Monday 27 October 2014

'मेक इन इंडिया'




और अब 'मेक इन इंडिया'

नवभारत टाइम्स| Sep 26, 2014,

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बहुप्रचारित पहल 'मेक इन इंडिया' गुरुवार को औपचारिक तौर पर लॉन्च कर दी गई। इस अवसर पर भारतीय उद्योग जगत के दिग्गजों की मौजूदगी से उनकी इस कार्यक्रम में दिलचस्पी का शुरुआती संकेत मिलता है। सरकार ने जिस तरह से विभिन्न देशों में स्थित अपने दूतावासों के जरिए दुनिया भर के निवेशकों तक इस योजना को पहुंचाने की कोशिश की है, उससे भी स्पष्ट होता है कि अपनी इस पहल को लेकर वह काफी गंभीर है। सरकार ने 25 ऐसे क्षेत्र रेखांकित किए हैं, जिनमें भारत के वर्ल्ड लीडर बनने की संभावना है। सरकार चाहती है कि दुनिया की सभी प्रमुख कंपनियां अपनी-अपनी रुचि के मुताबिक क्षेत्र चुनें, यहां आकर फैक्ट्री लगाएं और सामान बनाएं। भारत भले दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (पीपीपी के मुताबिक) बन गया हो, पर सच यह है कि सर्विस सेक्टर आधारित ग्रोथ मॉडल इसके पैरों की बेड़ी बना हुआ है। इस महत्वाकांक्षी पहल के जरिए सरकार अर्थव्यवस्था को श्रम आधारित मैन्युफैक्चरिंग ड्रिवेन इकॉनमी का स्वरूप देना चाहती है। इस उद्देश्य में कोई खोट नहीं है। परेशानी सिर्फ यह है कि हम अभी तक अपनी प्राथमिकताओं को लेकर पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुए हैं। जब हमारी कंपनी टाटा स्टील यूरोपीय कंपनी कोरस को खरीद लेती है, तब हम खुशी से फूले नहीं समाते। दूसरी तरफ जब साउथ कोरियन कंपनी पोस्को हमारे यहां से लौह अयस्क निकालकर अपने देश ले जाने वाला प्लांट लगाने की घोषणा करती है, तब उस पर भी गौरवान्वित होने का मौका हम नहीं चूकते। एक सौदे में हमारी पूंजी बाहर जाती है, दूसरे में हमारा कच्चा माल बाहर जाता है, लेकिन हम दोनों पर ही गर्व कर रहे होते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार के लिए यह साफ करना जरूरी है कि 'मेक इन इंडिया' से वह ठीक-ठीक क्या हासिल करना चाहती है। दुनिया की तमाम कंपनियां सस्ते श्रम और सस्ती प्राकृतिक संपदा के मोह में यहां आ जाएं, यह एक बात है, लेकिन देसी-विदेशी कंपनियां यहां ऐसे सामान बनाएं जो दुनिया के दिलोदिमाग पर 'मेड इन इंडिया' की छाप छोड़ जाएं, यह बिल्कुल अलग बात है। इसरो ने अपनी उपलब्धियों के जरिए 'मेड इन इंडिया' का सिक्का जमाने का एक रास्ता हमें दिखाया है। जरूरत इस बात की है कि सरकार अपनी प्राथमिकताएं साफ रखते हुए एक स्पष्ट रास्ता चुने और उस पर मजबूती से आगे बढ़े।
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उम्मीद का रास्ता

25-09-14

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका यात्रा के ठीक पहले महत्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया’ अभियान का शुभारंभ किया। प्रधानमंत्री की मंशा यह है कि दुनिया के बड़े उद्योग भारत में अपनी उत्पादन इकाइयां लगाएं और भारत आने वाले दौर का औद्योगिक उत्पादन का केंद्र बने। इसके पीछे मूल धारणा यह है कि औद्योगिक उत्पादन को तेजी से बढ़ाए बिना लगातार ऊंची विकास दर हासिल नहीं की जा सकती। उद्योगों के भारी विकास से ही बड़ी तादाद में रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। इस तरह बड़ी आबादी गरीबी-रेखा से ऊपर आ सकती है, अपना जीवन स्तर बढ़ा सकती है। चीन ने निर्यात आधारित उद्योगों के जरिये पिछले दशकों में तेज तरक्की की, अब उसने अपनी अर्थव्यवस्था के घरेलू पक्ष पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया है। चीन में जीवन स्तर बढ़ने के साथ मजदूरी बढ़ी है और वहां कारोबार करने में दूसरी समस्याएं भी पेश आ रही हैं। ऐसे में, बहुराष्ट्रीय कंपनियां दूसरे देशों में निवेश की संभावनाएं खोज रही हैं। भारत इस मौके का फायदा उठाना चाहता है। प्रधानमंत्री ने ‘मेक इन इंडिया’ आयोजन में कई बड़े उद्योगपतियों को संबोधित किया और अमेरिका में भी वह कई उद्योग प्रमुखों से मिलेंगे। ‘मेक इन इंडिया’ आयोजन में नरेंद्र मोदी ने जो भाषण दिया, उसमें उन्होंने भारत की संभावनाओं का भी जिक्र किया और भारत में निवेश करने में जो समस्याएं हैं, उनकी भी चर्चा की। उन्होंने यह वादा भी किया कि वह भारत में उद्योग लगाने में जो समस्याएं आती हैं, उन्हें दूर करने में जुटे हैं। मोदी की नजर में चीन और दूसरी पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के उदाहरण हैं कि किस तरह वहां सरकारों ने योजनाबद्ध तरीके से उन उद्योगों को बढ़ावा दिया, जो उनकी नजर में देश की तरक्की के लिए जरूरी थे। इस तरह सरकारी मार्गदर्शन और प्रोत्साहन से औद्योगिक विकास के अपने खतरे हैं और कई अर्थव्यवस्थाएं वे खतरे झेल चुकी हैं, लेकिन यह भी सही है कि तेजी से विकास करने के लिए यह सबसे प्रभावशाली रणनीति है। मोदी ने भी अपने भाषण में 25 ऐसे उद्योगों का जिक्र किया, जिनमें निवेश आने की संभावना सबसे ज्यादा है और जिनके विस्तार से भारतीय अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा फायदा होगा। मोदी ने इस बात का विस्तार से जिक्र किया कि भारत में सरकारी कामकाज के तौर-तरीके निवेश की राह में सबसे ज्यादा बाधक हैं। भारत की नौकरशाही का अंदाज हर काम को जटिल और लंबा बना देता है। इसके अलावा, हर स्तर पर भ्रष्टाचार की वजह से भारत में उद्योग शुरू करना और चलाना मुश्किल हो जाता है। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद लालफीताशाही कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं। पर अभी शुरुआत ही हुई है, इस दिशा में काफी आगे जाने की जरूरत है। यह आयोजन कोयला आवंटन के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के अगले दिन ही हुआ है। कोयला आवंटन का मामला बताता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में क्या गलत है और उसके क्या कुछ नुकसान हैं। दीर्घकालीन विकास के लिए पारदर्शी और तार्किक नियमों पर आधारित व्यवस्था की जरूरत होती है, मनमानी व्यवस्था से रेवड़ी बांटकर अपने लोगों को तत्काल फायदा जरूर पहुंचाया जा सकता है, लेकिन आखिरकार संकट में फंसने से भारी नुकसान होता है। अगर नियम तर्कपूर्ण हों और उन पर ईमानदारी से अमल किया जाए, तो निवेश और उद्यम को अलग से प्रोत्साहित करने के लिए सुविधाएं देने की जरूरत नहीं होती। अच्छी बात यह है कि नरेंद्र मोदी निवेशकों को अतिरिक्त सुविधाएं देने की बजाय बेहतर और चुस्त व्यवस्था बनाने पर जोर दे रहे हैं। अगर यह सचमुच कार्यान्वित भी हो जाए, तो देश के लिए बहुत फायदेमंद होगा।
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मेक इन इंडिया

नरेंद्र मोदी ने जिस अंदाज में ‘मेक इन इंडिया’ का श्रीगणोश करते हुए देश को नियंतण्र विनिर्माण का केंद्र बनाने की रूपरेखा प्रस्तुत की है, वह बेहद प्रभावी और उम्मीद जगाने वाली है। औद्योगीकरण को बढ़ावा देकर सरकार देश के आर्थिक विकास को गति दे सकती है, साथ ही बेरोजगारी और बहुत हद तक महंगाई की समस्या पर भी लगाम लगा सकती है। पिछले वर्षो में देश के आर्थिक विकास को यदि झटका लगा है तो इसकी वजह यह भी है कि सरकार ने कारखाना सेक्टर उपेक्षित किया। लालफीताशाही, रिश्वतखोरी, बिजली की कमी और भ्रष्ट नीतियों के शिकंजे ने उद्यमिता को हतोत्साहित किया। घपले-घोटाले का ऐसा दौर चला कि एक अविास का माहौल बन गया। नतीजा यह रहा कि विदेशी निवेशक तो दूर, भारतीय कारोबारी भी नया निवेश करने से हिचकने लगे। कारोबार अनुकूलता के लिहाज से देश की बदतर नियंतण्र रैंकिंग सब कुछ बयां कर देती है। इसी का नतीजा है कि हमारी जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का योगदान 16 फीसद पर सिमटा है, जबकि चीन की इकोनॉमी में इस क्षेत्र का योगदान 30 फीसद से ऊपर है। आज छोटे खिलौनों से लेकर तोप-विमान तक हम विदेशों पर निर्भर हैं। अब मोदी सरकार उत्पादन को अर्थव्यवस्था का घोड़ा बनाना चाहती है। उसका जोर हरेक छोटी-बड़ी चीज के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने पर है। घरेलू उत्पादन बढ़ा तो हमारे बाजार विदेशी खासकर चीन सामानों से पटे नहीं रहेंगे, बल्कि नियंतण्र बाजार में अपना दखल बढ़ा हम चीन को प्रतिस्पर्धा दें सकेंगे। इसी तरह यदि रक्षा सामान में आत्मनिर्भरता बढ़ी तो आर्थिक व सामरिक फायदा साथ-साथ होगा। इसीलिए सरकार उद्यमियों को संदेश दे रही है कि वह कड़वी यादों से उबरकर आगे बढ़ें, सरकार उनका हर मुमकिन सहयोग करेगी। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की उद्योग समर्थक छवि भी ‘मेक इन इंडिया’ को ताकत देने वाली है। सत्ता में आने के बाद सरकार ने जिस तरह अटकी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने और बुनियादी क्षेत्र को प्राथमिकता देने का इरादा दिखाया है, उससे सकारात्मक माहौल बना है। सरकार कोल इंडिया, एनटीपीसी और अन्य सरकारी कंपनियों को भी निवेश और विस्तार गतिविधियां बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। जापान के साथ गाढ़ी हो रही दोस्ती भी मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में हमारे लिए वरदान हो सकती है। ‘मेक इन इंडिया’ की सफलता से सबसे अधिक फायदा देश के बेरोजगार नौजवानों को होगा। पिछले वर्षो में देश में आर्थिक प्रगति तो हुई, लेकिन उस अनुपात में नए रोजगारों का सृजन नहीं हुआ। इससे बेरोजगारों की संख्या बढ़ती गई है। बीते चुनावों में बेरोजगारी बड़ा मुद्दा रही है। सरकार की योजना है कि अधिकाधिक युवाओं के कौशल का विकास कर उन्हें कारखाना सेक्टर से जोड़ा जाए। इससे लाखों लोगों का जीवनस्तर ऊंचा होगा। साथ ही कंपनियों की दक्ष कर्मचारी न मिलने की शिकायत भी दूर हो जाएगी। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि मेक इन इंडिया कार्यक्रम देश के विकास की आधारशिला है।
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औद्योगिक विकास का रोडमैप

विश्लेषण जयंतीलाल भंडारी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ अभियान की शुरुआत की है। निसंदेह इस अभियान से देश के चमकीले आर्थिक विकास की संभावनाएं आगे बढ़ेंगी। वस्तुत: मेक इन इंडिया अभियान की बदौलत भारतीय अर्थव्यवस्था में समृद्धि देने वाली कई नई प्रवृत्तियां दिखाई दे रही हैं। भारत निवेश एवं विनिर्माण के एक आकर्षक गंतव्य स्थल के रूप में बदल हो गया है। रोनाल्ड बर्जर स्ट्रैटिजी कंसल्टेंट्स नामक विश्व प्रसिद्ध संस्था ने अपने सव्रेक्षण में पाया है कि अटलांटिक महासागर के दोनों ओर स्थित कंपनियों को भारत आकृष्ट कर रहा है। अब दुनियाभर की औद्योगिक एवं व्यावसायिक कंपनियों के एजेंडे में भारत की साख बढ़ी है। स्थिति यह है कि भारत की कंपनियों को शामिल किए बिना विश्व उद्योग की तरक्की की कल्पना अधूरी हो गई है। आज विश्वभर की औद्योगिक कंपनियों के एजेंडे में भारत पहली प्राथमिकता है। वस्तुत: कई क्षेत्रों में भारतीय बाजार ऊं चाई पर ऊंचाई प्राप्त कर रहा है। वस्तुत: देशी-विदेशी निवेश को आकर्षित करने और निर्यात बढ़ाने वाले कई महत्वपूर्ण आधार भारत के पास हैं। भारत के पास विशाल शहरी और ग्रामीण बाजार, दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ मध्यम वर्ग, अंग्रेजी बोलने वाली नई पीढ़ी के साथ-साथ विदेशी निवेश पर अधिक रिटर्न जैसे सकारात्मक पहलू मौजू हैं। उल्लेखनीय है कि भारत के पास आईटी, सॉफ्टवेयर, बीपीओ, फार्मास्युटिकल्स, ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, केमिकल्स एवं धातु क्षेत्र में दुनिया की जानी-मानी कंपनियां हैं, आर्थिक व वित्तीय क्षेत्र की शानदार संस्थाएं हैं। भारत दवा निर्माण, रसायन निर्माण और बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्रों में सबसे तेजी से उभरता हुआ देश है। यह भी महत्वपूर्ण है कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान की अच्छी संभावना के पीछे मोदी सरकार के द्वारा किए जा रहे कायरे के प्रारंभिक सकारात्मक आर्थिक परिणाम भी हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में र्वल्ड इकोनॉमिक फोरम के नवीनतम अध्ययन 2014 के अनुसार सरकारी दफ्तरों में पक्षपात के मुद्दे पर भारत की रैकिंग में जबर्दस्त सुधार हुआ है। भारत 94वें पायदान से उछलकर 49वें पायदान पर आ गया है। नेताओं पर जनता के भरोसे के मामले में भी भारत की रैकिंग में सुधार हुआ है। इस अध्ययन में यह भी कहा गया है कि सरकारी धन के गलत इस्तेमाल और रिश्वत जैसे मानकों पर भी भारत की स्थिति बेहतर हुई है। स्पष्ट रूप से यह आधार भी भारत में मेक इन इंडिया की सफलता के संकेत दे रहा है। देश में ‘मेक इन इंडिया’ के सफल होने की संभावना इसलिए भी है क्योंकि भारत में क्रय क्षमता लगातार बढ़ रही है। पिछले दिनों विश्व बैंक द्वारा अंतरराष्ट्रीय तुलनात्मक कार्यक्रम (आईसीपी) के तहत जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि क्रयशक्ति क्षमता यानी परचेजिंग पॉवर पैरिटी (पीपीपी) के आधार पर वर्ष 2011 में अमेरिका और चीन के बाद भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में भारत की हिस्सेदारी 6.4 फीसद थी। जबकि अमेरिका और चीन की हिस्सेदारी क्रमश: 17.1 और 14.9 फीसद रही। इन सबके साथ-साथ भारत में श्रम भी सस्ता है। पिछले दिनों नियंतण्र शोध अध्ययन संगठन टॉवर्स वॉटसन ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि चीन की तुलना में भारत में श्रम ज्यादा सस्ता है। इस शोध अध्ययन में भारत और चीन में इस समय मिल रही मजदूरी और वेतन की तुलना की गई है और निष्कर्ष निकाला गया है कि भारत की तुलना में चीन में श्रमिकों और कर्मचारियों को औसतन दोगुना वेतन मिलता है। स्थिति यह है कि भारत इस समय दुनिया का सबसे सस्ते श्रमबल वाला देा बन गया है। निसंदेह अपने सस्ते एवं प्रशिक्षित श्रमबल के कारण चीन लगातार कई वर्षो से आर्थिक विकास के मोर्चे पर दमदार प्रदर्शन कर रहा है, लेकिन अब सस्ते श्रमबल की कमी चीन के विकास की चुनौती बनती जा रही है। चीन में सस्ते श्रम की कमी होने का एक बड़ा कारण यह है कि चीन के शहरों में ही नहीं, गांवों में भी अतिरिक्त श्रमिक नहीं बचे हैं। चीन में जहां युवा आबादी कम हो रही है, वहीं बूढ़े लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। देश में ‘मेक इन इंडिया’ अभियान इसीलिए भी सफल हो सकता है क्योंकि देश में प्रतिभा पलायन का रुख बदला हुआ दिखाई दे सकेगा और दुनिया के दूसरे देशों में कार्य कर रही भारतीय प्रतिभाएं स्वदेश लौटने की डगर पर आगे बढ़ते हुए दिखाई देंगी। हाल ही में केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि दुनिया के कोने-कोने में बड़ी संख्या में कार्यरत भारतीय उद्यमी और वैज्ञानिक स्वदेश में काम करने को लेकर उत्सुक हैं और पिछले कुछ दिनों में विदेशों में काम कर रहे कई ख्याति प्राप्त वैज्ञानिकों तथा उद्यमियों ने देश के विभिन्न मंत्रालयों से संपर्क कर स्वदेश लौटने और काम करने की इच्छा जताई है। इसी तरह विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ‘नियंतण्र विकास क्षितिज’ में भी कहा गया है कि अपने मजबूत उद्योग व्यवसाय के कारण वर्ष 2025 तक विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का दबदबा चमकता हुआ दिखाई देगा। विदेशों से विदेशी पूंजी और नई तकनीक की धरोहर लेकर भारत लौटती हुई प्रतिभाएं भारतीय उद्योग व्यवसाय को नियंतण्र बनाते हुए दिखाई देंगी। ऐसे में कल तक जो भारत प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) से चिंतित रहता था, अब वह प्रतिभा वापसी लाभ (ब्रेन गेन) से विकास की नई डगर पर तेजी से आगे बढ़ने की संभावनाएं रख रहा है। मोदी सरकार ने ब्रिक्स, सार्क, आसियान देशों के साथ-साथ जापान के साथ व्यापार बढ़ाने के जो कदम उठाए हैं, उनसे देश में उद्यम, कारोबार और रोजगार अवसरों की नई संभावना के साथ अपने परिवार के पास आने की चाहत भी प्रवासियों को वतन की ओर लौटने के लिए प्रेरित कर रही है। यह सर्वविदित है कि पिछले कई दशकों से भारतीय प्रतिभाएं दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत बनाने के लिए याद की जाती रही हैं। पूरी दुनिया में प्रवासी भारतीयों की श्रेष्ठता को स्वीकार्यता मिली है। भारतीयों को दुनिया का सबसे योग्य प्रवासी बताया गया है। । ‘मेक इन इंडिया’ का सपना साकार करने के लिए सरकार को कारोबार की मुश्किलें कम करनी होंगी। जरूरी है कि घरेलू मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को भरपूर बढ़ावा दिया जाए। हमें यह ध्यान रखना होगा कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के लिए भारत की नई प्रतिभाओं और भारत के प्रोफेशनल्स की ताकत भी जरूरी होगी। इसलिए हमें देश की नई आबादी को मानव संसाधन (ह्यूमन रिसोर्स) और पेशेवर बनाने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। एक ओर देश के करोड़ों विद्यार्थियों को मानव संसाधन में बदलने के लिए शिक्षा संस्थाओं की नई भूमिका आवश्यक होगी, वहीं दूसरी ओर देश की नई पीढ़ी को अधिक उत्पादकता तथा प्रतिस्पर्धा की दौड़ में पहल, क्षमता और उत्साह के साथ कार्य करना होगा। हम आशा करें कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के तहत मोदी सरकार द्वारा घोषित कदम उठाए जाएंगे और भारत में उपभोग का स्तर तथा मांग बढ़ेगी। इससे देश की आर्थिक वृद्धि दर पांच साल में 8.5 से 9 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। उम्मीद है कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान औद्योगिक रूप से चीन को जोरदार चुनौती देने में भारत को समर्थ बनाएगा। (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)
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एक नई मुहिम

:Fri, 26 Sep 2014 

देश को आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही तमाम समस्याओं को दूर करने के लिए वैसी कोई मुहिम आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी थी जैसी मेक इन इंडिया यानी भारत में निर्माण के नाम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जोर-शोर से शुरू की। इस मौके पर प्रधानमंत्री के संबोधन से एक बार फिर यह स्पष्ट हुआ कि वह न केवल गहन आर्थिक सोच रखते हैं, बल्कि उन्हें लोगों को प्रेरित करना भी आता है। इसमें दोराय नहीं हो सकती कि उन्होंने अपने संबोधन से एक सकारात्मक माहौल बनाया और इसकी झलक मेक इन इंडिया अभियान के प्रति उद्योगपतियों के प्रतिबद्धता प्रदर्शन से भी मिली। प्रधानमंत्री ने विदेशी पूंजी निवेश यानी एफडीआई को एक नए रूप में परिभाषित करते हुए जिस तरह यह कहा कि उनके लिए इसका मतलब पहले भारत का विकास है उससे उन्होंने न केवल देश-दुनिया के समक्ष अपनी प्राथमिकता स्पष्ट कर दी, बल्कि उद्यमियों को भी यह साफ संदेश दे दिया कि वस्तुत: वह चाहते क्या हैं? हालांकि मोदी सरकार की ओर से पहले भी यह कहा जा चुका है कि शासन वही है जो सबसे ज्यादा गरीबों की परवाह करे, लेकिन यह अच्छा हुआ कि प्रधानमंत्री ने फिर यह रेखांकित किया कि उद्योगों का भला तभी होगा जब वे यह देखेंगे कि आम आदमी की क्रय शक्ति कैसे बढ़े? उन्होंने एक ओर जहां उद्यमियों को भरोसा दिलाया कि उनका पैसा डूबने नहीं पाएगा वहीं आम जनता को भी यह यकीन दिलाया कि इस अभियान के मूल में उसका ही कल्याण है। उन्होंने मेक इन इंडिया अभियान को रोजगार सृजन से भी जोड़ा। यह एक शुभ संकेत है कि मेक इन इंडिया अभियान ने वैश्विक उद्योग जगत के बीच भी हलचल पैदा की। प्रधानमंत्री को इसका लाभ अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान भी मिल सकता है।
मेक इन इंडिया अभियान उद्योग-व्यापार जगत के साथ ही आम जनता को भी मुग्ध करने वाला है, लेकिन उसके समक्ष चुनौतियां भी हैं। सबसे पहली चुनौती राज्य सरकारों की ओर से वैसी ही प्रतिबद्धता जताने की है जैसी केंद्रीय सत्ता की ओर से खुद प्रधानमंत्री ने आगे बढ़कर जताई। एक अन्य चुनौती पुराने पड़ चुके कानूनों और खासकर श्रम कानूनों को बदलने की भी है। यह ठीक है कि इस दिशा में पहल की जा रही है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उसका विरोध भी शुरू हो गया है। हालांकि उद्योगों की जरूरत के हिसाब से हुनरमंद युवाओं को तैयार करने की भी योजना साकार हो रही है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि यह एक पेचीदा काम है। यह काम इसलिए और पेचीदा हो गया है, क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था वैसी नहीं जो देश की आवश्यकता के हिसाब से युवाओं को तैयार कर पाने में सक्षम हो। एक समस्या यह भी है कि अपने देश में जैसी चेतना अधिकारों के संदर्भ में है वैसी कर्तव्यों के प्रति नहीं। अनुशासन के प्रति समर्पण और जवाबदेही के अभाव ने भी कई बाधाएं खड़ी कर दी हैं। समय के साथ उद्योग जगत में भी कई खामियां घर कर गई हैं। रातों-रात मुनाफा हासिल करने की सोच के चलते ही क्रोनी कैपिटलिज्म जैसे शब्द चलन में आए। चूंकि मेक इन इंडिया के जरिये राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य एक पवित्र साध्य है इसलिए किसी भी स्तर पर अनुचित साधनों के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए।
[मुख्य संपादकीय]
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मेक इन इंडिया

26, SEP, 2014, FRIDAY

बहुत सालों पहले गायिका आलिशा चिनाय का एक गीत काफी लोकप्रिय हुआ था, इक दिल चाहिए बस मेड इन इंडिया। तब भारत में नवउदारीकरण प्रारंभ ही हुआ था, इसलिए दिल की कीमत बरकरार थी। अब बाजार का बोलबाला है और बाजार में दिल नहींदिमाग की तूती बोलती है। विश्वबाजार के लिए भारत के द्वार 90 के दशक में ही खुल गए थे, लेकिन उद्योगों, कंपनियों को खुला खेल खेलने की छूट नहींमिली थी। कई साल तक धनाढ्य उद्योगपति देश में निर्बाध आचरण के लिए कसमसाते रहे। कुछ सालों पहले वाइबे्रंट गुजरात जैसे मौके उन्हें मिले, तो अपने बेहतर भविष्य की उम्मीद उन्हें हुई। तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए दबे-खुले हर तरीके से कोशिश शुरु हुई, आज की राजनीति की भाषा में जिसे लाबिंग करना कहा जाता है। इसके बाद क्या हुआ, इसे दोहराने की आवश्यकता नहींहै। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब इंडिया इं.के सक्षम सीईओ की तरह बिल्कुल सक्रियता से अपने उद्देश्यों की पूर्ति में लग गए हैं। भारत में मेड इन इंडिया के जुमले की जगह मेक इन इंडिया की महत्वाकांक्षी योजना पूरे तामझाम के साथ प्रस्तुत की गई। दिल्ली के विज्ञान भवन में देश-विदेश के तमाम बड़े उद्योगपतियों की मौजूदगी में प्रधानमंत्री ने इस योजना का शुभारंभ किया और अपनी कार्यशैली के अनुरूप  यह सुनिश्चित किया कि तमाम प्रदेशों में तथा विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों में भी उसी वक्त इस योजना को प्रस्तुत किया जाए। इससे पहले जन-धन योजना की शुरुआत भी इसी तरीके से हुई थी। जन-धन योजना में हर भारतीय के पास बैंक खाता हो, यह उद्देश्य रखा गया है और खाता खुलते ही पैसे न होते हुए भी उसके पास डेबिट कार्ड आ जाए, इस बात का ध्यान रखा गया है। अर्थात खर्च का इंतजाम हो गया। अब जरूरत हो न हो व्यक्ति खर्च करने को ललचाएगा ही। बहरहाल, मेक इन इंडिया इस योजना के नाम से ही पता चलता है कि इसमें सामान भारत में ही बनेगा। जब निर्माण होगा, तो उसके लिए उद्योग स्थापित करने होंगे। जनता को यह पहलू बड़ी चतुराई से समझाया जा रहा है कि अब भारत में ही उद्योग लगेंगे तो रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। हर युवा को रोजगार मिलेगा तो उस परिवार की क्रय शक्ति बढ़ेगी। स्वयं प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि 3 या 5 रुपए का पेन हो तो आदमी 3 वाला खरीदता है, लेकिन अब वह क्वालिटी वाली चीज खरीदने की सोचेगा। विज्ञान भवन में उपस्थित व्यापारी समुदाय से भी कुछ लोगों ने भी इस बहुप्रतीक्षित अवसर पर अपने उद्गार व्यक्त किए। मंच पर केवल चेहरे बदलते रहे, सबकी बातों का सार एक ही था कि यह इस देश का सौभाग्य है कि नरेन्द्र मोदी जैसा प्रधानमंत्री हमें मिला। पिछले कई सालों से लाइसेंस राज, लालफीताशाही, पर्यावरण संरक्षण के कठिन नियमों के कारण देश का विकास रुक गया था, श्री मोदी ने उसे गति दी है। युवाओं को बेरोजगारी से जूझना पड़ता था, कहींतरक्की नहींदिखती थी, अब यह स्थिति बदलेगी। सबने नरेन्द्र मोदी को विश्वास दिलाया कि वे मिलजुलकर इस देश का विकास करेंगे। कोऊ नृप होए हमें का हानि, यह बात आम जनता सोच सकती है, व्यापारी नहीं। उसे तो जिससे लाभ हो, वही नृप चाहिए। बहरहाल, श्री मोदी ने भी अपने भाषण में हमेशा की तरह पूर्ववर्ती सरकार पर कटाक्ष किया, भले ही परोक्ष रूप से कि कुछ सालों पहले वे उद्योगपतियों से मिलते थे, तो वे देश छोडऩे की बात कहते थे, बात-बात में डरते थे। उद्योगपतियों के पलायन की उन्हें चिंता थी। आश्चर्य है कि जमीन से उठे इस नेता को मजदूरों का पलायन नजर नहींआया, उसकी इतने बड़े पैमाने पर फिक्र करते उन्हें कभी देश ने नहींदेखा। 
मेक इन इंडिया के जरिए नरेन्द्र मोदी दुनिया भर के उद्योगपतियों को भारत का पता देना चाहते हैं कि वे यहां आएं और अपना कारखाना लगाएं। सरकार उन्हें पूरा सहयोग देगी, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का दायरा बढ़ाएगी, निजी बैंक उद्योग इसमें साथ आएगा और ये सब मिलकर देश का विकास करेंगे। नरेन्द्र मोदी ने एक चक्र समझाया कि सामान यहां बनेगा तो यहींबिकेगा, यहां के युवक को रोजगार मिलेगा, तो उसी पैसे से वह यह सामान खरीदेगा। विकास के इस पहिए में श्रमिकों के लिए कौन सा स्थान होगा, इस पर बात नहींहुई। अगर उद्योगपतियों ने श्रम नियमों में मनमानी की और अपना विरोध होने पर उद्योग हटाने की धमकी दी, तो सरकार किसका साथ देगी? इतने उद्योग लगाने के लिए जमीन कहां से आएगी, कितने किसानों के खेत इसमें बलि चढ़ेंगे, कितने नदी-तालाब पाटे जाएंगे, कितने जंगल कटेंगे, उद्योगों से जो प्रदूषण होगा, उसका निराकरण कैसे होगा, इस पर भी चर्चा नहींहुई। यह शायद उनकी चिंता का विषय भी नहींहै। वे उद्योगपतियों के पलायन की पीड़ा दूर करने प्रधानमंत्री बने और वही कर रहे हैं। इसलिए एक फूड पार्क के उद्घाटन में उन्होंने शीतल पेय कंपनियों से कहा कि वे इसमें फलों का जूस भी मिलाएं। अब तक इन धीमे जहर को बनाने वाली कंपनियों से हमारी नदियों का पानी हमें ही नहींमिल रहा था, अब ताजे फल भी नहींमिलेंगे। लेकिन इतनी खुशी मिलेगी कि यह धीमा जहर हम थोड़ी पौष्टिकता के साथ पी रहे हैं।
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मेक इन इंडिया मुहिम से जगती उम्मीद

haribhoomi.com | Sep 26, 2014 

नई दिल्ली. पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले के प्राचीर से जब दुनिया को ‘कम मेक इन इंडिया’ कहा था तब कुछ लोगों ने इसे एक नारा माना था, परंतु बृहस्पतिवार को दिल्ली के विज्ञान भवन में वैश्विक व घरेलू जगत के करीब तीन हजार उद्योगपतियों के बीच ‘मेक इन इंडिया’ मुहिम की लॉचिंग से स्पष्ट हो गया कि यह नारा नहीं है और न ही सिर्फ निवेशकों को निमंत्रण है, बल्कि इसके जरिए मोदी सरकार भारत को मैन्युफैक्चरिंग का हब बनाना चाहती है। इसके तहत सरकार का उद्देश्य है कि विदेशी कंपनियां भारत आएं और यहां निर्माण करें। बेशक वे अपने उत्पाद कहीं भी बेचने को स्वतंत्र हैं। इससे ना सिर्फ देश में पैसा आएगा, बल्कि रोजगार के मौके भी पैदा होंगे। इसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने रक्षा क्षेत्र में एफडीआई के नियमों में बदलाव कर इसे काफी उदार बनाया है।भारत में मैन्युफैक्चरिंग अभी सिर्फ 15 प्रतिशत है, जिसे 25 प्रतिशत करने की जरूरत है। मैन्युफैक्चरिंग में आगे बढ़े बिना भारत विकसित देशों की कतार में खड़ा नहीं हो सकता है। केंद्र सरकार ने ऐसे 25 महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान की है जिनमें भारत दुनिया में अग्रणी स्थिति हासिल करने की क्षमता रखता है, परंतु इसके लिए बड़े पैमाने पर उद्योग-धंधों को स्थापित करना जरूरी है। प्रधानमंत्री का यह कहना उचित है कि दूसरे देशों में उत्पादन कर भारत में माल बेचने की नीति ज्यादा कारगर नहीं हो सकती, क्योंकि खपत के लिए लोगों के पास क्रय शक्ति भी होनी चाहिए। लिहाजा दुनिया के लिए बेहतर यही होगा कि वे भारत में ही आ कर उत्पादन करें, क्योंकि इससे बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा होगा, जिससे लोगों की क्रय शक्ति बढ़ेगी। इस तरह मांग बढ़ेगी, तो उत्पादन बढ़ेगा। जिससे उद्योगों का विस्तार होगा और फिर अर्थव्यवस्था का विकास होगा। इस तरह गरीबी दूर होगी और मध्यवर्ग का विस्तार होगा। यह उत्पादन कैसा होगा प्रधानमंत्री ने जीरो डिफेक्ट (त्रुटिहीन उत्पाद) और जीरो इफेक्ट (पर्यावरण अनुकूल उद्योग) का जिक्र कर पहले ही स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने इस मौके पर एफडीआई की नई परिभाषा देते हुए कहा कि भारतीयों के लिए इसका मतलब होना चाहिए फर्स्ट डिवेलप इंडिया, वहीं विश्व जगत के लिए एफडीआई भारत में एक अवसर की तरह है। वैसे देखा जाए तो उद्योगों के फलने-फूलने के लिए जरूरी संसाधन आज भारत में उपलब्ध हैं। यहां लोकतंत्र है, आबादी में विविधता है और मांग भी मौजूद है। दुनिया के मुकाबले यहां श्रम भी सस्ता है, परंतु यह तभी संभव हैजब उद्योग जगत को अनुकूल माहौल मिलेगा। इसके बाद ही विदेशी और घरेलू कंपनियां भारत में उद्योग लगाएंगी और उत्पादन करेंगी। किसी भी उद्योग के लिए सबसे बड़ी बाधा होती है नीति और नियमन के नाम पर अड़ंगेबाजी। यह सही है कि देश में कानून का राज होना चाहिए। हालांकि केंद्र में नईसरकार बनने के बाद माहौल बदल रहा है। कारोबार जगत में विश्वास एक बार फिर लौटा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उद्योग जगत को भरोसा दिलाया है कि उनका पैसा डूबने नहीं दिया जाएगा। इस मौके पर मोदी ने कहा कि बेहतर माहौल देना किसी भी सरकार का दायित्व होता है। उन्होंने यह भी कहा है कि नीतियों का अडंगा उनके सामने नहीं आने दिया जाएगा। उद्योग जगत की सहूलियत के लिए सरकार सिर्फ सुशासन नहीं, बल्कि प्रभावी सुशासन देगी। जाहिर है, यदि ऐसा होता हैतो भारत मैन्युफैक्चरिंग जगत का सिरमौर बन सकता है।
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साकार होता सपना

Sun, 28 Sep 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक विकास को गति देने के लिए महत्वाकांक्षी मेक इन इंडिया अभियान की शुरुआत जिस आत्मविश्वास के साथ की उससे उनकी नेतृत्व क्षमता और दूरदर्शिता पर नए सिरे से मुहर लगी। भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में आर्थिक विकास की अपनी रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए अधिक से अधिक रोजगार सृजन पर बल दिया था। इसके तहत ही प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने संबोधन में मेक इन इंडिया के रूप में नए कार्यक्त्रम की शुरुआत का ऐलान किया। इसके पहले मोदी सरकार ने आम बजट के जरिये कई ऐसे क्षेत्रों में विदेशी पूंजी की राह खोलने का फैसला किया था जो लंबे समय से उदारीकरण की बाट जोह रहे थे। रक्षा और रेलवे ऐसे ही दो क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों का विकास केवल घरेलू पूंजी के सहारे नहीं हो सकता। बहुत कम लोगों को उम्मीद थी कि 15 अगस्त को पहली बार जिस अभियान को शुरू करने की बात कही गई उसका खाका इतनी जल्दी और इतने व्यापक रूप में प्रस्तुत कर दिया जाएगा। प्रधानमंत्री को नि:संदेह इसका श्रेय देना होगा कि उन्होंने बिना समय गंवाए एक ऐसे अभियान की पूरी रूपरेखा प्रस्तुत कर दी जो देश की तस्वीर बदल सकता है। उद्योगीकरण और रोजगार सृजन के महत्वपूर्ण मुद्दे पर शायद ही इसके पहले किसी प्रधानमंत्री ने इतना खुला और व्यावहारिक नजरिया सामने रखा हो। नवरात्र के पहले दिन मेक इन इंडिया का शुभारंभ विकास की राह से भटके भारत के लिए एक बेशकीमती तोहफा है। इस अभियान के जरिये रोजगार सृजन के प्रति प्रतिबद्धता इसलिए और अधिक उत्साहजनक है, क्योंकि पहले की सरकारें बातें तो बड़ी-बड़ी करती थीं, लेकिन नीतियों के स्तर पर उन्होंने ऐसी कोई ठोस पहल कभी नहीं की जो आम जनता के साथ उद्योग जगत को भी आश्वस्त करने वाली होती। चूंकि न तो उद्योग जगत को भरोसे में लिया गया और न ही विदेशी पूंजी निवेश के मामले में असमंजस से उबरा गया इसलिए अपेक्षा के अनुरूप विदेशी पूंजी नहीं हासिल की जा सकी।
मेक इन इंडिया अभियान ने देश-दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है, लेकिन इसकी सफलता राज्यों और खासकर गैर-भाजपा शासित राज्यों के रवैये पर निर्भर करेगी। यह अपने देश की विडंबना ही है कि यहां विकास से जुड़ी बड़ी से बड़ी योजनाएं भी राजनीतिक मतभेदों की भेंट चढ़ जाती हैं। अगर राच्य इस अभियान के साथ कदमताल नहीं मिलाते तो जो सपना देखा जा रहा है वह पूरा नहीं होने वाला। केंद्र सरकार निवेश के संदर्भ में केवल निर्णय ले सकती है। उसके अनुरूप व्यवस्थाएं करना तो राच्य सरकारों का काम है। अगर संकीर्ण राजनीतिक कारणों से विकास की दौड़ में पिछड़े राच्य अभी भी अपना पुराना रवैया अपनाए रहते हैं तो उनका और अधिक पिछड़ना तय है और इसकी कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ेगी।
देश में बुनियादी ढांचे का विकास एक बड़ी चुनौती है। यह चुनौती महानगरों के साथ-साथ छोटे शहरों में भी है। प्रधानमंत्री ने उद्योग जगत को आवश्यक सहूलियतें देने का भरोसा देते हुए बुनियादी ढांचे को नई तकनीक और सोच के साथ विकसित करने पर बल दिया है। यह एक चुनौती भरा काम है, क्योंकि देश में बुनियादी ढांचे की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं। एक तो इस ढांचे का निर्माण किसी दूरदर्शी नजरिये से नहीं किया गया और दूसरे, उसके रखरखाव और विकास पर भी ध्यान नहीं दिया गया। इसके चलते बुनियादी ढांचा चरमराता जा रहा है। बुनियादी ढांचे की बदहाली विकास में एक बड़ी बाधा भी बन गई है। स्पष्ट है कि मेक इन इंडिया अभियान का आधार बुनियादी ढांचे का विकास बनना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने विदेशी पूंजी निवेश की एक नई परिभाषा-फ‌र्स्ट डेवलप इंडिया के रूप में दी है। इससे घरेलू और विदेशी उद्यमियों को एक स्पष्ट संदेश गया है। चूंकि मोदी इससे अच्छी तरह अवगत थे कि भारतीय उद्योगपतियों की बेरुखी के कारण भी अर्थव्यवस्था का संकट बढ़ा है इसलिए वह उन्हें आश्वस्त कर रहे हैं। उन्होंने लालफीताशाही से मुक्ति के साथ ही सरकारी नीतियों में स्पष्टता लाने और कारोबार की जटिलताओं को दूर करने का वादा किया है। वह ऐसा कर सके तो कारोबारी सहूलियत के मामले में देश की रैंकिंग बेहतर होने में देर नहीं लगेगी। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वह यह जानते हैं कि यह कैसे किया जा सकता है। इससे अच्छा और कुछ नहीं कि मोदी के रूप में भारत की बागडोर ऐसे प्रधानमंत्री के हाथों में है जो नीतियों की स्पष्टता के साथ-साथ त्वरित निर्णय करने के लिए जाने जाते हैं। उन्हें पता है कि भारत की मजबूती क्या और कहां है? उनकी प्राथमिकता देश के निर्धन और मध्यम वर्ग को अधिक से अधिक रोजगार दिलाना है ताकि उनकी क्त्रय की शक्ति बढ़े और साथ ही एक नया बाजार भी तैयार हो। उन्होंने विदेशी उद्यमियों के समक्ष यह कहने में संकोच नहीं किया कि वे भारत को केवल एक बाजार के रूप में न देखें। वह कौशल विकास को लेकर भी प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने उद्योगपतियों से आइटीआइ सरीखे प्रशिक्षण संस्थानों को गोद लेने का आह्वान किया ताकि वे अपनी आवश्यकता के अनुरूप मानव संसाधन विकसित कर सकें।
मेक इन इंडिया अभियान के साक्षी बने तमाम उद्योगपतियों ने न केवल मोदी के भाषण को बहुत सराहा, बल्कि यह भरोसा भी दिलाया कि वे नए निवेश के लिए बढ़-चढ़कर अपना योगदान देंगे, फिर भी इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि देश में उद्योगीकरण के अनुकूल माहौल कायम करने के लिए श्रम कानूनों में सुधार आवश्यक है। प्रधानमंत्री ने यह संकेत दिया है कि श्रम कानूनों में सुधार उनकी प्राथमिकता में शामिल है, लेकिन यह राच्यों की प्राथमिकता में भी शामिल होना चाहिए। दो भाजपा शासित राच्य-राजस्थान और मध्यप्रदेश श्रम कानूनों में सुधार की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। ऐसा ही अन्य राच्यों को भी करना चाहिए। इससे देश-विदेश के उद्यमियों के बीच यह संदेश जाएगा कि पूरा देश मेक इन इंडिया अभियान के प्रति न केवल समर्पित है, बल्कि आवश्यक कदम भी उठा रहा है। चूंकि इस अभियान को सफल बनाने में नौकरशाही की महत्वपूर्ण भूमिका होगी इसलिए प्रधानमंत्री उसमें भी नई ऊर्जा का संचार कर रहे हैं। उन्होंने कहा भी कि मेरी टीम मुझसे भी दो कदम आगे है। वह इसके पहले भी नौकरशाही को प्रेरित करते रहे हैं। इसी का नतीजा है कि देश में माहौल तेजी से बदला है और चंद माह पहले तक लोगों के मन में निराशा के जो भाव थे वे दूर होने लगे हैं। नौकरशाही को जनता और उद्योगपतियों पर न केवल भरोसा करना सीखना होगा, बल्कि इस भरोसे का प्रदर्शन भी करना होगा। ऐसा होने पर ही उद्योग जगत के साथ-साथ आम जनता का मनोबल बढ़ेगा।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]

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