Thursday 4 September 2014

प्रधानमंत्री मोदी का स्वतंत्रता दिवस भाषण


प्रधानमंत्री मोदी का स्वतंत्रता दिवस भाषण ज्यों का त्यों

नवभारतटाइम्स.कॉम | Aug 15, 2014, 

मेरे प्यारे देशवासियो,
आज देश और दुनिया में फैले हुए सभी हिन्दुस्तानी आज़ादी का पर्व मना रहे हैं। इस आज़ादी के पावन पर्व पर प्यारे देशवासियों को भारत के प्रधान सेवक की अनेक-अनेक शुभकामनाएँ।
मैं आपके बीच प्रधान मंत्री के रूप में नहीं, प्रधान सेवक के रूप में उपस्थित हूँ। देश की आज़ादी की जंग कितने वर्षों तक लड़ी गई, कितनी पीढ़ियाँ खप गईं, अनगिनत लोगों ने बलिदान दिए, जवानी खपा दी, जेल में ज़िन्दगी गुज़ार दी। देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने वाले समर्पित उन सभी आज़ादी के सिपाहियों को मैं शत-शत वंदन करता हूँ, नमन करता हूँ। आज़ादी के इस पावन पर्व पर भारत के कोटि-कोटि जनों को भी मैं प्रणाम करता हूँ और आज़ादी की जंग के लिए जिन्होंने कुर्बानियां दीं, उनका पुण्य स्मरण करते हुए आज़ादी के इस पावन पर्व पर मां भारती के कल्याण के लिए हमारे देश के गरीब, पीड़ित, दलित, शोषित, समाज के पिछड़े हुए सभी लोगों के कल्याण का, उनके लिए कुछ न कुछ कर गुज़रने का संकल्प करने का पर्व है। मेरे प्यारे देशवासियो, राष्ट्रीय पर्व, राष्ट्रीय चरित्र को निखारने का एक अवसर होता है। राष्ट्रीय पर्व से प्रेरणा ले करके भारत के राष्ट्रीय चरित्र, जन-जन का चरित्र जितना अधिक निखरे, जितना अधिक राष्ट्र के लिए समर्पित हो, सारे कार्यकलाप राष्ट्रहित की कसौटी पर कसे जाएँ, अगर उस प्रकार का जीवन जीने का हम संकल्प करते हैं, तो आज़ादी का पर्व भारत को नई ऊँचाइयों पर ले जाने का एक प्रेरणा पर्व बन सकता है। 
मेरे प्यारे देशवासियो, यह देश राजनेताओं ने नहीं बनाया है, यह देश शासकों ने नहीं बनाया है, यह देश सरकारों ने भी नहीं बनाया है, यह देश हमारे किसानों ने बनाया है, हमारे मजदूरों ने बनाया है, हमारी माताओं और बहनों ने बनाया है, हमारे नौजवानों ने बनाया है, हमारे देश के ऋषियों ने, मुनियों ने, आचार्यों ने, शिक्षकों ने, वैज्ञानिकों ने, समाजसेवकों ने, पीढ़ी दर पीढ़ी कोटि-कोटि जनों की तपस्या से आज राष्ट्र यहाँ पहुँचा है। देश के लिए जीवन भर साधना करने वाली ये सभी पीढ़ियां, सभी महानुभाव अभिनन्दन के अधिकारी हैं। यह भारत के संविधान की शोभा है, भारत के संविधान का सामर्थ्य है कि एक छोटे से नगर के गरीब परिवार के एक बालक ने आज लाल किले की प्राचीर पर भारत के तिरंगे झण्डे के सामने सिर झुकाने का सौभाग्य प्राप्त किया। यह भारत के लोकतंत्र की ताकत है, यह भारत के संविधान रचयिताओं की हमें दी हुई अनमोल सौगात है। मैं भारत के संविधान के निर्माताओं को इस पर नमन करता हूँ। 
भाइयो एवं बहनो, आज़ादी के बाद देश आज जहां पहुंचा है, उसमें इस देश के सभी प्रधान मंत्रियों का योगदान है, इस देश की सभी सरकारों का योगदान है, इस देश के सभी राज्यों की सरकारों का भी योगदान है। मैं वर्तमान भारत को उस ऊँचाई पर ले जाने का प्रयास करने वाली सभी पूर्व सरकारों को, सभी पूर्व प्रधान मंत्रियों को, उनके सभी कामों को, जिनके कारण राष्ट्र का गौरव बढ़ा है, उन सबके प्रति इस पल आदर का भाव व्यक्त करना चाहता हूँ, मैं आभार की अभिव्यक्ति करना चाहता हूं। यह देश पुरातन सांस्कृतिक धरोहर की उस नींव पर खड़ा है, जहाँ पर वेदकाल में हमें एक ही मंत्र सुनाया जाता है, जो हमारी कार्य संस्कृति का परिचय है, हम सीखते आए हैं, पुनर्स्मरण करते आए हैं- "संगच्छध्वम् संवदध्वम् सं वो मनांसि जानताम्।" हम साथ चलें, मिलकर चलें, मिलकर सोचें, मिलकर संकल्प करें और मिल करके हम देश को आगे बढ़ाएँ। इस मूल मंत्र को ले करके सवा सौ करोड़ देशवासियों ने देश को आगे बढ़ाया है। कल ही नई सरकार की प्रथम संसद के सत्र का समापन हुआ। मैं आज गर्व से कहता हूं कि संसद का सत्र हमारी सोच की पहचान है, हमारे इरादों की अभिव्यक्ति है। हम बहुमत के बल पर चलने वाले लोग नहीं हैं, हम बहुमत के बल पर आगे बढ़ना नहीं चाहते हैं। हम सहमति के मजबूत धरातल पर आगे बढ़ना चाहते हैं। "संगच्छध्वम्" और इसलिए इस पूरे संसद के कार्यकाल को देश ने देखा होगा। सभी दलों को साथ लेकर, विपक्ष को जोड़ कर, कंधे से कंधा मिलाकर चलने में हमें अभूतपूर्व सफलता मिली है और उसका यश सिर्फ प्रधान मंत्री को नहीं जाता है, उसका यश सिर्फ सरकार में बैठे हुए लोगों को नहीं जाता है, उसका यश प्रतिपक्ष को भी जाता है, प्रतिपक्ष के सभी नेताओं को भी जाता है, प्रतिपक्ष के सभी सांसदों को भी जाता है और लाल किले की प्राचीर से, गर्व के साथ, मैं इन सभी सांसदों का अभिवादन करता हूं। सभी राजनीतिक दलों का भी अभिवादन करता हूं, जहां सहमति के मजबूत धरातल पर राष्ट्र को आगे ले जाने के महत्वपूर्ण निर्णयों को कर-करके हमने कल संसद के सत्र का समापन किया। 
भाइयो-बहनो, मैं दिल्ली के लिए आउटसाइडर हूं, मैं दिल्ली की दुनिया का इंसान नहीं हूं। मैं यहां के राज-काज को भी नहीं जानता। यहां की एलीट क्लास से तो मैं बहुत अछूता रहा हूं, लेकिन एक बाहर के व्यक्ति ने, एक आउटसाइडर ने दिल्ली आ करके पिछले दो महीने में, एक इनसाइडर व्यू लिया, तो मैं चौंक गया! यह मंच राजनीति का नहीं है, राष्ट्रनीति का मंच है और इसलिए मेरी बात को राजनीति के तराजू से न तोला जाए। मैंने पहले ही कहा है, मैं सभी पूर्व प्रधान मंत्रियों, पूर्व सरकारों का अभिवादन करता हूं, जिन्होंने देश को यहां तक पहुंचाया। मैं बात कुछ और करने जा रहा हूं और इसलिए इसको राजनीति के तराजू से न तोला जाए। मैंने जब दिल्ली आ करके एक इनसाइडर व्यू देखा, तो मैंने अनुभव किया, मैं चौंक गया। ऐसा लगा जैसे एक सरकार के अंदर भी दर्जनों अलग-अलग सरकारें चल रही हैं। हरेक की जैसे अपनी-अपनी जागीरें बनी हुई हैं। मुझे बिखराव नज़र आया, मुझे टकराव नज़र आया। एक डिपार्टमेंट दूसरे डिपार्टमेंट से भिड़ रहा है और यहां तक‍ भिड़ रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खट-खटाकर एक ही सरकार के दो डिपार्टमेंट आपस में लड़ाई लड़ रहे हैं। यह बिखराव, यह टकराव, एक ही देश के लोग! हम देश को कैसे आगे बढ़ा सकते हैं? और इसलिए मैंने कोशिश प्रारम्भ की है, उन दीवारों को गिराने की, मैंने कोशिश प्रारम्भ की है कि सरकार एक असेम्बल्ड एन्टिटी नहीं, लेकिन एक ऑर्गेनिक युनिटी बने, ऑर्गेनिक एन्टिटी बने। एकरस हो सरकार - एक लक्ष्य, एक मन, एक दिशा, एक गति, एक मति - इस मुक़ाम पर हम देश को चलाने का संकल्प करें। हम चल सकते हैं। इन दिनों अखबारों में चर्चा चलती है कि मोदी जी की सरकार आ गई, अफसर लोग समय पर ऑफिस जाते हैं, समय पर ऑफिस खुल जाते हैं, लोग पहुंच जाते हैं। मैं देख रहा था, हिन्दुस्तान के नैशनल न्यूज़पेपर कहे जाएं, टीवी मीडिया कहा जाए, प्रमुख रूप से ये खबरें छप रही थीं। सरकार के मुखिया के नाते तो मुझे आनन्द आ सकता है कि देखो भाई, सब समय पर चलना शुरू हो गया, सफाई होने लगी, लेकिन मुझे आनन्द नहीं आ रहा था, मुझे पीड़ा हो रही थी। वह बात मैं आज पब्लिक में कहना चाहता हूं। इसलिए कहना चाहता हूं कि इस देश में सरकारी अफसर समय पर दफ्तर जाएं, यह कोई न्यूज़ होती है क्या? और अगर वह न्यूज़ बनती है, तो हम कितने नीचे गए हैं, कितने गिरे हैं, इसका वह सबूत बन जाती है और इसलिए भाइयो-बहनो, सरकारें कैसे चली हैं? आज वैश्विक स्पर्धा में कोटि-कोटि भारतीयों के सपनों को साकार करना होगा तो यह "होती है", "चलती है", से देश नहीं चल सकता। जन-सामान्य की आशा-आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए, शासन व्यवस्था नाम का जो पुर्जा है, जो मशीन है, उसको और धारदार बनाना है, और तेज़ बनाना है, और गतिशील बनाना है और उस दिशा में हम प्रयास कर रहे हैं और मैं आपको विश्वास देता हूं, मेरे देशवासियो, इतने कम समय से दिल्ली के बाहर से आया हूं, लेकिन मैं देशवासियों को विश्वास दिलाता हूं कि सरकार में बैठे हुए लोगों का सामर्थ्य बहुत है - चपरासी से लेकर कैबिनेट सेक्रेटरी तक हर कोई सामर्थ्यवान है, हरेक की एक शक्ति है, उसका अनुभव है। मैं उस शक्ति को जगाना चाहता हूं, मैं उस शक्ति को जोड़ना चाहता हूं और उस शक्ति के माध्यम से राष्ट्र कल्याण की गति को तेज करना चाहता हूं और मैं करके रहूंगा। यह हम पाकर रहेंगे, हम करके रहेंगे, यह मैं देशवासियों को विश्वास दिलाना चाहता हूं और यह मैं 16 मई को नहीं कह सकता था, लेकिन आज दो-ढाई महीने के अनुभव के बाद, मैं 15 अगस्त को तिरंगे झंडे के साक्ष्य से कह रहा हूं, यह संभव है, यह होकर रहेगा।
भाइयो-बहनो, क्या देश के हमारे जिन महापुरुषों ने आज़ादी दिलाई, क्या उनके सपनों का भारत बनाने के लिए हमारा भी कोई कर्तव्य है या नहीं है, हमारा भी कोई राष्ट्रीय चरित्र है या नहीं है? उस पर गंभीरता से सोचने का समय आ गया है। 
भाइयो-बहनो, कोई मुझे बताए कि हम जो भी कर रहे हैं दिन भर, शाम को कभी अपने आपसे पूछा कि मेरे इस काम के कारण मेरे देश के गरीब से गरीब का भला हुआ या नहीं हुआ, मेरे देश के हितों की रक्षा हुई या नहीं हुई, मेरे देश के कल्याण के काम में आया या नहीं आया? क्या सवा सौ करोड़ देशवासियों का यह मंत्र नहीं होना चाहिए कि जीवन का हर कदम देशहित में होगा? दुर्भाग्य कैसा है? आज देश में एक ऐसा माहौल बना हुआ है कि किसी के पास कोई भी काम लेकर जाओ, तो कहता है, "इसमें मेरा क्या"? वहीं से शुरू करता है, "इसमें मेरा क्या" और जब उसको पता चलेगा कि इसमें उसका कुछ नहीं है, तो तुरन्त बोलता है, "तो फिर मुझे क्या"? "ये मेरा क्या" और "मुझे क्या", इस दायरे से हमें बाहर आना है। हर चीज़ अपने लिए नहीं होती है। कुछ चीज़ें देश के लिए भी हुआ करती हैं और इसलिए हमारे राष्ट्रीय चरित्र को हमें निखारना है। "मेरा क्या", "मुझे क्या", उससे ऊपर उठकर "देशहित के हर काम के लिए मैं आया हूं, मैं आगे हूं", यह भाव हमें जगाना है। 
भाइयो-बहनो, आज जब हम बलात्कार की घटनाओं की खबरें सुनते हैं, तो हमारा माथा शर्म से झुक जाता है। लोग अलग-अलग तर्क देते हैं, हर कोई मनोवैज्ञानिक बनकर अपने बयान देता है, लेकिन भाइयो-बहनो, मैं आज इस मंच से मैं उन माताओं और उनके पिताओं से पूछना चाहता हूं, हर मां-बाप से पूछना चाहता हूं कि आपके घर में बेटी 10 साल की होती है, 12 साल की होती है, मां और बाप चौकन्ने रहते हैं, हर बात पूछते हैं कि कहां जा रही हो, कब आओगी, पहुंचने के बाद फोन करना। बेटी को तो सैकड़ों सवाल मां-बाप पूछते हैं, लेकिन क्या कभी मां-बाप ने अपने बेटे को पूछने की हिम्मत की है कि कहां जा रहे हो, क्यों जा रहे हो, कौन दोस्त है? आखिर बलात्कार करने वाला किसी न किसी का बेटा तो है। उसके भी तो कोई न कोई मां-बाप हैं। क्या मां-बाप के नाते, हमने अपने बेटे को पूछा कि तुम क्या कर रहे हो, कहां जा रहे हो? अगर हर मां-बाप तय करे कि हमने बेटियों पर जितने बंधन डाले हैं, कभी बेटों पर भी डाल करके देखो तो सही, उसे कभी पूछो तो सही। 
भाइयो-बहनो, कानून अपना काम करेगा, कठोरता से करेगा, लेकिन समाज के नाते भी, हर मां-बाप के नाते हमारा दायित्व है। कोई मुझे कहे, यह जो बंदूक कंधे पर उठाकर निर्दोषों को मौत के घाट उतारने वाले लोग कोई माओवादी होंगे, कोई आतंकवादी होंगे, वे किसी न किसी के तो बेटे हैं। मैं उन मां-बाप से पूछना चाहता हूं कि अपने बेटे से कभी इस रास्ते पर जाने से पहले पूछा था आपने? हर मां-बाप जिम्मेवारी ले, इस गलत रास्ते पर गया हुआ आपका बेटा निर्दोषों की जान लेने पर उतारू है। न वह अपना भला कर पा रहा है, न परिवार का भला कर पा रहा है और न ही देश का भला कर पा रहा है और मैं हिंसा के रास्ते पर गए हुए, उन नौजवानों से कहना चाहता हूं कि आप जो भी आज हैं, कुछ न कुछ तो भारतमाता ने आपको दिया है, तब पहुंचे हैं। आप जो भी हैं, आपके मां-बाप ने आपको कुछ तो दिया है, तब हैं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, कंधे पर बंदूक ले करके आप धरती को लाल तो कर सकते हो, लेकिन कभी सोचो, अगर कंधे पर हल होगा, तो धरती पर हरियाली होगी, कितनी प्यारी लगेगी। कब तक हम इस धरती को लहूलुहान करते रहेंगे? और हमने पाया क्या है? हिंसा के रास्ते ने हमें कुछ नहीं दिया है। 
भाइयो-बहनो, मैं पिछले दिनों नेपाल गया था। मैंने नेपाल में सार्वजनिक रूप से पूरे विश्व को आकर्षित करने वाली एक बात कही थी। एक ज़माना था, सम्राट अशोक जिन्होंने युद्ध का रास्ता लिया था, लेकिन हिंसा को देख करके युद्ध छोड़, बुद्ध के रास्ते पर चले गए। मैं देख रहा हूं कि नेपाल में कोई एक समय था, जब नौजवान हिंसा के रास्ते पर चल पड़े थे, लेकिन आज वही नौजवान संविधान की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्हीं के साथ जुड़े लोग संविधान के निर्माण में लगे हैं और मैंने कहा था, शस्त्र छोड़कर शास्त्र के रास्ते पर चलने का अगर नेपाल एक उत्तम उदाहरण देता है, तो विश्व में हिंसा के रास्ते पर गए हुए नौजवानों को वापस आने की प्रेरणा दे सकता है। 
भाइयो-बहनो, बुद्ध की भूमि, नेपाल अगर संदेश दे सकती है, तो क्या भारत की भूमि दुनिया को संदेश नहीं दे सकती है? और इसलिए समय की मांग है, हम हिंसा का रास्ता छोड़ें, भाईचारे के रास्ते पर चलें।
भाइयो-बहनो, सदियों से किसी न किसी कारणवश साम्प्रदायिक तनाव से हम गुज़र रहे हैं, देश विभाजन तक हम पहुंच गए। आज़ादी के बाद भी कभी जातिवाद का ज़हर, कभी सम्पद्रायवाद का ज़हर, ये पापाचार कब तक चलेगा? किसका भला होता है? बहुत लड़ लिया, बहुत लोगों को काट लिया, बहुत लोगों को मार दिया। भाइयो-बहनो, एक बार पीछे मुड़कर देखिए, किसी ने कुछ नहीं पाया है। सिवाय भारत मां के अंगों पर दाग लगाने के हमने कुछ नहीं किया है और इसलिए, मैं देश के उन लोगों का आह्वान करता हूं कि जातिवाद का ज़हर हो, सम्प्रदायवाद का ज़हर हो, आतंकवाद का ज़हर हो, ऊंच-नीच का भाव हो, यह देश को आगे बढ़ाने में रुकावट है। एक बार मन में तय करो, दस साल के लिए मोरेटोरियम तय करो, दस साल तक इन तनावों से हम मुक्त समाज की ओर जाना चाहते हैं और आप देखिए, शांति, एकता, सद्भावना, भाईचारा हमें आगे बढ़ने में कितनी ताकत देता है, एक बार देखो।
मेरे देशवासियो, मेरे शब्दों पर भरोसा कीजिए, मैं आपको विश्वास दिलाता हूं। अब तक किए हुए पापों को, उस रास्ते को छोड़ें, सद्भावना, भाईचारे का रास्ता अपनाएं और हम देश को आगे ले जाने का संकल्प करें। मुझे विश्वास है कि हम इसको कर सकते हैं।
भाइयो-बहनो, जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ रहा है, आधुनिकता का हमारे मन में एक भाव जगता है, पर हम करते क्या हैं? क्या कभी सोचा है कि आज हमारे देश में सेक्स रेशियो का क्या हाल है? 1 हजार लड़कों पर 940 बेटियाँ पैदा होती हैं। समाज में यह असंतुलन कौन पैदा कर रहा है? ईश्वर तो नहीं कर रहा है। मैं उन डॉक्टरों से अनुरोध करना चाहता हूं कि अपनी तिजोरी भरने के लिए किसी माँ के गर्भ में पल रही बेटी को मत मारिए। मैं उन माताओं, बहनों से कहता हूं कि आप बेटे की आस में बेटियों को बलि मत चढ़ाइए। कभी-कभी माँ-बाप को लगता है कि बेटा होगा, तो बुढ़ापे में काम आएगा। मैं सामाजिक जीवन में काम करने वाला इंसान हूं। मैंने ऐसे परिवार देखे हैं कि पाँच बेटे हों, पाँचों के पास बंगले हों, घर में दस-दस गाड़ियाँ हों, लेकिन बूढ़े माँ-बाप ओल्ड एज होम में रहते हैं, वृद्धाश्रम में रहते हैं। मैंने ऐसे परिवार देखे हैं। मैंने ऐसे परिवार भी देखे हैं, जहाँ संतान के रूप में अकेली बेटी हो, वह बेटी अपने सपनों की बलि चढ़ाती है, शादी नहीं करती और बूढ़े माँ-बाप की सेवा के लिए अपने जीवन को खपा देती है। यह असमानता, माँ के गर्भ में बेटियों की हत्या, इस 21वीं सदी के मानव का मन कितना कलुषित, कलंकित, कितना दाग भरा है, उसका प्रदर्शन कर रहा है। हमें इससे मुक्ति लेनी होगी और यही तो आज़ादी के पर्व का हमारे लिए संदेश है।
अभी राष्ट्रमंडल खेल हुए हैं। भारत के खिलाड़ियों ने भारत को गौरव दिलाया है। हमारे करीब 64 खिलाड़ी जीते हैं। हमारे 64 खिलाड़ी मेडल लेकर आए हैं, लेकिन उनमें 29 बेटियाँ हैं। इस पर गर्व करें और उन बेटियों के लिए ताली बजाएं। भारत की आन-बान-शान में हमारी बेटियों का भी योगदान है, हम इसको स्वीकार करें और उन्हें भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ लेकर चलें, तो सामाजिक जीवन में जो बुराइयाँ आई हैं, हम उन बुराइयों से मुक्ति पा सकते हैं। इसलिए भाइयो-बहनो, एक सामाजिक चरित्र के नाते, एक राष्ट्रीय चरित्र के नाते हमें उस दिशा में जाना है। भाइयो-बहनो, देश को आगे बढ़ाना है, तो विकास - एक ही रास्ता है। सुशासन - एक ही रास्ता है। देश को आगे ले जाने के लिए ये ही दो पटरियाँ हैं - गुड गवर्नेंस एंड डेवलपमेंट, उन्हीं को लेकर हम आगे चल सकते हैं। उन्हीं को लेकर चलने का इरादा लेकर हम चलना चाहते हैं। मैं जब गुड गवर्नेंस की बात करता हूँ, तब आप मुझे बताइए कि कोई प्राइवेट में नौकरी करता है, अगर आप उसको पूछोगे, तो वह कहता है कि मैं जॉब करता हूँ, लेकिन जो सरकार में नौकरी करता है, उसको पूछोगे, तो वह कहता है कि मैं सर्विस करता हूँ। दोनों कमाते हैं, लेकिन एक के लिए जॉब है और एक के लिए सर्विस है। मैं सरकारी सेवा में लगे सभी भाइयों और बहनों से प्रश्न पूछता हूँ कि क्या कहीं यह 'सर्विस' शब्द, उसने अपनी ताकत खो तो नहीं दी है, अपनी पहचान खो तो नहीं दी है? सरकारी सेवा में जुड़े हुए लोग 'जॉब' नहीं कर रहे हैं, 'सेवा' कर रहे हैं, 'सर्विस' कर रहे हैं। इसलिए इस भाव को पुनर्जीवित करना, एक राष्ट्रीय चरित्र के रूप में इसको हमें आगे ले जाना, उस दिशा में हमें आगे बढ़ना है।
भाइयो-बहनो, क्या देश के नागरिकों को राष्ट्र के कल्याण के लिए कदम उठाना चाहिए या नहीं उठाना चाहिए? आप कल्पना कीजिए, सवा सौ करोड़ देशवासी एक कदम चलें, तो यह देश सवा सौ करोड़ कदम आगे चला जाएगा। लोकतंत्र, यह सिर्फ सरकार चुनने का सीमित मायना नहीं है। लोकतंत्र में सवा सौ करोड़ नागरिक और सरकार कंधे से कंधा मिला कर देश की आशा-आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए काम करें, यह लोकतंत्र का मायना है। हमें जन-भागीदारी करनी है। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के साथ आगे बढ़ना है। हमें जनता को जोड़कर आगे बढ़ना है। उसे जोड़ने में आगे बढ़ने के लिए, आप मुझे बताइए कि आज हमारा किसान आत्महत्या क्यों करता है? वह साहूकार से कर्ज़ लेता है, कर्ज़ दे नहीं सकता है, मर जाता है। बेटी की शादी है, गरीब आदमी साहूकार से कर्ज़ लेता है, कर्ज़ वापस दे नहीं पाता है, जीवन भर मुसीबतों से गुज़रता है। मेरे उन गरीब परिवारों की रक्षा कौन करेगा?
भाइयो-बहनो, इस आज़ादी के पर्व पर मैं एक योजना को आगे बढ़ाने का संकल्प करने के लिए आपके पास आया हूँ - 'प्रधान मंत्री जनधन योजना'। इस 'प्रधान मंत्री जनधन योजना' के माध्यम से हम देश के गरीब से गरीब लोगों को बैंक अकाउंट की सुविधा से जोड़ना चाहते हैं। आज करोड़ों-करोड़ परिवार हैं, जिनके पास मोबाइल फोन तो हैं, लेकिन बैंक अकाउंट नहीं हैं। यह स्थिति हमें बदलनी है। देश के आर्थिक संसाधन गरीब के काम आएँ, इसकी शुरुआत यहीं से होती है। यही तो है, जो खिड़की खोलता है। इसलिए 'प्रधान मंत्री जनधन योजना' के तहत जो अकाउंट खुलेगा, उसको डेबिट कार्ड दिया जाएगा। उस डेबिट कार्ड के साथ हर गरीब परिवार को एक लाख रुपए का बीमा सुनिश्चित कर दिया जाएगा, ताकि अगर उसके जीवन में कोई संकट आया, तो उसके परिवारजनों को एक लाख रुपए का बीमा मिल सकता है।
भाइयो-बहनो, यह देश नौजवानों का देश है। 65 प्रतिशत देश की जनसंख्या 35 वर्ष से कम आयु की है। हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा नौजवान देश है। क्या हमने कभी इसका फायदा उठाने के लिए सोचा है? आज दुनिया को स्किल्ड वर्कफोर्स की जरूरत है। आज भारत को भी स्किल्ड वर्कफोर्स की जरूरत है। कभी-कभार हम अच्छा ड्राइवर ढूँढ़ते हैं, नहीं मिलता है, प्लम्बर ढूँढ़ते हैं, नहीं मिलता है, अच्छा कुक चाहिए, नहीं मिलता है। नौजवान हैं, बेरोजगार हैं, लेकिन हमें जैसा चाहिए, वैसा नौजवान मिलता नहीं है। देश के विकास को यदि आगे बढ़ाना है, तो 'स्किल डेवलपमेंट' और 'स्किल्ड इंडिया' यह हमारा मिशन है। हिन्दुस्तान के कोटि-कोटि नौजवान स्किल सीखें, हुनर सीखें, उसके लिए पूरे देश में जाल होना चाहिए और घिसी-पिटी व्यवस्थाओं से नहीं, उनको वह स्किल मिले, जो उन्हें आधुनिक भारत बनाने में काम आए। वे दुनिया के किसी भी देश में जाएँ, तो उनके हुनर की सराहना हो और हम दो प्रकार के विकास को लेकर चलना चाहते हैं। मैं ऐसे नौजवानों को भी तैयार करना चाहता हूँ, जो जॉब क्रिएटर हों और जो जॉब क्रिएट करने का सामर्थ्य नहीं रखते, संयोग नहीं है, वे विश्व के किसी भी कोने में जाकर आँख में आँख मिला करके अपने बाहुबल के द्वारा, अपनी उँगलियों के हुनर के द्वारा, अपने कौशल्य के द्वारा विश्व का हृदय जीत सकें, ऐसे नौजवानों का सामर्थ्य हम तैयार करना चाहते हैं। भाइयो-बहनो, स्किल डेवलपमेंट को बहुत तेज़ी से आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर मैं यह करना चाहता हूं।
भाइयो-बहनो, विश्व बदल चुका है। मेरे प्यारे देशवासियो, विश्व बदल चुका है। अब भारत अलग-थलग, अकेला एक कोने में बैठकर अपना भविष्य तय नहीं कर सकता। विश्व की आर्थिक व्यवस्थाएँ बदल चुकी हैं और इसलिए हम लोगों को भी उसी रूप में सोचना होगा। सरकार ने अभी कई फैसले लिए हैं, बजट में कुछ घोषणाएँ की हैं और मैं विश्व का आह्वान करता हूँ, विश्व में पहुँचे हुए भारतवासियों का भी आह्वान करता हूँ कि आज अगर हमें नौजवानों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार देना है, तो हमें मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देना पड़ेगा। इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट की जो स्थिति है, उसमें संतुलन पैदा करना हो, तो हमें मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर बल देना होगा। हमारे नौजवानों की जो विद्या है, सामर्थ्य है, उसको अगर काम में लाना है, तो हमें मैन्युफैक्चरिंग की ओर जाना पड़ेगा और इसके लिए हिन्दुस्तान की भी पूरी ताकत लगेगी, लेकिन विश्व की शक्तियों को भी हम निमंत्रण देते हैं। इसलिए मैं आज लाल किले की प्राचीर से विश्व भर में लोगों से कहना चाहता हूँ, "कम, मेक इन इंडिया," "आइए, हिन्दुस्तान में निर्माण कीजिए।" दुनिया के किसी भी देश में जाकर बेचिए, लेकिन निर्माण यहाँ कीजिए, मैन्युफैक्चर यहाँ कीजिए। हमारे पास स्किल है, टेलेंट है, डिसिप्लिन है, कुछ कर गुज़रने का इरादा है। हम विश्व को एक सानुकूल अवसर देना चाहते हैं कि आइए, "कम, मेक इन इंडिया" और हम विश्व को कहें, इलेक्ट्रिकल से ले करके इलेक्ट्रॉनिक्स तक "कम, मेक इन इंडिया", केमिकल्स से ले करके फार्मास्युटिकल्स तक "कम, मेक इन इंडिया", ऑटोमोबाइल्स से ले करके ऐग्रो वैल्यू एडीशन तक "कम, मेक इन इंडिया", पेपर हो या प्लास्टिक "कम, मेक इन इंडिया", सैटेलाइट हो या सबमेरीन "कम, मेक इन इंडिया"। ताकत है हमारे देश में! आइए, मैं निमंत्रण देता हूं।
भाइयो-बहनो, मैं देश के नौजवानों का भी एक आवाहन करना चाहता हूं, विशेष करके उद्योग क्षेत्र में लगे हुए छोटे-छोटे लोगों का आवाहन करना चाहता हूं। मैं देश के टेक्निकल एजुकेशन से जुड़े हुए नौजवानों का आवाहन करना चाहता हूं। जैसे मैं विश्व से कहता हूं "कम, मेक इन इंडिया", मैं देश के नौजवानों को कहता हूं - हमारा सपना होना चाहिए कि दुनिया के हर कोने में यह बात पहुंचनी चाहिए, "मेड इन इंडिया"। यह हमारा सपना होना चाहिए। क्या मेरे देश के नौजवानों को देश-सेवा करने के लिए सिर्फ भगत सिंह की तरह फांसी पर लटकना ही अनिवार्य है? भाइयो-बहनो, लालबहादुर शास्त्री जी ने "जय जवान, जय किसान" एक साथ मंत्र दिया था। जवान, जो सीमा पर अपना सिर दे देता है, उसी की बराबरी में "जय जवान" कहा था। क्यों? क्योंकि अन्न के भंडार भर करके मेरा किसान भारत मां की उतनी ही सेवा करता है, जैसे जवान भारत मां की रक्षा करता है। यह भी देश सेवा है। अन्न के भंडार भरना, यह भी किसान की सबसे बड़ी देश सेवा है और तभी तो लालबहादुर शास्त्री ने "जय जवान, जय किसान" कहा था।
भाइयो-बहनो, मैं नौजवानों से कहना चाहता हूं, आपके रहते हुए छोटी-मोटी चीज़ें हमें दुनिया से इम्पोर्ट क्यों करनी पड़ें? क्या मेरे देश के नौजवान यह तय कर सकते हैं, वे ज़रा रिसर्च करें, ढूंढ़ें कि भारत कितने प्रकार की चीज़ों को इम्पोर्ट करता है और वे फैसला करें कि मैं अपने छोटे-छोटे काम के द्वारा, उद्योग के द्वारा, मेरा छोटा ही कारखाना क्यों न हो, लेकिन मेरे देश में इम्पोर्ट होने वाली कम से कम एक चीज़ मैं ऐसी बनाऊंगा कि मेरे देश को कभी इम्पोर्ट न करना पड़े। इतना ही नहीं, मेरा देश एक्सपोर्ट करने की स्थिति में आए। अगर हिन्दुस्तान के लाखों नौजवान एक-एक आइटम ले करके बैठ जाएं, तो भारत दुनिया में एक्सपोर्ट करने वाला देश बन सकता है और इसलिए मेरा आग्रह है, नौजवानों से विशेष करके, छोटे-मोटे उद्योगकारों से - दो बातों में कॉम्प्रोमाइज़ न करें, एक ज़ीरो डिफेक्ट, दूसरा ज़ीरो इफेक्ट। हम वह मैन्युफैक्चरिंग करें, जिसमें ज़ीरो डिफेक्ट हो, ताकि दुनिया के बाज़ार से वह कभी वापस न आए और हम वह मैन्युफैक्चरिंग करें, जिससे ज़ीरो इफेक्ट हो, पर्यावरण पर इसका कोई नेगेटिव इफेक्ट न हो। ज़ीरो डिफेक्ट, ज़ीरो इफेक्ट के साथ मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का सपना ले करके अगर हम आगे चलते हैं, तो मुझे विश्वास है, मेरे भाइयो-बहनो, कि जिस काम को ले करके हम चल रहे हैं, उस काम को पूरा करेंगे।
भाइयो-बहनो, पूरे विश्व में हमारे देश के नौजवानों ने भारत की पहचान को बदल दिया है। विश्व भारत को क्या जानता था? ज्यादा नहीं, अभी 25-30 साल पहले तक दुनिया के कई कोने ऐसे थे जो हिन्दुस्तान के लिए यही सोचते थे कि ये तो "सपेरों का देश" है। ये सांप का खेल करने वाला देश है, काले जादू वाला देश है। भारत की सच्ची पहचान दुनिया तक पहुंची नहीं थी, लेकिन भाइयो-बहनो, हमारे 20-22-23 साल के नौजवान, जिन्होंने कम्प्यूटर पर अंगुलियां घुमाते-घुमाते दुनिया को चकित कर दिया। विश्व में भारत की एक नई पहचान बनाने का रास्ता हमारे आई.टी. प्रोफेशन के नौजवानों ने कर दिया। अगर यह ताकत हमारे देश में है, तो क्या देश के लिए हम कुछ सोच सकते हैं? इसलिए हमारा सपना "डिजिटल इंडिया" है। जब मैं "डिजिटल इंडिया" कहता हूं, तब ये बड़े लोगों की बात नहीं है, यह गरीब के लिए है। अगर ब्रॉडबेंड कनेक्टिविटी से हिन्दुस्तान के गांव जुड़ते हैं और गांव के आखिरी छोर के स्कूल में अगर हम लॉन्ग डिस्टेंस एजुकेशन दे सकते हैं, तो आप कल्पना कर सकते हैं कि हमारे उन गांवों के बच्चों को कितनी अच्छी शिक्षा मिलेगी। जहां डाक्टर नहीं पहुंच पाते, अगर हम टेलिमेडिसिन का नेटवर्क खड़ा करें, तो वहां पर बैठे हुए गरीब व्यक्ति को भी, किस प्रकार की दवाई की दिशा में जाना है, उसका स्पष्ट मार्गदर्शन मिल सकता है।
सामान्य मानव की रोजमर्रा की चीज़ें - आपके हाथ में मोबाइल फोन है, हिन्दुस्तान के नागरिकों के पास बहुत बड़ी तादाद में मोबाइल कनेक्टिविटी है, लेकिन क्या इस मोबाइल गवर्नेंस की तरफ हम जा सकते हैं? अपने मोबाइल से गरीब आदमी बैंक अकाउंट ऑपरेट करे, वह सरकार से अपनी चीज़ें मांग सके, वह अपनी अर्ज़ी पेश करे, अपना सारा कारोबार चलते-चलते मोबाइल गवर्नेंस के द्वारा कर सके और यह अगर करना है, तो हमें 'डिजिटल इंडिया' की ओर जाना है। और 'डिजिटल इंडिया' की तरफ जाना है, तो इसके साथ हमारा यह भी सपना है, हम आज बहुत बड़ी मात्रा में विदेशों से इलेक्ट्रॉनिक गुड्ज़ इम्पोर्ट करते हैं। आपको हैरानी होगी भाइयो-बहनो, ये टीवी, ये मोबाइल फोन, ये आईपैड, ये जो इलेक्ट्रॉनिक गुड्ज़ हम लाते हैं, देश के लिए पेट्रोलियम पदार्थों को लाना अनिवार्य है, डीज़ल और पेट्रोल लाते हैं, तेल लाते हैं। उसके बाद इम्पोर्ट में दूसरे नम्बर पर हमारी इलैक्ट्रॉनिक गुड्ज़ हैं। अगर हम 'डिजिटल इंडिया' का सपना ले करके इलेक्ट्रॉनिक गुड्ज़ के मैन्युफैक्चर के लिए चल पड़ें और हम कम से कम स्वनिर्भर बन जाएं, तो देश की तिजोरी को कितना बड़ा लाभ हो सकता है और इसलिए हम इस 'डिजिटल इंडिया' को ले करके जब आगे चलना चाहते हैं, तब ई-गवर्नेंस। ई-गवर्नेंस ईजी गवर्नेंस है, इफेक्टिव गवर्नेंस है और इकोनॉमिकल गवर्नेंस है। ई-गवर्नेंस के माध्यम से गुड गवर्नेंस की ओर जाने का रास्ता है। एक जमाना था, कहा जाता था कि रेलवे देश को जोड़ती है । ऐसा कहा जाता था। मैं कहता हूं कि आज आईटी देश के जन-जन को जोड़ने की ताकत रखती है और इसलिए हम 'डिजिटल इंडिया' के माध्यम से आईटी के धरातल पर यूनिटी के मंत्र को साकार करना चाहते हैं।
भाइयो-बहनो, अगर हम इन चीजों को ले करके चलते हैं, तो मुझे विश्वास है कि 'डिजिटल इंडिया' विश्व की बराबरी करने की एक ताकत के साथ खड़ा हो जाएगा, हमारे नौजवानों में वह सामर्थ्य है, यह उनको वह अवसर दे रहा है।
भाइयो-बहनो, हम टूरिज्म को बढ़ावा देना चाहते हैं। टूरिज्म से गरीब से गरीब व्यक्ति को रोजगार मिलता है। चना बेचने वाला भी कमाता है, ऑटो-रिक्शा वाला भी कमाता है, पकौड़े बेचने वाला भी कमाता है और एक चाय बेचने वाला भी कमाता है। जब चाय बेचने वाले की बात आती है, तो मुझे ज़रा अपनापन महसूस होता है। टूरिज्म के कारण गरीब से गरीब व्यक्ति को रोज़गार मिलता है। लेकिन टूरिज्म के अंदर बढ़ावा देने में भी और एक राष्ट्रीय चरित्र के रूप में भी हमारे सामने सबसे बड़ी रुकावट है हमारे चारों तरफ दिखाई दे रही गंदगी । क्या आज़ादी के बाद, आज़ादी के इतने सालों के बाद, जब हम 21 वीं सदी के डेढ़ दशक के दरवाजे पर खड़े हैं, तब क्या अब भी हम गंदगी में जीना चाहते हैं? मैंने यहाँ सरकार में आकर पहला काम सफाई का शुरू किया है। लोगों को आश्चर्य हुआ कि क्या यह प्रधान मंत्री का काम है? लोगों को लगता होगा कि यह प्रधान मंत्री के लिए छोटा काम होगा, मेरे लिए बहुत बड़ा काम है। सफाई करना बहुत बड़ा काम है। क्या हमारा देश स्वच्छ नहीं हो सकता है? अगर सवा सौ करोड़ देशवासी तय कर लें कि मैं कभी गंदगी नहीं करूंगा तो दुनिया की कौन-सी ताकत है, जो हमारे शहर, गाँव को आकर गंदा कर सके? क्या हम इतना-सा संकल्प नहीं कर सकते हैं?
भाइयो-बहनो, 2019 में महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती आ रही है। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती हम कैसे मनाएँ? महात्मा गाँधी, जिन्होंने हमें आज़ादी दी, जिन्होंने इतने बड़े देश को दुनिया के अंदर इतना सम्मान दिलाया, उन महात्मा गाँधी को हम क्या दें? भाइयो-बहनो, महात्मा गाँधी को सबसे प्रिय थी - सफाई, स्वच्छता। क्या हम तय करें कि सन् 2019 में जब हम महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती मनाएँगे, तो हमारा गाँव, हमारा शहर, हमारी गली, हमारा मोहल्ला, हमारे स्कूल, हमारे मंदिर, हमारे अस्पताल, सभी क्षेत्रों में हम गंदगी का नामोनिशान नहीं रहने देंगे? यह सरकार से नहीं होता है, जन-भागीदारी से होता है, इसलिए यह काम हम सबको मिल कर करना है।
भाइयो-बहनो, हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। क्या कभी हमारे मन को पीड़ा हुई कि आज भी हमारी माताओं और बहनों को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है? डिग्निटी ऑफ विमेन, क्या यह हम सबका दायित्व नहीं है? बेचारी गाँव की माँ-बहनें अँधेरे का इंतजार करती हैं, जब तक अँधेरा नहीं आता है, वे शौच के लिए नहीं जा पाती हैं। उसके शरीर को कितनी पीड़ा होती होगी, कितनी बीमारियों की जड़ें उसमें से शुरू होती होंगी! क्या हमारी माँ-बहनों की इज्ज़त के लिए हम कम-से-कम शौचालय का प्रबन्ध नहीं कर सकते हैं? भाइयो-बहनो, किसी को लगेगा कि 15 अगस्त का इतना बड़ा महोत्सव बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने का अवसर होता है। भाइयो-बहनो, बड़ी बातों का महत्व है, घोषणाओं का भी महत्व है, लेकिन कभी-कभी घोषणाएँ एषणाएँ जगाती हैं और जब घोषणाएँ परिपूर्ण नहीं होती हैं, तब समाज निराशा की गर्त में डूब जाता है। इसलिए हम उन बातों के ही कहने के पक्षधर हैं, जिनको हम अपने देखते-देखते पूरा कर पाएँ। भाइयो-बहनो, इसलिए मैं कहता हूँ कि आपको लगता होगा कि क्या लाल किले से सफाई की बात करना, लाल किले से टॉयलेट की बात बताना, यह कैसा प्रधान मंत्री है? भाइयो-बहनो, मैं नहीं जानता हूँ कि मेरी कैसी आलोचना होगी, इसे कैसे लिया जाएगा, लेकिन मैं मन से मानता हूँ। मैं गरीब परिवार से आया हूँ, मैंने गरीबी देखी है और गरीब को इज़् ज़त मिले, इसकी शुरूआत यहीं से होती है। इसलिए 'स्वच्छ भारत' का एक अभियान इसी 2 अक्टूबर से मुझे आरम्भ करना है और चार साल के भीतर-भीतर हम इस काम को आगे बढ़ाना चाहते हैं। एक काम तो मैं आज ही शुरू करना चाहता हूँ और वह है- हिन्दुस्तान के सभी स्कूलों में टॉयलेट हो, बच्चियों के लिए अलग टॉयलेट हो, तभी तो हमारी बच्चियाँ स्कूल छोड़ कर भागेंगी नहीं। हमारे सांसद जो एमपीलैड फंड का उपयोग कर रहे हैं, मैं उनसे आग्रह करता हूँ कि एक साल के लिए आपका धन स्कूलों में टॉयलेट बनाने के लिए खर्च कीजिए। सरकार अपना बजट टॉयलेट बनाने में खर्च करे। मैं देश के कॉरपोरेट सेक्टर्स का भी आह्वान करना चाहता हूँ कि कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत आप जो खर्च कर रहे हैं, उसमें आप स्कूलों में टॉयलेट बनाने को प्राथमिकता दीजिए। सरकार के साथ मिलकर, राज्य सरकारों के साथ मिलकर एक साल के भीतर-भीतर यह काम हो जाए और जब हम अगले 15 अगस्त को यहाँ खड़े हों, तब इस विश्वास के साथ खड़े हों कि अब हिन्दुस्तान का ऐसा कोई स्कूल नहीं है, जहाँ बच्चे एवं बच्चियों के लिए अलग टॉयलेट का निर्माण होना बाकी है।
भाइयो-बहनो, अगर हम सपने लेकर चलते हैं तो सपने पूरे भी होते हैं। मैं आज एक विशेष बात और कहना चाहता हूँ। भाइयो-बहनो, देशहित की चर्चा करना और देशहित के विचारों को देना, इसका अपना महत्व है। हमारे सांसद, वे कुछ करना भी चाहते हैं, लेकिन उन्हें अवसर नहीं मिलता है। वे अपनी बात बता सकते हैं, सरकार को चिट्ठी लिख सकते हैं, आंदोलन कर सकते हैं, मेमोरेंडम दे सकते हैं, लेकिन फिर भी, खुद को कुछ करने का अवसर मिलता नहीं है। मैं एक नए विचार को लेकर आज आपके पास आया हूं। हमारे देश में प्रधान मंत्री के नाम पर कई योजनाएं चल रही हैं, कई नेताओं के नाम पर ढेर सारी योजनाएं चल रही हैं, लेकिन मैं आज सांसद के नाम पर एक योजना घोषित करता हूं - "सांसद आदर्श ग्राम योजना"। हम कुछ पैरामीटर्स तय करेंगे और मैं सांसदों से आग्रह करता हूं कि वे अपने इलाके में तीन हजार से पांच हजार के बीच का कोई भी गांव पसंद कर लें और कुछ पैरामीटर्स तय हों - वहां के स्थल, काल, परिस्थिति के अनुसार, वहां की शिक्षा, वहां का स्वास्थ्य, वहां की सफाई, वहां के गांव का वह माहौल, गांव में ग्रीनरी, गांव का मेलजोल, कई पैरामीटर्स हम तय करेंगे और हर सांसद 2016 तक अपने इलाके में एक गांव को आदर्श गांव बनाए। इतना तो कर सकते हैं न भाई! करना चाहिए न! देश बनाना है तो गांव से शुरू करें। एक आदर्श गांव बनाएं और मैं 2016 का टाइम इसलिए देता हूं कि नयी योजना है, लागू करने में, योजना बनाने में कभी समय लगता है और 2016 के बाद, जब 2019 में वह चुनाव के लिए जाए, उसके पहले और दो गांवों को करे और 2019 के बाद हर सांसद, 5 साल के कार्यकाल में कम से कम 5 आदर्श गांव अपने इलाके में बनाए। जो शहरी क्षेत्र के एम.पीज़ हैं, उनसे भी मेरा आवाहन है कि वे भी एक गांव पसंद करें। जो राज्य सभा के एम.पीज़ हैं, उनसे भी मेरा आग्रह है, वे भी एक गांव पसंद करें।
हिन्दुस्तान के हर जिले में, अगर हम एक आदर्श गांव बनाकर देते हैं, तो सभी अगल-बगल के गांवों को खुद उस दिशा में जाने का मन कर जाएगा। एक मॉडल गांव बना करके देखें, व्यवस्थाओं से भरा हुआ गांव बनाकर देखें। 11 अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण जी की जन्म जयंती है। मैं 11 अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण जी की जन्म जयंती पर एक "सांसद आदर्श ग्राम योजना" का कम्प्लीट ब्ल्यूप्रिंट सभी सांसदों के सामने रख दूंगा, सभी राज्य सरकारों के सामने रख दूंगा और मैं राज्य सरकारों से भी आग्रह करता हूं कि आप भी इस योजना के माध्यम से, अपने राज्य में जो अनुकूलता हो, वैसे सभी विधायकों के लिए एक आदर्श ग्राम बनाने का संकल्प करिए। आप कल्पना कर सकते हैं, देश के सभी विधायक एक आदर्श ग्राम बनाएं, सभी सांसद एक आदर्श ग्राम बनाएं। देखते ही देखते हिन्दुस्तान के हर ब्लॉक में एक आदर्श ग्राम तैयार हो जाएगा, जो हमें गांव की सुख-सुविधा में बदलाव लाने के लिए प्रेरणा दे सकता है, हमें नई दिशा दे सकता है और इसलिए इस "सांसद आदर्श ग्राम योजना" के तहत हम आगे बढ़ना चाहते हैं।
भाइयो-बहनो, जब से हमारी सरकार बनी है, तब से अखबारों में, टी.वी. में एक चर्चा चल रही है कि प्लानिंग कमीशन का क्या होगा? मैं समझता हूं कि जिस समय प्लानिंग कमीशन का जन्म हुआ, योजना आयोग का जन्म हुआ, उस समय की जो स्थितियाँ थीं, उस समय की जो आवश्यकताएँ थीं, उनके आधार पर उसकी रचना की गई। इन पिछले वर्षों में योजना आयोग ने अपने तरीके से राष्ट्र के विकास में उचित योगदान दिया है। मैं इसका आदर करता हूं, गौरव करता हूं, सम्मान करता हूं, सत्कार करता हूं, लेकिन अब देश की अंदरूनी स्थिति भी बदली हुई है, वैश्विक परिवेश भी बदला हुआ है, आर्थिक गतिविधि का केंद्र सरकारें नहीं रही हैं, उसका दायरा बहुत फैल चुका है। राज्य सरकारें विकास के केन्द्र में आ रही हैं और मैं इसको अच्छी निशानी मानता हूँ। अगर भारत को आगे ले जाना है, तो यह राज्यों को आगे ले जाकर ही होने वाला है। भारत के फेडेरल स्ट्रक्चर की अहमियत पिछले 60 साल में जितनी थी, उससे ज्यादा आज के युग में है। हमारे संघीय ढाँचे को मजबूत बनाना, हमारे संघीय ढाँचे को चेतनवंत बनाना, हमारे संघीय ढाँचे को विकास की धरोहर के रूप में काम लेना, मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्री की एक टीम का फॉर्मेशन हो, केन्द्र और राज्य की एक टीम हो, एक टीम बनकर आगे चले, तो इस काम को अब प्लानिंग कमीशन के नए रंग-रूप से सोचना पड़ेगा। इसलिए लाल किले की इस प्राचीर से एक बहुत बड़ी चली आ रही पुरानी व्यवस्था में उसका कायाकल्प भी करने की जरूरत है, उसमें बहुत बदलाव करने की आवश्यकता है। कभी-कभी पुराने घर की रिपेयरिंग में खर्चा ज्यादा होता है लेकिन संतोष नहीं होता है। फिर मन करता है, अच्छा है, एक नया ही घर बना लें और इसलिए बहुत ही कम समय के भीतर योजना आयोग के स्थान पर, एक क्रिएटिव थिंकिंग के साथ राष्ट्र को आगे ले जाने की दिशा, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की दिशा, संसाधनों का ऑप्टिमम युटिलाइजेशन, प्राकृतिक संसाधनों का ऑप्टिमम युटिलाइजेशन, देश की युवा शक्ति के सामर्थ्य का उपयोग, राज्य सरकारों की आगे बढ़ने की इच्छाओं को बल देना, राज्य सरकारों को ताकतवर बनाना, संघीय ढाँचे को ताकतवर बनाना, एक ऐसे नये रंग-रूप के साथ, नये शरीर, नयी आत्मा के साथ, नयी सोच के साथ, नयी दिशा के साथ, नये विश्वास के साथ, एक नये इंस्टीट्यूशन का हम निर्माण करेंगे और बहुत ही जल्द योजना आयोग की जगह पर यह नया इंस्टीट्यूट काम करे, उस दिशा में हम आगे बढ़ने वाले हैं।
भाइयो-बहनो, आज 15 अगस्त महर्षि अरविंद का भी जन्म जयंती का पर्व है। महर्षि अरविंद ने एक क्रांतिकारी से निकल कर योग गुरु की अवस्था को प्राप्त किया था। उन्होंने भारत के भाग्य के लिए कहा था कि "मुझे विश्वास है, भारत की दैविक शक्ति, भारत की आध्यात्मिक विरासत विश्व कल्याण के लिए अहम भूमिका निभाएगी"। इस प्रकार के भाव महर्षि अरविन्द ने व्यक्त किए थे। मेरी महापुरुषों की बातों में बड़ी श्रद्धा है। मेरी त्यागी, तपस्वी ऋषियों और मुनियों की बातों में बड़ी श्रद्धा है और इसलिए मुझे आज लाल किले की प्राचीर से स्वामी विवेकानन्द जी के वे शब्द याद आ रहे हैं जब स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था, "मैं मेरी आँखों के सामने देख रहा हूँ।" विवेकानन्द जी के शब्द थे - "मैं मेरी आँखों के सामने देख रहा हूँ कि फिर एक बार मेरी भारतमाता जाग उठी है, मेरी भारतमाता जगद्गुरु के स्थान पर विराजमान होगी, हर भारतीय मानवता के कल्याण के काम आएगा, भारत की यह विरासत विश्व के कल्याण के लिए काम आएगी।" ये शब्द स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने तरीके से कहे थे। भाइयो-बहनो, विवेकानन्द जी के शब्द कभी असत्य नहीं हो सकते। स्वामी विवेकानन्द जी के शब्द, भारत को जगद्गुरु देखने का उनका सपना, उनकी दीर्घदृष्टि, उस सपने को पूरा करना हम लोगों का कर्तव्य है। दुनिया का यह सामर्थ्यवान देश, प्रकृति से हरा-भरा देश, नौजवानों का देश, आने वाले दिनों में विश्व के लिए बहुत कुछ कर सकता है।
भाइयो-बहनो, लोग विदेश की नीतियों के संबंध में चर्चा करते हैं। मैं यह साफ मानता हूं कि भारत की विदेश नीति के कई आयाम हो सकते हैं, लेकिन एक महत्वपूर्ण बात है, जिस पर मैं अपना ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं कि हम आज़ादी की जैसे लड़ाई लड़े, मिल-जुलकर लड़े थे, तब तो हम अलग नहीं थे, हम साथ-साथ थे। कौन सी सरकार हमारे साथ थी? कौन से शस्त्र हमारे पास थे? एक गांधी थे, सरदार थे और लक्षावती स्वातंत्र्य सेनानी थे और इतनी बड़ी सल्तनत थी। उस सल्तनत के सामने हम आज़ादी की जंग जीते या नहीं जीते? विदेशी ताकतों को परास्त किया या नहीं किया? भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया या नहीं किया? हमीं तो थे, हमारे ही तो पूर्वज थे, जिन्होंने यह सामर्थ्य दिखाई थी। समय की मांग है, सत्ता के बिना, शासन के बिना, शस्त्र के बिना, साधनों के बिना भी इतनी बड़ी सल्तनत को हटाने का काम अगर हिंदुस्तान की जनता कर सकती है, तो भाइयो-बहनो, हम क्या गरीबी को हटा नहीं सकते? क्या हम गरीबी को परास्त नहीं कर सकते हैं? क्या हम गरीबी के खिलाफ लड़ाई जीत नहीं सकते हैं? मेरे सवा सौ करोड़ प्यारे देशवासियो, आओ! आओ, हम संकल्प करें, हम गरीबी को परास्त करें, हम विजयश्री को प्राप्त करें। भारत से गरीबी का उन्मूलन हो, उन सपनों को लेकर हम चलें और पड़ोसी देशों के पास भी यही तो समस्या है! क्यों न हम सार्क देशों के सभी साथी दोस्त मिल करके गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ने की योजना बनाएं? हम मिल करके लड़ाई लड़ें, गरीबी को परास्त करें। एक बार देखें तो सही, मरने-मारने की दुनिया को छोड़ करके जीवित रहने का आनंद क्या होता है! यही तो भूमि है, जहां सिद्दार्थ के जीवन की घटना घटी थी। एक पंछी को एक भाई ने तीर मार दिया और एक दूसरे भाई ने तीर निकाल करके बचा लिया। मां के पास गए - पंछी किसका, हंस किसका? मां से पूछा, मारने वाले का या बचाने वाले का? मां ने कहा, बचाने वाले का। मारने वाले से बचाने वाले की ताकत ज्यादा होती है और वही तो आगे जा करके बुद्ध बन जाता है। वही तो आगे जा करके बुद्ध बन जाता है और इसलिए, मैं पड़ोस के देशों से मिल-जुल करके गरीबी के खिलाफ लड़ाई को लड़ने के लिए सहयोग चाहता हूं, सहयोग करना चाहता हूं और हम मिल करके, सार्क देश मिल करके, हम दुनिया में अपनी अहमियत खड़ी कर सकते हैं, हम दुनिया में एक ताकत बनकर उभर सकते हैं। आवश्यकता है, हम मिल-जुल करके चलें, गरीबी से लड़ाई जीतने का सपना ले करके चलें, कंधे से कंधा मिला करके चलें। मैं भूटान गया, नेपाल गया, सार्क देशों के सभी महानुभाव शपथ समारोह में आए, एक बहुत अच्छी शुभ शुरुआत हुई है। तो निश्चित रूप से अच्छे परिणाम मिलेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है और देश और दुनिया में भारत की यह सोच, हम देशवासियों का भला करना चाहते हैं और विश्व के कल्याण में काम आ सकें, हिन्दुस्तान ऐसा हाथ फहराना चाहता है। इन सपनों को ले करके, पूरा करके, आगे बढ़ने का हम प्रयास कर रहे हैं।
भाइयो-बहनो, आज 15 अगस्त को हम देश के लिए कुछ न कुछ करने का संकल्प ले करके चलेंगे। हम देश के लिए काम आएं, देश को आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर चलेंगे और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं भाइयो-बहनो, मैं मेरी सरकार के साथियों को भी कहता हूं, अगर आप 12 घंटे काम करोगे, तो मैं 13 घंटे करूंगा। अगर आप 14 घंटे कर्म करोगे, तो मैं 15 घंटे करूंगा। क्यों? क्योंकि मैं प्रधान मंत्री नहीं, प्रधान सेवक के रूप में आपके बीच आया हूं। मैं शासक के रूप में नहीं, सेवक के रूप में सरकार लेकर आया हूं। भाइयो-बहनो, मैं विश्वास दिलाता हूं कि इस देश की एक नियति है, विश्व कल्याण की नियति है, यह विवेकानन्द जी ने कहा था। इस नियति को पूर्ण करने के लिए भारत का जन्म हुआ है, इस हिन्दुस्तान का जन्म हुआ है। इसकी परिपूर्ति के लिए सवा सौ करोड़ देशवासियों को तन-मन से मिलकर राष्ट्र के कल्याण के लिए आगे बढ़ना है।
मैं फिर एक बार देश के सुरक्षा बलों, देश के अर्द्ध सैनिक बलों, देश की सभी सिक्योरिटी फोर्सेज़ को, मां-भारती की रक्षा के लिए, उनकी तपस्या, त्याग, उनके बलिदान पर गौरव करता हूं। मैं देशवासियों को कहता हूं, "राष्ट्रयाम् जाग्रयाम् वयम्", "Eternal vigilance is the price of liberty". हम जागते रहें, सेना जाग रही है, हम भी जागते रहें और देश नए कदम की ओर आगे बढ़ता रहे, इसी एक संकल्प के साथ हमें आगे बढ़ना है। सभी मेरे साथ पूरी ताकत से बोलिए -
भारत माता की जय, भारत माता की जय, भारत माता की जय।
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द।
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!
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प्रधान सेवक का उदय
Sat, 16 Aug 2014

चूंकि भारत में द्वंद्वात्मक प्रजातंत्र है लिहाजा मीडिया का मूल काम सत्ता की गलतियों से, नेता की कमियों और सरकार की खामियों से जनता को अवगत कराना है। इस पैमाने पर मैं आमतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आलोचक रहा हूं, लेकिन अद्भुत था लाल किले की प्राचीर से किसी प्रधानमंत्री का वह भाषण। किसी भी दृष्टिकोण से उस भाषण में कोई दोष निकालना मात्र हठधर्मिता होगी। वह किसी राजनेता का परंपरागत 'हम बनाम वे' के भाव में दर्शकों को दिया जा रहा भाषण नहीं था, बल्कि लगता था कि एक ऐसा समाज-सुधारक भावना के संतुलित अतिरेक में बोल रहा है। यह कहना मुश्किल होगा कि प्राचीर पर मोदी स्टेट्समैन बड़े थे या समाज सुधारक बड़े।
यह मोदी का आत्मविश्वास ही था कि वह प्रधानमंत्री के रूप में स्वतंत्रता दिवस भाषण को बगैर लिखे बोले। जिस तरह का देश में माहौल है उसमें बगैर किसी बुलेट-प्रूफ केबिन में बंद हुए धाराप्रवाह एक घंटे से अधिक समय तक बोलना अपने सुरक्षा बलों पर भरोसा दर्शाता है। मैंने नेहरू को भी सुना है। अटल बिहारी वाजपेयी को भी इसी प्राचीर से बोलते हुए सुना है। पर मोदी का भाषण न केवल अलग था, बल्कि पहली बार लगा कि कोई प्रधानमंत्री अभिभावक भी है तो समाज सुधारक भी। शासन का मुखिया भी है तो सेवक भाव भी रखता है। आध्यात्मिक गुरु भी है तो गरीबों का मसीहा भी। अद्वैतवाद से अवमूल्यन तक लगभग हर पहलू पर एक संदेश देकर मोदी ने न केवल अपने को जनता से कनेक्ट किया, बल्कि उसे सोचने पर मजबूर किया कि क्या वे यही भारत अपनी अगली पीढ़ी के लिए छोड़ जाएंगे? क्या पिछले 67 सालों में आपने कभी किसी प्रधानमंत्री को यह कहते सुना कि मां-बाप अगर अपने बेटे से पूछे कि तुम कहां जा रहे हो, किसलिए जा रहे हो तो आज यह दुष्कर्म की घटनाएं ना होंगी? यह गहरी बात है। एक ऐसे समय में जब अभिभावकों का अपने बेटों पर नियंत्रण कम हो रहा है और नतीजतन लंपटता चरम पर हो) (किशोरों द्वारा किए गए दुष्कर्म व अन्य अपराध इसके गवाह है) तो मोदी का उलाहना हर अभिभावक के लिए गहरी नसीहत है। मोदी की इस अपील में न तो कोई वोट पाने की चाहत थी, न ही कोई अपने को उचित ठहराने की जिद्दोजेहद। एक निर्दोष गुजारिश थी। परिवार को फिर से संगठित कर सोशल पुलिसिंग को या पारिवारिक नियंत्रण को फिर से बहाल करने की। युवा पौध में विकृति घर से शुरू होती है, यह समाजशास्त्रीय सत्य है। इसी पौध को फिर से जंगल की झाड़ी ना बनाकर बाग में तराशे फलदार पेड़ लगाने की ललक उनमें नजर आ रही थी।
तीन बार इस इसरार के साथ कि मेरी बात के राजनीतिक मायने ना निकाले जाएं, मोदी ने शासन में पनपे आपसी दुराव का जिक्र करते हुए कहा कि सरकार के ही दो विभाग एक दूसरे के खिलाफ अदालत में गए थे, एक विभाग और दूसरे विभाग में कोई तालमेल नहीं था। ठीक इसके पहले प्रधानमंत्री ने विपक्ष को साथ लेकर चलने की प्रतिबद्धता जताई और हाल में खत्म हुए संसद सत्र के दौरान सभी पार्टियों के सकारात्मक भाव की जबरदस्त प्रशंसा की। कहीं वो बनाम हम का भाव नहीं था। दुखती रगों को मात्र छूना ही नहीं, उन पर हल्के से दबाव डालकर मवाद निकालना मोदी की भाषण कला का अहम अंग है। लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए एक बार फिर प्रधानमंत्री ने उन रगों को झकझोरा। मीडिया लिखता है कि नई सरकार के आने का बाद अफसर समय से आने लगे। यह खबर किसी भी प्रधानमंत्री को खुश कर सकती है, पर मुझे दु:ख हुआ कि सरकारी कर्मचारी का समय पर आना भी मीडिया की खबर है। दरअसल पिछले 67 सालों में हम अफसरों के गैर जिम्मेदाराना रवैये के इतने आदी हो चुके हैं कि अब उनका समय से आना भी खबर बन जाता है।
अपने भाषण की शुरुआत ही मोदी ने अपने को प्रधान सेवक कह शुरू की और यहीं से शुरू हुआ जनता से उनका कनेक्ट। याद आता है स्वामी विवेकानंद का शिकागो भाषण, जिसमें उनके ब्रदर्स एंड सिस्टर्स कहकर संबोधन करते ही पूरा अमेरिका उनका मुरीद हो गया। आजकल गुरुओं का जमाना है। कोई लव गुरु कहलाता है तो कोई मैनेजमेंट गुरु तो मोदी को कनेक्ट गुरु कहना गलत नहीं होगा। आज के भाषण के विशेष पहलू हैं जनता को भोवोत्तेजित (इंस्पायर) करके अपने अंदर झांकने की उत्कंठा पैदा करना और यह विश्वास दिलाना कि तुम एक कदम बढ़ो हम दस कदम बढें़गे। पिछले कुछ दशकों में राजनेताओं ने यह क्षमता खो दी थी कि उनकी बातों पर जनता विश्वास करे। जनता से कनेक्ट होने के कुछ और नमूने देखिए। हल से हरियाली, कम मेक इन इंडिया (आओ और भारत में उत्पादन करो) केमिकल से फार्मास्यूटिकल तक, सांसद मॉडल ग्राम योजना, डिजिटल इंडिया, आदर्श ग्राम, जीरो-डिफेक्ट, जीरो इफेक्ट, प्रधानमंत्री से प्रधान सेवक, प्रधानमंत्री जनधन योजना, बेटियों पर इतने बंधन, बेटों पर कोई नहीं, ये जुमले आम राजनीतिक जुमलों से हटकर थे। इनके जरिये मोदी ने जनता से सीधा संवाद बनाया लाल किले के भाषण से।
दंगों के वातावरण पर भी उसी गरिमा से मोदी ने प्रहार किया। कहीं कोई हिंदू-मुसलमान टाइप परंपरागत या पंथनिरपेक्षता की दुहाई नहीं। सीधा संवाद-आओ, हम मरने-मारने की दुनिया को छोड़ कर जीवन देने वाला समाज बनाएं। मोदी ने इन सबके अलावा जो सबसे क्रांतिकारी घोषणा की वह थी हर गरीब परिवार को एक लाख का बीमा। आजाद भारत में शायद यह पहली बार सोचा गया कि सोशल सिक्योरिटी का कवच देकर गरीबों को भी भविष्य की चिंता के दंश से मुक्त किया जाए। देश में नए आंकड़े के अनुसार सात करोड़ के करीब गरीब परिवार हैं। परिवार के मुखिया के निधन पर परिवार के सदस्य यतीम हो जाते हैं, शिक्षा न मिलने से बच्चे लंपटता या अपराध की ओर उन्मुख होते हैं और अभाव में ऐसे परिवार गरीबी की उस गर्त में चले जाते हैं जहां से निकलना असंभव होता है। मोदी की यह योजना दूरगामी और क्रांतिकारी परिणाम देने वाली है।
अपने को देश की सीमाओं से बाहर निकलते हुए मोदी ने पूरे सार्क देशों की गरीबी पर आघात किया और संदेश था-हम सब मिलकर इससे लड़ें। यह अपील चीन द्वारा पाकिस्तान या नेपाल को दी जाने वाली कुटिल मदद से काफी अलग थी, एक निर्दोष भरोसा दिलाने का प्रयास था। कुल मिलकर लाल किले की प्राचीर से हुआ मोदी का भाषण दुनिया के विश्वविद्यालयों में 'हाउ टू कनेक्ट विद द मासेज' (कैसे हो जनता से तादात्म्य) पढ़ाए जाने लायक है।
[एनके सिंह: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं]
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परिवर्तन का प्रस्थान-¨बदु
Sat, 16 Aug 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से बेहद प्रभावशाली भाषण देकर शासन के अपने दृष्टिकोण को एक सर्वथा नए रूप में प्रस्तुत किया। उनके इस संबोधन की हर तरफ सराहना हो रही है। मोदी के लिए यह क्षण विशेष था, क्योंकि चाय बेचने से लेकर प्रधानमंत्री पद तक पहुंचना उनके लिए और साथ ही भारतीय लोकतंत्र के लिए भी एक बड़ी उपलब्धि है। तमाम पश्चिमी राजनीतिक पंडितों ने भारत को आजादी मिलने के तत्काल बाद ही यह घोषणा कर दी थी कि एक देश जिसकी आबादी अतिविशाल हो, जहां बड़े पैमाने पर गरीबी और निरक्षरता हो वह अपने लोकतंत्र को बचा पाने में समर्थ नहीं हो सकता। हालांकि भारतीय मतदाताओं ने इसे सदैव गलत साबित किया और आज पूरी दुनिया यह स्वीकार कर रही है कि भारत में सही मायने में एक स्थिर और वास्तविक लोकतंत्र है। तमाम विकासशील देश भारत को राजनीतिक आदर्श के तौर पर देखते हैं और प्रेरणा पाते हैं। अफगानिस्तान इसका एक उदाहरण है, जिसने विशेष रूप से भारत से आग्रह किया है कि वह उसके यहां संसद का निर्माण करे।
स्वाधीनता दिवस लोगों के लिए एक ऐसा अवसर भी है जब आंतरिक और वाच् चुनौतियों के संदर्भ में भारत के समक्ष मौजूद समस्याओं पर विचार किया जाना चाहिए। देश की आर्थिक शक्ति, उसका सामाजिक तानाबाना, सांस्कृतिक अनुगूंज और राजनीतिक स्थिरता हमें वह ऊर्जा व संसाधन मुहैया कराती है जिससे हम वाच् चुनौतियों का सामना कर सकते हैं और अपनी सुरक्षा नीतियों को तय कर सकते हैं। हमने आर्थिक तौर पर बहुत कुछ हासिल किया है, लेकिन अत्यधिक प्रतिस्पर्धी दुनिया में अभी भी लंबी दूरी तय करनी है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय हमारे नेताओं ने पहचान लिया था कि राष्ट्रों के समुदाय में भारत अपना सही स्थान फिर से हासिल कर लेगा। इसके लिए सामाजिक सुधार जरूरी था ताकि जनसामान्य को समानता के साथ-साथ बेहतर आर्थिक हालात प्रदान किया जा सके। इतिहास बताता है कि शताब्दियों से विदेशी आक्रांता इसलिए सफल हुए, क्योंकि भारतीय समाज बिखरा हुआ था, जिस कारण राष्ट्रीयता का कोई भाव विकसित नहीं हो सका। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी इतिहास की इस बात को समझ लिया है और इसी कारण वह समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। सबका साथ सबका विकास का उनका नारा भारत के लिए उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है, जिसकी सराहना दुनिया के दूसरे देश भी कर रहे हैं। भारतीय विदेश नीति के समक्ष तमाम चुनौतियां हैं। हमारे हितों को न केवल अपने निकट पड़ोसी देशों, बल्कि व्यापक एशियाई क्षेत्र और वैश्विक स्तर पर भी खतरा अथवा चुनौती बरकरार है। बहुत बार सुना गया है कि भारत को मित्र बनाने की जरूरत है और कई बार यह भी कहा जाता है कि भूटान को छोड़कर कोई भी देश भारत का वास्तविक मित्र नहीं है। लोगों को यह बात अच्छे से समझने की आवश्यकता है कि अंतरराष्ट्रीय संबंध मित्रता नहीं, बल्कि हितों के आधार पर चलते हैं।
प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनेता लॉर्ड पॉम‌र्स्टन ने 19वीं शताब्दी में कहा था कि देशों के स्थायी मित्र अथवा शत्रु नहीं, बल्कि स्थायी हित होते हैं। यह पाठ भारत को अवश्य ही सीखना चाहिए। विदेश नीति को लेकर हमें अपने नजरिये को बदलने की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वर्तमान समय में मीडिया तत्काल प्रतिक्रिया की मांग करता है और कई बार स्थिति तार्किक और उपयुक्तता के बजाय भावनात्मक हो जाती है। कई बार भारत जैसा एक बड़ा देश भी अपनी विशाल गरीबी के कारण अपने हितों की रक्षा के लिए अलग-थलग पड़ जाता है। एक ऐसा ही अवसर हाल में तब आया जब भारत को डब्ल्यूटीओ में अंतरराष्ट्रीय व्यापार सरलीकरण समझौते के खिलाफ उतरना पड़ा। भारत खुले अंतरराष्ट्रीय व्यापार के पक्ष में है, लेकिन खाद्यान्न सुरक्षा के मद्देनजर उसे खाद्यान्न संग्रहण की आवश्यकता है। जब अन्य सभी दूसरे देश भारत की मांगों को मानने को तैयार नहीं हुए तो यह जरूरी था कि प्रधानमंत्री मोदी कोई निर्णय लेते, फिर भले ही भारत अलग-थलग पड़ता। मोदी को अभी भी विदेश और सुरक्षा नीति को अधिक बेहतर तरीके से संभालने की आवश्यकता है। सार्क देशों पर ध्यान देकर मोदी ने भारत की विकास यात्रा के संदर्भ में सही दिशा में कदम उठाया है। अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के प्रमुखों को दिया गया उनका निमंत्रण और भूटान तथा नेपाल की सफल यात्रा अच्छे कदम साबित हुए। मोदी सरकार की वास्तविक परीक्षा पाकिस्तान को संभालने अथवा उससे निपटने और अफगानिस्तान में भारतीय हितों की रक्षा होगी। उन्हें पाकिस्तान के प्रति एक सतत और वास्तविकता पर आधारित नीति को अपनाना होगा, जिसे संप्रग सरकार कभी नहीं कर सकी। पिछले 25 वर्षो में कोई भी सरकार भारत के खिलाफ जारी आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान से प्रभावी तरीके से नहीं निपट सकी। लोगों को विश्वास है कि मोदी इस समस्या का कोई समाधान खोज सकेंगे।
वर्तमान में इराक में इस्लामिक कट्टरपंथ का तेजी से प्रसार हुआ है। समूचा पश्चिम एशियाई क्षेत्र उथल-पुथल के दौर में है, जिससे भारत का बड़ा आर्थिक हित दांव पर है। यहां पर तकरीबन 60 लाख भारतीय काम करते हैं। इसके लिए जरूरी होगा कि सरकार खतरनाक क्षेत्रों से भारतीय कामगारों को हटाने के साथ-साथ अन्य बातों पर भी ध्यान दे। बड़ी शक्तियों के साथ अपने समीकरण पर ध्यान देना होगा जिसमें अमेरिका, रूस, चीन और यूरोपीय संघ शामिल हैं। भारत को व्यापक हितों की रक्षा और उसके संव‌र्द्धन के लिए सबके साथ तालमेल बनाना होगा। ब्रिक्स देशों के नेताओं के साथ मोदी की मुलाकात एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन सभी की आंखें अगले माह उनकी अमेरिका यात्रा पर टिकी हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था को तेजी देने के लिए अमेरिकी तकनीक आवश्यक है। इस संदर्भ में अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया तथा जापान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। भारत के विकास में जापान महत्वपूर्ण साझेदार बन सकता है। भारत को अपने हितों के आधार पर बाजार को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। यह मोदी के लिए एक परीक्षा है कि वह किस तरह विदेश, सामरिक और आर्थिक नीतियों के मोर्चे पर स्वतंत्रता कायम करते हैं ताकि भारत अपनी ऐतिहासिक यात्रा को जारी रख सके।
(विवेक काटजू: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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चौखटों के पार
नवभारत टाइम्स | Aug 16, 2014

लाल किले से पहली बार देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई चौखटों के पार निकलकर जनता के दिल को छूने की कोशिश की। देश पर मंडराते आतंकवाद के खतरे ने हमारे प्रधानमंत्रियों को बुलेट प्रूफ बॉक्स के भीतर से लोगों को संबोधित करने का आदी बना दिया था। इस अघोषित परंपरा को तोड़कर मोदी ने लोगों को आश्वस्त किया कि हम खतरों को पीछे छोड़ चुके हैं। लिखित भाषण का ढर्रा छोड़कर उन्होंने एक और लीक तोड़ी और स्वाभाविक अंदाज में अपनी बातें कहीं। संवाद की यह जीवंतता वर्षों बाद दिखाई दी। संसदीय जनतंत्र में प्रधानमंत्री सरकारी कामकाज निपटाने वाला अफसर नहीं होता। वह जनता का दोस्त और अभिभावक भी होता है। उसके साथ लोगों की आशाएं-आकांक्षाएं जुड़ी होती हैं। इसलिए उसके संवाद के तौर-तरीके से नागरिक और सिस्टम का एक रिश्ता बनता है। पिछले कुछ समय से यह रिश्ता छीज रहा था। मोदी ने इसमें फिर से गर्माहट लाने का प्रयास किया है। वह अपने कुछ पूर्ववर्तियों की तरह यह कहकर नहीं रह गए कि सरकार की ओर से वे लोगों को कई सारे तोहफे देंगे। इसके बजाय उन्होंने लोगों का आह्वान किया कि वे देश को बदलने के लिए आगे आएं और सरकार के साथ एकजुट होकर काम करें। संभवत: यह भी पहली बार ही हुआ है कि इस आधिकारिक संबोधन में किसी पीएम ने सामाजिक जीवन के पहलू छुए। प्रधानमंत्री ने साफ कहा कि हमारी सारी नसीहतें सिर्फ बेटियों के लिए होती हैं, बेटों को कुछ कहना हमें जरूरी नहीं लगता। अगर हम बेटों पर ध्यान देना शुरू करें, तो बलात्कार की घटनाएं रुक सकती हैं। मोदी को सत्ता संभाले अभी तीन महीने भी नहीं हुए हैं, लिहाजा उपलब्धियां गिनाने के लिए उनके पास कुछ नहीं है। फिर भी जिन योजनाओं की घोषणा उन्होंने की है, उससे लोगों में उम्मीद पैदा हुई है। 64 वर्ष पुरानी संस्था योजना आयोग को समाप्त करके उसकी जगह एक नए संस्थान की स्थापना का निर्णय साहसिक कहा जाएगा। भारतीय व्यवस्था को हर स्तर पर जड़ता से बाहर निकालने के लिए ऐसे कई आउट ऑफ बॉक्स कदम उठाने होंगे। देश के कमजोर वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई 'जन धन योजना' भी महत्वपूर्ण है। इसके तहत हर गरीब व्यक्ति को बैंक खाते की सुविधा देने के साथ ही जीवन बीमा का संरक्षण भी प्रदान किया जाएगा। इन शानदार संकेतों के बीच सवाल सिर्फ एक है कि क्या मोदी के शब्द उन तबकों को भी छू पाए हैं, जो उनको संशय से देखते रहे हैं? अगर इस भाषण ने अल्पसंख्यकों, कमजोर तबकों, दक्षिण और पूर्वोत्तर के लोगों में भी ऐसा ही उत्साह जगाया हो तो देश के सामने मौजूद आधे सवाल अभी से हल मान लिए जाने चाहिए।
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श्रेष्ठ भारत का सपना
Sun, 17 Aug 2014

आजाद भारत में जन्म लेने वाले पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से अपने यादगार संबोधन के जरिये खुद को एक नए रूप में प्रस्तुत किया। मोदी ने अपने शब्दों से देशवासियों को उत्साहित तो किया ही, उन्हें देश और समाज के प्रति उनकी जिम्मेदारी की याद भी दिलाई। मोदी का संबोधन दस वर्ष तक लगातार बतौर पीएम देश को संबोधित करने वाले मनमोहन सिंह के भाषणों से सर्वथा अलग था। मोदी अपनी चिर-परिचित शैली में किसी लिखित भाषण के बिना बोले। पूरे देश के साथ उनका संवाद लोगों में यह भरोसा पैदा कर रहा था कि सुधार और बदलाव की अपेक्षाएं पूरी होंगी। इस भरोसे के साथ ही लोगों से राष्ट्रहित के लिए आगे आने का आग्रह भी किया गया-इस नसीहत के साथ कि मेरा क्या और मुझे क्या वाली मानसिकता अब छोड़नी होगी। विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस ने स्वाभाविक रूप से मोदी के भाषण की आलोचना की और इसे चुनावी संबोधन करार दिया, लेकिन खुद कांग्रेस के नेता भी यह जानते हैं कि पिछले चुनाव में पार्टी की करारी पराजय के लिए कहीं न कहीं जनता से संवाद स्थापित करने में मनमोहन सिंह की कमजोरी जिम्मेदार है। मनमोहन सिंह की ही तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी आम जनता से सीधे संपर्क स्थापित करने में नाकाम ही रहे। मोदी के संबोधन की आलोचना कांग्रेस की हताशा की ही परिचायक है।
लाल किले से मोदी के संबोधन की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि उन्होंने कई ऐसे सामाजिक मुद्दों को छुआ जो देश की आत्मा को झकझोर रहे हैं। दुष्कर्म, कन्या भ्रूण हत्या, गंदगी, शौचालयों के अभाव से लेकर पारिवारिक मूल्यों में बिखराव तक के मुद्दे हमारे माथे पर कलंक की तरह हैं, लेकिन उनके प्रति शासन की या तो स्पष्ट सोच सामने नहीं आती या फिर कभी-कभार रस्मी बातें कर दी जाती हैं। उन्होंने यह बिल्कुल सही सवाल उठाया कि क्या कभी माता-पिता अपने बेटों से यह पूछते हैं कि वे कहां जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं? नि:संदेह यदि अभिभावक अपनी संतानों के चाल-चलन पर निगाह रख सकें तो कई समस्याओं पर अंकुश लगाया जा सकता है।
बेटियों की सुरक्षा को लेकर मोदी के सीधे सवालों ने देश की महिलाओं को आश्वस्त किया कि शासन में शीर्ष पर बैठा व्यक्ति उनकी सुरक्षा को लेकर गंभीर है। महिलाओं के लिए शौचालयों के निर्माण की उनकी प्रतिबद्धता का भी विशेष महत्व है। मोदी ने इसे महिलाओं की गरिमा और सम्मान से संबद्ध किया। अपने संबोधन के दौरान ही उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि एक प्रधानमंत्री के लिए लाल किले की प्राचीर से इन मुद्दों का जिक्त्र करना अटपटा लग सकता है, लेकिन वह इन्हें गंभीर मसला मानते हैं और उनके निदान के लिए प्रतिबद्ध हैं। मोदी ने आम जनता को उनकी जिम्मेदारी की याद दिलाने के साथ शासन के तौर-तरीकों में बुनियादी बदलाव का भरोसा भी दिलाया। योजना आयोग को उसके मूल स्वरूप में समाप्त कर आज के परिवेश और चुनौतियों के लिहाज से उपयुक्त एक नई संस्था के रूप में सामने लाने का वादा कर प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह बंधे-बंधाए ढर्रे पर ही चलने वाले नहीं हैं। उन्होंने देश के संघीय ढांचे को और अधिक मजबूत बनाने के लिए योजनाओं में राज्यों की सक्त्रिय भागीदारी पर भी जोर दिया। उनका यह विचार टीम इंडिया के रूप में भारत को आगे ले जाने के उनके इरादे के अनुरूप है। इसके साथ ही उन्होंने देश के सभी नागरिकों को बैंकिंग सेवाओं के दायरे में लाने के साथ ही उद्योगीकरण का माहौल कायम करने पर बल दिया।
उद्योगीकरण के लिए मोदी केनए मंत्र-कम, मेक इन इंडिया ने देश-दुनिया का ध्यान खींचा है। इससे यह झलक मिलती है कि वह विकास की किस दिशा की ओर बढ़ना चाहते हैं। उन्होंने सेटेलाइट से लेकर सबमरीन तक के भारत में निर्माण का जो नारा दिया वह आज एक सपने की तरह लग सकता है, लेकिन भारत में ऐसी साम‌र्थ्य है कि इस सपने का साकार किया जा सके। मोदी सरकार निर्माण के क्षेत्र में बड़े और तकनीक पर आधारित उद्योगों के साथ-साथ छोटे और मझोले उद्योगों को भी भरपूर प्रोत्साहन देना चाहती है। इससे निश्चित रूप से बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन होगा और अर्थव्यवस्था को अपेक्षित रफ्तार भी मिलेगी। मोदी सरकार के कामकाज के मौजूदा तौर-तरीकों में सुधार करना चाहते हैं, इसका संकेत उनके इस कथन से भी मिलता है कि एक बाहरी के रूप में दिल्ली आकर जब उन्होंने शासन के ढांचे को देखा तो यह देखकर चकित रह गए कि सरकार के भीतर ही कई सरकारें काम कर रही थीं। इससे जाहिर है कि पहले की सरकारों ने मंत्रालयों के बीच समन्वय पर सही तरीके से ध्यान नहीं दिया। समन्वय के इस अभाव ने ही सरकार के कामकाज में रुकावटें पैदा करने के साथ ही धन की बर्बादी भी कराई। मोदी इस स्थिति को बदलने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वह नौकरशाही को भी सुशासन में योगदान देने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपने लंबे अनुभव से वह यह जानते हैं कि शासन की प्राथमिकताओं के प्रति नौकरशाही का अनुकूल रवैया कितना महत्वपूर्ण है।
एक प्रधानमंत्री के संबोधन में कुछ न कुछ राजनीतिक संदेश भी होता है। इस लिहाज से मोदी का भाषण भी अपवाद नहीं है। उन्होंने सांसदों के लिए एक-एक आदर्श गांव विकसित करने की योजना का ऐलान कर राजनेताओं को एक नई तरह की जिम्मेदारी देने की बात कही। उन्होंने इसी तर्ज पर विधायकों को भी आदर्श गांव योजना चलाने का सुझाव दिया। मोदी ने इस योजना का पूरा खाका जल्द ही प्रस्तुत करने का भरोसा दिलाया है। मोदी की इस पहल के सार्थक नतीजे सामने आने ही चाहिए। अगर इस योजना के तहत प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में एक-एक आदर्श गांव विकसित हो सके तो उनके आसपास के इलाके स्वत: ही विकास की पटरी पर चल निकलेंगे। एक सांसद अथवा विधायक के लिए तीन से पांच हजार की आबादी वाले किसी गांव को हर सुविधा और संसाधनों से लैस करना बहुत मुश्किल कार्य नहीं होना चाहिए।
मोदी ने लाल किले से विदेश नीति के संदर्भ में अपना जो दृष्टिकोण प्रदर्शित किया वह भी कम उल्लेखनीय नहीं। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी प्राथमिकता भारत के पड़ोसी हैं और वह उनके साथ मिलकर गरीबी से लड़ना और उसे परास्त करना चाहते हैं। वह भारत के साथ-साथ पूरे क्षेत्र की शांति और प्रगति के लिए आस-पास के देशों के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। दक्षेस देशों के प्रति उनका झुकाव एक सुविचारित नीति का हिस्सा है। वैसे तो मोदी ने इस अवसर पर पाकिस्तान को कोई सीधी चेतावनी देने से परहेज किया, लेकिन संकेतों में इस्लामाबाद को यह नसीहत अवश्य दे दी कि जिस तरह आजादी की लड़ाई मिलकर लड़ी गई थी उसी तरह अपनी समस्याओं के हल के लिए आगे क्यों नहीं बढ़ा जा सकता? भारत और पाकिस्तान कई मामलों में एक जैसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि वे इन समस्याओं का सामना मिलकर करें? मोदी के इस कथन में विदेश नीति के कई महत्वपूर्ण संकेत छिपे हैं। इन संकेतों को दक्षिण एशियाई देशों, विशेषकर पाकिस्तान को सही रूप में समझना होगा।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]
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भरोसा बढ़ाने वाला भाषण
Sat, 16 Aug 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रभावी भाषण कला से परिचित होने के बावजूद इसे लेकर देश भर में उत्सुकता थी कि वह स्वाधीनता संघर्ष के प्रतीक लाल किले की प्राचीर से अपने प्रथम संबोधन में क्या बोलते हैं और कैसा बोलते हैं? अपेक्षा के अनुरूप उन्होंने लिखित भाषण का सहारा नहीं लिया और न ही लोक-लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगाई। इस बारे में उन्होंने स्पष्ट भी किया कि वह उन बातों को ही कहने के पक्षधर हैं जिन्हें अपने समय में पूरा कर पाएं। बावजूद इसके उन्होंने कुछ चुनिंदा घोषणाएं भी कीं और उनके जरिये यह और अच्छे से स्पष्ट हुआ कि वह लीक से हटकर चलने के साथ देश के कायाकल्प का संकल्प भी लिए हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह रहा कि लाल किले की प्राचीर से राजनेता नरेंद्र मोदी एक ऐसे राजनीतिज्ञ के रूप में उभरते दिखे जो परंपरागत राजनीति के दायरे से निकल कर भी बहुत कुछ करना चाहते हैं। उन्होंने अपने भाषण से लोगों को प्रेरित करने के साथ उन्हें राष्ट्र निर्माण में शामिल होने के लिए आगे आने को भी कहा। उन्होंने यह कहने में संकोच नहीं किया कि सब कुछ सरकारें नहीं कर सकतीं और बहुत से काम ऐसे हैं जिन्हें जनता की भागीदारी से ही पूरा किया जा सकता है और उसमें हाथ बंटाना उसकी जिम्मेदारी भी है। आज की पीढ़ी के लिए यह स्मरण करना कठिन है कि इसके पहले किसी प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर अथवा अन्य किसी मंच से वैसी बातें की हों जैसी नरेंद्र मोदी ने कीं। पता नहीं यह कब हुआ और क्यों कि आजादी के दौर के नेताओं के परिदृश्य से हटने के साथ ही जनता को प्रेरित करने और उसे अपने साथ जोड़ने की राजनीति बंद हो गई। इससे समाज सुधार की प्रक्रिया भी शिथिल पड़ गई। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि लोग इसे विस्मृत कर बैठे कि आम नागरिक के तौर पर उनके कुछ दायित्व भी हैं।
देर से ही सही, यह एक शुभ संकेत है कि नरेंद्र मोदी ने उन मुद्दों को महत्ता प्रदान की जिनके बारे में कोई राजनेता बोलता ही नहीं था। यह देखना सुखद है कि नरेंद्र मोदी ने आम लोगों को उनके कर्तव्यों की याद दिलाने के साथ उन्हें झकझोरा भी और उनसे बिना किसी लाग लपेट कुछ ऐसे सवाल भी किए जो कोई करता ही नहीं था। कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों था, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि इससे राजनेताओं और आम जनता में दूरी बढ़ी और जनमानस के बीच यह भाव पैदा हुआ कि जो भी करना है, सरकार को ही करना है। नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र निर्माण का जो खाका खींचा उसमें आम जनता को शामिल करने के साथ-साथ राज्य सरकारों और विपक्ष को भी समाहित किया। उनके भाषण को विपक्ष चाहे जिस रूप में ले, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि देश का उत्थान तभी संभव है जब शासन-प्रशासन के मौजूद तौर-तरीकों से मुक्ति पाई जाएगी। लाल किले से अपने पहले संबोधन के जरिये नरेंद्र मोदी ने देश की उम्मीदों को नए सिरे से जगाने का काम किया है। एक राष्ट्र के रूप में जो कुछ भारत की पहुंच के भीतर दिखता है उसे पाने के लिए यह आवश्यक है कि मोदी सरकार अपने प्रति लोगों के भरोसे को बनाए रखे, क्योंकि यह भरोसा ही वास्तविक बदलाव लाएगा।
[मुख्य संपादकीय]
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संबोधन और सवाल

जनसत्ता 16 अगस्त, 2014 : स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री के संबोधन को लेकर इस बार कुछ ज्यादा ही उत्सुकता थी तो इसकी वजहें जाहिर हैं। तीन दशक में पहली बार किसी पार्टी को लोकसभा में अपने दम पर बहुमत मिला है और सत्ता परिवर्तन ने दस साल बाद देश को नया प्रधानमंत्री दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस अवसर पर राष्ट्र से मुखातिब होने का यह पहला मौका था। फिर, इस बार के स्वाधीनता दिवस समारोह को खास बनाने के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। भाजपा सांसदों को हिदायत थी कि वे दिल्ली से बाहर न जाएं और समारोह में जरूर शामिल हों। लोग ज्यादा से ज्यादा तादाद में शिरकत करें इसके लिए मेट्रो से वहां मुफ्त जाने-आने की सुविधा दी गई। इससे पहले साल-दर-साल पंद्रह अगस्त पर तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का राष्ट्र के नाम संदेश काफी हद तक रस्मी होता था; कई बार यह भी लगता था जैसे बजट-भाषण का कोई अंश पढ़ा जा रहा हो। नरेंद्र मोदी अपनी वक्तृता के लिए जाने जाते हैं। इस मौके पर भी उन्होंने लिखित भाषण नहीं पढ़ा, सीधे बोले। इससे कई सालों से चली आ रही एकरसता टूटी। लेकिन राष्ट्रीय ध्वज फहराने के बाद लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए प्रधानमंत्री उत्साह का वैसा संचार नहीं कर सके, जैसी कि उनसे उम्मीद की जा रही थी। दरअसल, उन्होंने उन कई मुद््दों को छुआ ही नहीं जिन पर उन्हें जनादेश मिला है। भ्रष्टाचार और काले धन पर लगाम लगाने और महंगाई से निजात दिलाने का सपना दिखा कर उन्होंने अपनी पार्टी को अपूर्व कामयाबी दिलाई और सरकार बनाई। पर न उन्होंने महंगाई का जिक्र किया न काले धन और भ्रष्टाचार का। उनका ज्यादा ध्यान विदेशी निवेश को महिमामंडित करने और उसके लिए माहौल बनाने पर रहा। कई बार लगा वे बाहरी निवेशकों से ज्यादा मुखातिब हैं। एफडीआइ पर इतना जोर देना, वह भी स्वाधीनता दिवस के अवसर पर, क्या राष्ट्र के मनोबल को बढ़ाने वाला है? यह चर्चा पहले से थी कि योजना आयोग का स्वरूप बदलने की तैयारी चल रही है। अब तक के अनुभवों के आधार पर आयोग को अधिक गतिशील और कारगर बनाने की पहल हो तो किसे एतराज होगा! लेकिन प्रधानमंत्री ने जो संकेत दिए हैं उनसे यह अंदेशा पैदा होता है कि कहीं आयोग कॉरपोरेट क्षेत्र के हितों का खयाल रखने वाला निकाय तो नहीं बन जाएगा। योजना आयोग की बाबत उन्होंने जो कुछ कहा क्या उस पर मंत्रिमंडल में विचार हो चुका है? क्या वह संसद को मंजूर होगा? एक रोज पहले राष्ट्रपति ने राष्ट्र के नाम संदेश दिया था जिसमें उन्होंने देश में हाल में हुई सांप्रदायिक घटनाओं और असहिष्णुता की प्रवृत्ति पर चिंता जाहिर की और देशवासियों को आगाह किया। प्रधानमंत्री के संबोधन में भी सौहार्द का संदेश शामिल था। पर यह रस्म अदायगी थी या वे सचमुच सांप्रदायिकता और कट्टरता को लेकर चिंतित हैं! यह बिल्कुल जाहिर है कि ऐसी घटनाओं के पीछे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति ही सबसे बड़ी वजह है। इसलिए रस्मी तौर पर सौहार्द की बात दोहराने से कुछ नहीं होगा, बीमारी के कारण दूर करने होंगे। स्वाधीनता दिवस के समारोह विकास की बातें दोहराने की औपचारिकता से भी भरे रहते हैं। अच्छा यह होगा कि इन्हें दोहराते रहने के बजाय हम सच्चाई से रूबरू हों। क्यों पिछले दो दशक में दो लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी करने को मजबूर हुए? क्यों तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था और ऊंची विकास दर के दावों के बावजूद हर साल संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट में भारत दुनिया के सबसे गरीब देशों की कतार में खड़ा दिखता है? पंद्रह अगस्त हमारे देश के लिए जश्न का अवसर है तो आत्म-समीक्षा का भी।
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लाल किले से जो सुना हमने
कुमार प्रशांत

 जनसत्ता 19 अगस्त, 2014 : लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन से पहले उसकी हवा बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई थी;
संबोधन के बाद उसकी गूंज बनाए रखने की भी ताबड़तोड़ कोशिश जारी है। लेकिन हवा की हवा क्या थी और अब गूंज क्या है, यह मैं न आंक पा रहा हूं न जान पा रहा हूं। 
जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक कभी, किसी के लिए ऐसी हवा नहीं बनाई गई थी। नरेंद्र मोदी के लिए बनाई गई क्योंकि उनकी सारी राजनीति ही हवा के बल पर बनी हुई है। और हवा का चरित्र है कि वह टिकती नहीं है और रुकती नहीं है। नरेंद्र मोदी के पक्ष में दो बातें थीं- आजाद भारत में पैदा हुआ पहला प्रधानमंत्री और लंबे समय के बाद अपने बल पर बहुमत से बनी सरकार का मुखिया! दोनों ही कारण मजबूत थे लेकिन इनका रिश्ता लाल किले के भाषण की स्तरीयता से तो जुड़ता नहीं है। फिर भी मुझे यह बात खासतौर पर अच्छी लगी कि मोदी लिखित भाषण नहीं पढ़ेंगे, कि नरेंद्र मोदी पाषाणवत शीशे की दीवार में दुबक कर, देश की बहादुरी को नहीं ललकारेंगे! कितने दरिद्र बना दिए गए हैं हम कि ये सब बातें भी विशिष्टता में गिननी पड़ती हैं! 
प्रधानमंत्री ने दोनों बातें कीं- वे धाराप्रवाह बोले और शीशे की दीवार हटा कर बोले ! पिछले दस सालों से हम जिस बोदे किस्म का संबोधन लाल किले से सुनते (?) आ रहे थे, भाइयो और बहनो, उससे यह एकदम भिन्न था। हमारे सामने एक प्राणवान, ऊर्जावान प्रधानमंत्री खड़ा था जिसके पास अपनी भाषा थी, अपना तेवर था। उसकी गुजराती असर वाली हिंदी में एकाध खांटी गुजराती शब्दों की छौंक मुझे भा रही थी। मैं यह भी देख पा रहा था कि यह एक आदमी है जो सत्ताधारियों के कुनबे से नहीं आया है और उसके भीतर उस जमीन की याद ताजा है अभी, जहां से वह उठा है। मैं यह भी देख पा रहा था कि इस आदमी को पता है कि आज वह सबकी नजर में है और यह भी कि वह नजरों में बने रहने का गुर जानता है। लेकिन... इससे आगे? भाषण खत्म कर जब प्रधानमंत्री चले गए तो एक खोखला सन्नाटा अपनी जगह बनाने में कितनी आसानी से, कितनी जल्दी सफल हो गया! क्यों? क्योंकि प्रधानमंत्री ने कहा कुछ भी नहीं! ऐसा लगा कि वे शब्दों की तोप चलाते रहे और जब शब्द चुक गए तो वे चुप हो गए।   
प्रधानमंत्री ने जिस भारत की तस्वीर खींची उसका सत्त्व, उनके ही कहे मुताबिक बाजार है। वे कहते हैं कि जो देश बाजार में बिकता है और बाजार बनाता है वही सबसे अव्वल होता है, विश्वगुरु बनता है। मोदी के भारत को वहां पहुंचना है। इसकी कीमिया कहां है- मेक इन इंडिया का आमंत्रण और मेड इन इंडिया का साम्राज्य! चुनावी सभाओं में, जिसका नरेंद्र मोदी को खासा अभ्यास है, इस पर तालियां बजेंगी। लेकिन जब हम इस नारे को खोलते हैं तब क्या मिलता है? खाली हवा! 
मान लें कि मोदी की बात मान कर दुनिया भर की कंपनियां भारत में अपने उद्योग लगाने आएं तो हम उन्हें क्या देंगे- सस्ते मजदूर जिनकी सुरक्षा के लिए कोई श्रम कानून नहीं होगा? जमीन जो सरकारी दमन के कारण माटी के मोल मिल जाएगी? बिजली जो अपने देश में कितनी है और किस हाल में है, यह दूसरे किसी से नहीं, पीयूष गोयल से ही पूछ लीजिए? पानी जो बाढ़ और भयंकर जल-जमाव तो ला रहा है लेकिन न सींच पा रहा है न प्यास बुझा पा रहा है? और इन सबका इतना सारा दोहन करके विदेशी कंपनियां जो माल यहां बनाएंगी, वह बिकने और ज्यादा मुनाफा कमाने कहां जाएगा? दूसरे देशों के बाजार में ही न? 
यही मॉडल तो है जो चीन ने अपने यहां बना और चला रखा है। मेक और मेड, दोनों ठप्पों पर आज चीन का जैसा वैश्विक एकाधिकार है वैसा दूसरा किसका है? परचीन के समाज की, नागरिकों की, श्रमिकों की क्या स्थिति है। क्या हम अब वैसे ही समाज को आदर्श मानेंगे? संघ परिवार को चीनी मॉडल से ज्यादा एतराज न हो शायद, क्योंकि वह भी एकाधिकारी समाज में विश्वास करता है। लेकिन महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई के दौरान जिस लोकतंत्र के बीज बोए और आजादी मिलने के बाद से अब तक हमने जिस लोकतंत्र की सार्वजनिक साधना की है, क्या वह हमें चीन जैसा समाज बनाने देगा? इस पर सोचना जरूरी है। 
प्रधानमंत्री ने कहा कि आदर्श गांव बनाए जाएं; और उन्होंने उसकी एजेंसी भी बता दी कि सारे सांसद, विधायक अपने-अपने चुनाव क्षेत्र में हर साल एक गांव को आदर्श बनाने में लग जाएं। लक्ष्य भी सामने रख दिया- 2019 का चुनाव। 
अगर यह सत्ताकेंद्रित राजनीतिक कीमिया  किसी को रास आए तो भी यह सवाल बचा ही रहता है कि सारे सांसद-विधायक मिल कर आदर्श गांव बनाएंगे तो केंद्र और राज्यों की सरकारें क्या करेंगी? उनका लक्ष्य तो मोदीजी ने पहले ही तय कर दिया है, बजट में उसकी घोषणा भी हो चुकी है कि सौ आधुनिक शहर बसाए जाएंगे। लोग बनाएं आदर्श गांव और सरकार बनाए आदर्श-आधुनिक शहर तो इसमें से कैसे भारत की तस्वीर उभरती है? 
गांव या शहर के रूप में जिन्हें हम देखते हैं वे मिट््टी के लोंदे नहीं हैं कि जिन्हें आप मनचाहा आकार दे लेंगे। ये मनुष्यों की जिंदा संरचनाएं हैं जिनके पीछे इतिहास-भूगोल-परंपरा-संस्कृति की जिंदा ताकतें काम करती हैं। कैसे इनका तालमेल बिठाएंगे आप? जवाहरलाल भी ताउम्र इसी जाल में फंसे हाथ-पांव मारते रहे लेकिन गांधी के ग्राम स्वराज्य में छिपी आधुनिक भारत की तस्वीर देख और समझ नहीं पाए और नतीजा सामने है कि भारत के गांवों की कब्र पर खड़े हमारे शहर भी गंदगी, कुव्यवस्था, हिंसा, भ्रष्टाचार, मिथ्याचार, अपराध की लड़खड़ाती मीनारें बन गए हैं। दिल्ली में भी, अमदाबाद-वडोदरा में भी, मुंबई-चेन्नई और बंगलुरुमें भी इससे अलग क्या खड़ा हुआ है? समाज बनाने और होटल बनाने में कोई फर्क होता है या नहीं? क्या इनमें से हम कोई समाज बनता हुआ देख पा रहे हैं?  
प्रधानमंत्री ने अपने सामने एक बड़ा सपना यह रखा है कि देश का हर नागरिक बैंक से जोड़ा जाएगा। क्या होगा इससे? हमें इस अतिकेंद्रित बैंकिंग व्यवस्था की गहरी जांच करनी चाहिए। यह बड़े पूंजीवालों के हित में काम करने वाली निहायत ही अकुशल, भ्रष्ट और निजी लूट में संलग्न व्यवस्था है। आखिर जब हमारी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है तो राष्ट्रीयकृत हों कि निजी, इन बैंकों की इमारतें अट्टालिकाओं में कैसे बदल रही हैं, इनके लोगों की तनख्वाहें कहां पहुंच रही हैं, इनकी शाखाओं की चमक-दमक कैसे निखरती ही जा रही है? इनकी अकुशलता और गैर-जिम्मेदारी की अकथ कहानी किसी भी खाताधारक से सुन सकते हैं प्रधानमंत्री। प्रधानमंत्री बस इसका ही हिसाब देश के सामने रखें कि जिन किसानों ने पिछले बीस बरसों में आत्महत्या की है, उनमें से कितनों ने बैकों से कर्ज ले रखा था? 
गांव के सूदखोर महाजन की जगह सामाजिक न्याय में विश्वास करने वाली बैंकिंग व्यवस्था हम बना सके हैं क्या? हम इस राजनीतिक बेईमानी के जाल में न फंसें कि सरकारों ने चुनावों को ध्यान में रख कर किसानों का कब, कितना कर्ज माफ किया है। किसानों की कर्ज-माफी एक तरफ तो राजनीतिक घोटाला है, दूसरी तरफ सामान्य करदाता की बेशर्म लूट। बैंकों के विस्तार का आज एक ही मतलब है कि जिस विकेंद्रित ग्रामीण पूंजी तक सरकार और उद्योगों की पहुंच नहीं है, वह समेट कर शहरों में ले आई जाए और उसका मनमाना दोहन हो। 
लड़कियों-बेटियों को लेकर कितनी चिंता प्रकट की प्रधानमंत्री ने। लेकिन जैसी संरचना की तरफ उनकी दौड़ है, उसमें सारी दुनिया में लड़कियां र्इंधन की तरह इस्तेमाल की जाती हैं। मुनाफा बटोरने वाला बाजार हो या पर्यटन को उद्योग मानने वाली व्यवस्था, अपने हर माल को सेक्स की चासनी में लपेट कर बेचने वाला शहरी उद्योग हो या लड़कियों को रंभा या मेनका मान कर बरतने वाली राजनीति- कहां है जगह बेटियों की? तो नारे वोट ला सकते हैं लेकिन राजनीतिक-सामाजिक-बौद्धिक मान्यताएं बदलने का रास्ता इधर से नहीं गुजरता है।  
सारी उलझन यहीं पर है कि रास्ता क्या है और वह किधर से गुजरता है। चुनाव प्रचार के दौरान मतवाले हुए नरेंद्र मोदी हों कि आज सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री, महात्मा गांधी उन्हें एक ही बात के लिए याद आते हैं- सफाई। 
यह ठीक ही है कि गंगा की सफाई हो कि प्रधानमंत्री कार्यालय के कचरे की, महात्मा गांधी का झाड़ू हर जगह काम करता है, लेकिन प्रधानमंत्री जो भूल रहे हैं वह यह कि महात्मा गांधी का झाड़ू सबसे पहले दिमागी गंदगी की सफाई करता था। उस झाड़ू से सभी पिटे हैं- बिड़ला-बजाज भी, सोहरावर्दी और कांग्रेसी भी, संघ परिवारी और सरदार पटेल भी, सुभाष भी और हिटलर भी। जवाहरलाल से उत्तराधिकार वापस लेने तक गए वे और कांग्रेस को विसर्जित करने की लिखित सलाह तक दे डाली। दलितों की नुमाइंदगी का आंबेडकर का एकाधिकार जिसने कभी स्वीकार नहीं किया, उसी ने आजाद भारत के पहले मंत्रिमंडल में उनको जगह देने की जोरदार पैरवी की तो उसके पीछे भी दिमागी गंदगी पर झाड़ू चलाने की बात ही थी। मुसलिम सांप्रदायिकता को संगठित कर राजनीति करने की जिन्ना की रणनीति का आखिरी दम तक विरोध किया उन्होंने तो दूसरी तरफ भारतीय समाज में सभी धर्मावलंबियों की समान हैसियत बनाने के सवाल पर गोली खाई उन्होंने। जयप्रकाश नारायण को कांग्रेस का अध्यक्ष बना कर नेहरू-सरदार पर अंकुश लगाने की कोशिश की उन्होंने तो देश-विभाजन बचाने के लिए यह दुस्साहसी प्रस्ताव भी रखा कि सब कुछ उनके कंधों पर डाल कर कांग्रेस अलग हो जाए! लेकिन तब न कोई संघ परिवारी उनके समर्थन में आगे आया न कोई लीगी, न कोई कांग्रेसी, न कोई साम्यवादी। इस गांधी को भुला कर जिस तरह चलने की कोशिश प्रधानमंत्री कर रहे हैं वह उन्हें लाल किले तक भले पहुंचा दे, हिंसा से लाल हो रही भारत-भूमि को हरीतिमा से भरने का मौका नहीं देगी।
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