Monday 27 October 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दिवाली पर कश्मीर यात्रा




कश्मीर के लिए

24-10-14

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दिवाली पर कश्मीर यात्रा मानवीय नजरिये से और राजनीतिक निहितार्थो के नजरिये से भी महत्वपूर्ण थी। घाटी से आने वाली प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि नरेंद्र मोदी का कश्मीर पहुंचना भयानक बाढ़ के असर से जूझते हुए लोगों के दर्द पर कुछ मरहम लगाने में कामयाब रहा। मौजूदा राज्य सरकार कश्मीर में अलोकप्रिय हो गई है और लोगों को यकीन नहीं है कि वह प्रभावशाली ढंग से राहत का काम कर सकती है। बाढ़ के दौरान सरकार जैसे नदारद हो गई थी, उससे यह यकीन और पुख्ता होता है। मोदी के पहुंचने से यह उम्मीद जगी है कि कम से कम केंद्र सरकार कुछ ठोस राहत कार्य कर सकती है। मोदी ने लोगों के उजड़े हुए मकान फिर से बनाने के लिए जो 570 करोड़ रुपये की राहत राशि की घोषणा की है, वह राज्य सरकार के जरिये नहीं, सीधे पीड़ितों के बैंक खाते में जमा हो जाएगी। इससे मोदी ने यह राजनीतिक संदेश दिया है कि राज्य सरकार के भ्रष्टाचार और शिथिलता की वजह से उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मोदी अपनी छवि एक साफ-सुथरे, तेज तर्रार और कुशल प्रशासक की तरह पेश करते हैं। इस छवि का फायदा लोकसभा के आम चुनावों से लेकर अभी-अभी महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भाजपा को हुआ है। इसी प्रभाव को वह कश्मीर घाटी में फैलाना चाहते हैं। कश्मीर घाटी में भाजपा की राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं है। एक तो उसकी छवि मुस्लिम विरोधी होने की है, दूसरे वह कश्मीर में सख्त फौजी कार्रवाई की भी समर्थक है। इसके बावजूद भाजपा ने अगले विधानसभा चुनावों में मिशन 44 से ज्यादा सीटों का लक्ष्य बनाया है। 37 सीटें जम्मू क्षेत्र में हैं, जिन पर भाजपा को सफलता की उम्मीद है। वह लद्दाख में और घाटी में भी कुछ सीटें निकालने की कोशिश में है। घाटी की ज्यादातर सीटों पर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की भारी कामयाबी का अंदाजा लगाया जा रहा है और इस नाते पीडीपी सरकार बनाने की बड़ी दावेदार होगी। ऐसे में, भाजपा को अच्छी कामयाबी मिली, तो पीडीपी के लिए भाजपा से गठबंधन करना जरूरी होगा। इस सोच से भाजपा कश्मीर की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने की तैयारी में है। जम्मू-कश्मीर के लोग राजनीति और प्रशासन में भ्रष्टाचार से आजिज आ चुके हैं। केंद्र से जितना पैसा राज्य को मिलता है, उसका बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। इसीलिए जम्मू-कश्मीर में बिजली, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की हालत बहुत खराब है। भाजपा को कुशल और साफ-सुथरे प्रशासन के दावे के साथ कश्मीर में अपनी जगह बनाने की उम्मीद है। भाजपा के लिए राज्य में सत्ता में आना इसलिए भी अच्छा होगा, क्योंकि तब उसे अपने कट्टर नजरिये में बदलाव करके उदार और लचीला रुख अपनाना होगा। कश्मीरियों की समस्याओं के प्रति अगर भाजपा में संवेदनशीलता बढ़ती है, तो यह व्यापक भारतीय राजनीति के लिए और कश्मीर समस्या के हल के लिए अच्छा होगा। साथ ही अगर जम्मू-कश्मीर में प्रशासन साफ-सुथरा होता है, तो इससे जनता को बड़ी राहत मिलेगी। नरेंद्र मोदी ने इस यात्रा में सियाचिन जाकर सैनिकों के साथ भी वक्त बिताया। दस साल के बाद किसी प्रधानमंत्री की यह सियाचिन यात्रा है। इससे सैनिकों का मनोबल तो बढ़ा ही होगा, साथ ही यह पाकिस्तान को भी संदेश देने का एक तरीका था। मोदी ने चुनाव अभियान के दौरान और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कश्मीर पर जिस तरह फोकस बनाए रखा है, वह महत्वपूर्ण है। इस विशेष फोकस का लाभ जम्मू-कश्मीर को सचमुच मिल पाए, तो इस क्षेत्र के लिए बहुत फायदेमंद होगा।
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कश्मीर में प्रधानमंत्री

दिवाली के मौके पर जब ज्यादातर देशवासी अपने घरों में परिजनों के संग पर्व की खुशियों से सराबोर थे, हमारे प्रधानमंत्री दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धस्थल कहे जाने वाले सियाचिन के मोर्चे पर तैनात सेना के जवानों का मनोबल बढ़ाने के साथ-साथ बाढ़ में तबाह हो चुकी कश्मीर घाटी के जख्मों पर मरहम लगा रहे थे। यह पहला अवसर है जब देश के किसी प्रधानमंत्री ने, वह भी एक पर्व के दिन, सियाचिन का दौरा किया। यकीनन इससे वहां तैनात सेना के जवानों और अफसरों का मनोबल ऊंचा हुआ होगा। सियाचिन के संबोधन में प्रधानमंत्री ने जिस तरह सैनिकों की समस्याएं गिनाते हुए उनके निराकरण का वायदा किया, उससे सैनिकों में यह भाव जरूर मजबूत हुआ होगा कि देश और उसके सर्वोच्च कार्यकारी को उनके समर्पण, त्याग और बलिदान भाव की कद्र है। सियाचिन में जिन विषम परिस्थितियों के बीच हमारे जवान देश की सुरक्षा के लिए तत्पर हैं, उनका मनोबल बढ़ाने के लिए सुविधाओं और सैन्य साजोसामान के साथ भावनात्मक संबल की भी बड़ी दरकार होती है। प्रधानमंत्री का दौरा यकीनन इस जरूरत को पूरा करने वाला रहा। दिवाली पर कश्मीर घाटी में प्रधानमंत्री की मौजूदगी के गहन निहितार्थ भी हैं। दरअसल, पाकिस्तान और उसके पिट्ठू अलगाववादी लंबे वक्त से कश्मीरियों को भरमाते रहे हैं कि भारत उनका हितैषी नहीं है और अपनी फौज के बल पर जबरन कश्मीर पर कब्जा जमाए हुए है। ऐसे में विनाशकारी बाढ़ का आगमन माकूल अवसर था कि पाकिस्तानी प्रचार को झूठा साबित किया जाए। भारत सरकार और सेना इस मौके का लाभ उठाने में बहुत हद तक सफल रही है। पहले हमारी सेना ने अपनी दिक्कतों की परवाह किए बगैर कश्मीर में जिस प्रभावी ढंग से राहत-बचाव कार्य चलाया, उससे उसे आक्रमणकारी बताने का कुप्रचार बेपर्दा हुआ। खुद प्रधानमंत्री भी बाढ़ आने के तत्काल बाद कश्मीर पहुंचे थे और अब दिवाली के अवसर पर उन्होंने फिर से कश्मीरियों के दुख-दर्द में शरीक होने और उन्हें इससे उबारने में कोई कसर न रखने का संदेश दिया है। सियाचिन में सैनिकों का मनोबल बढ़ाने और साथ ही कश्मीरियों का दिल जीतने की कोशिश करने की रणनीति यकीनन प्रभावी रहने वाली है। कश्मीर के सिलसिले में ऐसी पहल या रणनीति की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि पाकिस्तान हर मुमकिन तरीके से कश्मीर के मसले को गरमाने की कोशिश कर रहा है। इस क्रम में वह एक तरफ विश्व समुदाय और संयुक्त राष्ट्र से हस्तक्षेप की मांग कर रहा है तो दूसरी तरफ आए दिन सीमा पर गोलाबारी कर तनाव बढ़ा रहा है। अब एक कदम आगे बढ़कर पाकिस्तानी संसद ने संघर्ष विराम के उल्लंघन का आरोप भारत पर लगाते हुए निंदा प्रस्ताव पारित किया है। इन हालात में पाकिस्तानी दुष्प्रचार को उजागर करते हुए कश्मीरियों के अलगाव भाव को समाप्त करना और साथ ही सेना का मनोबल बढ़ाना समय की मांग है। प्रधानमंत्री के दौरे से उपरोक्त दोनों मकसद हासिल हुए हैं। चूंकि जम्मू- कश्मीर में जल्द ही विस चुनाव होने हैं, लिहाजा विरोधी प्रधानमंत्री की सक्रियता को उससे जोड़ रहे हैं। लेकिन अलगाववाद की राजनीति के शिकार रहे कश्मीर को भारत के समीप लाने की इस राजनीति में हर्ज क्या है!
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हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव




अटूट विश्वास का प्रदर्शन

Tue, 21 Oct 2014

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों का क्या संदेश है? अगर एक वाक्य में कहना हो तो क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस से जनता का पूरी तरह मोहभंग हो गया है और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी एक राष्ट्रव्यापी प्रामाणिक और भरोसेमंद विकल्प के रूप में उभरी है। कभी पूरे देश में एकछत्र राज करने वाली और सौ से अधिक वर्ष पुरानी कांग्रेस देश के 29 राज्यों में से केवल 9 राच्यों में सिमट गई है। इसमें से केरल और कर्नाटक के दो बड़े राच्यों को छोड़ दें तो बाकी के उत्ताराखंड, हिमाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम छोटे राच्य हैं। इन नौ प्रदेशों में लोकसभा के 88 स्थान हैं, जिसमें से पिछले चुनाव में कांग्रेस ने आधे से भी कम स्थान प्राप्त किए। कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा नीत झारखंड में कांग्रेस सरकार में कनिष्ठ सहयोगी हैं। इंदिरा गांधी के आपातकाल और राजीव गांधी के बोफोर्स विवाद के बाद भी पार्टी की ऐसी खराब हालत कभी नहीं रही।
अभी जो भाजपा द्वारा शासित राच्य हैं, उनकी सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी 37 प्रतिशत से अधिक है। आज उत्तार भारत और पश्चिम भारत के अधिकांश बड़े भाग में भाजपा की सरकार है या उसके प्रभाव वाले क्षेत्र हैं। इन विधानसभा चुनाव की गहमागहमी में लोकसभा उपचुनाव का एक अत्यंत महत्वपूर्ण परिणाम चर्चा में नहीं आया। महाराष्ट्र में बीड़ सीट पर हुए उपचुनाव में दिवंगत भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे की पुत्री प्रीतम मुंडे ने इतिहास रचते हुए अब तक के सबसे अधिक अंतर से जीतने का रिकार्ड बनाया। यहां कांग्रेस प्रत्याशी अशोक राव शंकर राव पाटिल को करारी शिकस्त मिली है। दूसरी तरफ देश की सबसे धनी महिला सावित्री जिंदल को हरियाणा में पराजय का मुंह देखना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय पत्रिका फो‌र्ब्स ने उन्हें देश की सबसे धनी महिला बताया था। हिसार सीट से कांग्रेस प्रत्याशी सावित्री जिंदल हुड्डा सरकार में मंत्री थीं। सोनिया-राहुल की रैलियों वाली हरियाणा की 6 सीटों में कांग्रेस को केवल तीन स्थानों पर जीत हासिल हुई है।
हरियाणा का चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि यहां शिरोमणि अकाली दल ने अपने पारंपरिक सहयोगी भाजपा को छोड़कर अन्य का साथ दिया। यह गठबंधन धर्म का खुला उल्लंघन था और स्वाभाविक रूप से इसका असर पंजाब की राजनीति में भी पड़ेगा। दोनों ही राच्यों के चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के योग्य नेतृत्व और देश को खुशहाल बनाने के उनके विजन पर जनता की मुहर है। इस जीत में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की दूरदर्शिता और प्रबंधन कौशल का भी बड़ा योगदान है। लोकसभा के चुनाव से ही प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव का एजेंडा विकास और सुशासन पर केंद्रित रखा वहीं कांग्रेस समेत अन्य सेक्युलर दल 'सेक्युलरवाद' की आड़ में समाज में एक भय का वातावरण निर्मित करते रहे। प्राय: हर चुनाव में कांग्रेस सेक्युलरवाद, गरीबी, आरक्षण आदि का एजेंडा लेकर लोगों के बीच जाती रही है। क्षेत्रीय दल कांग्रेस की पारंपरिक राजनीति के साथ जात-पात की गोटी बिछाते आए हैं। लोकसभा के नतीजों के बाद इन दोनों ही राच्यों के परिणामों से विकृत सेक्युलरवाद और जात-पात की राजनीति के ढहने के संकेत और पुख्ता हुए हैं। तीस सालों के बाद जनता ने स्पष्ट बहुमत देकर भाजपा को देश की कमान सौंपी है। गठबंधन की विवशता खत्म हुई है और क्षत्रपों की ब्लैकमेलिंग पॉवर पर अंकुश लगा है। महाराष्ट्र में मनसे नेता राज ठाकरे के उग्र क्षेत्रवाद को जनता ने सिरे से नकार दिया। राजनीति को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाने वाले क्षेत्रीय दलों के लिए वर्तमान जनादेश एक सबक है। चौटाला परिवार के दुष्यंत चौटाला, भजनलाल के पुत्र चंद्रमोहन विश्नोई का हारना वंशवादी राजनीति के नकारे जाने का प्रमाण है।
लोकसभा के चुनावी दौर से ही भाजपा विरोधी दलों का यह अरण्य रोदन था कि किसी एक व्यक्ति से विकास संभव नहीं है। नरेंद्र मोदी अकेले देश को दिशा नहीं दे सकते। चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि एक व्यक्ति परिस्थितियां बदल सकता है, यदि उसके पास निर्णय लेने की शक्ति हो। यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो और उसे विवेक के आधार पर फैसले लेने की आजादी हो तो निश्चित तौर पर बदलाव लाया जा सकता है। किंतु वंशवादी दर्प में 2004 में कांग्रेस ने लोकतंत्र के साथ जो नया प्रयोग किया उसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास निर्णय लेने का अधिकार ही नहीं था। यह अधिकार सोनिया गांधी के हाथों में केंद्रित रहा। इसके बरक्स लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कामकाज और उनकी कार्यशैली को परखा और पाया कि उन्होंने चुनाव में जो वादा किया है उसे पूरा करने का दिन-रात ईमानदार प्रयास भी कर रहे हैं। यह सही है कि भाजपा सरकार को अभी सत्ता पर आए हुए कम ही समय पूरा हुआ है, किंतु धरातल पर उसके परिणाम दिखने लगे हैं। महंगाई कम हुई है, अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही है और देश-विदेश में भारत की साख बढ़ी है। अपने विदेश दौरों में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत का खोया सम्मान वापस लौटाया है। देशी-विदेशी निवेशकों का भारत में विश्वास बढ़ा है और वे यहां निवेश करने को इच्छुक हुए हैं। तमाम तथाकथित सेक्युलर दल 'सेक्युलरवाद खतरे में है' के नारे के साथ भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेंद्र मोदी का रास्ता रोकने के लिए लामबंद थे, वह नारा पूरी तरह विफल हो गया। सेक्युलरवाद के नाम पर कथित सेक्युलरिस्टों ने दशकों तक अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की नीति चलाई, बाद में उन्होंने अल्पसंख्यकों के कट्टरवादी वर्ग को पोषित और संरक्षण देने का काम किया और अब सेक्युलरवाद के नाम पर वे आतंकवादियों के साथ खड़े नजर आते हैं।
देशहित में अपनी विकृत विचारधारा पर आत्मावलोकन करने के बजाय सेक्युलर दल अब भी भाजपा को रोकने के लिए लामबंद होने का उद्घोष कर रहे हैं, जबकि जमीनी स्तर पर मतदाताओं के विचार पूरी तरह बदल चुके हैं। भाजपा विरोध में महाजोड़ बनाने का जब-तब प्रयास करने वाले वामपंथियों का स्वयं का अस्तित्व उनकी अप्रासंगिक नीतियों के कारण खतरे में है। दलित राजनीति के बूते मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती का लोकसभा के चुनाव में खाता ही नहीं खुला। समाजवादी पार्टी अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के बल पर राच्य में सत्ता हासिल करने में कामयाब रही हो, किंतु लोकसभा के चुनावों ने उनके इस विश्वास को चूर-चूर कर दिया है। वंशवादी कांग्रेस ने कभी पार्टी के अंदर स्वस्थ लोकतंत्र और नेतृत्व पनपने ही नहीं दिया। सीताराम केसरी और पीवी नरसिंह राव उसके च्वलंत उदाहरण हैं। वास्तव में जिन राच्यों में ऐसे दलों की सरकारें रहीं या वर्तमान समय में सत्ता पर काबिज हैं वे कभी सुशासन और खुशहाली दे पाने में कामयाब नहीं हुई हैं। देश के जनमानस को ऐसे अवसरवादी दलों से कोई उम्मीद नहीं रह गई है। कांग्रेसी कुशासन से मुक्ति पाने की छटपटाहट पूरे देश में है और वर्तमान जनादेश उसका ही द्योतक है।
[लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राच्यसभा सदस्य हैं]
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मोदी प्रभाव का विस्तार

Mon, 20 Oct 2014 

महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव के नतीजे देश के राजनीतिक परिदृश्य में नरेंद्र मोदी के प्रभाव का एक और प्रमाण हैं और कांग्रेस के लिए खतरे की तेज घंटी। दोनों राज्यों में सत्तारूढ़ कांग्रेस की पराजय यह बताती है कि उसका आधार तेजी से खिसक रहा है और यह आधार भाजपा के साथ जुड़ रहा है। भारतीय राजनीति का यह एक बड़ा बदलाव है। मोदी असहाय महसूस कर रहे लोगों के लिए एक नया आकर्षण और प्रेरणा हैं। लोग यह महसूस कर रहे हैं कि कुछ हो नहीं रहा है, वे पारंपरिक राजनीति से ऊब चुके हैं। मोदी ने इसी माहौल में भारतीय राजनीति में अपने कदम बढ़ाए हैं। उन्हें एक के बाद एक सफलता भी मिल रही है। कुल मिलाकर भारतीय राजनीति के समीकरण नए तरह से लिखे जा रहे हैं। भाजपा की यह बढ़त कई राज्यों में विरोधी राजनीतिक दलों को बिहार मॉडल पर एकजुट होने के लिए मजबूर कर सकती है।
राजनीतिक दलों को चुनाव नतीजों के संदेश को समझना होगा। हरियाणा में 51 प्रतिशत मतदाता युवा हैं। बदलाव की उनकी बेचैनी चुनाव नतीजों में झलकती है। दूसरे राच्यों में भी ऐसा हो सकता है। भाजपा फिलहाल मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को प्रभावित कर रही है। हरियाणा में उसकी सफलता विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जबकि महाराष्ट्र में बहुमत से कुछ दूर रहने के बावजूद पार्टी का प्रदर्शन प्रभावशाली है। हरियाणा में भाजपा चार सीटों की अपनी ताकत में अकल्पनीय तरीके से 12 गुना वृद्धि करने में सफल रही और उसका वोट प्रतिशत तीन गुना तक बढ़ गया। अकेले रोहतक विधानसभा सीट का नतीजा यह बताने के लिए काफी है कि हरियाणा में भाजपा ने कितनी बड़ी कामयाबी हासिल की है। भूपेंद्र सिंह हुड्डा के इस गढ़ में भाजपा की सेंध राजनीतिक तस्वीर में आए बदलाव की बानगी है। हरियाणा की राजनीति प्रारंभ से जाट और गैर-जाट जातियों के समीकरणों पर आधारित रही है। भाजपा की इस सफलता का मतलब है कि उसे गैर-जाट जातियों का भरपूर समर्थन मिला और जाटों के एक तबके ने भी उसके पक्ष में मतदान किया। मैंने हरियाणा में अपने भ्रमण के दौरान यह महसूस किया कि सभी जातियों की महिलाओं के बीच मोदी के पक्ष में एक छिपी लहर थी। चुनाव में इतनी बड़ी कामयाबी के लिए इस तरह की लहर जरूरी होती है। मोदी ने लोगों की कल्पना और विश्वास को जीता है। दो राच्यों में महत्वपूर्ण जीत से मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का आत्मविश्वास भी बढ़ना तय है। उसने सुधारों के सिलसिले की शुरुआत पहले ही कर दी है। डीजल के संदर्भ में बड़ा निर्णय इसकी ताजा कड़ी है। चूंकि मोदी ने दोनों राच्यों के चुनावों में अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा भी संबद्ध कर दी थी इसलिए स्वाभाविक रूप से वह राहत महसूस कर रहे होंगे और सुधारों की अपनी प्रक्रिया पर तेजी से आगे बढ़ना चाहेंगे। दोनों राच्यों में मोदी ने 35 से अधिक रैलियों को संबोधित किया। उनका चुनाव प्रचार स्थानीय नेताओं से भी च्यादा था। इससे जाहिर होता है कि वह इन चुनावों के लिए किस हद तक गंभीर थे। अगर मोदी ने अपनी चमक और प्रभाव से लोगों को प्रभावित किया तो यह मानना होगा कि अमित शाह बूथ स्तर के मैनेजमेंट में एक बार फिर कामयाब रहे। मोदी और अमित शाह भाजपा अथवा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस एजेंडे को आगे बढ़ाते नजर आ रहे हैं कि राजनीति दो दलों पर आधारित होनी चाहिए।
यह नतीजे जितने भाजपा के लिए उत्साहजनक हैं उतने ही कांग्रेस के लिए निराशाजनक। कांग्रेस को एक क्षेत्रीय दल इनेलो ने तीसरे नंबर पर पहुंचा दिया। इनेलो इससे अच्छा भी प्रदर्शन कर सकती थी, लेकिन ओमप्रकाश चौटाला के अतिरिक्त पार्टी के पास कोई नेतृत्व नहीं है। लोगों ने यह महसूस किया कि चौटाला सजायाफ्ता होने के कारण मुख्यमंत्री नहीं बन सकते हैं और कोई अन्य पार्टी को नेतृत्व देने की स्थिति में नहीं है।
जहां तक महाराष्ट्र का प्रश्न है तो भाजपा इससे संतुष्ट हो सकती है कि शिवसेना से अलग होने का उसका फैसला उस पर भारी नहीं पड़ा, लेकिन पार्टी को अपनी भावी दिशा के बारे में थोड़ा-बहुत विचार जरूर करना होगा। वह अकेले दम आगे बढ़ने की अपनी रणनीति में हमेशा सफल नहीं हो सकती। भाजपा ने भले ही कांग्रेस को सीमित कर दिया हो, लेकिन हरियाणा में इनेलो और महाराष्ट्र में शिवसेना तथा एनसीपी की उपस्थिति यह बताती है कि क्षेत्रीय दलों का युग अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। भाजपा को राजग की परिकल्पना से दूर जाने से बचना होगा। राजग की अभी भी अहमियत है और कई ऐसे राच्य हैं जहां भाजपा को क्षेत्रीय दलों के सहयोग की जरूरत होगी। सवाल यही है कि क्या मोदी और विशेषकर भाजपा का नेतृत्व राजग को बनाए रखने और उसके विस्तार के बारे में विचार करेगा? महाराष्ट्र में भाजपा की जीत के संदर्भ में इतना हल्ला मच गया था कि बहुमत से 20-25 सीटें कम रह जाने को पार्टी एक धक्के के रूप में देख सकती है। भाजपा और शिवसेना का गठबंधन ऊपरी तौर पर मुख्यमंत्री के मुद्दे पर टूटा था, लेकिन अब जनता ने यह फैसला सुना दिया है कि मुख्यमंत्री किस दल से होना चाहिए?
शिवसेना को इस नतीजे का संदेश समझना चाहिए। चुनाव के दौरान इन दोनों स्वाभाविक सहयोगियों के बीच कुछ कटुता आ गई थी, लेकिन अब दोनों के बीच नरमी दिखनी चाहिए। महाराष्ट्र शुरुआत से कांग्रेस के वर्चस्व वाला क्षेत्र रहा है-इस हद तक कि उन शरद पवार को भी अंतत: कांग्रेस के पास आना पड़ा था जो अपने जनाधार के दम पर उससे अलग हो गए थे। इस लिहाज से ये नतीजे कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा झटका हैं। उसके हाथ से एक के बाद एक बड़े राच्य छिटकते जा रहे हैं और उसकी वापसी के आसार भी नजर नहीं आते। पार्टी को अपनी रीति-नीति और तौर-तरीकों पर नई दृष्टि डालने की आवश्यकता है।
[लेखिका नीरजा चौधरी, जानी-मानी राजनीतिक विश्लेषक हैं]
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साहसी फैसले की जीत

Mon, 20 Oct 2014

लोकसभा चुनाव के बाद एक बार फिर नरेंद्र दामोदर दास मोदी और अमित शाह की टीम ने अपने चुनाव प्रचार और प्रबंधन का लोहा मनवा दिया। हरियाणा में चार सीटों से लगभग 12 गुना लंबी छलांग लगाकर भाजपा सरकार बनाने जा रही है। तो महाराष्ट्र में भी छोटे भाई की भूमिका से उबरकर भाजपा ने यह बता दिया है कि यहां भी सिक्का उसी का चलेगा। अपने पुराने बड़े भाई शिवसेना के मुकाबले भाजपा लगभग दोगुनी आगे है। यह अलग बात है कि महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए उसे समर्थन की जरूरत होगी। भाजपा के लिए सबसे स्वाभाविक साथी शिवसेना है, लेकिन उसके मोलभाव की गुंजाइश को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने बिना शर्त समर्थन देने की बात कहकर ध्वस्त कर दिया है। वैसे भी परिणामों के आत्मविश्वास से लबरेज भाजपा किसी की शतरें पर काम नहीं करेगी। शतर्ें उसकी अपनी ही होंगी। तथ्य यह भी है कि हरियाणा और महाराष्ट्र, दोनों ही जगह क्षेत्रीय व जातीय समीकरण नेस्तनाबूद हुए हैं। महाराष्ट्र में केवल कोंकण ही अपवाद है। इन चुनाव परिणामों ने न केवल क्षेत्रीय दलों व नेताओं के दर्प को तोड़ा है, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' के सिक्के को और चमकाया है।
प्रधानमंत्री बनने से लगभग सात-आठ महीने पहले नरेंद्र मोदी ने भाजपा के लिए रास्ता तय कर दिया था। तालकटोरा स्टेडियम में भाजपा की एक बैठक में उन्होंने ऐलान किया था कि जनता में बदलाव के लिए तड़प देखते हुए भाजपा को अपनी शक्ति पहचान लेनी चाहिए और अपनी ही शतरें पर आगे बढ़ना चाहिए। मंत्र था- भाजपा मजबूत होगी तो साथी भी आएंगे और गठबंधन भी मजबूत बनेगा। लोकसभा चुनाव में उस मंत्र की परख भी हो गई थी। जाहिर है कि विधानसभा चुनाव में भी मोदी-शाह की टीम उसी मंत्र पर काम करने वाली थी और फिर से उसका असर भी दिखा और मोदी का साहस भी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहस ज्यादा अहम इसलिए है, क्योंकि लोकसभा की बड़ी जीत के बाद विधानसभा चुनाव में रिस्क लेने से बचा जा सकता था, लेकिन मोदी ने शाह के साथ मिलकर न सिर्फ फैसला लिया, बल्कि चुनाव में खुद को पूरी तरह से झोंक भी दिया। खासतौर पर तब जबकि मोदी को इसका अहसास था कि सफलता न मिलने की दशा में वह विपक्ष के सीधे निशाने पर होते। आत्मविश्वास से लबरेज भाजपा ने हरियाणा में कुलदीप बिश्नोई की नाजायज शतर्ें मानने के बजाय उसे छिटक जाने दिया। पार्टी ने मोदी को 'मैस्कट' बनाकर चुनाव लड़ने की ठान ली थी। पूरे जाट समुदाय को अपनी संपत्तिसमझने वाले हुड्डा और चौटाला को नतीजों ने बता दिया कि भाजपा के पक्ष में न केवल जाट बटा, बल्कि खाप और दलित भी खुलकर आए। लोकसभा चुनाव की तरह ही हरियाणा में युवा और महिला मतदाता की पहली पसंद मोदी ही रहे हैं। दूसरी तरफ पूरे चुनाव में नेतृत्वविहीन दिखी कांग्रेस को दोनों ही प्रदेशों में सत्ता की सीढ़ी से फिसलकर नंबर तीन की पार्टी बनना पड़ा। केंद्र की तरह इन राच्यों में भी कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल बनने के भी काबिल नहीं रही। दरअसल राहुल गांधी हरदम चुनाव की सीधी चुनौती लेने से बचते रहे हैं, पार्टी उन्हें बचाती रही है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताकत यही रही है कि वह खुलेआम चुनौती लेते हैं। विपक्ष उन पर जितना हमला करता है वह उतना ही मजबूत होकर उभरते हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र में मोदी फिर से अपनी ही कसौटी पर खरे उतरे हैं। महाराष्ट्र में अधिक सीटें लेकर स्ट्राइक रेट में पिछड़ने वाली शिवसेना जिस तरह से इस बार मोलभाव पर उतारू थी वह भाजपा को मंजूर नहीं था। 1980 में जन्मी भाजपा उस वक्त राच्य में 145 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसे 14 सीटें हासिल हुई थीं। लगभग समान विचारधारा वाली शिवसेना से उसका समझौता 1990 में हुआ था। तब से लेकर अब तक भाजपा को छोटा भाई बनकर राच्य में चुनाव लड़ना कबूल था, लेकिन बाला साहेब ठाकरे के बाद शिवसेना में सबसे पहले विघटन परिवार से ही शुरू हुआ। उद्धव ठाकरे न तो उतने राजनीतिक परिपक्व थे और न ही मन से वह बाला साहेब की विरासत के लिए संभवत: तैयार थे। बाला साहेब के निधन के बाद यह संभवत: लाजिमी था कि उम्र और राष्ट्रीय राजनीति में अपरिपक्व उद्धव को न तो भाजपा वह सम्मान देने के लिए तैयार थी और न ही शतर्ें मानने के लिए। गठबंधन के पहले जब सीटों के बंटवारे को लेकर बात आई तो भाजपा अपनी तरफ से नरमी दिखाने के लिए तैयार थी। उसकी मांग थी कि अनुपातिक रूप से अच्छा स्ट्राइक रेट होने की वजह से उसे बंटवारे में भी उचित हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। भाजपा ने 127 सीट अपने लिए और 14 सीट दूसरे छोटे सहयोगियों के लिए मांगी थी। शिवसेना जिन 60 सीटों पर कभी चुनाव नहीं जीत सकी थी उसमें से हिस्सेदारी मांगी जा रही थी, लेकिन शिवसेना टस से मस होने को तैयार नहीं थी। गठबंधन टूटना उसी दिन तय हो गया था जब उद्धव ने साफ कह दिया था कि वह 151 सीटों से नीचे उतरने को तैयार नहीं। परिणाम आज सबके सामने है। शायद उद्धव भूल गए थे या फिर उन्हें यह मालूम ही न था कि लोकतांत्रिक राजनीति में शतर्ें जनता तय करती है। उसका आकलन लोकप्रियता से होता है और वह भाजपा और मोदी के पक्ष में था। हठधर्मिता से चुनाव तो दूर पार्टी के अंदर भी नेतृत्व चलाना लंबे समय तक आसान नहीं है। संभवत: यह चुनाव उद्धव को परिपक्व बना दे और भविष्य की रणनीति तय करने में वह इसका ख्याल रखें। शिवसेना को इसका पता चल गया है कि शहरों में अब तक उसकी जीत इसीलिए होती थी कि भाजपा उसके साथ थी। हठधर्मिता अभी भी जारी रही तो इसका खामियाजा मुंबई, नासिक, पुणे जैसे बड़े शहरों के म्युनिसिपल कारपोरेशन में भुगतना पड़ सकता है। शायद शिवसेना यह गलती न दोहराए। भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक के पहले पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने दोहराया कि भाजपा गठबंधन धर्म का निर्वाह करती है और दोनों राच्यों में कहीं भी अपनी ओर से गठबंधन नहीं तोड़ा।
लोकसभा के बाद विधानसभा चुनाव एक तरफ कांग्रेस के लिए और दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों के लिए फिर से एक सबक हैं। कांग्रेस का आधार सिमटता जा रहा है और पहली बार चुनावी राजनीति जात-पात से हटकर विकास के मुद्दे पर केंद्रित होती दिख रही है। हाल के विधानसभा उपचुनावों के नतीजे के बाद भाजपा को मिली इस नई जीत ने इसे स्थापित कर दिया है। उपचुनाव परिणामों की सामान्य चुनाव से तुलना नहीं की जानी चाहिए। भाजपा के लिए बड़ी बात यह थी कि उसने अपना आत्मविश्वास नहीं खोया और शाह के माइक्त्रो मैनेजमेंट ने रंग दिखा दिया। यह आत्मविश्वास ही था कि उत्तार प्रदेश के उपचुनाव में पटखनी खाने के बाद शाह ने लखनऊ में जाकर ही समाजवादी पार्टी को चुनौती दी थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा की बैठक के बाद शाह ने कहा था-अगर नेताजी तैयार हों तो उत्तार प्रदेश में भाजपा अभी भी विधानसभा चुनाव के लिए तैयार है। सपा की ओर से इसका जवाब नहीं आया। वहां 2017 में चुनाव होने हैं। इसकी प्रतिध्वनि झारखंड और जम्मू-कश्मीर के आगामी विधानसभा चुनावों में भी दिखेगी। अगले ही साल बिहार में भी चुनाव होने हैं और उसके बाद 2016 में पश्चिम बंगाल और केरल में।
[लेखक प्रशांत मिश्र, दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं]
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सियासत का बदलता मुहावरा

नवभारत टाइम्स| Oct 21, 2014,

महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव नतीजे राष्ट्रीय राजनीति के बदलते ट्रेंड की ओर इशारा कर रहे हैं। इनसे पता चलता है कि जमे-जमाए क्षेत्रीय दलों की भी जड़ें उखड़ने लगी हैं और देश में एक बार फिर सिंगल पार्टी के दबदबे वाला दौर लौट रहा है। कभी कांग्रेस इस किस्म की सियासत की रहनुमाई करती थी, अब बीजेपी उसकी जगह लेने जा रही है। रीजनल पार्टियों के लिए यह बुरा संकेत है। ज्यादा दिन नहीं हुए, जब पॉलिटिकल पंडित बताते थे कि नैशनल पार्टियों के दिन लद चुके हैं, और ये बचीं भी तो क्षेत्रीय दलों की कठपुतली बनकर रहेंगी। कई क्षत्रपों ने केंद्र की पिछली तीन सरकारों को एक टांग पर खड़े रखा। एनडीए के दौर में जयललिता और चंद्रबाबू नायडू ने अटल बिहारी वाजपेयी को एक भी रात चैन से सोने नहीं दिया तो यूपीए के दौर में करुणानिधि और ममता बनर्जी ने मनमोहन सिंह को लगातार बुरे सपने देखने को मजबूर किया। उनके इशारे पर काम करने वाले केंद्रीय मंत्रियों ने सरकार की लुटिया डुबोने में अपने-अपने तरीके से योगदान दिया। इन हरकतों को देखकर ही जनता का प्रादेशिक पार्टियों से मोहभंग बढ़ा है। इनके ब्लैकमेलर रवैये और भ्रष्टाचार के किस्सों से उकताकर ही लोग सिंगल पार्टी की ओर मुड़े हैं। वैसे भी उदारीकरण के दौर में क्षेत्रीय गौरव जैसी बातें कमजोर पड़ी हैं। नई पीढ़ी का नजरिया बड़ा है। वह खोल में बंधकर नहीं सोचती, बंधे-बंधाए दायरे तोड़कर अपनी तरक्की और खुशहाली के लिए काम करना चाहती है। प्रादेशिक नेताओं की सनक और अहंकार भरी राजनीति उसे बिल्कुल रास नहीं आ रही। अपने राज्य में भी वह उसी पार्टी की सरकार देखना चाहती है जो सेंटर में है, ताकि कल को उसके नेताओं को यह कहने का मौका न मिले कि राज्य स्तर पर विरोधी जनादेश ने उन्हें अपनी योजना के मुताबिक काम ही नहीं करने दिया। राजनीतिक दलों को इस उभरती जनचेतना का स्वागत करना चाहिए और इससे जुड़ी जिम्मेदारियों के लिए खुद को तैयार करना चाहिए। हालांकि इस बदलते ट्रेंड की असल जांच यूपी और बिहार में होगी, जहां सियासी जमीन पर रीजनल पार्टियों का दबदबा तो है ही, साथ में बीजेपी के खिलाफ एक तीखी वैचारिक लड़ाई भी है। राज्यों में अच्छे प्रदर्शन से बीजेपी को तत्काल यह फायदा मिलेगा कि राज्यसभा में उसकी स्थिति सुधर जाएगी। इस ताकत का इस्तेमाल वह अपने बड़े फैसलों को संसद से पारित कराने में कर सकती है। लेकिन दूसरी तरफ उसकी चुनौती भी बढ़ गई है। मोदी पिछले छह महीनों से जो सपना देश को दिखा रहे हैं, उसे जमीन पर उतारने में कोई बाधा उनके सामने नहीं रह गई है। लिहाजा बहानेबाजी की तो अब कोई गुंजाइश ही नहीं बची है। रीजनल पार्टियों के सिकुड़ने का फायदा भविष्य में कांग्रेस को भी मिल सकता है, बशर्ते उसके लोग सक्रिय हों और पार्टी जल्द से जल्द अपने डिफेंस मोड से बाहर आ सके।
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बदलाव का संकेत

नवभारत टाइम्स| Oct 20, 2014

हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव परिणामों ने बड़ा परिवर्तन कर दिखाया है। इसे मोदी मैजिक कहा सकता है, लेकिन यह तय है कि दोनों राज्यों में मतदाताओं ने बदलाव को तरजीह दी है। महाराष्ट्र में जहां 63. 13 फीसदी मतदान हुआ, वहीं हरियाणा में 1967 के बाद अब तक का सर्वाधिक मतदान प्रतिशत (76. 54) रहा। यह परिवर्तन स्वागत योग्य है क्योंकि इससे लंबे समय से चले आ रहे समीकरणों को झटका लगा है। दरअसल, इनके चलते जिस किस्म के निहित स्वार्थ आकार ले लेते हैं, उनमें फिर किसी नए विजन की संभावनाएं ही खत्म हो जाती हैं। बदलाव हमेशा अच्छा इसलिए होता है कि उससे उम्मीदें बंधती हैं। हरियाणा में 90 सदस्यीय विधान सभा के लिए बीजेपी अैर कांग्रेस ही ऐसे दल थे जिन्होंने सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे। वहां दूसरा कोई दमदार विकल्प न होने के कारण, 2009 के चुनाव में महज चार सीटें जीतने वाली बीजेपी इस बार अपने दम पर सरकार बनाएगी। दिक्कत सिर्फ ये है कि बीजेपी का अपना एक खास कैडर और कल्चर रहा है। लेकिन इस बार उसके अनेक विजेता बाहरी भी हैं। उनकी सोच और रवैया थोड़ा हटकर हो सकता है। ऐसे में पार्टी जिस चेहरे को सामने लाएगी, उसके लिए काम कर पाना आसान नहीं रहेगा। हालांकि यह सहूलियत भी है कि दिल्ली के करीब होने के कारण बीजेपी आलाकमान की नजर का एक स्वाभाविक खौफ अनुशासन बनाए रखने में मदद करेगा। इस सबके विपरीत महाराष्ट्र की कहानी जरा अलग है। वहां बीजेपी को तमाम ताकत झोंक देने के बावजूद मनचाहा बहुमत न मिल सका, इसलिए मामला थोड़ा उलझ गया है। महाराष्ट्र में बीजेपी ने 282 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। वहां वह सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सामने जरूर आई है, लेकिन सहज सरकार बना पाना उसके लिए मुमकिन नहीं दिखता। महाराष्ट्र में अब तक बीजेपी और शिवसेना का पारंपरिक साथ रहा है। वहां सत्ता के निर्णय भी अब तक शिवसेना लेती रही है। मौजूदा हालात में अगर बीजेपी उसे साथ लेकर सरकार बनाती है तो शिवसेना की स्थिति पहले से एकदम अलग होगी। उसका हाथ अब ऊपर नहीं रह सकेगा। उलटे वह बीजेपी की छतरी के नीचे खड़ी जरूर नजर आएगी। इसके ठीक विपरीत, अब तक चला आ रहा कांग्रेस एनसीपी गठबंधन इस तरह का नहीं रहा। वहां किसी तरह के छोटे-बड़े का भाव नहीं होता था। सबसे बड़ी दिक्कत अब यह पेश आने वाली है कि बीजेपी और शिवसेना के बीच तालमेल बिठाने का काम करने वाली दो बड़ी शख्सियतें, गोपीनाथ मुंडे और प्रमोद महाजन जैसा कोई और पुल फिलहाल नजर नहीं आ रहा। उलटे नेतृत्व करने के लिए कई चेहरे खुद को ही सामने रखने की कोशिशें कर रहे हैं। हालांकि एनसीपी की ओर से कल यह संकेत किए जा चुके हैं कि वह बीजेपी को बाहर से समर्थन देने के लिए तैयार है, लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने संघ के दबाव के चलते उस ओर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। शिवसेना के साथ रहने पर उग्र क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिल सकता है। बीजेपी के लिए तब यह और मुश्किल स्थिति होगी। जो भी हो, यह चुनाव परिणाम महाराष्ट्र की जनता के लिए खुशखबरी बनकर आया है। साफ है कि दोनों राज्यों में सरकार बीजेपी ही बनाएगी। लेकिन उसके लिए आने वाले पांच साल हरियाणा और महाराष्ट्र में सरकार चलाने के लिए आसान नहीं होंगे।
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जीत का सिलसिला

19-10-14

महाराष्ट्र में मामूली सी कसर रह गई। अगर वहां के विधानसभा चुनाव के नतीजे भी हरियाणा की तरह भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में पूरी तरह झुके होते, तो हम कह सकते थे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब चक्रवर्ती बनने की ओर बढ़ चुके हैं। बावजूद इसके कि महाराष्ट्र में भाजपा ने बहुमत हासिल न किया हो, लेकिन कुलजमा जो हासिल किया है कि वह कम नहीं है। अभी चंद रोज पहले तक यह माना जा रहा था कि वहां भाजपा शिवसेना की अधीनस्थ सहयोगी भर रहेगी। मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा और भाजपा को कुछ मंत्री पदों से ही संतोष करना होगा। लेकिन सही वक्त पर भाजपा नेताओं ने माहौल को भांपा और गठजोड़ से बाहर आने का फैसला कर लिया। नतीजा हमारे सामने है कि भाजपा महाराष्ट्र में नंबर एक पार्टी के तौर पर सामने आई है। यह तय है कि सरकार उसी की बनेगी, हो सकता है कि इसके लिए उसे फिर से शिवसेना से गठजोड़ बनाना पड़े। चुनाव नतीजों ने और कुछ नहीं किया सत्ता में बड़ा हिस्सा पाने की शिवसेना की दावेदारी वाली ऐंठ निकाल दी है। यह जरूर है कि अगर कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठजोड़ न टूटता, तो शायद उसे इतनी बुलंदी मिल ही नहीं पाती। लेकिन चुनावी राजनीति में नतीजे निकल जाने के बाद ऐसे ‘अगर’ और ‘शायद’ का कोई अर्थ नहीं होता। इस लिहाज से देखें, तो हरियाणा में भाजपा की जीत ज्यादा बड़ी है। अभी कुछ महीने पहले तक हरियाणा में भाजपा को गिना ही नहीं जाता था। संभावनाओं के आकलन में चौटाला के लोकदल, कांग्रेस और भजनलाल के परिवार की हरियाणा जनहित कांग्रेस के बाद ही कहीं उसका नाम लिया जाता था। यह भी कहा जाता था कि भाजपा के पास हरियाणा में ऐसे बड़े नेता नहीं हैं, जिनकी जमीनी प्रतिष्ठा या साख हो। पिछले कुछ समय में एकाध बड़े नाम उससे जुड़े जरूर, लेकिन उन सबकी साख दलबदल वाली ही रही। हरियाणा में बड़े पैमाने पर जाति की राजनीति होती है और यह माना जाता रहा है कि हरियाणा के जाति समीकरण में भाजपा फिट नहीं बैठती। लेकिन भाजपा ने इस बार हरियाणा में सारे पुराने समीकरणों को मात देकर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया। जाति और राजनीति के बंधे-बंधाएं र्ढे का टूटना, उस जड़ता के टूटने की शुरुआत भी हो सकता है, जिसने हरियाणा को आर्थिक समृद्धि के बावजूद सामाजिक पिछड़ेपन में जकड़ रखा है। एक-दूसरे से बहुत दूर उत्तर और पश्चिम में बसे इन दोनों राज्यों की विधानसभाओं में भाजपा के प्रदर्शन के पीछे एक ही कारण रहा है- वह उम्मीद जो जनता ने नरेंद्र मोदी से बांधी है। इस जीत को हम नरेंद्र मोदी से अलग करके नहीं देख सकते, क्योंकि दोनों ही राज्यों में इस समय भाजपा के पास बहुत बड़े नेता नहीं हैं, और दोनों ही जगह चुनाव का मुद्दा खुद नरेंद्र मोदी ही रहे।
पार्टी हर जगह उनकी पांच महीने पुरानी सरकार की उपलब्धियों को सामने रख रही थी, जैसे वह विधानसभा चुनाव न होकर केंद्र सरकार की उपलब्धियों पर होने वाला कोई जनमत संग्रह हो। लेकिन महाराष्ट्र के नतीजों ने मोदी के नाम के इस्तेमाल की सीमा भी दिखा दी है। केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद यह उसकी पहली बड़ी परीक्षा थी। अब अगले साल वह दिल्ली, बिहार, झारखंड, जम्मू-कश्मीर में जीत के इस सिलसिले को आगे बढ़ा सकती है। इन सब विधानसभाओं में अच्छा प्रदर्शन केंद्र सरकार के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि पार्टी के पास विधानसभाओं में जितनी ज्यादा सीटें होंगी, वह राज्यसभा में अपने उतने ही ज्यादा लोगों को भेज सकेगी। लोकसभा में अच्छे बहुमत के बावजूद वह राज्यसभा में आरामदेह स्थिति में नहीं है।
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विकास के क्षेत्र

20-10-14

जानकार पहले से यह मान रहे थे कि महाराष्ट्र और हरियाणा में अगर भारतीय जनता पार्टी जीती, तो आर्थिक सुधारों की रफ्तार तेज हो सकती है। इसकी मुख्य वजह यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हैसियत और उनका कद इन चुनावों से बढ़ेगा और वह अपने फैसले ज्यादा मजबूती से लागू करवा पाएंगे। इन चुनावों में भाजपा की सफलता का दूरगामी असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। अब भारत के पूरे केंद्रीय और पश्चिमी हिस्से पर भाजपा का राज है और यह इलाका देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 37.49 प्रतिशत पैदा करता है। गुजरात पहले से ही विकसित राज्य है, इसमें महाराष्ट्र और हरियाणा के जुड़ जाने से भाजपा का राज तीन उच्च आर्थिक पैमानों वाले राज्यों में हो गया है। मध्य प्रदेश देश के सबसे तेजी से विकास कर रहे राज्यों में से है, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की रफ्तार जरूर धीमी है, लेकिन इन राज्यों के साथ आने से वे भी तेज विकास की राह पर जा सकते हैं। इन सात राज्यों में भाजपा के राज का सबसे बड़ा फर्क यह पड़ेगा कि केंद्र सरकार ऐसे कई फैसले कर सकती है, जिनके लागू होने में राज्यों की बड़ी भूमिका होती है। पिछली संप्रग सरकार के राज में कई बड़े फैसले इसलिए अटक गए थे, क्योंकि राज्य उन्हें सहयोग नहीं कर रहे थे। यहां तक कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों ने ऐसे कई फैसले नहीं लागू होने दिए थे, जिन पर सैद्धांतिक रूप से भाजपा को किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी। आर्थिक प्रगति में राज्यों की भूमिका बहुत बढ़ी है और केंद्र सरकार की भूमिका सीमित हुई है। अच्छे और सक्षम मुख्यमंत्रियों के राज में कई राज्यों ने जबर्दस्त तरक्की की है और जो राज्य राजनीतिक उठा-पटक और संकीर्ण स्वार्थों में उलझ गए, उनकी तरक्की उस अनुपात में नहीं हुई है। अब देश के आर्थिक रूप से ताकतवर राज्यों और केंद्र सरकार में समन्वय ज्यादा होगा, इसलिए कई योजनाएं या सुधार लागू करना आसान हो जाएगा। केंद्र के कई फैसलों को लागू करने के मामलों में राज्य सरकारें स्वायत्त होती हैं और अक्सर राजनीतिक वजहों से ही सहयोग या असहयोग के फैसले किए जाते हैं। निवेशक भी इन राज्यों में ज्यादा निवेश को उत्साहित होंगे, क्योंकि उन्हें मालूम होगा कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच समन्वय है। दक्षिण के कई राज्य, जो निवेशकों की पसंद रहे हैं, वे तमाम किस्म की उलझनों में फंसे हैं। तमिलनाडु में राजनीतिक संकट है, और आंध्र प्रदेश की प्राथमिकता तूफान हुदहुद से हुई तबाही के बाद फिर से पटरी पर आने की है। इस मामले में हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक फैले भाजपाई प्रभाव क्षेत्र के लिए आने वाले दिन इस मायने में फायदेमंद हो सकते हैं। इसके अलावा कई योजनाएं हैं, जिनमें न सभी राज्यों का सहयोग जरूरी होगा। दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे के निर्माण जैसी परियोजनाओं को आगे बढ़ाना अब काफी आसान हो जाएगा, क्योंकि यह गलियारा जिन राज्यों से गुजर रहा है, उन सब में अब भाजपा का राज है। अगर पश्चिमी और मध्य क्षेत्र का विकास तेजी से होगा, तो दूसरे राज्यों पर इसका दबाव पड़ेगा। पूर्वी भारत के कई राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा में अपेक्षाकृत रूप से निवेश पहले से ही कम है और इसका और ज्यादा असर इन पर पड़ेगा। राजनीतिक रूप से भी यह दबाव उन पर आएगा, क्योंकि भाजपा यह प्रचारित कर पाएगी कि उसके प्रभाव क्षेत्र के मुकाबले ये राज्य कहां ठहरते हैं? संभव है कि इस स्पर्धा का अच्छा असर भी हो और बाकी राज्य अपने को भाजपा शासित राज्यों की बराबरी में खड़ा करने की कोशिश करें। इन चुनावों से जो नए राजनीतिक और आर्थिक समीकरण बने हैं, उनके असर को देखना दिलचस्प होगा।
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जनाक्रोश के नतीजे

जनसत्ता 20 अक्तूबर, 2014: तमाम सर्वेक्षणों और एग्जिट पोल ने जैसे अनुमान जाहिर किए थे, महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के नतीजे वैसे ही आए हैं। दोनों प्रदेशों में बाजी भारतीय जनता पार्टी के हाथ लगी है। लोकसभा चुनाव में भी महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा को अपूर्व सफलता मिली थी। पर और पहले के राजनीतिक इतिहास के बरक्स देखें तो ये नतीजे किसी हद तक अप्रत्याशित भी लगेंगे। इन दोनों राज्यों के कोने-कोने में भाजपा का मजबूत सांगठनिक आधार कभी नहीं रहा, न दोनों विधानसभाओं में वह कभी पहले नंबर की विपक्षी पार्टी रही, उसे कभी सत्ता में आने का मौका मिला भी तो कनिष्ठ साझेदार के तौर पर। लेकिन इस बार उसने हरियाणा में अपने दम पर बहुमत पा लिया है, और महाराष्ट्र में भी सबसे बड़ी पार्टी के नाते उसी की सरकार बनना तय है। भाजपा की यह सफलता उसके नए विस्तार को दर्शाती है। यह विस्तार भौगोलिक ही नहीं, सामाजिक भी है। रामदास आठवले की आरपीआइ, राष्ट्रीय समाज पार्टी और शिव संग्राम पार्टी जैसे छोटे दलों को साथ लेकर भाजपा ने ऐसे तबकों में भी पैठ बनाई जिनका समर्थन पहले उसे नहीं मिलता था। हरियाणा में उसने गैर-जाट वोटों के ध्रुवीकरण की तरकीब अपनाई। जबकि कांग्रेस नए समूहों को जोड़ना तो दूर, अपने परंपरागत आधार को भी सेंध लगने से नहीं बचा सकी। भाजपा इन नतीजों को केंद्र सरकार के कामकाज पर मतदाताओं की मुहर मानती है। अगर इससे उलट परिणाम आते, तो भाजपा ही कहती कि ये विधानसभा के चुनाव थे और इन्हें मोदी सरकार के कामकाज से जोड़ कर देखना सही नहीं होगा। दरअसल, ये नतीजे संबंधित राज्यों की सरकारों से लोगों की नाराजगी बयान करते हैं। महाराष्ट्र में लगातार पंद्रह साल से कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की साझा सरकार थी। पिछले कुछ बरसों में उस पर भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोप लगे। यही हाल हरियाणा में भी कांग्रेस की सरकार का था। सरकारी नियुक्तियों में पक्षपात और रिश्वतखोरी से लेकर जमीन-जायदाद के घोटालों से वह दागदार होती रही। रही-सही कसर कांग्रेस के बेमन से चुनाव मैदान में उतरने और उसके राज्य-स्तरीय नेताओं के कलह ने पूरी कर दी। महाराष्ट्र में उसे राकांपा से गठजोड़ टूटने का भी नुकसान हुआ होगा। दूसरी ओर, भाजपा ने आक्रामक रणनीति अपनाई और महीनों से तैयारी और हर स्तर पर प्रबंधन में लगी रही। सिर्फ मोदी की रैलियों को श्रेय देना भाजपा की चुनावी मशक्कत को एकांगी करके देखना होगा। यह जन-असंतोष का ही असर था कि कांग्रेस हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला की पार्टी से भी पिछड़ गई, वह मुख्य विपक्षी पार्टी का भी स्थान हासिल नहीं कर सकी। महाराष्ट्र में भी दूसरे स्थान पर कांग्रेस या राकांपा नहीं, शिवसेना है। शिवसेना ने चुनाव के दौरान मोदी पर निशाना साधने के लिए गुजराती बनाम मराठी का द्वंद्व भी उभारने की कोशिश की थी, और भाजपा ने राकांपा को भ्रष्टाचारवादी करार दिया था। पर अब शिवसेना फिर से भाजपा से हाथ मिलाने को तैयार है और भाजपा को सांप्रदायिक मानने वाली राकांपा ने उसे बिना मांगे समर्थन देने की पेशकश की है। देखना है भाजपा किसे गले लगाती है। जो हो, इन चुनावों ने पहले के बने-बनाए सियासी रिश्ते उलट-पलट दिए; नतीजों के बाद कुछ और भी नए समीकरण बन सकते हैं। मसलन, भाजपा पंजाब में अकाली दल का साथ छोड़ कर अकेले चलने के बारे में सोच सकती है, जिसकी वकालत उसके कई प्रादेशिक नेता कुछ समय से करते रहे हैं। झारखंड, तमिलनाडु समेत कई अन्य राज्यों में वह मौजूदा या संभावित क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ पहले से कहीं कड़ाई से पेश आ सकती है। यह भी हो सकता है कि भाजपा की और बढ़ी हुई ताकत बहुत-से क्षेत्रीय दलों को कोई नया मोर्चा बनाने के लिए प्रेरित करे।
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बाकी बच गए तीन

Oct 22, 2014

महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के बाद देश की सिर्फ तीन राजनैतिक पार्टियां राष्ट्रीय पार्टी कहलाने की हालत में रह गई हैं। चुनाव आयोग की नियमावली के मुताबिक बीजेपी, कांग्रेस और सीपीआई (एम) के अलावा कोई भी राजनैतिक दल राष्ट्रीय कहलाने योग्य नहीं रह गया है। यह तमगा आम चुनाव-2014 से ठीक पहले कुल पांच पार्टियों के पास था। इनमें दो, यानी शरद पवार की एनसीपी और मायावती की बीएसपी पर चुनाव चिह्न और दिल्ली वाला बड़ा ऑफिस छिन जाने का खतरा लोकसभा चुनाव के फौरन बाद आ खड़ा हुआ था। लेकिन इन दलों ने दोनों विधानसभा चुनावों के नतीजे आने तक इंतजार कर लेने का आग्रह चुनाव आयोग से किया था। राष्ट्रीय पार्टी बनने या बने रहने के लिए किसी राजनीतिक दल को तीन में से कम से कम एक शर्त पूरी करना जरूरी है। ये हैं- आखिरी लोकसभा चुनाव में तीन राज्यों में दो-दो फीसदी वोट या फिर लोकसभा या विधानसभा चुनाव में चार राज्यों में वैध पाए गए वोटों के कम से कम 6 फीसदी के साथ लोकसभा की कम से कम चार सीटें। तीसरा विकल्प चार राज्यों में राज्य स्तर की पार्टी की मान्यता पाने का है। जो दल ऐसा नहीं कर पाता, उसकी राष्ट्र-स्तरीय पहचान का अधिकार चुनाव आयोग छीन सकता है। जब-जब इस तरह की स्थितियां सामने आती हैं, भारतीय जनतंत्र में राजनैतिक दलों की वांछनीय संख्या को लेकर बहस होने लगती है। कुछ विचारक इसे दो दलीय जनतंत्र की अपरिहार्यता तक खींच ले जाते हैं। लेकिन भारत जैसे विवधता भरे विशाल देश में दो दलीय व्यवस्था अचानक किसी के चाहने से नहीं आ जाएगी। अतीत में ऐसा देखा गया है कि जब-जब केंद्र ताकतवर होने की कोशिश करता है, हाशिये पर पड़े तबके अपनी आर्थिक-सामाजिक दशा, संस्कृति, भाषा, रहन-सहन और मिजाज को लेकर संवेदनशील हो उठते हैं। ऐसे में छोटी पार्टियां उनकी संवेदना के करीब दिखती हैं और स्थानीय स्तर पर उन्हें जबर्दस्त समर्थन मिलने लगता है। इधर कुछ समय से, खासकर बीजेपी के उभार के साथ छोटी राजनीतिक पहचानें कमजोर पड़ती लग रही हैं, लेकिन इसके आधार पर देश में एक, दो या तीन पार्टियों की ही जगह बताने की जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए। हां, चुनाव आयोग की बात अलग है। वह अपने स्तर पर पार्टियों का दर्जा छोटा-बड़ा करके उन्हें ज्यादा मेहनत करने के लिए मजबूर कर सकता है।
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राजनीतिक कौशल का कमाल

Sun, 26 Oct 2014

नरेंद्र मोदी और अमित शाह के राजनीतिक कौशल के आगे कांग्रेस समेत क्षेत्रीय दलों को हाशिये पर जाता देख रहे हैं संजय गुप्त
हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को मिली चुनावी सफलता यह बता रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा किस तरह अन्य दलों की मदद के बिना आगे बढ़ने और देश की राजनीति में व्यापक बदलाव लाने में सक्षम है। लोकसभा चुनावों के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को मिली सफलता से नरेंद्र मोदी के साथ-साथ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का भी कद और बढ़ा है। वह कुशल राजनीतिक प्रबंधक के रूप में सामने आए हैं। वह एक के बाद एक राज्यों में न केवल भाजपा की जमीन मजबूत करने वाले नेता के रूप में उभरे हैं, बल्कि पार्टी में सब कुछ व्यवस्थित और सहज-सामान्य रखने वाले नेता के रूप में भी। अमित शाह जिस तरह छोटे-बड़े पार्टी नेताओं का सहयोग लेकर अपनी चुनावी रणनीति को सफलता से पूरा करने में सक्षम हैं उससे वह विरोधी राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गए हैं। हरियाणा-महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़ने के फैसले का श्रेय सबसे अधिक अमित शाह के हिस्से में जाता है। वह यह ज्यादा अच्छे से जान रहे थे कि अकेले चुनाव मैदान में उतरने से दोनों राज्यों में भाजपा को कहीं अधिक लाभ होने जा रहा है। अंतत: ऐसा ही हुआ। हालांकि महाराष्ट्र में भाजपा को हरियाणा की तरह अपने बलबूते बहुमत नहीं मिला, लेकिन वह जिस तरह बहुमत के करीब पहुंची और फिर शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उसे बाहर से समर्थन देने का दांव चला उससे शिवसेना राजनीतिक रूप से और कमजोर पार्टी के रूप में दिखने लगी है। अब उसके सामने भाजपा को समर्थन देने के अलावा और कोई चारा नहीं। यह वह राजनीतिक परिस्थिति है जो भाजपा को और ताकत ही प्रदान करेगी। मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा के उभार के साथ ही यह भी साफ दिख रहा है कि दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के साथ-साथ क्षेत्रीय दल हाशिये पर आते जा रहे हैं। एक समय देश की राजनीति में जो स्थान कांग्रेस का था वह अब भाजपा ने ले लिया है और वह भी मजबूती के साथ।
लोकसभा चुनावों में मिली असफलता के बाद कांग्रेस अपने गढ़ माने जाने वाले राज्यों हरियाणा और महाराष्ट्र में तीसरे नंबर पर खिसक जाएगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल था। इसे दुर्योग कहा जाए या कुछ और, लेकिन राहुल गांधी जब से पार्टी उपाध्यक्ष बने हैं तब से कांग्रेस का ग्राफ नीचे झुकता जा रहा है। राहुल गांधी किस तरह पार्टी में प्रभाव छोड़ पाने में नाकाम हैं, इसका पता रह-रहकर उठने वाली इस आवाज से लगता है-प्रियंका लाओ-पार्टी बचाओ। पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने बिना लाग-लपेट स्वीकार किया कि पार्टी का मनोबल कमजोर है और सोनिया एवं राहुल को और अधिक मुखर होने की जरूरत है। इसी क्रम में उन्होंने यह भी संकेत दिया कि भविष्य में गांधी परिवार से बाहर का व्यक्ति भी पार्टी अध्यक्ष बन सकता है। किसी के लिए भी यह कहना कठिन है कि ऐसा होगा या नहीं? और होगा भी तो कब और किन परिस्थतियों में? यह सवाल इसलिए, क्योंकि अभी तो कांग्रेस में गांधी परिवार की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं खड़क रहा। कांग्रेस इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि लोकसभा चुनाव और फिर हरियाणा-महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने लोगों पर अपना जैसा प्रभाव छोड़ा उससे उसे आने वाले विधानसभा चुनावों में भी मुश्किल पेश आ सकती है।
कांग्रेस जिस तरह सिमटती चली जा रही है उसे देखते हुए पार्टी के नीति-नियंताओं को उन कारणों की तह तक जाना ही होगा जिनके चलते वह जनसमर्थन खोती जा रही है। यह माना जा रहा है कि यदि कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता का नेतृत्व करते समय निराशाजनक प्रदर्शन नहीं किया होता तो उसे भाजपा के हाथों हरियाणा और महाराष्ट्र में इतनी करारी हार का सामना नहीं करना पड़ता। हरियाणा में भाजपा की जड़ें गहरी नहीं थीं। यह राज्य भाजपा का गढ़ भी नहीं माना जाता था। पिछले चुनाव में उसे यहां केवल चार सीटें मिली थीं। इसी तरह महाराष्ट्र में वह शिवसेना के कनिष्ठ सहयोगी दल के रूप में चुनाव लड़ती थी। इस बार महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़कर वह शिवसेना से तो आगे निकली ही, सबसे प्रभावी राजनीतिक दल के रूप में भी उभर आई। कांग्रेस को यह उम्मीद थी कि भाजपा-शिवसेना के अलग-अलग चुनाव लड़ने से मतों का विभाजन होगा और इसका कुछ लाभ उसे भी मिल सकता है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हरियाणा में भी भाजपा ने कुलदीप विश्नोई और ओमप्रकाश चौटाला से किनारा कर अकेले चुनाव लड़ा और मतों के बंटने की आशंका को दरकिनार कर सबसे बड़े दल के रूप में स्थान हासिल किया। महाराष्ट्र में भाजपा का सबसे बड़े दल के रूप में उभरना और लगभग बहुमत के करीब पहुंच जाना इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि उसे मराठी मानुष की राजनीति करने वाले दल के रूप में नहीं देखा जाता था।
हरियाणा-महाराष्ट्र में चुनावी जीत के बाद मोदी सरकार के लिए अपने आर्थिक एजेंडे को बढ़ाना कहीं अधिक आसान होगा। इन दोनों राज्यों की देश के कुल सकल उत्पाद में अच्छी खासी हिस्सेदारी है। दोनों राज्य आर्थिक तौर पर अग्रणी राज्य माने जाते हैं। चूंकि मुंबई को देश की वित्तीय राजधानी के रूप में देखा जाता है इसलिए केंद्र सरकार को उद्योग-व्यापार जगत के बीच अपनी नीतियों को पहुंचाना सहज होगा। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों को देखते हुए आश्चर्य नहीं कि भाजपा जम्मू-कश्मीर और झारखंड में भी बढ़त हासिल करे और फिर बिहार पश्चिम बंगाल एवं उत्तर प्रदेश में भी बेहतर प्रदर्शन करे।
जिस तरह महाराष्ट्र में मराठी मानुष के नाम पर की जाने वाली राजनीति के दिन लदते दिख रहे हैं उसी तरह हरियाणा में जाट राजनीति का प्रभुत्व खत्म होता दिख रहा है। इंडियन नेशनल लोकदल के ओमप्रकाश चौटाला और कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा जाट प्रधान राजनीति के कारण मजबूत माने जा रहे थे, लेकिन भाजपा ने गैर जाटों पर ध्यान केंद्रित कर अपने विरोधियों को चारों खाने चित्त कर दिया। भाजपा ने गैर जाट मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री के लिए चयनित कर राज्य की जनता को एक संदेश दिया है, लेकिन उसे जाटों को भी अपने साथ लेकर चलना होगा। ऐसा करके ही वह हरियाणा का सही तरह से नेतृत्व करते हुए इस राज्य में विकास की रफ्तार बनाए रख सकती है। महाराष्ट्र में भाजपा के मजबूत उभार से यह साफ है कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने पिता बाला साहब ठाकरे की राजनीतिक विरासत को संभाल नहीं सके। अपनी आक्रामकता के कारण बाला साहब के स्वाभाविक राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले राज ठाकरे को तो महाराष्ट्र की जनता ने कोई भाव ही नहीं दिया। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के साथ-साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और हरियाणा में चौटाला, कुलदीप विश्नोई और अन्य दलों के हश्र के बाद यह आवश्यक है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपनी राजनीति के तौर-तरीकों पर नए सिरे से विचार करें। क्षेत्र के भले के नाम पर आम जनता को बरगलाने वाली राजनीति लंबे समय तक नहीं चल सकती। इसी तरह कुछ खास जातियों को गोलबंद करके की जाने वाली राजनीति का प्रभाव भी खत्म होता दिख रहा है। यह कुल मिलाकर एक शुभ संकेत ही है।
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एक तू ही धनवान है मोदी...

Tuesday October 21, 2014

तीन दशकों में पहली बार भाजपा ने मोदी की अगुआई में केंद्र पर कब्ज़ा जमाया, कांग्रेस के एकाधिपत्य को समाप्त किया और अब उन्होंने संघीय राजनीति का एक नया अध्याय लिखना शुरू कर दिया है। मोदी आशा का नया प्रतीक हैं; हारी हुई, वंशवाद में फँसी, फफूंद लगी परम्पराओं में जकड़ी कांग्रेस से देश को मुक्ति दिलाने वाले नए उद्धारक। केंद्र और राज्यों के बीच के सम्बन्ध फिर से नए रूप, नए आकार लेंगे। आपने गौर किया होगा कि हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा ने राज्य के नेताओं को आगे नहीं किया, और मंच पर सर्वोच्च आसन पर मोदी ही विराजमान रहे। मोदी ने स्थानीय मुद्दों पर बातें तो कीं, पर अपने राष्ट्रीय एजेंडा को एक बार भी नहीं भूले। कुल मिला कर ये फिर से मोदी के चुनाव थे; एक ओर मोदी और दूसरी तरफ देश के नए-पुराने राजनीतिक समीकरण के साथ थका-मंदा, भ्रमित और घबराया हुआ विपक्ष। मोदी ने एक बार फिर साबित किया कि वह न सिर्फ दूसरी पार्टी के नेताओं से, बल्कि खुद अपनी पार्टी के नेताओं से, और अपनी समूची पार्टी से भी ऊँचे हैं। देश की सियासी किताब फिर से लिखने के लिए मोदी ने कलम उठा ली है। यह कहानी किस मोड़ पर जाकर रुकेगी, लोगों को पसंद आएगी या नहीं, इन सवालों का जवाब अभी देना मुश्किल है। पर हकीकत है कि मोदी की महत्वाकांक्षा, उनकी आक्रामकता के सामने विपक्ष के कई ‘युवा, ऊर्जावान’ नेता भी फीके पड़े जा रहे हैं। क्या दर्शाते हैं, महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव? क्यों इतना महत्व रहा है इनका और क्या सबक हैं इनके भारतीय राजनीति के लिए, वोटर्स के लिए और विपक्षी दलों के लिए? पहला और सबसे स्पष्ट निष्कर्ष तो यह है कि मोदी लहर का चमत्कार, उसका हनीमून अभी भी जारी है। ये चुनाव यह भी बता रहे हैं कि कांग्रेस विरोधी लहर भी उतनी ही मजबूत है, जितनी मोदी समर्थक लहर। अधिक से अधिक पार्टी अब प्रियंका गांधी पर लटकने की कोशिश कर सकती है, पर अपने परंपरागत संदूक से बाहर निकलना और नए सिरे से सोचना उसके लिए मुमकिन नहीं लगता। दोनों चुनावों ने यह भी स्पष्ट किया कि भाजपा पूरे देश में अमित शाह और मोदी की पीठ पर लद कर चुनाव नहीं जीत सकती। कहीं न कहीं, एक सुपरमैन होने के बावजूद, मोदी को किसी वैसाखी की ज़रूरत पद सकती है। कांग्रेस समस्याओं में डूबी है, पर देश अभी कांग्रेस मुक्त नहीं हुआ। एक बात गौर करने लायक है कि खुद को बर्बाद करने के ईमानदार प्रयासों के बावजूद कांग्रेस के वफादार वोटर्स उनके साथ लगे हुए हैं।महाराष्ट्र में उनका वोटर बेस सिर्फ 3.1 प्रतिशत खिसका है। चुनाव यह भी दर्शाते हैं कि नफरत की राजनीति बहुत दिन नहीं चलती। राज ठाकरे का तबाह होना इसे साबित करता है। हरियाणा में जाट वर्चस्व को ख़त्म करना, महाराष्ट्र में नफरत का ‘राज’ तोडना, और गठबंधन की राजनीति को समाप्त करने में काफी हद तक सफल रहना, यह दर्शाता है कि भाजपा ने इन चुनावों को काफी गंभीरता से लिया था। modi.jpgमहाराष्ट्र का मुकाबला इसलिए भी ख़ास रहा क्योंकि यहाँ एक ही अजेंडे पर तीन पार्टियां थीं, और तीनों एक-दूसरे के खिलाफ थीं। राज ठाकरे मराठी माणूस और हिंदुत्व दोनों का फायदा उठाने की फिक्र में था; यानी उसकी हार क्षेत्रीयता और उसके अपने हिंदुत्व के ब्रैंड की हार थी, और जो मुक़ाबला मोदी के हिंदुत्व और उद्धव के हिंदुत्व के बीच हुआ, उसमे मोदी का हिंदुत्व और विकास का सपना आगे रहा। इससे दो निष्कर्ष उभर कर आते हैं। लोगों को हिंदुत्व और विकास का मिलाजुला कॉकटेल पसंद है, और दूसरे यह कि अभी भी बड़ी संख्या में लोग शिव सैनिक मार्का हिंदुत्व में भरोसा रखते हैं। शिवसेना से नाता तोड़ कर मोदी ने क्या यह भी स्पष्ट किया है कि वह भारत पर एकछत्र राज चाहते हैं? क्या उन्होंने यह कहना चाहा है कि गठबंधन की राजनीति में उनका भरोसा नहीं? क्या हर अच्छे काम का श्रेय और ख़राब काम की ज़िम्मेदारी वह खुद लेना चाहते हैं? महाराष्ट्र चुनाव का एक बड़ा महत्व इस बात में भी है कि भाजपा को राज्य सभा में अपनी ताकत बढ़ानी है। लोक सभा में बहुमत होने के बावजूद राज्य सभा में भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों पर निर्भर है। महाराष्ट्र और हरियाणा की राज्य सभा में क्रमशः 19 और 5 सीटें हैं। इन राज्यों में जीत से भाजपा के लिए वैधानिक सुधार सम्बन्धी कानूनों को लाना आसान हो जायेगा, हालाँकि अभी भी उसे राज्य सभा में पूरा बहुमत नहीं मिलेगा। राष्ट्रीय जीडीपी का 15 फीसदी हिस्सा महाराष्ट्र का है। आर्थिक विकास की दृष्टि से यह सबसे बड़ा राज्य है। देश की आर्थिक राजधानी है। यहाँ भाजपा की जीत उसे पूरी दुनिया के सामने विकास के अपने एक और मॉडल के रूप में पेश करने का मौका देगी। पहले गुजरात मॉडल था, अब लो आ गया महाराष्ट्र मॉडल भी! एक और संकेत महाराष्ट्र के चुनाव दे रहे हैं: मोदी ने देश की युवा पीढ़ी को राजनीति में शामिल कर दिया है। 2014 के लोकसभा चुनावों तक युवा पीढ़ी में एक तरह की उदासीनता थी राजनीति को लेकर, और मोदी ने उनकी भाषा में उनसे बातें करके उनमे एक नयी उम्मीद और नए सपने जगाये हैं। यह उनकी एक बड़ी उपलब्धि रही है। वह एक तरह के यूथ आइकॉन बन गए हैं। बॉलिवुड के सितारों, सचिन, सानिया मिर्ज़ा जैसे सुपर स्टार्स को अपने अभियानों को शामिल करके मोदी भारतीय राजनीति को एक ऐसी दिशा में ले जा रहे हैं, जहाँ वह रोचक, मनोरंजक और एक किस्म की उत्तेजना पैदा करने वाली चीज़ बन गयी है, अपने सियासी सूप में मोदी सभी मसाले डाल रहे हैं जो युवा पीढ़ी को चाहिए। भाजपा ने मोदी के इर्द गिर्द एक जादुई माहौल तैयार किया है, और वोटर्स प्रोफाइल समझने में उसे मार्केटिंग उस्ताद पूरी तरह लगे हुए हैं। जहाँ स्थानीय मुद्दे उठाये जाने हैं, वहां स्थानीय मुद्दे उठाना है, और जहाँ सपने दिखाए जाने हैं, वह सपने दिखाने है। सब कुछ सुनियोजित है। विदर्भ में उन्होंने अलग राज्य की बात की और मराठवाड़ा में पानी की कमी की। बचा खुचा काम कर रहे हैं, पूरे देश में फैले जनसंघ के कार्यकर्ता जो घर-घर जाकर पहले से ही प्रचार शुरू कर दे रहे हैं। भाजपा को शिवसेना की कमज़ोरियाँ मालूम है और महाराष्ट्र के सामने भी वे उजागर हो रही हैं। शिवसेना एक सत्ता लोलुप पार्टी है जो कभी कांग्रेस के साथ, कभी मराठी अस्मिता के साथ और कभी हिंदुत्व के साथ खेलती है। ऐसा नहीं कि भाजपा और शिवसेना के बीच की तकरार सिर्फ सीटों के मामले को लेकर हुई। जब तक बाला साहेब ठाकरे थे तब तक भाजपा का उनसे दब कर रहना ठीक था, पर अब मोदी के उदय के बाद और भाजपा की लहर के बाद भाजपा को शिवसेना से दब कर रहने का कोई अर्थ समझ नहीं आ रहा था। भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरना चाहती है और किसी क्षेत्रीय पार्टी के नीचे रह कर वह खुद को रोक नहीं सकती। कहीं न कहीं शिवसेना के साथ संबंधों की खटास मोदी के दिल में गहरे बैठी है। उनके आपसी सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं रहे। बाला साहब आडवाणी को ज़्यादा तवज्जो देते थे, सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे। यह भी महसूस होता है कि सबको साथ लेकर सबका विकास करने के मोदी के एजेंडे को पूरा करने में शिवसेना हमेशा टांग अड़ाएगी क्योंकि वह हमेशा अपने हित में हिंदुत्व और मराठियों की बात उठाएगी। यह देश में और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मोदी की छवि बिगाड़ेगा और उन्हें एक राष्ट्रीय और वैश्विक नेता के रूप में उभरने से रोकेगा जैसा कि वह कभी नहीं चाहेंगे। इसलिए यदि दूर तक सोचा जाए तो भाजपा के लिए शिवसेना से दूरी रखना ही उसके हित में है। भाजपा अब से क्षेत्रीय दलों के लिए एक गंभीर चुनौती बन चुकी है। विश्लेषण में राजनैतिक पंडितों ने कहा कि महाराष्ट्र में भी जनता मोदी लहर में बह गयी, मोदी की मार्केंटिंग स्किल्स काम आ गयीं, पार्टी ने बहुत पैसा लगाया वगैरह वगैरह। किसी पार्टी ने अपने बुरे, असंतोषजनक काम के बारे में ज़िक्र नहीं किया। इसका मतलब अभी मोदी की जीत की ओर ध्यान ज़्यादा, अपनी हार की ओर कम दिया जा रहा है। आत्मविश्लेषण का तरीका यह नहीं। विपक्ष मोदी को कम करिश्माई नही बना सकता, उनकी मार्केटिंग स्किल्स नहीं छीन सकता, न ही उन्हें कम उग्र और कम कुशल बना सकता है। उसे जो भी काम करना है, खुद पर ही करना होगा। सिर्फ एकजुट होकर ही अब विपक्ष मोदी के तूफ़ान का सामना कर सकता है। मोदी के खिलाफ मुस्लिम विरोधी होने के जो सबसे बड़े आरोप है, वे उन्हें धीरे धीरे खुद के काम से ही बोथरा बना देंगे ऐसा लगता है। समाज के सभी तबकों को साथ लेकर जिस तरह उनका रथ बढ़ा जा रहा है, उसे रोकने के लिए विपक्ष को बड़ा ही मजबूत गठबन्धन, एक बहुत ही विश्वसनीय नेतृत्व चाहिए होगा, शायद ओडिशा के नवीन पटनायक जैसा। जनता उसी को कुर्सी देगी, जो ईमानदार होगा। समय अब काफी बदल चुका है।
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रीजनल पार्टियों के लिए खतरे की घंटी

Tuesday October 21, 2014

लेखकः अवधेश कुमार ।।
कहने को ये दो राज्यों के चुनाव परिणाम हैं, पर ये देश की राजनीति के बदलते ट्रेंड को दर्शा रहे हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र में जो बीजेपी कुछ महीने पहले तक बिना सहयोगी चुनाव लड़ने तक की कल्पना नहीं कर पा रही थी, वह आज इन राज्यों में सरकार बनाने की स्थिति में है। हरियाणा में अकेले और महाराष्ट्र में गठबंधन की। स्थापित पार्टियां इन राज्यों में खत्म नहीं हुईं, पर काफी पीछे छूट चुकी हैं। दरअसल, राष्ट्रीय राजनीति में शुरू हुई बदलाव की धारा अब राज्यों की में भी पहुंच रही है। जिस तरह लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी खुद सर्वप्रमुख मुद्दा बन गए थे, लगभग वही स्थिति इन दो राज्यों के विधानसभा चुनावों में थी। 
सबका निशाना मोदी
जब तक मोदी चुनाव प्रचार में नहीं उतरे थे, लगता ही नहीं था कि दो महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी शैली में हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव अभियान शुरू किया और केंद्र की तरह प्रदेशों में भी अपने विकास कार्यक्रमों का सपना दिखाया, विपक्षी दलों का जवाबी स्वर बदल गया। वे मोदी और उनकी सरकार पर तीखा हमला करने लगे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के भाषणों को देखें, उनका फोकस मोदी इसी पर था। प्रदेशों के मुद्दे उनके भाषणों में लगभग नदारद थे। राज्य के नेताओं का निशाना भी केंद्र सरकार और मोदी बन गए। शिवसेना ने सबसे ज्यादा हमला और असभ्य शब्दों का प्रयोग मोदी के विरुद्ध ही किया। एमएनएस के नेता राज ठाकरे तो यहां तक कह गए कि चुनाव प्रचार के लिए मोदी जी ने प्रधानमंत्री कार्यालय में ताला लगा दिया है। बीजेपी ने दोनों राज्यों में किसी को नेता नहीं बनाया था, इसलिए बीजेपी का चेहरा दोनों जगह मोदी ही थे। यानी चुनाव भले राज्य विधानसभाओं के थे, पर इनका स्वरूप राष्ट्रीय राजनीति का और चेहरा मोदी बनाम अन्य का बन गया था। तो यह परिणाम अगर मोदी का है तो इससे निकला जनादेश भी वही होगा, जिसके प्रतीक मोदी बन गए हैं। मोदी ने वंशवादी नेतृत्व को नकारने और भ्रष्टाचार को खत्म करने के साथ ही गठबंधन वाला जनादेश न देने की अपील की थी। उनका तर्क था कि अगर हमें आप अकेले सरकार बनाने का अवसर देंगे तो हम केंद्र की नीतियों के अनुसार यहां भी विकास कर सकेंगे। हरियाणा में उन्होंने कहा कि वंशवादी शासन ने प्रदेश को बर्बाद कर दिया है और राजनीतिक रूप से लड़ते हुए भी वंशवादी सियासत करने वालों के बीच करप्शन पर सहमति है। हरियाणा में चुनाव पूर्व यह हवा आईएनएलडी की ओर से फैलाई गई थी कि चुनाव बाद तो वह और बीजेपी साथ मिलकर ही सरकार चलाएंगी। मोदी ने इसका करारा उत्तर दिया कि भ्रष्टाचारियों की जगह जेल में है, शासन में नहीं। तो इस तरह वंशवादी नेतृत्व और गठबंधन सरकार से परहेज तथा साफ-सुधरी सरकार और विकास को उन्होंने मुख्य मुद्दा बनाया। अगर बीजेपी को सर्वाधिक समर्थन मिला है तो यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि इन मुद्दों को समर्थन मिला। महाराष्ट्र में बीजेपी को बहुमत नहीं मिला और वहां गठबंधन सरकार बनाना उसकी मजबूरी है। लेकिन परिणाम से साफ है कि मोदी की बातों का असर लोगों पर हुआ है। वंशवादी नेतृत्व में सभी मुख्य पार्टियां आ जाती हैं। सोनिया गांधी और राहुल गांधी तो वंशवादी नेतृत्व के सबसे बड़े चरित्र हैं, लेकिन बीजेपी भी वंशवाद से मुक्त नहीं है। यह बात और है कि वसुंधरा राजे को छोड़कर किसी वंशज को नेतृत्व संभालने का मौका नहीं मिला। जो भी हो, अगर मोदी की बातों का थोड़ा भी असर मतदाताओं पर पड़ा है, तो यह उन सारे क्षेत्रीय नेताओं की चिंता बढ़ा देगा, जिनकी नजर अपने परिवार और रिश्तेदारों से आगे नहीं जाती। 
मजबूरियों से आगे
केंद्रीय नेताओं के प्रभाव से राज्यों के चुनाव परिणाम निर्धारित होने का लंबा दौर हमारी राजनीति में रहा है। लेकिन क्षेत्रीय नेताओं के उभार ने उनके प्रभाव को कमजोर कर दिया। वर्ष 1989 के बाद से गठबंधन सरकारों का दौर चला। क्षेत्रीय पार्टियों का उदय पहले ही हो चुका था, पर उनका सशक्तीकरण उसके बाद तेजी से हुआ। इनकी ताकत बढ़ने से केंद्र और कई बार प्रदेशों में भी सरकारों की स्थिरता पर सवाल उठे। मजबूरी में लिए गए फैसलों से समस्याएं खड़ी होने लगीं। सत्ता पाने के लिए ये नेता राजनीति के विखंडन को संघीय ढांचे की सच्ची अभिव्यक्ति साबित करते रहे। इन वजहों से आम लोगों के अंदर गठबंधन के दबाव, राजनीतिक अस्थिरता तथा व्यवहार में कमजोर दिखती सरकारों के प्रति वितृष्णा बढ़ी है, जिसकी झलक कुछ हद तक लोकसभा चुनाव में दिखी। उस समय मतदाताओं ने कई जकड़बंदियों जैसे जाति, क्षेत्र, यहां तक कि तथाकथित राजनीतिक विचारधाराओं को भी तिलांजलि देकर अपना मत दिया। यह पूर्ण नहीं, आंशिक था, पर ऐसा हुआ। ठीक वही चरित्र हम इन दोनों राज्यों के चुनावों में भी देख सकते है। यानी यह भारतीय राजनीति के चरित्र में बदलाव की प्रक्रिया का क्रमिक विस्तार है। मोदी का कारक होना इस प्रक्रिया को बल प्रदान कर रहा है।
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मोदी की लहर से मजबूत हुई बीजेपी

Sunday October 19, 2014

लोकसभा चुनाव के बाद लग रहा था कि देश में बीजेपी का समय आ गया है, मगर फिर उसे उपचुनावों में झटका लगा। मोदी का जादू चंद दिनों में ही उतर जाने की चर्चाएं होने लगीं। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों की अहमियत इसी वजह से काफी बढ़ गयी थी। इन दो राज्यों के मतदाताओं के रुख से साफ होने वाला था कि लोकसभा चुनाव में चली मोदी की आंधी ‘वन टाइम फिनोमिना’ थी या देश बीजेपी को सचमुच आजमाना चाहता है। अब जबकि हरियाणा में तो बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिल गया और महाराष्ट्र में वह बहुमत से करीब तीन दर्जन सीटें पीछे नजर आ रही है, तो यह दिखने लगा है कि लोकसभा चुनाव के परिणाम एक बार का जादू नहीं थे। दोनों राज्यों में अकेले चुनाव लड़कर बीजेपी ने खुद को आजमाया है। जब से गठबंधन की राजनीति शुरू हुई है, कम से कम महाराष्ट् में तब से पहली बार दोनों गठजोड़ों की पार्टियों कांग्रेस-एनसीपी और शिवसेना-बीजेपी ने पहली बार अकेले चुनाव लड़ा। चुनाव से ऐन पहले गठजोड़ टूटने के चाहे जो कारण रहे हों, इससे हर पार्टी की असली ताकत का अंदाज हो गया।
कारगर रही रणनीति
हरियाणा में लोकसभा चुनाव की तरह कांग्रेस विरोधी आंधी चली। महाराष्ट्र में भी कमोबेश यही हालत नजर आयी। इसे क्या संकेत समझा जाये कि इन दोनों राज्यों में बीजेपी अव्वल रही और कांग्रेस तीसरे नंबर पर जा फिसली। दूसरे नंबर पर क्षेत्रीय पार्टी शिवसेना और आईएनएलडी रहीं। तस्वीर साफ है। दोनों राज्यों की जनता ने बीजेपी को मौका देकर यह आंकना चाहा है कि क्या कोई एक पार्टी उनके लिए अच्छे काम कर सकती है। हरियणा में तो जनादेश स्पष्ट रहा। महाराष्ट्र में पंचकोणीय मुकाबले के कारण वोटों का बंटवारा कुछ इस तरह हुआ कि बीजेपी बहुमत से दूर रह गयी। इतनी दूर कि उसके पास वापस गठजोड़ की ओर लौटने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। चुनाव के ट्रेंड सामने आना शुरू होते ही बीजेपी और शिवसेना की ओर से हाथ मिलाने के संकेत भी आने लगे। बात साफ है। इन दोनों में विचारधारा के स्तर पर कोई मतभेद था ही नहीं। न ही हितों का कोई टकराव था। बात केवल ज्यादा सीटों और उसके अनुसार मुख्यमंत्री पद की थी। दोनों ने सोच-समझकर अलग होने और अपनी-अपनी सही ताकत को भांपने का फैसला किया। बीजेपी को जहां मोदी की लहर का भरोसा था, वहीं शिवसेना को मराठी अस्मिता के नाम पर वोट जुटाने की रणनीति कारगर लग रही थी। जैसे ही मतदाताओं के फैसले आये, दोनों भगवा पार्टियां हाथ मिलाने को बेताब नजर आयीं। मानो वे इसके लिए पहले से तैयार थीं। तो क्या इसे मतदाताओं की भावनाओं से खिलवाड़ नहीं माना जाना चाहिए?
मतदाताओं को ऐसा जरूर लग सकता है। मगर, आश्चर्य की बात यह है कि पार्टी कार्यकर्ता ऐसा नहीं मानते। उनका फंडा साफ है- ‘साहेब (उद्धव ठाकरे) या आलाकमान (बीजेपी नेतृत्व) ने जैसा कहा, हमने किया। अब वे जैसा चाहें, करें। हम तो कमिटेड कैडर हैं।’ अगर कांग्रेस और एनसीपी इस स्थिति में होते, तो उनके कार्यकर्ताओं को अपने-अपने आलाकमान का रूठकर मान जाने का ऐसा खेल शायद ही भाता।
मिलेंगे भगवा हाथ
बीजेपी के सामने एनसीपी से गठजोड़ का विकल्प भी है, मगर उनकी विचारधाराओं का अंतर उसे परवान नहीं चढ़ने देगा। ले-देकर हिंदुत्व का एजेंडा ही बीजेपी-शिवसेना को फिर नजदीक ले आयेगा। आखिर दोनों पार्टियों की ओर से ये इशारे तो मिलने शुरू हो ही गये हैं कि बात की जा सकती है। ये दोनों 15 साल बाद राज्य में सत्ता हासिल करने को बेताब हैं। यह बात और है कि शिवसेना को मुख्यमंत्री पद की मांग छोड़नी होगी। गठजोड़ टूटने के बाद शिवसेना ने केंद्र सरकार से अपने मंत्री अनंत गीते को नहीं हटाया, न ही मोदी ने उनसे इस्तीफा मांगा। यानी दोनों पार्टियां बाद में सुलह की संभावना को लेकर चल रही थीं। दरअसल, इस सब में एक और ‘सिचुएशन’ भी महत्वपूर्ण है। महाराष्ट्र में 12 बड़ी महानगर पालिकाओं में शिवसेना-बीजेपी की सत्ता है। अगर अब ये दोनों पार्टियां राज्य सरकार बनाने के लिए हाथ नहीं मिलाती हैं, तो उसका असर स्थानीय शासन पर भी पड़ेगा और शिवसेना को इनमें से ज्यादातर महानगर पालिकाओं की सत्ता गंवानी पड़ेगी। इससे उसका कैडर उससे टूट सकता है। अपने कैडर को साथ बनाये रखने के लिए भी शिवसेना के लिए बीजेपी से हाथ मिलाना जरूरी है। इस पूरे मामले में ‘विन-विन सिचुएशन’ में तो बीजेपी ही रही। उसने अपना रसूख दिखा दिया, कांग्रेस-एनसीपी का सफाया कर दिया और शिवसेना को झुकने को भी मजबूर कर दिया।
कांग्रेस को झटका
हरियाणा में पूर्ण बहुमत मिलने से बीजेपी को दिल्ली विधानसभा के चुनाव कराने के लिए भी प्रोत्साहन मिलेगा। कांग्रेस के लिए इन दो राज्यों की हार को पचाना मुश्किल होगा। आजादी बाद ऐसा पहली बार होने जा रहा है, जबकि कांग्रेस के पास केंद्र की सत्ता नहीं है और उसके शासन वाले राज्यों की संख्या भी किसी दूसरी पार्टी (बीजेपी) के शासन वाले राज्यों से कम रह गयी है। इन चुनावों के बाद कांग्रेस के हाथ से दो और राज्यों की सत्ता निकल गयी। आजादी के बाद, इससे पहले कांग्रेस को दो बार देश भर में झटके जरूर लगे थे, मगर उसकी इतनी बुरी हालत कभी नहीं रही। 1967 में कई राज्यों में संविद सरकारों के गठन और 1977 में आपातकाल के बाद जनता पार्टी की आंधी से कांग्रेस को पहली बार परेशनी हुई थी। उसके बाद केंद्र में वह 1989-1990 और 1996-2004 के दौरान सत्ता से बाहर रही। हालांकि उस दौर में भी मजबूरी के गठजोड़ों के कारण हमेशा यह संभावना रहती थी कि कांग्रेस की कभी भी वापसी हो सकती है। इस बार ऐसा नहीं है। जब तक कि क्षेत्रीय पार्टियों का पूरी तहर सफाया न हो जाये या बीजेपी की आंधी थम न जाये, तब तक कांग्रेस के लिए वापसी करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होगा।
आगे के आसार
अब देश के राजनीतिक परिदृश्य का भविष्य तीन में से किसी एक दिशा में जा सकता है- बीजेपी, कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच कशमकश जारी रहे, कांग्रेस का सफाया होने के बाद बीजेपी और क्षेत्रीय पार्टियों का वैसा ही अस्तित्व बचे, जैसा का कुछ साल पहले तक कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों का था, कांग्रेस फिर मजबूत हो और क्षेत्रीय पार्टियों के धीरे-धीरे पार्श्व में जाने से मुख्य मुकाबला बीजेपी-कांग्रेस के बीच रह जाये।
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भाजपा विरोधी राजनीति के अस्तित्व का सवाल

महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत से कांग्रेस जमींदोज हो गई है, तो क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा है। भाजपा का अगला निशाना अब झारखंड और जम्मू- कश्मीर हैं। इन राज्यों के विस चुनावों की तारीखें घोषित हो गई हैं। इन दोनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार है जिसमें कांग्रेस सहयोगी की भूमिका में है। इसलिए भाजपा के विजय रथ को रोकने की बड़ी चुनौती क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस के सामने है। झारखंड में सत्तारूढ़ झामुमो और कांग्रेस अपने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं ताकि मतों का बिखराव रोका जा सके। किंतु जम्मू-कश्मीर में स्थिति उलट है। यहां सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन टूट चुका है। दोनों अलग-अलग चुनाव में जाने को तैयार हैं। फलत: बहुकोणीय मुकाबला तय है। इससे भाजपा उत्साहित है। जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाना प्रधानमंत्री मोदी और अध्यक्ष अमित शाह का ड्रीम प्लान है। वे इन दोनों राज्यों में अपने दम पर सरकार बनाना चाहते हैं। हरियाणा में भाजपा को मिली अभूतपूर्व सफलता ने क्षेत्रीय क्षत्रपों की बेचैनी और बढ़ा दी है। जनसंख्या और सीटों के लिहाज से झारखंड और जम्मू- कश्मीर छोटे राज्य जरूर हैं, किंतु वर्तमान राजनीति हालात में ये राज्य चुनावी दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं। यहां क्षेत्रीय क्षत्रप कसौटी पर हैं। चुनाव परिणाम आगे की दिशा तय करेंगे क्योंकि अगले साल बिहार में चुनाव होने वाले हैं, तो वर्ष 2016 की शुरुआत में ही चार महत्वपूर्ण राज्यों में (पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल तथा असम) में चुनाव तय हैं। फिलहाल इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस की सरकारें हैं। यहां भाजपा के अप्रत्याशित उभार से क्षेत्रीय राजनीति करने वाले क्षत्रप हैरान-परेशान हैं क्योंकि भाजपा राज्यों में अपना राजनीतिक आधार बढ़ाने के लिए छोटे-छोटे दलों को मिला रही है अथवा उनसे गठबंधन कर रही है। इतना ही नहीं, वह क्षेत्रीय क्षत्रपों की ही तरह क्षेत्रीय सवाल उठाकर उनको अप्रसांगिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। इसलिए उसने राज्यों के चुनावों में क्षेत्रीय घोषणापत्र जारी करने का नया राजनीतिक हथकंडा अपनाया है। उसका यह प्रयोग काफी सफल रहा है। अभी तक कांग्रेस ऐसा करने में चूक रही थी, जिसका ही फायदा उठाकर क्षेत्रीय क्षत्रप क्षेत्रीय सवाल जोर-शोर से उठाते हुए जनता का भरोसा जीतते रहे। अब भाजपा ने उनके समक्ष बड़ी समस्या खड़ी कर दी है क्योंकि झारखंड और जम्मू-कश्मीर के बाद बड़ी सियासी लड़ाई बिहार में होनी है जहां भाजपा का मुकाबला क्षेत्रीय राजनीति के अलंबरदार नीतीश कुमार और लालू यादव से होगा। यहां भाजपा रामबिलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा से गठजोड़ कर लोकसभा चुनाव में इन दोनों को धूल चटा चुकी है। इसे देखते हुए इन दोनों क्षत्रपों ने उपचुनावों में कांग्रेस के साथ मिलकर गठबंधन राजनीति के तहत उसकी आंधी रोकने की कोशिश जरूर की है, किंतु विस चुनाव में ही इस गठबंधन की असल अग्निपरीक्षा होनी है। इतना ही नहीं, पश्चिम बंगाल में भी भाजपा का वोट प्रतिशत जिस तरह बढ़ा है उसने ममता बनर्जी को नए सिरे से सोचने के लिए विवश कर दिया है। भाजपा इन दोनों राज्यों में इन क्षत्रपों को हरियाणा और महाराष्ट्र की तरह उनकी हद बताना चाहती है। इसीलिए उसने अभी से ही इन दोनों राज्यों पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया है। झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भाजपा की नजर छोटे क्षेत्रीय दलों को मिलाने के अलावा कांग्रेस तथा सत्तारूढ़ दल से नाराज नेताओं के पाला बदल पर टिकी है। इसी रणनीति के तहत उसे हरियाणा और महाराष्ट्र में बड़ी सफलता भी मिल चुकी है। वह ऐसी ही सफलता हासिल कर कश्मीरी अलगाववादियों को भी कड़ा जवाब देना चाहती है। आपदा राहत की घोषणा और उसकी निगरानी तथा जवानों के बीच पीएम का दिवाली मनाना उसकी इसी दूरगामी राजनीति का हिस्सा माना जा रहा है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को यह नहीं भूलना चाहिए कि बहुकोणीय मुकाबले में भाजपा को ही फायदा होता है। हालिया चुनाव परिणाम इसके गवाह हैं। कुछ ऐसी ही भूल महाराष्ट्र में एनसीपी, कांग्रेस से अलग चुनाव में जाकर कर चुकी है। जम्मू-कश्मीर के जो हालात हैं उसमें हवा का रुख कांग्रेस के खिलाफ दिखता है। ऐसे में ‘एकला चलो’ की राजनीति उसे भारी पड़ सकती है। यहां भी कांग्रेस की राज्य इकाई नेशनल कांफ्रेंस के साथ चुनाव न लड़ने की हिमायती है। किंतु महाराष्ट्र में अलग लड़ने के कांग्रेस के फैसले ने उसे मुख्य पार्टी से तीसरे पायदान पर ला दिया है। इसलिए कांग्रेस को अपनी इस रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। उसे मतों के बिखराव को रोकने के लिए नए सिरे से पहल करनी चाहिए क्योंकि ग्यारह राज्यों में ही अब उसकी सरकारें बची हैं। पिछले ढाई साल में लोकसभा चुनाव के अलावा सोलह राज्यों के चुनाव हुए हैं। इनमें से ग्यारह में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई है। ऐसे में उसे गठबंधन की सरकार वाले राज्यों में येन-केन-प्रकारेण सत्ता में वापसी की कोशिश करनी चाहिए। लगातार चुनावी पराजय से उसके कार्यकर्ताओं में निराशा है। उनका मनोबल बढ़ाने के लिए जीत की संजीवनी चाहिए। कांग्रेस को जम्मू-कश्मीर में गठबंधन की राजनीति को आजमाने में गुरेज नहीं करना चाहिए। उसे प्रतिकूल राजनीतिक माहौल को अनुकूल बनाने के लिए तात्कालिक और दीर्घकालिक रणनीति पर साथ-साथ काम करना होगा। उसकी पहली प्राथमिकता किसी तरह गठबंधन की सरकार वाले राज्यों में सरकार बचाने की होनी चाहिए। साथ ही उसे राज्यों में संगठन को मजबूत करने और युवा चेहरों को कमान सौंपने के फॉमरूले पर काम करना चाहिए। अन्यथा राहुल के नेतृत्व को लेकर उठ रहा सवाल और मुखर हो सकता है क्योंकि उनकी लगातार कोशिशों के बावजूद यूपी, बिहार, बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों में कांग्रेस अपनी पकड़ नहीं बना पा रही है। आपसी गुटबंदी के चलते पार्टी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी सत्ता से दूर है। राहुल को यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्ष 1998 में सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस की कमान संभाली थी तो पार्टी की सरकार सिर्फ चार राज्यों में थी, लेकिन बाद में वह 15 राज्यों की सत्ता में आ गई थी। वैसे झारखंड में गठबंधन राजनीति का लिटमस टेस्ट होगा। क्षेत्रीय क्षत्रप धर्मनिरपेक्ष मतों का विभाजन रोकने के लिए कांग्रेस के साथ लामबंद हो रहे हैं। वहां के चुनावी परिणाम पड़ोसी राज्य बिहार की राजनीतिक दिशा भी तय करेंगे। यहां गठबंधन की राजनीति कसौटी पर है जो 2015 में बिहार चुनाव की राजनीतिक दिशा तय करेगी क्योंकि बिहार के उपचुनावों में भाजपा को रोकने के लिए लालू-नीतीश ने कांग्रेस के साथ मिलकर गठबंधन राजनीति का नया राजनीतिक दांव चला था। उन्हें इसमें सफलता भी मिली है। झारखंड में भी यही दांव आजमाया जा रहा है जो गठबंधन राजनीति का भविष्य तय करेगा।
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तो ऐसी पार्टी का सिमटना ही देशहित में

Oct 22 2014

महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों ने देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के लिए अस्तित्व के संकट का सवाल सतह पर ला दिया है. यह पार्टी अपने 129 सालों के इतिहास में कभी इतनी बेचारगी से नहीं गुजरी, जितनी आज गुजर रही है. गत अप्रैल-मई में हुए आम चुनाव से पहले तक लोग इस पार्टी की सबसे बड़ी ताकत इसके देशव्यापी होने को मानते थे, पर आज इसे लोग सिमटती हुई पार्टी के रूप में देखने लगे हैं. हो सकता है कि बहुत से लोग यह सोचते हों कि चिंता हम क्यों करें, चिंता तो कांग्रेस के कर्ता-धर्ताओं को करनी चाहिए. लेकिन सोचिये, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में भाजपा के अखिल भारतीय स्वरूप की ओर बढ़ने की प्रक्रिया जहां लोकतंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में स्वागतयोग्य है, वहीं कांग्रेस का अखिल भारतीय स्वरूप सिमटने की प्रक्रिया लोकतंत्र की सेहत के लिए चिंताजनक है और खासतौर पर तब, जबकि अखिल भारतीय पर कोई अन्य पार्टी हो ही न. अब तक देश ने सभी प्रयोग देख लिये- एक पार्टी का ऊपर से नीचे तक शासन, मिश्रित शासन, गंठबंधन की सरकारें, ऐसी पार्टियों वाली सरकारें जो केंद्र में सत्तारूढ़ दल के साथ होती हैं तो राज्य में विपक्षी दल के साथ. इन सबको देखने के बाद कल का विपक्षी दल, जो आज सत्ता में है, कहने लगा है कि देश के विकास के लिए जरूरी है कि प्रधानमंत्री यानी केंद्र सरकार और मुख्यमंत्री यानी राज्य सरकार एक टीम के तौर पर काम करें. यह स्थायी रूप से कब हो सकता है, तब ही न जब केंद्र और राज्य में एक ही दल या फिर साथी दलों की सरकारें हों. इस बयान का अभिप्राय साफ है कि 1967 से पहले कमोबेश कांग्रेस की जो स्थिति थी, वही स्थिति मौजूदा सत्तारूढ़ दल चाहता है. लेकिन तब और आज की स्थिति में एक बड़ा फर्क यह आया है कि तब राजनीतिक सहिष्णुता ज्यादा थी और आज यह सिमटती जा रही है. इस फर्क को और इस फर्क की वजह से उत्पन्न हुई राजनीतिक जरूरत को कुछ क्षेत्रीय दल समझ रहे हैं और वे बड़े राज्यों में प्रभाव रखनेवाला एक साझा राजनीतिक मंच बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं. लेकिन क्या सिर्फ इतने भर से इस वक्त की राजनीतिक जरूरत पूरी हो सकेगी? कांग्रेस के लिए सबसे चिंताजनक बात यह होनी चाहिए कि लोग उससे अपेक्षा रखना ही बंद करते जा रहे हैं. ऐसा हो भी क्यों न, जब कांग्रेस के नेताओं की करनी और जन जरूरतों के बीच कोई तालमेल ही न रह गया हो. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी के कैरियर को ही देखिये. इससे ज्यादा हास्यास्पद क्या होगा कि वे 19 अक्तूबर को विशाखापत्तनम में हुदहुद प्रभावित क्षेत्रों के दौरे पर थे और कह रहे थे कि प्रभावितों के मुद्दों पर कांग्रेस के सांसद पूरा दम लगा कर केंद्र पर दबाव बनाएंगे. यहां गौरतलब है कि हुदहुद के समय आपदा प्रबंधन बहुत प्रभावी तरीके हुआ, जिससे इसके विनाशकारी प्रभाव को न्यूनतम स्तर पर रखने में मदद मिली. करीब एक साल पहले ओड़िशा में भी ऐसा ही तूफान आया था और उस समय भी आपदा प्रबंधन बहुत ही सक्षम तरीके से हुआ था. मुङो नहीं याद आता कि किसी राष्ट्रीय दल का सबसे बड़ा नेता वहां राहुल की तरह दौरे पर गया, क्योंकि कहीं कुछ इतना बड़ा गड़बड़ था ही नहीं. कांग्रेस के लोग अपने नेतृत्व पर सवाल तो नहीं ही उठा रहे, बल्कि यह साबित करने में लगे हुए हैं कि राहुल तो गलत हो ही नहीं सकते. दूसरी तरफ भाजपा को देखिये. 2009 का चुनाव आडवाणी जी के नेतृत्व में लड़ा गया, जिसमें भाजपा का प्रदर्शन कमजोर रहा. जब 2014 का चुनाव आनेवाला था, तब पार्टी के भीतर से ही नेतृत्व को बदलने की प्रक्रिया शुरू हो गयी और चुनाव से काफी पहले नेतृत्व बदलाव कर लिया गया. देखा जाये तो आज से 10-15 साल पहले कोई भाजपाई यह कल्पना नहीं कर सकता था कि अटल या आडवाणी के रहते उनकी पार्टी का नेतृत्व सफलतापूर्वक किसी और के हाथ में जा सकता है. लेकिन ऐसा हुआ. ऐसा नहीं है कि भाजपा में यह बदलाव बहुत आसानी से हो गया. भाजपा में भी तमाम परोक्ष-अपरोक्ष बाधाएं और तमाम कल्पित सवाल भी सामने आये. कांग्रेस में ऐसा संभव है क्या? कांग्रेस में आम चुनाव के काफी पहले से सब जान रहे थे कि हालत खराब है और नेतृत्व इतना सक्षम नहीं है कि वह अपने जुझारुपन, विजन और संप्रेषण क्षमता से तस्वीर बदल सके. पर बोला किसी ने नहीं. नतीजे के बाद तो और गजब रहा. कांग्रेस के बड़े नेता राहुल को क्लीनचिट देने में लग गये कि हार की जिम्मेवारी उनकी नहीं है, बल्कि सामूहिक रूप से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की है. आपने देखा है कभी ऐसी उलटबांसी, कि सेना हार जाये और सेनापति विजयी रहे. कांग्रेस में यही हो रहा है. मुझे लगता है कि अब बहुत सारे लोगों के दिमाग में यह सवाल चल रहा होगा कि क्या अखिल भारतीय स्तर की 129 साल पुरानी पार्टी में एक भी नेता-कार्यकर्ता ऐसा नहीं, जो सच बोलने का साहस रखता हो और यदि नहीं है तो ऐसी पार्टी का सिमट जाना ही देश के लिए अच्छा है. नीतियां तो तब ठीक होंगी और ठीक से चल पाएंगी, जब पार्टी देशहित को सामने रख कर चलेगी. लेकिन कांग्रेस पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए सोनिया-राहुल ही सर्वोपरि हैं और उनको खुश रखने के लिए ही उनका हर क्रियाकलाप होता है. यह बात सही है कि कांग्रेस के सिमटने से पैदा होनेवाले निर्वात को भरने में समय लगेगा, लेकिन यह निर्वात हमेशा नहीं बना रहेगा. कांग्रेस नहीं सक्षम होगी तो कोई और फॉर्मेशन लेफ्ट टू सेंटर के रूप में मूर्त रूप लेगा, लेकिन यह एक लंबी प्रक्रिया होगी. ठीक वैसे ही जैसे आजादी के बाद 40-45 साल लग गये मजबूत विपक्ष (राइट टू सेंटर) खड़ा होने में.
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श्रमेव जयते




श्रम सुधारों की राह

Fri, 17 Oct 2014 

निवेश के लिए मेक इन इंडिया अभियान शुरू करने के बाद अगला स्वाभाविक कदम श्रम सुधारों की दिशा में आगे बढ़ना ही था। यह स्वागतयोग्य है कि श्रमेव कार्यक्रम के शुभारंभ के मौके पर कई ऐसी घोषणाएं की गई जो श्रम कानूनों में सुधार की दृष्टि से मील का पत्थर हैं। अब कारखाना संचालकों को 16 फार्म भरने के बजाय एक फार्म भरना होगा और वह भी ऑनलाइन। इससे कारखाना मालिकों को केवल सहूलियत ही नहीं मिलेगी, बल्कि उन्हें भ्रष्टाचार से भी मुक्ति मिलेगी। इसी तरह श्रम निरीक्षण योजना में बदलाव सुनिश्चित कर वस्तुत: इंस्पेक्टर राज को खत्म किया जा रहा है। आम धारणा यह है कि 1991 में आर्थिक उदारीकरण के साथ ही भारत ने लाइसेंस-कोटा-परमिट राज के साथ-साथ इंस्पेक्टर राज से मुक्ति पा ली थी, लेकिन सच यह है कि उपयुक्त कदम न उठाए जाने के कारण पुरानी व्यवस्था के अवशेष मौजूद थे। इंस्पेक्टर राज का असली खात्मा तो अब होगा। इंस्पेक्टर राज के खात्मे की व्यवस्था के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो अन्य घोषणाएं की हैं उनसे उद्योग-व्यापार जगत को उत्साहित होना चाहिए। उसे यह भरोसा भी होना चाहिए कि शेष श्रम सुधार भी जल्द ही पूरे होंगे। वैसे तो केंद्र सरकार ने कर्मचारियों और नियोक्ताओं को सहूलियत देने के इरादे से 1948 के कारखाना कानून, 1961 के अप्रेंटिसशिप अधिनियम और 1988 के श्रम कानून में संशोधन के विधेयक संसद में पेश कर दिए हैं, लेकिन इतने मात्र से उत्साहित नहीं हुआ जा सकता। इसका एक कारण तो यह है कि इन कानूनों में कोई व्यापक बदलाव प्रस्तावित नहीं है और दूसरे, अभी ढेर सारे ऐसे कानून हैं जिनमें संशोधन को लेकर विचार-विमर्श जारी है। एक अनुमान है कि अपने देश में श्रम और उद्योग संबंधी कानूनों की संख्या चालीस से अधिक है और इनमें से ज्यादातर में बदलाव आवश्यक हो चुका है। इस बदलाव को हासिल करके ही देश में कारोबारी माहौल को दुरुस्त किया जा सकता है।
आर्थिक उदारीकरण के इस युग में पुराने जमाने और खासकर साम्यवादी चिंतन से निर्मित श्रम एवं उद्योग संबंधी कानूनों से देश का भला होने वाला नहीं है। यह वह तथ्य है जिसे राजनीतिक दलों को भी समझना होगा और श्रमिक संगठनों को भी। इसमें संदेह है कि श्रम कानूनों में बदलाव की पहल का विरोधी राजनीतिक दल स्वागत करने के लिए तैयार होंगे। आश्चर्य नहीं कि वे मोदी सरकार को श्रमिकों का विरोधी करार देने में देर न करें। अपने देश में किसी भी अच्छी पहल को राजनीतिक दलों की ओर से किसी न किसी बहाने अनुचित ठहराने की प्रवृत्तिकुछ ज्यादा ही नजर आती है। यही कारण है कि व्यवस्था में सुधार के प्रयास उस ढंग से आगे नहीं बढ़ पाते जिस तरह उन्हें बढ़ना चाहिए। श्रम सुधारों के संदर्भ में कुछ ऐसा ही रवैया विरोधी राजनीतिक दलों के साथ-साथ श्रमिक संगठन भी अपना सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो यह विरोध के लिए विरोध का एक और उदाहरण होगा, क्योंकि श्रम कानूनों में बदलाव वक्त की जरूरत बन चुके हैं और ऐसा न करने का अर्थ होगा श्रमिकों, उद्योगों और साथ ही देश का अहित करना।
[मुख्य संपादकीय]
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लेबर रिफॉर्म की खुशनुमा ओपनिंग

नवभारत टाइम्स| Oct 17, 2014,

गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को एक नया नारा दिया- श्रमेव जयते। 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते योजना' का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा कि इस नारे में देश को आगे बढ़ाने की उतनी ही ताकत है, जितनी सत्यमेव जयते में है। उनकी इस बात को सिर्फ प्रतीकात्मक मानकर चलें तो इसके आगे उन्होंने जो कहा वह एक बिल्कुल ठोस बात है और देश को आने वाले दिनों में उसकी आजमाइश का मौका मिलेगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि 'श्रम से जुड़े मसलों को हमें श्रमिकों की नजर से देखना होगा। उद्योगपतियों के नजरिये से इन्हें नहीं देखा जा सकता।' अपनी इस बात के जरिए प्रधानमंत्री ने पिछली सरकारों के नजरिये में दिखी एक बड़ी भूल की तरफ इशारा किया है। सरकारों में बैठे लोग ही नहीं, बड़े-बड़े अर्थशास्त्री भी मजदूरों-कर्मचारियों से जुड़े मुद्दों को अक्सर निवेशकों या उद्योगपतियों के ही चश्मे से देखने की गलती करते रहे हैं। बहरहाल, प्रधानमंत्री ने जिस योजना का उद्घाटन करते हुए ये बातें कहीं, उसमें तीन बड़ी चीजें शामिल हैं - श्रमिकों के लिए एकीकृत श्रम सुविधा पोर्टल, श्रम निरीक्षण योजना और एम्प्लॉयीज प्रॉविडेंट फंड के लिए एक स्थायी खाता नंबर। इसके अलावा एक अप्रेंटिस प्रोत्साहन योजना भी शुरू की गई है, जिसके तहत प्रशिक्षु कर्मचारियों को मिलने वाला मानदेय बढ़ाने की बात कही गई है। पीएफ के लिए स्थायी नंबर भी कर्मचारियों को सहूलियत देगा। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू करने का फैसला भी सराहनीय है। लेकिन जिन दो अन्य बड़ी सहूलियतों का जिक्र इस योजना में किया गया है, उनसे श्रमिकों का कोई सीधा नाता खोजना मुश्किल है। नई लेबर इंस्पेक्शन स्कीम के तहत लेबर इंस्पेक्टरों के पास यह तय करने का अधिकार नहीं रह जाएगा कि कब किस यूनिट के किस हिस्से का निरीक्षण करना है। ऐसे ही, श्रम सुविधा पोर्टल के लिए एम्प्लॉयर्स को एक-एक श्रम पहचान संख्या दी जाएगी, जिसके जरिए वे रिटर्न्स की ई-फाइलिंग कर सकेंगे। इसके अलावा श्रम कानूनों के बाबत एम्प्लॉयर्स को जो 16 फॉर्म भरने पड़ते थे, उनकी जगह अब सिर्फ एक फॉर्म भरना पड़ेगा। बेशक, ये कदम महत्वपूर्ण हैं। एम्प्लॉयर कंपनियों को कानूनी जटिलताओं से बचाना और लेबर इंस्पेक्टरों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना सरकार का एक बड़ा दायित्व है। लेकिन, इन दोनों को श्रमिकों से जुड़ा मसला बताने की क्या मजबूरी थी, यह समझ नहीं आता। और अगर ये सीधे तौर पर श्रमिकों से जुड़े मसले नहीं थे तो फिर उन्हें श्रमेव जयते स्कीम के तहत डालने की जरूरत क्यों आन पड़ी? ऐसा क्या पैकेजिंग के मकसद से किया गया है, ताकि यह पूरी स्कीम ज्यादा वजनदार लगे? कारण जो भी हो, पर ऐसा करके इस सरकार ने भी श्रमिकों के मसले को उद्योगपतियों की नजर से देखने की ठीक वही गलती की है, जिसकी तरफ प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में इशारा किया है।
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संतुलन की कवायद

16-10-14

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रम सुधारों के लिए जो ‘श्रमेव जयते’ कार्यक्रम की शुरुआत की है, वह उनकी कार्यशैली के अनुरूप है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले उनके कई समर्थक यह मानते थे कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बने, तो देश में बड़े और परिवर्तनकारी फैसलों की झड़ी लग जाएगी। जबकि मोदी ने एकदम दूसरी शैली अपनाई। बड़े फैसले करके टकराहट और विवाद पैदा करने की बजाय वे छोटे-छोटे प्रशासनिक सुधारों के जरिये आगे बढ़ने की नीति पर चल रहे हैं। ‘श्रमेव जयते’ भी ऐसा ही कार्यक्रम है। श्रम सुधार बेहद विवादास्पद मामला है। हर सरकार इस पर बात जरूर करती है, लेकिन असल मौके पर कतरा जाती है। यह आम धारणा है कि श्रम सुधारों से मालिकों के अधिकार बढ़ जाएंगे और श्रमिकों के बचे-खुचे अधिकार भी खत्म हो जाएंगे। श्रम सुधारों के समर्थकों का कहना है कि भारत में श्रम कानून बहुत पेचीदा है, इसलिए रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं। मालिक बजाय मजदूरों को बाकायदा नौकरी देने के ठेकेदारी और टेक्नोलॉजी का ज्यादा सहारा ले रहे हैं। भारत में रोजगार की स्थिति फिलहाल बहुत अच्छी नहीं है, न ही बेरोजगार या अनियमित रोजगार वाले श्रमिकों के लिए कोई सुरक्षा है। ऐसे में, श्रम सुधारों की कोशिश बर्र के छत्ते को छेड़ने जैसा हो सकता है। केंद्र सरकार ने अब जो कदम उठाया है, उसमें विवाद की गुंजाइश खत्म हो जाती है। उसने श्रम सुधारों को ज्यादा व्यापक बदलावों से जोड़ दिया है, और श्रमिकों को रखने-निकालने के बारे में ज्यादा उदार नियमों को उसने फिलहाल मुल्तवी कर दिया है। इससे फायदा यह होगा कि सुधार सिर्फ रखने-निकालने के मुद्दे तक सीमित नहीं होंगे, बल्कि वह केंद्रीय मुद्दा भी नहीं रहेगा। मालिकों को श्रम मामलों में जो दूसरी छूट दी गई हैं, उनसे उन्हें काफी राहत मिलेगी। सबसे बड़ी राहत यह होगी कि कथित इंस्पेक्टर राज से उन्हें काफी हद तक आजादी मिल जाएगी। श्रम कानूनों के जटिल होने और श्रम विभाग की जांच के अपारदर्शी नियमों की वजह से मजदूरों को कितना फायदा मिलता है, यह तो विवादास्पद है, लेकिन प्रबंधन की अच्छी-खासी कसरत हो जाती है और यह भ्रष्टाचार का भी बड़ा जरिया है। अगर कागजी खानापूर्ति कम हो जाए और श्रम विभाग की जांच पारदर्शी नियमों के आधार पर हो, तो एक बड़ी समस्या काफी हद तक खत्म हो जाएगी। भारत ऐसे देशों में है, जहां उद्योग लगाना और चलाना बहुत कठिन माना जाता है और देश के विकास में यह बड़ी हद तक बाधक है। अगर प्रबंधन को सरकारी जकड़बंदी से मुक्ति मिल जाए, तो यह उत्पादन और रोजगार के लिए फायदेमंद होगा। दूसरी ओर, सरकार ने श्रमिकों के फायदे के लिए कई कदमों को इसके साथ जोड़कर यह बताने की कोशिश की है कि श्रम सुधारों के केंद्र में श्रमिकों का हित है। इसके बाद सरकार ने श्रमिकों को काम देने या छंटनी के बारे में नियम बनाने का काम राज्य सरकारों को भी करने को कहा है। इसे चाशनी में लिपटी कड़वी दवा कहा जा सकता है, लेकिन श्रम सुधारों के लिए इस चाशनी की सख्त जरूरत है। अगर मजदूरों को यह मालूम हो कि उनके लिए कोई सुरक्षा तंत्र है, तो उन्हें भी नई व्यवस्था में विश्वास पैदा होगा। जरूरी यह है कि ऐसी व्यवस्था बनाई जाए, जो उद्योगों के लिए भी फायदेमंद हो और श्रमिकों के लिए भी। ऐसी कोई भी व्यवस्था, जो इन दोनों के हितों में सामंजस्य नहीं बिठाती, आखिरकार नुकसानदेह होती है। श्रम सुधारों को एक व्यापक नजरिये से देखने की यह पहल अगर सामंजस्य स्थापित कर पाए, तो यह देश के लिए अच्छा होगा।
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इंस्पेक्टर राज’ गया

देश के उद्योग और व्यापार जगत के लिए ‘इंस्पेक्टर राज’ के खात्मे की खबर दिवाली का सबसे अनूठा उपहार है। देश के लिए आर्थिक खुशहाली जुटाने में सबसे आगे रहने वाला यह वर्ग पेंचीदे कानूनों और लालफीताशाही की तानाशाही में ऐसा मजबूर है कि सरकारी नुमाइंदों की हर आहट उसमें दहशत भर देती है। दूसरी तरफ खुद को व्यापारी बताने में आनंद लेने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसी सरकार की वकालत करते हैं जिसमें शासन की मौजूदगी कम से कम दिखे। ‘श्रमेव जयते’ मोदी के उसी अभियान की झलक दिखाता है जिसमें उद्योग और व्यापार जगत में सरकारी हस्तक्षेप के खात्मे की बात कही गयी है। कारखानों में सरकारी नियमों के पालन की जांच की आड़ में भ्रष्टाचार का ऐसा गोरखधंधा चलता था कि उसके आगे देश का सशक्त श्रमिक कानून भी बेबस हो जाया करता था। जांच के नाम पर सरकारी नुमाइंदों को असीमित अधिकार मिले हुए थे जिनका अक्सर दुरुपयोग होता था। इसी प्रकार देश के उद्यम प्रयासों को दर्जनों कानूनों के घेरे में ऐसा फंसा दिया गया था कि कारखाना खोलना या चलाना मामूली कलेजे वालों की बात नहीं रह गयी थी। ऐसे सोलह कानूनों को एक में बदल देना और उसके अनुपालन की प्रक्रिया को भी आसान व पारदर्शी बना कर यकीनन उद्यमियों को बड़ी राहत दी गयी है। कामगारों के लिए सबसे राहत की बात यह है कि अपने प्रोविडेंट फंड या जीवन बीमा का हिसाब जानने के लिए उन्हें किसी पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं रह गयी है। इंटरनेट पर यह सुविधा मौजूद करायी जा रही है जिसका लाभ हर कोई उठा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि श्रमिकों के लिए कानूनन अनिवार्य बनाए गए इन फंडों के दुरुपयोग की शिकायतें आम थीं जिन पर अब पूरा कंट्रोल लग जाएगा। अक्सर शिकायत मिलती थी कि कामगार का अंशदान वेतन से काटने के बाद भी इसे संबंधित खाते में जमा नहीं करवाया गया या प्रबंधन ने अपना हिस्सा जमा नहीं करवाया। अब इंटरनेट पर अद्यतन हिसाब किताब के मौजूद रहने के बाद ऐसा कोई खेल नहीं चल पाएगा। फैक्ट्री इंस्पेक्टरों को जांच की रिपोर्ट तीन दिनों में इंटरनेट की संबंधित वेबसाइट पर डालनी पड़ेगी जिससे सरकारी हस्तक्षेप की प्रक्रिया पारदर्शी बनेगी और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगेगा। उद्यमियों को इन हस्तक्षेपों से राहत के साथ यह व्यवस्था भी की जा रही है कि कामगारों को निर्धारित न्यूनतम पारिश्रमिक उन्हें बैंक खातों के माध्यम से मिले। बोनस भी अनिवार्य बनाने की बात है जबकि ओवरटाइम की अवधि सीमा बांधते हुए इसमें दो गुना पारिश्रमिक दिए जाने का प्रस्ताव है। उद्योगों और कामगारों के लिए मोदी सरकार ने ये फैसले ऐसे वक्त लिए हैं जब खुद उससे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी ट्रेड यूनियन भी न केवल केंद्रीय श्रमिक कानूनों में बदलाव का विरोध कर रही है बल्कि रेल या सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में एफडीआई की अनुमति देने की भी पक्षधर नहीं है। सरकार के इन कदमों पर ट्रेड यूनियनों की क्या प्रतिक्रिया होती है, यह देखना दिलचस्प होगा।
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श्रमेव जयते
17, OCT, 2014, FRIDAY
मेक इन इंडिया के सपने को सच करने के लिए अब प्रधानमंत्री मोदी ने श्रमेव जयतेे नामक नयी योजना की शुरुआत की है और इसे सत्यमेव जयते की ही तरह ताकतवर बताया है। इस योजना के नाम में ही श्रम की महत्ता का वर्णन है और सरकार की योजना भी यही है कि छोटे कारोबारियों, उद्यमियों, संगठित व असंगठित क्षेत्र के हजारों-लाखों श्रमिकों को उनका प्राप्य मिले। श्रमिकों का मूल्यांकन जब मतदाता के रूप में होता है, तो उनका महत्व कई गुना बढ़ जाता है। इसलिए राज्य व केेंद्र सरकारें प्रारंभ से श्रमिकों के लिए अलग मंत्रालय, विभाग बनाने के साथ-साथ उनके बेहतर भविष्य के लिए योजनाएं, नीतियां बनाती आई हैं। बावजूद इसके अब तक श्रमिकों की दशा में उल्लेखनीय सुधार नहींहुआ, न ही उनका शोषण रुका। इसके पीछे कारण यह है कि हिंदुस्तान में श्रम के महत्व पर केवल व्याख्यान दिए जाते हैं, लेख लिखे जाते हैं, लेकिन मेहनत की कद्र नहींहोती। इसलिए निराला वह तोड़ती पत्थर जैसी कविता लिखते हैं और समाज उसे पढ़ कर, तारीफ करते हुए किनारे रख देता है। उस कविता में मेहनतकश स्त्री के लिए जो भाव प्रकट किए गए हैं, उसे ग्रहण करने की फुर्सत आत्मकेन्द्रित समाज को नहींहै। श्रमिकों के प्रति समाज का ध्यान तभी जाता है, जब वे अपनी किसी मांग को लेकर हड़ताल करते हैं या वे कारखाने में किसी गंभीर लापरवाही का शिकार हो दुर्घटनाग्रस्त होते हैं। श्रमिक किस दशा में रहते हैं, उनके बच्चे किन स्कूलों में पढ़ते हैं या पढ़ पाते हैं या नहीं, उन्हें किस किस्म की स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया हैं, इसके बारे में व्यापक समाज उदासीन ही है। हां, अगर इस समाज को इमारतें खड़ी करवानी हों या सड़क बनवानी हो या अपने घर के बाहर का कूड़ा साफ करवाना हो, नालियों को साफ करवाना हो, बिजली-पानी का काम करवाना हो, घरों में सफेदी करवानी हो, तो उसे श्र्रमिक फौरन याद आते हैं। उनसे मोलभाव करके काम करवाया जाता है, कोशिश की जाती है कि मजदूरी कम से कम करवाई जाए। अगर इनसे मामूली चूक हुई तो पैसे काटने में भी देर नहींकी जाती।
यह देखकर अच्छा लगा कि देश के प्रधानमंत्री ने श्रम और सत्य को समान तुला पर रखते हुए दोनों का समान महत्व निरूपित किया है। श्रमेव जयते योजना के तहत जो मुख्य प्रावधान लागू किए गए हैं, उनसे उम्मीद बंधी है कि श्रमिकों की स्थिति में सुधार होगा साथ ही कार्यकुशल युवाओं की नई फौज भी तैयार होगी। जिस तेजी से भारत सहित विश्व के बहुत से देशों में औद्योगिकीकरण बढ़ रहा है, उसमें इन उद्योगों को प्रबंधन की डिग्री लिए लोगों के साथ-साथ कुशल कारीगरों, श्रमिकों की जरूरत भी होगी। मेक इन इंडिया के तहत भारत में ही कई कारखाने लगाए जाएंगे। इसलिए अब सबका ध्यान आईटीआई जैसे संस्थानों में पढऩे वाले युवाओं पर जा रहा है। यह खुशी की बात है कि इन नौजवानों के समक्ष रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होंंगे। भविष्य निधि ग्राहकों के लिए यूनिवर्सल एकाउंट नंबर, श्रम सुधारों के लिए एकीकृत श्रम पोर्टल और यूनिफाइड लेबर इन्सपेक्शन स्कीम की शुरुआत भी की गई है। अप्रेंटिस प्रोत्साहन योजना के तहत लाखों प्रशिक्षुओं के लिए मानदेय बढ़ाने व नए तरीके के प्रशिक्षण देने की तैयारी की जा रही है। कुल मिलाकर भाजपा सरकार की पिछली कुछ योजनाओं की तरह श्रमेव जयतेे भी लोकलुभावन व आकर्षक पैकेजिंग में जनता के सामने प्रस्तुत किया गया है। जिसकी शुरुआत में सब कुछ इतना अच्छा दिख रहा है मानो इस देश में श्रमिकों के दिन बहुर गए हैं। लेकिन अन्य योजनाओं की तरह फिलहाल इसका परिणाम व प्रभाव जानने के लिए भी प्रतीक्षा करनी होगी। अभी देश को स्वच्छ होना है, गंगा को निर्मल होना है, श्रम की जीत होना है, आगे और कौन सी योजनाएं कतार में हैं, इसे जानने की उत्सुकता बनी हुई है।
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सुधार का सिलसिला

Sun, 19 Oct 2014 

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों में सुधार और व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की दिशा में आगे बढ़ रही है उससे लोगों का यह भरोसा मजबूत हो रहा है कि हालात बदलेंगे और पिछले करीब एक दशक में जो कुछ अपेक्षित होने के बावजूद नहीं हो सका वह अब होगा। मोदी सरकार की ओर से शुरू किए गए सुधारों के सिलसिले की ताजा कड़ी है श्रमेव जयते कार्यक्रम। मेक इन इंडिया और स्वच्छ भारत अभियान के बाद श्रमेव जयते केंद्र सरकार का एक ऐसा महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है जो देश में कारोबारी माहौल सुधारने में सहायक बन सकता है। मोदी सरकार किस तरह कारोबारी माहौल में सुधार कर बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के लिए प्रतिबद्ध है, इसकी झलक मेक इन इंडिया और श्रमेव जयते कार्यक्रम से मिलती है। आम जनता को रोजगार तभी मिलेंगे जब उद्योग मजबूत होंगे और इसके लिए आवश्यक है कि उन अड़चनों को दूर किया जाए जिनके चलते कारोबारी माहौल प्रतिकूल बना हुआ है। पुराने और अप्रासंगिक हो चुके श्रम संबंधी कानून कारोबारी माहौल को सुधारने में एक बड़ी अड़चन हैं। मौजूदा श्रम कानून न तो श्रमिकों का भला कर पा रहे हैं और न ही उद्योगों का। इनमें सुधार वक्त की जरूरत है। मोदी सरकार इसके लिए सराहना की पात्र है कि उसने श्रमेव जयते कार्यक्रम की शुरुआत के साथ श्रम सुधारों का संकल्प भी प्रदर्शित किया। श्रम संबंधी अधिकांश कानूनों का निर्माण जब किया गया था तब परिस्थितियां सर्वथा भिन्न थीं। इनमें समय के लिहाज से परिवर्तन अनिवार्य ही नहीं, अपिरहार्य हैं। मौजूदा श्रम कानूनों के साथ भारत अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं सकता। पता नहीं क्यों पिछली सरकारों ने श्रम सुधारों की आवश्यकता महसूस करने के बावजूद उन पर अमल की प्रतिबद्धता क्यों प्रदर्शित नहीं की? यह संभव है कि गठबंधन राजनीति के अनेक दुष्प्रभावों में एक यह भी रहा हो कि राजनीतिक दलों के विरोध के कारण श्रम सुधारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सका हो।
इस पर आश्चर्य नहीं कि साम्यवादी चिंतन से निर्मित श्रम कानूनों में बदलाव के प्रस्ताव को कुछ राजनीतिक दल श्रमिक विरोधी कदम के रूप में चित्रित करने में देर न करें। श्रम सुधारों के संदर्भ में इस तरह का रवैया ठीक नहीं है। श्रमेव जयते कार्यक्त्रम का मूल उद्देश्य श्रम क्षेत्र में पारदर्शिता व जवाबदेही के साथ इंस्पेक्टर राज का अंत करना है। यह जितना उद्यमियों में भरोसा पैदा करने वाला है उतना ही श्रमिकों के हितों का संरक्षण करने वाला भी। खुद प्रधानमंत्री ने श्रमेव जयते कार्यक्त्रम की शुरुआत करते हुए श्रमिकों को श्रमयोगी की संज्ञा देने के साथ उन्हें राष्ट्र निर्माता भी बताया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि श्रम से जुड़े मुद्दों को श्रमिकों के नजरिये से समझना होगा और नागरिकों के रूप में उन पर भरोसा करना होगा।
हमारे उद्योग जिस हालत में हैं उसे उत्पादकता की दृष्टि से निराशाजनक ही कहा जाएगा। उत्पादकता बढ़ाना हमारी प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए, क्योंकि उत्पादकता के क्षेत्र में अन्य देशों से लगातार पिछड़ने के कारण भारत को कई स्तरों पर नुकसान उठाना पड़ रहा है। एक तो जरूरी वस्तुओं की अपेक्षित आपूर्ति नहीं हो पा रही है और दूसरे, उद्योगीकरण के अनुकूल वातावरण नहीं बन पा रहा है। यह स्थिति तब है जब हमारे देश में उद्योगों में श्रमिकों की संख्या आवश्यकता से च्यादा है। उद्योगों के संदर्भ में बहस का एक विषय यह भी है कि तकनीक अथवा मशीनों का किस हद तक इस्तेमाल किया जाए? इस बहस का आधार मशीनों को मानव श्रम के मुकाबले खड़ा कर देना है। सच यह है कि यदि भारत को उत्पादन-उत्पादकता के मामले में अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में आना है तो कुशल श्रमिकों के साथ-साथ आधुनिक तकनीक और मशीनों की भी आवश्यकता होगी। उत्पादन के साथ-साथ सेवा संबंधी क्षेत्र में भी सुधार की भी आवश्यकता है, विशेषकर इसमें काम करने वाले लोगों के कार्य-व्यवहार के संदर्भ में। सेवा क्षेत्र के तहत जिन कर्मचारियों का सीधा संपर्क आम जनता से होता है उन्हें अपना काम कुशलता से करना सीखना होगा। ग्राहकों के साथ संपर्क एक कला है, जो सेवा क्षेत्र में सफलता का बुनियादी आधार है। यह अच्छी बात है कि मोदी सरकार उत्पादन और सेवा क्षेत्र की कमियों को भलीभांति समझ रही है और उन्हें दूर करने का संकल्प भी प्रदर्शित कर रही है। मेक इन इंडिया अभियान, श्रमेव जयते योजना अथवा कौशल विकास के कार्यक्रमों पर यदि सही तरह अमल हो सके तो भारत में उद्योगों की एक दूसरी ही तस्वीर उभर सकती है।
अब यह कोई रहस्य नहीं कि संप्रग सरकार ने उद्योगीकरण को गति देने और श्रम कानूनों में सुधार के मोर्चे पर कागजी खानापूरी ही की। उसकी नीतियों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता था कि वह उद्योगीकरण के ढांचे को बुनियादी रूप से बदलने की इच्छा रखती थी। मोदी सरकार केंद्रीय शासन की इच्छाशक्ति की इसी कमी को पूरा करती दिख रही है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों से संबंधित आचार संहिता के चलते केंद्र सरकार पिछले एक माह में इस दिशा में कोई बड़ी पहल नहीं कर सकी है, लेकिन अब आम जनता यह उम्मीद कर सकती है कि बदलाव का सिलसिला न केवल कायम रहेगा, बल्कि तेजी से बढ़ेगा भी। दरअसल ऐसा करने से ही निराशा के वे बादल छंटेंगे जो संप्रग सरकार की निष्क्रियता और निर्णयहीनता के कारण देश के औद्योगिक माहौल पर छा गए थे और जिसके चलते भारत की छवि भी प्रभावित होने लगी थी। हालात बदलने के लिए मोदी सरकार को कानूनों में बदलाव-सुधार करने के साथ-साथ प्रशासनिक सक्रियता भी प्रदर्शित करनी होगी। बदलाव का असर उद्योगों के साथ-साथ उनमें काम करने वाले श्रमिकों पर भी नजर आना चाहिए।
चूंकि यह आवश्यक है कि आम जनता अपने आस-पास चीजें बदलती हुई महसूस करे इसलिए मोदी सरकार को बिगड़ी व्यवस्था को इस ढंग से दुरुस्त करना होगा ताकि उनका असर नीचे तक दिखाई दे। सरकार को बड़े नीतिगत फैसले लेने के साथ ही लंबित परियोजनाओं को तेजी के साथ आगे बढ़ाना होगा। भारत की विकास गाथा ठहर जाने की एक बड़ी वजह परियोजनाओं का शिथिल अथवा ठप हो जाना है। इन परियोजनाओं की न सिर्फ नए सिरे से सुधि लेनी होगी, बल्कि उन पर अमल का रोडमैप भी तैयार करना होगा। यह सही है कि कई परियोजनाओं के मामले में केंद्र सरकार केवल नीतिगत निर्णय लेने तक सीमित है, क्योंकि उनका क्रियान्वयन राच्यों के हाथों में है, लेकिन उद्योगों के अनुकूल वातावरण कायम करने और लोगों के बीच विकास का भरोसा बहाल करने के लिए केंद्र सरकार को इस तरह सक्त्रिय होना होगा जिससे राच्य सरकारें भी उसके साथ कदम मिलाती दिखें। केंद्र सरकार को अपनी हर पहल के बारे में यह देखना ही होगा कि उसका क्रियान्वयन जमीनी स्तर पर हो। जिस स्वच्छता अभियान की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री ने की उसके प्रति प्रशासनिक तंत्र और सफाईकर्मियों का रवैया बहुत सकारात्मक नहीं है। मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रशासन के ऊपरी स्तर पर जो दबाव बनाया गया है उसका असर सबसे नीचे की सीढ़ी पर भी नजर आए। यही बात केंद्र सरकार के अन्य सभी कार्यक्रमों और योजनाओं पर लागू होती है।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]
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लूट की संस्कृति में श्रम का मोल

विनोद कुमार

जनसत्ता 17 अक्तूबर, 2014: आमिर खान की फिल्म ‘पीपली लाइव’ के अंत में यह जानकारी दी गई कि 1991 से 2001 तक अस्सी लाख किसानों ने किसानी छोड़ी। यह फिल्म जो बताना चाहती है, वह आज से सत्तर वर्ष पूर्व प्रेमचंद अपनी कहानी ‘कफन’ में बता चुके हैं। वह यह कि हमारे समाज में मानवीय श्रम की जो कीमत रह गई है, उसके चलते ऐसे संवेदनहीन मनुष्य पैदा हो रहे हैं, जो कफन के पैसे से शराब पी जाते हैं। प्रेमचंद की एक और कहानी ‘पूस की रात’ भी हमें इसी यथार्थ से परिचित कराती है कि आज की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में श्रम का कोई मोल नहीं और आदमी देर-सबेर श्रम करने से ही बेजार हो जाता है। याद कीजिए पूस की रात में मचान पर बैठा किसान, पिछले पहर में सो जाता है और सुबह जब उसकी नींद पत्नी के शोरगुल से खुलती है, तो वह देखता है, पूरी फसल जानवर चट कर चुके हैं। लेकिन भीतर से वह खुश होता है, चलो अब ठंड की रात में खुले मचान पर सोना तो नहीं पड़ेगा।
ये कहानियां अपने समय का यथार्थ कहती हैं। आज का यथार्थ तो और भी भीषण है। और कई बार जेहन को यह सवाल खरोंचता है कि आज की लूट की संस्कृति में मानवीय श्रम का क्या मोल रह गया है? क्यों कोई श्रम करना चाहे? हमने कहावत बनाई है कि मेहनत का फल मीठा होता है। क्या वास्तव में परिश्रम- हमारा आशय शुद्ध मानवीय श्रम से है- से हम दो वक्त की रोटी जुटाने के सिवा कुछ भी हासिल कर सकते हैं? मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सकते हैं?
ओड़िशा का आदिवासीबहुल इलाका मनीगुड़ा रायगढ़ा जिले का एक प्रखंड है। यह गांव नियमगिरि पहाड़ी शृंखला की तराई में है। पहाड़ों पर डोंगरिया कोंध रहते हैं, जो सैकड़ों किस्म के फल और सब्जियां उगाते हैं। अभी अन्नानास का मौसम है। पता नहीं दिल्ली में किस भाव है, लेकिन वे ढेर में उसे महज आठ-दस रुपए में बेच कर वापस लौट जाते हैं। वही अन्नानास पंद्रह से बीस रुपए में बिकता है स्थानीय बाजार में। फेरी वाले जब उसे चार टुकड़ों में काट कर और थैली में रख कर स्टेशन पर बेचते हैं तो एक अन्नानास चालीस रुपए में बिकता है। जूस की दुकान में एक अन्नानास से चार गिलास जूस अस्सी रुपए में बिकता है। और कॉरपोरेट जगत तो पैकिंग और प्रचार के बल पर उसे सैकड़ों रुपए में बेचता है।
यानी, जो खून-पसीना बहा कर अन्नानास को उगाता है, उसे तो उचित मूल्य नहीं मिलता, उससे ज्यादा फायदा उसका करोबार करने में है, चाहे वह सड़क पर फेरी लगाने वाला हो या व्यापारी। इसलिए उत्पादन प्रक्रिया और कारोबार में सबसे अहम भूमिका निभाने वाला किसान विपन्न रह जाता है। आदिवासी एक अलग तरह के लोग हैं। उन्हें इस दुनियादारी से कोई मतलब नहीं। लेकिन जो थोड़े भी समझदार हुए, या थोड़ी पढ़ाई-लिखाई की, उनकी पीढ़ी अब किसानी नहीं करना चाहती।
इस आदिवासीबहुल इलाके में कपास की खेती होती है। हाल की बारिश के बाद एक बार फिर किसान हल-बैल लेकर निकल पड़े। मैं करीब जाकर उनमें से एक से मिला, जिसका नाम पापा राव है। आंध्र प्रदेश से जुड़े इलाके में रहने की वजह से शायद उसने अपने नाम में राव जोड़ लिया, लेकिन वे उस समूह के आदिवासी हैं, जो सुदूर आंध्र के आरकू वैली तक फैले हुए हैं। मैंने उनसे कपास की खेती के बारे में जानना-समझना चाहा। उस समय बात नहीं हो सकी, तो शाम को उनकी बस्ती गया। आठ गुणे आठ के दो छोटे-छोटे कच्चे-पक्के कमरे। पीछे रसोई घर, आंगन, जिसमें लगी थी लकड़ियों की टाल। वे जमीन पर ही तौलिया बिछा कर सोए हुए थे। दिन भर के श्रम से थके हुए। मेरे बुलाने पर जगे।
उन्होंने बताया कि दो एकड़ जमीन है उनके पास। अभी बोएंगे तो आठ महीने में फसल तैयार। एक एकड़ में तेरह-चौदह क्विंटल कपास। प्रति क्विंटल पांच हजार कीमत, यानी एक लाख चालीस हजार का माल। लेकिन खर्च भी है। किसी मालिक से वे बीज लाते हैं। आठ सौ रुपए में एक पैकेट, लेकिन चुकाते हैं बारह सौ रुपए। फसल भी वही खरीद लेता है। उन्हें मलाल नहीं। उधारी देगा तो सूद लेगा ही। इसके अलावा पौधों की सुरक्षा, मिट्टी चढ़ाना, खाद, पानी, दवा। यानी बमुश्किल उनके हाथ में पचास-साठ हजार रुपए प्रतिवर्ष आते हैं। वे इतने से संतुष्ट हैं। उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं।
लेकिन आदिवासी जमीन को लेकर ओड़िशा में जो लूट का मंजर है, उसे एक नजर देखिए और फिर आंकिए मनुष्य के श्रम का मोल। कैग की पिछली रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ था कि ओड़िशा औद्योगिक विकास निगम ने हाल के वर्षों में 29769.48 एकड़ निजी जमीन और 16963.41 एकड़ सरकारी जमीन उद्योगपतियों को आबंटित की।
इनमें से बावन वैसे कॉरपोरेट हैं, जिनके साथ सरकार ने एमओयू किए थे और चौवन ऐसे, जिनके साथ कोई एमओयू नहीं हुआ था। आदिवासी किसानों से अधिकतम पचास हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से कॉरपोरेशन ने जमीन अधिग्रहीत की, देश के विकास के नाम पर और उद्योगपतियों को बेची करीब दो लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से। यानी कॉरपोरेशन ने प्रति एकड़ डेढ़ लाख रुपए कमाए।
फिर उद्योगपतियों ने क्या किया? उसी जमीन को बैंक के पास रेहन रख कर प्रति एकड़ दो करोड़ का कर्ज ले लिया। कारखाना तो पता नहीं कब लगेगा, लेकिन सबने धंधा कर करोड़ों रुपए बना लिए। तरह-तरह की मंजूरी लंबित हैं। मोदी के सत्ता में आते ही इसलिए कॉरपोरेट जगत की तरफ से मांग की गई कि उन्हें जल्द से जल्द मंजूरी दी जाए, ताकि विकास को गति मिले, कॉरपोरेट जगत का जो पैसा फंसा हुआ है, उसे गति मिले, वरना अर्थव्यवस्था ठप हो जाएगी। लेकिन अगर वे पैसा न लौटाएं तो क्या होगा? अधिक से अधिक वह जमीन, जो उन्होंने रेहन रखी, जब्त हो जाएगी!
कैग ने आश्चर्य व्यक्त किया है कि बैंकों ने कंपनियों को कर्ज किस आधार पर दिया, क्योंकि एनओसी उन्हें सरकार ने नहीं दी थी, कॉरपोरेशन ने दे दी और उसी आधार पर वे बैंक से कर्ज लेने में सफल रहे। इनमें से अधिकतर स्टील, पावर, एल्युमीनियम आदि की कंपनियां हैं। यह उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार का मामला है। लेकिन जांच और त्वरित कार्रवाई में रुचि किसे है? इस तरह का भ्रष्टाचार शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व की मिलीभगत से ही होता है। कोई शक हो तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक यूनियन के अधिकारियों के हाल में आए उस बयान पर गौर कीजिए, जिसमें कहा गया है कि 2014 मार्च तक 1,30,360 करोड़ की राशि ‘बैड डेबट्स’ यानी ‘नॉन परफारमिंग एसेट’ के खाते में डाल दी गई है। यह विशाल धनराशि बैंकों से कॉरपोरेट जगत ने ही उठा रखी है और देर-सबेर सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के मुनाफे से उसकी भरपाई करेगी।
स्विस बैंक से काला धन वापस लाने की हुंकार से चुनाव लड़ने वाली सरकार उन उद्योगपतियों के नाम बताने के लिए भी तैयार नहीं, जो सार्वजनिक बैंकों का अरबों रुपया दाबे बैठे हैं। अब जरा सोचिए, लूट के इस भयानक मंजर में उस गरीब किसान के परिश्रम का भला क्या मोल रह जाता है? समझदारों की नजर में तो वह बेवकूफ ही है, जो जमीन से चिपका हुआ है। मगर मामला सिर्फ किसान का नहीं। हमारे समाज में मानव श्रम की कभी कीमत नहीं रही।
हर तरह के शारीरिक श्रम की कीमत हमारे देश में मिट््टी समान है। और यह सदियों से चला आ रहा है। हमने एक ऐसी वर्णवादी व्यवस्था कायम कर रखी है, जिसमें हर तरह का श्रम शूद्र करता है। भूमिहीन किसान, मझोले किसान, बरतन बनाने वाला कुम्हार, जूते सीने वाला मोची, सफाईकर्मी, कपड़ा बनाने वाला जुलाहा, सब वर्ण-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं और सबके सब सर्वहारा। उनके पास बसने के लिए भी कभी अपनी जमीन नहीं रही।
आदिवासी समाज के पास अगर थोड़ी जमीन रह गई, तो इस वर्णवादी व्यवस्था से बाहर रहने की वजह से। लेकिन अब उनके जल, जंगल, जमीन पर आक्रमण तीव्र हो गया है। बड़ी संख्या में वे विस्थापन के शिकार हो रहे हैं और उस व्यवस्था में शामिल होते जा रहे हैं, जिसमें हमारे देश का शूद्र रहता है। और चूंकि ऐसे लोगों की आबादी निरंतर बढ़ती जा रही है, इसलिए हर वक्त एक ऐसी लाचार जमात तैयार रहती है, जो कम से कम कीमत पर, कठिन से कठिन और बेगैरत परिस्थितियों में काम करने के लिए तैयार हो जाती है।
खुद दुनिया भर में सस्ते श्रम का ढिंढोरा पीट-पीट कर हमारी सरकारें उद्योगपतियों को अपने यहां बुलाती हैं। आओ, हमारे यहां खनिज संपदा सस्ती है। हमारे यहां मानव श्रम सस्ता है। हम आपको फ्रेंडली वातावरण देंगे। तमाम श्रम कानूनों को कूड़े में डाल देंगे। कभी आपसे नहीं पूछेंगे कि आप अपने यहां काम करने वाले मजूरों को क्या वेतन और सुविधा देंगे। आप उन्हें कब रखेंगे और कब हटाएंगे। बस आइए और पूंजी लगाइए। अपना साम्राज्य खड़ा कीजिए। बस, बदले में हमारे निहित स्वार्थों को पूरा करते रहिए। और स्थिति बिगड़ी तो हमारी पुलिस आपकी सुरक्षा के लिए है न! मारुति उद्योग के हालिया आंदोलन और उसमें हमारी सरकार की भूमिका इसी बात का जीवंत प्रमाण है।
हम यह भूल जाते हैं कि सस्ता श्रम, यानी कम पारिश्रमिक। कम पारिश्रमिक, मतलब मनुष्य से एक दर्जा नीचे जीने की परिस्थितियां। इन्हीं स्थितियों में नई औद्योगिक नीति और उदारीकरण का दौर आने के बाद हमारे यहां के उद्योगपति तेजी से दुनिया के अमीरों में शुमार होते जा रहे हैं। वे विदेशी कंपनियों को खरीद रहे हैं। मीडिया हमें गर्व से बताता है कि फलां उद्योगपति सौ अमीरों की सूची में शामिल हो गया। कुछ तो टॉप पर हैं, कुछ ऊपर के सात में। मगर क्या यह गर्व का विषय है? एक बड़ी आबादी को मुफलिसी और तंगहाली की स्थिति में ढकेल कर यह जो चंद लोगों की अमीरी पैदा हो रही है, क्या कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इस पर इतरा सकता है? और इन परिस्थितियों में अगर मेहनतकश आबादी का ईमानदार श्रम से विश्वास उठ रहा है, वह काम से ही बेजार होता जा रहा है तो इसके लिए कौन दोषी है?