपये के ऋण पर एक सप्ताह में 1.25 रुपये का ब्याज वसूला जाता था, जो 325 प्रतिशत प्रति वर्ष बैठता था। मैंने लोगों को संगठित किया और ऋण लेने-देने की आपसी संस्था बनाई, जो सस्ते ब्याज पर लोन देने लगी। कुछ दिन सब अच्छा रहा। सहकारी संस्था की पूंजी 1,000 रुपये से बढ़कर 4,000 रुपये हो गई, लेकिन बाद में कुछ लोगों ने लिए ऋण को लौटाना बंद कर दिया। ज्ञात हुआ कि उन लोगों ने पुन: साहूकार से ऋण ले लिया। पूर्व में वे केवल साहूकार के ऋण से दबे हुए थे, अब वे साहूकार और संस्था दोनों के ऋण से दब गए। कारण कि उनकी आय कम और खर्च ज्यादा थे। मजबूरी में जहां से जितना ऋण मिला उन्होंने ले लिया। उन्हें ऋण देना कुएं में पानी डालने जैसा था। जनधन योजना का भी यही परिणाम होगा। लाभार्थी ऋण से और च्यादा दब जाएंगे। मैंने गरीब की आय में वृद्धि करने का एक और प्रयास किया। उस झुग्गी बस्ती में लोग टिन के केरोसिन पंप बनाते थे। मैंने कंपनी से टिन की शीटें एकमुश्त खरीद लीं और सस्ते दाम पर झुग्गी वालों को उपलब्ध करा दीं। वे प्रसन्न हुए, लेकिन कुछ ही सप्ताह के बाद उनमें से कुछ ने पंप को सस्ता बेचना शुरू कर दिया। शीघ्र ही सभी ने पंप को सस्ता बेचना शुरू कर दिया। सस्ती शीट का अंतिम लाभ झुग्गी के लोगों को नहीं, बल्कि पंप खरीदने वाले उपभोक्ताओं को मिला। यह प्रकरण बताता है कि लाभ सस्ते उत्पादन से नहीं, बल्कि महंगी बिक्त्री से होता है। यदि पंप महंगे बिकते तो झुग्गी वालों की आय निश्चित रूप से बढ़ जाती। यही बात किसानों पर लागू होती है। किसान को उसकी फसल की कीमत अच्छी मिले तो वह स्वत: समृद्ध हो जाएगा। सस्ते ऋण से उसे विशेष लाभ नहीं होगा, क्योंकि बाजार में फसल का दाम गिरता जाएगा। अत: मोदी से विनती है कि वह कृषि उत्पादों के दाम में वृद्धि की नीति बनाएं। किसानों को सस्ते ऋण के मोहपाश में डालकर दलदल में न फंसाएं।
रही बात लोगों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने की। यहां भी सावधानी बरतने की जरूरत है। 19वीं सदी में हमारे गांवों का शहरों से जुड़ाव न्यून था। गांव में लुहार, बढ़ई और बुनकर होता था। उस समय विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत था। ब्रिटिश सरकार ने देश में रेललाइनों का जाल बिछा दिया और गांवों को शहरों से और शहरों को महानगरों से जोड़ दिया, लेकिन देश गरीब हो गया। विश्व अर्थव्यवस्था में हमारा हिस्सा घटकर दो प्रतिशत रह गया। कारण कि रेलगाड़ी का उद्देश्य भारत के प्राकृतिक संसाधनों जैसे कपास, नील और लकड़ी को लंदन पहुंचाना था। रेलगाड़ी हमारी समृद्धि को निर्यात करने का माध्यम बन गई। देश की बैंकिंग व्यवस्था का भी यही हाल है। बैंकों का उद्देश्य गांव के धन को मुंबई पहुंचाना मात्र रह गया है। ग्रामीण क्षेत्र के बैंकों का क्त्रेडिट डिपोजिट रेशियो 15 के करीब रहता है। 85 रुपये मुंबई भेज दिए जाते हैं। जिस प्रकार रेलगाड़ी ने हमारे कपास को इंग्लैंड पहुंचाया उसी प्रकार बैंकों द्वारा गांव के धन को मुंबई पहुंचाया जा रहा है। देश की जनता के खाते खुलवाने का अर्थ यह हो जाता है कि अधिकाधिक लोगों की पूंजी को मुंबई पहुंचाया जाए। इससे गांव और गरीब का भला कैसे होगा, यह मेरी समझ के परे है। मैं बैंकों के विस्तार का स्वागत करता हूं, परंतु इसकी सार्थकता तभी है जब पहले गांवों को समृद्ध बनाया जाए। गांव के लोगों के पास धंधा करने के अवसर हों, उनको ऋण लेने की जरूरत हो, बैंकों द्वारा मुंबई का पैसा गांव पहुंचाया जाए तो यह विस्तार सार्थक है। कृषि उत्पादों के मूल्य न्यून रखने के साथ बैंकों का वही विस्तार अभिशाप बन जाता है। भूखे को घी पिलाने से अपच हो जाता है। पेट भरा होने पर वही घी स्वास्थ्यवर्धक होता है। पहले गरीब की आय बढ़ानी चाहिए और तब उसे बैंक से जोड़ना चाहिए।
इस उद्देश्य को हासिल करने में दो अड़चन हैं। पहली अड़चन शहरी मध्यम वर्ग के स्वार्थ की है। ये लोग अनाज खरीद कर खाते हैं। इसमें बड़ा हिस्सा सरकारी महकमे का है। देश के संगठित क्षेत्र में कुल तीन करोड़ कर्मी कार्यरत हैं। इनमें दो करोड़ सरकारी कर्मी हैं। इन सरकारी कर्मियों को प्रसन्न रखने के लिए हमारे सरकारी अधिकारियों ने सोची-समझी नीति के तहत कृषि उत्पादों के दाम न्यून और शहरी उत्पादों के दाम ऊंचे बनाए रखे हैं। जरूरत इस विसंगति को दूर करने की है। गरीब द्वारा बनाए गए माल की कीमत बढ़ाने की नीति बनाई जानी चाहिए। दूसरी अड़चन डब्ल्यूटीओ की है। मोदी यदि आटा, चावल और चीनी के दाम बढ़ाकर किसान को राहत पहुंचाना चाहें तो भी नहीं कर सकेंगे, क्योंकि विदेशों से सस्ती चीनी का आयात हो जाएगा। कपड़े को लें। मान लीजिए सरकार ने जुलाहों की जीविका सुधारने के लिए देश की कपड़ा मिलों पर टैक्स लगा दिया। मिल में बना कपड़ा महंगा हो गया और हथकरघा चल निकला, लेकिन चीन में बना सस्ता कपड़ा बाजार में प्रवेश करेगा और हमारे जुलाहे और कपड़ा मिल दोनों का बाजा बजा देगा। अत: मोदी को डब्ल्यूटीओ पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए। खाद्य सब्सिडी पर कड़ा रुख अपनाकर उन्होंने सही दिशा में कदम उठाया है। इसे और आगे ले जाने की जरूरत है। बहरहाल इतना स्पष्ट है कि गरीब द्वारा बनाए गए माल की मूल्य वृद्धि के अभाव में जन-धन योजना के माध्यम से आम आदमी की गाढ़ी कमाई को मात्र मुंबई पहुंचाने का कार्य संपन्न किया जाएगा।
[लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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प्रधानमंत्री का बैंक

कुमार प्रशांत

 जनसत्ता 12 सितंबर, 2014: प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल किले से अपनी जिन हसरतों का जिक्र किया, उनमें एक थी कि इस देश के हर ग्रामीण और गरीब के पास अपना बैंक खाता होना चाहिए। फिर एक पखवाड़े से भी कम समय में, अट््ठाईस अगस्त को एक करोड़ से अधिक लोगों का बैंक खाता खुलना, उनका जीवन बीमा होना, उन्हें क्रेडिट कार्ड मिलना आदि कई बातें हुर्इं जिनकी दूसरी मिसाल खोजे नहीं मिलेगी। इन सारे कीर्तिमानों में जो सबसे बड़ी बात दिखाई दी वह यह कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो यही नौकरशाही काम करती है। जहां तक देश को चलाने का सवाल है, खोट औजारों में नहीं, कारीगरों में रही है। बहुत समय तक खराब कारीगर ही अगर औजार का इस्तेमाल करते रहते हैं तो औजार भी खराब हो जाता है। हमारे यहां अधिकांशत: यही हुआ है।  सबसे पहले हमें तय यह करना चाहिए कि बैंक हैं क्या? जनसेवा के उपकरण हैं या बाजार में कूद कर कमाई करने की पागल होड़ में पड़े तिकड़मबाजों का अड्डा हैं? प्रधानमंत्री बैंकों को कल्याणकारी राज्य के आर्थिक तंत्र को पुख्ता करने का उपकरण मानते हैं या समाज के सर्व-सामर्थ्यवान वर्ग के हाथ में एक दूसरा औजार कि जिससे वह औने-पौने ढंग से कमाई करे और फिर सरकार के साथ उसकी बंदरबांट कर ले? यह तय हो ले तभी यह भी तय हो सकेगा कि प्रधानमंत्री जन धन योजना में जन कौन है और धन किधर है!  इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो तथाकथित अर्थशास्त्रियों में तालियां बजाने वाले और धिक्कार करने वाले दोनों थे। इसमें अर्थशास्त्र बहुत कम था और अर्थशास्त्रियों की अपनी-अपनी राजनीति बहुत ज्यादा थी। लेकिन तब देश में एक आवाज जयप्रकाश नारायण की भी उठी थी कि सरकारीकरण को राष्ट्रीयकरण मानने की भूल हम न करें! उनका सीधा मतलब यह था कि बैंकों के राष्ट्रीय-सामाजिक उद्देश्य क्या हैं और वे कैसे प्राप्त किए जाएंगे, यह सुनिश्चित किए बिना बैंकों के राष्ट्रीयकरण के तीर से कांग्रेस की अंदरूनी राजनीतिक उठा-पटक में सिंडिकेट को हराया और मिटाया तो जा सकता है, लेकिन राष्ट्रीय धन का राष्ट्र-निर्माण में इस्तेमाल नहीं हो सकता है! तब जयप्रकाश नारायण ने कहा था, अब नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि बैकों के राष्ट्रीयकरण के सपने कहीं पीछे छूट गए और बैंक कहीं और ही निकल गए। क्यों निकल गए? किधर निकल गए? कैसे निकल गए? अगर इंदिरा गांधी के साथ ऐसा हुआ तो नरेंद्र मोदी के साथ ऐसा क्यों नहीं होगा? जवाब बैंकिंग के दिग्गजों को और तथाकथित अर्थशास्त्रियों को देना चाहिए।  बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद, येनकेन प्रकारेण निजी बैकों ने फिर से जगह बनानी शुरू की; हाल-फिलहाल में हमने देखा कि हमारी वित्त-त्रिमूर्ति मनमोहन-चिदंबरम-मोंटेक ने महसूस किया कि हमारे पास पैसों की नहीं, बल्कि बैंकों की कमी है! बहुत सारे बैंक होंगे तो हमारा धन जन तक पहुंचेगा। तो बैंक खोलने के आवेदन आमंत्रित किए गए और आप देखेंगे कि देश का शायद ही कोई कॉरपोरेट घराना होगा जो आवेदन लेकर लाइन में नहीं खड़ा हुआ! आखिर कॉरपोरेट घरानों को क्या हुआ कि वे सब के सब जनसेवा की बीमारी से ग्रस्त हो गए! यह आर्थिक इबोला कहां से फैला? हमने बहुत सारी व्यवस्थाओं की तरह बैंकिंग की व्यवस्था भी अंगरेजों से उठा ली है। बैकों को जनसेवा का उपकरण बनने देना न वे चाहते थे और न हमने कभी चाहा। उनके लिए बैंक उपनिवेशों का शोषण करने की व्यवस्था थी, हमारे लिए भी वही रही। कॉरपोरेटों के लिए बैंक एक उद्योग है जिसमें निवेश कर वे मुनाफा कमाना चाहते हैं; सरकार के लिए बैंक जन से धन एकत्रित कर, उसका राजनीतिक इस्तेमाल करने के साधन हैं। कॉरपोरेट घराने साधारण मुनाफे की तरफ आकर्षित नहीं होते, वे मुनाफाखोरी की संभावनाओं का आकलन करते हैं और चार लगा कर कम से कम चालीस पाने की जहां आशा न हो वहां वे फटकते भी नहीं हैं। ऐसे कॉरपोरेट अगर बैंक खोलने के लिए लाइन लगाते हैं तो इसका मतलब समझने के लिए हमारा खगोलशास्त्री होना जरूरी नहीं है। सामान्य समझ ही बहुत कुछ बता देती है।  सरकार इतना ही आंकड़ा देश के सामने रखे तो बात आईने की तरह साफ हो जाएगी कि आजादी के बाद से अब तक, सरकारी और निजी बैंकों ने कॉरपोरेट घरानों को कितना, मझोले और लघु उद्यमियों को कितना ऋण दिया है; उनकी वापसी की दर कितनी रही है और किसके माथे कितना बकाया है? यह आंकड़ा भी कई सारे रहस्य खोल देगा कि समय-समय पर चुनावी फसलें काटने के लिए ‘ऋण-माफी तथा दूसरी जनहित की घोषणाओं’ के तहत बैंकों को कितना पैसा, कहां और किन्हें, किन शर्तों पर बांटने पर मजबूर किया गया है और बैंकों ने उसका कैसे वहन किया? एक बार यह तस्वीर देश के सामने रख ही दी जाए कि हमारे जितने भी वित्तीय संस्थान हैं उन सबके वित्तीय व्यवहार की सच्चाई क्या है? प्रधानमंत्री का इतना कहना काफी नहीं है कि अमीरों की तुलना में गरीबों को पांच फीसद से ज्यादा दर पर ऋण मिलता है बल्कि यह बताना भी जरूरी है कि अमीरों को ऋण किसलिए, किन शर्तों पर मिला और उनकी वापसी की स्थिति क्या है? यह भी बताया जाए श्रीमान कि सरकार और वित्तीय संस्थानों ने अब तक किसकी कितनी रकम खट्टूस- राइट ऑफ- कर दी है? यह सब एक बार देश के सामने आ जाए तब बैंकिंग व्यवस्था का पूरा चेहरा दिखाई देगाऔर तब प्रधानमंत्री हमें यह बताएं कि उनकी सरकार इस चेहरे में से कौन-सा और क्या रखना और बदलना चाहती है और नया चेहरा क्या होगा! नहीं, प्रधानमंत्रीजी, आप यह काम योजना आयोग को भंग करने की तर्ज पर नहीं कर सकते। पहले पूरा वैकल्पिक खाका बनाना होगा, भूमिकाएं तय करनी होंगी और सरकार को जिम्मेवारी लेनी होगी तभी आप बैंकिंग व्यवस्था से छेड़छाड़ कर सकते हैं। ऐसा कोई संकेत आपकी बातों में दिखाई तो नहीं दे रहा है। बैंकों की बुनियादी संकल्पना यह थी कि यह एक ऐसी वित्तीय व्यवस्था होगी जहां नागरिक अपने पैसे सुरक्षित रख सकेंगे और जब जैसी जरूरत होगी, निकाल भी सकेंगे। नागरिकों के पैसों के एवज में बैंक उन्हें ब्याज देगा, कर्ज और दूसरी सुविधाएं देगा। बैंकों में जमा नागरिकों के पैसों का इस्तेमाल सरकार और दूसरे लोग अपनी योजनाओं के लिए ब्याज देकर कर सकेंगे और यही ब्याज बैंकों की अपनी कमाई होगी। बैंक जिस दर पर ब्याज कमाते हैं और अपने महाजन नागरिक को जिस दर पर ब्याज देते हैं उसमें न्यायतुल्य संतुलन होना ही चाहिए। बैंक बाजार में उतर कर हर तरह की कमाई के लिए हाथ-पैर मारेंगे तो स्वाभाविक है कि नागरिकों की उपेक्षा होगी, उनका शोषण होगा और इनके ही पैसों पर बैंकिंग उद्योग मौज करेगा। आज एकदम यही स्थिति है। सामान्य खाता-धारक को बैंक क्या ब्याज देता है, क्या सुविधाएं देता है, इसका हिसाब लगाएं हम। जिनके पैसों पर आप अंधाधुंध कमाई कर रहे हैं उन्हें एक चेकबुक भी आप सौजन्यतापूर्वक नहीं देते हैं। कमाल की लूट है! चेक के बिना हम अपना पैसा न ले सकते हैं न दे सकते हैं, यह व्यवस्था आप बनाएं और फिर चोर दरवाजे से यह शर्त भी लाद दें कि इस चेक का पैसा भी अदा करना होगा तो यह ईमानदारी की बात है या हमें विवश कर लूटने की? बैंक की कोई भी सेवा अब शुल्क के बिना नहीं मिलती। एक महाजन जैसे अजगर की तरह अपने कर्जदार को लपेटता जाता है ताकि अंतत: उसे बेबस कर सके, वैसा ही हाल बैंकों का है। बैकों की हर सेवा, हर योजना बड़ी पूंजी वालों के हित में बनने लगी है। बैंक में खाता खोलना सीबीआइ के दफ्तर में जाने सरीखा क्यों बन गया है भाई? कॉरपोरेटों का खाता खोलना हो, उनसे करोड़ों-अरबों की एफडी पानी हो, उन्हें कर्ज लेने के लिए तैयार करना हो तो बैंकों के बड़े-बड़े अधिकारी, उनके घरों-दफ्तरों में कारकूनों की तरह हाजिरी देते हैं; और आपके काउंटर पर खाता खोलने का फॉर्म लेकर जो नागरिक खड़ा होता है उससे आप ऐसा बर्ताव करते हैं मानो उसने यहां आकर आप पर कृपा न की हो, बल्कि अपराध किया हो। आपने कहा कि हम ऐसी व्यवस्था करेंगे कि आपको बैंक में आने की परेशानी न उठानी पड़े। हमने तो इसकी शिकायत की ही नहीं थी, लेकिन आपको खुले बाजार में किराया भारी पड़ रहा था, आप कम से कम लोगों में अपना काम चलाने की चालाकी में थे तो आपने एटीएम मशीनें लगार्इं। आपने फिर कहा कि हम आपको एसएमएस से आपके खाते की जानकारी दिया करेंगे, आप फोन से बैंकिंग का अपना पूरा काम कीजिए। इनमें से कुछ भी हमने नहीं मांगा था, अपनी सुविधा के लिए आपने हमें ये सुविधाएं दीं और फिर इन सबकी कीमत वसूलनी शुरू कर दी। एटीएम की फीस बढ़ती जा रही है, हम किसी भी बैंक के एटीएम से अपना पैसा निकाल सकते हैं, यह सुविधा भी कम-से-कम की जा रही है। मुंबई के स्टेट बैंक और आइसीआइसीआइ जैसे बैंकों के एटीएम का यह हाल है कि वहां से चेक डालने वाले बक्से हटा दिए गए हैं, स्टेशनरी का सामान, आलपिन कुछ भी उपलब्ध नहीं रहा है। हम देखते कि हमारे बैंकों की आर्थिक दशा इतनी कमजोर है कि वे बेचारे अपनी नाक पानी से ऊपर रखने की जद्दोजहद में पड़े हैं तो इन सारी चालाकियों को अनदेखा कर जाते। लेकिन हम देख तो यह रहे हैं कि हर बैंक आलीशान-से-आलीशान इमारतें खड़ी कर रहा है, चमकीली-से-चमकीली शाखाएं खोली जा रही हैं, बैंकों के वेतन देखिए, उनका प्रचार का बजट देखिए, उनके सेमिनार और दूसरे आयोजन देखिए तो विश्वास नहीं होगा कि यह संकट में पड़ा उद्योग है। बैंक आज नागरिकों का धन बटोर कर सबसे अकुशल, भ्रष्ट, दिशाहीन और निहित स्वार्थों से समझौता कर चलने वाला धंधा बन गया है। बैंकों के अकथ घोटाले हैं - सेबी की अदालत में खड़ी कंपनियों के अरबों-खरबों के घोटाले के मामलों में बैंकों की भूमिका की जांच तो करे कोई! नागरवाला कांड जैसे हुआ और जैसे उसे दफना दिया गया क्या वह भूलने लायक है? 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