Monday 27 October 2014

श्रमेव जयते




श्रम सुधारों की राह

Fri, 17 Oct 2014 

निवेश के लिए मेक इन इंडिया अभियान शुरू करने के बाद अगला स्वाभाविक कदम श्रम सुधारों की दिशा में आगे बढ़ना ही था। यह स्वागतयोग्य है कि श्रमेव कार्यक्रम के शुभारंभ के मौके पर कई ऐसी घोषणाएं की गई जो श्रम कानूनों में सुधार की दृष्टि से मील का पत्थर हैं। अब कारखाना संचालकों को 16 फार्म भरने के बजाय एक फार्म भरना होगा और वह भी ऑनलाइन। इससे कारखाना मालिकों को केवल सहूलियत ही नहीं मिलेगी, बल्कि उन्हें भ्रष्टाचार से भी मुक्ति मिलेगी। इसी तरह श्रम निरीक्षण योजना में बदलाव सुनिश्चित कर वस्तुत: इंस्पेक्टर राज को खत्म किया जा रहा है। आम धारणा यह है कि 1991 में आर्थिक उदारीकरण के साथ ही भारत ने लाइसेंस-कोटा-परमिट राज के साथ-साथ इंस्पेक्टर राज से मुक्ति पा ली थी, लेकिन सच यह है कि उपयुक्त कदम न उठाए जाने के कारण पुरानी व्यवस्था के अवशेष मौजूद थे। इंस्पेक्टर राज का असली खात्मा तो अब होगा। इंस्पेक्टर राज के खात्मे की व्यवस्था के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो अन्य घोषणाएं की हैं उनसे उद्योग-व्यापार जगत को उत्साहित होना चाहिए। उसे यह भरोसा भी होना चाहिए कि शेष श्रम सुधार भी जल्द ही पूरे होंगे। वैसे तो केंद्र सरकार ने कर्मचारियों और नियोक्ताओं को सहूलियत देने के इरादे से 1948 के कारखाना कानून, 1961 के अप्रेंटिसशिप अधिनियम और 1988 के श्रम कानून में संशोधन के विधेयक संसद में पेश कर दिए हैं, लेकिन इतने मात्र से उत्साहित नहीं हुआ जा सकता। इसका एक कारण तो यह है कि इन कानूनों में कोई व्यापक बदलाव प्रस्तावित नहीं है और दूसरे, अभी ढेर सारे ऐसे कानून हैं जिनमें संशोधन को लेकर विचार-विमर्श जारी है। एक अनुमान है कि अपने देश में श्रम और उद्योग संबंधी कानूनों की संख्या चालीस से अधिक है और इनमें से ज्यादातर में बदलाव आवश्यक हो चुका है। इस बदलाव को हासिल करके ही देश में कारोबारी माहौल को दुरुस्त किया जा सकता है।
आर्थिक उदारीकरण के इस युग में पुराने जमाने और खासकर साम्यवादी चिंतन से निर्मित श्रम एवं उद्योग संबंधी कानूनों से देश का भला होने वाला नहीं है। यह वह तथ्य है जिसे राजनीतिक दलों को भी समझना होगा और श्रमिक संगठनों को भी। इसमें संदेह है कि श्रम कानूनों में बदलाव की पहल का विरोधी राजनीतिक दल स्वागत करने के लिए तैयार होंगे। आश्चर्य नहीं कि वे मोदी सरकार को श्रमिकों का विरोधी करार देने में देर न करें। अपने देश में किसी भी अच्छी पहल को राजनीतिक दलों की ओर से किसी न किसी बहाने अनुचित ठहराने की प्रवृत्तिकुछ ज्यादा ही नजर आती है। यही कारण है कि व्यवस्था में सुधार के प्रयास उस ढंग से आगे नहीं बढ़ पाते जिस तरह उन्हें बढ़ना चाहिए। श्रम सुधारों के संदर्भ में कुछ ऐसा ही रवैया विरोधी राजनीतिक दलों के साथ-साथ श्रमिक संगठन भी अपना सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो यह विरोध के लिए विरोध का एक और उदाहरण होगा, क्योंकि श्रम कानूनों में बदलाव वक्त की जरूरत बन चुके हैं और ऐसा न करने का अर्थ होगा श्रमिकों, उद्योगों और साथ ही देश का अहित करना।
[मुख्य संपादकीय]
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लेबर रिफॉर्म की खुशनुमा ओपनिंग

नवभारत टाइम्स| Oct 17, 2014,

गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को एक नया नारा दिया- श्रमेव जयते। 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते योजना' का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा कि इस नारे में देश को आगे बढ़ाने की उतनी ही ताकत है, जितनी सत्यमेव जयते में है। उनकी इस बात को सिर्फ प्रतीकात्मक मानकर चलें तो इसके आगे उन्होंने जो कहा वह एक बिल्कुल ठोस बात है और देश को आने वाले दिनों में उसकी आजमाइश का मौका मिलेगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि 'श्रम से जुड़े मसलों को हमें श्रमिकों की नजर से देखना होगा। उद्योगपतियों के नजरिये से इन्हें नहीं देखा जा सकता।' अपनी इस बात के जरिए प्रधानमंत्री ने पिछली सरकारों के नजरिये में दिखी एक बड़ी भूल की तरफ इशारा किया है। सरकारों में बैठे लोग ही नहीं, बड़े-बड़े अर्थशास्त्री भी मजदूरों-कर्मचारियों से जुड़े मुद्दों को अक्सर निवेशकों या उद्योगपतियों के ही चश्मे से देखने की गलती करते रहे हैं। बहरहाल, प्रधानमंत्री ने जिस योजना का उद्घाटन करते हुए ये बातें कहीं, उसमें तीन बड़ी चीजें शामिल हैं - श्रमिकों के लिए एकीकृत श्रम सुविधा पोर्टल, श्रम निरीक्षण योजना और एम्प्लॉयीज प्रॉविडेंट फंड के लिए एक स्थायी खाता नंबर। इसके अलावा एक अप्रेंटिस प्रोत्साहन योजना भी शुरू की गई है, जिसके तहत प्रशिक्षु कर्मचारियों को मिलने वाला मानदेय बढ़ाने की बात कही गई है। पीएफ के लिए स्थायी नंबर भी कर्मचारियों को सहूलियत देगा। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू करने का फैसला भी सराहनीय है। लेकिन जिन दो अन्य बड़ी सहूलियतों का जिक्र इस योजना में किया गया है, उनसे श्रमिकों का कोई सीधा नाता खोजना मुश्किल है। नई लेबर इंस्पेक्शन स्कीम के तहत लेबर इंस्पेक्टरों के पास यह तय करने का अधिकार नहीं रह जाएगा कि कब किस यूनिट के किस हिस्से का निरीक्षण करना है। ऐसे ही, श्रम सुविधा पोर्टल के लिए एम्प्लॉयर्स को एक-एक श्रम पहचान संख्या दी जाएगी, जिसके जरिए वे रिटर्न्स की ई-फाइलिंग कर सकेंगे। इसके अलावा श्रम कानूनों के बाबत एम्प्लॉयर्स को जो 16 फॉर्म भरने पड़ते थे, उनकी जगह अब सिर्फ एक फॉर्म भरना पड़ेगा। बेशक, ये कदम महत्वपूर्ण हैं। एम्प्लॉयर कंपनियों को कानूनी जटिलताओं से बचाना और लेबर इंस्पेक्टरों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना सरकार का एक बड़ा दायित्व है। लेकिन, इन दोनों को श्रमिकों से जुड़ा मसला बताने की क्या मजबूरी थी, यह समझ नहीं आता। और अगर ये सीधे तौर पर श्रमिकों से जुड़े मसले नहीं थे तो फिर उन्हें श्रमेव जयते स्कीम के तहत डालने की जरूरत क्यों आन पड़ी? ऐसा क्या पैकेजिंग के मकसद से किया गया है, ताकि यह पूरी स्कीम ज्यादा वजनदार लगे? कारण जो भी हो, पर ऐसा करके इस सरकार ने भी श्रमिकों के मसले को उद्योगपतियों की नजर से देखने की ठीक वही गलती की है, जिसकी तरफ प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में इशारा किया है।
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संतुलन की कवायद

16-10-14

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रम सुधारों के लिए जो ‘श्रमेव जयते’ कार्यक्रम की शुरुआत की है, वह उनकी कार्यशैली के अनुरूप है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले उनके कई समर्थक यह मानते थे कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बने, तो देश में बड़े और परिवर्तनकारी फैसलों की झड़ी लग जाएगी। जबकि मोदी ने एकदम दूसरी शैली अपनाई। बड़े फैसले करके टकराहट और विवाद पैदा करने की बजाय वे छोटे-छोटे प्रशासनिक सुधारों के जरिये आगे बढ़ने की नीति पर चल रहे हैं। ‘श्रमेव जयते’ भी ऐसा ही कार्यक्रम है। श्रम सुधार बेहद विवादास्पद मामला है। हर सरकार इस पर बात जरूर करती है, लेकिन असल मौके पर कतरा जाती है। यह आम धारणा है कि श्रम सुधारों से मालिकों के अधिकार बढ़ जाएंगे और श्रमिकों के बचे-खुचे अधिकार भी खत्म हो जाएंगे। श्रम सुधारों के समर्थकों का कहना है कि भारत में श्रम कानून बहुत पेचीदा है, इसलिए रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं। मालिक बजाय मजदूरों को बाकायदा नौकरी देने के ठेकेदारी और टेक्नोलॉजी का ज्यादा सहारा ले रहे हैं। भारत में रोजगार की स्थिति फिलहाल बहुत अच्छी नहीं है, न ही बेरोजगार या अनियमित रोजगार वाले श्रमिकों के लिए कोई सुरक्षा है। ऐसे में, श्रम सुधारों की कोशिश बर्र के छत्ते को छेड़ने जैसा हो सकता है। केंद्र सरकार ने अब जो कदम उठाया है, उसमें विवाद की गुंजाइश खत्म हो जाती है। उसने श्रम सुधारों को ज्यादा व्यापक बदलावों से जोड़ दिया है, और श्रमिकों को रखने-निकालने के बारे में ज्यादा उदार नियमों को उसने फिलहाल मुल्तवी कर दिया है। इससे फायदा यह होगा कि सुधार सिर्फ रखने-निकालने के मुद्दे तक सीमित नहीं होंगे, बल्कि वह केंद्रीय मुद्दा भी नहीं रहेगा। मालिकों को श्रम मामलों में जो दूसरी छूट दी गई हैं, उनसे उन्हें काफी राहत मिलेगी। सबसे बड़ी राहत यह होगी कि कथित इंस्पेक्टर राज से उन्हें काफी हद तक आजादी मिल जाएगी। श्रम कानूनों के जटिल होने और श्रम विभाग की जांच के अपारदर्शी नियमों की वजह से मजदूरों को कितना फायदा मिलता है, यह तो विवादास्पद है, लेकिन प्रबंधन की अच्छी-खासी कसरत हो जाती है और यह भ्रष्टाचार का भी बड़ा जरिया है। अगर कागजी खानापूर्ति कम हो जाए और श्रम विभाग की जांच पारदर्शी नियमों के आधार पर हो, तो एक बड़ी समस्या काफी हद तक खत्म हो जाएगी। भारत ऐसे देशों में है, जहां उद्योग लगाना और चलाना बहुत कठिन माना जाता है और देश के विकास में यह बड़ी हद तक बाधक है। अगर प्रबंधन को सरकारी जकड़बंदी से मुक्ति मिल जाए, तो यह उत्पादन और रोजगार के लिए फायदेमंद होगा। दूसरी ओर, सरकार ने श्रमिकों के फायदे के लिए कई कदमों को इसके साथ जोड़कर यह बताने की कोशिश की है कि श्रम सुधारों के केंद्र में श्रमिकों का हित है। इसके बाद सरकार ने श्रमिकों को काम देने या छंटनी के बारे में नियम बनाने का काम राज्य सरकारों को भी करने को कहा है। इसे चाशनी में लिपटी कड़वी दवा कहा जा सकता है, लेकिन श्रम सुधारों के लिए इस चाशनी की सख्त जरूरत है। अगर मजदूरों को यह मालूम हो कि उनके लिए कोई सुरक्षा तंत्र है, तो उन्हें भी नई व्यवस्था में विश्वास पैदा होगा। जरूरी यह है कि ऐसी व्यवस्था बनाई जाए, जो उद्योगों के लिए भी फायदेमंद हो और श्रमिकों के लिए भी। ऐसी कोई भी व्यवस्था, जो इन दोनों के हितों में सामंजस्य नहीं बिठाती, आखिरकार नुकसानदेह होती है। श्रम सुधारों को एक व्यापक नजरिये से देखने की यह पहल अगर सामंजस्य स्थापित कर पाए, तो यह देश के लिए अच्छा होगा।
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इंस्पेक्टर राज’ गया

देश के उद्योग और व्यापार जगत के लिए ‘इंस्पेक्टर राज’ के खात्मे की खबर दिवाली का सबसे अनूठा उपहार है। देश के लिए आर्थिक खुशहाली जुटाने में सबसे आगे रहने वाला यह वर्ग पेंचीदे कानूनों और लालफीताशाही की तानाशाही में ऐसा मजबूर है कि सरकारी नुमाइंदों की हर आहट उसमें दहशत भर देती है। दूसरी तरफ खुद को व्यापारी बताने में आनंद लेने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसी सरकार की वकालत करते हैं जिसमें शासन की मौजूदगी कम से कम दिखे। ‘श्रमेव जयते’ मोदी के उसी अभियान की झलक दिखाता है जिसमें उद्योग और व्यापार जगत में सरकारी हस्तक्षेप के खात्मे की बात कही गयी है। कारखानों में सरकारी नियमों के पालन की जांच की आड़ में भ्रष्टाचार का ऐसा गोरखधंधा चलता था कि उसके आगे देश का सशक्त श्रमिक कानून भी बेबस हो जाया करता था। जांच के नाम पर सरकारी नुमाइंदों को असीमित अधिकार मिले हुए थे जिनका अक्सर दुरुपयोग होता था। इसी प्रकार देश के उद्यम प्रयासों को दर्जनों कानूनों के घेरे में ऐसा फंसा दिया गया था कि कारखाना खोलना या चलाना मामूली कलेजे वालों की बात नहीं रह गयी थी। ऐसे सोलह कानूनों को एक में बदल देना और उसके अनुपालन की प्रक्रिया को भी आसान व पारदर्शी बना कर यकीनन उद्यमियों को बड़ी राहत दी गयी है। कामगारों के लिए सबसे राहत की बात यह है कि अपने प्रोविडेंट फंड या जीवन बीमा का हिसाब जानने के लिए उन्हें किसी पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं रह गयी है। इंटरनेट पर यह सुविधा मौजूद करायी जा रही है जिसका लाभ हर कोई उठा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि श्रमिकों के लिए कानूनन अनिवार्य बनाए गए इन फंडों के दुरुपयोग की शिकायतें आम थीं जिन पर अब पूरा कंट्रोल लग जाएगा। अक्सर शिकायत मिलती थी कि कामगार का अंशदान वेतन से काटने के बाद भी इसे संबंधित खाते में जमा नहीं करवाया गया या प्रबंधन ने अपना हिस्सा जमा नहीं करवाया। अब इंटरनेट पर अद्यतन हिसाब किताब के मौजूद रहने के बाद ऐसा कोई खेल नहीं चल पाएगा। फैक्ट्री इंस्पेक्टरों को जांच की रिपोर्ट तीन दिनों में इंटरनेट की संबंधित वेबसाइट पर डालनी पड़ेगी जिससे सरकारी हस्तक्षेप की प्रक्रिया पारदर्शी बनेगी और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगेगा। उद्यमियों को इन हस्तक्षेपों से राहत के साथ यह व्यवस्था भी की जा रही है कि कामगारों को निर्धारित न्यूनतम पारिश्रमिक उन्हें बैंक खातों के माध्यम से मिले। बोनस भी अनिवार्य बनाने की बात है जबकि ओवरटाइम की अवधि सीमा बांधते हुए इसमें दो गुना पारिश्रमिक दिए जाने का प्रस्ताव है। उद्योगों और कामगारों के लिए मोदी सरकार ने ये फैसले ऐसे वक्त लिए हैं जब खुद उससे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी ट्रेड यूनियन भी न केवल केंद्रीय श्रमिक कानूनों में बदलाव का विरोध कर रही है बल्कि रेल या सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में एफडीआई की अनुमति देने की भी पक्षधर नहीं है। सरकार के इन कदमों पर ट्रेड यूनियनों की क्या प्रतिक्रिया होती है, यह देखना दिलचस्प होगा।
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श्रमेव जयते
17, OCT, 2014, FRIDAY
मेक इन इंडिया के सपने को सच करने के लिए अब प्रधानमंत्री मोदी ने श्रमेव जयतेे नामक नयी योजना की शुरुआत की है और इसे सत्यमेव जयते की ही तरह ताकतवर बताया है। इस योजना के नाम में ही श्रम की महत्ता का वर्णन है और सरकार की योजना भी यही है कि छोटे कारोबारियों, उद्यमियों, संगठित व असंगठित क्षेत्र के हजारों-लाखों श्रमिकों को उनका प्राप्य मिले। श्रमिकों का मूल्यांकन जब मतदाता के रूप में होता है, तो उनका महत्व कई गुना बढ़ जाता है। इसलिए राज्य व केेंद्र सरकारें प्रारंभ से श्रमिकों के लिए अलग मंत्रालय, विभाग बनाने के साथ-साथ उनके बेहतर भविष्य के लिए योजनाएं, नीतियां बनाती आई हैं। बावजूद इसके अब तक श्रमिकों की दशा में उल्लेखनीय सुधार नहींहुआ, न ही उनका शोषण रुका। इसके पीछे कारण यह है कि हिंदुस्तान में श्रम के महत्व पर केवल व्याख्यान दिए जाते हैं, लेख लिखे जाते हैं, लेकिन मेहनत की कद्र नहींहोती। इसलिए निराला वह तोड़ती पत्थर जैसी कविता लिखते हैं और समाज उसे पढ़ कर, तारीफ करते हुए किनारे रख देता है। उस कविता में मेहनतकश स्त्री के लिए जो भाव प्रकट किए गए हैं, उसे ग्रहण करने की फुर्सत आत्मकेन्द्रित समाज को नहींहै। श्रमिकों के प्रति समाज का ध्यान तभी जाता है, जब वे अपनी किसी मांग को लेकर हड़ताल करते हैं या वे कारखाने में किसी गंभीर लापरवाही का शिकार हो दुर्घटनाग्रस्त होते हैं। श्रमिक किस दशा में रहते हैं, उनके बच्चे किन स्कूलों में पढ़ते हैं या पढ़ पाते हैं या नहीं, उन्हें किस किस्म की स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया हैं, इसके बारे में व्यापक समाज उदासीन ही है। हां, अगर इस समाज को इमारतें खड़ी करवानी हों या सड़क बनवानी हो या अपने घर के बाहर का कूड़ा साफ करवाना हो, नालियों को साफ करवाना हो, बिजली-पानी का काम करवाना हो, घरों में सफेदी करवानी हो, तो उसे श्र्रमिक फौरन याद आते हैं। उनसे मोलभाव करके काम करवाया जाता है, कोशिश की जाती है कि मजदूरी कम से कम करवाई जाए। अगर इनसे मामूली चूक हुई तो पैसे काटने में भी देर नहींकी जाती।
यह देखकर अच्छा लगा कि देश के प्रधानमंत्री ने श्रम और सत्य को समान तुला पर रखते हुए दोनों का समान महत्व निरूपित किया है। श्रमेव जयते योजना के तहत जो मुख्य प्रावधान लागू किए गए हैं, उनसे उम्मीद बंधी है कि श्रमिकों की स्थिति में सुधार होगा साथ ही कार्यकुशल युवाओं की नई फौज भी तैयार होगी। जिस तेजी से भारत सहित विश्व के बहुत से देशों में औद्योगिकीकरण बढ़ रहा है, उसमें इन उद्योगों को प्रबंधन की डिग्री लिए लोगों के साथ-साथ कुशल कारीगरों, श्रमिकों की जरूरत भी होगी। मेक इन इंडिया के तहत भारत में ही कई कारखाने लगाए जाएंगे। इसलिए अब सबका ध्यान आईटीआई जैसे संस्थानों में पढऩे वाले युवाओं पर जा रहा है। यह खुशी की बात है कि इन नौजवानों के समक्ष रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होंंगे। भविष्य निधि ग्राहकों के लिए यूनिवर्सल एकाउंट नंबर, श्रम सुधारों के लिए एकीकृत श्रम पोर्टल और यूनिफाइड लेबर इन्सपेक्शन स्कीम की शुरुआत भी की गई है। अप्रेंटिस प्रोत्साहन योजना के तहत लाखों प्रशिक्षुओं के लिए मानदेय बढ़ाने व नए तरीके के प्रशिक्षण देने की तैयारी की जा रही है। कुल मिलाकर भाजपा सरकार की पिछली कुछ योजनाओं की तरह श्रमेव जयतेे भी लोकलुभावन व आकर्षक पैकेजिंग में जनता के सामने प्रस्तुत किया गया है। जिसकी शुरुआत में सब कुछ इतना अच्छा दिख रहा है मानो इस देश में श्रमिकों के दिन बहुर गए हैं। लेकिन अन्य योजनाओं की तरह फिलहाल इसका परिणाम व प्रभाव जानने के लिए भी प्रतीक्षा करनी होगी। अभी देश को स्वच्छ होना है, गंगा को निर्मल होना है, श्रम की जीत होना है, आगे और कौन सी योजनाएं कतार में हैं, इसे जानने की उत्सुकता बनी हुई है।
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सुधार का सिलसिला

Sun, 19 Oct 2014 

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों में सुधार और व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की दिशा में आगे बढ़ रही है उससे लोगों का यह भरोसा मजबूत हो रहा है कि हालात बदलेंगे और पिछले करीब एक दशक में जो कुछ अपेक्षित होने के बावजूद नहीं हो सका वह अब होगा। मोदी सरकार की ओर से शुरू किए गए सुधारों के सिलसिले की ताजा कड़ी है श्रमेव जयते कार्यक्रम। मेक इन इंडिया और स्वच्छ भारत अभियान के बाद श्रमेव जयते केंद्र सरकार का एक ऐसा महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है जो देश में कारोबारी माहौल सुधारने में सहायक बन सकता है। मोदी सरकार किस तरह कारोबारी माहौल में सुधार कर बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के लिए प्रतिबद्ध है, इसकी झलक मेक इन इंडिया और श्रमेव जयते कार्यक्रम से मिलती है। आम जनता को रोजगार तभी मिलेंगे जब उद्योग मजबूत होंगे और इसके लिए आवश्यक है कि उन अड़चनों को दूर किया जाए जिनके चलते कारोबारी माहौल प्रतिकूल बना हुआ है। पुराने और अप्रासंगिक हो चुके श्रम संबंधी कानून कारोबारी माहौल को सुधारने में एक बड़ी अड़चन हैं। मौजूदा श्रम कानून न तो श्रमिकों का भला कर पा रहे हैं और न ही उद्योगों का। इनमें सुधार वक्त की जरूरत है। मोदी सरकार इसके लिए सराहना की पात्र है कि उसने श्रमेव जयते कार्यक्रम की शुरुआत के साथ श्रम सुधारों का संकल्प भी प्रदर्शित किया। श्रम संबंधी अधिकांश कानूनों का निर्माण जब किया गया था तब परिस्थितियां सर्वथा भिन्न थीं। इनमें समय के लिहाज से परिवर्तन अनिवार्य ही नहीं, अपिरहार्य हैं। मौजूदा श्रम कानूनों के साथ भारत अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं सकता। पता नहीं क्यों पिछली सरकारों ने श्रम सुधारों की आवश्यकता महसूस करने के बावजूद उन पर अमल की प्रतिबद्धता क्यों प्रदर्शित नहीं की? यह संभव है कि गठबंधन राजनीति के अनेक दुष्प्रभावों में एक यह भी रहा हो कि राजनीतिक दलों के विरोध के कारण श्रम सुधारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सका हो।
इस पर आश्चर्य नहीं कि साम्यवादी चिंतन से निर्मित श्रम कानूनों में बदलाव के प्रस्ताव को कुछ राजनीतिक दल श्रमिक विरोधी कदम के रूप में चित्रित करने में देर न करें। श्रम सुधारों के संदर्भ में इस तरह का रवैया ठीक नहीं है। श्रमेव जयते कार्यक्त्रम का मूल उद्देश्य श्रम क्षेत्र में पारदर्शिता व जवाबदेही के साथ इंस्पेक्टर राज का अंत करना है। यह जितना उद्यमियों में भरोसा पैदा करने वाला है उतना ही श्रमिकों के हितों का संरक्षण करने वाला भी। खुद प्रधानमंत्री ने श्रमेव जयते कार्यक्त्रम की शुरुआत करते हुए श्रमिकों को श्रमयोगी की संज्ञा देने के साथ उन्हें राष्ट्र निर्माता भी बताया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि श्रम से जुड़े मुद्दों को श्रमिकों के नजरिये से समझना होगा और नागरिकों के रूप में उन पर भरोसा करना होगा।
हमारे उद्योग जिस हालत में हैं उसे उत्पादकता की दृष्टि से निराशाजनक ही कहा जाएगा। उत्पादकता बढ़ाना हमारी प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए, क्योंकि उत्पादकता के क्षेत्र में अन्य देशों से लगातार पिछड़ने के कारण भारत को कई स्तरों पर नुकसान उठाना पड़ रहा है। एक तो जरूरी वस्तुओं की अपेक्षित आपूर्ति नहीं हो पा रही है और दूसरे, उद्योगीकरण के अनुकूल वातावरण नहीं बन पा रहा है। यह स्थिति तब है जब हमारे देश में उद्योगों में श्रमिकों की संख्या आवश्यकता से च्यादा है। उद्योगों के संदर्भ में बहस का एक विषय यह भी है कि तकनीक अथवा मशीनों का किस हद तक इस्तेमाल किया जाए? इस बहस का आधार मशीनों को मानव श्रम के मुकाबले खड़ा कर देना है। सच यह है कि यदि भारत को उत्पादन-उत्पादकता के मामले में अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में आना है तो कुशल श्रमिकों के साथ-साथ आधुनिक तकनीक और मशीनों की भी आवश्यकता होगी। उत्पादन के साथ-साथ सेवा संबंधी क्षेत्र में भी सुधार की भी आवश्यकता है, विशेषकर इसमें काम करने वाले लोगों के कार्य-व्यवहार के संदर्भ में। सेवा क्षेत्र के तहत जिन कर्मचारियों का सीधा संपर्क आम जनता से होता है उन्हें अपना काम कुशलता से करना सीखना होगा। ग्राहकों के साथ संपर्क एक कला है, जो सेवा क्षेत्र में सफलता का बुनियादी आधार है। यह अच्छी बात है कि मोदी सरकार उत्पादन और सेवा क्षेत्र की कमियों को भलीभांति समझ रही है और उन्हें दूर करने का संकल्प भी प्रदर्शित कर रही है। मेक इन इंडिया अभियान, श्रमेव जयते योजना अथवा कौशल विकास के कार्यक्रमों पर यदि सही तरह अमल हो सके तो भारत में उद्योगों की एक दूसरी ही तस्वीर उभर सकती है।
अब यह कोई रहस्य नहीं कि संप्रग सरकार ने उद्योगीकरण को गति देने और श्रम कानूनों में सुधार के मोर्चे पर कागजी खानापूरी ही की। उसकी नीतियों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता था कि वह उद्योगीकरण के ढांचे को बुनियादी रूप से बदलने की इच्छा रखती थी। मोदी सरकार केंद्रीय शासन की इच्छाशक्ति की इसी कमी को पूरा करती दिख रही है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों से संबंधित आचार संहिता के चलते केंद्र सरकार पिछले एक माह में इस दिशा में कोई बड़ी पहल नहीं कर सकी है, लेकिन अब आम जनता यह उम्मीद कर सकती है कि बदलाव का सिलसिला न केवल कायम रहेगा, बल्कि तेजी से बढ़ेगा भी। दरअसल ऐसा करने से ही निराशा के वे बादल छंटेंगे जो संप्रग सरकार की निष्क्रियता और निर्णयहीनता के कारण देश के औद्योगिक माहौल पर छा गए थे और जिसके चलते भारत की छवि भी प्रभावित होने लगी थी। हालात बदलने के लिए मोदी सरकार को कानूनों में बदलाव-सुधार करने के साथ-साथ प्रशासनिक सक्रियता भी प्रदर्शित करनी होगी। बदलाव का असर उद्योगों के साथ-साथ उनमें काम करने वाले श्रमिकों पर भी नजर आना चाहिए।
चूंकि यह आवश्यक है कि आम जनता अपने आस-पास चीजें बदलती हुई महसूस करे इसलिए मोदी सरकार को बिगड़ी व्यवस्था को इस ढंग से दुरुस्त करना होगा ताकि उनका असर नीचे तक दिखाई दे। सरकार को बड़े नीतिगत फैसले लेने के साथ ही लंबित परियोजनाओं को तेजी के साथ आगे बढ़ाना होगा। भारत की विकास गाथा ठहर जाने की एक बड़ी वजह परियोजनाओं का शिथिल अथवा ठप हो जाना है। इन परियोजनाओं की न सिर्फ नए सिरे से सुधि लेनी होगी, बल्कि उन पर अमल का रोडमैप भी तैयार करना होगा। यह सही है कि कई परियोजनाओं के मामले में केंद्र सरकार केवल नीतिगत निर्णय लेने तक सीमित है, क्योंकि उनका क्रियान्वयन राच्यों के हाथों में है, लेकिन उद्योगों के अनुकूल वातावरण कायम करने और लोगों के बीच विकास का भरोसा बहाल करने के लिए केंद्र सरकार को इस तरह सक्त्रिय होना होगा जिससे राच्य सरकारें भी उसके साथ कदम मिलाती दिखें। केंद्र सरकार को अपनी हर पहल के बारे में यह देखना ही होगा कि उसका क्रियान्वयन जमीनी स्तर पर हो। जिस स्वच्छता अभियान की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री ने की उसके प्रति प्रशासनिक तंत्र और सफाईकर्मियों का रवैया बहुत सकारात्मक नहीं है। मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रशासन के ऊपरी स्तर पर जो दबाव बनाया गया है उसका असर सबसे नीचे की सीढ़ी पर भी नजर आए। यही बात केंद्र सरकार के अन्य सभी कार्यक्रमों और योजनाओं पर लागू होती है।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]
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लूट की संस्कृति में श्रम का मोल

विनोद कुमार

जनसत्ता 17 अक्तूबर, 2014: आमिर खान की फिल्म ‘पीपली लाइव’ के अंत में यह जानकारी दी गई कि 1991 से 2001 तक अस्सी लाख किसानों ने किसानी छोड़ी। यह फिल्म जो बताना चाहती है, वह आज से सत्तर वर्ष पूर्व प्रेमचंद अपनी कहानी ‘कफन’ में बता चुके हैं। वह यह कि हमारे समाज में मानवीय श्रम की जो कीमत रह गई है, उसके चलते ऐसे संवेदनहीन मनुष्य पैदा हो रहे हैं, जो कफन के पैसे से शराब पी जाते हैं। प्रेमचंद की एक और कहानी ‘पूस की रात’ भी हमें इसी यथार्थ से परिचित कराती है कि आज की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में श्रम का कोई मोल नहीं और आदमी देर-सबेर श्रम करने से ही बेजार हो जाता है। याद कीजिए पूस की रात में मचान पर बैठा किसान, पिछले पहर में सो जाता है और सुबह जब उसकी नींद पत्नी के शोरगुल से खुलती है, तो वह देखता है, पूरी फसल जानवर चट कर चुके हैं। लेकिन भीतर से वह खुश होता है, चलो अब ठंड की रात में खुले मचान पर सोना तो नहीं पड़ेगा।
ये कहानियां अपने समय का यथार्थ कहती हैं। आज का यथार्थ तो और भी भीषण है। और कई बार जेहन को यह सवाल खरोंचता है कि आज की लूट की संस्कृति में मानवीय श्रम का क्या मोल रह गया है? क्यों कोई श्रम करना चाहे? हमने कहावत बनाई है कि मेहनत का फल मीठा होता है। क्या वास्तव में परिश्रम- हमारा आशय शुद्ध मानवीय श्रम से है- से हम दो वक्त की रोटी जुटाने के सिवा कुछ भी हासिल कर सकते हैं? मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सकते हैं?
ओड़िशा का आदिवासीबहुल इलाका मनीगुड़ा रायगढ़ा जिले का एक प्रखंड है। यह गांव नियमगिरि पहाड़ी शृंखला की तराई में है। पहाड़ों पर डोंगरिया कोंध रहते हैं, जो सैकड़ों किस्म के फल और सब्जियां उगाते हैं। अभी अन्नानास का मौसम है। पता नहीं दिल्ली में किस भाव है, लेकिन वे ढेर में उसे महज आठ-दस रुपए में बेच कर वापस लौट जाते हैं। वही अन्नानास पंद्रह से बीस रुपए में बिकता है स्थानीय बाजार में। फेरी वाले जब उसे चार टुकड़ों में काट कर और थैली में रख कर स्टेशन पर बेचते हैं तो एक अन्नानास चालीस रुपए में बिकता है। जूस की दुकान में एक अन्नानास से चार गिलास जूस अस्सी रुपए में बिकता है। और कॉरपोरेट जगत तो पैकिंग और प्रचार के बल पर उसे सैकड़ों रुपए में बेचता है।
यानी, जो खून-पसीना बहा कर अन्नानास को उगाता है, उसे तो उचित मूल्य नहीं मिलता, उससे ज्यादा फायदा उसका करोबार करने में है, चाहे वह सड़क पर फेरी लगाने वाला हो या व्यापारी। इसलिए उत्पादन प्रक्रिया और कारोबार में सबसे अहम भूमिका निभाने वाला किसान विपन्न रह जाता है। आदिवासी एक अलग तरह के लोग हैं। उन्हें इस दुनियादारी से कोई मतलब नहीं। लेकिन जो थोड़े भी समझदार हुए, या थोड़ी पढ़ाई-लिखाई की, उनकी पीढ़ी अब किसानी नहीं करना चाहती।
इस आदिवासीबहुल इलाके में कपास की खेती होती है। हाल की बारिश के बाद एक बार फिर किसान हल-बैल लेकर निकल पड़े। मैं करीब जाकर उनमें से एक से मिला, जिसका नाम पापा राव है। आंध्र प्रदेश से जुड़े इलाके में रहने की वजह से शायद उसने अपने नाम में राव जोड़ लिया, लेकिन वे उस समूह के आदिवासी हैं, जो सुदूर आंध्र के आरकू वैली तक फैले हुए हैं। मैंने उनसे कपास की खेती के बारे में जानना-समझना चाहा। उस समय बात नहीं हो सकी, तो शाम को उनकी बस्ती गया। आठ गुणे आठ के दो छोटे-छोटे कच्चे-पक्के कमरे। पीछे रसोई घर, आंगन, जिसमें लगी थी लकड़ियों की टाल। वे जमीन पर ही तौलिया बिछा कर सोए हुए थे। दिन भर के श्रम से थके हुए। मेरे बुलाने पर जगे।
उन्होंने बताया कि दो एकड़ जमीन है उनके पास। अभी बोएंगे तो आठ महीने में फसल तैयार। एक एकड़ में तेरह-चौदह क्विंटल कपास। प्रति क्विंटल पांच हजार कीमत, यानी एक लाख चालीस हजार का माल। लेकिन खर्च भी है। किसी मालिक से वे बीज लाते हैं। आठ सौ रुपए में एक पैकेट, लेकिन चुकाते हैं बारह सौ रुपए। फसल भी वही खरीद लेता है। उन्हें मलाल नहीं। उधारी देगा तो सूद लेगा ही। इसके अलावा पौधों की सुरक्षा, मिट्टी चढ़ाना, खाद, पानी, दवा। यानी बमुश्किल उनके हाथ में पचास-साठ हजार रुपए प्रतिवर्ष आते हैं। वे इतने से संतुष्ट हैं। उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं।
लेकिन आदिवासी जमीन को लेकर ओड़िशा में जो लूट का मंजर है, उसे एक नजर देखिए और फिर आंकिए मनुष्य के श्रम का मोल। कैग की पिछली रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ था कि ओड़िशा औद्योगिक विकास निगम ने हाल के वर्षों में 29769.48 एकड़ निजी जमीन और 16963.41 एकड़ सरकारी जमीन उद्योगपतियों को आबंटित की।
इनमें से बावन वैसे कॉरपोरेट हैं, जिनके साथ सरकार ने एमओयू किए थे और चौवन ऐसे, जिनके साथ कोई एमओयू नहीं हुआ था। आदिवासी किसानों से अधिकतम पचास हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से कॉरपोरेशन ने जमीन अधिग्रहीत की, देश के विकास के नाम पर और उद्योगपतियों को बेची करीब दो लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से। यानी कॉरपोरेशन ने प्रति एकड़ डेढ़ लाख रुपए कमाए।
फिर उद्योगपतियों ने क्या किया? उसी जमीन को बैंक के पास रेहन रख कर प्रति एकड़ दो करोड़ का कर्ज ले लिया। कारखाना तो पता नहीं कब लगेगा, लेकिन सबने धंधा कर करोड़ों रुपए बना लिए। तरह-तरह की मंजूरी लंबित हैं। मोदी के सत्ता में आते ही इसलिए कॉरपोरेट जगत की तरफ से मांग की गई कि उन्हें जल्द से जल्द मंजूरी दी जाए, ताकि विकास को गति मिले, कॉरपोरेट जगत का जो पैसा फंसा हुआ है, उसे गति मिले, वरना अर्थव्यवस्था ठप हो जाएगी। लेकिन अगर वे पैसा न लौटाएं तो क्या होगा? अधिक से अधिक वह जमीन, जो उन्होंने रेहन रखी, जब्त हो जाएगी!
कैग ने आश्चर्य व्यक्त किया है कि बैंकों ने कंपनियों को कर्ज किस आधार पर दिया, क्योंकि एनओसी उन्हें सरकार ने नहीं दी थी, कॉरपोरेशन ने दे दी और उसी आधार पर वे बैंक से कर्ज लेने में सफल रहे। इनमें से अधिकतर स्टील, पावर, एल्युमीनियम आदि की कंपनियां हैं। यह उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार का मामला है। लेकिन जांच और त्वरित कार्रवाई में रुचि किसे है? इस तरह का भ्रष्टाचार शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व की मिलीभगत से ही होता है। कोई शक हो तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक यूनियन के अधिकारियों के हाल में आए उस बयान पर गौर कीजिए, जिसमें कहा गया है कि 2014 मार्च तक 1,30,360 करोड़ की राशि ‘बैड डेबट्स’ यानी ‘नॉन परफारमिंग एसेट’ के खाते में डाल दी गई है। यह विशाल धनराशि बैंकों से कॉरपोरेट जगत ने ही उठा रखी है और देर-सबेर सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के मुनाफे से उसकी भरपाई करेगी।
स्विस बैंक से काला धन वापस लाने की हुंकार से चुनाव लड़ने वाली सरकार उन उद्योगपतियों के नाम बताने के लिए भी तैयार नहीं, जो सार्वजनिक बैंकों का अरबों रुपया दाबे बैठे हैं। अब जरा सोचिए, लूट के इस भयानक मंजर में उस गरीब किसान के परिश्रम का भला क्या मोल रह जाता है? समझदारों की नजर में तो वह बेवकूफ ही है, जो जमीन से चिपका हुआ है। मगर मामला सिर्फ किसान का नहीं। हमारे समाज में मानव श्रम की कभी कीमत नहीं रही।
हर तरह के शारीरिक श्रम की कीमत हमारे देश में मिट््टी समान है। और यह सदियों से चला आ रहा है। हमने एक ऐसी वर्णवादी व्यवस्था कायम कर रखी है, जिसमें हर तरह का श्रम शूद्र करता है। भूमिहीन किसान, मझोले किसान, बरतन बनाने वाला कुम्हार, जूते सीने वाला मोची, सफाईकर्मी, कपड़ा बनाने वाला जुलाहा, सब वर्ण-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं और सबके सब सर्वहारा। उनके पास बसने के लिए भी कभी अपनी जमीन नहीं रही।
आदिवासी समाज के पास अगर थोड़ी जमीन रह गई, तो इस वर्णवादी व्यवस्था से बाहर रहने की वजह से। लेकिन अब उनके जल, जंगल, जमीन पर आक्रमण तीव्र हो गया है। बड़ी संख्या में वे विस्थापन के शिकार हो रहे हैं और उस व्यवस्था में शामिल होते जा रहे हैं, जिसमें हमारे देश का शूद्र रहता है। और चूंकि ऐसे लोगों की आबादी निरंतर बढ़ती जा रही है, इसलिए हर वक्त एक ऐसी लाचार जमात तैयार रहती है, जो कम से कम कीमत पर, कठिन से कठिन और बेगैरत परिस्थितियों में काम करने के लिए तैयार हो जाती है।
खुद दुनिया भर में सस्ते श्रम का ढिंढोरा पीट-पीट कर हमारी सरकारें उद्योगपतियों को अपने यहां बुलाती हैं। आओ, हमारे यहां खनिज संपदा सस्ती है। हमारे यहां मानव श्रम सस्ता है। हम आपको फ्रेंडली वातावरण देंगे। तमाम श्रम कानूनों को कूड़े में डाल देंगे। कभी आपसे नहीं पूछेंगे कि आप अपने यहां काम करने वाले मजूरों को क्या वेतन और सुविधा देंगे। आप उन्हें कब रखेंगे और कब हटाएंगे। बस आइए और पूंजी लगाइए। अपना साम्राज्य खड़ा कीजिए। बस, बदले में हमारे निहित स्वार्थों को पूरा करते रहिए। और स्थिति बिगड़ी तो हमारी पुलिस आपकी सुरक्षा के लिए है न! मारुति उद्योग के हालिया आंदोलन और उसमें हमारी सरकार की भूमिका इसी बात का जीवंत प्रमाण है।
हम यह भूल जाते हैं कि सस्ता श्रम, यानी कम पारिश्रमिक। कम पारिश्रमिक, मतलब मनुष्य से एक दर्जा नीचे जीने की परिस्थितियां। इन्हीं स्थितियों में नई औद्योगिक नीति और उदारीकरण का दौर आने के बाद हमारे यहां के उद्योगपति तेजी से दुनिया के अमीरों में शुमार होते जा रहे हैं। वे विदेशी कंपनियों को खरीद रहे हैं। मीडिया हमें गर्व से बताता है कि फलां उद्योगपति सौ अमीरों की सूची में शामिल हो गया। कुछ तो टॉप पर हैं, कुछ ऊपर के सात में। मगर क्या यह गर्व का विषय है? एक बड़ी आबादी को मुफलिसी और तंगहाली की स्थिति में ढकेल कर यह जो चंद लोगों की अमीरी पैदा हो रही है, क्या कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इस पर इतरा सकता है? और इन परिस्थितियों में अगर मेहनतकश आबादी का ईमानदार श्रम से विश्वास उठ रहा है, वह काम से ही बेजार होता जा रहा है तो इसके लिए कौन दोषी है?


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