Monday 27 October 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा





रिश्तों का नया दौर

Fri, 26 Sep 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा में दो विशिष्ट गतिविधियां शामिल हैं, जो हमारी विदेश नीति के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं। इनमें से प्रथम गतिविधि के तहत उन्हें संयुक्त राष्ट्र की आमसभा को संबोधित करना है और न्यूयार्क में ही वह अन्य चुनिंदा विदेशी नेताओं के साथ मुलाकात करेंगे। अमेरिका यात्रा के दौरान मोदी अपने दूसरे कार्यक्रम के तहत राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ-साथ अमेरिकी सीनेट और हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव के नेताओं से भी मुलाकात करेंगे। इसके अतिरिक्त वह भारतीय समुदाय के लोगों को भी संबोधित करेंगे और अमेरिकी व्यावसायिक व औद्योगिक वर्ग के प्रमुख लोगों के साथ ही अन्य बुद्धिजीवियों से भी संवाद करेंगे। इन सभी कार्यक्रमों में लोगों की उन पर करीबी नजर होगी। संयुक्त राष्ट्र आमसभा की प्रत्येक वार्षिक बैठक की शुरुआत दुनिया भर के नेताओं के भाषण के साथ होती है, जो इस दौरान अपने देश की विदेश नीति के उद्देश्यों अथवा लक्ष्यों को अभिव्यक्त करते हैं। इस दौरान दुनिया भर के नेता विशेषकर उन मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं जो अंतरराष्ट्रीय एजेंडे के लिहाज से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं अथवा संवेदनशील होते हैं। कई बार राष्ट्राध्यक्ष घरेलू नीतियों के संदर्भ में भी अपनी सरकार के प्रमुख लक्ष्यों अथवा सिद्धांतों को प्रस्तुत करते हैं।
नि:संदेह मोदी ने विदेश नीति को लेकर अपना रुख साफ कर दिया है और इसके तहत उन्होंने सार्क देशों के विकास और एकता पर बल देते हुए एशियाई देशों के बीच सहयोग का अपना विजन पेश किया है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण और सबसे अधिक आतंकवाद को लेकर उनकी ओर से कही गई बातों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने आतंकवाद को मानवता के खिलाफ अपराध करार देते हुए कहा कि इसका किसी धर्म विशेष से कोई संबंध नहीं है। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ व्यापक समझौते के तहत भारतीय प्रस्तावों को स्वीकार किए जाने की आवश्यकता है। 1996 के बाद से ऐसी कोई कोशिश गति नहीं पकड़ सकी है। इसके लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि जिस राजनीतिक प्रतिबद्धता की जरूरत थी वह नजर नहीं आई। यदि मोदी सरकार इन बातों पर शीघ्र ध्यान देती है तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। मोदी की न्यूयार्क यात्रा के दौरान विदेशी नेताओं के साथ संबंध प्रगाढ़ बनाने में विदेशमंत्री सुषमा स्वराज महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। इस दौरान प्रधानमंत्री नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के नेताओं से मुलाकात करेंगे। अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और अरब देशों के साथ अन्य देश भी हमारे राष्ट्रीय हितों, विशेषकर आर्थिक हित के लिहाज से महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं और किसी भी हाल में उनकी उपेक्षा ठीक नहीं और न ही उनसे दूरी बनाना हमारे लिए सही होगा। चीन इन देशों में अपनी गतिविधियों को तेज कर रहा है और भारतीय हितों को चुनौती पेश कर रहा है। जानकारी के मुताबिक विदेशमंत्री सुषमा स्वराज तकरीबन 100 मंत्रियों से द्विपक्षीय अथवा अलग-अलग क्षेत्रीय संगठनों की बैठकों के दौरान मुलाकात करेंगी। यह बहुत अच्छी बात है।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ मुलाकात का कोई संकेत नहीं है। अब यह पाकिस्तान पर निर्भर करता है कि वह पहल करे। यदि ऐसा होता है तो मोदी को अवश्य ही विचार करना चाहिए। हालांकि यह साफ है कि जब तक पाकिस्तान हुर्रियत नेताओं के साथ मुलाकात बंद नहीं करता तब तक उसके साथ कोई भी आधिकारिक वार्ता संभव नहीं होगी। मोदी की राष्ट्रपति ओबामा के साथ मुलाकात का भारत-अमेरिका संबंधों की दृष्टि से विशेष महत्व है, जो पिछले कुछ वषरें से स्थिर बने हुए हैं। दोनों देशों के बीच संबंधों को गति देने की आवश्यकता है, लेकिन यह समानता और परस्पर लाभ पर आधारित होने चाहिए। देवयानी खोबरागडे मामले में अमेरिका को यह साफ कर दिया गया कि भारत किसी भी देश को उसकी गरिमा और आत्मसम्मान से खेलने की अनुमति नहीं देगा। कई वषरें तक खुद को अमेरिकी वीजा दिए जाने से इन्कार को लेकर भी मोदी ने कोई कड़वाहट नहीं व्यक्त की है, लेकिन अमेरिका को यह भी समझना होगा कि भारत के लोग राजनीतिक प्रतिनिधियों का चुनाव खुद की पसंद के आधार पर करते हैं, न कि किसी अन्य देश के नजरिये के आधार पर।
आज जबकि दुनिया बहुध्रुवीय हो गई है तब भी वास्तविकता यही है कि अमेरिका दुनिया का सर्वाधिक शक्तिशाली देश है। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में वह दुनिया का नेतृत्व करता है। मोदी जानते हैं कि उनका मिशन भारतीय अर्थव्यवस्था को रूपांतरित करना है और विकास को तेज गति देने के लिए आज के डिजिटल युग में तकनीक को हासिल करना आवश्यक है। अमेरिका में अधिकांश उन्नत तकनीक निजी कंपनियों के पास है, जो अमेरिकी निवेश से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ पहलू है। सैन्य मामलों से जुड़ी हुई तकनीक अथवा जिनका नागरिक और सैन्य दोनों ही दृष्टिकोण से उपयोग किया जा सकता है उनका नियंत्रण अमेरिकी सरकार के हाथों में है। इस प्रकार ओबामा प्रशासन और निजी कंपनियां, दोनों ही भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। निवेश के माहौल में सुधार के लिए मोदी सरकार ने कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। अब रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में भी विदेशी निवेश को अनुमति दी जा रही है। जहां तक नागरिक परमाणु जवाबदेही कानून पर भारत-अमेरिका के बीच मतभेद की बात है तो इसे हल करने की आवश्यकता है। इसी तरह बौद्धिक संपदा अधिकार और फार्मास्युटिकल अथवा दवा पेटेंट के मामले में भी कोई रास्ता निकलने की उम्मीद है। ऊर्जा क्षेत्र में सौर और पवन ऊर्जा के माध्यम से अमेरिकी निवेश को आकर्षित करने की कोशिश महत्वपूर्ण है। स्किल डेवलपमेंट और उच्च तकनीकी शिक्षा के चुनिंदा क्षेत्रों में अमेरिकी भूमिका जरूरी है।
भारत के भीतर और उसके बाहर सामरिक घटनाक्रम पर ध्यान देना जरूरी है, जिसमें पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आंतरिक हालात शामिल है।नए आतंकी संगठनों के उभार, अरब देशों में लगातार उथल-पुथल पर भी मोदी को ओबामा और उनके सहयोगियों के साथ विचार-विमर्श करना चाहिए। चीन के उभार का भारत और अमेरिका की तरह एशियाई सुरक्षा पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। दोनों नेताओं को इस पर खुलकर बात करनी चाहिए। भारत को संतुलित नजरिया अपनाना होगा, लेकिन चीन की सामरिक चुनौतियों को अनदेखा करना भी ठीक नहीं। मोदी की यात्रा से भारतीय समुदाय उत्साहित है और मेडिसन स्क्वायर में उन्हें भोज पर आमंत्रित करने की योजना है। यहां तकरीबन 15000 लोग उन्हें सुनने आएंगे। अमेरिका में भारतीय समुदाय काफी प्रभावशाली है। उनकी ऊर्जा तथा प्रभाव को देश के हितों के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। देश को उम्मीद है कि सामरिक और आर्थिक क्षेत्र में मोदी की इस यात्रा का कोई ठोस परिणाम निकलेगा और इसी आधार पर इस यात्रा का आकलन भी किया जाएगा।
[लेखक विवेक काटजू, कूटनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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एक और नरेंद्र की अमेरिका यात्रा

Sat, 27 Sep 2014

नरेंद्र मोदी के मौजूदा अमेरिकी दौरे और स्वामी विवेकानंद की ऐतिहासिक शिकागो यात्रा में कुछ समानता देख रहे हैं तरुण विजय
एक नरेंद्र वे थे जो 1893 में इसी सितंबर महीने में अमेरिका के शिकागो नगर पहुंचे थे। उनके पास एक ही सहारा था-उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस का आशीर्वाद और मां दुर्गा की भक्ति। 11 सितंबर 1893 को विश्व धर्म महासभा में उनका जो उद्बोधन हुआ उसने उन्हें विश्व मंच पर एक तूफानी हिंदू संन्यासी के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। उसके बाद वे जहां भी गए उन्हें यश व सफलता ही मिली। उनकी इस अमेरिका यात्रा को ब्रिटिश दासता में जकडे़ भारत के एक तेजस्वी विद्वान की दिग्विजय यात्रा कहा गया। नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद के नाम से दुनिया में विख्यात हुए जिन्होंने अमेरिकी पादरियों और ईसाई मत के आक्रामक प्रचारकों के दुष्प्रचार का पुन: मुंहतोड़ उत्तर देते हुए भारत तथा हिंदू धर्म की प्रतिष्ठा को कायम किया। 121 साल बाद सितंबर महीने में ही एक और नरेंद्र अमेरिका में हैं। यह नरेंद्र भी अमेरिकी आक्षेपों, आक्रामक आलोचनाओं तथा पूर्वाग्रहों का तीव्र निशाना बने थे। संभवत: नरेंद्र मोदी का इतना अंधा विरोध किसी और देश ने नहीं किया जितना अमेरिका ने किया। आज उसी अमेरिका के दंडवत आमंत्रण पर वहां की यात्रा पर मोदी गए हैं तो उनके साथ भी मां दुर्गा की भक्ति का बल और स्वदेश के प्रति अगाध निष्ठा का सहारा है। अमेरिका ने मोदी के प्रति अपनी नीतियों की गलती को स्वीकारा, भारत स्थित अपने राजदूत को वापस बुलाया, भारत के साथ रक्षा विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सामरिक समझौतों की अपार संभावनाएं प्रस्तुत कीं। मोदी केऐतिहासिक एवं अभूतपूर्व स्वागत के लिए उत्सुक दिखे बराक ओबामा यानी जो पश्चिम मोदी के प्रति शंकाओं से युक्त था, सूर्यास्त के भाव से व्यवहार कर रहा था उसने पश्चिम में मोदी के सूर्योदय को सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अमेरिका में अश्वेत शक्ति की प्रतीक सदर्न यूनीवर्सिटी मोदी को मानद डॉक्टरेट की उपाधि से अलंकृत कर रही है। एक अश्वेत विश्वविद्यालय द्वारा मोदी का यह सम्मान औपचारिकताओं से परे भारत की जनता को एक विशेष संदेश है। मोदी की अमेरिका यात्रा से पहले संयुक्त राष्ट्र में उनका संबोधन होगा जो सारी दुनिया में विशेष उत्सुकता के साथ सुना जाएगा। इस उद्बोधन के माध्यम से मोदी महाशक्ति के रूप में उभर रहे भारत की एक आशादायी तस्वीर प्रस्तुत करेंगे और अटल बिहारी के बाद संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोलने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री होंगे। मोदी भारत और अमेरिकी इतिहास के ऐसे प्रथम नायक भी होंगे जिनके सम्मान में अमेरिका में प्रवासी भारतीयों ने एक अभूतपूर्व जनसभा का आयोजन किया। ज्ञात इतिहास में किसी विदेशी धरती पर भारत के किसी राजनेता का कभी भी ऐसा सम्मान होने का विवरण नहीं मिलता।
मोदी एक ऐसे समय संयुक्त राष्ट्र तथा अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं जब भारत की जनता ने उनके नेतृत्व में पार्टी को असाधारण और स्पष्ट बहुमत दिया है। स्पष्ट बहुमत की अपार शक्ति ने सवा अरब जनता के महानायक के नाते नरेंद्र मोदी को विश्व के सबसे शक्तिशाली नेताओं की श्रेणी में खड़ा कर दिया है, जिसमें उनके साथ जापान केशिंजो एबे, रूस के पुतिन, चीन के शी चिनफिंग और जर्मनी की मर्केल खड़ी दिखती हैं। यह एक नवीन भारत भाग्योदय का संकेत है। जो भारत कल तक दुनिया के सबसे भ्रष्ट और आर्थिक दृष्टि से लगातार गिरावट की ओर जा रहे देश के नाते पहचान बना रहा था, जहांकी दुनिया भर में छपने वाली खबरों का एक पैटर्न जैसा तय हो गया था, जिसमें निर्भया जैसे कांड, अंतरिक्ष, धरती और पाताल के घोटाले, आंतरिक और वाच् आतंकवाद के अनेक हमलों की बातें सुनने को मिलती थीं, पाकिस्तान से हमारे जवानों के सर कटे शव आने के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की जयपुर में आवभगत, सभी पड़ोसी देशों के साथ खराब संबंध और मालदीव जैसे देश से भी घुड़की सहन करना भारत का एक ऐसा चित्र बनाते थे जो दबा घुटा ओर रीढ़ विहीन है वहां अब नई सुबह दिख रही है। थोड़े दिनों पहले तक ही किसी दफ्तर में काम होता नहीं दिखता था, देश सत्ता के दो केंद्रों में बंट गया था। जिसके पास संवैधानिक स्वीकृति थी उसके पास शक्ति नहीं थी वहां मोदी इस अंधेरे को काई की तरह फाड़ते हुए आशा और विश्वास का ऐसा चिराग बनकर उभरे जिसने बेरौनक भारतीय क्षितिज को उम्मीदों के उत्सव में बदल दिया। इस परिदृश्य में नरेंद्र मोदी ने अमेरिका के तमाम पूर्व व्यवहार के प्रति नाराजगी एवं प्रतिशोध की भावना का किंचित मात्र भी इजहार न करते हुए भारत के हितों की सर्वोपरि साधना का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया। भारत और अमेरिका दो बडे़ लोकतांत्रिक देश हैं। वर्तमान भू-राजनैतिक परिस्थिति में भारत, अमेरिका तथा जापान में त्रिकोणीय सहयोग विश्व की सबसे अतुलनीय सामरिक गठबंधन शक्ति मानी जा रही है। अमेरिका भले ही आर्थिक दृष्टि से चीन के सामने पिछड़ रहा हो, लेकिन भारत के लिए चीन को संयमित करने एवं दायरे के भीतर रखने के लिए अमेरिका और जापान की रक्षा शक्ति के साथ एक युति बनाना जरूरी है। भारतीय प्रधानमंत्री की अमेरिकी यात्रा एक ऐसे समय में हो रही है जब राष्ट्रपति ओबामा अपनी लोकप्रियता के सबसे निचले पायदान पर हैं।
विधि का विधान देखिए कि जिस ओबामा सरकार ने कभी मोदी को महत्वहीन माना था उन्हीं ओबामा की घटती लोकप्रियता के ग्राफ को पलटने में मोदी यात्रा का सहारा मिलेगा। जितनी भारत को अमेरिका की जरूरत है उससे कहीं ज्यादा आज अमेरिका को भारत की मैत्री चाहिए। पर भारत को यह सावधानी रखनी होगी कि अमेरिका का भारत से दोस्ती का इतिहास रूस की तरह असंदिग्ध नहीं रहा है। 1962, 65 और 71 के युद्धों के समय ही नहीं, बल्कि कारगिल के वक्त भी अमेरिका भारत के साथ खड़ा नहीं दिखा। 26/11 के मुंबई हमले की जांच में भी अमेरिका ने भारत को बराबर का साझेदार नहीं बनाया और पाकिस्तान की भारत विरोधी गतिविधियां रोकने के लिए उस पर नकेल नहीं कसी। इसलिए अमेरिका के बारे में जांच परख कर दोस्ती की बात होनी चाहिए। लेकिन इतना तय है कि नरेंद्र भाई की अमेरिका यात्रा उनकी दिग्विजय का प्रतीक बन जाएगी।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)
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मोदी और अमेरिका

अमेरिका अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगमन पर असहजता का अनुभव कर रहा हो तो हैरत नहीं। जिसे उसने नौ सालों तक अपनी धरती पर पांव रखने तक से रोक रखा, आज वह उसी के स्वागत में पलक पावड़े बिछा रहा है। नरेंद्र मोदी को आज अमेरिका जाने के लिए उसके वीजा की जरूरत ही नहीं रह गई है। भारत की सवा अरब की आबादी ने अमेरिकी कुंठा के जवाब में इसका भरपूर उपाय कर दिया है। वीजा रोक अमेरिका ने तब एक व्यक्ति नहीं, बल्कि देश की लोकतांत्रिक संस्था का मान-मर्दन किया था क्योंकि मोदी तब मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे थे। उन पर मढ़े गए आरोप कानून की कसौटी पर कहीं भी खरे नहीं उतरे बावजूद इसके अमेरिका अपने तरीके से मोदी में धार्मिक वैमनस्यता के बीज ढूंढता रहा। दुनिया में अपना ‘वोट बैंक’ बढ़ाने का सस्ता उपाय शायद उसे इसमें नजर आया होगा। अब जब मोदी अमेरिका में धमाकेदार एंट्री दर्ज करा रहे हैं, दुनिया की इस इकलौती महाशक्ति को भी अपना नजरिया बदलने पर मजबूर होना पड़ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र के अपने भाषण में चीन को संकेतों में सावधान कर दिया कि वह सीमा या इलाकाई विवादों को दुनिया के कानूनों के तहत सुलझाए। चीन का नाम बेशक नहीं लिया गया लेकिन एशिया-प्रशांत महासागर इलाके का नाम लेना अमेरिकी राष्ट्रपति के निशाने को साफ दिखा रहा था क्योंकि भारत और जापान से चीन का ताजा विवाद उनके जेहन में ताजा होगा। लद्दाख में चीनी घुसपैठ को मोदी सरकार ने जितनी सख्ती से लिया है, उसका संदेश भी दुनिया तक पहुंचा होगा। भारत के रवैए में आए इस बदलाव से बेशक अमेरिका भी प्रसन्न होगा क्योंकि चीन के तेवरों से सबसे अधिक परेशानी उसे ही है। चीन सागर से लेकर हिंद और प्रशांत महासागरों तक चीन के मंडराते साये से पूरी दुनिया तनाव में है। व्यापार व ऊर्जा जैसे जरूरी सामान के इन प्रमुख आवागमन मागरे पर चीनी अवरोध विश्व को घुटने पर ला सकता है। इसलिए मोदी की खरी-खरी सुनने के बावजूद अमेरिका हमारे साथ रक्षा संबंधों को नयी ऊंचाई देने की पूरी कोशिश करेगा। र्चचा है कि अमेरिका करीब तीन दर्जन अत्याधुनिक रक्षा उपकरणों की तकनीक के साथ उत्पादन की पेशकश भी इस दौरे में करेगा। ‘मेक इन इंडिया’ के नारे के साथ अमेरिका पहुंच रहे मोदी इस मौके का इस्तेमाल वहां के उद्योगपतियों व व्यवसायियों को रिझाने में भी करेंगे। जापानी और अमेरिकी कंपनियों को भारत में निवेश का न्योता मोदी बार-बार देते आए हैं। चीन को अपने कल कारखानों का आधार बनाने वाले इन दोनों देशों को वैकल्पिक जगह की जरूरत है और इस खांचे में भारत आसानी से फिट हो सकता है। उम्मीद है कि भारत से न्यूक्लियर भागीदारी की इच्छुक अमेरिकी कंपनियों की तमाम शंकाओं का जवाब देने में भी मोदी सफल होंगे। इसके अलावा अफगानिस्तान का संवेदनशील मसला भी र्चचा में शामिल रहेगा, जिससे भारत की सुरक्षा चिंता सीधे जुड़ी है।
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बिना एजेंडे के अमरीका जाने का क्या मतलब?

सिद्धार्थ वरदराजन
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिना किसी स्पष्ट एजेंडे के अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिलने जा रहे हैं और इसका कोई प्रमाण चाहिए तो आपको द वॉल स्ट्रीट जर्नल में उनके लिखे लेख को पढ़ना चाहिए.
मोदी ने लेख में अपनी सरकार के आर्थिक एजेंडे पर आशावादी रुख अपनाया है और अमरीकी कारोबारियों और निवेशकों का ध्यान खींचा है.
लेकिन इसमें वह यह आभास दिलाने में विफल रहे हैं कि भारत अगले पांच साल में अमरीका के साथ अपने रिश्तों को कहां देखता है.
लेख में जिस तरह के शब्दों 'स्वाभाविक वैश्विक सहयोगी', 'साझा मूल्य', 'कॉम्प्लीमेंट्री स्ट्रेंथ' का इस्तेमाल किया गया है, वे हर उस देश पर भी लागू हो सकते हैं, जिनके साथ भारत के क़रीबी संबंध हैं.
लेकिन अमरीका सिर्फ़ कोई दूसरा देश नहीं है और भारत को साफ होना चाहिए कि वह अमरीका के साथ साझेदारी कर क्या हासिल करना चाहता है.
पढ़ें, सिद्धार्थ वरदराजन का विश्लेषण
मोदी
अमरीका जाने से पहले मोदी ने 'मेक इन इंडिया' कार्यक्रम लांच किया था.
परमाणु और रक्षा समझौते से बने द्विपक्षीय संबंधों के नौ साल बाद भी, भारत और अमरीका के बीच सामरिक रिश्ते दिशाहीन नज़र आते हैं.
अमरीका की शिकायतें
इससे बुरा यह है कि ओबामा प्रशासन इन संबंधों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है और भारत पर आरोप लगाता रहा है कि अहम परमाणु समझौता अब भी फलदायी नहीं हैं और रक्षा सहयोग को लेकर भी उस तरह की बात नहीं हुई जैसा कि पेंटागन और अमरीकी सैन्य सामान निर्माताओं को उम्मीद थी.
अमरीका भारत के परमाणु जवाबदेही क़ानूनों और पेटेंट नियमों के साथ-साथ खाद्य सब्सिडी और रीटेल और रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश की नीतियों पर आपत्ति जताता आया है.
इन सबसे बढ़कर, अमरीका मानता है कि जो कुछ भारत के लिए किया गया है वह इसके लिए कृतार्थ महसूस नहीं करता.
स्पष्ट एजेंडा ज़रूरी
मोदी को अपने लेख का इस्तेमाल भारत की पेटेंट, परमाणु दायित्वों, रक्षा सहयोग और विश्व व्यापार व्यवस्था की नीतियों को लेकर अमरीकियों में व्याप्त गलतफ़हमियों को दूर करने में करना चाहिए था ताकि व्हाइट हाउस में अगले हफ़्ते होने वाली मुलाक़ात के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति ठीक यही सवाल दोहराने में समय बर्बाद न करें.
मोदी ने पहले कुछ स्मार्ट एजेंडा दिखाया है. मसलन, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उन्होंने सौर ऊर्जा पर भारत को एक विश्व सम्मेलन बुलाने की आवश्कता बताई थी या फिर जब उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के राष्ट्र प्रमुखों को आमंत्रित किया था.
लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में उन पर दिनचर्या में फंस जाने का ख़तरा है. अगर मोदी बिना किसी रणनीतिक एजेंडे के व्हाइट हाउस जाते हैं, तो वह पाएंगे कि ओबामा उनके मुख्य विषय का इंतज़ार कर रहे हैं.
भारत क्यों ज़रूरी?
अमरीका की शीर्ष रणनीतिक प्राथमिकता भारत को अमरीका के पाले में वापस लाने की होगी.
ताकि एशिया में चीन के ख़िलाफ़ अमरीका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया का चतुष्कोणीय समन्वय बन सके. साथ ही अमरीका चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ कार्रवाई में भी भारत का सहयोग चाहेगा.
अमरीका के दोनों एजेंडे भारत के लिए सतही अपील भर हैं, लेकिन इनका सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करने की ज़रूरत है, क्योंकि इनके साथ समानान्तर जोख़िम और परिणाम भी जुड़े हैं.
दूरदर्शिता की कमी
सचमुच, यहीं दूरदर्शी विदेशी नीति पर अच्छे सलाहकारों की कमी दिखती है और यह कमी मोदी और भारत को महंगी पड़ सकती है.
अपनी अन्य दक्षताओं के बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल विश्व कूटनीति के दांव-पेचों को समझने में कुछ समय लेंगे.
हालाँकि प्रधानमंत्री उनसे वैसी भूमिका की उम्मीद कर रहे होंगे जैसी कि बृजेश मिश्रा, जेएन दीक्षित, शिवशंकर मेनन और एमके नारायणन ने निभाई थी.
सामान्य तौर पर, इस दरार को पाटने के लिए विदेश मंत्रालय आगे आता है, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के युग से पहले प्रधानमंत्री प्राथमिक संसाधन के लिए विदेश मंत्रालय पर ही निर्भर रहते थे- लेकिन इसका मतलब सुषमा स्वराज और उनकी टीम को ताक़त देना होगा, जो कि मोदी नहीं चाहेंगे.
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प्रभावशाली विचार

Mon, 29 Sep 2014

संयुक्त राष्ट्र आमसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन के दौरान जिस तरह देश-दुनिया को प्रभावित करने वाले सभी मुद्दों पर अपने विचार रखे उससे उनकी प्राथमिकताएं और स्पष्ट हुई हैं। इस संबोधन की जैसी प्रतीक्षा भारत में की जा रही थी वैसी ही दुनिया के अन्य देशों और खासकर पड़ोसी राष्ट्रों और अमेरिका में भी। चूंकि नरेंद्र मोदी के संबोधन के पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ संयुक्त राष्ट्र आमसभा के मंच से कश्मीर मुद्दे का राग अलाप चुके थे इसलिए इसकी उत्सुकता बढ़ गई थी कि भारतीय प्रधानमंत्री पाकिस्तान को क्या और कैसा जवाब देते हैं? उनके संबोधन के तत्काल बाद पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा और साथ ही विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अजीज ने जिस तरह यह कहा कि उनके उच्चायुक्त की ओर से नई दिल्ली में हुर्रियत नेताओं से मुलाकात का समय सही नहीं था उससे यह स्वत: स्पष्ट होता है कि मोदी ने जो कुछ कहा उसका पड़ोसी देशों में असर पड़ा है। चूंकि उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के यह स्पष्ट कर दिया कि वह कश्मीर समेत सभी द्विपक्षीय मसलों पर बातचीत करने के लिए तैयार हैं, लेकिन इसके लिए उपयुक्त माहौल बनाने की जिम्मेदारी पाकिस्तान पर है इसलिए देखना यह होगा कि नवाज शरीफ अपनी रीति-नीति में कोई परिवर्तन करते हैं या नहीं? वैसे तो उनके सामने इसके अलावा और कोई उपाय नहीं कि वह भारत से बातचीत के लिए सकारात्मक कदम उठाएं, लेकिन देखना यह है कि वह ऐसा कर पाते हैं या नहीं, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि वह अपनी मर्जी से शासन चलाने और विशेष रूप से विदेश नीति से जुड़े फैसले लेने में सक्षम नहीं हैं।
यह अच्छा हुआ कि संयुक्त राष्ट्र आमसभा में भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन को पाकिस्तान पर ही केंद्रित नहीं रखा। इसकी आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि भारत के सामने दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिन पर कहीं अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। उन्होंने जिस तरह न केवल भारत के भावी एजेंडे को सामने रखा, बल्कि विश्व समुदाय के समक्ष भी यह स्पष्ट किया कि उसे किस दिशा में चलना चाहिए उसका संज्ञान विश्व के प्रमुख देशों को भी लेना होगा, क्योंकि मोदी के नेतृत्व में भारत ऐसी स्थिति में पहुंचता दिख रहा है कि उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। मोदी ने आतंकवाद, गरीबी, पर्यावरण के साथ-साथ जिस तरह संयुक्त राष्ट्र में सुधार पर बल दिया उस पर विश्व समुदाय को गौर करना ही होगा। मोदी के संयुक्त राष्ट्र में संबोधन से यह भी स्पष्ट होता है कि वह किस तरह दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में भी सक्षम हो गए हैं। उन्होंने जी-आल की अवधारणा पर जोर दिया है। उनका यह विचार विश्व के सभी देशों के लिए एक नसीहत है। भारतीय प्रधानमंत्री ने दो टूक ढंग से यह कहा कि कोई एक देश अथवा चंद देशों का समूह दुनिया को निर्देशित नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ होने जा रही उनकी वार्ता बराबरी के स्तर पर होगी। ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि आज भारत को जितनी जरूरत अमेरिका की है उतनी ही अमेरिका को भारत की भी है।
[मुख्य संपादकीय]
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आगे बढ़ने का अवसर

Mon, 29 Sep 2014

पिछले गुरुवार को विज्ञान भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मेक इन इंडिया अभियान के शुभारंभ की तुलना में मीडिया ने मोदी की अमेरिका यात्रा को अधिक तरजीह दी और इसके लिए उसने बहुत सारी तैयारियां भी कर रखी हैं। भारत में आम चुनावों के बाद शुरुआती दिनों में मोदी के वीजा प्रकरण को लेकर अमेरिकी प्रशासन ने नरम रुख अख्तियार किया, लेकिन इस मुद्दे को जितना बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया वास्तव में वैसा था नहीं। एक ऐसे देश में जहां व्यक्तिगत रूप से भारत के नागरिक के तौर पर मोदी ने कई बार यात्राएं कीं वहां जाने के लिए जब उन्हें अनावश्यक रूप से रोका गया और वीजा देने से इन्कार कर दिया गया तो साफ था कि यह निर्णय पूरी तरह से राजनीतिक था। आज इस मोड़ पर यह अनुमान लगाना अनावश्यक है कि इस काम के लिए किस लॉबी ने बड़ा दबाव डालने का काम किया होगा। ऐसा करने वाले मानवाधिकारों के झंडाबरदार थे अथवा मोदी से दुराग्रह रखने वाले ईसाई मत के प्रचारक। यहां यह कहना भी अनावश्यक है कि जब इस तरह लिया गया राजनीतिक निर्णय खुद पर बोझ बनने लगा तो अमेरिकी प्रशासन इस फैसले को पलटने के लिए तेजी से मुखर हुआ। यहां तक कि जिस समय चुनाव अभियान चल रहा था तो अमेरिकी राजदूत ने गांधीनगर की यात्रा की। इस क्रम में 16 मई के दिन जब आम चुनावों का परिणाम मोदी के पक्ष में आया तो राष्ट्रपति बराक ओबामा के बधाई फोन के साथ ही इस वीजा समस्या का समाधान कर लिया गया और ओबामा ने व्हाइट हाउस की यात्रा के लिए मोदी को व्यक्तिगत तौर पर आमंत्रित किया। स्पष्ट है कि अधिकांश सरकारों की तरह अमेरिका भी दूसरे देशों और लोगों के साथ लचीला और अपने लिए राजनीतिक रूप से सुविधाजनक व्यवहार करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिकी प्रशासन का रुख यही है कि आप मुझे व्यक्ति बताओ और मैं आपको वह कानून दिखाऊंगा जो उस पर लागू होगा। ऐसा नहीं है कि सुविधाजनक रवैया केवल भारत की परंपरा है। पश्चिमी लोकतांत्रिक देश इस कला अथवा कौशल के मामले में हमसे कहीं बहुत परिपक्व हैं। सवाल यही है कि क्या मोदी और ओबामा व्यक्तिगत रूप से इस पृष्ठभूमि को पीछे छोड़कर आगे बढ़ेंगे। तमाम सामरिक विशेषज्ञ भी यही अनुभव करते हैं कि यदि भारत-अमेरिका संबंधों को नई दिशा देनी है तो ऐसा होना ही चाहिए। मेरा खुद का मानना है कि दो चमकदार व्यक्तित्व मुश्किल से ही घुल-मिल पाते हैं। जो भी हो, यह देखने वाली बात होगी कि ओबामा और मोदी किस तरह जुड़ते हैं। निश्चित तौर पर मोदी खुद भी इस बात को सुनिश्चित करना चाहेंगे कि व्हाइट हाउस के साथ उनका तालमेल कायम हो, लेकिन उनकी अमेरिकी यात्रा केवल इसी मकसद पर हद से अधिक निर्भर नहीं है। यात्रा के पहले के हालात के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मोदी की प्राथमिकता दो स्तरों की है। सबसे पहले तो वह भारत को अमेरिका के कारपोरेट और वित्तीय नेताओं के साथ जोड़ना चाहेंगे और दूसरे, अमेरिका में मौजूद भारतीय समुदाय में नई जान फूंकेंगे। जहां तक भारतीय जनसमुदाय को प्रेरित करने की बात है तो किसी भी अन्य प्रधानमंत्री की अपेक्षा मोदी विदेशों में रह रहे भारतीयों को देश की बड़ी परियोजनाओं को पूरा करने के संदर्भ में एक पूंजी अथवा बड़े साधन के तौर पर देखते हैं और दुनिया में भारत की अलग छवि बनाने के लिए उन्हें एक बड़ा माध्यम मानते हैं। लेकिन उनका लक्ष्य ओसीआइ कार्ड के लिए डॉलर हासिल करना नहीं है। मोदी भारतीय समुदाय से बात करना चाहते हैं और नए भारत के प्रति उन्हें गौरवबोध देना चाहते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनका मानना है कि सकारात्मक विचार संक्रामक होते हैं। सकारात्मक विचारों का अभाव ही था कि पिछले आठ वषरें में भारत दुनिया में अपना स्थान खोता गया। इस कारण तमाम देशों में रह रहे भारतीयों का भी अपने देश के प्रति रुख ठंडा रहा। दुनिया भर में भारत के प्रति फिर से उत्साह जगाने के लिए पहली आवश्यकता यही है कि मोदी भारतीयों में फिर से रोमांच पैदा करें, फिर चाहे वह देश में रह रहे हों अथवा विदेश में। वाल स्ट्रीट में अप्रवासी भारतीयों के संदर्भ रणनीति को लेकर भी विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि बड़े अमेरिकी निकायों में भारतीय समुदाय की राजनीतिक पहुंच अभी भी बहुत कम है। जापान में मोदी सरकार का मुख्य ध्यान सामरिक रणनीति के तहत भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करना था ताकि चीन की बढ़ती आक्रामकता को संतुलित किया जा सके। जापान की तुलना में अमेरिका में मोदी की कोशिश यही होगी कि दोनों देशों के बीच राजनीतिक संबंधों को सही करने के बजाय बेहतर बिजनेस संभावनाओं को तलाशा जाए। तमाम ऐसे मुद्दे हैं जो अमेरिका के साथ बिजनेस को बढ़ा सकते हैं। भारत के लिए वालस्ट्रीट का महत्व लंदन के बजाय दिनोंदिन बढ़ रहा है। ऐसे में मोदी यही चाहेंगे कि म्युचुअल फंड, पेंशन फंड और भारत में व्यक्तिगत निवेश संबंधी तमाम दिक्कतों को दूर किया जाए और स्थितियों को बदला जाए ताकि उत्साह और आशा का माहौल बने। यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है और बदले में मिलने वाला लाभ तब तक नहीं बढ़ेगा जब तक कि घरेलू और विदेशी, दोनों ही मोचरें पर सतत रूप से प्रयास नहीं होता। मोदी की कोशिश यही है कि भारत को आर्थिक शक्ति में बदला जाए और एक नई आशा का संचार किया जाए। निश्चित ही इसके लिए स्मार्ट कूटनीति की जरूरत होगी और भारतीय विदेश सेवा को नए सिरे से खड़ा करना होगा। इसके साथ ही देश में चलता है वाली सोच को बदलना होगा। सरकार ने अपनी चाल-ढाल में बदलाव के संकेत दे दिए हैं, लेकिन समाज के लिए अभी भी कदम बढ़ाना शेष है। भारतीय समाज को प्रेरित करना मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
[लेखक स्वप्न दासगुप्ता, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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क्योंकि 'अब भारतीय होना मस्त बात है'

चैतन्य नागर  Monday September 29, 2014

मेक इन इंडिया' की आतिशबाजी, संयुक्त राष्ट्र में दमदार भाषण और इसके तुरंत बाद मैडिसन स्क्वेयर में मोदी मैजिक की एक और झलक दिखी—समृद्ध भारतीय डायस्पोरा के बीच डिज़ाइनर कपड़ों में भारत का नया 'प्रधान सेवक', ख़ास कर गुजराती समुदाय के बीच नवरात्र के जूनून को बढ़ा रहा था। रोटेटिंग मंच के चारों और लोग तन, मन और धन से लगे थे, बाजीगर के नए जादू की प्रतीक्षा में।

दो बयान ग़ौरतलब हैं। एक टाइम्स स्क्वायर पर खड़े एक युवक का और दूसरा था मोदी के भाषण के बाद एक भारतीय सिख  बिजनसमैन का, जो अमेरिका में पिछले चालीस साल से थे। युवक ने कहा: 'इट्ज़ कूल टु बी एन इंडियन नाउ' (यानी अब 'भारतीय होना एक अच्छी, मस्त बात है' की आधुनिक अमरीकी स्लैंग में अभिव्यक्ति)। यह युवक देश की युवा पीढ़ी की बात को अपने शब्दों में व्यक्त कर रहा था। दूसरा वक्तव्य ज़्यादा काबिले गौर है जिसमे उस बुजुर्ग ने कहा: 'वर्तमान समय में न सिर्फ भारत में, बल्कि पूरी दुनिया में नेतृत्व का अभाव है, और मैं पूरे दावे के साथ कहता हूँ, कि मोदी आने वाले कुछ वर्षों में ही एक विश्व नेता बनने जा रहे हैं।' अमेरिका में बसे भारतियों ने बड़ी मेहनत और साहस के बल पर खुद को बड़ी ही मजबूत आर्थिक और सामाजिक स्थिति में पहुंचा लिया है, और अब मोदी के सरकार में आने के बाद वे खुद को अमेरिका में राजनीतिक लॉबिंग की स्थिति में महसूस कर रहे हैं। वे ज़्यादा तटस्थ और निष्पक्ष हैं, क्योंकि अपने तमाम सामाजिक और भावनात्मक लगाव के बावजूद वे यहाँ की नकारात्मक स्थितियों से दूर हैं, या फिर ज़रूरत पड़ने पर तुरंत अलग हो सकते हैं। ऐसे में उनका भारत के बारे में विचार, यहाँ के नेतृत्व के बारे में उनका दृष्टिकोण काफी मायने रखता है। 
  
untitled-1.jpgमैडिसन स्क्वेयर के श्रोताओं की नियंत्रित और संयमित उत्तेजना के बावजूद अमेरिका के भारतीय समुदाय की ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज़ हुई है। मोदी के सादगीपूर्ण और पारदर्शी संवाद शैली ने एक बार फिर से उन्हें एक दूरदर्शी, सबको साथ लेकर चलने वाले नेता के रूप में स्थापित किया है। मोदी सीधे लोगों के दिलों को छूते हैं। जो राजनेता भारी भरकम बौद्धिक पृष्ठभूमि से नहीं आते उनके साथ एक लाभ यही होता है कि उनका अवलोकन बड़ा प्रत्यक्ष और किसी अनावश्यक, बोझिल ज्ञान के बोझ से मुक्त होता है। मोदी के भाषण के टारगेट आयु वर्ग को साफ़ और भावना-प्रधान बातें ज़्यादा समझ आती हैं। दिमाग से दिल की दूरी सिर्फ 17 इंच की होती है, और उसे पार करना सबसे कठिन कामों में से है। मोदी ने इसमें महारत हासिल कर ली है।         

आज यदि विपक्ष उनकी तर्ज़ पर इस तरह के धूम धाम वाले कार्यक्रम कर भी दे, मंच सजा भी दे, तो नृत्य करने वाला कहाँ से लाएंगे। यहाँ तो स्पॉन्सर्स भी हैं, धनीजन उगते सूरज पर पैसे भी लगा रहे हैं, और परफॉरमेंस देने वाला एक रॉक स्टार भी है। मोदी 'कूल' लग रहे हैं, और बाकी नेता भदेस और अमरीकी स्लैंग्वेज में कहें तो 'ओल्ड स्कूल' दिख रहे हैं। पिछले करीब दो दशकों से बीजेपी और उसके सहयोगी दल उत्तरी अमेरिका के भारतियों के बीच बड़े सक्रिय होकर काम कर रहे है। दूसरी तरफ इंडियन ओवरसीज कांग्रेस, जिसके स्थापना 1969 में हुई थी, करीब करीब ख़त्म हो चुकी है। न्यू यॉर्क शहर में 2001 में सोनिया गांधी ने इंडियन नेशनल ओवरसीज़ कांग्रेस का भी उद्घाटन किया था। उसका क्या हुआ, शायद कांग्रेसी भी भूल गए हों। 

मैडिसन स्क्वेयर में दर्शकों की उपस्थिति पॉप और रॉक गायकों की लोकप्रियता का मापदंड है। एल्विस प्रेस्ले ने 1972 में यहाँ इतिहास रचा और लगातार चार शोज़ किये जिसमे करीब 80000 लोगों ने हिस्सा लिया। द बीटल्स के टूटने के बाद भी उसके चारों पूर्व सदस्यों ने यहाँ अपने सोलो परफॉरमेंस दिए। मोहम्मद अली और जो फ्रेज़िएर का पहला बॉक्सिंग मैच इसी स्टेडियम में हुआ था। यह जगह ख़ास करके संगीत, खेल और मनोरंजन की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए ही है, जिसमे बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं। मोदी के भाषण के लिए वहां की 18500 (कुछ लोगों के अनुसार 17500) सीटें पहले ही बिक गयी, और बाकी 20000 लोगों को मायूस होना पड़ा। इससे मोदी की लोकप्रियता का तो सबूत मिलता है, पर सच्चाई और लोकप्रियता के रास्ते अलग अलग होते हैं। मोदी को अब और अधिक  निष्ठां और ईमानदारी के साथ लोगों के सपने पूरे करने के प्रयास करने होंगे। रॉक स्टार ऊपर बहुत तेज़ी से उठते हैं, पर साथ ही उनका गिरना भी देखने लायक होता है।

महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर उनकी स्मृति का सम्मान करने के लिए उनके कदमों पर एक स्वच्छ भारत को रखने की बात कइयों को छू गयी है। मोदी की सादगी लोगों का दिल छूती है। अपने चाय विक्रेता के अतीत का ज़िक्र करना वह यहाँ भी नहीं भूले और ऐसा कहने में उन्हें कोई संकोच नहीं आता कि वह बड़े छोटे आदमी हैं। छोटे रहे हैं, और इसलिए छोटे काम अच्छे लगते हैं, और छोटे लोगों के लिए बड़े काम करना चाहते हैं। एक कम्युनिस्ट और एक समाजवादी भी तो यही कहेगा। उम्मीद है कि इस तरह की सादगी उनके डी एन ए का हिस्सा है, और एक राजनेता की कुशलतापूर्वक संवर्धित सादगी और विनम्रता नहीं। गंगा सफाई को मोदी ने पूरी दुनिया के पर्यावरण के साथ जोड़ा। जिस तरह गंगा की सफाई को सिर्फ एक आस्था का प्रश्न न बना कर, उसे गंगा के किनारे बसे करोड़ों लोगों के जीवन और आर्थिक प्रगति से जोड़ कर दिखाया, वह ख़ास अहमियत रखता है।

विकास का ठेका सरकार ले यह ठीक नहीं, और कैसे विकास एक जन आंदोलन में परिणत हो, इसे मोदी ने बहुत ज़ोर देकर स्पष्ट किया। एक तरह से उन्होंने देश की ज़िम्मेदारी हर नागरिक को दी जो कि कम से कम सरकारी दखलंदाज़ी के उनके सिद्धांत के अनुरूप भी था।

देशभक्ति का माहौल बना कर, रेड कारपेट की बात दोहराकर, वीज़ा सम्बन्धी नियमों को सरल बनाने का तोहफा देकर मोदी ने अमेरिका में रहने वाले भारतीय समुदाय को भारत के विकास में योगदान देने का पूरे दिल से निमंत्रण दिया है। उनकी जेब तक पहुँचने का रास्ता उनके दिलों से होकर जाता है, इस बात को मोदी अच्छी तरह जानते हैं। भारत की युवा पीढ़ी की क्षमता, उनकी असीमित सम्भावनाओं और इस देश के विकास के मार्ग में आने वाली परेशनियों को जड़ से दूर करने के वादे करके मोदी ने पूरे विश्व को एक नया सन्देश दिया है ।        

मोदी का सफल होना उनके सहयोगियों की समझदारी, दूरदर्शिता और उनके विरोधियों की कमज़ोरी पर भी निर्भर करेगा। उम्मीद करना अच्छी बात है, आशावादी होना बहुत अच्छा है, पर सतर्क भी रहना ज़रूरी है। 'मेक इन इंडिया' जैसे नारे सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं, पर अमेरिकी व्यापारियों को सिर्फ नारों से नहीं लुभाया जा सकता, वे ज़मीनी हकीकत भी देखेंगे, और यह सब निर्भर करेगा कि इन सपनो के साथ मोदी अपने देश में प्रशासनिक सुधार लाने में किस हद तक कामयाब हो पाते हैं। जिस रेड टेप की जगह उन्होंने रेड कारपेट बिछाने की बात कही है, वह रेड टेप बड़ा पुराना, मजबूत और ज़िद्दी है और विदेशी पूँजी के अलावा देश के उद्योगपतियों के लिए भी हमेशा से निराशा का कारण रहा है। उम्मीद है जिस इश्क़ की इब्तेदा हुई है, उसे मोदी इन्तेहाँ तक पहुंचाएंगे।
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मोदी की आवाज

दुनिया पर न तो अमेरिका की दादागिरी चलनी चाहिए और न उस पर चीन के खौफ का साया मंडराना चाहिए। ताकतवर संयुक्त राष्ट्र ही दुनियाभर के देशों के हितों का असल रक्षक बन सकता है, बशत्रे बदलती जरूरतों के अनुसार इसमें सुधार लाए जाएं और ताकतवर देशों के तमाम कथित गुटों को इस पर हावी नहीं होने दिया जाए। संयुक्त राष्ट्र में अपने पहले संबोधन में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया को उन तमाम अंतरविरोधों का आईना दिखा दिया जिसके कारण आज तनाव, असहिष्णुता और खूनखराबे के जहरीले बादल इंसानियत के वजूद पर सवाल उठाने लगे हैं। इराक और सीरिया में तबाही फैलाते आतंकियों के खिलाफ बन रहे अंतरराष्ट्रीय मोर्चे को भारत का पूरा समर्थन देते हुए मोदी यह पूछने से भी नहीं चूके कि सबसे बड़ा संकट बन जाने के बावजूद दहशतगर्दी के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र कानून क्यों नहीं बना रहा है! आतंकवाद के खिलाफ मोदी का यह तेवर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को राहत पहुंचाएगा जो अब तक चालीस देशों को इस मोर्चे पर इकट्ठा कर चुके हैं और मोदी का सहयोग भी जुटाना चाहेंगे। हालांकि ‘आईएस’ आतंकियों के चंगुल में फंसे अपने चालीस नागरिकों का ख्याल रखते हुए भारत क्या खुले तौर पर इस मोर्चे में शामिल हो पाएगा, यह सवाल परेशान करने वाला है। हाल के दिनों में इन आतंकियों ने जिस क्रूरता से अपने अमेरिकी, ब्रिटिश और फ्रेंच बंधकों का सिर कलम किया है उससे भारत की चिंता और बढ़ गई है। लेकिन यह भी सचाई है कि आतंकियों के खिलाफ आज पूरी दुनिया ने एक स्वर में आवाज नहीं लगाई तो इंसानी सभ्यता, संस्कृति यहां तक कि उसका अस्तित्व भी संकट में आ जाएगा। इसलिए मोदी विश्वमंच से पूर्ण एकता की आवाज लगा रहे थे तो दूसरी ओर पाकिस्तान से भी आग्रह कर रहे थे कि वह आतंक के लबादे को दूर फेंक बातचीत के लिए आए। उन्होंने दो टूक लहजे में कह दिया कि पाकिस्तान अगर रिश्तों में सुधार पर गंभीर होता तो वह आपसी बातचीत का रास्ता छोड़ कर इस अंतरराष्ट्रीय संस्था का समय बरबाद करने नहीं आया होता। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र के सामने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का अधिक वक्त भारत पर निशाना लगाते बीता था जिसमें कभी वह कश्मीर पर घड़ियाली आंसू बहाते, तो कभी अपने एटमी हथियारों की याद दिलाते दिखे थे। पाकिस्तान ने अपनी उबलती कुंठा का नमूना संयुक्त राष्ट्र में सुधारों का विरोध कर भी जता दिया है कि कहीं भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनने में सफल न हो जाए। विकास की होड़ में प्रकृति की दुर्दशा के पीछे इंसान की मतलबी सोच को जिम्मेदार मानते हुए ही मोदी ने इससे राहत का रास्ता भारतीय योग साधना को बताया और संयुक्त राष्ट्र से इसे अपनाने का आग्रह किया। नियंतण्र सत्ता संतुलन की बात करते हुए भी वह स्वच्छता, शौच जैसी बुनियादी जरूरतों की याद दिलाने से नहीं चूके जिनका अभाव आज भी अरबों इंसानों को जानवरों की जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर रहा है।
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वैश्विक मंच पर मोदी की खरी-खरी

विश्लेषण
पुष्पेश पंत
हर साल सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा की जो सालाना बैठक न्यूयार्क में होती है उसका माहौल कुछ-कुछ कुंभ मेले जैसा होता है। संयुक्त राष्ट्र के आजकल 193 सदस्य हैं- महाशक्तियों से लेकर सूक्ष्म कण राज्यों (माइक्रो स्टेट्स) तक। इस जमावड़े से कोई यह उम्मीद नहीं करता कि कोई नाटकीय राजनयिक पराक्रम यहां संपन्न होगा। माहौल मेले का लुत्फ उठाने जुटे तमाशबीनों की मजलिस वाला रहता है। हां, जो राजनीतिक प्रतिनिधिमंडल और पेशेवर राजनयिक इस मौके को सजाते हैं वह जरूर अपनी गरिमा-महिमा से खुद ही अभिभूत दिखलाई देते हैं। समझने लायक पहली बात यह है कि अपनी स्थापना के समय इस संस्था ने जितनी भी आशाएं जगाई थीं, वे आज तिरोहित हो चुकी हैं। कोई भी यह बात नहीं नकार सकता कि विश्व शांति को निरापद रखने और संकट निवारण में संयुक्त राष्ट्र बुरी तरह नाकाम साबित हुआ है। यह जगह इस बात पर तफसील से र्चचा करने की नहीं कि कौन कारण इस असफलता के लिए जिम्मेदार हैं, पर इसके लिए शीत युद्ध को बड़ी हद तक जिम्मेदार माना जा सकता है। बहरहाल, अब यह अपेक्षा व्यर्थ है कि 21वीं सदी में संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कोई सार्थक-निर्णायक भूमिका निभा सकता है। आम सभा तो बहुत निरीह प्राणी है- इससे कहीं अधिक सशक्त दिखने वाली सुरक्षा परिषद का बधिया बना दिया जाना भी निर्विवाद है। इस स्थिति में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि फिर क्यों मोदी के ‘यूएन’ वाले भाषण को लेकर इतनी हलचल है? एक मुद्दा यह है कि कभी जिस मोदी को वीसा देने से अमेरिका ने इंकार कर दिया था उसी के स्वागत में आज ‘लाल कालीन’ बिछाने को ओबामा प्रशासन मजबूर हो रहा है। अत: भारतीय- निवासी तथा प्रवासी- स्वाभिमान कहिए या अहंकार की तुष्टि स्वाभाविक है। भले ही मोदी संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में शिरकत के बहाने अमेरिका पहुंच रहे हैं और इस अवसर का लाभ उठा ओबामा ने इसे लगभग अनौपचारिक राजकीय यात्रा की कुछ-कुछ शक्ल दे दी है। इसी कारण हिंदुस्तानियों के मन में यह कुतूहल है कि क्या ओबामा के साथ मुलाकात के बाद अमेरिका-भारत संबंधों में तेजी से सुधार होगा? यह रिश्ता और भी मजबूत होकर उभरेगा क्या? तकनीकी और आर्थिक क्षेत्र में सहकार का दायरा और कितना फैलाया जा सकेगा? क्या अमेरिका वीसा संबंधी भारतीय शिकायतों को दूर करने की कोशिश करेगा? अमेरिका के इस दौरे के पहले मोदी ने ताबड़तोड़ अनेक देशों के दौरे किए हैं- भूटान से लेकर जापान तक। इसके अलावा ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन के अवसर पर ब्राजील में उन्हें शी, पुतिन के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका तथा ब्राजील के राष्ट्राध्यक्षों से मिलने का अवसर मिल चुका है। अर्थात मोदी के लिए न तो किसी दूसरे नेता को ‘पहचानने’ (उसकी मंशा की टोह लेने) की दरकार है, न ही अपना आत्मविास दर्शाने की। इसका मतलब यह नहीं कि मोदी के भाषण की अनसुनी की जा सकती है। यह भाषण उस मानसिक नक्शे को समझने के लिए बहुत सहायक हो सकता है जिसके अनुसार भारत के नए प्रधानमंत्री अपनी विदेश नीति का निर्धारण अगले कम से कम पांच साल में करने वाले हैं। मोदी के लिए इस मौके की अहमियत यह है कि वह खुद को दिग्गज, दूरंदेश राजनेता के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में पहला कदम उठा रहे हैं जो संकीर्ण स्वार्थ से ऊपर उठ कर सोच सकता है- दूसरों को दिशा दिखलाने का काम भी कर सकता है। अकसर मोदी की आलोचना यह कह कर की जाती रही है कि वह यह नहीं समझ पा रहे कि भारत गुजरात नहीं! जो जटिल चुनौतियां उनके सामने खड़ी हैं वह सिर्फ प्रशासनिक नुस्खों से निबटाई नहीं जा सकती तथा मोदी को अंतरराष्ट्रीय राजनय की पेचीदगियों का अंदाजा नहीं। इन सभी को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए आम सभा का संबोधन बेहद उपयोगी है। मोदी के पहले पाकिस्तान के सदर ने आम सभा में बोलते वक्त कश्मीर के मुद्दे को उठा कर यह कुतूहल भी पैदा कर दिया कि क्या मोदी इसका जवाब देंगे? देंगे तो किस तरह? आधा घंटा से भी अधिक समय तक चले अपने भाषण में मोदी ने कई बातें एक साथ साफ कर दीं। उन्होंने तमाम उन मुद्दों को छुआ जो 21वीं सदी के दूसरे दशक में प्राथमिक महत्व के हैं- सामरिक नजरिए से संवेदनशील या विस्फोटक हैं। जाहिर है कि ये भारत के लिए ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों की दिलचस्पी का विषय हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकवाद के सिलसिले में दो टूक कहा कि यह मानवता के खिलाफ है, इसके साथ समझौता कतई नहीं किया जा सकता और ‘अच्छे’ तथा ‘बुरे’ आतंकवादियों में फर्क करने की कोशिश गलत है। जाहिर है यह बात अमेरिका को सुनाई जा रही थी। मोदी ने बिना नाम लिए यह भी रेखांकित किया कि कुछ देश अब भी अपनी जमीन पर आतंकवादियों को पनाह दे रहे हैं। इनके साथ तब तक संवाद या सहकार संभव नहीं जब तक यह अपना आचरण नहीं बदलते। पाकिस्तान के लिए इससे अधिक गंभीर चेतावनी क्या हो सकती थी? मोदी ने चुटकी लेते हुए यह भी कहा कि जी-5, जी-20 जैसे जमावड़े अंतरराष्ट्रीय विषमता को दूर नहीं करते, बढ़ाते ही हैं। सभी की अभिलाषाओं को मुखर करने का काम तो ‘जी-समस्त’ जैसा संयुक्त राष्ट्र ही कर सकता है। जाहिर है, इसके लिए इस संस्था में संगठनात्मक सुधार परमावश्यक हैं और इस काम को टाला नहीं जाना चाहिए। मोदी ने अपने प्रिय विषयों- स्वच्छता, पेयजल, स्वास्थ्य, ऊर्जा तथा पर्यावरण के संरक्षण- को भी बखूबी अंतरराष्ट्रीय सहकार की प्रस्तावित कार्यसूची में शामिल किया। संयुक्त राष्ट्र ने कुछ बरस पहले नई सहस्त्राब्दी के लिए मानवजाति के विकास के लक्ष्य परिभाषित किए थे और इनके लिए समय सीमा भी सुझाई थी। आज लोग यह भूलने लगे हैं कि यह मील के पत्थर अब भी कई सदस्य देशों की पहुंच के परे हैं। मोदी ने यह निसंकोच स्वीकार किया कि कि भारत के संसाधन सीमित हैं, पर वह इनका साझा जरूरतमंद देशों के साथ करने के लिए हमेशा आगे रहेगा। संपन्न ताकतवर देशों को इससे सीखने की जरूरत है। भारतीय प्रधानमंत्री ने सार्वभौमिक परमाणविक अप्रसार का उल्लेख किया, टेक्नोलॉजी की अपार संभावनाओं को उजागर करने के साथ मौसम बदलाव जैसी समस्याओं की भी उपेक्षा नहीं की जिन पर किसी का वश नहीं, जो महामारी की तरह सभी के लिए जानलेवा संकट बन सकती हैं। मोदी ने सागर से अंतरिक्ष तक के क्षेत्र को निरापद रखने पर जोर देते हुए समस्त मानवजाति के कल्याण के लिए इसकी संभावनाओं को उजागर करते अनायास दक्षिण चीनी सागर तथा प्रशांत महासागर में चीन के आधिपत्य के दावों की तरफ श्रोताओं का ध्यान दिला दिया। यह भाषण हिंदी में दिया गया। यह अपने आप में गंभीर सोच-विचार का विषय है। दुनिया में हिंदी को विश्व की अन्य अंतरराष्ट्रीय भाषाओं के समकक्ष रखने की यह कोशिश सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं समझी जानी चाहिए, न ही इसे हिंदी तथा दूसरी भारतीय भाषाओं के बीच बैर- भाव पैदा करने की जोखिम भरी हरकत कहने की नादानी करनी चाहिए। वास्तव में यह औपनिवेशिक मानसिकता की उन बेड़ियों की तोड़ने की सार्थक कोशिश है जिनसे अब तक हमारे भूरे-काले साहिब नुमा नेता जकड़े रहे हैं। भारत के स्वाभिमान का, स्वदेशी प्रेम का यह सहज उद्गार है। (लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)
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दुनिया के सामने

जनसत्ता 29 सितंबर, 2014: संयुक्त राष्ट्र महासभा में इस बार भारत के प्रधानमंत्री के भाषण को लेकर पहले से कहीं अधिक उत्सुकता थी। इसलिए कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी पहली बार अमेरिका गए थे और महासभा को संबोधित करने का यह उनका पहला मौका था। उनसे एक रोज पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ महासभा से मुखातिब हुए थे। जैसा कि लगभग हर बार होता आया है, इस बार भी पाकिस्तान ने कश्मीर-विवाद को अंतरराष्ट्रीय मसला बनाने की कोशिश की और भारत ने उसे नाकाम करने की। पर मोदी ने सख्त रुख अपनाते हुए भी अपने जवाब में संयम बरता। अपने आधे घंटे के भाषण में पाकिस्तान को जवाब देने के लिए सिर्फ दो-तीन मिनट लगाए। उन्होंने कहा कि भारत सभी द्विपक्षीय मसलों पर पाकिस्तान से बातचीत को तैयार है, पर बातचीत हिंसा या आतंकवाद के साए में नहीं हो सकती। साथ ही मोदी ने आतंकवाद के खिलाफ एक वैश्विक करार की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए विश्व बिरादरी का आह्वान किया, ताकि कोई अच्छे और बुरे आतंकवाद का फर्क न कर सके। इस पर विचार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा से बेहतर मंच और क्या हो सकता है! संयुक्त राष्ट्र ने स्वास्थ्य, शिक्षा से लेकर मानवाधिकारों तक अनेक मुद््दों पर घोषणापत्र समय-समय पर जारी किए हैं, उन पर तमाम देशों ने हस्ताक्षर भी किए हैं। अगर घोषणापत्र जारी होने से ही फर्क पड़ना होता, तो दुनिया की हालत कुछ और होती।
अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी गठबंधन में पाकिस्तान शामिल रहा है, पर उसके रवैए को लेकर भारत का अनुभव कैसा है यह सबको मालूम है। आज सऊदी अरब आइएसआइएस के खिलाफ अमेरिकी मुहिम में साझीदार है, पर वहाबी विचारधारा को पालने-पोसने और कई आतंकवादी गुटों को मदद पहुंचाने में उसकी भूमिका किसी से छिपी नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक करार एक जवाबदेही का एलान जरूर करा सकता है, पर संजीदगी न हो तो वह महज सैद्धांतिक सहमति होकर रह जाएगा। महासभा का ताजा अधिवेशन ऐसे समय हो रहा है जब संयुक्त राष्ट्र को सहस्राब्दी विकास-लक्ष्यों के बाद का खाका बनाना है। लेकिन पहले सहस्राब्दी कार्यक्रम की खामियों पर विचार होना चाहिए, जिसके लक्ष्यों के 2015 तक की निर्धारित अवधि में पूरे होने की कोई सूरत नहीं दिखती। इस कार्यक्रम के तहत विकसित देशों ने मदद जरूर दी, पर अधिकांश वित्तीय सहायता के साथ तरह-तरह शर्तें जोड़ दी गर्इं, हथियार खरीदने का दबाव भी बनाया गया। क्या 2015 के बाद की विकास-योजना इस सब से मुक्त होगी?
सुरक्षा परिषद के पुनर्गठन और उसमें स्थायी सदस्यता की भारत की अपेक्षा नई नहीं है। पर संयुक्त राष्ट्र के ढांचे और कार्यप्रणाली में सुधार के तकाजे का दायरा और बड़ा है। मोदी ने जी-4, जी-20, जी-7 जैसे समूहों के औचित्य पर सवाल उठाते हुए जी-आॅल यानी सभी को साथ लेने की बात कही। फिर उन्होंने वीटो खत्म करने की मांग क्यों नहीं उठाई? भारत खुद कई समूहों का हिस्सा है। उसने गुटनिरपेक्ष आंदोलन और जी-77 जैसे समूहों के गठन और संचालन में अहम भूमिका निभाई। दरअसल, सभी देशों के हित समान नहीं हैं न सबकी विश्व-दृष्टि एक जैसी है। ऐसे में देशों का कोई समूह न बने, यह कैसे हो सकता है! अटल बिहारी वाजपेयी के बाद मोदी दूसरे प्रधानमंत्री हैं जो संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोले। अच्छी बात है। पर हिंदी को प्रतीकात्मक महत्त्व देने से आगे जाकर ऐसी भाषा नीति बनाने की जरूरत है जिससे शिक्षा, प्रशासन से लेकर अदालती कामकाज तक, तमाम क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं की उपेक्षा समाप्त की जा सके।
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रिश्तों की कसौटी

Wed, 01 Oct 2014
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के बाद दोनों देशों में दोस्ती पक्की करने और महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहयोग के लिए प्रतिबद्धता जताने की बातें होनी ही थीं। इस प्रतिबद्धता को पुष्ट किया दोनों नेताओं की ओर से जारी दृष्टि पत्र ने और साथ ही एक संयुक्त लेख ने। इस दृष्टि पत्र और लेख ने यही स्पष्ट किया कि किस तरह दोनों देशों के बीच बहुत कुछ साझा है और दोनों का सहयोग किस प्रकार दुनिया के हित में है। अमेरिकी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री ने साथ-साथ चलने की जो हामी भरी उसे ज्यादा अच्छे से बयान करने का काम करेंगे दोनों देशों के बीच हुए समझौते। नि:संदेह ओबामा और मोदी की इस पहली मुलाकात में ही सभी क्षेत्रों में सहयोग का आधार पुष्ट होने वाला नहीं था, लेकिन इसकी अपेक्षा अवश्य की जाती है कि दोनों देश एक-दूसरे के प्रति भरोसे के उस अभाव को दूर करने में सक्षम हों जो पिछले कुछ समय में रह-रहकर नजर आया है। इस अभाव के चलते दोनों देशों में दूरियां बढ़ीं और अविश्वास भी पैदा हुआ। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब दूरियां भी कम होंगी और आपसी विश्वास भी बढ़ेगा, लेकिन इसके लिए यह आवश्यक होगा कि अमेरिका भारत की चिंताओं को न केवल समझे, बल्कि उनका समाधान करने के मामले में सकारात्मक रवैया अपनाए। यह ठीक नहीं और न ही स्वीकार्य हो सकता है कि अमेरिका भारत से हर क्षेत्र में सहयोग भी चाहे और दूसरी ओर अपने ही हितों की परवाह करे। दुर्भाग्य से उसका यह रवैया एक नहीं अनेक मामलों में दिखा है-फिर बात चाहे विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों की हो अथवा आतंकवाद के बढ़ते खतरे की।
यह विचित्र है कि अमेरिका ने एक ओर तो आतंकवाद के खिलाफ अभियान की अगुआई की और दूसरी ओर ऐसा करते समय उन आतंकी गतिंिवधियों की अनदेखी भी की जो भारत के लिए खतरा बनी हुई हैं। अमेरिका यह अच्छी तरह जानता है कि भारत के पड़ोस अर्थात पाकिस्तान में किस तरह उन तत्वों को हर स्तर पर सहयोग, समर्थन और संरक्षण दिया जा रहा है जो भारतीय हितों के लिए खतरा बने हुए हैं, लेकिन वह इस्लामाबाद पर वांछित दबाव बनाने के लिए तैयार नहीं होता। उसने सिर्फ अफगानिस्तान में अपने हितों की परवाह की और अब तो वह इस देश के भविष्य की चिंता किए बिना वहां से जल्दी से जल्दी अपनी सेनाएं समेटने की कोशिश में है। अमेरिका के एकपक्षीय नजरिये की झलक ईरान और म्यांमार के मामले में भी नजर आती है। अपने लाभ के लिए वह भारत पर इसके लिए दबाव बनाता रहा कि वह इन दोनों देशों से अपने संबंध मजबूत न करे, लेकिन पिछले कुछ समय में वह खुद ही इन दोनों देशों से संबंध सुधारने में जुटा हुआ है। ऐसे रवैये को मित्रवत नहीं कहा जा सकता। इसी तरह यह भी ठीक नहीं कि अमेरिका भारत को सिर्फ एक बाजार की तरह देखे और यह जानते हुए भी अमेरिकी कंपनियों की तरफदारी करे कि इससे भारत को नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह सही है कि भारत को निवेश के लिए उपयुक्त माहौल बनाने के लिए काफी कुछ करने की जरूरत है, लेकिन यह काम केवल अमेरिकी कंपनियों के हितों को ध्यान में रखकर नहीं किया जा सकता। दोनों देशों में स्वाभाविक दोस्ती के लिए यह अनिवार्य है कि अमेरिका भारत को एक सशक्त सहयोगी के रूप में देखे और साथ ही उसके घरेलू और बाहरी हितों का भी ध्यान रखे।
[मुख्य संपादकीय]
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मोदी का करिश्मा

Tue, 30 Sep 2014

न्यूयार्क के मेडिसन स्क्वायर गार्डेन पर उम्मीदों और उल्लास से भरे भारतीयों के बीच भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदी में भाषण देते हुए देखना-सुनना एक अद्भुत क्षण था। यह नए भारत के उत्कर्ष की एक नई झलक थी। महज इसलिए नहीं कि इस प्रतिष्ठित सभागार के अंदर और बाहर अमेरिका में रह रहे भारतीयों का हुजूम उमड़ पड़ा था, बल्कि इसलिए भी कि भारतीय प्रधानमंत्री अपने संबोधन से देश-दुनिया के भारतीयों के बीच आशा का संचार करने के साथ ही उन्हें यह विश्वास दिला रहे थे कि वे उनके सपनों के भारत का निर्माण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। आलोचक चाहें तो केवल इस नतीजे तक पहुंचकर संतुष्ट हो सकते हैं कि नरेंद्र मोदी का भाषण महज कुछ वायदों और उम्मीदों का संयोजन भर था, जिसे कुशल प्रचार तंत्र के जरिये अच्छे से पेश किया गया, लेकिन वे इससे शायद ही इन्कार कर सकें कि किसी देश को आगे ले जाने और समस्याओं के समाधान के लिए उपयुक्त माहौल का निर्माण करने में ऐसे ही भाषण सहायक बनते हैं। वे इससे भी मुंह नहीं मोड़ सकते कि अतीत में नेतृत्व के स्तर पर देश-दुनिया तक अपनी बात पहुंचाने के लिए न तो पर्याप्त कोशिश की गई और न ही वैसे कौशल का प्रदर्शन किया गया जैसा मोदी ने किया। शायद ऐसा हो भी नहीं सकता था, क्योंकि मनमोहन सिंह के मुकाबले नरेंद्र मोदी तमाम बाधाओं को पार कर अपने बलबूते प्रधानमंत्री बने हैं। यदि मोदी करिश्माई नेता की छवि हासिल करने के साथ अपनी बातों से लोगों को प्रेरित और आंदोलित कर पाने में सक्षम हो गए हैं तो यह उनका एक ऐसा गुण है जिसकी सराहना ही की जा सकती है।
अमेरिका में मोदी ने इसलिए भी सबका ध्यान अपनी ओर खींचा, क्योंकि वह अत्यंत साधारण पृष्ठभूमि से निकलकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने में सफल रहे। ऐसी उपलब्धि हर किसी को चमत्कृत करती है और शायद यही कारण है कि मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में हजारों-हजार भारतीयों के साथ अमेरिकी सांसदों का एक बड़ा दल भी मौजूद था। मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में भारतीय प्रधानमंत्री के प्रति अमेरिका में रह रहे भारतीयों की दीवानगी को देखकर इस दल को दंग होना ही था, क्योंकि बिरले ही अमेरिकी नेता ऐसे होंगे जिन्हें देखने-सुनने को लोग इस तरह उमड़ते हों। नरेंद्र मोदी ने आम और खास भारतीय लोगों के समक्ष मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में ही अपनी छाप नहीं छोड़ी, बल्कि वह न्यूयार्क में ही सेंट्रल पार्क में भी अपने एक संक्षिप्त भाषण से लोगों को यह बताने में समर्थ रहे कि भारत दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए तैयार है। इसके पहले वह संयुक्त राष्ट्र की आमसभा के मंच से भी वैश्विक समस्याओं के समाधान की जरूरत पर बल देने के साथ ही अपने ही अंदाज में विश्व के प्रमुख राष्ट्रों को नसीहत भी दे चुके थे। यह एक सच्चाई है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के पहले मोदी ने देश-दुनिया में जैसी हलचल मचा दी उससे उन्होंने न केवल अपना, बल्कि भारत का भी कद बढ़ाया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बढ़े हुए कद का लाभ पूरे देश को मिलेगा।
[मुख्य संपादकीय]
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नए रिश्ते की शुरुआत
Thu, 02 Oct 2014 
भारत और अमेरिका के बीच संबंधों को प्रगाढ़ करने और एक नई दिशा देने के लिहाज से देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा बेहद कामयाब रही। इससे दोनों देशों के नेताओंके बीच एक नई समझ विकसित हुई है। निवेश, कारोबार, रक्षा समझौते और आतंकवाद समेत दूसरे तमाम मुद्दों पर व्यापक सहमति कायम हुई है जिससे उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्ते और मजबूत होंगे। इस यात्रा की एक खास बात दोनों देशों के बीच सामरिक सहभागिता को और प्रगाढ़ किया जाना है। यह सहभागिता दुनिया के दूसरे देशों के लिए एक नया मॉडल बन सकती है। इसके तहत दोनों मुल्कों के बीच सुरक्षा को लेकर साझा चिंताएं हैं और दोनों ही देश आतंकवाद के खिलाफ मिलकर लड़ाई लड़ना चाहते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारत अमेरिका के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इराक, सीरिया और अफगानिस्तान में सीधी सैन्य कार्रवाइयों में हिस्सा लेगा। यहां तक कि आइएस के खिलाफ चल रही कार्रवाई में भी भारत ने सीधे तौर पर भाग लेने से साफ-साफ इन्कार किया है। इस संदर्भ में जो बात अधिक महत्वपूर्ण है वह यही है कि अमेरिका ने लश्करे-तैयबा, जैशे-मोहम्मद, अलकायदा और हक्कानी जैसे आतंकी समूहों के खात्मे के लिए मिलकर काम करने की बात कही है। खास बात यह है कि अमेरिका ने पहली बार स्वीकार किया है कि इन आतंकी समूहों को सहयोग-समर्थन करने वाले तथा धन मुहैया कराने वालों को भी लक्षित किया जाएगा। भारत लंबे समय से इस बात को दोहराता रहा है कि आतंकवाद के खिलाफ कोई भी कार्रवाई तभी सफल हो पाएगी जब इसे सहयोग-समर्थन देने वालों को रोका जाए और दंडित किया जाए। इसी तरह मुंबई में 2008 में आतंकी हमलों के लिए जिम्मेदार दाऊद इब्राहीम के खिलाफ भी दोनों देशों ने मिलकर अभियान चलाने की बात कही है, जो भारत के लिए लंबे समय से मोस्ट वांटेड आतंकी की सूची में शामिल रहा है।
इस क्रम में अमेरिका ने बहुपक्षीय जवाबदेही के तहत भारत की वैश्रि्वक भूमिका को स्वीकार किया है। इसके अलावा अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की मांग से सहमति जताई है और भारत को स्थायी सदस्यता देने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भी दोनों देशों ने साथ मिलकर काम करने की बात कही है। इसलिए अब जरूरत इस बात है कि उदार बाजार व्यवस्था को स्वीकार करते हुए हम अपने बाजारों को और अधिक खुला बनाएं ताकि व्यापार के क्षेत्र में सहयोग की और अधिक संभावनाएं विकसित हो सकें। अमेरिर्का ंहदुस्तान के साथ अपने सामरिक और व्यावसायिक रिश्तों को मजबूत करते हुए चीन को नियंत्रित अथवा संतुलित करना चाहता है तथा एशिया प्रशांत क्षेत्र में अधिक व्यापक भूमिका निभाना चाहता है। अमेरिका ने भारत के साथ परमाणु सहयोग को बढ़ाने के साथ-साथ उसे परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता दिलाने में मदद की भी बात कही है।
यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते प्रगाढ़ करने के साथ ही ओबामा के साथ भी मोदी ने अपने व्यक्तिगत रिश्तों को बेहतर बनाने में भी कामयाबी हासिल की है। यह मोदी की अपनी व्यक्तिगत खूबसूरती है कि वह जहां भी जाते हैं लोगों को अपना बना लेते हैं फिर बात चाहे राष्ट्राध्यक्षों की हो अथवा वहां के नागरिकों की। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबी, चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ भी उन्होंने बहुत कम समय में सहज व्यक्तिगत रिश्ता कायम कर लिया था। भूटान और नेपाल यात्रा के दौरान भी उनकी लोकप्रियता शिखर पर रही। वह नेताओं के साथ-साथ संबंधित देश के आम लोगों से भी मिलते हैं, लोगों से कुछ सवाल पूछते हैं और फिर सबकी राय लेते हैं कि वह जो सोच रहे हैं उसे करें या न करें। चुनाव अभियानों में भी उनकी यही शैली थी। इस सबका नतीजा यह होता है कि लोग उनसे जुड़ाव महसूस करते हैं। यही शैली वह विदेश नीति के मामले में भी अपनाते हैं जिस कारण आज वह वैश्रि्वक नेता की छवि बनाने में कामयाब होते दिख रहे हैं। अमेरिका की यात्रा में भी मोदी का मुख्य लक्ष्य भारत को मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बनाने के लिए अमेरिकी सहयोग हासिल करना था। उन्होंने अमेरिका से सेवा क्षेत्र में कार्यरत लोगों को अधिक सुविधाएं देने की बात कही और खुद भी भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों को आजीवन वीजा सुविधा दिए जाने की घोषणा के साथ ही तत्काल वीजा और अन्य सुविधाएं देने की घोषणा की। आज यूरोप, अमेरिका समेत दूसरे अन्य देशों की अपेक्षा भारत में श्रम बहुत सस्ता है। इसके अलावा हमारे पास एक बड़ी संख्या में तकनीकी वर्ग, मध्य वर्ग और अंग्रेजी जानने-समझने और बोलने वाला युवा वर्ग मौजूद है। ऐसे में दुनिया के अन्य देशों के लिए भारत में मैन्युफैक्चरिंग के काम को बढ़ावा दिया जा सकता है, जिससे बड़ी तादाद में रोजगार पैदा होगा और हमारा आर्थिक विकास तेज होगा। मोदी भारत के बढ़ते आयात से चिंतित हैं। इसलिए वह चाहते हैं कि भारत में आयात होने वाली तमाम चीजों का निर्माण हो और हम इनका पूरे विश्व में निर्यात करें, जैसा कि आजकल चीन करता है। इसी दृष्टि से मोदी ने अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग को बढ़ाने तथा भारत में रक्षा उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए वहां की बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा अमेरिकी सरकार को प्रोत्साहित किया। इसके लिए उन्होंने अमेरिकी कंपनियों के सीइओ से मिलकर यह समझने की कोशिश की कि इस काम में कौन सी चीजें बाधक हैं। आने वाले समय में हमें टैक्स सुधार और टैक्स नियमों में सरलीकरण व एकरूपता देखने को मिल सकती है।
इस तरह देखा जाए तो मोदी की अमेरिका यात्रा तीन बातों पर केंद्रित थी। इसमें पहली बात संयुक्त राष्ट्र संघ में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को संबोधित करना था, दूसरी बात अमेरिकी सरकार और ओबामा प्रशासन के अधिकारियों से मुलाकात करके उनकी बातों को समझना तथा अपने पक्ष को रखना था और तीसरी बात अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के लोगों से मिलना तथा उन्हें भारत में निवेश के लिए प्रेरित करना था। उन्होंने अमेरिकी सरकार के साथ-साथ अमेरिकी उद्योग जगत के दिग्गजों से भी समानांतर बातचीत की। और सबसे मुख्य बात रही आतंकवाद के मसले पर दोनों देशों के बीच नई समझ कायम करना। इसके तहत यह सहमति बनी कि अफगानिस्तान, इराक या सीरिया में सेना को भेजे बगैर भारत इस अभियान में शामिल हो सकता है और इसके लिए वह इनकी सेनाओं को प्रशिक्षित करने का काम करेगा। इसी तरह मोदी ने आग्रह किया है कि अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेनाओं की वापसी के काम को धीमा रखे ताकि वहां इराक जैसी स्थिति न पैदा हो जाए। अमेरिका भी इसके लिए तैयार है और वह अपने 10 से 20 हजार सैनिक अफगानिस्तान में बनाए रखेगा। यह एक नई शुरुआत है और उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले 4 से 6 महीनों में कुछ सकारात्मक नतीजे आने शुरू हो जाएंगे।
[लेखक कमर आगा, अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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भरोसे की ताकत

Tue, 30 Sep 2014

नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों से लोगों को मंत्रमुग्ध करने का काम प्रधानमंत्री बनने के पहले भी किया है और बाद में भी, लेकिन न्यूयार्क के मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में उन्होंने जिस तरह महफिल लूटी उसकी बात ही कुछ और है। यहां पर आयोजित सभा महज एक भारतीय प्रधानमंत्री की जय-जयकार और अमेरिका में रह रहे भारतीयों के हर्ष नाद का प्रदर्शन ही नहीं थी, यह एक आम भारतीय के विश्व पटल पर अपनी भाषा-संस्कृति के साथ अपने सपनों को पाने की आकांक्षा की अभिव्यक्ति भी थी। देश के साथ दुनिया ने पहली बार देखा कि एक नया और आत्मविश्वास से भरा भारत विश्व मंच पर छा जाने को तैयार है। नि:संदेह केवल इसलिए नहीं कि उसकी अगुआई उम्मीदों के रथ पर सवार होकर प्रचंड बहुमत से सत्ता में आए नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। इसके साथ ही इसलिए भी कि प्रधानमंत्री होते हुए भी मोदी बिना किसी संकोच यह कह रहे हैं कि सरकार सब कुछ नहीं कर सकती और हर किसी की यहां तक कि एक सफाईकर्मी को भी विकास यानी राष्ट्र निर्माण के काम में जुटना होगा। यही वह संदेश है जो अब तक लापता था। इसे आम जनता के बीच बार-बार पहुंचाए जाने की जरूरत है, क्योंकि कोई भी देश हो वह वहां के लोगों की भागीदारी से बनता है। जापान और अमेरिका इसके उदाहरण हैं। नि:संदेह सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, लेकिन यदि कोई शासन अपनी रीति-नीति से अपने लोगों में भरोसा पैदा करने और उन्हें अपने साथ जोड़ने में नाकाम रहता है तो वह चाहकर भी कुछ खास नहीं कर सकता। आम लोगों में भरोसा पैदा करने का काम वही सरकार कर सकती है जिसके इरादे संदेह से परे हों। यह भी जरूरी है कि उसकी कथनी-करनी में अंतर न हो। कथनी-करनी में अंतर सरकार की फजीहत का ही कारण बनता है और इसी का परिचायक थी मनमोहन सरकार।
जब मोदी कहते हैं कि सरकार सब कुछ नहीं कर सकती तो आम जनता न केवल सहमति में सिर हिलाती है, बल्कि यह भी कहती है कि वह सही तो कह रहे हैं। जब मनमोहन सिंह यह कहते थे कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते तो वह गलत नहीं कह रहे होते थे, लेकिन इसके लिए उन पर कटाक्ष किए जाते थे। मनमोहन के ऐसे बयानों पर भी लोग भरोसा करने के बजाय उन पर हंसते थे कि भ्रष्टाचार को सहन नहीं किया जाएगा, लेकिन मोदी को उनके इस कथन के लिए सराहा जाता है कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा। एक तरह से देखें तो चार-पांच महीने में ही शासन की कार्यशैली और उसके प्रति देश और दुनिया के रवैये में जमीन-आसमान जैसा फर्क आ चुका है। मोदी सरकार के प्रति जनता के भरोसे का एक प्रमाण प्रधानमंत्री जन-धन योजना है। इस योजना के तहत शून्य राशि में भी खाते खोले जा रहे हैं, लेकिन हजारों-हजार लोग ऐसे हैं जिन्होंने कुछ न कुछ पैसे देकर खाते खुलवाए हैं। मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में गदगद भारतीयों के समक्ष प्रधानमंत्री ने बताया कि ऐसे खातों में अब तक 1500 करोड़ की राशि जमा हो चुकी है।
मोदी पर भरोसे का एक उदाहरण यह भी है कि तमाम सक्षम-समृद्ध लोग स्वेच्छा से बिना सब्सिडी वाला रसोई गैस सिलेंडर लेना पसंद कर रहे हैं। यह तब है जब इसके बारे में तेल कंपनियों की ओर से बिना किसी शोर-शराबे के लोगों से अनुरोध भर किया जा रहा है। स्वेच्छा से बिना सब्सिडी वाला रसोई गैस सिलेंडर लेने वाले लोगों को लग रहा है कि ऐसा करके वह अपने स्तर पर राष्ट्र निर्माण में योगदान दे रहे हैं। अगर प्रधानमंत्री के स्तर पर ऐसा कोई अनुरोध किया जाए तो तेल कंपनियों के इस अभियान को पंख लग सकते हैं। मोदी सरकार दो अक्टूबर से स्वच्छ भारत अभियान छेड़ने जा रही है। पिछले कुछ दिनों में कई मंत्री झाड़ू लेकर सफाई करते दिखे हैं, लेकिन जनता के स्तर पर ज्यादा हलचल नहीं है। दो अक्टूबर के बाद हालात बदल सकते हैं, क्योंकि इस दिन देश का प्रधानमंत्री लोगों को झाड़ू लगाते दिखेगा। पता नहीं मोदी किस तरह झाड़ू लगाकर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत करेंगे, लेकिन वह यह यकीन दिलाने में समर्थ हो रहे हैं कि इस अभियान के प्रति वह गंभीर हैं।
प्रधानमंत्री ने मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में अमेरिका में रह रहे भारतीयों को भारत के उत्थान में योगदान देने के लिए निमंत्रित किया। यह जाहिर है कि वह ऐसा ही निमंत्रण अमेरिकी उद्यमियों को भी देंगे। मेक इन इंडिया अभियान की शुरुआत कर वह भारतीय उद्यमियों को पहले ही इसके लिए कह चुके हैं कि भारत को मैन्युफैक्चरिंग का गढ़ बनाएं। मेक इन इंडिया जैसा अभियान मनमोहन सिंह ने भी शुरू किया था। अगर किसी को याद हो तो ठीक एक साल पहले अमेरिका की यात्रा पर गए मनमोहन सिंह ने 28 सिंतबर 2013 को वहां की कंपनियों से भारत में निवेश की अपील करते हुए कहा था कि भारत की तरक्की के बारे में व्याप्त संदेह निराधार है। दुर्भाग्य से वह एक ऐसे समय यह बात कह रहे थे जब बाहरी तो क्या घरेलू उद्यमी भी भारत में निवेश से तौबा कर रहे थे। इसका कारण यही था कि मनमोहन सरकार से उनका भरोसा उठ गया था। इसके विपरीत अगर मेक इन इंडिया अभियान ने विदेशी उद्यमियों के बीच भी हलचल पैदा की है तो उसकी वजह यही है कि वे मोदी पर भरोसा कर पा रहे हैं। आम भारतीयों से लेकर अमेरिकी भारतीयों और देसी उद्यमियों से लेकर विदेशी व्यापारियों के बीच मोदी ने यह जो भरोसा पैदा किया है वही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। अपनी इसी ताकत के कारण वह अमेरिका में भी छाए हुए हैं। उन्होंने देश-दुनिया के लोगों में यह जो भरोसा पैदा किया है उसे बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। उन्हें इस चुनौती का भान भी होगा। आने वाले दिनों में यह चुनौती आसान होगी या मुश्किल, यह इस पर निर्भर करेगा कि मोदी सरकार अपने वायदों को पूरा करती दिखती है या नहीं?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]
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खास कूटनीतिक मिशन

Tue, 30 Sep 2014 

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात से पहले तीन कार्यक्रमों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कद और रुतबा और बढ़ा दिया है। 28 सितंबर को मेडिसन स्क्वायर में मोदी के संबोधन ने धूम मचा दी। यह कार्यक्रम हर दृष्टिकोण से ऐतिहासिक रहा। अमेरिका के राजनीतिक इतिहास में कभी किसी राजनेता का इतना भव्य स्वागत नहीं हुआ है। कार्यक्रम में मौजूद 18,000 लोगों में अधिकांश भारतीय मूल के थे और उनमें भी भाजपा व नरेंद्र मोदी के समर्थक थे। मोदी के मेडिसन कार्यक्रम में करीब 40 अमेरिकी सांसदों की उपस्थिति अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों के राजनीतिक महत्व को रेखांकित करती है। साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि अमेरिकी राजनीतिक परिदृश्य अब इस सच्चाई को स्वीकारने लगा है कि भारतीयों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। इजराइली यहूदियों को छोड़ दें तो कोई भी अन्य अप्रवासी समुदाय अपनी शक्ति का इस तरह प्रदर्शन नहीं कर पाया है जिस प्रकार भारत के एनआरआइ ने किया है। नरेंद्र मोदी ने अपनी वाकपटुता और भारत के सकारात्मक विजन से उपस्थित जनसमुदाय को मंत्रमुग्ध कर दिया। घूमते हुए स्टेज पर मोदी के संबोधन का बिग एप्पल व अन्य शहरों में सीधा प्रसारण हुआ। भारतीय चैनलों ने घरेलू दर्शकों को पल-पल की सीधी जानकारी मुहैया कराई। इससे आधुनिक साइबर और संचार प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल की नई इबारत लिखी गई। हो सकता है कि अमेरिका में अगले राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार अभियान में अमेरिकी दल इस अनुभव का फायदा उठाएं।
मेडिसन के अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को भी संबोधित किया। एक बार फिर नमो ने अपने स्टाइल और सोच से सबको प्रभावित किया। संयुक्त राष्ट्र महासभा को पहली बार संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी आत्मविश्वास से लबरेज नजर आए। हिंदी में दिए अपने भाषण में उन्होंने उन तमाम बिंदुओं को शामिल किया जो वैश्रि्वक फोरम पर जरूरी होते हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा एक दिन पहले कश्मीर राग अलापने का उन्होंने बड़े संयत तरीके से जवाब दिया। कटुता पैदा करने के बजाय मोदी ने पाकिस्तान की कमजोर नस आतंकवाद को दबाया। उन्होंने आतंकवाद की चुनौती से निपटने के लिए आतंकवाद को समर्थन देने वाले तंत्र के खिलाफ वैश्रि्वक समुदाय को एकजुट होकर संयुक्त मोर्चा बनाने पर जोर दिया। साथ ही उन्होंने आतंकवादियों के अच्छे-बुरे वर्गीकरण करने की प्रवृत्तिसे भी परहेज करने को कहा।
भारतीय दृष्टिकोण से संयुक्त राष्ट्र का भाषण खासी अहमियत रखता है। संभवत: जवाहरलाल नेहरू और राजीव गांधी के बाद नरेंद्र मोदी इस मंच पर सबसे प्रभावी वक्ता सिद्ध हुए। नि:संदेह यह संबोधन अंतरराष्ट्रीय मंच पर नरेंद्र मोदी के कद्दावर वैश्रि्वक नेता के रूप उभरने का आधार बना है। उन्होंने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण प्रदूषण, बढ़ते आतंकवाद, कट्टरपंथी विचारधारा के फैलाव, संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन, शांतिवाहिनी अभियान के साथ-साथ आर्थिक विकास, टिकाऊ मानव विकास को अपने विमर्श का हिस्सा बनाया। ये सब मुद्दे चिरपरिचित हैं, लेकिन इन पर मोदी की छाप स्पष्ट नजर आई। संयुक्त राष्ट्र में संबोधन बहुद्देश्यीय अवसरों के नाम रहा तो मेडिसन का धमाल विशुद्ध रूप से राजनीतिक और अप्रवासी भारतीयों के नाम। न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में मोदी का कार्यक्रम भी एक नई पहल ही था। ग्लोबल सिटीजंस फेस्टिवल में एक स्टार वक्ता के रूप में नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी युवाओं को अंग्रेजी में संबोधित किया। अमेरिकी युवाओं और साथ-साथ वृहत्तार वैश्रि्वक युवाओं की सराहना करते हुए मोदी ने भविष्य के विश्व में युवाओं को अपनी भागीदारी के प्रति प्रेरित किया। संबोधन का अंत उन्होंने लोकप्रिय स्टार वार्स फिल्म से जुड़े एक जुमले के साथ किया-मे द फोर्स विद यू। इन शब्दों के साथ वह सुनने वालों को अपने साथ जोड़ने में पूरी तरह सफल रहे।
इस प्रभावी दौरे में कुछ नकारात्मक क्षण भी आए। एक अमेरिकी अदालत ने 2002 के गुजरात दंगों में मोदी के खिलाफ समन जारी कर दिया। इस एक घटना ने मोदी के शानदार शो में हल्का सा कसैला स्वाद जरूर पैदा किया। यह घटना नरेंद्र मोदी से जुड़े उस मुद्दे को फिर से चर्चा में ले आई जो भारत और विदेश में लोगों की सामूहिक चेतना में कैद है। नरेंद्र मोदी का संबोधन भारत की तीन खूबियों की ओर ध्यान खींचता है। ये तीन खूबियां हैं-लोकतंत्र, जनसांख्यिकीय और मांग। भारत की एक महत्वपूर्ण विशेषता है पंथिक, जातीय और भाषायी विविधता। किंतु नरेंद्र मोदी ने इस विषय पर कुछ नहीं कहा। इसी से जुड़ा हुआ मुद्दा है मुस्लिम समुदाय की चिंता। देश-दुनिया यह जानना चाहता है कि प्रधानमंत्री उनके बारे में क्या सोच रहे हैं। ऐसा जानबूझ कर किया गया हो या अनजाने में हो गया हो, किंतु इसकी घरेलू सामाजिक-राजनीतिक संदभरें में अहम भूमिका है। मोदी की व्यक्तिगत छवि ने भी ध्यान खींचा। नवरात्र में व्रत पर होने के कारण अमेरिकी दौरे में नरेंद्र मोदी ने केवल नींबू-पानी का सेवन किया। इसके बावजूद उनकी ऊर्जा के स्तर और आत्मविश्वास से आत्मानुशाषित, सरल और निर्णायक नेता की छवि बनी जो भारत और इसकी सवा करोड़ की आबादी को विकास के नए मुकाम पर ले जाने को दृढ़-संकल्पित है। राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ मुलाकात के वक्त नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व में पिछले तीन दिनों की घटनाओं से बनी छवि भी जुड़ गई है। विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों के नेताओं- नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा अपनी मुलाकात में दोनों देशों के संबंधों में पिछले कुछ वषरें से जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिश करेंगे। साथ ही साझा हितों पर आधारित नए संबंधों की बुनियाद रखेंगे। वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में मोदी के अमेरिकी दौरे की उपलब्धियों पर कुछ प्रकाश पड़ने की संभावना है।
भारत और अमेरिका के बीच विवाद के अनेक मुद्दे हैं। इनमें नागरिक आणविक समझौते पर जारी गतिरोध दूर करने, संयुक्त राष्ट्र में भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने, खाद्य सब्सिडी पर विश्व व्यापार संगठन की आपत्तिायों को दूर करने, दवा उद्योग में पेटेंट कानून लागू करने, कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन आदि मुद्दे प्रमुख हैं। सामरिक और कूटनीतिक मोर्चे पर आतंकवाद, 2014 के बाद अफगानिस्तान-पाकिस्तान के हालात, सैन्य क्षेत्र में उच्च प्रौद्योगिकी की भारत की मांग और चीन का तेजी से उभार अन्य प्रमुख मुद्दे हैं। भारत और अमेरिका के बीच मन-मुटाव का लंबा इतिहास रहा है। 2008 के बाद ही दोनों देशों में नजदीकी बढ़नी शुरू हुई। अब इन संबंधों को वेग देने के लिए नए राजनीतिक संकल्प और इच्छाशक्ति की जरूरत है। उम्मीद है कि मोदी-ओबामा के बीच मंगलवार को होने वाली पहली बैठक इन गुत्थियों को सुलझाने के लिए जरूरी आवेग उत्पन्न करेगी।
[लेखक सी. उदयभास्कर, सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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मिसाल बनेगी हमारी दोस्ती

:Wed, 01 Oct 2014

लोकतंत्र, स्वतंत्रता, विविधता और उद्यमिता के लिए प्रतिबद्ध राष्ट्र के तौर पर भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका अपने साझा मूल्यों और पारस्परिक हितों से बंधे हुए हैं। इतना ही नहीं हम दोनों राष्ट्र पारस्परिक रूप से अपने सम्मिलित प्रयासों और विशिष्ट सहभागिता के माध्यम से मानव इतिहास के प्रति सकारात्मक सोच रखते हैं और उसे नया आकार देना चाहते हैं ताकि आने वाले वषरें में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और शांति को स्थापित करने में मदद मिले। अमेरिका और भारत के बीच संबंधों की जड़ें न्याय और समानता के लक्ष्य के लिए दोनों देशों के नागरिकों की इच्छा से जुड़ी हुई हैं। स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागों में विश्व धर्म संसद में हिंदुत्व को एक वैश्रि्वक धर्म के रूप में प्रस्तुत किया था, जबकि मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने भेदभाव के अंत और अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिकों के प्रति पूर्वाग्रहों को खत्म करने के लिए महात्मा गांधी द्वारा दिए गए अहिंसा के उपदेशों से प्रभावित और प्रेरित होकर सामाजिक चेतना उत्पन्न की थी। गांधीजी स्वयं हेनरी डेविड थोरो के विचारों से बहुत प्रभावित थे।
इस तरह से देखा जाए तो एक राष्ट्र के रूप में दशकों से हमारे बीच साझेदारी रही है ताकि लोगों अथवा आम जनता के विकास को सुनिश्चित किया जा सके। भारत की जनता को दोनों देशों के बीच सहयोग की मजबूत नींव याद होगी। हरित क्त्रांति से खाद्यान्न उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसी अनेक उपलब्धियां हमारे बीच परस्पर सहयोग से ही आकार ले सकीं। आज हमारी यह सहभागिता कहीं अधिक मजबूत, विश्वसनीय और स्थायी है, जो निरंतर बढ़ रही है। पहले की अपेक्षा आज द्विपक्षीय सहभगिता के माध्यम से दोनों देशों के बीच कहीं अधिक सहयोग है। यह सहयोग न केवल संघ के स्तर पर है, बल्कि राच्य और स्थानीय स्तर पर भी है। दोनों देशों की सेनाओं, निजी क्षेत्रों, सिविल सोसायटी के स्तर पर भी हम परस्पर सहयोग कर रहे हैं। वर्ष 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने घोषित किया था कि हम स्वाभाविक सहयोगी राष्ट्र हैं। उसके बाद के तमाम वषरें में हमारे बीच परस्पर सहयोग निरंतर बढ़ा है। शोध परियोजनाओं पर दोनों देशों के छात्र मिलकर काम कर रहे हैं, हमारे वैज्ञानिक अत्याधुनिक तकनीकों का विकास कर रहे हैं और वैश्रि्वक मुद्दों पर वरिष्ठ अधिकारी निकट संबंध बनाकर काम कर रहे हैं। हमारी सेनाएं वायु, जमीन और समुद्र में एक-दूसरे के साथ संयुक्त अभ्यास कर रही हैं और अंतरिक्ष परियोजनाओं में विभिन्न क्षेत्रों में हम परस्पर सहयोग कर रहे हैं। इस तरह धरती से लेकर मंगल ग्रह तक हमारे बीच सहभागिता है। इस तरह के सहयोग से भारतीय-अमेरिकी समुदाय काफी उत्साहित है और वह दोनों देशों के बीच सेतु का काम कर रहा है। हमारी यह सफलता एक-दूसरे पर विश्वास को और अमेरिका के स्वतंत्र सामाजिक मूल्यों को दर्शाती है और यही हमारी वह मजबूती है जिसके बल पर हम मिलकर कुछ भी कर सकते हैं।
अभी भी दोनों देशों के बीच वास्तविक क्षमता का अहसास होना शेष है। भारत में नई सरकार का आगमन हमारे लिए एक स्वाभाविक अवसर है जिसके माध्यम से हम अपने संबंधों को और अधिक विस्तृत तथा मजबूत बना सकते हैं। हमारे बीच एक नया विश्वास बहाल हुआ है। हमें अपने परंपरागत लक्ष्यों से आगे जाना होगा। यह समय एक नए एजेंडे को निर्धारित करने का है ताकि हमारे नागरिकों को इसके वास्तविक लाभ मिल सकें । यह एक ऐसा एजेंडा है जो हमें पारस्परिक रूप से लाभान्वित करेगा और हमारे बीच व्यापार, निवेश और तकनीक संबंधी सहयोग बढ़ेगा और इससे भारत को अपने विकास में मदद मिलेगी। इसके साथ ही अमेरिका खुद को विकास का वैश्रि्वक इंजन बनाए रख सकेगा।
हम वाशिंगटन में अपनी मुलाकात के दौरान न केवल तमाम मुद्दों पर बात करेंगे, बल्कि इस पर भी विचार करेंगे कि किस तरह भारत में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को गति दी जा सकती है और नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में किस तरह सहयोग बढ़ा सकते हैं। इसके अतिरिक्त हमें अपने पर्यावरण के साझा भविष्य और उसकी सुरक्षा को लेकर भी विचार करना होगा। हम उन रास्तों पर विचार करेंगे जिन पर हमारे उद्योग घराने, वैज्ञानिक और सरकारें मिलकर आगे बढ़ सकें। भारत बुनियादी सुविधाओं की गुणवत्ता, विश्वसनीयता और उपलब्धता में सुधार के लिए काम कर रहा है, खासतौर पर गरीब तबके के लिए। इस कोशिश में सहयोग देने के लिए अमेरिका हरदम तैयार है। ठोस सहयोग का एक ऐसा ही क्षेत्र है भारत में शुरू होने वाला क्लीन इंडिया अभियान, जिसमें हम निजी क्षेत्र और नागरिक समाज के कौशल और प्रौद्योगिकी का उपयोग करेंगे ताकि भारत में शौच की व्यवस्था और स्वच्छता में सुधार आ सके। हमारे साझा प्रयासों से हमारे अपने लोगों को ही लाभ होगा। हमारी साझेदारी का स्वरूप टुकड़ों-टुकड़ों में न होकर वृहत्तार होगा। एक राष्ट्र और उसकी जनता के रूप में हम सबके लिए बेहतर भविष्य के लिए प्रयासरत हैं। इसी क्रम में हमारी सामरिक साझेदारी का भविष्य में पूरे विश्व को लाभ मिलेगा। जहां भारत को अमेरिकी निवेश और तकनीकि साझेदारियों से लाभ हुआ वहीं अमेरिका को मजबूत, अधिक समृद्ध भारत से लाभ होता है। हमारी मित्रता से जो स्थिरता और सुरक्षा पैदा होती है, उससे दोनों देशों के साथ-साथ पूरे विश्व को फायदा पहुंचता है। हम दक्षिण एशिया को विश्व से जोड़ने का भरपूर प्रयास करने को कटिबद्ध हैं। हम दक्षिण एशिया को मध्य व दक्षिण पूर्व एशिया के बाजार व लोगों से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
वैश्विक साझेदार के तौर पर हम खुफिया सूचनाओं को साझा करके, आतंकरोधी तंत्र मजबूत करके, कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में सहयोग से अपनी घरेलू सुरक्षा को मजबूत करने के लिए वचनबद्ध हैं। इसके अलावा समुद्र में नौवहन और व्यापारिक गतिविधियां की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारा गठबंधन कठिन से कठिन चुनौतियों से निपटने में कारगर होगा। इबोला, कैंसर के क्षेत्र में शोध, टीबी, मलेरिया और डेंगू आदि रोगों से हम मिलकर लड़ेंगे। हम महिलाओं के सशक्तीकरण में सहयोग की परंपरा का विस्तार करेंगे और अफगानिस्तान व अफ्रीका में खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में सुधार करेंगे और क्षमताओं को बढ़ाएंगे। अंतरिक्ष के अन्वेषण में हम कल्पनाओं की उड़ान को हकीकत में बदलेंगे और अपनी आकांक्षाओं को ऊपर उठाने की खुद को चुनौती देंगे। दोनों देशों का मंगल तक पहुंचना पूरी कहानी बयान कर देता है। बेहतर भविष्य का वादा केवल अमेरिकियों और भारतीयों तक सीमित नहीं है। यह बेहतर विश्व के निर्माण के लिए दोनों देशों के साथ मिलकर आगे बढ़ने की ओर भी इशारा कर रहा है। 21वीं सदी के लिए हमारी साझेदारी को परिभाषित करने का आधार वाक्य है-चलें साथ-साथ।
[लेखक भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा]
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कैंडी वाले अंकल सैम

नवभारत टाइम्स| Oct 2, 2014,

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिकी दौरे ने भारत-अमेरिका संबंध में नया रंग भर दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और भारतीय प्रधानमंत्री के बीच जो केमिस्ट्री दिखी है, वह आने वाले समय में काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाली है। भारत के लिए सबसे अच्छी बात यह है कि मौजूदा सदी में दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों के बीच व्यक्तिगत स्तर पर लगातार गर्मजोशी बनी हुई है।

बुश और मनमोहन सिंह के रिश्तों में दिखी मधुरता का समाहार भारत के न्यूक्लियर अलगाव के खात्मे के रूप में सामने आया। ओबामा ने तो डॉ. सिंह को अपना गुरु ही कहा था। दुर्भाग्यवश, यूपीए सरकार के अंतिम दौर में दोनों मुल्कों के बीच थोड़ी खटास आ गई थी, लेकिन मोदी के दौरे से सारे गिले-शिकवे खत्म हो गए हैं।

अमेरिका ने मोदी का बढ़-चढ़कर स्वागत करके यह जता दिया है कि विश्व राजनय और कारोबार के लिहाज से भारत उसके लिए खास मायने रखता है। दोनों राष्ट्राध्यक्षों के बीच हुई शिखर वार्ता के बाद अमेरिका ने भारत के साथ अपना कारोबार पांच गुना बढ़ाकर 500 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है।

मोदी अमेरिकी कारोबारियों, राजनेताओं और सिलेब्रिटीज पर अपनी निजी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। कई अमेरिकी सांसदों ने मोदी को करिश्माई व्यक्ति कहा है। ये सांसद वहां नीति-निर्धारण में भारत का पक्ष रख सकते हैं, हमारे लिए लॉबीइंग कर सकते हैं। वहां के कारोबारी भारत में निवेश के लिए पहले से ही उत्साहित दिख रहे हैं।

मोदी ने 17 कॉरपोरेट प्रमुखों से मुलाकात की। इससे भारत में अमेरिका का निवेश 20 प्रतिशत भी बढ़ा तो हमारे आईटी और फाइनेंस सेक्टर में रोजगार की संभावनाएं काफी बढ़ जाएंगी। इस अवसर पर जारी विजन स्टेटमेंट से ऐसा लगता है कि अमेरिका भारत के साथ दीर्घकालीन दोस्ती चाहता है।

हालांकि कुछ मामलों में उसने आश्वासन भर दिए हैं। जैसे इसमें कहा गया है कि दोनों देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार के लिए सहयोग करेंगे, जिसमें भारत बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है अमेरिका सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन करेगा या नहीं।

भारत-अमेरिका में एटमी करार को लेकर कुछ उलझनें रही हैं। अमेरिका का स्टैंड है कि भारत में कोई हादसा होने पर अमेरिकी कंपनियों को जिम्मेदारी से मुक्त रखा जाए, और यदि ऐसा नहीं किया जाता तो अमेरिका भारत में परमाणु रिएक्टर लगाने से बचेगा। जाहिर है, इसके लिए कोई रास्ता निकालना होगा।

फिर अमेरिकी कंपनियों की यह भी शिकायत है कि भारत में लालफीताशाही है। क्या इससे निपटने के लिए सरकार कोई रास्ता निकालेगी? सरकार द्वारा रक्षा, बीमा और रेल के बुनियादी ढांचे में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की सीमा 49 प्रतिशत तक बढ़ा देने के बावजूद अमेरिकी कंपनियां उत्साहित नहीं दिख रहीं, क्योंकि प्रबंधन पर अपना नियंत्रण कायम किए बगैर धंधे में अपना पैसा लगाने का कोई औचित्य उन्हें समझ में नहीं आता। बहरहाल, कई मुद्दों पर असहमतियों के बावजूद अमेरिका ने जिस तरह भारत पर विश्वास जताया है, वह एक बड़ी बात है। हमें इसका फायदा उठाना चाहिए। 
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अमेरिका में ब्रैंड इंडिया

नवभारत टाइम्स| Sep 30, 2014,

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब न्यू यॉर्क के मैडिसन स्क्वेयर गार्डन में अनिवासी भारतीयों के साथ खड़े हुए, तो न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया को एक नए भारत की झलक मिली। मोदी के आत्मविश्वासपूर्ण भाषण और गार्डन में मौजूद लोगों के उत्साह से जाहिर हुआ कि यह प्राचीन देश अपनी परंपरागत छवि से निकलकर विश्व में एक नई भूमिका निभाने के लिए तैयार है। इस बात को स्पष्ट करते हुए मोदी ने अपने संबोधन में कहा कि हमारे पूर्वज सांप से खेलते थे, लेकिन हमारे नौजवान 'माउस' से खेलते हैं। कंप्यूटर के माउस से पूरी दुनिया को घुमाते हैं।

सच कहा जाए तो मंगल अभियान की सफलता के बाद मैडिसन स्क्वेयर के प्रदर्शन ने ब्रैंड इंडिया को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई है। अमेरिका में रह रहे भारतीयों को इस तरह एकजुट करने और उन्हें देश के विकास के लिए प्रेरित करने की मोदी की यह कोशिश निश्चय ही महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने अनिवासी भारतीयों के लिए कई सहूलियतों की घोषणा की है। उन्होंने पीआईओ कार्ड होल्डर्स को आजीवन वीजा देने का ऐलान किया। यह भी कहा कि विदेशी से शादी करने वाले भारतीयों के लिए नियम बदलेगा। उन्होंने अमेरिकी टूरिस्टों के लिए वीजा ऑन अराइवल की सुविधा देने का भी ऐलान किया। मोदी ने अपनी महत्वाकांक्षी योजना मेक इन इंडिया के लिए भी भारतीय-अमेरिकियों से सहयोग मांगा। हाल के वर्षों में भारत से बड़ी संख्या में प्रफेशनल्स और कारोबारी अमेरिका गए हैं। वहां उन्होंने अपनी मेधा और मेहनत के बल पर समृद्धि अर्जित की है। अगर भारत में अनुकूल माहौल बनाकर यहां उनसे बड़े पैमाने पर निवेश कराया जा सका तो इससे देश की कई समस्याएं हल हो सकती हैं।

लेकिन इसके लिए एक व्यापक और उदार दृष्टि की जरूरत है, जिसमें दुर्भाग्यवश, कहीं-कहीं कुछ कमी दिखती है। न्यू यॉर्क में एक तरफ समारोह का माहौल था तो दूसरी तरफ भारतीय मूल के ही कुछ लोगों ने मोदी के खिलाफ प्रदर्शन किया। यही नहीं, कुछ उत्साही मोदीभक्तों ने मैडिसन स्क्वेयर गार्डन में वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई के साथ बदसलूकी की। सिर्फ इसलिए कि राजदीप ने गुजरात दंगों की तीखी रिपोर्टिंग की थी और जब-तब मोदी की राजनीति पर सवाल उठाते रहे हैं। गुजरात दंगों को लेकर एक अमेरिकी अदालत ने मोदी को समन भी जारी किया। जाहिर है, ब्रैंड इंडिया में पूरा निखार तभी आएगा, जब विभेद की गुंजाइश कम से कम रहे और हर तबका इससे जुड़कर गर्व का अनुभव कर सके।
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यात्रा से बनी उम्मीदें

29-09-14 07:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिकी कार्यक्रम को उसकी तफसील की बजाय उसके कुल जमा प्रभाव के लिए जाना जाएगा। जिन बातों में तफसील और तथ्यों का महत्व होता है, वे यूं भी मीडिया की मौजूदगी में होने वाले भव्य आयोजन नहीं होते। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ नरेंद्र मोदी की बातचीत में जरूर काफी काम की बातें होंगी। प्रमुख अमेरिकी सीईओ के साथ बातचीत का उद्देश्य भी उन्हें यह बताना है कि भारत निवेश करने के लिए एक बेहतरीन ठिकाना है। अगर भारत में उद्योग आए, तो उसके बारे में भी गंभीर बातचीत बाद में ही होगी। लेकिन माहौल का एक फायदा होता है और इससे भविष्य में होने वाले कामकाज पर भी अच्छा असर पड़ेगा। मेडिसन स्क्वॉयर में मोदी की रैली किसी रॉक स्टार के आयोजन की तरह थी और इससे अमेरिकी समाज पर यह प्रभाव तो पड़ेगा कि भारत में मोदी और उनकी सरकार को लेकर उत्साह और उम्मीद का माहौल है। आप्रवासी भारतीयों में मोदी के समर्थक बहुत हैं। अपने देश से दूर एक अजनबी संस्कृति में रहते हुए उन्हें अपने धर्म और संस्कृति का कुछ ज्यादा ही आकर्षण होता है। ऐसे में, बड़ी तादाद में आप्रवासी विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों से जुड़ जाते हैं, जो कि संघ परिवार के ही अंग हैं।

फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी जैसी कुछ संस्थाएं भी अमेरिका में सक्रिय हैं। पिछली सरकार के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था की हालत खराब रही, इससे भी भाजपा और नरेंद्र मोदी के प्रति समर्थन बढ़ा। चुनाव के दौरान भी आप्रवासी भारतीयों ने भाजपा को भारी समर्थन दिया। उस मायने में यह उनकी धन्यवाद ज्ञापन रैली थी। यहीं पर 2005 में मोदी की रैली की योजना बनी थी, लेकिन अमेरिकी सरकार ने उन्हें गुजरात दंगों की वजह से वीजा नहीं दिया था। उसी जगह भव्य रैली करना इस मायने में भी विजय रैली थी। नरेंद्र मोदी का भाषण भी प्रसंग के अनुकूल ही उत्सवधर्मिता लिए हुए था। उन्होंने आप्रवासी भारतीयों के प्रति उनके समर्थन के लिए आभार प्रकट किया और उन्हें कई सुविधाएं देने की घोषणा की। इनमें से कई सुविधाएं ऐसी हैं, जो तर्कपूर्ण हैं और काफी पहले मिल जानी चाहिए थीं। मोदी काफी कर्मठ हैं और यह उम्मीद की जा सकती है कि जो घोषणाएं उन्होंने न्यूयॉर्क में कीं और जो बातें उन्होंने उद्योग प्रमुखों से कीं, उन्हें वह जल्दी ही पूरा करेंगे। तब यह हो सकता है कि आप्रवासी भारतीयों को ही नहीं, अमेरिकी पर्यटकों या कामकाज के लिए भारत आने वाले अमेरिकियों को बहुत सारी लालफीताशाही और सरकारी उलझनों से छुट्टी मिल जाए। मोदी वहां जिस माहौल में थे, उसमें उन्होंने यही कहा कि उनका भारत में स्वागत है और वे भारत आएंगे, तो उन्हें काफी सारी चीजें बदली हुई मिलेंगी।

आप्रवासी भारतीयों की संख्या अमेरिका में काफी है। अमेरिकी प्रशासन और उद्यम वाणिज्य में भी वे काफी वजनदार हैसियत रखते हैं। यह सच है कि मोदी ने अमेरिका में बहुत अनुकूल माहौल पैदा कर दिया है। लेकिन यह मोदी भी जानते हैं कि असली चुनौती देश में ऐसा माहौल बनाना है कि आप्रवासी या अमेरिकी यहां आर्थिक गतिविधियां शुरू कर सकें। बुनियादी ढांचे की कमजोरियों से लेकर भ्रष्टाचार, कानून-व्यवस्था और लालफीताशाही जैसी कई समस्याएं विदेश में रहने वाले लोगों को यहां आने से रोकती हैं। भारत आज भी उद्योग-व्यापार शुरू करने और चलाने के सबसे मुश्किल ठिकानों में से है। मोदी ने इन समस्याओं के हल का वादा सभी से किया है। हम उम्मीद करें कि मोदी की अमेरिका यात्रा में बना उम्मीद का माहौल हकीकत की शक्ल अख्तियार करेगा।
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बदलते रिश्ते

30-09-14

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की मुलाकात इसलिए महत्वपूर्ण है कि भारत और अमेरिका के  रिश्ते एक बड़े परिवर्तन की प्रक्रिया में हैं। काफी वक्त से भारत और अमेरिका के रिश्तों में एक ठहराव आ गया था। संप्रग-एक के दौरान रिश्तों में जैसी गतिशीलता और गर्मजोशी थी, वह उसके दूसरे कार्यकाल में नहीं रही। देवयानी खोब्रागड़े के मामले में रिश्ते जिस तरह खराब होते गए, वह इस दौर में आए ठहराव का प्रमाण था। दोनों देश एक-दूसरे से दूर खिंचते गए और दोनों सरकारों ने रिश्ते सुधारने की जरूरत नहीं समझी। इसकी एक मुख्य वजह तो यह थी कि भारत, अमेरिका की प्राथमिकताओं में नहीं था। ओबामा दुनिया के दूसरे हिस्सों में हो रही गतिविधियों में लगे रहे और उनका ध्यान मुख्यत: घरेलू हालात सुधारने पर रहा। मोदी की ओबामा से मुलाकात ठंडे पडे़ रिश्तों में नई गतिशीलता भरने की कोशिशों का शुरू हो जाना है। परिवर्तन की दूसरी मुख्य वजह यह है कि अमेरिकी विदेश नीति की सोच में एक बुनियादी बादलाव आ रहा है। राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल में अमेरिका में यह विचार जोर पकड़ रहा है कि अमेरिका को दुनिया में हर जगह अपना हस्तक्षेप सीमित कर देना चाहिए। अमेरिकियों को यह लगने लगा है कि दुनिया का पुलिसमैन बनना उसके लिए घाटे का सौदा है और इससे अमेरिकी ताकत भी घटती है। सीरिया में जिस तरह राष्ट्रपति ओबामा हस्तक्षेप से बचते रहे, वह इसका उदाहरण है। आईएसआईएस के खिलाफ भी उन्होंने तभी फौजी कार्रवाई शुरू की, जब आईएस सचमुच गंभीर खतरा बन गया और उसने अमेरिकी नागरिकों को भी मारना शुरू किया। इससे अमेरिकी जनमत भी इस पक्ष में आ गया कि अमेरिका को आईएस के खिलाफ फौजी कार्रवाई करनी चाहिए। वहां भी अमेरिका ने पहले स्थानीय देशों के साथ एक गठबंधन बनाया और फिर इस समूह ने साझा कार्रवाई की। अमेरिका की अब भी यही कोशिश है कि आईएस के खिलाफ गठबंधन में और ज्यादा देश सक्रियता से शामिल हों। अमेरिका का अब यह मानना है कि जो भी वैश्विक सुरक्षा की रणनीति हो, उसमें दूसरे देश भी ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाएं, सिर्फ अमेरिका की ही जिम्मेदारी न हो। इस संदर्भ में मोदी-ओबामा मुलाकात के बाद जारी हुए संयुक्त वक्तव्य में जो रणनीतिक सहयोग की बात कही गई है, संभव है कि वह सिर्फ औपचारिकता न रहे और अमेरिका को भारत से दक्षिण एशिया में ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने की उम्मीद हो। लंबे दौर तक यह हुआ है कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान के क्षेत्र में कट्टरपंथी-आतंकवादी समूहों से निपटने का काम अमेरिका करता आया है। भारत की भूमिका अफगानिस्तान के विकास में सहयोग देने और अपनी सीमाओं में आतंकवाद से जूझने तक सीमित रही है। संभावना यही है कि अफगानिस्तान से वापसी के बाद अमेरिका की भूमिका इस क्षेत्र में सीमित हो जाए, और वह भारत से ज्यादा सक्रियता दिखाने की उम्मीद करे। भारत और अमेरिका के रिश्तों में सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र आतंकवाद विरोधी लड़ाई और रणनीतिक साझेदारी का बदलता स्वरूप होने वाला है। अमेरिका के मित्र जापान के साथ सुरक्षा के रिश्तों को मजबूत करने के लिए कदम उठाकर मोदी ने नए समीकरणों के संकेत दे दिए हैं। इसके अलावा अगले कुछ साल में व्यापार और  उद्योग के क्षेत्र में सहयोग काफी बढ़ेगा। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में लगातार सुधार हो रहा है और इसका फायदा भारत को भी मिल रहा है। भारत इस दौर में भारी उत्पादन का बड़ा केंद्र बनना चाहता है और यह स्थिति भी दोनों देशों के लिए फायदेमंद होगी।
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मोदी-ओबामा वार्ता

02, OCT, 2014, THURSDAY

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की मुलाकात पर समूचे देश की निगाहें टिकी थीं। एक अरसे बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री के अमरीका दौरे को लेकर इतनी चर्चा, उत्सुकता और गहमागहमी का माहौल रहा। दूरदर्शन समेत तमाम टीवी चैनलों और न्यूज एजेंसियों ने श्री मोदी के अमरीका दौरे की पल-पल की खबर दी, साथ ही विश्लेषणात्मक ब्यौरा भी लगातार प्रस्तुत किया। नरेन्द्र मोदी अपने देश के मीडिया की प्रवृत्ति से भली-भांति परिचित हैं, अमरीकी सरकार ने भी संभवत: इसका पूरा संज्ञान लिया और शायद इसलिए ही वाशिंगटन पोस्ट अखबार में बराक ओबामा व नरेन्द्र मोदी का साझा संपादकीय प्रकाशित हुआ। दोनों नेताओं की शीर्ष मुलाकात के पहले प्रकाशित इस अग्रलेख में अमूमन वही सारी बातें थींजो उनके बीच चर्चा का विषय बनने वाली थीं। भारत और अमरीका के ऐतिहासिक, व्यापारिक, राजनैतिक संबंधों का उल्लेख हुआ और स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग का जिक्र भी स्वाभाविक तौर पर हुआ ही। इन महापुरुषों के विचारों, आदर्शों, जीवन-मूल्यों, मानवता के प्रति इनके व्यापक दृष्टिकोण को भले ही अपनाया नहीं जा रहा, लेकिन इनके उल्लेख के बिना राजनीति में गुजारा भी नहींहै। बहरहाल, इस संपादकीय से मोदी-ओबामा मुलाकात की झलक मिल गई। यूं व्हाइट हाउस में जब बराक ओबामा ने केम छो कहकर श्री मोदी का स्वागत किया, तभी इस बात का अहसास हो गया था कि अमरीका भारत से संबंधों की नए ढंग से शुरुआत करना चाहता है। दरअसल यूपीए के दूसरे कार्यकाल में अमरीका-भारत के संबंधों में ठहराव सा आ गया था और देवयानी खोब्रागड़े प्रकरण के बाद तो थोड़ी कटुता भी आ गई। इस बीच भारत की राजनीतिक परिस्थितियां बदलींऔर ओबामा भी अपने देश की आंतरिक उलझनों में उलझे रहे। अफगानिस्तान, इराक जैसे देशों सहित विश्व के कई हिस्सों में जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी करने का नुकसान भी अमरीका को उठाना पड़ा और जनता के बीच यह मत प्रबल होता गया कि अमरीका को हर जगह उपस्थित होने से बचना चाहिए। इसलिए आईएस के खिलाफ अमरीका अकेले नहीं विश्व समुदाय को साथ लेकर उतरना चाहता है। संरा में ओबामा के भाषण से यह बात स्पष्ट हो गई। रही बात भारत के साथ संबंधों की, तो अब उसमें अमरीका भी नया जोश भरना चाहता है, यह बात साफ दिखी। दो घंटों की मुलाकात में ओबामा व मोदी के बीच व्यापारिक, आर्थिक, सामरिक, रणनीतिक तमाम पहलुओं पर चर्चा हुई। इसके बाद प्रस्तावित कार्यक्रम से अलग हटकर बराक ओबामा, नरेन्द्र मोदी को मार्टिन लूथर किंग मेमोरियल में स्वयं जिस तरह से घुमा रहे थे, वहां का वर्णन कर रहे थे और श्री मोदी भी उत्फुल्ल मुद्रा में उनसे चर्चा कर रहे थे, इससे यह जाहिर हो गया कि उनके बीच बातचीत में ऐसा कोई मुद्दा नहींउभरा जो तनाव भरा हो। दोनों देशों की ओर से साझा बयान जारी करने के वक्त भी यही एहसास हुआ।
 नरेन्द्र मोदी के वाकचातुर्य को भारतीय जनता जानती है, अब बराक ओबामा भी इससे परिचित हो गए। हम कुछ दिनों पहले मंगल पर मिले हैं और अब पृथ्वी पर मिल रहे हैं, नरेन्द्र मोदी के इस वाक्य पर बराक ओबामा के चेहरे पर एक अनौपचारिक व स्वाभाविक मुस्कुराहट उभरी, जो आमतौर पर संजीदगी से भरी राजनयिक वार्ता में देखने नहींमिलती। जैसा कि अनुमान था भारत और अमरीका ने व्यापार, रक्षा, तकनीकी, विज्ञान हर क्षेत्र में आपसी संबंधों को बढ़ाने की प्रतिबद्धता दर्शाई। आतंकवाद वैश्विक समस्या बन चुका है और इस पर भी दोनों देशों ने मिलकर काम करने, आतंकवाद को खत्म करने की बात की। अमरीका अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं हटा रहा है और चाहता है कि भारत वहां पर अधिक सक्रिय हो, यह नजर आया। किंतु पाकिस्तान में आतंकियों को जो पनाह मिली है, उसके खिलाफ वह कौन सा कदम उठाएगा, इस पर बात नहींहुई। दाऊद इब्राहिम को भारत भेजने का दबाव वह डालेगा, यह चर्चा अवश्य हुई, लेकिन मुंबई हमलों के आरोपी डेविड हेडली और तहव्वुर राणा जो अमरीका में ही है, उन्हें वह भारत को सौंपेगा या नहीं, इसका कोई जिक्र नहींहुआ। स्मार्ट सिटी, नेशनल डिफेेंस यूनिवर्सिटी, पेयजल, शौचालय की व्यवस्था में अमरीकी सहयोग, न्यूक्लियर्स सप्लायर्स ग्रुप में भारत को शामिल करने, असैन्य परमाणु समझौते को लागू करने जैसी कई अच्छी बातों पर दोनों देशों के बीच सहमति बनी। किंतु विश्व व्यापार संगठन में जारी गतिरोध को दूर करने के लिए चर्चा करने के आश्वासन के अतिरिक्त कुछ नहींहुआ। कुल मिलाकर यह नजर आ रहा है कि आर्थिक मंदी के बाद अमरीका अपनी स्थिति सुधारने के लिए भारत को इस्तेमाल करना चाहता है और भारत भी अपने व्यापार को गति देने के लिए अमरीका का साथ चाहता है। इसलिए फिलहाल सब अच्छा-अच्छा नजर आ रहा है। आगे भी यह अच्छाई जारी रहे इसके लिए आवश्यक है कि भारत किसी भी तरह से अमरीका के दबाव में न आए और अपने हितों के खिलाफ कोई समझौता न करे। एनडीए के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने अमरीका को भारत का स्वाभाविक मित्र बताया था, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहींहै। अमरीका का स्वार्थ समय-समय पर जाहिर होता रहा है, भारत उसे पहचाने और फंूक-फूंक कर कदम आगे बढ़ाए।
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जबान की फिसलन

30, SEP, 2014, TUESDAY

नरेन्द्र मोदी नाम की लहर इस वक्त अमरीका में वैसे ही बह रही है, जैसे कुछ महीनों पहले भारत में आम चुनावों के वक्त बह रही थी। पहले अमरीका ने किया अपमान, अब करेगा सम्मान। मोदी एट मैडिसन। राक स्टार मोदी। अमरीका में नमो-नमो। संरा में मोदी का हिंदी में भाषण। न्यूयार्क में अंग्रेजी में बोलकर मन मोह लिया मोदी ने। इस तरह के प्रशंसात्मक और कई बार चाटुकारिता की हद को पार करने वाले शीर्षक, खबरें और टिप्पणियां पिछले तीन दिनों से देखने-सुनने मिल रही हैं। मोदी की अमरीका यात्रा किसी भी अन्य भारतीय राष्ट्राध्यक्ष की यात्रा से कहींज्यादा सफल और चैनलों की भाषा में कहें तो सुपर-डुपर हिट हो रही है, यह लगातार साबित किया जा रहा है। फिलहाल जो दिख रहा है, उससे यह बात सच भी लगती है। मैडिसन स्क्वेयर पर मोदी को सुनने के लिए 18 हजार लोगों की भीड़ एकत्र थी और बाहर भी अच्छी-खासी तादाद अनिवासी भारतीयों की थी। नरेन्द्र मोदी जहां भी जा रहे हैं, वहां उनके स्वागत के नारे लग रहे हैं। ऐसा स्वागत सचमुच अनिवासी भारतीयों ने अपने किसी नेता का नहींकिया। चूंकि जमाना इंटरनेट और टीवी चैनलों का है, इसलिए पल-पल की खबर दी जा रही है। जब नेहरू जी या इंदिरा गांधी बतौर प्रधानमंत्री अमरीका यात्रा पर गए, तो उनके दौरे की पल-पल रिपोर्टिंग प्रसारित, प्रकाशित नहींहुई, न ही उसे लेकर अतिशयता का कोई माहौल तैयार किया गया। इंदिरा गांधी चूंकि आंख से आंख मिलाकर (मोदी की भाषा में) बात करने वालों में थींऔर अमरीका के अनुचित दबाव उन्होंने कभी बर्दाश्त नहींकिए, इसलिए उनके अमरीकी समकक्षों ने अपने तरीके से उसकी आलोचना भी की, जो पिछले कुछ सालों में उजागर हुए दस्तावेजों से जाहिर हुई है। भारत के पहले प्रधानमंत्री प.जवाहरलाल नेहरू को 1949 में अमरीकी राष्ट्रपति हैरी एस.ट्रूमैन ने अपने देश आमंत्रित किया था और जब नेहरूजी अमरीका पहुंचे तो विमानतल पर स्वयं राष्ट्रपति अपने मंत्रिमंडल के साथ उनके स्वागत के लिए उपस्थित थे। क्या इसके बाद किसी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष की अगवानी इस तरह समूचे अमरीकी मंत्रिमंडल ने राष्ट्रपति के साथ की? बहरहाल, किस भारतीय प्रधानमंत्री का कैसा स्वागत हुआ और कैसा नहीं, यह कोई प्रतिष्ठा का प्रश्न नहींहै। असली सवाल यह है कि अमरीका और भारत के रिश्ते किस प्रधानमंत्री के काल में कैसे रहे? इतिहास सबके सामने है और उसका मूल्यांकन होता रहेगा। अब प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में अमरीका और भारत के संबंध किस तरह आगे बढ़ते हैं, सबका ध्यान इस पर होना चाहिए। यूं श्री मोदी ने अपने भाषणों और वक्तव्यों से यही संकेत अब तक दिए हैं कि वे किसी भी अनुचित दबाव को बर्दाश्त नहींकरेंगे। उनका सर्वाधिक जोर व्यापारिक, आर्थिक विकास पर है, इसलिए व्यापारिक समुदाय को आकर्षित करने का हर संभव प्रयास उनकी ओर से नजर आ रहा है। भारत में मेक इन इंडिया अभियान, उसके पहले जापान की यात्रा और अब अमरीकी दौरे में उन्होंने भारत में निवेश को बढ़ावा देने, नियमों को लचीला बनाने और उद्योगपतियों को अधिकाधिक सुविधाएं मिलें, इस पर बल दिया। रही बात मोदी जी के भाषणों की, तो वे अमरीका में बोले बहुत कुछ, पर उसमें खास उल्लेखनीय कुछ भी नहींहै।
 मैडिसन स्क्वेयर पर अपने तथाकथित ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने वही सब बातें कहींजो हालिया इतिहास में वे बोल चुके हैं। राजीव गांधी के 21वींसदी वाले जुमले को वे बखूबी भुना गए, इसी तरह हम सांप को नहींमाउस को नचाते हैं, यह बात उन्होंने दिल्ली में छात्रों को संबोधित करते हुए भी कही थी। वैसे मोदी जी के प्रशंसक यह भी याद रखें कि भारत में कम्प्यूटर की क्रांति राजीव गांधी के प्रयासों से ही हुई। चुनावों में अपनी भारी जीत का उल्लेख नरेन्द्र मोदी ने किया, उससे यही लगा कि वे जीत की खुमारी से अभी उबरे नहींहैं, बस अच्छे दिन आने वाले हैं, नारे नहींलगे, बाकी सब चुनावी रैली की ही तरह था। पिछली सरकारों को कोसने का काम इस मंच से भी श्री मोदी ने किया और कहा कि वे कानून बनाती थीं, मैं उन्हें मिटाने का काम कर रहा हूं, तो क्या भारत में कानून का राज खत्म हो और अराजकता फैले? मैडिसन स्क्वेयर के मंच से मोदीजी ने जो महाभूल की और जिस पर कहींचर्चा नहींहुई, वह है महात्मा गांधी का नाम गलत बोलना। उन्होंने एम.के.गांधी का पूरा नाम मोहनलाल करमचंद गांधी कहा। क्या भारत के प्रधानमंत्री से ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि वह राष्ट्रपिता का नाम गलत ले। संयुक्त राष्ट्र के मंच से भी अपने ऐतिहासिक हिंदी भाषण में उन्होंने कई  गलतियां की।  उन्हत्तरवें को सिक्स्टीनाइन्थवे कहा, 6 दशक को 60 दशक कहा, एक दशमलव दो पांच को एक दशमलव पच्चीस कहा। दरअसल, ऐसे मौकों पर लिखित भाषण देना बेहतर होता, लेकिन मोदीजी अपनी वाचा पर जरूरत से ज्यादा विश्वास कर बैठते हैं। पाकिस्तान को दो टूक जवाब देना, संरा में सभी देशों को साथ मिलकर काम करना, दुनिया से गरीबी मिटाना, आतंकवाद का मिलकर खात्मा करना, ऐसी बातें तो ठीक हैं, लेकिन भाषण देते-देते मोदीजी भूल गए कि वे चुनावी सभा में नहींहैं, न ही शिक्षक दिवस पर विद्यार्थियों को संबोधित कर रहे हैं, वे इस सभा में पधारे वैश्विक प्रतिनिधियों को समझाने के अंदाज में कहने लगे कि हमें संरा के 70 साल पूरा होने पर क्या करना चाहिए, उसके 80 साल पूरे होने का इंतजार नहींकरना चाहिए, आदि। कुल मिलाकर अपने भाषणों से भारत की जनता को मोदीजी ने भले प्रभावित किया हो, वैश्विक पटल पर उसका खास प्रभाव पड़ा हो, ऐसा नहींलगता। अब देखना यह है कि बराक ओबामा से वे किस अंदाज में मिलते और बात करते हैं।
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गतिरोध टूटा, नई शुरुआत हुई

ललित मानसिंह विश्लेषण
भारत और अमेरिका कई मायनों में एक जैसे हैं। शांति और सद्भाव के साथ रहना, लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करना, आतंकवाद की खिलाफत करना दोनों दे शों की सोच में शामिल है। हमारे बीच अच्छे रिश्ते स्वाभाविक हैं मोदी की अमेरिका यात्रा ने इस स्वाभाविकता की ओर एक बार फिर इशारा किया है। मोदी ने देश की क्षमताओं और जरूरतों को भलीभांति अमेरिका के सामने पेश किया। यकीनन यात्रा सफल रही है और मोदी की विदेश नीति एक और परीक्षा में कामयाब रही है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब से पद संभाला है वे नियंतण्र मोर्चे पर तेजी से काम करने में जुटे हैं। उनकी अमेरिका यात्रा इस मायने में काफी महत्वपूर्ण थी। कहना होगा कि उनकी यात्रा ने भारत-अमेरिका के संबंधों को गति देने में कामयाबी हासिल की है। हम पिछले कई महीनों से देख रहे थे कि भारत-अमेरिका संबंधों में एक किस्म का गतिरोध बना हुआ था। हमारे संबंध खराब नहीं हुए थे, लेकिन इसमें गतिशीलता और गर्मजोशी की कमी थी। राजनयिक देवयानी की गिरफ्तारी और तलाशी की घटना से हमारे सामने अमेरिका का जो चेहरा सामने आया था, उससे हमारे यहां नाराजगी थी। अच्छी बात यह है कि हमारे संबंध अब इतने परिपक्व हो चुके हैं कि आहत मन से भी हम गले मिलने को तैयार रहते हैं। दरअसल, भारत-अमेरिका के बीच अच्छे संबंध न सिर्फ दोनों देशों के लिए बल्कि दुनिया के लिए भी बेहतर हैं। आज भारत और अमेरिका, एक-दूसरे के लिए प्राथमिकताओं वाले देश है। वे जानते हैं कि संबंधों में ठंडापन आए तो यह दोनों के लिए नुकसानदेह है। मोदी की अमेरिकी यात्रा के दौरान कई महत्वपूर्ण बातें सामने आई। यह पहले से तय था कि प्रधानमंत्री आर्थिक तरक्की को विदेश नीति के प्रमुख हथियार के तौर पर आजमाएंगे। मोदी ने पहले न्यूयार्क में निवेशकों से बातचीत की और फिर वाशिंगटन में। दोनों बातचीत में उन्होंने अमेरिकी और प्रवासी निवेशकों को काफी सकारात्मक संदेश दिए। निवेशकों से जो शुरुआती प्रतिक्रिया मिली है उससे यही लगता है कि आने वाले दिनों में वे निवेष के मोर्चे पर भारत को तरजीह देंगे और यदि ऐसा हुआ तो हमारे लिए यह सबसे अहम बात होगी। भारत-

अमेरिका साझा बयान में इंडो-यूएस इनवेस्टमेंट इनिशिएटिव फंड की स्थापना पर सहमत हुए हैं। इस फंड का मुख्य काम वित्तीय बाजार के विकास और बुनियादी संरचना के वित्त पोषण का होगा। बयान में इस बात का भी जिक्र हुआ है कि भारत के बुनियादी संरचना विकास के लिए इंफास्ट्रक्चर कोलेबरेशन प्लेटफॉर्म की स्थापना की जाएगी। दूसरी अहम बात यह हुई है कि व्हाइट हाउस और नरेंद्र मोदी के बीच वीजा को लेकर जो खटास पैदा हुई थी, वह मिट गई है। पूरी उम्मीद है कि भारतीय पेशेवरों के लिए अमेरिका में काम करने को लेकर जो वीजा नीति है उसे पहले से ज्यादा अनुकूल बनाया जाएगा। भारत के लिहाज से एक अच्छी बात यह भी रही है कि मोदी ने अपनी सरकार के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट- स्मार्ट सिटी और स्वच्छ भारत

प्रोजेक्ट- से अमेरिका को जोड़ने में कामयाबी हासिल की। अमेरिकी सहायता एजेंसी यूएसएड आगे भारत में स्वच्छ पानी और शौचालय मिशन को पूरा करने में अपना अनुभव साझा करेगी। दूसरी तरफ अजमेर, विशाखापट्टम और इलाहाबाद को स्मार्ट सिटी बनाने में अमेरिकी कंपनियां मदद करेंगी। एक अहम विषय हमारे बीच रक्षा सहयोग का है। साझा बयान में भारत-अमेरिका रक्षा

सहयोग को अगले दस साल तक बढ़ाने की बात कही गई। यह कदम अपेक्षित ही था और सिर्फ औपचारिकता पूरी करनी थी। भारत में स्थापित होनेवाले पहले रक्षा विविद्यालय के लिए अमेरिकी सहयोग मिलना ऐसी बात है जिसके लिए हमें खुश होना चाहिए। ऊर्जा के क्षेत्र में भी दोनों देशों में सहयोग की भावना पनपी है। भारत को विकास के लिए पर्याप्त ऊर्जा चाहिए, यह

स्वच्छ और हरित हो, मोदी की यही कोशिश है। जाहिर है कि अमेरिका भी पर्यावरण की गहराती स्थिति को देखते हुए यही चाहता है। अमेरिकी नजरिए से देखें तो मोदी से उनकी उम्मीद भी उतनी ही थी, जितनी हमारी ओबामा से। ओबामा जानते हैं कि इराक से अपनी सेना को बाहर निकालने की इच्छा रखने वाली अमेरिकी जनता आज चाहती है कि अमेरिका आईएस के खिलाफ फौजी कार्रवाई करे। आईएस के खिलाफ फौजी कार्रवाई करने में अमेरिका ने कई देशों के साथ साझा रणनीति बनाई है। ओबामा जानते हैं कि यह लड़ाई लंबी खिंचेगी इसलिए वह सहयोगी देशों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं। भारत से उन्हें उम्मीदें हैं। अमेरिका का मानना है कि नियंतण्र सुरक्षा की रणनीति में भारत सक्रियता से शामिल हो। भारत के साथ दिक्कत यह है कि वह आतंकवाद के मोर्चे पर अमेरिकी की दोहरी नीति का समर्थक नहीं हो सकता। वह पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की सख्ती चाहता है, जबकि अमेरिका यहां ढीला-ढाला रवैया अख्तियार किए हुए है। हालांकि इस बार अमेरिका ने कड़े शब्दों में मुबई हमले के दोषियों को सजा देने की बात रखी है। क्षेत्रीय मसलों में सबसे महत्वपूर्ण बात अफगानिस्तान की स्थिति से जुड़ी है। भारत अफगानिस्तान में सबसे बड़ा निवेशक है। भारत की चिंता यह है कि साल के आखिर में जब नाटो की फौज पूरी तरह अफगानिस्तान से बाहर हो जाएगी, तो अफगानिस्तान फिर कहीं तालिबान के हाथों में न चला जाए या फिर वहां पाकिस्तान के सरपरस्त हुक्मरान न काबिज हो जाएं। अमेरिकी प्रशासन भारत की इन चिंताओं को समझने लगा है इसलिए वह रणनीतिक साझेदारी की बात सिर्फ कागज पर न कर हकीकत में भी करने को तैयार है। अमेरिकी प्रशासन के एक बड़े धड़े का मानना है कि भारत अब दक्षिण एशिया में ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाए। भारत अमेरिका के बीच अब भी कई अनसुलझे बिंदु हैं। सिविल न्यूक्लियर डील, इंटरनेशनल प्रोपर्टी राइट और पेटेंट के मुद्दे पर गतिरोध कायम है। भारत को न्यूक्लियर सप्लायर गुप में दाखिल कराने पर अमेरिका गंभीर नहीं हैं। दरअसल उसकी चिंता के अपने बिंदु हैं और भारत के अपने। इन मुद्दों पर साझा बयान में ज्वाइंट वर्किंग गुप बनाने और भविष्य में बात करने पर जोर दिया गया है। दरअसल लगता ऐसा है कि दोनों देशों ने तय कर लिया है कि विवादित मुद्दों पर बातचीत जारी रखी जाए और अन्य मुद्दों पर हम साथ-साथ आगे बढ़ते रहें। यह एक सकारात्मक सोच है। मोदी की यात्रा ने एक आशा भरा माहौल रचा है। यात्रा से पहले के माहौल पर गौर करें तो पाएंगे कि हम संबंधों की दुनिया में एकाएक तेजी से काफी आगे आ गए हैं। ओबामा के कार्यकाल में भारत- अमेरिका संबंध वैसे नहीं रहे थे जैसी उम्मीद थी। कागजों पर भले ही संबंधों में सुधार और विस्तार दिख रहा था, पर सच यह था कि दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध 1998 के बाद के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गए थे। इसकी शुरुआत 2012 के बजट से हुई जिसमें पीछे की तारीख से कर लगाने का प्रावधान किया गया, प्रतिकूल निवेश नियम लागू किए गए और आर्थिक सुधारों का भविष्य अनिश्चित-सा हो गया। मोदी सरकार ने इन कमियों को पहचाना और बजट में कुछ सुधार किए। इससे अमेरिकी निवेशकों का भरोसा भारत में कायम हुआ है। यह भरोसा अब भारत-अमेरिकी संबंधों की नींव बन सकता है। दरअसल हम इस तथ्य को खारिज नहीं कर सकते कि बेहतर आर्थिक संबंध होने से बाकी मोर्चो पर भी बेहतरी नजर आएगी। फिर

भारत और अमेरिका कई मायनों में एक जैसे हैं। शांति और सद्भाव के साथ रहना, लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करना, आतंकवाद की खिलाफत करना दोनों देशों की सोच में शामिल है। हमारे बीच अच्छे रिश्ते स्वाभाविक हैं। मोदी की अमेरिका यात्रा ने इस स्वाभाविकता की ओर एक बार फिर इशारा किया है। मोदी ने देश की क्षमताओं और जरूरतों को भलीभांति अमेरिका के सामने पेश किया। यकीनन यात्रा सफल रही है और मोदी की विदेश नीति एक और परीक्षा में कामयाब रही है।
(लेखक अमेरिका में भारत के राजदूत रहे हैं)
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गर्मजोशी के बावजूद
जनसत्ता 2 अक्तूबर, 2014: प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद अमेरिकी नेतृत्व से रूबरू होने का नरेंद्र मोदी का यह पहला मौका था। निश्चय ही उनकी अमेरिका यात्रा से दोनों देशों के रिश्तों में गर्मजोशी आई है। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में अमेरिका से नजदीकी बढ़ाने की कोशिशें परवान चढ़ी थीं, पर उसके दूसरे कार्यकाल में वैसी गरमाहट नहीं रही। मोदी की इस यात्रा ने उस ठहराव को तोड़ा है। ओबामा से उनकी बातचीत से पहले दोनों पक्षों के कुछ चुनिंदा लोगों की वार्ता हुई, फिर दोनों तरफ के प्रतिनिधिमंडल की। इसके बाद दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने आपसी संबंधों को दिशा-निर्देशक खाका देने की पहल की, जिसकी विधिवत अभिव्यक्ति उनके साझा लेख में हुई है। अमेरिकी अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में प्रकाशित इस लेख का लब्बोलुआब यह है कि दोनों देशों के संबंध मजबूत, विश्वसनीय और स्थायी हैं, पर उन्हें अभी बहुत-सी संभावनाओं को हकीकत में बदलना बाकी है। लेकिन तमाम खुशनुमा बातों के बावजूद ऐसे कई मसले हैं जिन पर भारत और अमेरिका का रुख एक-दूसरे को नहीं भाता।
अमेरिका की निगाह में भारत का एटमी जवाबदेही कानून परमाणु सहयोग करार की राह का रोड़ा है। जब भारतीय वायुसेना ने अमेरिका के बजाय फ्रांस से लड़ाकू विमान खरीदने का सौदा किया, तो अमेरिका ने अपनी नाराजगी जताने में कोई संकोच नहीं किया था। विश्व व्यापार संगठन के प्रस्तावित व्यापार सुविधा समझौते पर भारत का राजी न होना भी उसे रास नहीं आया है। भारत ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि वह इस समझौते के खिलाफ नहीं है, पर खाद्य सुरक्षा की अपनी नीति को वह तिलांजलि नहीं दे सकता। बौद्धिक संपदा अधिकार को लेकर भी दोनों देशों के अलग-अलग रुख रहे हैं। आउटसोर्सिंग को सीमित करने वाला कानून बनाने के अमेरिकी इरादे ने भारत के आइटी उद्योग में आशंकाएं पैदा की हैं। ऐसे में मैत्री की नई ऊर्जा पैदा करना आसान नहीं था। इसके लिए मोदी ने कई जतन किए। अमेरिकी नागरिकों के लिए भारत पहुंचते ही वीजा मिलने की सुविधा देने की घोषणा की। ओबामा से मुलाकात के पहले उन्होंने अमेरिका की विदेश संबंध परिषद को संबोधित किया और वैश्विक कारोबार वाली कुछ दिग्गज अमेरिकी कंपनियों के प्रमुखों से भी वे मुखातिब हुए। इन सभी मौकों पर दोनों तरफ व्यापार और निवेश की बाबत नई दिलचस्पी का इजहार हुआ। मोदी सरकार के आने के बाद अमेरिका समेत दुनिया के बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में यों भी भारत से व्यापार की संभावनाओं को लेकर उत्सुकता का माहौल रहा है। अमेरिका रवाना होने से पहले मोदी सरकार ने रक्षा और बीमा क्षेत्र में बाहरी निवेश की सीमा बढ़ाने का फैसला करके यह संकेत दे दिया था कि वह बाहरी निवेशकों के लिए कहीं अधिक उदार है।
संभव है अब अमेरिकी उद्योगपति भारत में पहले से ज्यादा रुचि दिखाएं। पर क्या भारत के लिए भी अमेरिका में अवसर बढ़ेंगे? क्या अमेरिका आउटसोर्सिंग संबंधी अपने प्रस्तावित कानून पर पुनर्विचार करेगा? क्या वह भारत के सेवा क्षेत्र के लिए अपने दरवाजे खोलने के मोदी के प्रस्ताव पर राजी होगा? क्या वह आव्रजन संबंधी नियमों को लचीला बनाएगा? ऐसे कई सवाल हैं जिन्हें भारत-अमेरिकी संबंधों के मद्देनजर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मोदी और ओबामा की बातचीत में आपसी मुद्दों के अलावा अनेक अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भी चर्चा हुई। अमेरिका इस वक्त इराक और सीरिया में आइएसआइएस से निपटने में लगा हुआ है। उसकी कोशिश ज्यादा से ज्यादा देशों को इस मुहिम में शामिल करने की है। हालांकि मोदी ने भी आइएस को एक बड़ा खतरा बताया, पर ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि भारत इस मामले में अमेरिकी कूटनीति का हिस्सा बन सकता है। अमेरिका के लिए रणनीतिक रिश्ते का मतलब जो हो, भारत को इस पर अपने हितों के मुताबिक सोचना होगा।
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केम छो अमेरिका

पुष्परंजन
जनसत्ता 30 सितंबर, 2014: अब मोदीजी राजनीति के रॉकस्टार हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में धाराप्रवाह बोलते हुए उन्होंने पाकिस्तान को धोया, संयुक्त राष्ट्र की जिम्मेदारी को याद दिलाया। रविवार को मेडिसन स्क्वायर गार्डन (एमएसजी) में जो उत्तेजना थी, उससे कहीं अधिक जोश में भौकालग्रस्त हमारे चैनल वाले थे। भारतीय चैनलों के पत्रकार चीख रहे थे…‘किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने ऐसा शो नहीं किया’…‘इंडिया इज रॉकिंग’…‘मोदी इज रॉकिंग’! इस शोर में अमेरिकी-भारतीय गुट का विरोध तूती की आवाज बन कर रह गया जो 2002 के दंगे पर सवाल उठा रहे थे। न्यूयार्क की अदालत का समन इसलिए असर नहीं कर रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोेदी को राजनयिक छूट हासिल है। वैसे मनमोहन सिंह अप्रैल 2006 में इस तरह का कूटनीतिक-सांस्कृतिक शो जर्मनी के हनोवर में कर चुके हैं। लेकिन मनमोहन सिंह की शिथिल कूटनीति के बरक्स मोदी हाइपरएक्टिव (अतिक्रियाशील) कूटनीति प्रस्तुत कर रहे थे। मोदी के इस सफल शो का श्रेय किसे दें? इवेंट मैनेजरों को, कॉरपोरेट को, अमेरिका केचार सौ से अधिक आप्रवासी भारतीय संगठनों को, या फिर वहां पर बसे करीब तैंतीस लाख अमेरिकी-भारतीयों को?
अमेरिका में तीसरा बड़ा प्रवासी समूह भारतवंशियों का है। पहले नंबर पर चीनी मूल के आप्रवासी (करीब चालीस लाख) हैं, दूसरे नंबर पर फिलीपीनो-अमेरिकी (करीब पैंतीस लाख) हैं, तीसरे स्थान पर भारतवंशी हैं। कैलिफोर्निया, न्यूयार्क, न्यूजर्सी, टेक्सास और हवाई, पांच ऐसे राज्य हैं जहां छप्पन प्रतिशत भारतीय समुदाय के लोग रहते हैं। न्यूयार्क और न्यूजर्सी को तो गुजरातियों का गढ़ कहा जाता है, जहां दो लाख से अधिक गुजराती समाज के लोग हैं।
‘एमएसजी’ में मोदी उन्माद पैदा करने के लिए गुजराती भाइयों ने दिन-रात एक कर दिया था। पीआइओ कार्डधारकों को आजीवन वीजा, अमेरिकी नागरिकों को हवाई अड््डे पर उतरते ही वीजा देने की घोषणा कर मोदी यह विश्वास दिलाना चाहते थे कि मैं पेचीदगियों को मिनटों में समाप्त करने वाला ‘मैन इन एक्शन’ प्रधानमंत्री हूं। लेकिन क्या अमेरिका ऐसी ही वीजा की सुविधा भारतीय पर्यटकों को हवाई अड्डे पर उतरते ही दे देगा? यह वही अमेरिका है, जिससे कूटनीतिक वीजा पाने के लिए मोदी तरस गए थे। अगर अमेरिका में बसा आम भारतीय अपने देश में निवेश करने लगे तो समझ लेना चाहिए कि मोदी का जादू चल गया है। एक चैनल पर भारतीय आप्रवासी ने सही सवाल उठाया कि हम अपनी उम्र भर की कमाई किस गारंटी पर भारत में लगा दें, क्या अदालतें इसकी सुरक्षा दे सकती हैं? फिर भी, मोदी अगर ‘इंडिया इंक’ को अपने घर में पैसे लगाने का आह्वान कर रहे हैं, तो यह एक अच्छी शुरुआत है।
अब तक विदेश नीति को हम शुष्क, पेचीदा और गंभीर विषय मानते रहे हैं। मोदी ने एमएसजी में यह शो करके दुनिया को बता दिया है कि कूटनीति को सरल तरीके से, अलग-अलग रंग भर कर, कला और संस्कृति के माध्यम से भी प्रस्तुत किया जा सकता है। उसकी मार्केटिंग की जा सकती है। ऐसे शो में पचास से अधिक सीनेटर, कांग्रेसमैन और कॉरपोरेट प्रमुख पहुंच जाएं तो निश्चित रूप से यह निवेश और भारत-अमेरिका के रणनीतिक निर्णयों को प्रभावित करता है। इससे पहले साठ हजार अमेरिकी युवाओं को सेंट्रल पार्क में संबोधित कर मोदी उन्हें आईने में उतार चुके थे। संयुक्त राष्ट्र महासभा के उनहत्तरवें सत्र के लिए दुनिया भर से आए एक सौ चालीस देशों के शासनाध्यक्षों के लिए क्या यह सबक है? चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग को कहीं इसका अफसोस नहीं हो रहा हो कि काश, अमेरिका में ऐसा शो मैं भी कर लेता।
संभव है फिलीपींस के शासनाध्यक्ष आप्रवासी अमेरिकी-फिलीपीनों के बूते ऐसे रॉक शो पर विचार कर रहे हों। नवाज शरीफ को इसकी खलिश होगी कि संयुक्त राष्ट्र में अलापा गया ‘राग कश्मीर’ मोदी-मोदी के शोर में दब कर रह गया। इस शो के बाद पाकिस्तान के सुर ढीले पड़ गए हैं। मोदी ने बिना तोप और तलवार निकाले कश्मीर पर पाक की बोलती बंद कर दी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं निकाल लेना चाहिए कि पाकिस्तान, कश्मीर पर अपनी कारस्तानी बंद कर देगा। फिलहाल, पाक विदेश मामलों के सलाहकार सरताज अजीज फिर से भारत से बातचीत बहाल करना चाहते हैं।
यों, संयुक्त राष्ट्र में सऊदी अरब भी मसला-ए-कश्मीर पर पाकिस्तान का साथ दे रहा था। तुर्की के विदेशमंत्री मेवलुत काओसोगलू ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सत्र के दौरान बयान दे डाला कि इस्तांबुल, कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण समाधान के लिए पहल कर सकता है। आर्गेनाइजेशन आॅफ इस्लामिक कोआॅपरेशन (ओआइसी) ने जम्मू-कश्मीर संपर्क समूह बनाया हुआ है, उसकी बैठक में तुर्की के विदेशमंत्री मेवलुत अपना यह उद््गार व्यक्त कर रहे थे।
इस तरह का बयान देते वक्त तुर्की के विदेशमंत्री भूल जाते हैं कि उनका देश मानवाधिकार हनन के मामले में काली सूची में दर्ज है। कुर्दों पर सबसे अधिक सितम ढाने, सैकड़ों पत्रकारों को जेल में बंद करने और हजारों राजनीतिक हत्याओं के कारण तुर्की को यूरोपीय संघ का सदस्य बनाने से मना कर दिया गया। अब यही तुर्की कश्मीर पर पंचायत करना चाहता है! चीन में उइगुर आतंकवाद को उकसाने और उन्हें पनाह देने वाला प्रमुख देश तुर्की ही है।
दरअसल, कश्मीर को पाक नेताओं ने कॉमेडी बना कर रख दिया है। 1965 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में जुल्फिकार अली भुट्टो ने कश्मीर पर जितना आक्रामक भाषण दिया था, उसे यूट्ब पर सुनें तो लगेगा कि इस बार के महासभा के सत्र में नवाज शरीफ ने जन्नतनशीं जुल्फिकार अली भुट्टो के मुकाबले कुछ भी नहीं कहा। कोई ऐसा साल नहीं है, जब संयुक्त राष्ट्र में पाक शासनाध्यक्षों ने ‘राग कश्मीर’ न अलापा हो। पिछले पैंसठ सालों से पाक अधिकृत कश्मीर का कोई प्रतिनिधि नेशनल असेंबली के लिए निर्वाचित होकर गया ही नहीं। पाकिस्तानी संसद में मिनिस्ट्री आॅफ कश्मीर अफेयर्स, गिल्गिट-बाल्टिस्तान (केएजीबी) नामक एक महकमा बनाया गया है, जिसके मंत्री हैं, चौधरी मुहम्मद बर्जिस ताहिर। कमाल की बात यह है कि चौधरी मुहम्मद बर्जिस कश्मीरी हैं ही नहीं। उनसे पहले मियां मंजूर अहमद बट्टू केएजीबी के मंत्री थे। बट्टू भी पंजाब से ताल्लुक रखते थे। कश्मीरियों पर पंजाब के मंत्री इसलिए थोपे जाते हैं, क्योंकि पाकिस्तान के सियासतदानों को उन पर भरोसा नहीं रहा है।
पाकिस्तान भले ‘पीओके’ को आजाद कश्मीर कहता रहा है, लेकिन सच यह है कि यह पूरा इलाका पिछले पैंसठ सालों से उसकी गुलामी को झेल रहा है। इस्लामाबाद को तो छोड़िए, दुनिया के किसी भी देश में ‘आजाद कश्मीर’ का दूतावास नहीं है। पीओके के लोग पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा तक नहीं खटखटा सकते। हर माह मानवाधिकार हनन के दर्जनों मामले पाक कब्जे वाले कश्मीर की वादियों में ही दफन हो जाते हैं।
‘आजाद कश्मीर’ के प्रधानमंत्री की औकात इतनी भर है कि एक अदना सा इंस्पेक्टर उसे घसीट कर इस्लामाबाद ले जाता है। 29 जून 1990 से 5 जुलाई 1991 तक राजा मुमताज हुसैन राठौर ‘आजाद कश्मीर’ के प्रधानमंत्री थे। 1991 में सरकार से खटपट हुई और उन्हें गिरफ्तार कर इस्लामाबाद ले जाया गया। राजा फारूक हैदर, दस महीने के लिए (22 अक्टूबर 2009 से 29 जुलाई 2010 तक) आजाद कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। मंगला बांध से पैदा बिजली में हिस्सेदारी के सवाल पर विवाद के बाद प्रधानमंत्री हैदर को गिरफ्तार कर इस्लामाबाद लाया गया।
मोदीजी के रणनीतिकारों को चाहिए कि दुनिया के समक्ष पाकिस्तान के हिस्से वाले कश्मीर से लेकर बलूचिस्तान तक के सच को प्रस्तुत करें। ऐसा नहीं कि अमेरिकियों को इसका पता नहीं है कि पाकिस्तान अपने कब्जे वाले कश्मीर में क्या कर रहा है।
ओबामा कश्मीर-रुदन पर गौर इसलिए नहीं कर रहे हैं कि उन्हें अफगानिस्तान में भारत जैसा ताकतवर एशियाई साझेदार चाहिए, जो समय-समय पर पाकिस्तान और चीन को जवाब दे सके। मोदी जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र में हिंद महासागर-प्रशांत सुरक्षा की बात कर रहे थे, वह अमेरिका का बहुप्रतीक्षित एजेंडा रहा है। ओबामा, इस्लामी आतंकवाद की समाप्ति का शंख फूंक चुके हैं, मोदी को उस अभियान का हिस्सा तब बनना चाहिए जब दाऊद इब्राहिम, हाफिज सईद जैसे आतंकियों को भारत को सौंपे जाने के वास्ते अमेरिका, पाकिस्तान पर दबाव बनाए। अमेरिका को एक सशक्त सहयोगी चाहिए तो उसे भारत के विरुद्ध पाकिस्तान में षड्यंत्र करने और पनाह पाने वालों के समूल नाश में सहयोगी बनना होगा।
अगर ओबामा को पर्यावरण की चिंता है, तो गंगा की सफाई की चिंता पूरी दुनिया को करनी होगी। मोदी ने स्वच्छ गंगा अभियान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठा कर एक अच्छी शुरुआत की है। लेकिन गंगा सफाई के नाम पर, जेब की सफाई करने वालों पर नजर रखनी होगी। मोदी की अमेरिका यात्रा की सफलता अमेरिकी कंपनियों के ग्यारह शीर्ष सीइओ, इंडिया इंक की घर वापसी और ओबामा के रणनीतिक सहयोग पर निर्भर करती है। अमेरिका इस समय संयुक्त अरब अमीरात और चीन के बाद, भारत का तीसरा सबसे बड़ा व्यापरिक साझेदार है। ‘यूएस ट्रेड रिप्रजेंटेटिव’ के आंकड़ों के अनुसार, ‘2012 में भारत-अमेरिका के बीच 93 अरब डॉलर का व्यापार हुआ। 2013 में भारत, अमेरिका का दसवां सबसे बड़ा निर्यातक देश रहा।’ क्या ओबामा भारत का नंबर एक बिजनेस पार्टनर बनना चाहते हैं? भारत को इस समय ऊर्जा और इंफ्रास्ट्रचर की जबर्दस्त जरूरत है। इन दोनों के बगैर ‘मेक इन इंडिया’ मात्र नारा बन कर रह जाएगा।
अमेरिका सिविल नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र भारत में लगाने को आतुर है, लेकिन उसमें सबसे बड़ी बाधा जापान है। अमेरिकी और फ्रेंच कंपनियां जो रिएक्टर सप्लाई करती हैं, उसमें जापानी उपकरण लगे होते हैं। मोदी अपनी टोक्यो यात्रा में अगर जापान से सिविल नाभिकीय समझौता करने में सफल हो जाते, तो यह बाधा नहीं रहती। इस बाधा को ओबामा और मोदी मिलकर कैसे पार पाते हैं, इस पर पूरी दुनिया की नजर है। मोदी को शायद इस कारण चीन से सिविल नाभिकीय समझौता करना पड़ा था। प्रधानमंत्री मोदी एशिया से बाहर कूटनीतिक आॅर्बिट (ग्रहपथ) पर चल पड़े हैं। उन्हें अभी यूरोप को अपने आईने में उतारना है। अफ्रीका और मध्यपूर्व उनके समक्ष हैं। क्या उनके ‘इवेंट मैनेजर’, मेडिसन स्क्वायर गार्डन के मोदी-शो को दोहराते रहेंगे?
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नई नजदीकी की आहट

Sat, 04 Oct 2014

मोदी की यात्रा के बाद भारत और अमेरिका के रिश्तों में ठहराव का दौर समाप्त होते देख रही हैं मीरा शंकर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया अमेरिका यात्रा ने दोनों देशों के बीच रिश्तों में आ गए ठहराव को समाप्त करने का काम किया है। यह ठहराव पिछले दो-तीन सालों से महसूस किया जाने लगा था और दुनिया के लिए अहम इन दोनों देशों के बीच साझेदारी को नई दिशा देना बेहद आवश्यक हो गया था। यह महत्वपूर्ण है कि मोदी की यह यात्रा चार स्तरों पर भारत-अमेरिका के बीच करीबी रिश्तों का आधार तैयार करने में सफल रही। सबसे पहला संबंध है भारत और अमेरिका के बीच सरकारों के स्तर पर होने वाला संपर्क। इसी तरह दोनों देशों के उद्योग जगत को एक-दूसरे के करीब आने का मौका मिला। तीसरे स्तर पर व्यक्ति के व्यक्ति से संपर्क को नया आयाम मिला, जिसकी झलक मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में मोदी के यादगार शो में देखने को मिली।
चौथा स्तर था भारत और अमेरिका के बीच राजनीतिक संबंध। मोदी की इस यात्रा में जिस तरह अमेरिकी कांग्रेस के अनेक सदस्यों ने रुचि ली उससे यह संकेत मिलता है कि भविष्य में दोनों देशों के बीच राजनीतिक संपर्क भी बढ़ेगा। मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में हुए कार्यक्रम में भी अमेरिकी कांग्रेस के तीन दर्जन से अधिक सांसद मौजूद थे। मोदी-ओबामा की मुलाकात विश्व के लिए अहम है, क्योंकि उनके बीच समझबूझ पैदा होने से न केवल दोनों देशों को लाभ होगा, बल्कि विश्व के कई जटिल मामले भी सुलझ सकेंगे।
अमेरिका ने करीब नौ साल तक मोदी को वीजा से रोक रखा था, लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद हालात बदल गए। यह उल्लेखनीय है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के छह माह के भीतर ही भारत-अमेरिका रिश्तों में एक नई ऊर्जा नजर आने लगी। यह ऊर्जा व्यावसायिक भरोसे को बढ़ाने में मददगार साबित हो सकती है।
हर कोई इससे परिचित है कि अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और यह भी एक सच्चाई है कि उसकी आर्थिक स्थिति नए सिरे से बेहतर हो रही है। भारत में काम करने को लेकर अमेरिकी उद्योग जगत के मन में कई प्रश्न थे, जो अब सुलझ रहे हैं।
मोदी ने अमेरिकी उद्योग जगत को यह संकेत देने में तनिक भी देर नहीं की कि भारत उनके साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार है। भारत और अमेरिका इसलिए और अधिक परस्पर विश्वास पैदा कर सकते हैं, क्योंकि दोनों के लोकतंत्र सरीखे बुनियादी मूल्य मिलते-जुलते हैं। खुद मोदी और ओबामा ने अपने साझा लेख में इस पर जोर दिया।
भारत के लिए एक महत्वपूर्ण बात अमेरिका का एशिया प्रशांत क्षेत्र में और अधिक सक्रिय रुख प्रदर्शित करना है। भारत उम्मीद कर रहा है कि इससे उसकी अनेक चिंताओं का समाधान होगा। भारत को ऐसी ही अपेक्षा आतंकवाद से निपटने के मामले में अमेरिकी सहयोग प्राप्त करने के संदर्भ में भी है। दोनों देश एक लंबे अर्से से आतंकवाद की चुनौती का मिलकर सामना कर रहे हैं।
ओबामा ने यह भरोसा दिलाया है कि भारत के समक्ष आतंकी खतरे की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह एक बड़ा मुद्दा है, जिस पर भारत अमेरिका से नजदीकी सहयोग की उम्मीद कर रहा है। आतंकवाद से निपटने के मामले में भारत और अमेरिका के बीच बनी समझबूझ से पाकिस्तान पर दबाव और अधिक बढ़ गया है।
इस दौरे से भारत के लिए एक अन्य महत्वपूर्ण बात अफगानिस्तान के संदर्भ में निकली। पहले ऐसी चिंता थी कि अमेरिका आनन-फानन में अफगानिस्तान से निकलने के फेर में काबुल को मझधार में छोड़कर निकल जाएगा। यह भारत के लिए विशेष रूप से चिंता की बात थी। वह अपने पड़ोस में एक अशांत देश की मौजूदगी की अनदेखी नहीं कर सकता था।
मोदी ने इस बारे में ओबामा को अपनी चिंताओं से अवगत कराया। इसी दौरान अमेरिका और अफगानिस्तान के बीच एक अहम समझौता भी हो गया, जिसके तहत इस वर्ष अमेरिकी सेनाओं के विदाई के बाद करीब 9200 अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में ही रुकेंगे। ये सैनिक अफगानिस्तान के स्थानीय बलों को शांति और व्यवस्था कायम रखने में सहयोग देंगे। इस समझौते के बाद उम्मीद की जा सकती है कि अफगानिस्तान आने वाले समय में अराजकता-अशांति की भेंट नहीं चढ़ेगा।
भारत की एक अन्य चिंता विश्व व्यापार संगठन में अपने हितों को सुरक्षित रखने की है। मोदी ने ओबामा के समक्ष यह साफ कर दिया कि डब्लूटीओ से संबंधित जो भी जटिल मसले हैं उन पर भारत नए सिरे से सहयोग के लिए तैयार है, लेकिन उसके राष्ट्रीय हितों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। खाद्य सुरक्षा एक ऐसा ही मसला है, जिसकी भारत उपेक्षा नहीं कर सकता। कुछ ऐसी ही बात नाभिकीय सहयोग और बौद्धिक संपदा कानून जैसे अन्य जटिल मसलों के संदर्भ में भी की जा सकती है। इन मसलों पर भारत के रुख में रातोंरात बदलाव नहीं आने वाला, लेकिन मोदी ने यह साफ किया कि भारत लचीला रुख दिखाने के लिए तैयार है।
भारत और अमेरिका के बीच सहयोग का एक बड़ा क्षेत्र रक्षा से जुड़ा हुआ है। दोनों देशों ने रक्षा सहयोग समझौते का नवीनीकरण कर दिया। मोदी सरकार ने रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने का फैसला किया है। इसके बाद अमेरिकी कंपनियों की भारत में रुचि बढ़ गई है। रक्षा उपकरणों के मामले में भारत की जरूरतें विदेशी निवेश से ही पूरी हो सकती हैं। इससे भी अधिक भारत रक्षा उत्पादन से जुड़ी तकनीक के बिना आगे नहीं बढ़ सकता है। अमेरिका इस मामले में भारत की मदद कर सकता है। तकनीक की जरूरत भारत को अन्य अनेक क्षेत्रों में भी है, जैसे क्लीन इंडिया अभियान की सफलता के लिए। आज के युग में कचरा प्रबंधन भी तकनीक का मामला है।
स्वच्छ और साफ-सुथरे भारत के लिए हमें वह तकनीक चाहिए जिसकी मदद से हम हर तरह के कचरे का निपटारा कर सकें। इस मामले में भारत पहले ही पीछे छूट चुका है। ठीक इसी तरह स्मार्ट सिटी का सपना भी तकनीक से ही साकार हो गया। प्रारंभ में अमेरिका ने तीन शहरों को स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित करने में सहयोग करने का भरोसा दिलाया है। अगर यह प्रयोग सफल रहा तो भारत स्मार्ट सिटी के मामले में जो कुछ सोच रहा है वह आसानी से पूरा हो सकेगा।
भारत और अमेरिका के रिश्तों में विश्वास का पहलू बहुत महत्वपूर्ण है। ओबामा-मोदी की मुलाकात ने इसी विश्वास पर जोर दिया है। अमेरिका के साथ रिश्तों को लेकर देश में एक तरह का संदेह भी रहा है। इस संदेह का कुछ आधार हो सकता है, लेकिन दो देशों के बीच संबंधों में कई चीजों की भूमिका होती है। मोदी के अमेरिकी दौरे और ओबामा के साथ उनकी मुलाकात की बड़ी पिक्चर यही है कि उस भरोसे को फिर से बहाल करने की कोशिश की गई है जो पिछले कुछ समय से टूटने लगा था।
मोदी ने अवसर का पूरा लाभ उठाया और इसी क्रम में अप्रवासी भारतीयों को जोड़ने की भरपूर कोशिश की। अमेरिका में भारतीयों की अच्छी-खासी संख्या है। यह समुदाय पिछले एक दशक से आर्थिक और राजनीतिक रूप से लगातार सशक्त होता जा रहा है। मोदी चाहते हैं कि यह समुदाय भारत की तरक्की में भी अपना योगदान दे।
(लेखिका अमेरिका में भारतीय राजदूत रही हैं)
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मोदी और गांधीवाद

:Mon, 06 Oct 2014

भारतीय मीडिया में पिछले कुछ दिनों में जो दो समाचार लगातार छाए रहे उनमें एक तो था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा और दूसरा, मोदी के ही नेतृत्व में आरंभ हुआ स्वच्छ भारत अभियान। दोनों समाचारों में ऊपरी तौर पर तो कोई संबंध नहीं दिखता, लेकिन गहराई में दोनों कई स्तरों पर जुड़े हुए हैं। फिर उपरोक्त कार्यक्त्रमों के माध्यम से जो तस्वीर उभरकर आई है क्या उसमें भावी भारतीय राजनीति के लिए भी कुछ दिशा-संकेत छिपे हुए हैं? सवाल यह भी है कि क्या स्वयं नरेंद्र मोदी एक नया अवतार लेने की कोशिश कर रहे हैं?
मोदी की अमेरिकी यात्रा का प्रमुख उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति, रोजगार सृजन और साथ ही अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने देश की सकारात्मक, समावेशी और समरस छवि का निर्माण करना था, ताकि विदेशी निवेश आ सके। विदेशी निवेश के लिए बाधक आर्थिक कानूनों- नियमों, नौकरशाही की हीला-हवाली आदि को सुधारने के अतिरिक्त देश में एक सामाजिक स्थायित्व की भी आवश्यकता है। इस सामाजिक स्थायित्व का एक प्रमुख आयाम सांप्रदायिक सौहार्द भी है। आर्थिक अध्ययन बताते हैं कि सांप्रदायिक तनावों और दंगों के आर्थिक दुष्परिणाम भी होते हैं। शीर्ष व्यावसायिक संगठन एसोचैम की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दिनों सहारनपुर में हुए दंगों में दस दिनों में अर्थव्यवस्था को करीब 250 करोड़ की हानि हुई। मुरादाबाद पीतल व्यवसाय के लिए दुनिया में प्रसिद्ध है और करीब 2500 करोड़ का निर्यात करता है। यहां उपजे सांप्रदायिक तनावों ने अर्थव्यवस्था को खासा नुकसान पहुंचाया। यहां यह समझते चलें कि इन दंगों में गरीब-मजदूर तबके के साथ-साथ व्यापारी और उद्योगकर्मी आदि भी नुकसान उठाते हैं, जिसमें सभी मजहबों के लोग शामिल हैं। भावी विदेशी निवेश इन स्थितियों पर भी विचार करेगा। भारत के अंदर एक उदाहरण देखें तो अन्य राज्यों की तुलना में उत्तार प्रदेश में कम निवेश के प्रमुख कारणों में राज्य की बिगड़ी कानून एवं व्यवस्था भी जिम्मेदार है। मोदी इस बात को समझते हैं। ऐसे सांप्रदायिक तनावों को खत्म कर सामाजिक समरसता कायम करने के लिए गांधीवाद से बड़ा कोई और रास्ता नहीं हो सकता। यह अनायास नहीं कि लोकसभा में अभूतपूर्व विजय के बाद अपने विजयी भाषण में मोदी ने महात्मा गांधी को सबसे पहले और सबसे च्यादा याद किया। अमेरिकी यात्रा शुरू होने के पहले एक साक्षात्कार में या शक्तिशाली अमेरिकी संगठन 'काउंसिल फॉर फॉरेन रिलेशन' के कार्यक्रम में भी मोदी ने कहा कि भारतीय मुसलमान देश के लिए जीते हैं और देश के लिए मरेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि अन्य लोगों की तरह भारतीय मुसलमान भी बुद्ध और गांधी के सुझाए मार्ग पर चलने वाले हैं, जो शांति और अहिंसा का है। मुसलमानों या अन्य अल्पसंख्यक वगरें को लेकर ऐसे वक्तव्य नि:संदेह नया आश्वासन देते हैं। यह भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था और सुरक्षा के लिए अनिवार्य भी है। वाशिंगटन में तो मोदी ने अपने कार्यक्रमों की शुरुआत भी गांधी स्मारक दर्शन से की।
दूसरी तरफ दो अक्टूबर से आरंभ हुए स्वच्छ भारत अभियान के बुनियाद में भी गांधीजी हैं। यह सर्वविदित है कि गांधीजी को स्वच्छता बहुत प्रिय थी, जिसके तब और आज भी एक साथ कई मायने हैं। एक ओर साफ-सफाई का महत्व रेखांकित करना मेहनतकश लोगों के श्रम की प्रतिष्ठा करना है तो दूसरी तरफ अच्छे स्वास्थ्य और बेहतर जीवन के लिए भी साफ-सफाई का विशेष महत्व है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार गंदगी और उससे उपजी बीमारियों के कारण एक औसत भारतीय को साल में 6500 रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है और यह चोट सबसे च्यादा निम्न वर्ग पर पड़ती है। इसके अलावा आर्थिक विकास और रोजगार के लिए अमेरिका या अन्य देशों में पर्यटन को बढ़ावा देने का जो अभियान मोदी ने नए तरीके से छेड़ा है उसमें भी सफाई मुहिम मददगार साबित होगी। भारत की गंदगी विदेशियों के लिए विकर्षण का ही कारण बनती है। सफाई के समुचित अभाव में भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी जीडीपी के6 प्रतिशत से च्यादा की राशि से वंचित रह जाती है।
मोदी के आलोचकों ने उनके इस स्वच्छता अभियान की सराहना तो की है, लेकिन साथ ही यह आलोचना भी कि मोदी ने गांधी जयंती और गांधीवाद को सिर्फ एक सफाई मुहिम तक ही सीमित कर दिया है। उनका कहना है कि गांधीजी की विचारधारा बहुत ही विशाल, समावेशी और समदर्शी थी। यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिकी यात्रा के दौरान आम भारतीय मुसलमानों के आतंकवाद से दूर रहने संबंधी बयान भी एक राजनीतिक वक्तव्य मात्र है। यहां दो निष्कर्ष निकले जा सकते हैं। एक तो यह कि सचमुच मोदी हिंदुत्व की कट्टर विचारधारा से बाहर नहीं निकलना चाहते और गांधीजी का सिर्फ सियासी इस्तेमाल करना चाहते हैं और गांधीवाद के अथरें को एक पक्ष तक सीमित कर देना चाहते हैं। दूसरी तरफ एक निष्कर्ष यह भी है कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद मोदी का नया अवतार हो रहा है। वह बिना किसी भेदभाव के 125 करोड़ भारतीयों के साथ खड़े होना चाहते हैं। याद कीजिए बड़ोदरा के अपने विजयी भाषण में मोदी ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम को भी याद किया था, जिसमें हिंदू-मुस्लिम ने एकजुट होकर संघर्ष किया था। मोदी के अनेक विरोधियों और बुद्धिजीवियों, यहां तक कि कुछ मुसलमानों को मोदी के वक्तव्यों ने आकर्षित किया है, लेकिन विगत की विभिन्न घटनाओं से एक बार फिर उनका विश्वास जम नहीं पाता है। चाहे मुजफ्फरनगर, सहारनपुर के दंगे हों या लव जिहाद को लेकर चलाया जा रहा राजनीतिक अभियान-मोदी द्वारा उनका मुखर विरोध नहीं करना मोदी के नए अवतार पर सवालिया निशान लगा देता है। समग्रता में देखें तो अमेरिकी यात्रा में मोदी के लक्ष्य और क्रियाकलाप या स्वच्छता अभियान, दोनों ही देश के लिए दूरगामी होंगे और मोदी के कद को बढ़ाने वाले भी, लेकिन इतिहास पुरुष बनने के लिए इतना ही काफी नहीं है। इतिहास पुरुष वही बना है जिसने समाज के सभी लोगों को, खास तौर से वंचितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और अन्य निम्न वगरें को गले लगाया है। इतिहास मोदी की प्रतीक्षा कर रहा है।
[लेखक डॉ. निरंजन कुमार, दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं]
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एक अलग तरह की उपलब्धि

Tue, 07 Oct 2014

इससे शायद ही किसी को हैरानी हो कि कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा को असफल करार दिया है। उसकी मानें तो मोदी जी तो चीयरलीडर्स लेकर अमेरिका गए थे और वहां हल्ला-हंगामा कर खाली हाथ देश लौट आए। कांग्रेसी नेताओं के अलावा कुछ और लोगों की ओर से यह सवाल पूछा जा रहा है कि आखिर प्रधानमंत्री अमेरिका से क्या लेकर आए? इस सवाल के जवाब में मोदी समर्थकों के पास बहुत कुछ बताने को है तो उनके विरोधियों के पास उनसे असहमत होने के तमाम तर्क हैं। पता नहीं मोदी के समर्थक और आलोचक भारत और अमेरिका के बीच बनी समझ-बूझ के नतीजे सामने आने का इंतजार करेंगे या नहीं, लेकिन इस इंतजार में उसे ओझल नहीं किया जाना चाहिए जो हासिल हो चुका है। मोदी ने अमेरिका यात्रा के जरिये देश-दुनिया को यह बताया कि अपनी भाषा, संस्कृति और संस्कार का सम्मान कैसे किया जाना चाहिए? अमेरिका यात्रा के दौरान उन्होंने नवरात्र के अपने उपवास जारी रखे और इसकी परवाह नहीं की कि इससे बराक ओबामा समेत उनके अन्य मेजबान क्या सोचेंगे? कोई और नेता होता तो बहुत संभव है कि वह अपनी ऐसी धार्मिक मान्यता को लेकर सकुचाता-शर्माता और उसे छिपाता भी। मोदी मजे से अपने मेजबानों के समक्ष केवल पानी पीते रहे।
यह पहले से तय हो गया था कि नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में ही भाषण देंगे। इसे नई-अनोखी बात नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी भी ऐसा कर चुके थे। नई-अनोखी बात यह हुई कि संयुक्त राष्ट्र के मंच से भारतीय प्रधानमंत्री ने योग की बात की। इसके बाद उन्होंने ग्लोबल सिटिजंस फेस्टिवल में अंग्रेजी में भाषण अवश्य दिया, लेकिन वहां भी वह ठेठ भारतीय परिधान में थे और उनके वक्तव्य में संस्कृत का एक श्लोक भी शामिल था। नरेंद्र मोदी चाहते तो अमेरिकी दौरे के समय कई अवसरों पर अंग्रेजी में संबोधन कर सकते थे, खासकर वहां जहां उन्हें सवालों का जवाब देने के बजाय सिर्फ अपनी बात रखनी थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने ओबामा के साथ शिखर वार्ता के बाद भी अमेरिका से हुए समझौतों की जानकारी हिंदी में दी। इस दौरान वह हिंदी में लिखा वक्तव्य पढ़ रहे थे। वह अंग्रेजी में लिखा वक्तव्य भी बहुत आसानी से पढ़ सकते थे, लेकिन उन्होंने दुनिया को हिंदी में अपनी बात सुनाई। नरेंद्र मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो देश-दुनिया को यह बता रहे हैं कि बिना अंग्रेजी के भी शासन चलाया जा सकता है। भारत में शासन के साथ-साथ कूटनीति और विदेशी नीति की भी भाषा हिंदी हो सकती है, यह दुनिया ने पहली बार जाना तो मोदी के कारण ही। चूंकि न्यूयार्क के प्रतिष्ठित मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में उनके समक्ष उपस्थित श्रोता-दर्शक भारतीय मूल के ही थे इसलिए वहां प्रधानमंत्री भारतीयता के रंग में रंगे नजर आए। उन्हें देखने-सुनने आए लोग भारतीय होने के गर्वीले भाव से भरे हुए थे। भारतीयों और साथ ही अमेरिकियों को पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री के मुख से वसुधैव कुटुंबकम, सर्वे भवंतु सुखिन: जैसे शब्द सुनने को मिले। अमेरिका में इसके पहले शायद ही कभी भारत माता की जय की वैसी गूंज सुनी गई हो जैसी मोदी की न्यूयार्क यात्रा के दौरान सुनाई दी।
इस पर गौर करें कि हमारे यहां कई कथित सेक्युलर विचारक ऐसे हैं जिन्हें भारत माता की जय कहना नहीं सुहाता। उनकी मानें तो गंगा, योग, भारत माता की जय, हिंदी, संस्कृत आदि तो बस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे का हिस्सा हैं। कुछ लेखक-विचारक तो यह साबित कर भी रहे हैं कि मोदी ने इसी कारण अमेरिका में इन सब पर अपना ध्यान केंद्रित किया। वे इसी तरह की कोशिश पहले भी कर चुके हैं। जब दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकपाल को लेकर अन्ना हजारे के अनशन के दौरान भारत माता की जय के नारे लगे थे तो जानी-मानी लेखिका अरुंधति राय को बड़ा कष्ट हुआ था। वह इस नतीजे पर पहुंच गई थीं कि अगर आप लोकपाल पर सहमत हैं तो आपको भारत माता की जय कहना होगा। मानो ऐसा कहना हेय हो। अरुंधति सरीखे लोगों वाले कुनबे को तब भी बहुत कष्ट हुआ था जब लोकसभा चुनाव में जीत के बाद नरेंद्र मोदी वाराणसी में तिलक लगाए हुए गंगा आरती करते दिखे थे। इस पर आश्चर्य नहीं कि अरुंधति राय अथवा उनके साथी ऐसा कोई निबंध लिखने में जुटे हों कि नरेंद्र मोदी किस तरह बहुसंख्यकवाद का प्रदर्शन कर रहे हैं। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि लोकसभा चुनाव में प्रबल जीत के बावजूद सेक्युलर खेमे के अंग्रेजियतपरस्त लोगों को प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी पच नहीं रहे। ऐसा लगता है उनके विशिष्टता बोध को गहरी ठेस लगी है। अंग्रेजी मीडिया के एक हिस्से का सुर और स्वभाव देखें तो यह साफ नजर आएगा कि वह मोदी के प्रति पूर्वाग्रह-दुराग्रह से ग्रस्त है। ऐसे लोग मोदी सरकार की हर नीति और कार्यक्रम के बारे में कुछ इस तरह लिखते-बोलते हैं-यहां तक तो ठीक है, लेकिन..। योजना तो अच्छी है, लेकिन..। भूटान दौरा तो ठीक रहा, लेकिन देखते हैं नेपाल में क्या करते हैं मोदी? पता नहीं मोदी के सफल बताए जा रहे अमेरिकी दौरे के बाद ऐसे लोग क्या करते हैं?
कोई मूढ़ मति और परम दुराग्रही ही भारत स्वच्छ अभियान की आलोचना कर सकता है, लेकिन कुछ लोग इस अभियान को मिशन इंपासिबिल यानी असंभव कार्य करार देकर खुश हो रहे हैं। वे यह भी बता रहे हैं कि किस तरह गांधीनगर और अहमदाबाद अभी भी गंदा है। जी हां जिस तरह कुछ लोगों की सुई 2002 में अटकी हुई है उसी तरह कुछ लोग मोदी को अभी भी गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे हैं। वे यह भी कह रहे हैं कि मोदी के स्वच्छ भारत अभियान का बनारस पर शायद ही कोई असर पड़े। उन्हें शायद स्वच्छ भारत अभियान के विफल होने का बेसब्री से इंतजार है। जो भी हो, जिन्हें मोदी सरकार के कार्यकाल में कुछ होता नहीं दिखाई दिया है वे चाहें तो यह देख सकते हैं कि उनकी सरकार ने किस तरह भारतीय होने के भाव को ऊंचा उठाया है।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]
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भारतीय मूल्यों की जय

:Wed, 08 Oct 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विदेश दौरों की सफलता का निहितार्थ क्या है? उस सफलता का रहस्य क्या है? अमेरिका और भारत में एक दुनिया का शक्तिशाली व सबसे पुराना लोकतंत्र और दूसरा सबसे विशाल प्रजातंत्र। दोनों में मित्रता और सद्भाव स्वाभाविक है, परंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाल के पांच दिवसीय अमेरिकी दौरे में वह विशेष तत्व क्या था जिसने इसे अविस्मरणीय बना दिया? प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका दौरे का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू गौरवमय भारत के अतीत को विश्व पटल पर पुन: स्थापित करना है। मुहम्मद बिन कासिम के सन् 712 ई. के आतताई आक्रमण के बाद से भारत की समृद्ध विरासत को जो मानसिक और बौद्धिक बेड़ियां पड़नी शुरू हुई थीं और जिसे लॉर्ड मैकाले के सन् 1836 के मिनट में शिक्षा पद्धति के माध्यम से अंग्रेजों ने और पुष्ट किया उसे प्रधानमंत्री की बॉडी लैंग्वेज, उनके धारा प्रवाह भाषण व उसके सार ने तोड़ने, उनसे मुक्त होने की घोषणा की। इसका उद्घोष हुआ कि अब हम उस बौद्धिक दासता से आजाद हैं। प्रधानमंत्री के हिंदी में संबोधन ने स्वाभाविक रूप से भारत के जनमानस और विदेशों में जहां-जहां भारतीय हैं, उनके न केवल मस्तिष्क, बल्कि मन को भी छुआ। इस प्रगाढ़ आत्मीयता बोध के कई प्रतीक थे।
प्रधानमंत्री नवरात्र के दौरान अमेरिका पहुंचे। उन्होंने लोगों को नवरात्र की बधाई दी। मेरी याद में शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने नवरात्र की बधाई दी हो। प्रधानमंत्री नवरात्र पर उपवास रखते हैं और सभ्यता और परंपरा के अनुसार अमेरिकी व्यवस्था ने उनकी आस्था का पूर्ण सम्मान किया। दूसरे लोग हमारा सम्मान तभी करेंगे जब हम खुद अपना और अपने जीवन मूल्यों का आदर करेंगे। अभी तक अधिकांश प्रधानमंत्रियों ने विदेशी संबंध कायम करने की प्रक्रिया में कई बार भारत के हितों से ज्यादा पार्टी की विचारधारा को महत्व दिया है। भारत के हित पीछे हो गए और उन्होंने सारे मामले को विचारधारा के चश्मे से देखा। प्रधानमंत्री मोदी की एक ही विचारधारा है-इंडिया फ‌र्स्ट जिसका प्रतिपादन स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, गांधीजी, डॉ. हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, वीर सावरकर आदि ने किया था। इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने सिख गुरुओं के त्याग की परंपरा को भी नमन किया। इसलिए सभी भारतीय, चाहे वे भारत में हों या विदेश में, मजहब व संप्रदाय से ऊपर उठकर न केवल प्रधानमंत्री मोदी से जुड़े, बल्कि उनके अंदर आत्मीय भाव का भी संचार हुआ। मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपना संबोधन वैदिक संस्कृति से आरंभ किया और बिना किसी हीनभाव के सभा को हिंदी में संबोधित कर उन्होंने देश का गौरव बढ़ाया। अटल बिहारी वाजपेयी के बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में बोलने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने देश की गौरवमयी विरासत को प्रतिष्ठा प्रदान की, जिसे आजादी के बाद से वामपंथी व अभिजात्यवादी मानसिकता ने तिरस्कृत कर रखा था।
प्रधानमंत्री की इस सफलता से यदि कुछ लोग दुखी हैं तो ये वे लोग हैं जो अपने ही दुष्प्रचार के शिकार हैं। दशकों से ऐसे लोगों ने वामपंथी विचारधारा से प्रेरित होकर भारत का और इस राष्ट्र की कालजयी सनातन और बहुलतावादी परंपरा में विश्वास रखने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों का विरोध किया। उनके तथ्यहीन आरोपों और उसके शिकार भाजपा नेतृत्व के व्यवहार में अब तक कोई साम्यता नहीं पाई गई। निरंतर यह दुष्प्रचार किया गया कि नरेंद्र मोदी देश के सेक्युलर स्वरूप के लिए गंभीर खतरा हैं। यह भय पैदा किया गया कि भारतीय जनता पार्टी यदि देश की सत्ता में आई तो देश सांप्रदायिक दंगों की आग में सुलग उठेगा। तमाम दुष्प्रचार के बावजूद लोगों ने नरेंद्र मोदी को प्रचंड बहुमत देकर देश का प्रधानमंत्री बनाया है और अब उनकी कार्यशैली देखकर लोगों का भरोसा पुष्ट हुआ है कि उन्होंने जो सपना देख रखा है, मोदी उसे साकार करेंगे।
ऐसे समय में जब दुनिया के अधिकांश देश एक मजहब विशेष के कट्टरपंथ का शिकार हैं, भारत और अमेरिका के बीच आतंकवाद को लेकर बनी सहमति वैश्रि्वक शांति की दिशा में एक सफल कदम है। यहां यह भी याद किया जाना चाहिए कि इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने भारतीय मुसलमानों के असंदिग्ध देशप्रेम पर विश्वास व्यक्त कर यह उद्घोष किया कि भारत के मुसलमान अलकायदा और आइएस को करारा जवाब देंगे और देश को अस्थिर करने के उनके मंसूबों को कभी सफल नहीं होने देंगे। 'इंडिया फ‌र्स्ट' से प्रेरित होकर यदि प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका गए तो उन्होंने चीन के राष्ट्रपति का भी भारत में स्वागत किया। मेहमाननवाजी में उन्होंने भारत के हितों को ताक पर नहीं रखा, बल्कि सीमा विवाद और सीमा पर चीनी सैनिकों के निरंतर उत्पात पर भी चीनी राष्ट्रपति को खरी-खरी सुनाई। भारतीय उपमहाद्वीप में चीन के प्रभुत्व जमाने के कुप्रयास पर लगाम लगाने के लिए उन्होंने भूटान, नेपाल और जापान की यात्रा की। उन्होंने जिस देश की भी यात्रा की, भारतीय पक्ष को मजबूती के साथ रखा। जापान के साथ भारत के हितों को साधने के लिए उन्होंने जहां चीन की परवाह नहीं की वहीं चीन के साथ अपनी समस्याएं सुलझाने के लिए उन्होंने अमेरिका की चिंता नहीं की। प्रधानमंत्री मोदी ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि सीमा पर शांति कायम रखकर ही आर्थिक संभावनाओं की बुनियाद मजबूत की जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र में जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कश्मीर का मसला उठाया तो मोदी ने उसका प्रतिकार करते हुए साफ किया कि कश्मीर का मसला अंतरराष्ट्रीय मंच से उठाने का विषय नहीं है। यह द्विपक्षीय मसला है और आतंकवाद को पोषित करने की पाकिस्तानी नीति के बीच किसी तरह के समझौते की गुंजाइश नहीं है। यह सही है कि प्रधानमंत्री का पद ग्रहण के अवसर से ही उन्होंने 'पड़ोस पहले' की नीति अपना रखी है और इसीलिए अपने शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने तमाम पड़ोसी देशों के प्रमुखों को निमंत्रित भी किया था, किंतु चीन हो या पाकिस्तान, दोनों से संबंध कायम करने की प्रक्रिया में उन्होंने भारतीय हितों को पीछे नहीं रखा।
प्रधानमंत्री मोदी के विदेशी दौरों का वैश्रि्वक और स्थानीय संदेश है। उन्होंने अपने विजन से यह स्पष्ट किया कि आने वाला समय भारत का है। 21वीं सदी दुनिया के सर्वाधिक ऊर्जावान व युवा भारत के नाम होगी। अमेरिकी दौरे में उन्होंने इस बात को भी मजबूती से रखा कि विश्व में शांति और सद्भाव कायम करने में भारत की बड़ी भूमिका रहने वाली है। उन्होंने दोहरे मापदंड रखने वाले देशों को दो टूक चेतावनी भी दी कि आतंकवाद को अच्छे और बुरे आतंकवाद में बांटकर मानवता को खतरे में नहीं डालें। अमेरिकी दौरे में संयुक्त राष्ट्र की सभा में शिरकत करने आए श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल से प्रधानमंत्री मोदी ने एक मजबूत क्षेत्रीय मंच बनाने पर जोर दिया। इस साल के अंत में नेपाल में दक्षेस देशों का सम्मेलन प्रस्तावित है। 15-16 नवंबर को आस्ट्रेलिया में जी 20 का सम्मेलन होना है। देश को प्रधानमंत्री मोदी पर पूरा विश्वास है कि वह समृद्ध और शक्तिशाली भारत के पुनर्निर्माण में भारतीय हितों, परंपराओं और जीवन मूल्यों को इसी तरह गरिमा प्रदान करते रहेंगे।
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ब्रांड इंडिया को स्थापित करने का मौका

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से बात करने के अलावा न्यूयॉर्क में जो महत्वपूर्ण काम किया, वह मैडिसन स्क्वायर पर अप्रवासी भारतीयों के साथ खड़े होना था। इस मौके पर उन्होंने अनिवासी भारतीयों को कई सहूलियतें देने के साथ भारतीय-अमेरिकी व्यापारियों को भारत में निवेश करने का न्यौता भी दिया। अमेरिका में रह रहे भारतीयों को एकजुट करने और उन्हें देश के विकास के साथ जोड़ने की मोदी की पहल का जो बड़ा उद्देश्य है, वह ब्रांड इंडिया की चमक बढ़ाना है जिसकी कोशिश इन दिनों कई महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों के जरिये की जा रही है। इस तरह के कार्यक्रमों और घोषणाओं का वास्तविक उद्देश्य असल में भारत की ऐसी ब्रांडिंग करना है ताकि उसकी दो अहम समस्याएं एक झटके में दूर हो जाएं। देश की पहली विकट समस्या 18 से 35 आयुवर्ग के करोड़ों युवाओं की बेरोजगारी है। दिनोंदिन विकराल होती बेरोजगारी का कोई हल अब इसी तरह की बड़ी पहलकदमियों के भरोसे रह गया है। दूसरी समस्या नियंतण्र पैमाने पर बढ़ती प्रतिस्पर्धा और मंदी के चलते मांग में आई कमी के फलस्वरूप उद्योग-धंधों की पतली होती हालत है जिन्हें जिलाए रखने के लिए ऐसे आह्वान रूपी संजीवनी बूटी की फौरी जरूरत है। मोटे तौर पर कहे-अनकहे रूप से प्रचारित किए जा रहे ब्रांड इंडिया रूपी महा अभियान का मकसद देश की उन समस्याओं का हल निकालना है जो पहले तो सीधे तौर पर जनआकांक्षाओं की पूर्ति करता है और उसके बाद देश के ठोस विकास का रास्ता साफ करता है। प्रधानमंत्री मोदी जानते हैं कि हाल के दशकों में अमेरिका-ब्रिटेन आदि विकसित मुल्कों में रोजगार के लिए गए भारतीयों ने अपनी मेहनत और मेधा के बल पर जो उपलब्धियां और पैसा कमाया है, अगर उसका कुछ हिस्सा लौटकर देश को मिल सके तो इससे एक झटके में देश की कई मुश्किलों का हल निकल सकता है। इसके लिए सबसे जरूरी यही है कि विदेशों में बैठे भारतीयों को ब्रांड इंडिया की इमेज चमकाने के लिए प्रेरित किया जाए और यहां निवेश का माहौल बनाकर उन्हें आमंत्रित किया जाए। असल में, लंबे अरसे से तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद ब्रांड इंडिया एक धुंधलाए और निस्तेज किस्से का नाम रहा है, भले ही उसे कभी शाइनिंग इंडिया या फिर भारत निर्माण जैसे नाम क्यों न दिए गए हों। एक-डेढ़ दशक के इस अरसे में बाहरी कंपनियों ही नहीं, देश के उद्योगपतियों की भी शिकायत रही है कि व्यापारिक दुनिया में भारत की छवि काफी कमजोर रही है। हाल में जब एक विदेशी टेलिकॉम कंपनी के सीईओ विट्टोरी कोलाओ भारत आए, तो उन्होंने ब्रांड इंडिया के बुझे सितारे की दिक्कतों का हवाला देते हुए तकरीबन यही बातें कहीं। कोलाओ ने कहा था कि दुनिया के दूसरे मुल्कों की तुलना में भारत में बिजनेस करना काफी मुश्किल है। यहां बड़े व्यापारों के मामले या तो नौकरशाही की उलझनों- अंड़गेबाजियों में फंसकर दम तोड़ते रहे हैं या फिर रिश्वतखोरी के बदनाम हादसों के बाद कागजी खानापूरी के हवाले चढ़ जाते हैं। पिछले बरस कुछ ऐसी ही बातें मार्केटिंग की दुनिया में गुरुओं के गुरु कहे जाने वाले फिलिप कोटलर ने कही थीं। हमें विदेशी व्यावसायियों और विशेषज्ञों की बात खल सकती है और हम इन्हें अपना काम बनाने के लिए भारत पर दबाव बनाने की साजिश का हिस्सा ठहरा सकते हैं, लेकिन अफसोस ऐसी ही राय कई भारतीय उद्यमियों की भी रही है। भारत में बिजनेस शुरू करने से लेकर उसे स्थापित करने में कितनी अड़चनें रही हैं- इसका एक खुलासा कुछ समय पहले र्वल्ड बैंक ने ‘डूइंग बिजनेस इन इंडिया-2009’ नामक रिपोर्ट में किया था। रिपोर्ट में सात मानकों पर भारत के 17 शहरों में व्यवसाय शुरू करने संबंधी नियमों की तुलना थी। इन सूचकों-मानकों में बिजनेस से जुड़े उन महत्वपूर्ण नियमों को शामिल किया गया था, जो उस पर असर डालते हैं- जैसे कोई व्यवसाय शुरू करना या बंद करना, निर्माण संबंधी परमिट हासिल करना, संपत्ति का पंजीकरण, टैक्स चुकाना और सीमाओं के आर-पार व्यापार फैलाना। इस अध्ययन से उस सवाल का विस्तृत उत्तर मिलता है कि आखिर क्यों भारत में लाखों छोटे उद्योग-धंधे विकसित नहीं हो पाए। इस सवाल का एक उत्तर यह मिला कि कोई बिजनेस खड़ा करने में भारत में अत्यधिक दिक्कतें हैं। मिसाल के तौर पर विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक बिजनेस के लिए भारत के सबसे उपयुक्त शहर मुंबई में कोई बेहद छोटा बिजनेस लगाने के लिए कम से कम 30 हजार रपए (भारत की तत्कालीन प्रति व्यक्ति आय का 71 फीसद) चाहिए और इसमें एक महीने का वक्त लग सकता है। इसके मुकाबले दक्षिण अफ्रीका में 22 दिन और वहां की प्रति व्यक्ति आय के छह फीसद में ही कोई बिजनेस स्थापित किया जा सकता है। इतना ही नहीं, पूरे देश में सभी व्यवसायों को अलग-अलग करों की भारी मार झेलनी पड़ती है। इसी वजह से बिजनेस प्रतिष्ठान शिकायत करते रहे हैं कि उन्हें ऊंची दरों पर टैक्स देना पड़ता है, बदले में सरकार या प्रशासन से नाममात्र की सुविधाएं मिलती हैं। देश में आम तौर पर किसी व्यवसाय को साल में 60 तरह के टैक्स का भुगतान करना होता है और इसमें उसके 271 घंटों का समय बर्बाद होता है। इसी तुलना में संयुक्त अरब अमीरात में इस काम में सिर्फ 12 घंटे लगते हैं। इसके अलावा लालफीताशाही और भ्रष्टाचार भी बिजनेस को प्रभावित करते रहे हैं। ‘इन्वेस्टमेंट क्लाइमेट इन इंडिया : वॉइसेज ऑफ इंडियन बिजनेस’ नाम से विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में बताया जा चुका है कि भारत में उत्पादन फर्मो को अपनी आमदनी का लगभग 4.9 प्रतिशत रिश्वतखोरी में चुकाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त फर्मो के सीनियर अधिकारियों को अपने कीमती समय का बड़ा हिस्सा सरकारी अधिकारियों से निपटने में खर्च करना पड़ता है। औसतन यह समय उनके कुल कामकाज की अवधि का 12.6 प्रतिशत होता है। ये छोटी बातें और दिक्कतें नहीं हैं। बीते 10-15 सालों में ब्रांड इंडिया की चमक इन्हीं कारणों से मंद पड़ी। विश्लेषकों का मानना है कि यूपीए सरकार के शासन में दुनिया की नजरों में भारतीय ब्रांड का सम्मान घटा। वैसे कहा जाता है कि सरकारों को देश की ग्लोबल ब्रांड इमेज से ज्यादा चिंता देश के भीतर अपनी छवि को लेकर करनी चाहिए क्योंकि उनकी किस्मत का फैसला बाहर के अमीर व्यवसायी और नेता नहीं बल्कि अपने ही लोग करते हैं। किसी अन्य चीज की तरह देशों की छवि भी अंतत: उनकी भीतरी गुणवत्ता से ही तय होती है। इसलिए सरकारों को बाहरी छवि की चिंता जरूर करनी चाहिए, लेकिन देश के आम लोगों की खुशहाली सुनिश्चित किए बगैर नहीं। यह अंदरूनी चीज असल में देश के भीतर उद्योग-धंधों के पनपने के साथ रोजी- रोजगार के मौके पैदा करना है। यही वह चीज है जो भारत को एक मुकम्मल और स्थायी ब्रांड के रूप में स्थापित कर सकती है। नई सरकार के प्रयास देख लगता है कि उसे इन समस्याओं का अहसास है। प्रधानमंत्री की बातों से लगता है पुरानी तंद्रा टूट रही है। आज के ग्लोबल दौर में भारत की नए सिरे से ब्रांडिंग हो रही है और नया भारत उभरकर आ रहा है। हालांकि अभी सुस्ती कायम है, लेकिन एक ऐतिहासिक मौका सामने है। देखना है कि इस मौके के साथ क्या देश का मिजाज बदलता है और क्या प्रधानमंत्री का ‘मेक इन इंडिया’ आह्वान वाकई रंग दिखाता है या वह भी पिछली सरकारों के नारों के तरह खोखला साबित होता है!
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