Thursday 4 September 2014

सौ दिन का सफर


मोदी सरकार का एक माह 

Thursday,Jun 26,2014

तमाम उम्मीदों और अपेक्षाओं के साथ केंद्र की सत्ता में आई मोदी सरकार के कार्यकाल का एक माह पूरा हो रहा है। भारत सरीखे विशाल देश की नई केंद्रीय सत्ता के लिए एक माह का समय कुछ भी नहीं, लेकिन बावजूद इसके यह लेखा-जोखा किया ही जाएगा कि इस छोटी सी अवधि में पूरे बहुमत के साथ आई भारत सरकार ने क्या कदम उठाए और उसका रुख-रवैया कैसा है? सच तो है कि यह काम हो भी रहा है। मोदी सरकार ने एक ऐसे समय शासन की बागडोर संभाली है जब उसके समक्ष ढेरों चुनौतियां मौजूद हैं। इनकी संख्या इसलिए और अधिक है, क्योंकि पिछली सरकार ने समस्याओं का अंबार खड़ा करने का काम कुछ ज्यादा ही किया। अब तो ऐसा लगता है कि उसने लोकसभा चुनावों की घोषणा होने से बहुत पहले ही काम करना बंद कर दिया था। शायद उसने कुछ काम ऐसे भी किए जिससे नई सरकार को बेवजह परेशानी उठानी पड़े। मोदी सरकार के समय कुछ अनपेक्षित चुनौतियां भी आ खड़ी हुई हैं। इनमें एक है कमजोर मानसून और दूसरा इराक संकट। इन दोनों चुनौतियों के चलते इस सरकार को वह समय भी नहीं मिला जो आमतौर पर किसी नई सरकार को मिलता है। अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार के चौतरफा समस्याओं से घिरे होने के बावजूद आम जनता को यह भरोसा है कि वह कुछ करके दिखाएगी। इस भरोसे की एक झलक एक संस्था की ओर से किया गया वह सर्वेक्षण भी है जो कहता है कि 60 फीसद भारतीय यह मान रहे हैं कि अगले छह माह में घरेलू अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। इस सर्वेक्षण की मानें तो भारत सर्वाधिक आशावान देश के रूप में उभर आया है। यह उल्लेखनीय है, क्योंकि समस्याओं से पार पाने का भरोसा उनके समाधान की राह को आसान करता है।
इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि मोदी सरकार विभिन्न मोर्चो पर तेजी से काम करती दिख रही है, लेकिन मौजूदा समय जैसे हालात हैं उनमें उसे और तेजी दिखाने की जरूरत है। कायदे से देखा जाए तो अभी मोदी सरकार ने सही तरीके से आकार भी नहीं लिया है। अभी सभी मंत्रियों को अपने मंत्रालय की चुनौतियों की गंभीरता समझना शेष है। इसी तरह उनके अधिकारियों-कर्मचारियों का चयन होना भी बाकी है। यह भी तय है कि मंत्रियों और अफसरों में तालमेल बैठने में कुछ और समय लग सकता है। यह भी स्पष्ट है कि नौकरशाही को जैसी सक्रियता दिखानी चाहिए वह अभी नजर नहीं आ रही है। यह ठीक है कि खुद प्रधानमंत्री नौकरशाहों को सक्रियता दिखाने और फैसले लेने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें अपने रंग में आने में समय लगेगा। मोदी सरकार को तेजी से आगे बढ़ने के लिए नौकरशाही का सहयोग हर हाल में चाहिए ही होगा, क्योंकि जो भी नीतियां और कार्यक्रम बनेंगे उन पर अमल करके दिखाने की जिम्मेदारी उसकी ही है। नि:संदेह पिछले 30 दिनों में मोदी सरकार कई छोटे-मोटे विवादों से भी घिरी है। विवाद राजकाज का हिस्सा हैं। तेजी से फैसले लिए जाएंगे तो विवाद भी होंगे। आवश्यक यह है कि विवादों से बचने के लिए जरूरी फैसलों में देरी न होने पाए। इसके अतिरिक्त सरकार की ओर से ऐसा कुछ भी न हो जिससे लोगों का भरोसा डिगे।
[मुख्य संपादकीय]
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सौ दिन की सीमा

जनसत्ता 31 मई, 2014 : काफी उम्मीदें जगा कर सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शायद यह अंदेशा रहा होगा कि पांच साल को ध्यान में रख कर चलने से सरकार के कामकाज में सुस्ती आ सकती है। लिहाजा, गुरुवार को हुई मंत्रिमंडल की दूसरी बैठक में उन्होंने सौ दिनों का खाका बनाने का निर्देश दिया। मंत्रियों को उन्होंने सुशासन के दस सूत्र दिए, जो पारदर्शिता, फैसलों पर शीघ्रता से अमल, राज्य सरकारों और सांसदों की ओर से उठाए जाने वाले मुद््दों पर गौर करने, अंतर-मंत्रालयी मसलों को सुलझाने, अधिकारियों का मनोबल बढ़ाने आदि से संबंधित हैं। उनकी इस हिदायत से सरकार के काम में तेजी आने की उम्मीद जगी है। पर सौ दिनों का लक्ष्य तात्कालिक रूप से महत्त्वपूर्ण कामों को निपटाने का दबाव तो बना सकता है, नीतियों और प्राथमिकताओं के क्रियान्वयन की तस्वीर पेश नहीं कर सकता। मसलन, ढांचागत परियोजनाओं या विनिर्माण क्षेत्र की सुस्ती दूर करने के लिए जो कदम उठाए जाएंगे उनका परिणाम आने में कहीं ज्यादा समय लगेगा। यही बात आर्थिक क्षेत्र से जुड़े कई और विषयों की बाबत भी कही जा सकती है। 
मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौतियां अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने के तकाजे से जुड़ी हुई हैं। उसे एक ओर औद्योगिक क्षेत्र में आए ठहराव को दूर करना है, तो दूसरी ओर महंगाई पर काबू पाने और रोजगार के नए अवसर पैदा करने के वादे निभाने हैं। इस साल दक्षिण पश्चिम मानसून के कमजोर रहने और सामान्य से कुछ कम बारिश होने के मौसम विभाग के पूर्वानुमान ने कृषि क्षेत्र को लेकर अतिरिक्त चिंता पैदा की है। जुलाई में नया बजट पेश होने के समय अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार से लोगों की उम्मीदें आसमान पर होंगी। ये कितनी पूरी हो पाएंगी, इसके बारे में अभी से कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन कई मामले ऐसे हैं जिनका क्रियान्वयन या तो विधायी रास्ते से ही हो सकता है, या राज्यों के सहयोग से। जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर को लेकर पहल यूपीए सरकार के समय ही हो गई थी, पर अनेक राज्यों के एतराज या शंकाओं के चलते यह अधर में रहा है। नई सरकार ने जीएसटी को लागू करने का इरादा जता दिया है, पर सभी राज्यों की सहमति बनना बाकी है। कर-ढांचे से जुड़े कई निर्णय विधेयक के जरिए ही हो सकते हैं। लोकसभा में सरकार को मजे का बहुमत हासिल है, पर राज्यसभा में वह अल्पमत में है। इसलिए लंबित और नए विधेयकों को संसद की मंजूरी दिलाने के लिए उसे गैर-राजग दलों के भी सहयोग की जरूरत पड़ेगी। साफ है कि यूपीए के कार्यकाल की तरह मोदी के सामने सरकार चलाने के लिए सहयोगी दलों को खुश करने की मजबूरी भले न हो, पर विधायी कामों के लिए आम सहमति का खयाल उसे भी रखना होगा। यह अफसोस की बात है कि जो सरकार तेजी से सुशासन के एजेंडे पर चलना चाहती है, उसके एक मंत्री ने शुरूमें ही धारा तीन सौ सत्तर को लेकर नाहक विवाद पैदा कर दिया। भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए यूपीए सरकार के अध्यादेशों पर एतराज जताने और उन्हें अलोकतांत्रिक कदम ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन लगता है अब उसे अपने उस रुख की याद नहीं है। चंद दिनों में ही अध्यादेश का सहारा लिया जाने लगा है। दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के नियमों में संशोधन का विवाद थमा भी नहीं था कि एक और अध्यादेश का मामला सामने आ गया। गौरतलब है कि तेलंगाना राष्ट्र समिति के सांसदों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मुलाकात कर पोलावरम परियोजना में अध्यादेश के जरिए किए गए फेरबदल यानी विस्थापन के दायरे में आने वाले गांवों की संख्या बढ़ाने का विरोध किया है। तेजी का मतलब लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को ताक पर रखना नहीं होना चाहिए।
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सौ दिन का सफर

Sun, 31 Aug 2014 

भारत में राजनीति का संचालन करने वाले कई पारंपरिक, लेकिन अर्थहीन संस्कार हैं। एक नई सरकार के पहले सौ दिनों के कामकाज का विश्लेषण ऐसी ही परंपरा है। यह कवायद पूरी तरह अर्थहीन है, क्योंकि सौ दिन की तरह ही दो सौ अथवा तीन सौ दिन पूरे होने पर कोई विश्लेषण नहीं किया जाता। हां, सरकारों के वार्षिक आकलन अवश्य किए जाते हैं, लेकिन ये भी मीडिया में प्रचार-प्रसार में भारी-भरकम खर्च के साये में वास्तविक रूप में दब जाते हैं। एक आकलन जो वाकई महत्व रखता है, हर तरह के विश्लेषणों पर छा जाता है। यह आकलन है जनता का फैसला जो किसी सरकार का कार्यकाल पूरा होने के बाद सामने आता है। अगले सप्ताह देश नरेंद्र मोदी सरकार के पहले सौ दिन पूरे होने का गवाह बनेगा। एक प्रधानमंत्री जिसने साठ महीनों में भारत में बदलाव लाने के वायदे पर जबरदस्त जनादेश हासिल कर सत्ता संभाली है, के लिए पहले सौ दिनों का एक प्रतीकात्मक महत्व ही है। अधिकतम इससे एक हल्का-फुल्का यह संदेश हासिल किया जा सकता है कि सरकार किस दिशा में आगे बढ़ने का इरादा रखती है। 1989 के बाद पहली बार किसी एक दल के बहुमत वाले शासन को एक अलग प्रिज्म से देखा जा रहा है। यह नजरिया राजीव गांधी के बाद प्रधानमंत्री बने अन्य लोगों से एकदम अलग है। हालांकि सरकार के पास अभी भी राच्यसभा में बहुमत नहीं है, फिर भी दिन-प्रतिदिन की घटनाओं में गठबंधन धर्म की मजबूरियों जैसे जुमलों का इस्तेमाल अब नहीं सुना जाता। वीपी सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी को जनता का अच्छा-खासा समर्थन मिला था, लेकिन मोदी सरकार की पहचान भिन्न है। यह एक देश में विशेष बात है जहां संसदीय व्यवस्था से राष्ट्रपति प्रणाली की शैली में काम करने की अपेक्षा की जाती है। सरल शब्दों में कहें तो सारी बातें मोदी पर आकर ठहरती हैं।
जब नरेंद्र मोदी को 26 मई की शाम को शपथ दिलाई गई थी तो वह बिना आजमाए हुए व्यक्ति नहीं थे, जैसा कि कुछ विदेशी प्रेक्षकों ने सोचा था। 12 वर्ष तक गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी हमेशा से देश के राजनीतिक फलक पर चर्चा का विषय रहे। उन्हें या तो सराहा गया अथवा हद से अधिक नापसंद किया गया। अपने आठ महीने के वृहद चुनाव प्रचार अभियान में वह देश के लगभग सभी हिस्सों में गए। उनकी आक्त्रामक प्रचार शैली ने मोदी विरोधियों की मुश्किलें और बढ़ा दीं। परिणामस्वरूप जब मोदी प्रधानमंत्री बने तो उनके इर्द-गिर्द कोई वास्तविक निष्पक्षता मौजूद नहीं थी। वह भले ही उस हनीमून पीरियड से वंचित न रहे हों जो रेस कोर्स रोड में ठिकाना बनाने वाले सभी व्यक्तियों को आम तौर पर मिलता है, लेकिन यह किसी वैचारिक खुलेपन की देन नहीं था, बल्कि एक अस्थाई युद्धविराम का प्रतिफल था। मोदी ने लाल किले से बिल्कुल सही कहा कि असल समस्या उनके बाहरी होने को लेकर है। वाकई उन्होंने खेल के सर्वथा अलग नियम निर्धारित किए और उन्हीं के आधार पर अपने विरोधियों को खेलने की चुनौती दी। एकाकी जीवनशैली, सादगी भरे जीवन के बावजूद स्टाइलिश कपड़ों के शौक के अलावा भी बहुत सारी चीजें हैं जो मोदी को एक खास व्यक्तित्व बनाती हैं। कामकाज के उनके सख्त शेड्यूल ने भी लोगों का ध्यान खींचा।
जब से मोदी ने कार्यभार संभाला है, उनका जोर दो चीजों पर रहा है। एक, शासन की समग्रता से खुद को परिचित करना और दूसरे, बुनियादी मुद्दों पर लगातार सवाल उठाना। निश्चित ही एक हिस्सा ऐसी सरकारी योजनाओं का रहा है जहां प्रधानमंत्री ने आगे बढ़कर नेतृत्व संभाला और पड़ोस की ओर केंद्रित कूटनीति को नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ाया, बावजूद इसके पिछले लगभग सौ दिनों में सरकार का मुख्य जोर सिस्टम में पहले से मौजूद खामियों को दूर करने पर रहा है। कुछ फैसले केवल इसलिए अर्थहीन नहीं हैं, क्योंकि उन्हें बढ़-चढ़कर प्रचारित नहीं किया गया। अर्थव्यवस्था से संबंधित मंत्रालयों ने अपना ध्यान एक बड़े काम की ओर लगाया है। यह काम है भारत में व्यापार करने के लिए स्थितियों को आसान बनाना। एक्साइज और कर के जिन नियमों ने भारत में उद्यमियों के लिए हालात मुश्किल बना दिए थे उन्हें सरल बनाया गया और पर्यावरण मंत्रालय की अड़चनों को दूर कर परियोजनाओं में तेजी लाने की पहल की गई। इसके साथ ही सरकार ने भारत में व्यावसायिक विश्वास बहाल करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए। मोदी ने मेक इन इंडिया को प्राथमिकता बनाया है। इसका मतलब है कि आने वाले समय में भूमि अधिग्रहण कानूनों में बदलाव होगा, ऊर्जा क्षेत्र में सुधार होंगे और बैंकिंग व्यवस्था में बुनियादी सुधार होगा। स्पष्ट है कि पिछले लगभग सौ दिन अर्थव्यवस्था की बुनियाद को मजबूत करने में खपाए गए। उम्मीद यही है कि सरकार की ओर से उठाए गए ये छोटे कदम व्यावसायिक विश्वास पर निर्णायक असर डालेंगे और बड़े पैमाने पर निवेश का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
जो लोग चुनाव के समय मोदी के साथ खड़े थे उनकी धारणा यह भी थी कि मोदी बहुत जल्दी बड़े-बड़े बदलावों को जन्म देंगे। इस धारणा की एक बड़ी वजह संप्रग सरकार की आर्थिक नीतियों से उत्पन्न निराशा भी थी। अभी तक इस तरह का केवल एक निर्णय ही लिया गया है और वह है योजना आयोग को समाप्त कर उसकी जगह नई संस्था बनाने की घोषणा। उनकी इस पहल का विरोध भी किया जा रहा है-खासकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का उदाहरण देकर जो पूरे देश के ढांचे के लिहाज से अपेक्षित नतीजे नहीं दे सका है। कुछ उपचुनावों में लगे झटके के बावजूद मोदी सरकार के प्रति लोगों का रुझान कम नहीं हुआ है, बल्कि एक ओपिनियन पोल के मुताबिक बढ़ा ही है। सौ दिनों तक सत्ता संभालने और इससे अच्छी तरह अवगत हो जाने के बाद मोदी के लिए अच्छा यही होगा कि वह अपने आलोचकों के भय को अपने लिए प्रेरणा में तब्दील करें। वह यह नहीं भूल सकते कि उन्हें जो शानदार जनादेश मिला है वह बदलाव और बेहतरी के लिए है। बदलाव के विश्वास को अगले नौ महीनों में किस तरह कार्य-व्यवहार में तब्दील किया जाता है, इससे ही अगले चार वर्ष की दिशा तय होगी।
[लेखक स्वप्न दासगुप्ता, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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बदलाव की झलक

Tue, 02 Sep 2014

किसी भी सरकार के लिए उसके कार्यकाल के पहले सौ दिनों के विश्लेषण का एक सीमित महत्व ही है। एक सरकार के कामकाज और उसकी दिशा के आकलन के लिए कम से कम छह माह की अवधि आवश्यक है। मोदी सरकार भी इस समय की हकदार है, लेकिन उसके पहले सौ दिनों की चर्चा कई कारणों से हो रही है और इसमें एक बड़ा कारण चुनाव प्रचार के दौरान मोदी का बदलाव का नारा भी है और करीब 25 वर्ष बाद केंद्र में सरकार बनाने के लिए किसी एक दल का अकेले दम पर बहुमत हासिल करना भी।
नए शासन के पहले सौ दिन कुल मिलाकर प्रभावी रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि एक ऐसी सरकार केंद्र की सत्ता में आ गई है जो कुछ करना चाहती है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि लोग इस सरकार को और अधिक समय देने के लिए तैयार हैं। इस सरकार का सबसे बड़ा असर यह है कि विकास का जो माहौल पिछले शासन में बिगड़ गया था वह ठीक होता नजर आ रहा है। सुधार की दस्तक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सबसे पहले महसूस की जा रही है। दो-तीन दिन पहले वित्तामंत्री अरुण जेटली ने कहा भी कि फैसलों में देरी से सुस्त हुई अर्थव्यवस्था ने जनता और निवेशकों का जो भरोसा तोड़ा था अब वह फिर बहाल होने लगा है। विकास दर में वृद्धि से उनकी इस बात पर मुहर भी लगती है। विकास दर में तेजी से निवेशकों का मन भी बदला है और इसकी झलक सेंसेक्स में आई तेजी से भी मिलती है। नए शासन के कामकाज से जो आशावाद दिख रहा है उसके सार्थक नतीजे मिलने ही चाहिए। प्रधानमंत्री की जापान यात्रा इस माहौल को और मजबूत करेगी, क्योंकि यह लगभग तय है कि नई दिल्ली और टोक्यो की मित्रता से आर्थिक क्षेत्र में सहयोग के नए द्वार खुलेंगे। इस सकारात्मक तस्वीर के साथ मोदी सरकार के समक्ष कई चुनौतियां भी हैं और सबसे बड़ी चुनौती तो महंगाई की ही है। यह सही है कि महंगाई के लिए इस समय वैसा हाहाकार नहीं है जैसा संप्रग शासन के समय था, लेकिन यह एक सच्चाई है कि आम जनता बढ़ती कीमतों से त्रस्त है। यह देखना है कि मोदी सरकार महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए आगे क्या-क्या कदम उठाती है। शासन के स्तर पर 'प्राइम मिनिस्टर वाचिंग' का जुमला प्रचलित हो रहा है वह इसीलिए, क्योंकि मोदी की नजर अपने मंत्रियों पर है। इसके चलते उनके मंत्रिमंडल में शामिल सभी मंत्री पूरी सतर्कता से काम करते नजर आ रहे हैं। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी कहा है कि वह मंत्रालय के आधार पर मोदी सरकार के कामकाज की आलोचना करेगी। इसका मतलब है कि केंद्र सरकार के लिए गलती करने की गुंजाइश नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह स्थिति अच्छी ही कही जाएगी कि विपक्ष सत्तापक्ष के कामकाज की लगातार समीक्षा करता रहे।
सुधार और बदलाव के संकेत विदेश नीति के मामले में भी दिखाई दे रहे हैं। यह कहने में हर्ज नहीं कि नरेंद्र मोदी ने विदेश नीति, विशेषकर पड़ोसी देशों के साथ संपर्क के मामले में अलग तरह का चिंतन प्रदर्शित किया है। बेशक पाकिस्तान के साथ संबंधों के मामले में अड़चन आई है और यह अड़चन मोदी के लिए निराशा की बात है, लेकिन भूटान और नेपाल के साथ नजदीकी को लेकर जो रुझान प्रदर्शित किया गया उससे भारत के आसपास माहौल बदला है। मोदी एशिया ही नहीं, बल्कि पश्चिम एशिया के साथ संबंधों के मामले में एक ठोस नीति पर आगे बढ़ना चाहते हैं।
राजनीतिक रूप से मोदी के लिए एक अहम चुनौती उन तत्वों पर अंकुश लगाना है जो समाज में विभाजन पैदा करना चाहते हैं। हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण देश और समाज के लिए ठीक नहीं है। उत्तार प्रदेश और खासकर पश्चिमी उत्तार प्रदेश में यह ध्रुवीकरण कुछ ज्यादा ही गंभीर रूप लेता जा रहा है। लाल किले की प्राचीर से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने देश हित में दस साल के लिए हर स्तर पर सांप्रदायिकता से दूर रहने की बात कही थी, लेकिन उन्हें अपना संदेश और सख्ती से देना चाहिए। देश में जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण गहरा रहा है उस पर प्रधानमंत्री की चुप्पी ठीक नहीं। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे लोगों को कोई जगह न मिले जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। इस तरह की राजनीति वोट के लिए तो फायदेमंद हो सकती है, लेकिन देश को जो नुकसान होगा उसकी भरपाई नहीं की जा सकेगी। अगर सांप्रदायिकता बढ़ती है तो निवेशकों का भरोसा भी कमजोर होगा और अभी वे जो उत्साह दिखा रहे हैं वह जल्दी ही गायब हो जाएगा।
मोदी सरकार के संदर्भ में एक और बात पर लोगों का ध्यान गया है और वह यह कि सरकार के भीतर कुछ टकराव जैसे हालात उभरते नजर आ रहे हैं। हालांकि इस मामले में अभी किसी नतीजे पर पहुंचना बहुत जल्दबाजी होगी, लेकिन देश में यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि हर चीज पर प्रधानमंत्री का दखल है। प्रधानमंत्री की निगरानी अच्छी बात है और अंतिम निर्णय भी उन्हीं का होना चाहिए, लेकिन सरकार का मतलब केवल पीएमओ नहीं होना चाहिए।
सौ दिनों में कोई सरकार सारी समस्याओं का न तो समाधान कर सकती है और न ही रातोंरात तस्वीर बदली जा सकती है। इसलिए जिन लोगों ने यह अपेक्षा की थी कि मोदी सरकार बनते ही सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा उन्हें कुछ निराशा हो सकती है, लेकिन उनको भी यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बदलाव की योजनाओं को यथार्थ के धरातल पर उतारने में समय लगता है। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने लाल किले से कुछ बुनियादी बातों पर जोर दिया। साफ-सफाई और सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय बनाने की घोषणा ने यह भरोसा पैदा किया है कि प्रधानमंत्री जमीनी समस्याओं से परिचित हैं। अगर अगले वर्ष 15 अगस्त तक यह काम पूरा हो जाता है तो इसे मोदी सरकार की बहुत बड़ी कामयाबी माना जाना चाहिए।
महिलाओं की गरिमा, शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य से जुडे़ इस मामले के गंभीर सामाजिक आयाम हैं। इसी तरह एक और योजना मोदी सरकार के भावी पथ की दिशा तय कर सकती है और यह है कि क्योटो की तर्ज पर काशी यानी प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र के विकास का संकल्प। अगर ऐसा हो सका तो गंगा के आसपास बसे इलाके भी इसी तर्ज पर अपने विकास का सपना संजो सकते हैं। मोदी ने 'वी कैन' यानी 'हम कर सकते हैं' को अपने शासन का सूत्रवाक्य बनाया है। मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति से वह अपनी इस घोषणा को वास्तविकता बना सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें सबको साथ लेकर चलना होगा। सुशासन, मजबूत नेतृत्व और भविष्य के लिए स्पष्ट दृष्टिकोण से भारत की तस्वीर बदली जा सकती है। पहले सौ दिनों ने उम्मीद को कायम रखा है।
[लेखिका नीरजा चौधरी, जानी-मानी राजनीतिक विश्लेषक हैं]
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शासन की कसौटी पर सौ दिन

Wed, 03 Sep 2014 

मोदी सरकार के पहले सौ दिन एक अलग तरह की सरकार के उदय के गवाह बने हैं। ऐतिहासिक तुलनाएं खास महत्व नहीं रखती हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी की लोकतांत्रिक समझ चा‌र्ल्स डी गॉल की तरह है या उनके जैसे तमाम लोगों की तरह। जोनाथन फेनबी ने डी गॉल को प्रजातंत्रवादी राजा करार दिया था। यह मुहावरा किसी तरह के विरोधाभास को नहीं दर्शाता है। यह डी गॉल के लोकतांत्रिक रुझान और उनकी अद्भुत योग्यता के साथ-साथ कुछ अन्य विशिष्ट बातों को दर्शाता है जो एक मजबूत व्यक्तित्व के रूप में जनता से उनके जुड़ाव को बताता है। लोगों से जुड़ने के मामले में मोदी में भी कुछ ऐसी ही समानता है। यह इस धारणा को दर्शाता है कि सत्ता सीधे लोगों से आती है। ऐसा आत्मविश्वास केवल उन्हीं में हो सकता है जो अपने व्यक्तित्व का निर्माण खुद करते हैं। मोदी ने खुद को सबकी सहमति से जोड़ने का प्रयास किया। वह चाहते हैं कि देश के लोग कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ें। मोदी सरकार के पहले 100 दिनों की उल्लेखनीय उपलब्धि यही है कि वह एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर रहे हैं जिनके साथ लोगों की ताकत जुड़ी हुई है। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि यह एक ऐसी सरकार भी है जिसमें सत्ता के केंद्रीकरण और आधिपत्य के फंदे भी हैं। साधारण रूप से कहें तो इस समय सारी शक्तियां एक व्यक्ति में ही निहित नजर आ रही हैं।
जब कभी सत्ता इस तरह केंद्रीकृत हो जाती है तो प्रधानमंत्री किसी स्कूल के प्रधानाध्यापक की तरह कार्य करते नजर आ सकते हैं। वह नैतिक रूप से हर किसी को प्रेरित करने से लेकर शीर्ष स्तर तक अनुशासन कायम करने में जुटे हुए हैं। कुछ मामलों में प्रधानमंत्री ने यह काम बहुत ही होशियारी से किया है। स्वाधीनता दिवस के दिन स्वच्छता पर ध्यान केंद्रित करना एक अच्छा विचार था। यदि सचमुच ऐसा हो सका तो एक अच्छी बात होगी। प्राय: अन्य दूसरे नेता भी शौचालय अथवा सफाई की बात करते रहे हैं। हालांकि वह यह सब कभी एक पिता जैसे भाव से कहते रहे हैं तो कभी दुख व्यक्त करते हुए। यदि और कुछ नहीं तो मोदी की एक बड़ी उपलब्धि साफ-सफाई के विषय को राजनीति और प्रशासन की मुख्यधारा में लानासौ दिन सरकार के
02-09-14
किसी सरकार के लिए सौ दिन काफी कम होते हैं, खासकर ऐसी सरकार के लिए, जो केंद्र की राजनीति में सचमुच नई हो, जिसके मुखिया पहली बार सांसद बने हों और जिसके मंत्रिमंडल में बड़ी तादाद में ऐसे लोग हों, जो पहली बार सांसद बने हैं या पहली बार मंत्री बने हैं। लेकिन इन सौ दिनों से इस सरकार के कामकाज का तरीका और स्वभाव काफी-कुछ समझा जा सकता है, हालांकि उसके कई फैसलों के परिणाम आने में वक्त लगेगा। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के 100 दिन पूरे होने पर वैसी ही प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, जैसी अपेक्षित थीं। अगर राजनीति और विचारधारा से प्रेरित प्रतिक्रियाओं को छोड़कर इन 100 दिनों की तटस्थ समीक्षा करें, तो कहा जा सकता है कि जिन्हें मोदी से बहुत उम्मीदें थीं, वे उस हद तक पूरी नहीं हुईं और जिन्हें यह लग रहा था कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश का बेड़ा गर्क हो जाएगा, वैसा भी नहीं हुआ। मोदी ने अपने प्रशंसकों और विरोधियों, दोनों की भविष्यवाणियों को काफी हद तक झुठलाया है। नरेंद्र मोदी की कार्य-संस्कृति बहुत अलग है। वह बड़ी हद तक व्यक्ति केंद्रित है और उनका दखल लगभग हर क्षेत्र में है। फिलहाल लोगों को इससे शिकायत नहीं होगी, क्योंकि बड़े दिनों बाद सरकार में चुस्ती, कार्य कुशलता और निर्णय क्षमता देखी जा रही है। अगर इसके नतीजे अच्छे आए, तो शायद जनता भविष्य में भी शिकायत नहीं करेगी, वरना हो सकता है कि असंतोष के स्वर फूटने लगे। आम तौर पर दक्षिणपंथी अर्थशास्त्रियों और उद्योगपतियों को उम्मीद थी कि मोदी अर्थव्यवस्था को और ज्यादा उदार बनाने के लिए बड़े फैसले करेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। मोदी अर्थव्यवस्था के नियोजन में मध्यमार्गी साबित हुए हैं। बड़े फैसले करने की बजाय उनका ध्यान प्रशासन को चुस्त करने और लालफीताशाही कम करने में है, ताकि आर्थिक तरक्की के रास्ते में बाधाएं कम हों। भारतीय नौकरशाही के दुनिया भर में जाने-माने तौर-तरीकों और यथास्थिति से उसके मोह को तोड़ने की पहली गंभीर कोशिश अब दिखाई दे रही है। अगर मोदी इसी रफ्तार से प्रशासन को चुस्त बनाते रहे, तो हो सकता है कि हम उतने प्रशासनिक सुधार देखें, जितने तमाम प्रशासनिक सुधार आयोग की वजह से भी नहीं हुए थे। मोदी के साथ एक अच्छी बात यह है कि वह दिल्ली के प्रशासन तंत्र से हमेशा बाहर रहे हैं, इसलिए उनका जुड़ाव इस तंत्र से नहीं है और वे तटस्थ आलोचक के रूप में उसे देख सकते हैं। इसलिए वह अनुपयोगी कानूनों की निर्मम छंटाई या योजना आयोग को खत्म करने की घोषणा कर सकते हैं। उनकी विदेश नीति में भी परंपरा से हटकर बहुत कुछ है, लेकिन आखिरकार हर नीति की असली कसौटी उसकी कामयाबी होती है। अगर पाकिस्तान और चीन के प्रति मोदी की नीति कामयाब होती है, तो उनकी वाहवाही होगी, वरना उनकी सरकार की आलोचना करने वाले कहेंगे कि हम पहले ही कह रहे थे। मोदी काफी सारी उम्मीदें जगाकर सत्ता में आए थे, लेकिन चुनावी वायदों को सच मानना कोई समझदारी नहीं होती। तब भी यह साफ था कि मोदी के पास कोई जादुई छड़ी नहीं थी और अब भी यही सच है। यह कहा जा सकता है कि इस सरकार में जो सक्रियता दिखाई दे रही है, उससे उम्मीद बंधती है, लेकिन यह भी लोग चाहेंगे कि सरकार जनता से ज्यादा संवाद करे, ज्यादा खुलापन और उदारता दिखाए। इस सरकार में स्पष्ट दिशा और निर्णय क्षमता की कोई कमी नहीं दिख रही है, लेकिन इस सरकार का असली इम्तिहान एक साल पूरा होने पर होगा, जब अर्थव्यवस्था, राजनीति और विदेश नीति में उसके कदमों के नतीजे आ चुके होंगे।
 रही है। उन्होंने पूरी स्पष्टता, प्रतिबद्धता और एक चेतावनी वाले अंदाज में यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं किया कि कोई भी देश तब तक महान नहीं हो सकता जब तक कि वह अपनी कमियों और गंदगी को साफ नहीं करता। उन्होंने पहले ही कह रखा है कि भारत की मुख्य विफलता बाजार की विफलता अथवा राज्य की विफलता नहीं है, बल्कि यह सामाजिक विफलता है। यह विफलता तब और दुखद नजर आती है जब यह देश में लिंग आधारित हिंसा के तौर पर सामने आती है। प्रधानमंत्री ने यह बातें याद दिलाकर बहुत अच्छा काम किया। यह प्रजातंत्रवादी मजबूत शासन की ताकत ही है कि चीजें अथवा कार्य उसी दिशा में हो रहे हैं जैसा कि प्रधानमंत्री चाहते हैं, लेकिन खतरा भी यही है कि क्या काम केवल उसी दिशा में होंगे जिनमें प्रधानमंत्री रुचि लेंगे या ध्यान देंगे।
आर्थिक दृष्टि से प्रधानमंत्री ने एक बेहतरीन और तर्कसंगत शुरुआत की है। उनका दृष्टिकोण बड़े-बड़े सुधारों के बजाय कई कदम दर कदम उपायों पर केंद्रित है। अर्थव्यवस्था को लेकर अब लोगों का नजरिया आशावादी है। सरकार के कुछ विभागों में अब ऊर्जा और उत्साह का माहौल देखा जा सकता है, विशेषकर बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में। सरकार ने लीक से हटकर कुछ क्रांतिकारी कदम उठाए हैं जिसे यदि क्रियान्वित किया जा सका तो बड़े बदलाव की संभावना है। इस संदर्भ में जन-धन योजना एक ऐसा ही प्रगतिशील कदम है, जिसके माध्यम से भारत में सभी परिवारों को बैंक खाता मुहैया कराया जा सकेगा। हालांकि सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि एक और लोन मेले के बजाय वित्ताीय समावेशन की योजना बने, जिसमें सभी को लाभ हो। सरकार का पहला बजट बहुत चमत्कारिक नहीं रहा, लेकिन इसने संकेत दिए कि सरकार बड़े आर्थिक सुधारों के लिए प्रतिबद्ध है और राजकोषीय घाटे को नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देगी। महंगाई से लड़ने के लिए सरकार ने किसी नए कदम की घोषणा नहीं की है इसी तरह एक तथ्य यह भी है कि अभी तक नई कृषि रणनीति की भी घोषणा नहीं की गई है।
सुशासन के मोर्चे की बात करें तो सरकार का अब तक का रिकार्ड मिला-जुला रहा है। जहां यह बात भरोसा पैदा करने वाली है कि लंबे अर्से बाद कोई प्रधानमंत्री अपने पद और अधिकारों के अनुरूप काम कर रहा है वहीं एक स्थिति यह भी है कि संस्थागत बदलावों की दिशा में अभी कोई पुख्ता संदेश सामने नहीं आए हैं। कुछ मामलों में संकेत चिंताजनक हैं। राज्यपालों की नियुक्ति का ट्रेंड वैसा ही है जैसा कि कांग्रेस ने किया। एक मंत्रालय जिसे लेकर चिंता है वह है पर्यावरण मंत्रालय। भारत में हवा जहरीली हो रही है, जल प्रदूषण बढ़ा है और पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ रहा है, लेकिन यह मंत्रालय पर्यावरणीय मानदंडों को कमजोर कर रहा है। यह दोहरे रूप में खतरनाक है। एक विश्वसनीय पर्यावरण ढांचा बनाने के बजाय सरकार शार्ट कट अपना रही है। इसे आगे अदालतों में चुनौती दी जा सकती है। कुछ ऐसा ही हाल मानव संसाधन मंत्रालय का है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक के बाद एक निरर्थक आदेशों के माध्यम से मानव संसाधन मंत्रालय कमांड और कंट्रोल के पुराने ढांचे की ओर लौटता नजर आ रहा है। आप यह महसूस कर सकते हैं कि यह सरकार सड़क, बिजली, बुनियादी ढांचे के रूप में शासन के हार्डवेयर पहलू के मामले में तो मजबूत है, लेकिन शिक्षा, संस्थानों के निर्माण और पर्यावरण जैसे शासन के साफ्टवेयर पहलुओं पर कमजोर है। भारत जिस एक सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती का सामना कर रहा है वह है बढ़ती सांप्रदायिकता। अधिक स्पष्ट रूप में उत्तार प्रदेश की समस्या समाजवादी पार्टी की देन है, लेकिन भाजपा भी इस राज्य के माहौल को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने में पीछे नहीं है। प्रधानमंत्री बहुत सारे मामलों पर नैतिक जिम्मेदारी लेते हैं, लेकिन वह इस मामले में खामोश हैं।
विदेश नीति के मोर्चे पर प्रधानमंत्री ने अच्छी शुरुआत की है, लेकिन यह कहना जल्दबाजी होगा कि जटिल अंतरराष्ट्रीय संबंधों को वह किस तरह संभालते हैं। दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय एकता के संदर्भ में भारत की जिम्मेदारी के संदर्भ उनका प्रयास सराहनीय है। अपने आंतरिक हालात और पाकिस्तान सेना की वजह से पाकिस्तान किसी भी सरकार के लिए एक मुश्किल पहेली रहा है। इस कारण उसके लिए लाल रेखा खींचना खराब विचार नहीं है। कश्मीर के मसले पर भी मजबूत राजनीतिक पहल करनी होगी। दुर्भाग्य से कश्मीर की स्थिति भी चुनाव करीब आने के साथ ध्रुवीकरण का खतरा पैदा कर रही है। वर्तमान सरकार के पहले सौ दिन प्रजातांत्रिक शासन के समक्ष मौजूद संभावनाओं और जोखिम को दर्शाते हैं। एक तरफ जहां प्रधानमंत्री जोश से भरे हुए हैं और उनके पास पूरी अथॉरिटी है वहीं दूसरी तरफ सत्ता के केंद्रीकरण का जोखिम भी है, जो लंबे समय में बड़ी समस्याओं को जन्म देता है।
[लेखक प्रताप भानु मेहता, सेंटर फार पालिसी रिसर्च के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी हैं]
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भरोसे का माहौल

Wed, 03 Sep 2014

किसी भी सरकार और विशेष रूप से भारत सरीखे विशाल देश की केंद्रीय सत्ता के लिए सौ दिनों का कार्यकाल बहुत कम होता है और इस सीमित अवधि के आधार पर किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता। बावजूद इसके मोदी सरकार के पहले सौ दिनों के कार्यकाल की जैसी चर्चा हो रही है उससे उसके प्रति लोगों की असीम अपेक्षाओं का ही पता चलता है। इस सरकार ने अभी तक विभिन्न क्षेत्रों में जो तमाम कदम उठाए हैं उनके नतीजे आने अभी शेष हैं, लेकिन अच्छी बात यह है कि एक सकारात्मक माहौल का निर्माण होता हुआ दिख रहा है। मोदी सरकार के शासन की बागडोर संभालने के पहले देश में जैसा निराशाजनक परिदृश्य था उसे देखते हुए पहली जरूरत एक ऐसे माहौल की ही थी जो यह भरोसा दिलाए कि बिगड़े हालात सुधारे जा सकते हैं। मोदी सरकार के आलोचक कुछ भी कहें, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हालात सुधरने और बदलने को लेकर एक उम्मीद बंधी है। इस उम्मीद को बनाए रखना किसी चुनौती से कम नहीं, क्योंकि आम जनता को अच्छे दिनों का इंतजार अभी भी है। वह महंगाई पर खास तौर पर लगाम लगते हुए देखना चाहती है, क्योंकि उसने ही उसे सबसे अधिक त्रस्त किया हुआ है। नि:संदेह कमजोर मानसून ने सरकार की समस्याएं बढ़ा दी हैं, लेकिन उसके पास इन समस्याओं से पार पाने के अलावा और कोई चारा नहीं। उसके लिए राहत की बात यह है कि आम जनता अभी धैर्य धारण करने को तैयार है। यह आश्चर्यजनक है कि जहां आम जनता यह आभास दे रही है कि सरकार के पास जादू की छड़ी नहीं वहीं विपक्षी दल कुछ ज्यादा ही बेचैन दिख रहे हैं।
मोदी सरकार के कामकाज से बेचैन विपक्षी दलों में कांग्रेस सबसे आगे दिख रही है। इस सरकार के सौ दिनों के कार्यकाल को नाकाम बताने के साथ ही उसके नेताओं ने जिस तरह कुछ स्थानों पर धरना-प्रदर्शन किया वह उनके विरोध के लिए विरोध वाले रवैये का ही परिचायक है। विपक्षी दल मोदी सरकार की आलोचना करने के लिए स्वतंत्र हैं और उनके पास आलोचना के कुछ आधार भी हो सकते हैं, लेकिन उन्हें इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि इस सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों में सुधार के लिए तेजी से जो तमाम फैसले लिए हैं उससे देश-दुनिया को एक सही संदेश गया है। सबसे उल्लेखनीय यह है कि वह सरकारी कामकाज के ढर्रे को बदलने के लिए प्रतिबद्ध दिख रही है। चूंकि सरकार काम करने के तौर-तरीके भी बदलना चाहती है इसलिए ठोस नतीजे आने में कुछ और समय लग सकता है। इस सरकार की ओर से जिस तरह कमजोर मोर्चो को दुरुस्त किया जा रहा है उससे चीजें सही दिशा की ओर बढ़ती दिख रही हैं, लेकिन इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि जो फैसले लिए जा रहे हैं उन्हें अंजाम तक पहुंचाना भी जरूरी है। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि सरकार उन विवादों से सबक ले जो पिछले सौ दिनों में उभर कर सामने आए हैं और जिनके चलते विपक्षी दलों को उसे घेरने का मौका मिला। यह सही है कि कोई भी सरकार हो, वह विवादों से बच नहीं सकती, लेकिन नतीजे देने वाली सरकार के लिए यह आवश्यक होता है कि वह उनसे समय रहते सबक सीखे।
[मुख्य संपादकीय]
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सौ दिन का खाता

जनसत्ता 3 सितंबर, 2014: किसी सरकार का मूल्यांकन केवल सौ दिनों के कामकाज के आधार पर करना शायद उपयुक्त न हो, पर उसकी दिशा और कार्यशैली का अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। मोदी सरकार के अब तक के प्रदर्शन को देखें तो मिश्रित तस्वीर ही उभरती है। उसके सौ दिनों के खाते में कुछ उत्साह जगाने वाली बातें हैं तो कुछ विवाद और सवाल भी। जब प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने शपथ ली, उसके पहले देश की अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से गुजर रही थी। लेकिन मोदी सरकार के आने की आहट से ही शेयर बाजार कुलांचे भरने लगा और तब से उसकी तेजी कुल मिला कर बनी रही है। मौजूदा वित्तवर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर 5.7 फीसद दर्ज की गई, जो कि पहले जताई गई सामान्य उम्मीदों से भी कुछ अधिक है। लेकिन जहां तक महंगाई पर काबू पाने के वादे का सवाल है, सरकार अब तक इसमें नाकाम रही है। थोड़ी कमी दर्ज होने के बावजूद खुदरा महंगाई नौ फीसद के ऊपर है। काले धन के मामले में भी कोई ठोस प्रगति नहीं दिखी है। प्रधानमंत्री ने योजना आयोग की विदाई तो कर दी, पर उसके विकल्प को लेकर न सिर्फ अनिश्चितता है बल्कि कुछ अंदेशे भी हैं। विकास दर को पटरी पर लाने के अलावा प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत देश की समूची आबादी को बैंक खाते की सुविधा मुहैया कराने का अभियान भी प्रशंसनीय है। प्रधानमंत्री ने विदेश नीति के मोर्चे पर इतने कम समय में ही जैसी सक्रियता दिखाई है वह अपूर्व है। इसकी धूमधाम भरी शुरुआत उनके शपथ ग्रहण समारोह से ही हो गई थी, जब सार्क देशों और मॉरीशस के राष्ट्राध्यक्ष भी मौजूद थे। मोदी की भूटान और नेपाल यात्रा ऐतिहासिक रही। परमाणु करार न हो पाने के बावजूद जापान की भी उनकी यात्रा सफल कही जाएगी। लेकिन सब कुछ अच्छा ही नहीं रहा है। पाकिस्तान के साथ होने वाली बातचीत रद्द करने के फैसले से दोनों देशों के बीच संबंध सुधार की कोशिशों को धक्का लगा है। शुरू में प्रधानमंत्री ने चीन को अपनी विदेश नीति में सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात कही थी, पर अब उन्हें चीन के विस्तारवाद पर सवाल उठाने की जरूरत महसूस हो रही है। प्रधानमंत्री की तत्परता और प्रशासनिक चुस्ती पर उनके जोर देने से सकारात्मक संदेश गया है, पर जिस तरह सारी कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रित होती जा रही हैं वह हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए शुभ संकेत नहीं है। तमाम मंत्री खुद अपने निजी सचिव नहीं चुन सके। नगा मसले पर वार्ताकार के लिए गृहमंत्री ने जो सिफारिश की थी उसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने खारिज कर दूसरा नाम तय कर दिया। सत्ता के इस घोर केंद्रीकरण पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। और भी चिंताजनक यह है कि मोदी सरकार आने के बाद सांप्रदायिक तत्त्वों का हौसला बढ़ा है। पिछले तीन महीनों में जितने दंगे हुए हैं, शायद ही कभी हुए हों। यों प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त के अपने संबोधन में कहा कि अगर भारत को तेजी से विकास करना है तो दस साल तक लोग सांप्रदायिक और जातीय झगड़े भूल जाएं। पर दूसरी तरफ उनके ही लोग सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों में मशगूल हैं। भाजपा को पहली बार पूर्वोत्तर में कामयाबी मिली। लेकिन इरोम शर्मिला की फिर से गिरफ्तारी ने पूर्वोत्तर के लोगों के बीच अच्छा संदेश नहीं दिया है। मोदी सरकार ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के जरिए संवैधानिक संस्थाओं का मान रखने का भरोसा दिलाया था। मगर चाहे राज्यपालों को मनमाने ढंग से हटाना हो या एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश को राज्यपाल पद की पेशकश, यह उस आश्वासन से उलट है। इससे सरकार की कथनी और करनी का फर्क ही उजागर हुआ है।
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सौ दिन सरकार के

नवभारत टाइम्स | Sep 4, 2014

केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद आई पहली तिमाही की जीडीपी ग्रोथ रिपोर्ट ने सबके मन में उम्मीदें बढ़ा दी हैं। सरकार के इन सौ दिनों में शेयर बाजार ने भी लगातार नई ऊंचाइयां छूने का रेकॉर्ड बनाया है। इन दोनों बातों के लिए मौजूदा सरकार के प्रयासों को कितना श्रेय मिलना चाहिए और कितना नहीं, इसे लेकर कुछ विवाद जरूर हो सकता है, लेकिन इस मामले में कोई दो राय नहीं हो सकती कि नई सरकार बनने के बाद से देश की इकॉनमी में निवेशकों का भरोसा बढ़ा है। सौ दिन पहले अर्थव्यवस्था जिस अनिश्चितता में फंसी दिख रही थी, वह फिलहाल गायब है। मोदी सरकार का एक और मजबूत मोर्चा नौकरशाही को चुस्त-दुरुस्त बनाने का है। खुद प्रधानमंत्री ने इस दिशा में पहल करके कई ऐसे कदम उठाए जिनसे अफसरों में यह संदेश गया कि अब किसी भी मामले में उनका ढीला-ढाला रवैया बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। लेकिन इन दोनों बड़ी कामयाबियों के साथ ही सरकार ने कुछ मोर्चों पर बेहद नेगेटिव संदेश भी दिए हैं। बिजनस फ्रेंडली सरकार का तमगा अच्छा है, लेकिन विकास प्रक्रिया को विध्वंसक हो जाने से रोकने वाले ढांचों के प्रति जो उदासीनता इस सरकार ने अब तक दिखाई है, वह आगे चलकर खतरनाक साबित होने वाली है। नैशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) को कार्यकारी संस्था के बजाय सलाहकार संस्था बनाने और पर्यावरण तथा जीव संरक्षण कानूनों को दिखावटी बना देने के प्रयासों का जिक्र इस संदर्भ में किया जा सकता है। अगर पिछली सरकार इन ढांचों का सदुपयोग नहीं कर पाई और जब-तब इनकी चर्चा कुछेक भ्रष्ट अफसरों के कारनामों के लिए भी हुई तो इसका जवाब यह नहीं हो सकता कि नई सरकार इन कानूनों और इन्हें लागू करने वाले ढांचों से ही तौबा कर ले और बिजनेस लॉबीज को छुट्टा खेलने का लाइसेंस दे दे। विकास प्रक्रिया की दिशा देश के पर्यावरण, यहां के जीव-जंतुओं और शक्तिशाली स्वार्थों से टकराने में अक्षम आम लोगों के जीवन को केंद्र में रखकर ही तय होनी चाहिए। मौजूदा सरकार का एक और कमजोर मोर्चा है समाज को तोड़ने की कोशिश में लगे तत्वों का निरंकुश दिखना। प्रधानमंत्री मोदी ने लालकिले की प्राचीर से कहा कि टकराव वाले मुद्दों को हमें दस साल के लिए भूल जाना चाहिए। मगर, खुद को उनके वैचारिक परिवार का सदस्य बताने वाले तत्व इस दौरान लगातार ऐसी बातें करते रहे हैं। सबसे बुरी बात यह कि कभी ऐसा कोई संकेत भी नहीं मिला कि सरकार इन तत्वों पर अंकुश लगाना चाहती है। इनके अलावा सौ दिनों की इस अवधि के नाम कुछ ऐसी बातें भी हैं जिनके गुण-दोष के बारे में अभी से कुछ कहा नहीं जा सकता। जैसे, योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा। आने वाले दिनों में सरकार को ऐसे मसलों से जुड़ी अनिश्चितता को समाप्त करना चाहिए और अपने नकारात्मक पहलुओं को खत्म करने या इन्हें यथासंभव नरम बनाने का प्रयास करना चाहिए।
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सौ दिनों की स्पीड

Sep 04, 2014,

जापान यात्रा के सफल पंखों पर सवार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वदेश में कदम रखते इसके पहले ही देश का शेयर सूचकांक ‘सेंसेक्स’ उनकी अगवानी में ऐतिहासिक उछाल मार रहा था। देश की आर्थिक गतिविधियों का आईना माने जाने वाले इस बाजार ने मोदी से तभी उम्मीदें बांध ली थीं जब वह देश की शीर्ष कुर्सी के लिए अपनी पार्टी के प्रत्याशी घोषित हुए थे- इस सूचकांक ने तब से अब तक करीब सात हजार अंकों की उछाल दर्ज की है। हालांकि इसके 27 हजार की नई ऊंचाई छूने के पीछे बेशक वह आंकड़ा भी बड़ी वजह है जिसमें ढाई वर्षो बाद जीडीपी की विकास दर के 5.7 फीसद तक पहुंचने का जिक्र है। अब यह मंदी से राहत की पहली फुहार है या संयोगवश घटित एक सुखद घटना, इसका पता तो आने वाले वक्त में ही चल पाएगा। लेकिन चुनाव के वक्त दिखा मोदी लहर का खुमार नई सरकार के सौ दिन पूरे होने के बाद भी अभी कायम दिख रहा है। नरेंद्र मोदी की सरकार ने दिल्ली में राज-काज के तिलिस्म को जितने यकीन से भेदा है उसके संकेत अच्छे हैं। खुद मंत्रियों और सांसदों सहित तमाम अफसरशाही पर अनुशासन और शालीन आचरण की लगाम लगाना ऐसा साहसिक कदम था जिससे देश यकीनन संतुष्ट होगा। इन्हीं की बेलगामी से देश ने महाघोटालों के विस्फोट झेले थे- देश की तकदीर का फैसला करने वाले पॉवर कॉरिडोरों में रिश्तेदारों और बिचौलियों की चहल-पहल त्राहि मचा रही थी। ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’, ‘न सोऊंगा न सोने दूंगा’ जैसी कसमें दोहराते हुए मोदी देश से सीधा संवाद करते हुए दिखते हैं और अरसे से भ्रष्टाचार में लिप्त कुशासन की मार की याद करते हुए आम आदमी इंतजार के लिए सहर्ष तैयार दिखता है। मोदी सरकार के पहले संसद सत्र की सफलता यह अफसोसनाक याद दिला रही थी कि पिछले कितने ऐसे ही तमाम सत्रों को हंगामे में डुबो दिया गया था। ब्लैकमनी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी पहल पर संतुष्टि जताई है और दागदार जनप्रतिनिधियों के मामले भी तय समय सीमा में निपटाए जाने के मुद्दे पर भी सरकार गंभीर दिखती है। कांग्रेस पता नहीं आरोप लगा रही है या तारीफ कर रही है कि मोदी सरकार उसके जमाने की तैयारियों को ही अमलीजामा पहना कर वाहवाही लूट रही है। लोकहित के कामकाज किसी एक सरकार या पार्टी के बंधक नहीं होते और सत्ता हस्तांतरण के बावजूद इनकी निरंतरता ही तो लोकतंत्र का सौंदर्य दिखाती है। मनमोहन सिंह की सरकार पर अक्षमता के गंभीर आरोप थे और उनके तमाम मंत्री अपनी स्वतंत्र सरकार चलाते प्रतीत होते थे। मोदी सरकार ने महज सौ दिनों में इस दाग से मुक्ति हासिल कर ली है, भले प्रधानमंत्री पर डिक्टेटर होने के आक्षेप उछल रहे हों। विदेशी मोर्चे पर वैसे यह महीना मोदी के लिए यादगार रहना है। जापान से लौटने के बाद उन्हें पहले चीनी राष्ट्रपति जी झिनपिंग का स्वागत करना है और उसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का मेहमान बनना है।
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सौ दिन का संदेश

Mon, 08 Sep 2014

नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के सौ दिन पूरे कर लिए हैं। हालांकि किसी निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए यह समय बहुत कम है, विशेषकर तब जब मामला एक ऐसे प्रधानमंत्री से जुड़ा हुआ हो जिसे एक बेहद मजबूत और 1825 दिनों के लिए जनादेश मिला हो। बावजूद इसके कुछ निश्चित रुझान, जो सरकार के तौर-तरीके से जुड़े हैं, अब तक सामने आ चुके हैं। कैबिनेट खुद में अभी भी गंभीर रूप से अपूर्ण है, हालांकि कुछ युवा और क्षमतावान मंत्रियों को महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपे गए हैं। प्रधानमंत्री के पास गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर साढ़े बारह वषरें का अनुभव है, जहां उनकी अपनी सीमाओं के साथ ही मजबूत पहलूओं पर भी लोगों का ध्यान केंद्रित हुआ। ऐसा होने पर भी जो बात पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है वह यह कि प्रशासन और पार्टी पर उनका अपना पूरा नियंत्रण है। वह एकमात्र आवाज हैं जिसे सुना जाता है और वही महत्व भी रखती है। निश्चित रूप से यह चीज प्रशासनिक कामकाज में साम्यता रखने के साथ ही उसे मजबूती प्रदान करती है, लेकिन यह सत्ता को अत्यधिक केंद्रीकृत भी बनाती है।
मिनिमम गवर्नमेंट मोदी का ध्येय वाक्य है, लेकिन निश्चित रूप से इसका यह मतलब नहीं है कि ऐसी सरकार एक व्यक्ति विशेष तक केंद्रित होगी। राज्यों में यह मॉडल काम कर सकता है, लेकिन यह देश के जटिल मामलों के संदर्भ में भी उपयोगी साबित होगा, इसमें संदेह है। क्या भारत जैसा देश वास्तव में एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री के हाथों चलाया जा सकता है? क्या कुछ चुने हुए नौकरशाह और टेक्नोक्रेट समूचे राजनीतिक वर्ग को किनारे कर सकते हैं? प्रधानमंत्री ने अभी तक अपना अच्छा-खासा समय विभाजक मामलों से दूरी बनाने में बिताया है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उन्होंने कुछ अन्य लोगों को नुकसान पहुंचाने की छूट दी है। उत्तार प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को भाजपा का मुख्य चुनाव प्रचारक चुनने से उनके इस दावे का खंडन होता है कि वह इस तरह शासन करना चाहते हैं ताकि धु्रवीकरण को बल न मिले। सांप्रदायिक माहौल को हवा देने वाले अपनी पार्टी के कुछ सहयोगियों के भड़काऊ बयानों को लेकर उन्होंने पूरी तरह चुप्पी साधे रखी। इसी तरह उन्होंने कुछ ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में अपने कार्यकर्ताओं के व्यवहार पर भी सख्ती नहीं दिखाई जहां अन्य दलों के मुख्यमंत्रियों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं हुआ। कुछ गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी मोदी सरकार और उनके समर्थकों के व्यवहार और उनके बयानों को लेकर असहज होने की बात कही। हालांकि मोदी सहयोग की नई राजनीतिक संस्कृति की जरूरत की बात कहते हैं, लेकिन लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के दर्जे को लेकर और राज्यपालों के मुद्दे पर वह पक्षपात करने से भी नहीं हिचके।
प्रधानमंत्री ने बार-बार राजनीतिक पैकेजिंग, ब्रांडिंग और मार्केटिंग को लेकर अपनी महारत प्रदर्शित की है। उन्होंने संप्रग सरकार द्वारा शुरू की गई तमाम योजनाओं का श्रेय लेने की कोशिश की। उदाहरण के लिए साफ-सफाई, गंगा को प्रदूषण से मुक्त बनाने की योजना, कौशल विकास, वित्ताीय समावेशन अथवा आधार कार्ड के विस्तार जैसे अनेक कार्यक्रम हैं, जो मुख्य रूप से संप्रग सरकार के समय शुरू किए गए थे। उन्होंने महत्वपूर्ण मेगा परियोजनाओं के प्रति भी अपनी खास दिलचस्पी दिखाई है, जिन पर सबका ध्यान गया, लेकिन हो सकता है कि उनमें से तमाम की देश को तात्कालिक रूप से कोई आवश्यकता न हो। उदाहरण के तौर पर उन्होंने अत्यधिक खर्चीली बुलेट ट्रेन पर ध्यान दिया, लेकिन इसके निर्माण में प्रति किलोमीटर 150 से 200 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। प्रधानमंत्री के मुताबिक उनका विश्वास सर्वसहमति द्वारा शासन का संचालन है। यह एक प्रशंसनीय विचार है, लेकिन इस बारे में यदि प्रमाणों की बात करें तो वे बहुत थोड़े हैं। जिस राष्ट्रीय प्रयास की बात वह कहते हैं उस संदर्भ में उन्हें अभी भी समर्थन अथवा सहयोग पाने के लिए अपने राजनीतिक विरोधियों तक पहुंचना शेष है। संसद में उनकी उपस्थिति भी बहुत कम रही है। मजबूत संसदीय बहुमत को सुधारों को आगे बढ़ाने और संस्थाओं के चरित्र में बदलाव लाने के लिए बहुत अच्छी समझ की जरूरत होती है। पहले से ही न्यायपालिका खतरे में पड़ती प्रतीत हो रही है। प्रधानमंत्री ने अपने सार्वजनिक संवादों और बयानों पर असाधारण नियंत्रण कायम किया है। वह जो कुछ कहना चाहते हैं अथवा संदेश देना चाहते हैं उसे सोशल मीडिया पर अभिव्यक्त करते हैं। अपनी छवि को चमकाने के संदर्भ में उन्होंने काफी ख्याति हासिल की है।
वर्तमान वित्ताीय वर्ष के प्रथम तिमाही में जीडीपी विकास दर में सुधार का श्रेय उन्होंने अपनी सरकार को दिया है। हालांकि गौर करने वाली बात यह है कि इन तीन महीनों के शुरुआती दो माह में वह सत्ता में ही नहीं थे। मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी एकतरफा संवाद की प्रक्रिया अभी भी जारी है। विचार और पुनर्विचार की प्रक्रिया, सलाह लेना और उदात्ता भाव से अपने विचारों को प्रस्तुत करना, जो कि लोकतंत्र की मुख्य विशेषता है, सिरे से गायब दिखती है। 26 मई को प्रधानमंत्री द्वारा अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के शासनाध्यक्षों को आमंत्रित करना एक त्रुटिहीन कदम रहा है। निश्चित रूप से नेपाल, भूटान और जापान की अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने एक अच्छा माहौल कायम किया। यह परस्पर द्विपक्षीय संबंधों के लिए शुभ संकेत है। हालांकि पाकिस्तान को लेकर उनकी नीति और विदेश सचिव स्तर पर होने वाली वार्ता को अचानक ही रद किए जाने के फैसले में तमाम पहेलियां हैं। डब्ल्यूटीओ पर उनके रुख की सराहना के साथ ही आलोचना भी हुई। क्या जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर भी भारत का रुख ऐसा ही रहेगा। चुनाव अभियानों को उन्होंने अपने दम पर संचालित किया और इस पैमाने पर उनकी सरकार के प्रथम सौ दिन अपेक्षाकृत खामोशी से गुजरे हैं। वैसे यह वह समय होता है जो नई सरकार चीजों को समझने और उन्हें अपने हिसाब से ढालने में खपाती है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धमाका करने वाले मोदी ने अपने शासन की शांत शुरुआत की है।
नि:संदेह प्रधानमंत्री मोदी इस अवधि में अपनी अथॉरिटी अथवा सत्ता स्थापित करने में सफल रहे, लेकिन चुनौती यही है कि बिना एकाधिकार ऐसा कैसे किया जाए। मोदी सरकार के पहले सौ दिन समस्याओं के समाधान के प्रति आश्वस्त कम करते हैं, बल्कि परेशान करने वाले सवाल अधिक पैदा करते हैं, लेकिन इसमें संदेह है कि अत्यधिक आत्मविश्वासी प्रधानमंत्री एक क्षण के लिए भी रुककर इन सवालों पर ध्यान देने की जरूरत महसूस करेंगे। यह कहना बड़ी बात नहीं होगी कि उन्होंने निर्णायक और एकाधिकारी नेता की अपनी छवि पर नए सिरे से मुहर लगाई है। उनके तमाम प्रशंसकों का यह विचार हो सकता है कि भारत में डंडा हांकने वाली सरकार की जरूरत है, लेकिन यदि मोदी अपने इसी दृष्टिकोण पर कायम रहते हैं तो संसदीय लोकतंत्र की वे जड़ें कमजोर होंगी जिन्होंने भारत सरीखे विविधता वाले देश को एकजुट रखा है।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]
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नेहरू मॉडल का अंत

Fri, 12 Sep 2014

नरेंद्र मोदी सरकार के सौ दिन पूरे होने पर समूचे देश में टीम मोदी के प्रदर्शन और कामकाज को लेकर बहस छिड़ी हुई है। राजनीति और शासन में सौ दिन कोई बहुत अधिक मायने नहीं रखते। हालांकि सिनेजगत में इसका बहुत अधिक महत्व होता है, विशेषकर दक्षिण भारत में जहां पुराने दिनों में एनटीआर, एमजीआर और राजकुमार की फिल्मों के लिए सौ दिन खास महत्व रखते थे। इनकी फिल्में तभी हिट मानी जाती थीं जब सिनेमाहाल में यह सौ दिन पूरे कर लेती थीं। हालांकि कुछ अलग वजहों से अब यह प्रवृत्तिराजनीति में भी आ गई है और सौ दिन पूरे होने पर मीडिया और जनता ने तमाम सरकारों के कामकाज का आकलन किया है। यह अलग बात है कि यह सरकारें 5 वर्ष के लिए चुनी जाती हैं, जो दिनों की दृष्टि 1825 होते हैं। अब यह एक प्रचलन बन गया है कि सरकारें प्रथम 100 दिन को महत्वपूर्ण मानते हुए अपनी उपलब्धियों को गिनाती हैं। तमाम मीडिया संगठन नई सरकार के प्रति लोगों के मूड अथवा रुख को समझने के लिए ओपीनियन पोल कराते हैं। हमें यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि मोदी ने दिल्ली को सोते हुए से जगाने का काम किया है और सरकार में हर किसी को नया सोचने और कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया है। इस अवधि में उन्होंने तमाम नए बदलाव किए हैं जिससे पता चलता है कि वह शासन के परंपरागत नजरिये अथवा तौर तरीकों के बजाय चीजों को बिल्कुल अलग तरह से देख रहे हैं। इसके मद्देनजर हम कुछ व्यापक निष्कर्ष निकाल सकते हैं। पहली बात यही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकार संचालन के तौर तरीकों अथवा ढंग के कारण अपने समर्थकों और आलोचकों, दोनों को चकित किया है। उनके आलोचक भ्रमित हैं, क्योंकि उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के सभी कामों को सिरे से नकारने के नजरिये का पूर्ण अनुसरण नहीं किया। इसका मतलब यही है शासन के स्थिर और जवाबदेह नजरिये को अपनाया जाएगा, लेकिन बावजूद इसके तमाम बदलाव देखे जा सकते हैं और यह बदलाव तौर तरीकों और वास्तविकता दोनों रूप में हैं। सबसे महत्वपूर्ण बदलाव शासन के असंगत अथवा अप्रासंगिक हो चुके नेहरूवादी दृष्टिकोण को अलविदा कहने के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा तथा विदेश नीति में परिवर्तन को लेकर है। आजादी के बाद किसी भी अन्य प्रधानमंत्री ने इस तरह के प्रश्न नहीं उठाए अथवा आधुनिक भारत के लोगों की उम्मीदों और उनकी जरूरतों के अनुकूल किसी नए मॉडल का प्रस्ताव नहीं दिया। सरकार की अकुशलता का पर्याय बनने के कारण और स्पष्टता के अभाव के चलते मोदी ने नेहरू मॉडल को ठुकराते हुए इसके सबसे बड़े प्रतीक योजना आयोग को खत्म करने की घोषणा की और इसके स्थान पर एक ऐसी संस्था को लाने अथवा गठित करने की बात कही जो आज भारत को वैश्रि्वक अर्थव्यवस्था में नई ऊंचाई देने की दिशा में सोच-विचार कर सके और योजनाओं को मूर्त रूप दे सके। योजना आयोग मौजूदा स्वरूप में सफेद हाथी बन चुका था, जिस पर प्रतिवर्ष 500 करोड़ रुपये से अधिक खर्च हो रहा था, लेकिन परिणाम के तौर पर इसका योगदान बहुत थोड़ा था। यह संस्थान थके हुए और सेवानिवृत्ता नौकरशाहों को खपाने की जगह बन गया था और यह केवल राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान के लिए काम करता था। यह उन नौकरशाहों को बेहतर घर, सुविधाएं और उच्च वेतन प्रदान करता था जो अपने सेवाकाल में नेहरू-गांधी परिवार का ख्याल रखते थे। इस प्रकार योजना आयोग इस परिवार के राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने का काम करता था, लेकिन भारत के लिए इसका योगदान बहुत कम था। केवल मोदी जैसा एक मजबूत नेता ही ऐसी संस्था को बंद करने का निर्णय ले सकता था। पहले सौ दिनों में दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव बिना किसी पूर्व तैयारी के सहज रूप में प्रधानमंत्री का जनता से सीधे संवाद स्थापित करना है। यहां तक कि स्वाधीनता दिवस के दिन भी उन्होंने ऐसा करते हुए अलिखित भाषण दिया। वह देश के पहले प्रधानमंत्री हैं जो विदेशी दौरों पर भी अलिखित भाषण पढ़ते हैं। नेपाली संसद और भूटान में भी उन्होंने ऐसे ही धाराप्रवाह भाषण दिए तथा हाल ही में जापान की यात्रा के दौरान भी उन्होंने ऐसा ही किया, जहां उनका जोरदार स्वागत किया गया। एक नया बदलाव यह भी है कि अब जनता को लग रहा है कि सरकार काम कर रही है और नीतिगत पंगुता का युग बीत चुका है। बुनियादी ढांचे के साथ ही ऊर्जा और सड़क क्षेत्र के विकास पर विशेष जोर दिया जा रहा है। केंद्र सरकार ने तमाम कदम उठाए हैं जिनके प्रभाव प्रथम सौ दिनों में ही दिखने लगे हैं। इनमें जन-धन योजना भी एक है, जिसके तहत प्रत्येक गरीब परिवार को खाता खुलवाने पर एक लाख रुपये की बीमा सुरक्षा का प्रावधान है। सामाजिक क्षेत्र में यह एक बड़ी पहल है और इसकी अत्यधिक लोकप्रियता के चलते अब तक तकरीबन 2 करोड़ खाते खुल चुके हैं। इसके अतिरिक्त स्वच्छ ग्राम योजना और देश के प्रत्येक स्कूल में शौचालय निर्माण का काम महत्वपूर्ण है। इसके लिए प्रधानमंत्री ने एक वर्ष का समय निर्धारित किया है। इससे बालिकाओं को स्कूल छोड़ने के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा। इसी तरह मोदी ने 100 स्मार्ट सिटी की योजना बनाई है और हालिया जापान दौरे में भी इसे लेकर वहां के लोगों का उन पर ध्यान आकर्षित हुआ। इसके साथ ही क्योटो की तर्ज पर वाराणसी के विकास के समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इनका सकारात्मक असर हुआ और अप्रैल-जून तिमाही में जीडीपी विकास दर 5.7 प्रतिशत रही तथा चालू खाते के घाटे में उल्लेखनीय गिरावट आई है। पहली बार ऐसा हुआ है जब प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों के लिए लक्ष्य निर्धारित किए हैं। नेताओं के मंत्री बनने के बाद ऐसा कभी नहीं होता था। प्रधानमंत्री ने दंडात्मक प्रावधान करते हुए परिणाम पर ध्यान दिया है। उनसे लोगों को एक बड़ी उम्मीद है कि वह सरकारी कामकाज को कुशल बनाएंगे तथा भ्रष्टाचार को दूर करेंगे। उनका यह बयान काफी प्रसिद्ध है कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा। इसके अलावा उन्होंने खुद स्वीकार किया है कि वह एक कठोर टॉस्क मास्टर हैं। वह सभी से अपेक्षा करते हैं कि 9 बजे सुबह से ही ऑफिसों में काम शुरू हो जाए और जब तक काम खत्म न हो घर न जाएं। मंत्री और विभिन्न विभागों के सचिव भी रात के 9 बजे तक काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय ने सभी मंत्रालयों से उपलब्धि का ब्यौरा देने को कहा है। मंत्रियों पर काम का दबाव साफ नजर आ रहा है। यही कारण है कि एक केंद्रीय मंत्री को यह कहते सुना गया कि नया मोदी मंत्र है न सोऊंगा और न सोने दूंगा। यदि ऐसा है तो कुछ भी गलत नहीं है, क्योंकि अच्छे दिन आने वाले हैं।
[लेखक ए. सूर्यप्रकाश, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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बदलाव की बुनियाद

Sun, 14 Sep 2014

संप्रग शासन के दूसरे कार्यकाल में उसकी निष्क्रियता-नाकामी से उपजी निराशा से त्रस्त देश में मोदी सरकार के पहले सौ दिन नई आशा का संचार करने वाले हैं। यह इसी निराशा का नतीजा था कि आम चुनाव के पहले से देश ने नरेंद्र मोदी से भारी अपेक्षाएं पाल ली थीं। मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल की जैसी शुरुआत की है उससे यह भरोसा मजबूत हुआ है कि निराशा के बादल पूरी तरह दूर होंगे और शासन में सुधार एवं बदलाव की नई राहें निकलेंगी। सुस्त और निष्क्रिय पड़ी नौकरशाही को चुस्त-दुरुस्त करने के साथ शासन के कामकाज के नए तौर-तरीके स्थापित कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बदलाव की पहली आधारशिला तैयार कर ली है। जो नौकरशाही सब चलता है वाली मानसिकता से काम कर रही थी वह अपने काम और लक्ष्य के प्रति अब कहीं सजग दिख रही है। प्रशासनिक तंत्र में आए इस बदलाव के बाद विकास का पहिया फिर से घूमने लगा है। मोदी सरकार ने अपने पहले सौ दिनों में ऐसी कोई घोषणा नहीं की है जिसका मकसद केवल लोकप्रियता बटोरना हो, लेकिन ऐसा बहुत कुछ किया है जिससे ठोस बदलाव की राह खुलती हो। नई सरकार का एक ऐसा ही काम लंबित परियोजनाओं को नए सिरे से आगे बढ़ाना है।
अपेक्षा के मुताबिक कांग्रेस ने मोदी सरकार के अब तक के कामकाज की आलोचना करते हुए यह व्यंग्य किया कि इस सरकार के पास कोई नए विचार नहीं हैं और वह केवल संप्रग सरकार के कार्यक्रमों की नकल कर रही है। विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस को सत्तापक्ष की आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन उसकी ओर से जैसी आलोचना की जा रही है उससे यह साफ पता चलता है कि वह अपनी खीझ उतार रही है। उसे संभवत: यह रास नहीं आ रहा कि मोदी सरकार किस तरह एक स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ निश्चित दिशा में आगे बढ़ रही है। देश यह भूला नहीं है कि संप्रग सरकार के समय नीतिगत निष्क्रियता, भ्रष्टाचार, योजनाओं के क्रियान्वयन में सुस्ती के कारण देश की साख किस तरह प्रभावित हुई? मनमोहन सरकार के ढीले रवैये के कारण देश-दुनिया के निवेशकों ने भारत से दूरी बनानी शुरू कर दी थी। आर्थिक बदहाली ने देश में निराशा का जो वातावरण पैदा किया उसी में देशवासियों को मोदी के रूप में नई उम्मीद दिखी।
मोदी ने सत्ता में आने के बाद सबसे पहला काम आर्थिक तौर पर राह भटक चुके देश को सही रास्ते पर लाने का किया है। पहले सौ दिनों में मोदी ने पड़ोसी देशों के साथ-साथ विश्व की विकसित अर्थव्यवस्थाओं को सही संदेश देने की कोशिश की है। उनकी भूटान और नेपाल यात्रा जहां कूटनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहीं तो जापान का दौरा आर्थिक लिहाज से उल्लेखनीय रहा। चंद दिनों बाद चीन के राष्ट्रपति भारत के दौरे पर होंगे और इस दौरान दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग की नई इबारत लिखे जाने की उम्मीद है। कुछ ही दिनों में मोदी को अमेरिका का भी दौरा करना है। वहां उनका बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है। इस दौरे पर पूरी दुनिया की भी निगाहें होंगी। उम्मीद है कि मोदी की इस यात्रा में कई ऐसे समझौते हो सकेंगे जो देश में आर्थिक माहौल को और बेहतर बनाएंगे। मोदी जानते हैं कि भारत को अगर आगे बढ़ना है तो विदेशी पूंजी निवेश आवश्यक है। उनकी सरकार ने रेलवे में सौ फीसद विदेशी निवेश को मंजूरी दी है और रक्षा क्षेत्र में भी उसकी सीमा बढ़ाई गई है। ये दोनों फैसले बेहद महत्वपूर्ण हैं। रेलवे की बदहाली किसी से छिपी नहीं। उसके आधुनिकीकरण के लिए बड़े पैमाने पर धन की आवश्यकता है और यह काम केवल घरेलू पूंजी के सहारे नहीं किया जा सकता। रक्षा क्षेत्र में भी भारत को विदेशी पूंजी की आवश्यकता है, क्योंकि हथियारों के आयात समेत अन्य जरूरतों का बोझ बढ़ता ही जा रहा है।
मोदी सरकार ने अपना पूरा ध्यान जिस तरह बुनियादी ढांचे के विकास पर केंद्रित किया है उसका विशेष महत्व है। भले ही नई सरकार के पहले सौ दिनों में बुनियादी ढांचे से संबंधित किसी बड़ी परियोजना की घोषणा न हुई हो, लेकिन जिस तरह परियोजना निगरानी समूह में नई जान फूंकी गई और पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी के अभाव में अटकी परियोजनाओं को गति देने की पहल की गई उससे सरकार के इस दृष्टिकोण का पता चलता है कि लंबित परियोजनाओं में तेजी लाकर ही विकास की रफ्तार बढ़ाई जा सकती है। सड़क, जहाजरानी और ऊर्जा से संबंधित परियोजनाओं में तेजी लाने मात्र से अर्थव्यवस्था की तस्वीर बदली हुई दिखाई दे रही है। मोदी ने यह भी सुनिश्चित किया है कि आधारभूत ढांचे के विकास से संबंधित मंत्रालयों में तालमेल रहे। इसके सार्थक नतीजे नजर आने लगे हैं। अनेक ऐसी परियोजनाओं में नए सिरे से काम आरंभ हुआ है जो पिछले शासन में पर्यावरण मंजूरी न मिलने के कारण ठप हो गई थीं। सौ दिनों में ही लंबित परियोजनाओं में तेजी लाने के साथ ही मोदी सरकार ने अपना ध्यान बुनियादी ढांचे से संबंधित नई परियोजनाओं पर लगाया है। भूतल परिवहन और ग्रामीण विकास मंत्रालय संभालने वाले नितिन गडकरी की यह घोषणा अर्थव्यवस्था में नए उत्साह का संचार करने वाली है कि इस वर्ष दो लाख करोड़ रुपये की राजमार्ग निर्माण परियोजनाएं शुरू की जाएंगी।
संप्रग सरकार की नाकामी की सबसे बड़ी वजह शासन के दो केंद्र बन जाना थी। इसके चलते न केवल सरकार का कामकाज पंगु हुआ, बल्कि प्रधानमंत्री पद की गरिमा भी गिरी। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से कम से कम इतना तो हुआ ही है कि इस पद की गरिमा और महत्व फिर से बहाल हुआ है। यह भी एक कारण है कि देश में नए सिरे से सकारात्मक माहौल का निर्माण हो रहा है। कांग्रेस के नेता इससे भलीभांति परिचित हैं कि मनमोहन सिंह के समय प्रधानमंत्री पद की क्या स्थिति रह गई थी और मोदी के इस पद पर होने का क्या मतलब है, लेकिन वे अपनी झेंप मिटाने के लिए यह दलील दे रहे हैं कि राजग सरकार में नेतृत्व एकाधिकार के स्तर पर पहुंच गया है। परोक्ष रूप से यह बताने की कोशिश की जा रही है कि मोदी अपने रवैये के कारण किसी मंत्री की कोई बात नहीं सुनते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि मोदी खुद को एक कुशल प्रशासक साबित कर चुके हैं और यह अच्छी तरह जानते हैं कि मंत्रियों से किस तरह काम लेना है? हो सकता है कि कांग्रेस के नेताओं को मोदी के कामकाज में खामी इसलिए नजर आ रही हो, क्योंकि उनके यहां गांधी परिवार के इतर किसी व्यक्ति को शक्तिशाली भूमिका में देखा ही नहीं जाता। खुद मनमोहन सिंह इसीलिए वह साख और अधिकार प्राप्त नहीं कर सके जो एक प्रधानमंत्री के लिए आवश्यक होते हैं। आज देश की जैसी स्थिति है उसमें यह आवश्यक है कि शासन की बागडोर एक कुशल प्रशासक के हाथों में हो। इससे असहमत होना कठिन है कि फिलहाल मोदी इस भूमिका को बखूबी निभा रहे हैं।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]
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पर्यावरण और सरकार

जनसत्ता 11 सितंबर, 2014: मोदी सरकार के सौ दिनों के कामकाज के आकलन में जहां आर्थिक वृद्धि दर में बढ़ोतरी और विदेश नीति के मोर्चे पर सक्रियता लक्षित की गई, वहीं पर्यावरण की उपेक्षा के आरोप भी लगे हैं। यह आलोचना निराधार नहीं है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण पश्चिमी घाट को लेकर पर्यावरण मंत्रालय का रवैया है। पश्चिमी घाट के पर्यावरणीय अध्ययन के लिए यूपीए सरकार के कार्यकाल में वैज्ञानिक माधव गाडगिल की अध्यक्षता में समिति गठित हुई थी। समिति ने अगस्त 2011 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। लेकिन वैज्ञानिक तरीके से किए गए इस अध्ययन की रिपोर्ट पहले यूपीए सरकार को रास नहीं आई और अब मोदी सरकार ने उससे पूरी तरह किनारा कर लिया है। उसने राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण को दिए हलफनामे में साफ कहा है कि पर्यावरण मंत्रालय के लिए यह रिपोर्ट विचारणीय नहीं है। इस रिपोर्ट पर पानी फेरने के लिए एक और समिति कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में गठित की गई थी, जिसकी सिफारिशें अपेक्षया नरम हैं। कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट पर मंत्रालय ने गौर करने की बात तो कही है, पर इसे लेकर भी उसका रुख साफ नहीं है। अपने ढुलमुल रुख के कारण उसे न्यायाधिकरण की खरी-खोटी सुननी पड़ी है। पश्चिमी घाट के पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं के मामले में स्वयंसेवी संगठन गोवा फाउंडेशन ऐंड पीसफुल सोसायटी की याचिका पर सुनवाई करते हुए हरित पंचाट ने कहा कि मंत्रालय का हलफनामा अस्पष्ट है, साथ ही उसने मंत्रालय को एक हफ्ते के भीतर नया शपथपत्र पेश करने का निर्देश दिया है। अस्पष्टता के अलावा मंत्रालय ने उन छह राज्यों की मर्जी की भी आड़ ली है, जिनके दायरे में पश्चिमी घाट की पहाड़ियां फैली हुई हैं। इन राज्यों को केंद्र ने पर्यावरण की दृष्टि से अधिक संवेदनशील क्षेत्र चिह्नित करने की छूट दे दी है। ऐसे में न गाडगिल समिति की रिपोर्ट का कोई मतलब रह जाता है न कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट का। संबंधित राज्य सरकारें भले अलग-अलग पार्टी की हों, पर्यावरण संरक्षण को लेकर उनकी बेरुखी एक जैसी है। वे क्या चाहती हैं यह किसी से छिपा नहीं है। जब पश्चिमी घाट को यूनेस्को ने विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया, तो इन राज्य सरकारों ने गौरव और जिम्मेदारी महसूस करने के बजाय झुंझलाहट जाहिर की थी। दरअसल, पश्चिमी घाट की कुदरती संपदा के दोहन को जारी रखने में बिल्डरों और खनन माफिया से लेकर नौकरशाहों और राजनीतिकों की भी दिलचस्पी रही है। ये निहित स्वार्थ कतई नहीं चाहते कि पश्चिमी घाट को पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र माना जाए। इसलिए वे गाडगिल समिति की रिपोर्ट के खिलाफ लामबंद हो गए। पर्यावरण मंत्रालय के रुख से निहित स्वार्थों के इस गठजोड़ का हौसला और बढ़ा है। पश्चिमी घाट जैव विविधता का विरल भंडार है, अनेक नदियों और झीलों का स्रोत भी। पेड़-पौधों और वन्यजीवों की कई दुर्लभ प्रजातियां वहां पाई जाती हैं। पर इसके घने वनक्षेत्र व्यावसायिक शोषण के चलते सिकुड़ते गए हैं। कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट के मुताबिक पश्चिमी घाट का पारिस्थितिकी की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र 1.29 लाख वर्ग किलोमीटर से घट कर छप्पन हजार आठ सौ पच्चीस वर्ग किलोमीटर रह गया है। गाडगिल समिति ने ऐसे इलाके में खनन पर पूरी तरह रोक लगाने की सिफारिश की थी। लेकिन ऐसा लगता है कि पर्यावरण मंत्रालय और संबंधित राज्य सरकारों को पश्चिमी घाट के पर्यावरण से ज्यादा कारोबारी हितों की फिक्र है। केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और पर्यावरण रक्षा कानून, 1986 की समीक्षा के लिए समिति भी गठित कर दी है, जो इस बात का संकेत है कि इन कानूनों को कमजोर करने की कवायद चल रही है। विचित्र है कि पर्यावरण मंत्रालय को उसी चीज की फिक्र नहीं है जिसके लिए उसका गठन हुआ है।
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मजबूत नेतृत्व का असर

Sat, 13 Sep 2014

आम जनता की अपेक्षाओं के लिहाज से मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल पर निगाह डाल रहे हैं गुरचरण दास
भारत के लोगों ने नरेंद्र मोदी का चुनाव बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन करने, बेहतर शासन देने और महंगाई पर लगाम लगाने के लिए किया। अभी यह कहना बहुत जल्दबाजी होगी कि वह इन तीनों ही वादों को पूरा कर सकेंगे। उनके कार्यकाल के शुरुआती तीन-साढ़े तीन माह यही दर्शाते हैं कि वह किस तरह इन लक्ष्यों को पूरा करना चाहते हैं। लोगों की अपेक्षाओं को देखते हुए सरकार को बहुत सजग रहना होगा। आज की तिथि तक मोदी का उल्लेखनीय योगदान यही है कि सरकार में सभी स्तरों पर कार्यो के निपटारे में चमत्कारिक सुधार आया है। कांग्रेस शिकायत कर रही है कि मोदी सरकार के पास नए विचारों का अभाव है और वह संप्रग सरकार के विचारों की नकल कर रही है। हालांकि सच्चाई यही है कि विचार किसी के भी पास हो सकते हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन कुछ लोग ही कर सकते हैं। जो लोग मोदी सरकार द्वारा बड़े सुधार न किए जाने से निराश हैं वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि भारत की सबसे बड़ी समस्या विचारों, नीतियों और कानूनों का अभाव नहीं, बल्कि इनका खराब क्रियान्वयन है। क्रियान्वयन में कमजोरी ही वह मुख्य कारण जिससे भारत की विकास दर पिछले तीन वर्षो में गिरती गई। पहले दिन से ही मोदी ने अपेक्षाओं को काफी ऊंचा रखा। उन्होंने सुरक्षित रास्ते का अनुसरण करने से इन्कार किया और इस वर्ष के लिए राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण पाने का ऊंचा लक्ष्य तय किया और कहा कि वह इसे हासिल कर सकते हैं। वह निर्धारित लक्ष्य हासिल कर पाएंगे, इसमें संदेह है, लेकिन उद्देश्य को लेकर एक नई सोच आई है तथा केंद्र समेत तमाम राज्यों और यहां तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के रुख में स्पष्ट बदलाव परिलक्षित होने लगा है। इसका प्रमाण प्रोजेक्ट मॉनिटरिंग ग्रुप अथवा परियोजना निगरानी समूह के गठन से लगाया जा सकता है, जो सैकड़ों की संख्या में रुकी पड़ी परियोजनाओं के अवरोधों को हटाने का प्रयास करेगा। इससे केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकारी, राज्य सरकारें और बिजनेस वर्ग भी काफी उत्साहित है। हालांकि इसका गठन पहले ही हो गया था, लेकिन इस समूह को ऊर्जा तब मिली जब मोदी सत्ता में आए। ऐसी रिपोर्ट हैं कि पिछली सरकार में जो अधिकारी परियोजनाओं को रोकने में बाधक बन रहे थे और उदासीन रवैया अपनाए हुए थे अब वही अधिकारी जोशपूर्वक इन्हें आगे बढ़ा रहे हैं और लंबित परियोजनाओं को स्वीकृति दे रहे हैं। अब चुनौतियां और बाधाएं खत्म हो रही हैं। एक समय इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं वर्षो तक रुकी रहने के कारण उद्यमी दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गए थे और बैंकों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ता था। स्थिति कुछ ऐसी थी कि पर्यावरण मंत्रालय से मंजूरी मिलने के बाद भी बैंक वित्तीय मदद देने से इन्कार कर देते थे। नए भूमि अधिग्रहण कानून ने भी तमाम मुश्किलों को खड़ा करने का काम किया। तमाम राज्यों ने जानकारी दी कि नया कानून अस्तित्व में आने के बाद सभी तरह की भूमि की खरीद-बिक्री का काम बुरी तरह प्रभावित हुआ है। जब आप सैकड़ों की संख्या में रुकी परियोजनाओं के संदर्भ में इस समस्या का आकलन करते हैं तो आप सोचने को विवश होंगे और संप्रग सरकार की घटिया विरासत को लेकर देश की दुर्दशा पर रोएंगे या दुखी होंगे। इस मामले में हमें एक नई सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करने वाली मोदी सरकार को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने हाथ खड़े करने के बजाय अधिकारियों को उत्तर खोजने के लिए प्रेरित किया और नतीजा यह हुआ कि सब कुछ चलता है की प्रवृत्ति वाले नौकरशाह अब उल्लेखनीय काम कर रहे हैं। मोदी द्वारा हाथ में ली गईं महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने की दिशा में एकल खिड़की का प्रावधान बड़ा बदलाव लाने में सहायक होगा। भारत में कोई उद्योग शुरू करने के लिए तकरीबन 60 क्लीयरेंस लेने की जरूरत पड़ती है, इनमें से 25 केंद्र के स्तर पर और 35 राज्य स्तर पर होती हैं, लेकिन डिजिटलीकरण के बाद यह सारे काम एक ही परियोजना निगरानी समूह द्वारा संभव होंगे। पूर्ण डिजिटलीकरण के बाद उद्यमी इसके लिए ऑनलाइन आवेदन कर सकेंगे और अपने काम की प्रगति की जानकारी इंटरनेट पर देख सकेंगे। इससे यह भी पता चलेगा कि कौन अधिकारी फाइलों को रोक रहा है। इस तरह उद्यमियों के लिए एकल खिड़की का सपना साकार हो सकेगा। तीव्र क्रियान्वयन से रोजगार सृजन भी तेज होगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में नियुक्तियों में 20 फीसद की बढ़ोतरी हुई है जो पिछले पांच वर्षो में बेहतरीन प्रदर्शन है। मोदी भाग्यशाली रहे कि अप्रैल से जून तिमाही में जीडीपी विकास दर बेहतर रही। यह अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी और उच्च विकास को दर्शाती है। स्पष्ट है कि रोजगार का अधिक सृजन होगा। मोदी को तेज क्रियान्वयन के खतरे के प्रति भी सजग रहना होगा। जन-धन योजना एक बेहतरीन कार्यक्रम है, जिससे सभी भारतीयों को बैंक खाते की सुविधा मिलेगी और निर्धन वर्ग से संबंधित योजनाओं के लिए नकदी हस्तांतरण के माध्यम से बड़ी मात्रा में सरकारी धन की बचत होगी। हालांकि यह योजना बैंकों पर अत्यधिक निर्भर है, जो गरीबों का खाता खोलने के लिए बहुत इच्छुक नहीं हैं। बैंक तभी रुचि लेंगे जब सब्सिडी की वर्तमान व्यवस्था को खत्म किया जाए और धन का प्रवाह गरीबों के लिए खुले इन खातों में किया जाए। इसमें समय लगेगा। जहां तक मोदी की ओर से शासन में सुधार, क्लीयरेंस में पारदर्शिता के माध्यम से जवाबदेही के वादे की बात है तो निश्चित रूप से इससे लालफीताशाही खत्म होगी। सिंगापुर, अमेरिका जैसे तमाम देशों में बिजनेस शुरू करने में 3 से 5 दिन लगता है, जबकि भारत में 75 से 90 दिन। इसी कारण बिजनेस रैंकिंग रिपोर्ट में भारत का स्थान 134वां है। तीसरा मुद्दा महंगाई पर नियंत्रण का है। मोदी सरकार अतिरिक्त पड़े भंडारों से खाद्यान्नों को बेच रही है जिससे इनके दाम गिरे हैं, लेकिन यदि आयात शुल्क घटाए जाते हैं और महत्वपूर्ण खाद्यान्नों व सब्जियों आदि पर से गैर टैरिफ बाधाओं को खत्म किया जाता है तो वह इस तीसरे लक्ष्य को भी हासिल कर सकेंगे। पेट्रोलियम पदार्थो के दाम कम हुए हैं और मानसून का बहुत खराब न रहना मोदी के लिए लाभदायक है। यदि वह सरकारी खर्चो में कटौती कर सके तो महंगाई और कम होगी। ध्यान रहे संप्रग सरकार में सरकारी खर्च महंगाई बढ़ने की एक मुख्य वजह थी। मोदी कार्यकाल के तीन महीने बताते हैं कि कैसे एक प्रभावी नेतृत्व बेहतर क्रियान्वयन के माध्यम से सरकार की क्षमता को बढ़ा देता है। कम महंगाई के साथ उच्च विकास को बनाए रखने के लिए मोदी को दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों पर अमल करना होगा। भ्रष्टाचार पर प्रहार करने और बेहतर शासन के लिए उन्हें नौकरशाही, पुलिस और न्यायपालिका में सुधार करना होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात, मोदी को केसरिया ब्रिगेड पर नियंत्रण करना होगा, जो उनके तीन वादों को पूरा करने में अनावश्यक अड़चन पैदा कर सकती है।
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मोदी के पचास दिन

16, JUL, 2014, WEDNESDAY

कुलदीप नैय्यर

अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन के पहले पचास दिन से कोई संकेत मिलता है तो वह यही है कि एक दक्षिणपंथी सरकार ने भारत को अपने कब्जे में ले लिया है। नेहरूवादी विचारधारा, जो वामपंथ की ओर झुकी थी, को छोड़ दिया गया है। एक बार फिर मुक्त उद्यम और बेरोकटोक व्यापार लोगों को प्रेरित करेगा। यह उस विचारधारा से घूम जाना है जिसने अब तक राष्ट्र का मार्गदर्शन किया है। सरकारी कंपनियां अब सिकुड़ेंगी और अमीर लोग अपने प्रभाव तथा कार्य क्षेत्र को फैलाएंगे। मुक्त अर्थव्यवस्था का तार्किक परिणाम यही है। यह कहना मुश्किल है कि मोदी योजना से बाहर वाले उद्योग पर पाबंदियां कितना कम करेंगे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि अमीर और शक्तिशाली शासन करेंगे। यह पक्का है कि कमजोर लोगों को पीछे धकेल दिया जाएगा क्योंकि पंूजीवादी व्यवस्था अपनी प्रगति का कोई दूसरा रास्ता नहीं जानती। लेकिन मोदी को मौजूदा व्यवस्था से सहारा पाने वाले लोगों के विरोध के लिए तैयार रहना होगा। इस विरोध का स्वरूप वामपंथी है।  लेकिन मोदी ने अब तक जो कार्यक्रम पेश किए हैं उसमें कुछ भी आगे की ओर ले जानेवाला नहीं है। उनके चुनाव अभियान ने इतने ज्यादा वायदे किए हैं और लोगों की आकांक्षाएं इस हद तक जगा दी हैं कि उनका बजट उन बदलावों को लाने में कम दिखाई देता है जो आगे बढऩे के लिए जरूरी हैं। अब तक मोदी के शासन में कोई वैसा कदम नहीं उठाया गया है जो विकासहीनता के उस चक्र से बाहर खींच सके जिसमें भारत फंसा है। इसके लिए आवश्यक जोर का अभाव साफ दिखाई देता है। इस जोर का अभाव का और भी स्पष्ट दिखाई देता है जब गरीबी में कोई कमी नहीं हो रही हो। रिजर्व बैंक आफ इंडिया के पूर्व गर्वनर रंगराजन की कुछ दिनों पहले आई रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में हर दस आदमी में तीन गरीबी रेखा के नीचे है। यह उससे ज्यादा है जो हमने अगस्त 1947 में ब्रिटिशों से विरासत के रूप में पाई थी। यह देखकर निराशा होती है कि मोदी सरकार ने मुद्रास्फीति कम करने के लिए कोई ठोस ओर तत्काल कदम नहीं उठाए हैं। लंबे समय तक कांग्रेस सरकार के बिना शासन वाले दिन देखने के बाद मुझे लगा था कि भाजपा दम घुटती हुई अर्थव्यवस्था के आ•ाादी के साथ प्रगति करने के लिए कानूनी और अन्य कदम उठाएगी। लेकिन बजट ने हमें यह नहीं बताया है कि यह कैसे और कब होगा।  बल्कि, सरकार वैसे कदमों को उठाने के मामले में इतना कमजोर दिखाई दे रही है जो जोखिम वाले माने जाते हैं। जब भाजपा को लोकसभा में खुद का बहुमत हासिल है, फिर भी इसके इस तरह ठिठकने वाली प्रवृति के पीछे के कारण का अंदाजा लगाना कठिन है। चुनाव अभियान के दौरान मोदी ने तेज विकास को सुनिश्चित करने के लिए लाल फीताशाही पर रोक लगाने का वायदा किया था। लेकिन जब सक्रिय होने की बात आती है तो सरकार की ओर भले ही आलस न हो, हिचकिचाहट जरूर दिखाई देती है।  भाजपा को समझना चाहिए कि विकास पार्टी के संकीर्णतावादी छवि को मिटा सकता है। एक ऐसे माहौल में जहां विकास धीमा हो लोग अनेकतावादी समाज की गैर-मौजूदगी ज्यादा महसूस करते हैं। संतोष की एक ही बात है कि भाजपा ने अपने सांप्रदायिक एजेंडा पर जोर नहीं दिया है। लेकिन किसे पता है कि मोदी सरकार लोगों को बेपरवाह बना कर उन्हें बांटने की नीति पर वापस आ जाएगी।   वास्तव में ऐसा लगता है मानो मोदी यह दिखाना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने की अपनी विचारधारा बदल ली है। उनकी पार्टी हर समय सेकुलरिज्म की बात करती है जैसे हिंदू राज्य और अनेकतावादी समाज में कोई आपसी विरोध ही नहीं हो। सच है यह आरएसएस की विचारधारा है कि वे सभी लोग जिन्होंने भारत में जन्म लिया है वे हिंदू हैं चाहे जो कोई भी उनकी आस्था हो। लेकिन भाजपा ने आरएसएस से दूरी बनाए रखी है क्योंकि इसे कट्टर विचारों की वकालत करने वाला समझा जाता है। वास्तव में आरएसएस के लोग भाजपा में शामिल हो रहे हैं ताकि वे इसकी अपेक्षाकृत बेहतर छवि का फायदा उठा सकें। कुछ दिनों पहले जब वे श्रीनगर गए तो मोदी अपनी सीमा में ही रहे। उन्होंने यह नहीं कहा कि राज्य भारत का अभिन्न अंग है, जैसा कि वे पहले कहते थे। उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मानवतावाद को जारी रखेंगे। यहां तक कि उनकी यात्रा के दिन श्रीनगर में रखी गई हड़ताल भी उन्हें अलग तरीके की प्रतिक्रिया के लिए नहीं उकसा पाई। शायद, उन्होंने यह सोचा कि उन्होंने पदग्रहण के कुछ दिनों के भीतर ही कश्मीर की यात्रा के जरिए चारों ओर संदेश दे दिया है। उनकी छवि ही मोदी की समस्या है। वे उस देश में मुस्लिम विरोधी माने जाते हैं जहां 18 करोड़ मुसलमान हैं। निश्चित तौर पर वे असुरक्षित महसूस करते हैं। वे अभी भी गुजरात के 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों में उनकी लापरवाही को याद करते हैं। हालांकि राज्य के हाईकोर्ट की देखरेख वाली स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) ने उन्हें क्लीन-चिट दी है लेकिन पक्षपात का लेबल उनके साथ चिपका हुआ है। प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें मुसलमानों का विश्वास जीतने के लिए हद से आगे बढ़कर कोशिश करनी चाहिए। सार्क देशों-जिसमें तीन मुस्लिम हैं-को साथ लेने की उनका रुख एक सही दिशा में उठाया गया कदम है। मैं शासन में कोई दिखाई देने वाला गलत कदम नहीं देखता हूं।  चुनाव एक कठिन अनुभव है जिसमें सबसे बड़े राजनीतिक दल या लोकप्रिय नेताओं को भी असफलता के कठोर सच के साथ तालमेल बिठाने में समय लगता है। कांग्रेस 543 सदस्यों वाली लोकसभा में 44 सदस्यों के एक छोटे समूह में सिकुड़ गई है। यह समय इस विश्लेषण का है कि कहां चूक हुई है। लेकिन कांग्रेस के बयानों से लापरवाही की झलक दिखाई देती है। विपक्ष के नेता के पद के लिए कांग्रेस नेताओं का जोर देना बेमतलब है। जब पार्टी को इसके लिए जरूरी संख्या-लोकसभा की संख्या का दसवां हिस्सा-नहीं मिला है तो उसे यह हार स्वीकार कर लेनी चाहिए और सच का सामना करना चाहिए। ऐसा पहले भी हुआ है जब तेलुगुदेशम पार्टी कुछ साल पहले सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद विपक्ष के नेता पद का दर्जा हासिल नही कर पाई थी। मैं कांग्रेस पार्टी के तर्क को समझ सकता हूं लेकिन पार्टी को इसे बड़ा मुद्दा नहीं बनाना चाहिए, बल्कि इसे यहीं छोड़ देना चाहिए।  मतदाता जिन्होंने भाजपा को जिताया है मोदी के आश्वासनों को लागू होते देखना चाहता है। लेकिन ये शासन के शुरू के दिन हैं। हम लोगों को उनके कामकाज को परखने के लिए थोड़े से 50 दिनों का इंतजार करना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपने और अपने मंत्रियों के लिए यही लक्ष्य तय किया है।





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