Thursday 4 September 2014

नरेंद्र मोदी


निराशाजनक माहौल में नरेंद्र मोदी का विजन 
Jan 20, 2014 | 

नई दिल्ली. देश में लोकतंत्र का महाकुंभ सजने में कुछ हफ्तों की ही देरी है पर अभी से सभी राजनीतिक पार्टियों की अपने-अपने स्तर पर तैयारियां जोरों पर हैं। इस बीच राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी भारी गहमागहमी दिखी, जब देश की दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों, कांग्रेस और भाजपा, का कार्यकर्ता सम्मेलन हुआ। एक तरफ कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें स्पष्ट रूप से संकेत मिल रहा था कि पार्टी आगामी लोकसभा चुनावों के परिणामों को अभी से अपने प्रतिकूल होने को लेकर भयभीत है। और चुनावों में उतरने के लिए उसी तरह की रणनीति भी बना रही है कि कैसे खुद को रेस में बनाए रखा जाए।  वहीं दूसरी ओर देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा के राष्ट्रीय परिषद् की बैठक में उत्साह दिखा। अब तक भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर आरोप लगते रहे हैं कि वे आक्रामक भाषा का प्रयोग करते हैं और देश के समक्ष विजन प्रस्तुत करने की बजाय सभाओं में विरोधियों पर हमला करते हैं। ऐसे लोगों की शिकायत रविवार को मोदी के भाषण के बाद अवश्य थोड़ी दूर हुई होगी। दिल्ली के रामलीला मैदान में पार्टीके राष्ट्रीय परिषद् के बैठक में मोदी ने उम्मीदों ने भरा भाषण दिया और देश के सामने हर क्षेत्र के लिए एक विजन प्रस्तुत किया कि वे सरकार में आएंगे तो क्या करेंगे।  मोदी ने इसके साथ-साथ अपनी भावी सरकार को लेकर एक रोडमैप भी देश के सामने रख दिया है। उन्होंने हर राज्य में आईआईटी व आईआईएम जैसे संस्थान होने की बात कही। देश को स्वर्णिम चतुर्भुज बुलेट ट्रेन का सपना दिखाया। साथ ही उन्होंने बताया कि बीमारी का सस्ता इलाज कैसे हो, देश से बेरोजगारी कैसे दूर हो, सौ नये शहरों का निर्माण कैसे हो, भ्रष्टाचार कैसे दूर हो, महंगाई कैसे दूर हो, कालेधन को कैसे वापस लाया जाए, गरीबी कैसे दूर हो तथा बिजली, पानी और शिक्षा लोगों को कैसे मिले। ये ऐसे मुद्दे हैं जिससे देश आज जूझ रहा है। देश तेजी से इनका निदान चाहता है।  इसमें कोई दो राय नहीं है कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, सुरक्षा, घरेलू मोर्चे पर देश को नाकामी मिली है। लिहाजा 2014 के नतीजों के प्रति कांग्रेस का डर जायज है। ऐसे में मोदी का कहना उचित जान पड़ता है कि अपने अधिवेशन में कांग्रेस अपनी पार्टी को बचाने के लिए मंथन करती रही, जबकि आज जरूरत देश को कैसे बचाया जाए इसके लिए विजन रखने की है।  आज देश को एक्ट की नहीं बल्कि एक्शन की दरकार ज्यादा है और सरकारों को केवल कमेटी ही नहीं बल्कि लोगों से कमीटमेंट भी करनी होगी, तभी बदहाली से देश को मुक्ति मिल सकती है। इस तरह नरेंद्र मोदी का विजन देश को एक रास्ता दिखाता प्रतीत हुआ। वहीं जिस तरह से नरेंद्र मोदी की सभाओं में भीड़ उमड़ रही है उससे पार्टी उत्साहित है। साथ ही सभी सर्वे में मोदी लोगों के बीच प्रधानमंत्री के रूप में पहली पसंद बने हुए हैं। इससे सहज ही अनुमान लगता है कि उनकी लोकप्रियता देश में कायम है। हाल में संपन्न पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजे इस बात के संकेत भी दे रहे हैं कि मतदाता भाजपा में विश्वास जता रहे हैं और उसे विकल्प के रूप में देख रहे हैं। कुल मिलाकार कार्यकर्ताओं में उनका भाषण जोश भर गया। 
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------
मोदी की सोशल इंजीनियरिंग

May 30,2014

मोदी की विस्मयकारी विजय से जहां उनकी पार्टी से जुड़े लोगों का चेहरा कमल की भांति खिल गया है, वहीं देश-दुनिया में फैले उनके करोड़ों विरोधी सदमे में हैं। लोकसभा चुनाव में कल्पनातीत विजय ने उन्हें इंदिरा गांधी के बाद भारत की सबसे प्रभावशाली शख्सियत के रूप में स्थापित कर दिया है। दुनिया के उन तमाम राष्ट्राध्यक्षों में उन्हें बधाई देने व अपने देश का दौरा करने का आमंत्रण देने की होड़ लग गई है, जिन्होंने कल तक उनके लिए प्रवेश निषेध का बोर्ड टांग रखा था। बहरहाल मजबूत नहीं, गठबंधन पर निर्भर मजबूर सरकारों के दौर में इतना प्रचंड बहुमत हासिल करने का करिश्मा मोदी ने कैसे अंजाम दिया इसे लेकर तमाम राजनीतिक विश्लेषकों की अलग-अलग राय है। आम तौर पर भाजपा की जीत में मोदी के भागीरथी प्रयास को सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है। उन्होंने मिशन 272 के लिए लाखों किमी की यात्र की तथा 450 से अधिक रैलियों के जरिये करोड़ों लोगों से सीधा संवाद कर अपनी पार्टी के प्रति लोगों में उम्मीद का संचार किया। पारंपरिक प्रचार के साथ उनका 3डी होलोग्राम, चाय पार्टी जैसे अभिनव तरीके भी लोगों, खासकर 18-23 साल के युवाओं को बहुत पसंद आए। तमाम विश्लेषकों की राय है कि उन्होंने संप्रग सरकार के कुशासन, महंगाई, सुस्त आर्थिक रफ्तार और भ्रष्टाचार को लेकर उभरे जनाक्रोश को अपनी पार्टी के पक्ष में बेहतर तरीके से भुनाया।
संप्रग की आर्थिक नीतियों और भ्रष्टाचार के कारण बेरोजगार युवाओं में जो निराशा घर कर रही थी, उसे दूर करने के लिए उन्होंने अच्छे दिन आने वाले हैं नारा दिया। अपने प्रचार अभियान के दौरान उन्होंने गुजरात आर्थिक मॉडल के साथ 100 मेगा सिटी बनाने, बुलेट ट्रेन चलाने जैसे हसीन सपने बांटे। इसके साथ ही तमाम विश्लेषक उनकी सफलता में हिंदुत्व की अपील को भी एक पहलू मान रहे हैं, किंतु उनकी सफलता में तमाम महत्वपूर्ण पहलू गिनाने वाले राजनीति के पंडित जिस बात को खुलकर नकार रहे हैं, वह है जाति फैक्टर। अधिकांश लोग दावे से कह रहे हैं कि मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व और विकास के नारे ने जाति की दीवारों को ध्वस्त कर दिया, जो कि सच नहीं है। सच्चाई तो यह है कि जाति तत्व भी इस चुनाव में प्रभावी रहा और मोदी ने बड़ी सूझ-बूझ से सभी जातियों को अपने साथ जोड़ कर सफलता का स्वाद चखा है। 16वीं लोकसभा चुनाव के आंकड़े बता रहे हैं कि देश भर में 54 प्रतिशत ओबीसी वोट मोदी के खाते में गए हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि उन्होंने बड़ी सफाई से खुद की छवि एक ऐसी पिछड़ी जाति के नेता के रूप में प्रोजेक्ट की जो प्रधानमंत्री बन सकता था। इस क्त्रम में उनका खुद को नीची जाति का बताना मारक हथियार साबित हुआ। उन्होंने सभी जातियों को अपने साथ जोड़कर जो नई सोशल इंजीरियरिंग रची उसने यूपी-बिहार को सबसे अधिक प्रभावित किया। इन दोनों प्रदेशों में 120 में से 104 सीटें भाजपा की झोली में आईं हैं।
मोदी को इस बात का इल्म था कि हिंदी पट्टी के जो दो खास प्रांत यूपी-बिहार केंद्र की सत्ता दिलाने में सबसे प्रभावी रोल अदा करते हैं, वहां मंडल उत्तरकाल में जाति चेतना के राजनीतिकरण के चलते भाजपा-कांग्रेस के लिए अवसर बहुत कम हो गए हैं। अत: यूपी-बिहार को जीतने के लिए जाति चेतना की काट ढूंढ़नी होगी। खासकर बिहार में जदयू से गठबंधन टूटने के बाद जाति चेतना की काट की जरूरत और शिद्दत से महसूस होने लगी। उन्होंने जाति समीकरण को ध्यान में रखकर ही टिकट बांटे। जाति समीकरण ने ही मोदी को बिहार से सटे वाराणसी से चुनाव लड़ने के लिए बाध्य किया, लेकिन बात इतने से ही नहीं बनने वाली थी। यूपी और बिहार में जीत हासिल करने के लिए जरूरत योग्य सहयोगियों की भी थी। कांटे से कांटा निकालने की रणनीति के तहत बहुत पहले ही डॉ. संजय पासवान को भाजपा दलित मोर्चे का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने तथा महाराष्ट्र के लोकप्रिय नेता रामदास आठवले को राज्यसभा भेजने वाले मोदी ने राम विलास पासवान, उदित राज, उपेंद्र कुशवाहा, अनुप्रिया पटेल, छेदी पासवान, राम कृपाल यादव जैसे जाति-जनाधार वाले नेताओं को अपने साथ जोड़ा। दलित-पिछड़े समाज के इन मुखर नेताओं का भाजपा से जुड़ना उसके मिशन 272 के लिए निर्णायक कदम साबित हुआ। उनके जुड़ने से सबसे बड़ा लाभ भाजपा को यह मिला है कि उसकी राजनीतिक अस्पृश्यता दूर हो गई। वैसे तो कुशासन, महंगाई, भ्रष्टाचार इत्यादि के कारण कांग्रेस के प्रति लोगों में बढ़ते गुस्से के चलते भाजपा का सत्ता में आना लगभग तय सा था। समस्या सिर्फ इस बात को लेकर थी कि अगर पूर्ण बहुमत नहीं मिला तब क्या होगा, क्योंकि चुनाव से पहले भाजपा के साथ आने को बहुत से दल तैयार नहीं थे। रामविलास पासवान, उदित राज, उपेंद्र कुशवाहा, अनुप्रिया पटेल, छेदी पासवान, राम कृपाल यादव इत्यादि के भाजपा से जुड़ने से इसे ऐसा मनोवैज्ञानिक लाभ मिला कि उसके बाद सारे राजनीतिक हालात पूरी तरह मोदी के पक्ष में हो गए। इससे राजग का कुनबा विस्तार लाभ करने लगा। उत्साहित नरेंद्र मोदी दूने आत्मविश्वास के साथ मिशन 272 में जुट गए। जिन नेताओं को मोदी ने यूपी, बिहार जीतने की गरज से जोड़ा था, उनकी अपनी पहचान थी। उपेंद्र कुशवाहा की छवि जहां लालू-नीतीश से मोहमुक्त बिहार में ओबीसी समाज के बौद्धिक नेता के रूप में स्थापित हो चुकी थी, वहीं नीतीश राज में मिली घनघोर उपेक्षा के कारण बिहार की सबसे प्रभुत्वशाली जाति दुसाध समाज के लोग रामविलास पासवान, संजय पासवान इत्यादि के पीछे आंख मूंदकर चलने का मन बना चुके थे।
उत्तर प्रदेश में गत वर्ष त्रिस्तरीय आरक्षण के समर्थन में एकाधिक बार जेल पहुंचकर अनुप्रिया पटेल मंडल की महानायिका बन चुकी थीं। जहां तक उदित राज का सवाल है निजी क्षेत्र में आरक्षण सहित उद्योग-व्यापार में भागीदारी की आक्रामक मांग उठाकर वह भूमंलीकरण के दौर के दलित युवाओं के नायक बन चुके थे। अपने विशाल चुनावी प्रबंधन के जरिये छोटी-से छोटी बातों की जानकारी रखने वाले नरेंद्र मोदी ने इन नेताओं की अहमियत को समझा और इन्हें अपने साथ मिला लिया। नतीजा सामने है।
[लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
------------------------------------------------------------------------------------------------------------
इस जीत के निहितार्थ

Thursday, 29 May 2014

विनोद कुमार
जनसत्ता 29 मई, 2014 : नरेंद्र मोदी ने अपनी इस जीत को ऐतिहासिक बताया है। उनका कहना है कि राजग की सरकार तो पहले भी बनी, लेकिन अपने बलबूते भाजपा की सरकार देश में पहली बार बनी है। लोकसभा चुनाव में अपनी इस ऐतिहासिक जीत को दर्ज करने के बाद उन्होंने वडोदरा की सभा में कहा कि अब तक इस देश में अपने बलबूते कांग्रेस ही सरकार बनाती आई थी। पहली बार भाजपा ने वह काम किया है। भाजपा की इस जीत को हम भी ऐतिहासिक ही मानते हैं। यहां से भारतीय राजनीति का एक नया दौर शुरू होने जा रहा है। लेकिन क्या हर बदलाव, हर एक नया दौर हमें प्रगति की दिशा में ही ले जाता है? हम इसकी कामना करते हैं, लेकिन फिलहाल तो इस ऐतिहासिक जीत के निहितार्थ खतरनाक नजर आ रहे हैं। भारी बहुमत से कांग्रेस भी जीतती रही है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी इससे बड़ी जीत, 414 सीटें लेकर आए थे। वे इस देश का कितना भला कर सके, इसको लेकर दलगत प्रतिक्रियाएं हैं। कांग्रेस उसे सराहेगी, भाजपा उसे नकारेगी, इसलिए हम इस विवाद में नहीं जाएंगे। विकास के एजेंडे को लेकर देश में सही अर्थों में चुनाव हुए ही नहीं। हम भावनात्मक मुद्दों पर, जातिगत समीकरणों के आधार पर चुनाव लड़ने और जीतने-हारने के लिए अभिशप्त हैं, क्योंकि हमारी जन चेतना जाति-व्यवस्था के कारण विखंडित है। इस लिहाज से यह चुनाव भी अलग नहीं। फर्क यह है कि कांग्रेस के विशाल बहुमत से सत्ता में आने पर भी बहुत खुश न होने के बावजूद हम आतंकित नहीं होते थे। भाजपा की इस जीत से हम आतंकित हैं। समाज का एक बड़ा तबका आतंकित है। क्यों? क्योंकि कांग्रेस भले ही अन्य राजनीतिक दलों की तरह किसी एक वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करती हो, लेकिन संसद में सभी तबकों का प्रतिनिधित्व लेकर आती थी। उसमें अल्पसंख्यक भी होते थे, दलित भी, हिंदीभाषी भी होते थे और गैर-हिंदीभाषी भी। लेकिन गौर से देखिए, भाजपा की इस जीत को। कुछ अपवादों को छोड़ यह हिंदी पट्टी की जीत है। एक सांस्कृतिक क्षेत्र की जीत है। भाजपा अपने पुराने गढ़ों के अलावा सिर्फ उत्तर प्रदेश और बिहार में प्राप्त सौ सीटों की बदौलत इस विशाल जीत पर पहुंच गई। राजस्थान और गुजरात की सारी सीटें जीत कर इस मुकाम पर पहुंच गई। उनकी जीत में बंगाल नहीं, ओड़िशा नहीं। मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम नहीं। दक्षिण में भी कर्नाटक को छोड़ वह कहीं नहीं। तेलंगाना में नहीं। आंध्र में भी नाममात्र की। वह मूलत: हिंदीपट्टी में है। कहा जा सकता है कि यह मोदी लहर थी। और जब लहर चलती है तो ऐसा होता है। लेकिन यह लहर क्या सिर्फ देश के मध्य भू-भाग में रही? फिर यह भी गौरतलब है कि भाजपा 2004 के इंडिया शाइनिंग की विफलता को छोड़, आपातकाल के बाद, लगातार बढ़ती रही है। राम मंदिर आंदोलन के बाद उसकी सीटों में क्रमिक रूप से इजाफा होता रहा है। 1989 के चुनाव में वह पचासी सीटों पर थी। 1991 में एक सौ बीस सीटों पर, 1996 में एक सौ इकसठ सीटों पर। 1998 और 99 में वह एक सौ बयासी सीटों पर रही। लेकिन कांग्रेस के दस वर्षों के शासन की विफलता ने उसे इस विशाल बहुमत पर पहुंचा दिया। वैसे उसने बढ़ना तो शुरूकर दिया था आडवाणी की रथयात्रा के साथ ही। और गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि से उभरे विवादित नायक ने इस ‘यात्रा’ को ‘लहर’ में बदल दिया। लेकिन यह लहर सक्रिय रही एक विशेष सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई पृष्ठभूमि वाले भू-भाग में। तथाकथित लहर की बड़ी हकीकत यह भी है कि पहली बार सिर्फ इकतीस फीसद वोट लेकर कोई राजनीतिक दल बहुमत पर पहुंचा है। पिछली सबसे कम मत-प्रतिशत वाली जीत थी 1967 में कांग्रेस की, जब वह 520 में से 283 सीटें लेकर सत्ता के शीर्ष पर पहुंची थी और तब उसे 40.8 फीसद वोट मिले थे। इस तथ्य की व्याख्या हम इस रूप में कर सकते हैं कि हिंदीपट््टी के बाहर भाजपा का मत-प्रतिशत कम रहा है। यह लहर थी हिंदुत्ववादी धारा की, जिसने उत्तर प्रदेश में भारी उलट-फेर कर डाला। किसी जमाने में ऐसी ही लहर से आक्रांत होकर जिन्ना देश के विभाजन के लिए अड़ गए थे। उन्हें लगता था कि बहुसंख्यक हिंदू आबादी वाले इस देश में मुसलमान कभी चुनाव जीत ही नहीं सकेंगे। दरअसल, 1935 के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश सहित मुसलिम बहुल क्षेत्रों में भी मुसलिम लीग की पराजय हुई। जिन्ना का आग्रह था कि कांग्रेस मुसलमानों का प्रतिनिधि मुसलिम लीग को मान कर वे सीटें उन्हें दे दे। कांग्रेस यह कैसे स्वीकार कर सकती थी? वह मुसलिम लीग को मुसलमानों का प्रतिनिधि कैसे मान सकती थी? इसका अर्थ तो यह होता कि कांग्रेस सिर्फ हिंदुओं की पार्टी है। नेहरूने इस बात से इनकार कर दिया और तब घटी इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी। जिन्ना अड़ गए कि उन्हें पाकिस्तान चाहिए। और आजादी के चंद दिनों पहले उन्होंने ‘डाइरेक्ट एक्शन’ का एलान कर दिया। बहुसंख्यक आबादी के दबाव से दलित भी आक्रांत थे। उन्हें भी लगता था कि वर्ण व्यवस्था से पीड़ित दलित कभी जनप्रतिनिधि नहीं बन सकेंगे, क्योंकि लोकतंत्र में जीत-हार का निर्णय बहुमत से होता है। आंबेडकर इन्हीं परिस्थितियों में अंग्रेजों के उस प्रस्ताव के समर्थक बन गए जिसमें कम्युनल एवार्ड के तहत दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का प्रस्ताव था। लेकिन गांधी इस बात के लिए बिल्कुल सहमत नहीं थे। उन्होंने आमरण अनशन किया और अंततोगत्वा 24 सितंबर 1932 को वह महत्त्वपूर्ण समझौता हुआ जिसे पूना पैक्ट के नाम से हम जानते हैं। इस समझौते से आंबेडकर प्रसन्न थे क्योंकि इससे गांधीजी की प्राण-रक्षा भी हुई और दलितों की सभी मांगें मान ली गर्इं, छुआछूत को अपराध मानने और दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। आजादी के बाद इस बारे में संविधान में प्रावधान किए गए। लेकिन इस व्यवस्था का पेच यह है कि सीटों के आरक्षण से यह तो सुनिश्चित हो जाता है कि दलित प्रतिनिधि भी विधानसभा और संसद में पहुंच सकेंगे, लेकिन दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी का उम्मीदवार ही जीते, यह जरूरी नहीं। आदिवासियों के लिए भी सीटों को आरक्षित किया गया है। लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में आदिवासियों की अपनी कोई सशक्त पार्टी ही नहीं। उनके वोटों का इस्तेमाल भाजपा और कांग्रेस करती हैं, जो उनके आर्थिक हितों के खिलाफ हैं। झारखंड में कई झारखंडी पार्टियां हैं जिनमें सबसे मजबूत है झामुमो। लेकिन उसे भी अपनी जीत के लिए कांग्रेस या भाजपा का मुखापेक्षी होना पड़ता है। बावजूद इसके, शुरुआती दौर में यह व्यवस्था कारगर रही, इसलिए कि तब कांग्रेस ही प्रमुख राजनीतिक शक्ति थी और विभाजन की पीड़ा को झेल चुके देश का जनमत सांप्रदायिकता या उग्र हिंदुत्ववादी भावनाओं के खिलाफ था। इसलिए भाजपा या उसके पूर्व रूप जनसंघ को तब कभी भी चुनाव में सफलता हासिल नहीं हो सकी। लेकिन संघ परिवार की पूरी राजनीति ही इस उम्मीद पर कायम थी कि कभी न कभी सांप्रदायिकता के आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण करने में वे कामयाब होंगे, और तब इस देश में हिंदुओं की सत्ता कायम होगी। और राम रथ यात्रा, बाबरी मस्जिद का ध्वंस, गुजरात सहित देश में होने वाले सांप्रदायिक दंगों की बदौलत वह क्रमिक रूप से बढ़ते-बढ़ते इस मुकाम पर आखिरकार पहुंच गई है। जाहिर है, कट्टर हिंदुत्व की भावना धीरे-धीरे फैल रही है। हिंदुत्व की इस भावना के सामने कुछ समय के लिए अवरोध खड़ा किया पिछड़ा राजनीति ने भी। समाजवादियों के नारे ‘सौ में नब्बे हम, राज तुम्हारा नहीं चलेगा’ ने भी हिंदुत्ववादी लहर को नियंत्रित करने में भूमिका निभाई। दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़ा वोटों के गठजोड़ से सवर्ण राजनीति का पराभव हुआ। लेकिन इसी जातिवादी राजनीति के उभार ने ‘सौ में नब्बे हम’ वाले नारे को कमजोर भी किया। जातिगत वोट बैंक के आधार पर नेता पैदा हुए और सत्ता की दमित इच्छा ने उन्हें तरह-तरह के गठजोड़ के लिए प्रेरित किया। अगड़ी जातियों और सवर्ण मानसिकता ने इसका भरपूर फायदा उठाया। मुलायम सिंह को पराजित करने के लिए सवर्णों ने मायावती का इस्तेमाल किया। बिहार के अगड़ों ने छाती पर मूंग दल रहे लालू को सत्ता से हटाने के लिए नीतीश को हथियार बनाया। इन प्रयोगों और सत्ता की दमित लालसा ने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक राजनीति की एकजुटता को विखंडित कर दिया है। फिर, इस विखंडित राजनीति के बीच जब 2014 का यह चुनाव परिणाम आया है, तो सब ठगे-से खड़े हैं। सवाल यह है कि जब सांप्रदायिक आधार पर राजनीति का ध्रुवीकरण हो रहा हो और भाजपा के मुकाबले उत्तर प्रदेश में मुलायम, मायावती, कांग्रेस आदि खड़े हों तो जीतेगा कौन? बिहार में एक तरफ भाजपा और दूसरी तरफ अलग-अलग लालू और नीतीश तो जीत की उम्मीद ही कैसे कर रहे थे? इसलिए मायावती अपने दलित वोट को एकजुट रख कर भी एक सीट नहीं जीत सकीं। मुलायम की साइकिल चार सीटों पर ठहर गई। अब यह कहना तो कठिन है कि किसका वोट किधर गया, लेकिन हालत यह है कि दलित नेता रामविलास पासवान और उदित राज, उग्र यादव नेता रामकृपाल यादव भाजपा की शरण में पहुंच कर चुनाव जीत जाते हैं और शाहनवाज हुसैन भाजपा के टिकट पर मुसलिम बहुल भागलपुर सीट से चुनाव हार जाते हैं। मोदी लहर उनके काम नहीं आती। तो क्या माना जाए कि भाजपा की नीतियां बदल गई हैं? हिंदुत्व, राम मंदिर, और कश्मीर के बारे में वह पहले से सहिष्णु हो गई है? इसलिए रामविलास, उदित राज और रामकृपाल भाजपा में गए? नहीं। उन्होंने हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार के सामने समर्पण कर दिया। इसलिए बच गए। और जिन्होंने यह समर्पण नहीं किया, हार गए। मायावती बड़ी संख्या में ब्राह्मणों और मुसलमानों को टिकट देकर भी उन्हें अपनी तरफ नहीं खींच सकीं। क्योंकि राजनीति विभाजित थी सांप्रदायिकता के आधार पर। उसमें मायावती कामयाब नहीं हो पार्इं। अब मोदी भले ही चाय बेचने वाले आर्थिक आधार या पिछडे समुदाय से ही आते हों, वे उस हिंदुत्ववादी लहर पर सवार होकर सत्ता की राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे हैं जिसके नियामक सवर्ण हिंदू हैं। यहां आकर आरक्षण से मिली सुरक्षा बेमतलब होकर रह जाती है। क्योंकि दलित संसद में पहुंचेंगे, लेकिन भगवा रंग से रंगे होंगे। आदिवासी पहुंचेंगे तो वे उन नीतियों का समर्थन करते दिखेंगे जिनसे विस्थापन का दंश पैदा होता है। और, राजनीति के इस उभार को मुसलिम वोटों की जरूरत ही नहीं। इस लिहाज से देखें तो जिन्ना की दृष्टि आंबेडकर से ज्यादा पैनी नजर आती है। वे लोकतांत्रिक ढांचे में बहुसंख्यक हिंदू आबादी के बरक्स मुसलमानों के भविष्य को देख रहे थे। यह देश की अखंडता के लिए खतरनाक है। त्रासद यह है कि मोदी के समर्थक इस खतरे को नहीं देख रहे। वे उलटे एलानिया कह रहे हैं कि जो हमारे विरोधी हैं वे पाकिस्तान चले जाएं। लेकिन दलित कहां जाएंगे? और वैसे हिंदू, जो संघ के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के हिमायती नहीं?

------------------------------------------------------------------------------------------------------------
 पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी का पहला साक्षात्कार

पेश हैं मोदी के दैनिक टाइम टेबल से लेकर देश के बारे में उनकी सोच और पड़ोसी देशों से रिश्तों के बारे में हुई लंबी चर्चा के प्रमुख अंश:
आपके राजनीतिक विरोधी एवं आलोचक गुजरात मॉडल पर सवाल उठाते हैं। आप क्या कहेंगे?
देखिए, मैं अपने राजनीतिक विरोधियों से किसी प्रशंसा या प्रमाण पत्र की अपेक्षा भी नहीं रखता हूं। स्वाभाविक है कि वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करेंगे तथा झूठ या अ‌र्द्धसत्य का सहारा लेंगे। मैं नहीं कहता कि आप मेरी बात मानिए। जमीनी हकीकत का सबसे अच्छा पैमाना क्या होता है..लोग खुश हैं या नहीं, विकास हुआ या नहीं, वादे पूरे हुए या नहीं। इन सब सवालों का सबसे अच्छा उत्तर कौन दे सकता है.? मेरे हिसाब से लोकतंत्र में चुनाव से अच्छा पैमाना कोई नहीं होता है। गुजरात के मतदाताओं ने तीन बार अपनी राय बता दी, [थोड़ा मुस्कुराते हुए] हालांकि कांग्रेस के कुछ नेता गुजरात की जनता को मूर्ख समझते हैं, पर मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखता। वैसे भी 2014 का लोकसभा चुनाव देश के लिए हो रहा है। गुजरात के लिए नहीं। केंद्र सरकार सवालों का जवाब देने की बजाय मुद्दों को भटकाने में लगी है। मैं आलोचकों से आग्रह करूंगा कि वे गुजरात आएं और खुद मूल्यांकन करें। जैसा कि हमारे पर्यटन के ब्रांड अंबेसडर अमिताभ बच्चन कहते हैं-कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में, फिर चाहे जो आलोचना करें, उसका स्वागत है।
केंद्र और राच्यों के बारे में आपने कई बार अपनी बात रखी है। प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा है। संघीय ढांचे के बारे में क्या विचार है?
मैं पिछले बारह साल से मुख्यमंत्री के तौर पर एक राच्य का नेतृत्व कर रहा हूं। मैंने राच्यों के प्रति केंद्र के भेदभावपूर्ण रवैये को नजदीक से देखा है। अफसोस की बात है कि आजादी के बाद से धीरे-धीरे राज्यों को कमजोर किया गया। दरअसल कांग्रेस की मानसिकता ही संघीय ढांचे के खिलाफ बन गई है। वह राज्यों को केंद्र के समकक्ष मानने की बजाय उन्हें अपने अधीन मानने लगी है। जैसा मैंने कहा कि इस भेदभाव को बहुत करीब से देखा है। इसीलिए यह सुनिश्चित करूंगा कि संविधान की व्यवस्था को उसकी मूल भावना के अनुरूप कार्यान्वित किया जाए। देश का विकास तभी संभव है, जब केंद्र सरकार एवं सभी राज्य सरकारें कंधे से कंधा मिलाकर एक टीम के रूप में काम करें। प्रधानमंत्री एवं सभी मुख्यमंत्रियों के बीच भी आपसी सहयोग एवं परस्पर विश्वास की भावना का होना जरूरी है।
गुजरात में पिछले एक दशक से विकास दर 10 फीसद से ज्यादा रही है। क्या यह करिश्मा राष्ट्रीय स्तर पर दोहराया जा सकता है?
गुजरात इस देश का ही हिस्सा है। जो गुजरात में संभव है, वह पूरे देश में हो सकता है। वैसे भी आर्थिक विकास एवं प्रगति के मामले में भाजपा और राजग का ट्रैक रिकार्ड अच्छा है। वाजपेयी जी की सरकार के समय भी विकास दर आठ फीसद से ऊपर थी। आज मुद्रास्फीति की दर आठ फीसद है और विकास दर चार फीसद। गुजरात के अनुभव ने मुझे सिखाया है कि यदि सरकार में पारदर्शिता हो एवं निर्णय लेने की प्रक्रिया सरल व प्रभावी हो तो औद्योगिक निवेश स्वयं होता है। हमारा जो ट्रैक रिकार्ड है, उसके मद्देनजर यह बहुत मुश्किल नहीं होगा।
महंगाई के लिए भाजपा संप्रग की नीतियों को जिम्मेदार ठहराती रही है। क्या आप वादा करेंगे कि आपकी सरकार बनी तो महंगाई कम होगी या अंकुश लगेगा?
कांग्रेस की सरकार ने सौ दिन में महंगाई कम करने की बात कही थी। पांच साल पूरा हो गया, वादा पूरा नहीं हुआ। मैं मानता हूं कि ऐसी वादाखिलाफी के कारण जनसामान्य में राजनीतिक पार्टियों के लिए शक पैदा होता है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि मोरारजी देसाई की सरकार हो या अटल बिहारी वाजपेयी जी की, उस दौरान महंगाई पर पूरी तरह अंकुश था। हमारा ट्रैक रिकार्ड बताता है कि भाजपा की सरकारों ने हमेशा गरीबों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई है।
सब्सिडी धीरे-धीरे खत्म करना तो भाजपा की नीतियों का भी हिस्सा है। संप्रग भी यही करती रही है। फिर आलोचना क्यों?
[थोड़ा समझाने की मुद्रा में] पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों का है। इस दृष्टि से गरीबों को कुछ सब्सिडी दी जाए, यह जायज है। उसमें किसी का विरोध नहीं हो सकता है। अहम फर्क यह है कि कांग्रेस गरीबों को वोटबैंक के रूप में देखती है एवं चाहती है कि वे गरीब ही बने रहें और सरकार पर निर्भर रहें ताकि उनका वोटबैंक कायम रहे। दूसरी तरफ हमारा मानना है कि उन्हें गरीबी के खिलाफ लड़ने के लिए ताकतवर बनाना होगा।
आपने चीन और जापान जैसे देशों का भ्रमण किया। लेकिन पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों से बेहतर रिश्ते का कोई फार्मूला?
सबसे पहले तो मेरा मानना है कि एक सशक्त भारत ही पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्ते सुनिश्चित कर सकता है। आपसी सहयोग और मैत्री की भावना पर हम आगे बढ़ेंगे। हम प्रो एक्टिव होंगे लेकिन यह ध्यान रखा जाएगा कि राष्ट्रहित सबसे ऊपर रहे।
भ्रष्टाचार इस चुनाव में बड़ा मुद्दा है। अब सरकार भी इसे रोकने के लिए कुछ विधेयक और अध्यादेश ला रही है। इस व्यवस्था में परिवर्तन के लिए आपके पास क्या सुझाव हैं?
[थोड़ा आक्रामक लहजे में] भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए पहली और अहम जरूरत है, शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व की प्रामाणिकता। यदि शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व स्वयं भ्रष्ट हो या फिर अपनी कमजोरी की वजह से भ्रष्टाचार को मौन स्वीकृति दे रहा हो तो इसे कौन रोकेगा। ऐसा प्रामाणिक नेतृत्व कौन सा दल दे सकता है, यह जनता को तय करना है। मेरा स्पष्ट मानना है कि लड़ाई सिर्फ कानून से नहीं लड़ी जाती है। नेकनीयत आवश्यक है लेकिन भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के लिए अनुभव और सशक्त नेतृत्व की जरूरत है। वैसे तो मेरी पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि राष्ट्रभावना से प्रेरित है लेकिन फिर भी वादा करूंगा कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेंस की नीति अपनाएंगे।
मोदी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाता है जो बोल्ड है और नेतृत्व के लिए इसकी जरूरत होती है। लेकिन कभी-कभी डिक्टेटर होने की हद तक बोल्ड होने का आरोप लगता है?
हमारे देश में लोकतंत्र है और उसके तहत हर किसी को अपने विचार रखने का अधिकार है। इसलिए मेरे बारे में कौन क्या कहता है, इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। वषरें से हमारी राजनीति में अनिर्णायकता की परिस्थिति इतनी प्रगाढ़ बन गई है कि निर्णायक नेतृत्व को सामान्यत: आलोचना का शिकार होना पड़ता है। मेरा मानना है कि कोई भी निर्णय लेने से पहले सलाह मशविरा आवश्यक है ताकि सभी की भागीदारी सुनिश्चित हो। परंतु एक निर्णय होने के बाद उसका समयबद्ध अमल होना भी आवश्यक है। अन्यथा हम पारालिसिस बाय एनालिसिस का शिकार हो जाते हैं।
आपने तो बचपन में तमाम लोगों को मीठी चाय की चुस्की दी होगी। फिर क्या कारण है कि आपकी जुबान लोगों को चुभती है। आप पर आरोप है कि बहुत तीखा बोलते हैं।
[जोर से ठहाका लगाते हैं.] आप अक्सर देखेंगे कि मैं व्यक्तिगत आलोचनाओं से दूर रहता हूं। परंतु जो मुद्दे जनहित में उठाने आवश्यक हैं, उनको न उठाऊं तो उचित नहीं होगा। उदाहरण के तौर पर वंशवाद का मुद्दा जनहित का मुद्दा है। अफसोस कि कुछ लोग इसे व्यक्तिगत आलोचना के रूप में लेते हैं। जिस प्रकार का कीचड़ मुझपर उछाला गया एवं झूठ के पुलिंदों के आधार पर मुझे निशाना बनाया गया, उसे यदि आप ध्यान में रखें तो शायद ही आप स्वीकार करेंगे कि मैं ज्यादा तीखा बोलता हूं।
----------------------------------------------------------------------------------------------------------
ब्रिगेड और मोदी   
  Thu, 06 Feb 2014

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने ऐतिहासिक ब्रिगेड परेड मैदान से यह संदेश दिया है कि देश की जनता को समग्र विकास के लिए अब एक पल भी इंतजार नहीं करना चाहिए। इंतजार के 60 साल गुजर जाने के बावजूद कांग्रेस देश में विकास की रोशनी बिखेर नहीं सकी। उन्होंने तर्क दिया कि आज हर आदमी को रहने के लिए घर, नवयुवकों को रोजगार और खेतों में पानी चाहिए। इस बार के लोकसभा चुनाव में देश के नागरिक निर्णायक भूमिका अदा करेंगे। मोदी को बांग्ला में भाषण की शुरूआत कर तथा बंगाल के गौरवशाली इतिहास का हवाला देकर यहां की जनता की वाहवाही लूटने में सफलता मिली। बंगाल को पतन के गर्त में ढकेलने वाली माकपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए उन्होंने बंगाल की जनता को धन्यवाद दिया। उन्होंने ब्रिगेड में भारी भीड़ से सीधा संवाद के लहजे में सवाल किया कि क्या बंगाल में परिवर्तन महसूस हो रहा है? उन्होंने जनता से अपील की कि लोकसभा चुनाव में उन पर भरोसा करे। वह बंगाल का कायाकल्प कर देंगे। प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देने के लिए मोदी ने कांग्रेस पर बंगाल की उपेक्षा करने के गंभीर आरोप लगाए। मोदी की इस बात में दम है कि एकमात्र राज्य सरकार के भरोसे किसी प्रांत का विकास नहीं हो सकता। विकास के लिए राज्यों को केंद्र की मदद चाहिए। उनके कहने का यह सीधा अर्थ है कि आगे जो चुनाव है वह लोकसभा का चुनाव है। बंगाल की जनता ने राज्य में परिवर्तन लाया है और उसे ममता बनर्जी से विकास की अपेक्षाएं करनी चाहिए लेकिन साथ ही राज्य के संपूर्ण विकास के लिए बंगाल की जनता को लोकसभा चुनाव में भाजपा का समर्थन करना चाहिए। मोदी ने बंगाल की जनता से भाजपा को सभी सीटों पर जिताने की अपील की। उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तर्ज पर नारा दिया- आप हमारा साथ दें, मैं तुम्हें सुराज दूंगा। मोदी ने बिग्रेड रैली से बंगाल की जनता का दिल जितने का हर संभव प्रयास किया। उनकी सलाह और संदेश जागरूक बंगाल की जनता के गले उतरता है कि नहीं यह तो चुनाव बाद ही पता चलेगा, लेकिन साथ ही उन्होंने कुशल नेता के तौर पर विकल्प का रास्ता भी खुला रखने का संकेत दिया है। राज्य की कुल 42 सीटों पर उन्होंने भाजपा को जिताने की अपील की है। एक नेता के तौर पर वह ऐसी अपील कर ही सकते हैं लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बंगाल की धरती भाजपा के कमल खिलाने के अनुकूल नहीं रही है। मोदी सहित भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी यह बात अच्छी तरह मालूम है। इस लिए उन्होंने कांग्रेस और वामपंथियों पर तो करारा प्रहार किया लेकिन ममता पर सीधा हमला नहीं बोला ताकि चुनाव बाद उनका समर्थन हासिल किया जा सके। 
---------------------------------------------------------------------------------------------------------
मोदी का कूटनीतिक कौशल
Thursday,Aug 07,2014
नरेंद्र मोदी ने लोगों की भारी अपेक्षाओं के बीच प्रधानमंत्री का पद संभाला था। इस कारण उन्होंने बहुत ही सतर्कता से बिना अधिक हो-हल्ले के काम करना शुरू किया। जिन लोगों ने अपेक्षा की थी कि जबरदस्त जनादेश पाकर सत्ता में आने के बाद शासन के तौर-तरीकों और नीतियों में भारी बदलाव होगा, वे मुश्किल से ही अपनी निराशा को छिपा पा रहे होंगे। संभवत: अधिकांश लोगों ने उनसे बहुत अधिक उम्मीदें पाल ली थीं, जिस कारण मई 2014 में मोदी लहर का जन्म हुआ। इस संदर्भ में यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रचार की तुलना में वास्तविकता सदैव कम प्रशंसनीय होती है। इस क्रम में एक बात निश्चित है कि जनता से मोदी को जिस तरह का जबरदस्त जनादेश मिला उसके मद्देनजर उनके पास पहले दो महीनों में कठोर निर्णय और साहसिक सुधार के लिए पर्याप्त राजनीतिक अवसर था। इसके लिए मोदी ने आर्थिक मोर्चे पर ध्यान दिया और भारत के अर्थिक विकास को तेज करने के लिए दो बातों पर ध्यान दिया। उन्होंने देश के कमजोर बुनियादी ढांचे में सुधार पर जोर दिया और विनिर्माण क्षेत्र के विस्तार को गति देने के लिए प्रोत्साहन नीतियों को अपनाया। उन्होंने सिंचाई नेटवर्क से यातायात क्षेत्र पर ध्यान दिया और लंबे समय से इस क्षेत्र में घट रहे सार्वजनिक खर्च को बढ़ाने का निर्णय लिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विनिर्माण क्षेत्र को प्रोत्साहन देने के लिए उदार श्रम कानूनों को प्रस्तावित किया।
इसी तरह कूटनीतिक मोर्चे पर भी मोदी की अग्रगामी अथवा भविष्य की सोच अधिक स्पष्ट है। भूटान और नेपाल की यात्रा करके उन्होंने इस क्षेत्र में भारत के रणनीतिक पिछड़ेपन को दूर करने का काम किया है। इस क्त्रम में विकसित देशों विशेषकर अमेरिका का जबरदस्त दबाव होने के बावजूद डब्ल्यूटीओ मसौदे का विरोध करके मोदी ने अपनी पहली अंतरराष्ट्रीय परीक्षा को पास कर लिया है। हालांकि पूंजीवादी देश अभी भी अपने यहां डब्ल्यूटीओ के नए मसौदे को रोकने के पक्ष में नही हैं। इस समझौते के कारण भारत की खाद्य सुरक्षा को लेकर खतरा अभी भी बरकरार है। भारत की तुलना में अमेरिका में कृषि सब्सिडी कहीं अधिक है। फिर भी नया समझौता वर्तमान स्तर पर हो रहे खाद्यान्न भंडारण के लिए भारत को रोकता है। यही कारण है कि भारत को अपने खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को बचाने के लिए जेनेवा में संपन्न डब्ल्यूटीओ वार्ता में वीटो का प्रयोग करना पड़ा। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली पूर्व सरकार ने बाली में संपन्न हुई वार्ता में कोई आश्वासन न देते हुए भी इस समझौते के लिए अपनी पूर्ण प्रतिबद्धता जताई थी। इससे 2017 के बाद रियायत अवधि समाप्त होने पर भारत का खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम खतरे में पड़ जाता। जेनेवा में प्रस्तावित डब्ल्यूटीओ समझौते को वीटो करके मोदी पिछले 25 वषरें में देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं जो अमेरिकी दबाव के खिलाफ खुलकर खड़े हुए हैं। अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता में आने के छह महीने बाद ही 1998 में परमाणु परीक्षण किया था, लेकिन इसे काफी गोपनीय तरीके से अंजाम दिया गया था। सामान्य तौर पर पीवी नरसिंहा राव से लेकर मनमोहन सिंह तक सभी प्रधानमंत्रियों को अमेरिकी दबाव का सामना करना पड़ा है। नटवर सिंह ने अपनी नई पुस्तक में कहा है कि भारत में अमेरिकी लॉबी बहुत ही शक्तिशाली है। वह लिखते हैं कि मनमोहन सिंह ने इसका उल्लेख करते हुए बताया था कि अमेरिकी कितने प्रभावशाली हैं और यदि वे चाहें तो भारत समेत कुछ देशों को किसी भी हद तक अस्थिर कर सकते हैं। डब्ल्यूटीओ समझौते को वीटो करने का मोदी सरकार का निर्णय कोई आश्चर्यजनक बात नहीं, लेकिन इससे उन्होंने अमेरिका को नाराज जरूर कर दिया है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने 31 जुलाई की अंतिम समयसीमा खत्म होने से पहले नई दिल्ली की यात्रा की, ताकि जेनेवा समझौते को लेकर निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके। उन्होंने मोदी सरकार को झुकाने की कोशिश की कि समझौते को रोका न जाए, लेकिन वह ऐसा कर पाने में विफल रहे। मोदी के साथ मुलाकात बैठक में केरी ने चेताया भी कि यदि भारत जेनेवा समझौते पर हस्ताक्षर से इन्कार करता है तो इससे गलत संदेश जाएगा। अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने इस पर तीखा प्रत्युत्तार देते हुए कहा कि व्यापार सरलीकरण समझौते या टीएफए पर हस्ताक्षर न करके भारत ने एक गलत संदेश दिया है। दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र की विशेषज्ञ एजेंसी अंतरराष्ट्रीय कृषि विकास निधि अथवा आइफैड के मुखिया कनायो न्वांजे ने भारत के रुख की सराहना की है और इस समझौते को वीटो करने के लिए मोदी सरकार के फैसले को सही ठहराया है। कनायो न्वांजे ने कहा है कि जेनेवा में भारत के समक्ष सवाल अपने नागरिकों को भोजन देने और धनी देशों के लोगों को रोजगार देने के बीच चुनाव करने का था। जब आपके देश के लोग भूखे हों तो दूसरे धनी देशों के लिए रोजगार पैदा करना अनौचित्यपूर्ण है। यह प्रत्येक सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अपने नागरिकों को भोजन उपलब्ध कराए। हालिया नेपाल की बेहद सफल यात्रा से भी मोदी की अग्रगामी कूटनीति का पता चलता है। नेपाल भारत की सीमा से जुड़ा हुआ है, बावजूद इसके 17 वर्ष बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री वहां द्विपक्षीय बैठक के लिए गया। जबकि इसी कालखंड में चीन ने नेपाल में रणनीतिक पहुंच स्थापित की। जाहिर है भारत द्वारा छोड़े गए स्थान को चीन भर रहा है। मोदी ने शांति एवं मित्रता हेतु 1950 के भारत-नेपाल समझौते को अपने कार्यकाल में फिर से बहाल करने की इच्छा जताकर गेंद नेपाल के पाले में डाल दी है। नेपाल ने इस समझौते को असमान बताकर नेपाली हितों के विपरीत बताया था। भारत द्वारा बार-बार इस बारे में वार्ता करने का प्रस्ताव दिए जाने के बाद भी नेपाल हिचकता रहा है। वास्तविकता यही है कि यह समझौता नेपाल में रह रहे भारतीयों के संदर्भ में असमान है, क्योंकि नेपालियों को भारत में राष्ट्रीय नागरिकों जैसा दर्जा दिया जाता है जबकि नेपाल में भारतीय नागरिकों के साथ ऐसा नहीं है। तमाम नेपालियों के पास दोहरी नागरिकता है और वे भारतीय तथा नेपाली दोनों ही पासपोर्ट रखते हैं, जबकि कानूनन यह गलत है। वास्तव में नेपाल आज पाकिस्तान और चीनी एजेंटों का षड्यंत्र स्थल बन गया है, जिससे नेपाल में भारत के हितों और उसकी सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है। मोदी द्वारा प्रस्तावित समझौते से न केवल परस्पर अविश्वास खत्म होगा, बल्कि भारत की खुली सीमा भी सुरक्षित होगी। इस संदर्भ में हर हाल में भारत को नेपाल के साथ अपनी कमजोर सीमा को सुरक्षित करना होगा। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बिना वीजा के नेपाली लोग भारत में आ-जा सकें और उनके अधिकारों पर भी कोई प्रभाव न पड़े।
[लेखक ब्रह्मा चेलानी, सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
----------------------------------------------------------------------------------------------------------

गरीबी और प्रधानमंत्री मोदी

Friday, 30 May 2014

विकास नारायण राय
जनसत्ता 30 मई, 2014 : भाजपा संसदीय दल का नेता चुने जाने की औपचारिकता के बाद मोदी ने संसद के केंद्रीय हाल से संबोधन में अपनी सरकार को गरीबों, युवाओं और स्त्रियों को समर्पित करार दिया। कॉरपोरेट जगत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चहेते ‘चायवाले’ के लिए इस दिखावे को अधिक दिनों तक निभाना टेढ़ी खीर ही होगी। गरीबों को लेकर मोदी का नवउदारवादी ट्रैक रिकार्ड सर्वाधिक संदेहास्पद रहा है। हालांकि युवाओं में आज उनकी छवि आशा और विश्वास देने वाले एक राष्ट्रवादी नेता की जरूर है, पर इस समीकरण की सेहत के लिए रोजगार के अवसरों और लोकतांत्रिक गतिशीलता का वांछित ब्लूप्रिंट उनके आर्थिक-सामाजिक क्षितिज से नदारद है। जबकि स्त्रियों के लैंगिक उत्पीड़न में बदलाव को लेकर मोदी घिसे-पिटे मर्दवादी जीवन-मूल्यों और विफल सामंती पहलों से यथास्थिति के ही पक्षधर नजर आते हैं। गुजरात विकास मॉडल के मिथक के जनक नरेंद्रभाई को अपने राज्य में गरीबी दिखनी अरसे से बंद हो चुकी है। चुनाव 2014 की चार सौ जनसभाओं में उन्होंने गुजरात मॉडल का तमाम पहलुओं से जिक्र किया होगा, पर भूले से भी गरीबी की वजहों की चर्चा नहीं की। लोकसभा की जंग जीतने के बाद जब वे अपनी विजय-यात्रा के समापन पर काशी के लोगों का धन्यवाद करने गए, तो वहां भी उन्हें गंदगी तो नजर आई, पर गरीबी नहीं। बनारस की गलियों में साफ-सफाई के एजेंडे को लेकर वे नाम महात्मा गांधी का लेते रहे, पर लहजा उनका संजय गांधी वाला रहा- शासकों की आंखों में गंदगी में लिथड़े गरीब तो गढ़ते हैं, पर गरीबी की जड़ें नहीं। गंगा के इस स्वघोषित बेटे को भी विदेशी पर्यटकों के सौंदर्य-बोध की चिंता रही और सफाई में सिंगापुर का स्तर छूने की ललक दिखी। पर प्रदूषण के लिए बजाय कॉरपोरेट लालच को जवाबदेह ठहराने के उसने बनारसी जीवनशैली पर ही तंज कसा। लगे हाथों गंगा आरती के मंच से मोदी ने अपना ‘ऐतिहासिक’ एजेंडा भी रेखांकित किया- देश के लिए मर नहीं सके तो क्या, जीकर देश-सेवा करेंगे। बताया कि गुजरात का मुख्यमंत्री बनने पर वे शहीद श्यामजी वर्मा की अस्थियां विलायत से स्वदेश लाए थे, अब भारत का प्रधानमंत्री बन गंगा का उद्धार करेंगे- दावा किया कि नियति को इन पुनीत कार्यों के लिए उनकी ही प्रतीक्षा थी। मोदी ने वाराणसी में नए उद्योगों के माध्यम से रोजगार लाने का जिक्र किया, पर वहां के लाखों मुसलिम बुनकरों के बिचौलियों और व्यवसाइयों द्वारा रोज होने वाले शोषण पर चुप रहे। उन्होंने शहर के इस चेहरे से भी अनभिज्ञ रहना ठीक समझा कि बनारस पारंपरिक रूप से भिखारियों और वेश्याओं का भी ठिकाना रहा है। दशाश्वमेध घाट पर भी, जहां से मोदी बोल रहे थे, सुबह-शाम भिखारियों की लंबी कतारें लगती हैं और शहर की दालमंडी के वेश्यालयों की विरासत चंद किलोमीटर पर शिवदासपुर में गुलजार है। गुजरात के वडोदरा (मोदी का दूसरा चुनाव क्षेत्र) और सूरत जैसे औद्योगिक-व्यावसायिक शहरों का कारोबार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार, जिनकी पचास लोकसभा सीटों के मद्देनजर मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ा, के लाखों विस्थापित मजदूरों-कारीगरों के दम पर चल रहा है। काशी के विजय उद्घोष में वे इलाके की गरीबी का यह पहलू भी गोल कर गए। यानी सबसे सनातन सामाजिक बीमारी-गरीबी- और उसके सर्वाधिक उपेक्षित लक्षणों- भिखारी, वेश्या और विस्थापित- का प्रधानमंत्री मोदी के लिए जैसे कोई अस्तित्व ही न हो! मोदी ने एक सौ पचीस करोड़ भारतीयों को लेकर एक गरीबपरवर सपने की बात जरूर की। सबका अपना एक शौचालय-युक्त घर हो, जिसमें चौबीस घंटे पानी और बिजली की सुविधा हो! निश्चित ही इस व्यक्ति के अंदर अपने गरीबी के दिनों की टीस बची है। क्या इतना काफी है? ध्यान रहे कि मोदी ने चुनाव प्रचार में सौ नए आधुनिक शहर बनाने की बात बार-बार दोहराई है। यह रीयल स्टेट के मगरमच्छों की खातिर सरकारी खजाने खोलने की भूमिका है। हरेक को घर देने की जुगत को अंतत: राष्ट्रीय बैंकों की मार्फत किसी ऐसी योजना से नत्थी किया जाएगा, जो हरेक को कर्ज से लाद देगी। कौन नहीं जानता कि जिस तरह रीयल स्टेट का व्यवसाय देश में चलाया जा रहा है उसने अर्थव्यवस्था में कालेधन की बाढ़ ला दी है, और एक अदद घर का सपना आम आदमी की आमदनी की पहुंच से बाहर कर दिया है। बेहद कम खर्चीला और आसान विकल्प होगा कि गांवों में ही जीवन की आधुनिक सहूलियतें और रोजगार के भरपूर अवसर पहुंचाए जाएं, जिससे शहरों में अमानवीय पलायन रुके। पर यह, मोदी भी मानेंगे, कॉरपोरेट मुनाफाखोरों को मंजूर नहीं। दरअसल, मोदी के जिस हिंदुत्ववादी भूत की आशंका पर उनके विरोधियों ने चुनाव प्रचार में इतना ध्यान केंद्रित किया, वह उनके कॉरपोरेट वर्तमान और फासीवादी भविष्य के खतरों के सामने फीका ही कहा जाएगा। यह स्पष्ट है कि बिना इस वर्तमान और भविष्य की आकर्षक पैकेजिंग के, अकेले हिंदुत्व के दम पर, उन्हें लोकसभा चुनाव में भारी सफलता नहीं मिल सकती थी। सत्ता का यही गठबंधन मोदी के सुशासन और विकास का आधार है। शासन की अपनी सिंगल विंडो कृपा-प्रणाली को मोदी एक नारे के रूप में दोहराते आए हैं- मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस। मिनिमम गवर्नमेंट, कॉरपोरेट को जन-संसाधनों के दोहन की छूट के लिए; और मैक्सिमम गवर्नेंस, जनता को इस प्रणाली से नत्थी रखने के लिए। यह भी स्पष्ट है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने से किनके अच्छे दिन आने वाले हैं। देश के शेयर बाजार रिकार्ड-तोड़ ऊंचाई की ओर अग्रसर हैं, और भारतीय रुपया अंतरराष्ट्रीय मुद्रा विनिमय बाजार में मजबूत होता जा रहा है। ‘विकास’ के ये दोनों सूचक समृद्ध तबकों के सरोकार हैं, न कि आम आदमी के। देर-सबेर, फिलहाल सुस्त पड़े, ‘विकास’ के तीसरे सूचक, रीयल स्टेट को भी इस माहौल में गर्म होना ही है- यानी आम आदमी का घर और महंगा होगा। कॉरपोरेट मीडिया भी आक्रामक अंदाज में इस तर्क की जमीन तैयार करने में लग गया है कि मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए ग्रामीण रोजगार के मनरेगा जैसे खर्चों और कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों का तरीका बंद किया जाए। जाहिर है, मुद्रास्फीति के संदर्भ में, बेलगाम कालाधन, उद्योगपतियों को बेहिसाब सबसिडी और सरकार की बेतरह फिजूलखर्ची पर रोक की कवायद कांग्रेसी सरकार की तरह भाजपा सरकार में भी दिखावटी उपायों के हवाले ही रहेगी। मोदी के केंद्रीय सत्ता में आने से टैक्स-हैवन भी, देशी और विदेशी दोनों, पूर्णत: आश्वस्त दिखते हैं; उनके हित पहले से अधिक सुरक्षित हाथों में जो हैं। मोदी ने खुद को विकास का जादूगर कहा है। आखिर उनकी सत्ता से क्रोनी-कैपिटल भी आश्वस्त है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी! दोनों के आश्वस्त होने के ठोस आधार भी हैं। मोदी के ट्रैक रिकार्ड से ही आंकड़ा देखिए- विकास के गुजरात मॉडल के अंतर्गत मोदी ने सत्रह लाख वर्ग मीटर से अधिक सरकारी और अधिग्रहीत जमीन कौड़ियों के मोल चहेते कॉरपोरेट समूहों में बांटी है; चाहे इस याराने को निभाने में राज्य की जनता को हजारों करोड़ रुपए का चूना लगा हो। संघ भी अपने पूर्व प्रचार मंत्री की हिंदुत्व निष्ठा का फलदाई विस्फोट गुजरात में देख ही चुका है। संघ के पास यह विश्वास करने के भी भरपूर कारण होंगे कि नियति ने उन्हें सिर्फ गंगा की सफाई के लिए नहीं, बल्कि राम मंदिर निर्माण, समान सिविल कोड, धारा 370 और ‘पिंक रिवोल्यूशन’ की समाप्ति और मुसलिम ‘घुसपैठियों’ को देश से बाहर खदेड़ने जैसे पुनीत कार्यों के लिए भी चुना है। गरीबी पर मोदी का गुजरात का ट्रैक रिकार्ड क्या है? राज्य के अपने आंकड़ों के अनुसार इन बारह वर्षों में गांवों में गरीब परिवारों की संख्या उनतालीस प्रतिशत बढ़ी है। करीब चालीस लाख गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों में से नौ लाख शहरों में हैं। सूची में गांव और शहर में क्रमश: ग्यारह और सत्रह रुपया प्रतिदिन से कम कमाने वाले ही शामिल हैं, जबकि योजना आयोग के नए मानक में यह गणना क्रमश: बत्तीस और अड़तीस रुपए पर होनी चाहिए थी। गरीब पर व्यापकतम मार महंगाई और भ्रष्टाचार की होती है। गुजरात में मोदी के लंबे शासनकाल में महंगाई बाकी देश की तरह ही बढ़ती रही। अंबानी की गैस के दाम को सोनिया-मनमोहन के तेल मंत्री मोइली ने चार गुना किया तो मोदी की गुजरात सरकार ने लगभग आठ गुना करने की अनुशंसा की। यहां तक कि दूध, खाद्य तेल, बिजली जैसी आम जरूरी चीजों की कीमतें खुद राज्य सरकार ने बार-बार बढ़ार्इं। मोदी शासन के दौर में गुजरात का एक भी बड़ा नेता, वरिष्ठ अधिकारी या प्रमुख पूंजीशाह नहीं मिलेगा, जिस पर राज्य की भ्रष्टाचार निरोधक मशीनरी ने स्वत: शिकंजा कसा हो। मानो मोदी के मुख्यमंत्री बनते ही चामत्कारिक ढंग से वे सभी ईमानदारी के पुतले बन गए। असली नीयत का इससे पता चलता है कि बारह वर्ष के मोदी के शासन काल में राज्य में लोकपाल का पद खाली रखा गया, जबकि भ्रष्टाचार के आरोप में सजा पाया व्यक्ति कैबिनेट मंत्री बना रहा। एक अन्य मंत्री, जिसके चार सौ करोड़ के मछली घोटाले पर गुजरात उच्च न्यायालय ने रोक लगाई, भी पद पर चलता रहा और खुद मोदी ने उस पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने से मना कर दिया। पारदर्शिता और तकनीकी, जिसका गाना मोदी गाते नहीं थकते, गुजरात के गिने-चुने दफ्तरों में चहेते उद्यमियों को लालफीताशाही से बचाने के लिए है, गरीब को भ्रष्टाचार की मार से दूर रखने के लिए नहीं। अंगरेजी उपनिवेश के कर्मचारियों के पास जनता से रिश्वत उगाही के चार रास्ते खुले थे- नजराना (पदानुसार भेंट), शुक्राना (जायज काम पर), हर्जाना (नाजायज पर) और जबराना (जबरी वसूली)। नौकरशाही का यही खेल कमोबेश आजाद भारत की तमाम सरकारों के प्रश्रय में भी चलता रहा है और गुजरात इसका अपवाद नहीं है। बस, मोदी के ‘सुशासन’ ने इसे एक व्यवस्थित रूप दे दिया, जबकि राज्य का विजिलेंस विभाग शिकायत के थके आंकड़ों की ‘विंडो-ड्रेसिंग’ में व्यस्त रखा गया। कौन नहीं जानता कि राज्य में शराबबंदी के बावजूद शराब घर बैठे मिल जाती है- हजारों करोड़ की यह काली कमाई, मोदी के भी मुख्यमंत्रित्व काल में, राजनीतिकों, आबकारी विभाग, पुलिस और तस्करों में बेरोकटोक बंटती आई है। दुनिया में शायद ही कहीं नवउदार पूंजीवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद के गठबंधन से आर्थिक विकास का सफल लोकतांत्रिक मॉडल बना हो; पाकिस्तान जैसे सैन्यवादी मॉडल बेशक हैं। पूंजीशाहों को खुल कर मुनाफाखोरी करने के लिए एक विरोध रहित सामाजिक वातावरण चाहिए। जापान और दक्षिण कोरिया में समाज के पारंपरिक अनुशासन और चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के अनुशासित ढांचे ने यह जरूरत पूरी की है। भारत में मनमोहन सिंह बेशक नवउदार पूंजीवाद के जनक माने जाते हों, पर उनके ढुलमुल नेतृत्व में निहायत भ्रष्ट कांग्रेसी शासन एक अस्त-व्यस्त परिदृश्य ही रहा। अब, इस हित-साधन का गुरुतर भार संघ के हिंदुत्ववादी अनुशासन में पले-बढ़े रणनीतिकारों के जिम्मे आ गया है। गरीबों के लिए तो प्रधानमंत्री मोदी कभी सचमुच की आशा हो ही नहीं सकते; युवाओं और स्त्रियों के लिए भी उनका शासन मृग-मारीचिका ही सिद्ध होगा।
--------------

नेतृत्व का चमत्कार

Fri, 03 Oct 2014

राष्ट्रीय गौरवबोध का कोई विकल्प नहीं। इसी बोध में स्वराष्ट्र के परमवैभव की शक्ति है। यह एक असाधारण जागरण है। यूरोप का मध्यकालीन रिनेशां-पुनर्जागरण ऐसा नहीं था तो भी इतिहास में इसकी प्रशंसा है। भारतीय इतिहास में राष्ट्र की सामूहिक चेतना वाले अनेक नवजागरण हैं। ज्ञात इतिहास में ऋग्वेद पहला नवजागरण है। उत्तारवैदिक काल में दर्शन दिग्दर्शन की धूम है, यह दूसरा नवजागरण कहा जा सकता है। बुद्ध महावीर के दर्शन और अभियान नवजागरण हैं ही। मध्यकाल का भक्ति आंदोलन अपने ढंग का अनूठा जागरण है। विदेशी सभ्यता, सत्ता और लूट के विरुद्ध दयानंद, विवेकानंद के सांस्कृतिक अभियान और फिर वंदेमातरम् की ऊर्जा से भरपूर स्वाधीनता आंदोलन ने राष्ट्र की सामूहिक चेतना को जगाया था। सम्प्रति मोदी के नेतृत्व में अपने ढंग का अनूठा नवजागरण जारी है। मोदी ने आमजनों को भी राष्ट्रनिर्माण में भागीदार बनाने का आह्वान किया है। समृद्ध भारत, निर्मल गंगा, प्रधानमंत्री जन धन योजना, मेक इन इंडिया और स्वच्छ भारत ऐसे ही अभियान हैं। मोदी को जनशक्ति पर विश्वास है। इस जागरण में भारत की परंपरा के साथ गांधी, पटेल, डॉ. हेडगेवार और पं. दीनदयाल उपाध्याय की एकात्म मानव दृष्टि है।
नरेंद्र मोदी ने चार माह के भीतर ही देश का रसायन बदल दिया है। नौकरशाही की जड़ता गतिशीलता में बदल गई है। शासन के मिजाज को अल्प समय में ही बदल देना आसान नहीं होता। नौकरशाही स्वयं को स्थायी शासक मानती रही है और जननिर्वाचित लोकप्रिय सरकारों को 5 वर्षीय अल्पकालिक अधिशासी या कामचलाऊ कार्यपालक संस्था। सत्ता परिवर्तन में शासकों के चेहरे बदल जाते हैं। सत्तातंत्र की नीति, नीयत और चाल चरित्र में गुणात्मक बदलाव नहीं आते। राजनीतिक नेतृत्व काफी लंबे अर्से से विश्वास के संकट में था। सरकार से जनता का भरोसा टूट चुका था। बार-बार चुनाव और सत्ता परिवर्तन लेकिन परिणाम शून्य। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होकर भी कार्यपालिका अधिकारी थे। डॉ. सिंह ने निराश किया। व्लेकिन मोदी जननेता हैं। उनकी नेतृत्व क्षमता ने जनगणमन को आत्मविश्वास से भर दिया है। सरकार और शासन तंत्र की कार्य संस्कृति बदल गई है। आमजनों की सोच में भी सकारात्मक बदलाव आए हैं। मोदी के प्रतिनिधित्व में भारतीय संस्कृति, परंपरा और राष्ट्रीय अस्मिता का लोकसंगीत होता है। उन्होंने जापान दौरे में भारतीय दर्शन को अभिव्यक्ति दी। मोदी का अमेरिकी दौरा दुनिया के सभी राष्ट्राध्यक्षों के विदेशी दौरों को मात कर गया है। वे जहां भी जाते हैं, भारत उनके साथ रहता है। भारत ही नेतृत्वकर्ता होता है और वे उसके पीछे। वे भारत के प्रथम सेवक की भूमिका में ही होते हैं। अमेरिकी प्रवास में वे नवरात्रि उत्सव, व्रत उपवास भी साथ ले गए। बिल्कुल गांधीजी की तर्ज पर। गांधी का अपना परिधान था। उन्होंने लंदन यात्रा में भी वही परिधान अपनाया। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल ने टिप्पणी की। गांधी ने अपनी धोती और जीवनशैली को उचित बताया। मोदी ने भी अमेरिका में भारतीय जीवन शैली का डंका बजाया। भारत छा गया। उन्होंने भारतीय हितों के साथ संपूर्ण विश्व के हितों की भी पैरवी की।
समृद्ध भारत सबकी कामना है। इसके लिए पूंजीनिवेश चाहिए। उत्पादन क्षेत्र को बढ़ाने और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए मोदी ने 'मेक इन इंडिया' का न्योता दिया है। लक्ष्य बड़ा है। भारत को कारोबार करने लायक देशों वाली विश्व बैंक की सूची में 134 से पांचवें क्रम पर लाना है। इसमें रोजगार की भारी संभावनाएं हैं। देशी और विदेशी निवेशकों में मोदी सरकार पर भरोसा है। मोदी शासकीय जड़ता और नीतिगत यथास्थिति को तोड़ने में कामयाब हुए हैं। भारत के भीतर कार्य संस्कृति में आए बदलाव आश्चर्यजनक हैं। प्रधानमंत्री जन-धन योजना सीधा उदाहरण है। बैंकों से ऐसी त्वरित कार्रवाई की उम्मीद नहीं थी। वे आम आदमी की जमा धनराशि निकालने में भी पीड़ित करते हैं, लेकिन चमत्कार हो गया। बैंकों ने अल्प अवधि में चार करोड़ खाते खोले। आमजनों ने अपनी ओर से लगभग 1500 करोड़ रुपये जमा भी कर दिए। विपक्ष मोदी का जादू उतर जाने की घोषणाएं कर रहा है और यहां आमजन उनकी एक अपील पर करोड़ों रुपये जमा कर रहे हैं। ऐसा भरोसा अद्वितीय है। सरकार अकेले दम पर राष्ट्रनिर्माण और सर्वसमावेशी विकास नहीं कर सकती। राष्ट्रीय विकास और समृद्धि में हरेक नागरिक के श्रम तप का महत्व है। सबका श्रमफल ही राष्ट्रीय समृद्धि गढ़ता है। नरेंद्र मोदी ने इसी विचार को आगे बढ़ाया है।
स्वच्छता आवश्यकता है लेकिन इससे भी च्यादा उत्कृष्ट जीवन मूल्य भी है। यह व्यक्तिगत कार्रवाई है और सामूहिक कर्तव्य भी। परंपरा में स्तुति है कि मैं अपवित्र से पवित्र बनूं। बाहर ही नहीं भीतर से भी। वाह्याम्यांतर शुचि प्राचीन अभिलाषा है। वैसे है यह छोटा कर्तव्य, लेकिन राष्ट्रीय भी है। स्वच्छ भारत नगर पालिका या स्थानीय निकायों का ही उत्तारदायित्व नहीं। प्रधानमंत्री ने स्वयं इस कार्यक्रम की शुरुआत की है। पूरी सरकार इस अनुष्ठान से जुड़ गई है। भाजपा ने इसे पार्टी कार्यक्रम बनाया है। देश ने इस अभियान का स्वागत किया है। सक्षम नेतृत्व ही ऐसा चमत्कार करते आए हैं। गांधीजी का सत्याग्रह पहले निजी था, फिर सहयोगियों ने अपनाया फिर राष्ट्रधर्म बना और फिर अंतरराष्ट्रीय जीवनमूल्य बना। ओबामा गांधी के प्रति यों ही मोहित नहीं हैं। ब्रिटिश सरकार भी अपने यहां अपनी सत्ता के धुर विरोधी गांधी की प्रतिमा लगाने जा रही है। लाल बहादुर शास्त्री ने अन्न संकट/युद्ध संकट के समय जनता से एक दिन के उपवास की मांग की। देश उनके आह्वान पर साथ हो गया था। देश मोदी के आह्वान पर भी अतिरिक्त उत्साह में है। मोदी का हरेक कदम अपने ढंग का अनूठा नवजागरण है।
साधारणतया जनता सरकारी कार्यक्त्रमों में भागीदार नहीं बनती। जनता सरकार चुनती है। निरपेक्ष और तटस्थ हो जाती है। सरकारें अपना काम करती हैं। जनता निराश होती है। चुनाव अभियान होते हैं। सरकारें बदल जाती हैं। राजनीतिक परिवर्तन के बावजूद सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तन नहीं होते। इस दफा ऐसा नहीं है। राजनीति भी बदल रही है। सामाजिक प्रीति गाढ़ी हो रही है। सांस्कृतिक उत्थान बढ़ा है। आर्थिक समृद्धि की यात्रा गतिशील हुई है। महंगाई के घोड़े पर लगाम लगी है। जनता और सरकार की मित्रता बढ़ी है। जन और तंत्र का भेद मिटा है। मोदी की विश्वसनीयता का चमत्कार सबके सामने है। भारत अद्वितीय संस्कृति और दर्शन से युक्त विश्ववरेण्य राष्ट्र है। मोदी ने भारतीय विनम्रता के साथ भारतीय अस्मिता का दावा ठोक दिया है। संयुक्त राष्ट्र में भी कश्मीर राग सुना नहीं गया। भारतीय राग की प्रशंसा हुई। राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में आशा, उत्साह और विश्वास का नया वातावरण है। जनगणमन एक है। जनगण मन और सत्ता की जुगलबंदी का यह संगीत राष्ट्रीय है। भारत का वैभव कृति आकार ले रहा है। मोदी विरोधी मित्र भी इस वातावरण का संज्ञान लें।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं]
--------------------------


No comments: