Wednesday 24 September 2014

स्वच्छ भारत अभियान




आगे बढ़े स्वच्छता अभियान

नवभारत टाइम्स | Sep 13, 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित स्वच्छ भारत अभियान को आगे बढ़ाते हुए शिक्षा मंत्रालय ने स्वच्छ विद्यालय मुहिम चलाने की बात कही है। इस दिशा में ढंग से आगे बढ़ा गया तो आने वाली पीढ़ी स्वच्छता को एक जीवन मूल्य के रूप में अपना सकेगी। आज की हालत देख कर इस बात का अंदाजा मिलना मुश्किल है कि कभी हमारे समाज में स्वच्छता या शुचिता को कितना ऊंचा स्थान हासिल था। यह अलग बात है कि यह आग्रह तब मुख्य तौर पर ग्रामीण परिवेश के जीवन पर केंद्रित था। शहरी जीवन में उन संस्कारों को लागू करने के बारे में कभी सोचा भी नहीं गया। दूसरी बात यह कि शुचिता पर जोर प्राय: पूजा-पाठ की भावनाओं से जुड़ा था। नतीजा यह हुआ कि अपने परिवेश को साफ रखने की जरूरत आम तौर पर खुद को अशुद्ध न होने देने की इच्छा में बदलती गई। यही कारण रहा कि साफ-सफाई हमारी जीवन शैली का हिस्सा नहीं बन सकी। उलटे इसका जिम्मा समाज के एक खास हिस्से को सौंप कर उस समूह को ही कथित सभ्य समाज से काट दिया गया। इस तरह खुद को अशुद्ध होने से बचाने की भावना ने समाज के एक हिस्से को त्याज्य और दूसरे को स्वार्थी-स्वकेंद्रित बनाया। इस तरह पूरे समाज को अमानवीयता के गर्त में डाल दिया गया। आज भी हम अपने घर को तो साफ करते हैं, पर कूड़ा उसी घर के बाहर डाल आते हैं, बगैर यह सोचे कि इससे हमारे मोहल्ले में कितनी दुर्गंध, कितनी गंदगी फैलेगी। इस मानसिकता के अनगिन उदाहरण हमें रोज चलते-फिरते दिखते हैं। बड़ी-बड़ी महंगी गाड़ियों में बैठे लोग कार का शीशा जरा सा नीचे करके अंदर से खाली बोतल या चिप्स के खाली पैकेट बाहर सड़क पर गिरा देते हैं। सिगनल पर कुछ सेकंड के लिए गाड़ी रोकने का मौका मिले तो दरवाजा खोलकर आधा किलो गुटकेदार थूक सड़क पर निकाल देते हैं और धड़ल्ले से आगे बढ़ जाते हैं। यह हाल देश के सभी शहरों का है। देश भर के नगर निगम और नगरपालिकाएं इस मोर्चे पर लगभग नाकारा साबित हुई हैं। हां, कोई एक चमकता हुआ अपवाद अगर है तो वह है दिल्ली मेट्रो। अपने सीमित क्षेत्र में ही सही, पर इसने सफाई को एक सामाजिक मूल्य के रूप में न केवल स्थापित किया है बल्कि यात्रियों में इसकी स्वीकार्यता भी बनाई है। यह इस बात का ठोस सबूत है कि अगर दंड और प्रोत्साहन की दोतरफा नीति को प्रभावी ढंग से अमल में लाया जाए तो कुछ ही वर्षों में सरकारी दफ्तर, अस्पताल, सड़कें और गली-मुहल्ले- सब चमकते नजर आ सकते हैं।
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वैश्विक संकट

Sun, 28 Sep 2014

कूड़ा-करकट या कचरे की समस्या केवल विकासशील देशों से नहीं जुड़ी है। विकसित देशों में भी यह एक गंभीर मसला है। उनके यहां तेज उपभोक्तावाद और डिस्पोजेबल उत्पादों की अति खपत के चलते प्रति व्यक्ति कूड़ा पैदा करने का अनुपात अधिक है। यह बात और है कि सर्वाधिक कूड़ा पैदा करने के बावजूद अपने कुशल प्रबंधन, संसाधन और संस्कृति के बूते वे अपने देश व पर्यावरण को साफ रखने में सक्षम हैं। दुनिया के कई देश इसे पर्यावरण के साथ जोड़कर भी देखते हैं। साफ-सफाई के मसले पर भारत को दोतरफा लड़ाई लड़नी पड़ रही है। एक तो यहां गंदगी के निपटान वाले संसाधन नहीं है, लिहाजा लोग गंदगी फैलाने को विवश हैं। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है कि जन शौचालय न होने के चलते लोग दीवारों पर पेशाब करते हैं। दूसरी ओर बड़ी समस्या यह है कि यहां स्वच्छता का अभाव है। जो थोड़े बहुत संसाधन हैं, हम उनके इस्तेमाल से परहेज करते हैं। सामने कूड़ेदान या शौचालय दिख रहा है लेकिन कूड़ा ऐसे ही फेंक देंगे और कहीं भी निवृत हो लेंगे। भारत में खुले में शौच आज बड़ी समस्या है। स्वच्छ पेयजल का संकट है। तमाम जल स्रोत दूषित होते जा रहे हैं। ऐसे में साफ-सफाई रखकर ही हम राष्ट्र को स्वस्थ रख सकते हैं। विभिन्न देशों में गंदगी से निपटने के लिए उठाए जाने वाले कदम इस तरह हैं।
कूड़ेदान
कई देशों में जगह-जगह कूड़ेदान रखे जाते हैं। सभी सार्वजनिक स्थलों, सड़कों आदि पर इन्हें प्रशासन द्वारा रख दिया जाता है। स्वच्छता की संस्कृति विकसित कर चुके ये लोग अपने कूड़े को इसमें डाल जाते हैं जिसे स्थानीय काउंसिल द्वारा उठवा लिया जाता है। ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसा प्रयोग नहीं किया गया है, लेकिन जनता से लेकर प्रशासन तक की उदासीनता इसे विफल कर देती है।
अभियान
कई बार स्वयंसेवक विभिन्न संगठनों के सहयोग से गलियों और सड़कों पर पड़े कूड़े को उठाते हैं। सफाई अभियान चलाए जाते हैं जिनके तहत एक पूरे इलाके की सभी गंदगी को साफ किया जाता है। उत्तरी अमेरिका में राजमार्गो को अपनाने का कार्यक्रम चलता है। इसके तहत कंपनियां और संगठन सड़क के एक हिस्से को साफ रखने की प्रतिबद्धता जाहिर करते हैं। केन्या के एक शहर में ऐसे कूड़े से कलाकृतियां बनाकर बेची जाती हैं।
स्थलों की देखरेख
कई देशों में तकनीक के सहारे गंदगी फैलाने वालों पर निगाह रखी जाती है। जापान में जियोग्राफिक इंफार्मेशन सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है।
कानून
कुछ देशों में कंटेनर डिपोजिट कानून बनाए गए हैं। इसके तहत लोगों को कूड़ा जमा करने के लिए प्रेरित किया जाता है, बाद में अलुमिनियम कैन, शीशे व प्लास्टिक की बोतलों आदि के लिए लाभ भी पहुंचाया जाता है। जर्मनी, न्यूयार्क, नीदरलैंड्स और बेल्जियम के कुछ हिस्से में इस तरह के कानून लागू हैं। इस कानून के चलते जर्मनी के किसी सड़क पर कैन या प्लास्टिक की बोतल नहीं दिखाई देती। नीदरलैंड्स में भी कूड़े की मात्रा में अप्रत्याशित गिरावट आई।
सजा
कई देशों में कूड़ा और गंदगी फैलाने वालों के लिए सख्त दंड का प्रावधान है।
अमेरिका: 500 डॉलर का अर्थदंड, सामुदायिक सेवा या दोनों हो सकती है। अधिकांश राजमागरें और पार्को के लिए यह सजा 1000 डॉलर या एक साल की जेल है।
ब्रिटेन: दोषी साबित होने पर अधिकतम 2500 पौंड का अर्थदंड लग सकता है।
ऑस्ट्रेलिया: राज्यों के स्तर पर कानून। अर्थदंड का भी प्रावधान।
नीदरलैंड्स: गलियों में कूड़ा फेंकने पर पुलिस जुर्माना कर सकती है।
सिंगापुर: 1965 में स्वतंत्र हुआ देश आज प्रति व्यक्ति आय के मामले में अमेरिका सहित कई विकसित देशों के कान काटे हुए हैं। तीसरे पायदान पर। बताने को देश के पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं। पेयजल के लिए भी मलेशिया पर निर्भर। कहीं भी कूड़ा फेंकने पर 200 डॉलर का अर्थदंड। कोई भी दलील नहीं सुनी जाएगी। च्युंगम पर प्रतिबंध। बिक्री पर भी सजा हो सकता है। अवारा कुत्ते यहां नहीं पाए जाते।
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कूड़े के रूप में दुनिया में सर्वाधिक फेंका जाने वाला सामान सिगरेट के टोटे हैं। 4.5 ट्रिलियन टोटे सालाना फेंके जाते हैं। सिगरेट के इन बचे हुए टुकड़ों के अपक्षय होने का समय अलग-अलग है। कुछ के अपक्षय होने में पांच साल तो कुछ में 400 साल तक लग जाते हैं।
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स्वच्छ स्वस्थ भारत

Sun, 28 Sep 2014
कसर
गंदगी फैलाना मानो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो। सरे राह चलते कहीं भी थूक देना, पान-खैनी और गुटखे की पीक उगल देना, खाली हुए पैकेट-प्लास्टिक थैली- बोतल या कैन को बिना झिझक यूं ही हवा में उछाल देना जैसे हमारी शान का प्रतीक हो। ऐसा करना हम सबको बहुत सुकून देता है। ऐसा करते हुए हम यह किंचित मात्र नहीं सोचते कि इसका दुष्प्रभाव क्या है।
असर
बचपन में साफ-सफाई को लेकर हम सबको नसीहतें मिली होंगी कि कुत्ता भी जहां बैठता है, वहां पूंछ से साफ कर लेता है। हम ऐसी तमाम नसीहतों को भुला बैठे हैं। शायद इसके पीछे हमारी यह मानसिकता काम करती है कि इस जगह से हमारा क्या लेना देना। गंदी हो मेरी बला से। हमारा घर-ऑफिस तो साफ ही रहता है। नहीं.. इसी मानसिकता को तो बदलने की जरूरत है। जिस स्थान को आप गंदा करते हैं वहां कोई और उठता-बैठता है। हर साल हम आप अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा बीमारियों पर खर्च कर देते हैं। ऐसे में अगर अपने आसपास को हम साफ सुथरा रखेंगे तो एक तो नकद बचत स्पष्ट दिखेगी। हमारे परिजन स्वस्थ रहेंगे। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ दिमाग वास करेगा और अच्छे विचार, संस्कार पुष्पित पल्लवित होंगे। इसी क्रम में पूरा देश आगे बढ़ सकता है।
सफर
साफ-सफाई को सबसे बड़ा काम बताने वाले महात्मा गांधी की जयंती से सरकार स्वच्छ इंडिया अभियान की शुरुआत करने जा रही है। अक्टूबर, 2019 तक के पांच वर्ष के अंतराल में समूचे देश को स्वच्छ करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए दो लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इसके तहत पूरे देश में साफ-सफाई को बढ़ावा देने वाले संसाधनों का निर्माण कराया जाएगा और एक संस्कृति विकसित करने के लिए लोगों को जागरूक किया जाएगा। सरकार की नियति साफ है और मंशा एकदम स्पष्ट। जरूरत है लोगों के खुलेमन से इस अभियान से जुड़ने की। कब तक साफ-सफाई का जिम्मा सरकार पर छोड़ते रहेंगे। कब तक संसाधनों का रोना रोते रहेंगे। मसला बाहरी के साथ-साथ आंतरिक सफाई का भी है। ऐसे में अपनी गंदगी को लेकर दुनिया में जगहंसाई का पात्र बनने वाले भारत को स्वच्छ और निर्मल बनाने के लिए अपनी सोच और संस्कृति में बदलाव लाना आज हमारे लिए सबसे बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या सिर्फ सरकारी संसाधनों के बूते स्वच्छ भारत की परिकल्पना संभव है?
हां 19 फीसद
नहीं 81 फीसद
क्या कूड़े को कहीं भी फेंकने से पहले आप विचार करते हैं?
हां 87 फीसद
नहीं 15 फीसद
आपकी आवाज
प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान चलाकर एक उदाहरण पेश किया है। जिसे पूरा करना हर भारतीय की जिम्मेदारी है। -चंदन सिंह
जब कूड़ा फेंकते हुए हर नागरिक को देश का ख्याल आएगा, तब वह कचरा कूड़ेदान में डालेगा। तभी भारत में बदलाव आएगा। -मधुराज कुमार
अपने घर को साफ रखने के साथ घर के बाहर भी सफाई किए जाने पर ध्यान देना होगा। -अश्विनी सिंह
बहुत से लोग लापरवाही के चलते कूड़े को सड़कों पर डाल देते हैं, जो हमारे लिए ही नुकसानदायक होता है। -इरा श्रीवास्तव
सरकारी संसाधन सिर्फ सुविधाएं मुहैया करा सकते हैं परंतु स्वच्छ भारत की संकल्पना सभी भारतीयों की जागरुकता व भागीदारी के बिना साकार रूप नहीं लेगी। देश को साफ-सुथरा रखना हम सबका फर्ज है। -सचिनकुमार7337@जीमेल.कॉम
हमें कहीं भी कूड़ा डालने से पहले यह सोचना चाहिए कि हम कूड़ा कहां फेक रहे हैं। इस पर सबसे पहले मच्छर आएंगे और फिर वायु प्रदूषण फैलेगा। -सिंघलप्राची1997@जीमेल.कॉम
खरी खरी
हर आदमी को खुद का सफाईकर्मी होना चाहिए।
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किसी परिवार के सदस्य खुद के घर को तो साफ रखते हैं लेकिन पड़ोसी के घर के बारे में उनकी कोई रुचि नहीं होती।
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स्वतंत्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्वच्छता
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इसे कूड़ा-कचरा नहीं, कीमत कहिए जनाब

Sun, 28 Sep 2014

आखिरकार जोश से लबरेज प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान ने भारतीयों को कूड़े और कचरे पर बात करने के प्रति प्रोत्साहित किया है। साथ ही यह सोचने पर भी विवश किया है कि समस्या कितनी गंभीर है। तो आइए और इसे खत्म करें। हर साल भारत में छह करोड़ टन कूड़ा पैदा होता है। चिंतन का मानना है कि कम से कम 20 फीसद बिना एकत्र किया कूड़ा बड़े शहरों और छोटे शहरों में यहां-वहां छितराया रहता है। जिन्हें एकत्र करके कूड़ाघर तक पहुंचाया भी जाता है वे अपने विषाक्त रसायनों से जल को और ग्रीन हाउस गैसों से वायु को प्रदूषित करते हैं। इसके अलावा मक्खी और मच्छरों के लिए यह स्थान स्वर्ग सरीखा होता है। दुर्गध बोनस है।
धरती को सुरक्षित रखते हुए कचरे से निपटने की कारगर व्यवस्था अपनाने के लिए हमें अमूलचूल बदलाव करने होंगे। हमारे प्रमुख मंत्रालयों (पर्यावरण और शहरी) नए कानून और नियम बनाने की प्रक्रिया में हैं, लेकिन इसका सबसे बड़ा खतरा यह है कि कचरे के प्रबंधन के प्रमुख स्तंभों से उनका बहुत सरोकार नहीं है। कचरे का कम होना ही कचरे के प्रबंधन की रीढ़ है। अगर कम कचरा पैदा करेंगे तो कम कचरे से ही निपटना होगा। इसीलिए कई शहरों में प्लास्टिक थैलियों पर पाबंदी है। हालांकि हमारे कचरे का कुछ हिस्सा विषाक्त होता है। लिहाजा उन्हें सामान्य तरीके से नहीं निपटाया जा सकता है। दुनिया भर में यह इसके लिए एक खास प्रक्रिया अमल में लाई जाती है। घातक पारा युक्त बैटरी, सीएफएल इत्यादि विषाक्त उत्पाद निर्माता कंपनियों के साथ इसके कचरे को निपटाने की जिम्मेदारी साझा की जाती है।
भारत के संदर्भ में समाधान तलाशने के साथ स्थानीय लोगों को सचेत करने किए जाने की भी जरूरत है। इनमें सब जगह पाए जाने वाले भारतीय पर्यावरण विशेषज्ञ 'कबाड़ी' को भी शामिल किया जाना चाहिए। कबाड़ी अपने कचरे का करीब 20 फीसद हिस्सा रीसाइकिल करता है। कंपोस्ट के लिए बाजार सृजित किए जाने की भी जरूरत है। अगर खत्म करने के लिए कम कचरा होगा तो प्रदूषण भी कम होगा। लेकिन इन सबको हमारे कानून और नियमों की मुख्यधारा में शामिल करना होगा। नगरपालिका स्तर के अधिकारियों की सोच में यह बैठाना होगा जिन्हें अल्प प्रशिक्षण और संसाधनों के साथ संकट के दौरान झोंक दिया जाता है।
अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए भी ऐसा करना बेहतर रहेगा, क्योंकि रीसाइक्लिंग से ऐसे छिपे तत्व मिलते हैं जिनका फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है। हमें एक आदर्श बदलाव की जरूरत है। जहां हम निपटान को महज कचरा प्रबंधन की जगह संसाधनों की कुशलता समझें। अब वह युग आ गया है जब किसी शहर की स्वच्छता का मानक इससे तय होगा कि वह अपने कचरे को कितना बेहतर तरीके से उठाता और कितने सुरक्षित रूप से वह उन्हें कूड़ाघर तक पहुंचाता है।
अहम सुझाव
* नगरपालिकाओं को यह समझने में मदद की जाए कि हर बेकार वस्तु एक संसाधन है।
* एक राष्ट्रीय सलाहकार निकाय हो, जो एक दूसरे क्षेत्र के विशेषज्ञों को जोड़े, यह सुनिश्चित करे कि नियमों का पालन हो रहा है, व्यापक साझेदारी के लिए नागरिकों को जोड़े।
* कचरे से जुड़े प्रदूषण की माप हो। सूचना आनलाइन की जाए।
* जागरूकता बढ़ाने पर निवेश किया जाए।
-भारती चतुर्वेदी [निदेशक, चिंतन एनवायरमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप]
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संसाधन के साथ संस्कृति का भी अभाव

:Sun, 28 Sep 2014

स्वच्छता के सबसे बड़े अभियान के क्रियान्वयन की दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत सारे कदम उठाए हैं। गांधी जयंती के दिन 2 अक्टूबर को केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए कोई सार्वजनिक अवकाश नहीं होगा और सभी सरकारी कर्मचारी मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान में अपनी भागीदारी निभाएंगे। यह सही समय पर चलाया गया अभियान है जो एक अच्छे इरादे से युक्त है, लेकिन सवाल यही है कि क्या यह सफल होगा और क्या स्वच्छ भारत का सपना पूरा हो सकेगा?
वर्ष 1903 में गांधीजी बनारस गए, जहां उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर को देखा। वहां के हालात देखकर उन्होंने टिप्पणी की, 'भनभनाती मक्खियों के झुंड और दुकानदारों द्वारा मचाया जाने वाला शोर निश्चित रूप से तीर्थयात्रियों के लिए बहुत ही असहनीय था'। इस संदर्भ में गांधीजी ने यह भी लिखा कि बावजूद इसके यहां लोग ध्यान और मेल-मिलाप के माहौल की अपेक्षा करते हैं जो स्पष्ट रूप से नदारद है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर सड़े हुए फूलों की दुर्गध आती है। इस क्रम में वह आगे लिखते हैं, 'मैं इस तीर्थस्थान के चारों तरफ भगवान की तलाश में घूमा, लेकिन यहां की गंदगी और अपवित्रता के बीच उन्हें ढूंढ़ पाने में विफल रहा'।
गांधीजी द्वारा स्वच्छता और सफाई के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित किए जाने के बावजदू आज 100 वर्षो बाद भी भारत में बहुत थोड़ा ही बदलाव आया है। यदि हमारे धार्मिक स्थानों अथवा तीर्थस्थलों की हालत ऐसी है तो कोई भी कल्पना कर सकता है कि हम भारतीय कितनी गंदगी अथवा अपवित्रता में रहते होंगे। यह भी कि हम गंदगी की कितनी कम परवाह करते हैं और हर ओर इसे फैलाने के प्रति उदारभाव रखते हैं। वास्तव में गंदगी फैलाना और कहीं भी थूक देना हमारी आदत में शुमार हो चुका है। हमारी सड़कें खुले गंदगी के स्थान में तब्दील हो चुकी हैं और पार्को की हालत भी कुछ ऐसी ही है। हमारे देश में स्वच्छता कभी भी प्राथमिकता नहीं रही और इस हेतु धन का अभाव भी एक प्रमुख समस्या है। स्वच्छता ऐसा कोई रिवाज नहीं है जिसे हम दिन अथवा सप्ताह के हिसाब से ध्यान दें। हमारी इस समस्या के मूल में स्वच्छता की संस्कृति का अभाव मुख्य है। यह भी कम हास्यास्पद नहीं है कि जो लोग हमारे आवास के चारों तरफ साफ-सफाई रखने का काम करते हैं वह खुद बहुत गंदगी में रहते हैं। कुल मिलाकर न केवल हमारे अपने जीवन में गंदगी और अपवित्रता होती है, बल्कि ऐसे मामलों में बहुत उदार रुख रखते हैं। सार्वजनिक जगहों पर पेशाब करना, खुले में शौच जाना, गंदगी, कूड़ा फैलाना और अपवित्रता जैसी चीजें शायद ही किसी की नजरों में न आती हों। इसे आप होटल, हॉस्पिटल, घरों, कार्यस्थलों, ट्रेनों, हवाई जहाजों और यहां तक कि धार्मिक स्थलों में भी देख सकते हैं। सबसे खराब बात यह है कि हम भारतीय इस मामले में बहुत सतही और रक्षात्मक हैं। कुछ वर्ष पहले डच अथवा हालैंड के एक राजनयिक ने मुझसे कहा कि आज तक मैं जहां कहीं भी रहा हूं उनमें नई दिल्ली सबसे खराब जगह है। यहां तक कि उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को कूड़ा घर करार दिया। दिल्लीवासी इन बातों की कभी परवाह नहीं करते। यहां तक कि पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी कहा कि यदि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाए तो हमारे शहर आसानी से इसे जीत सकते हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जहां कुछ देश, समाज और लोग स्वच्छता पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हैं वहीं कहीं पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता है। नार्वे के ओस्लो में लोगों की रोचक आदत है। यह शहर अपने कूड़े से ऊष्मा और बिजली पैदा करता है। इस प्रक्रिया में यह देश इतना माहिर हो चुका है कि यहां कूड़े की किल्लत पैदा हो गई है। जरूरत पूरी करने के लिए इसे कूड़ा ब्रिटेन सहित अन्य जगहों से आयात करना पड़ रहा है। कई उत्तरी यूरोपीय देशों में भी ऐसा ही होता है।
हममें से अधिकांश लोग गंदगी के लिए सरकारी एजेंसियों को दोष देते हैं। दोषारोपण एक राष्ट्रीय प्रवृत्ति बन गई है। एक ओर जहां कमजोर कानून है तो दूसरी ओर इनका क्रियान्वयन और भी अधिक लचर है। अपनी जवाबदेही को लेकर किसी को भी कानून का डर नहीं है। क्या इस बार कुछ अलग होगा? पूर्व के अनुभवों को देखते हुए कोई आश्चर्य नहीं कि यह अभियान भी किसी ऐसी ही नियति का शिकार हो जाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह अभियान 'गंदगी फेंकने से वातावरण ही नहीं, आत्मा भी मैली होती है' या 'सफाई में भगवान बसते हैं' जैसे नारों और खाली ख्वाहिशों तक नहीं सीमित रहेगा।
-आश नारायण रॉय [निदेशक, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, दिल्ली]
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बड़ी चपत

:Sun, 28 Sep 2014

विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक अपर्याप्त साफ-सफाई और स्वच्छता की हर साल भारत को 54 अरब डॉलर कीमत चुकानी पड़ती है। यह रकम 2006 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 6.4 फीसद के बराबर है। यही नहीं, यह चपत देश के कई राज्यों के कुल आय से भी अधिक है।
स्वच्छता के सही तरीके अपनाकर भारत 32.6 अरब डॉलर हर साल बचा सकता है। यह रकम 2006 में देश की जीडीपी के 3.9 हिस्से के बराबर है। इससे प्रतिव्यक्ति 1321 रुपये का लाभ सुनिश्चित किया जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जैसे माचिस की एक तीली संपूर्ण दुनिया को स्वाहा करने की ताकत रखती है उसी तरह बहुत सूक्ष्म मात्रा की गंदगी भी महामारी फैला सकती है। उदाहरण के लिए एक ग्राम मल में एक करोड़ विषाणु हो सकते हैं, दस लाख जीवाणु हो सकते हैं, एक हजार परजीवी हो सकते हैं और 100 परजीवियों के अंडे हो सकते हैं।
सफाई से कमाई
विश्व बैंक के शोध के अनुसार अगर शौचालय के इस्तेमाल में वृद्धि की जाए, स्वच्छता और साफ-सफाई के तरीके अपनाए जाएं तो स्वास्थ्य पर पड़ने वाले समग्र असर को 45 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है जबकि जल, लोगों के कल्याण और पर्यटन नुकसान पूरे टाले जा सकते हैं।
बड़ा बाजार
शोध के अनुसार भारत में स्वच्छता के एक बड़े बाजार की पर्याप्त संभावनाएं हैं। 2007-2020 के दौरान यह बाजार 152 अरब डॉलर का हो सकता है। इनमें से 67 अरब डॉलर (64 फीसद) इंफ्रास्ट्रक्टर, 54 अरब डॉलर (36 फीसद) प्रचालन और रखरखाव सेवाओं के लिए होगा। साफ-सफाई से जुड़े बाजार की सालाना वृद्धि 2007 में जहां 6.6 अरब डॉलर की है, 2020 में यह 15.1 अरब डॉलर होगी।
गंभीर नतीजे
अपर्याप्त साफ-सफाई और स्वच्छता के चलते लोग मारे जाते हैं। बीमारियां होती हैं। पर्यावरण प्रदूषित होता है। लोगों का कल्याण क्षीण होता है। इन सब परिणामों से से सब कोई वाकिफ होता है लेकिन खराब स्वच्छता के आर्थिक असर का आकलन अब तक ढंग से नहीं किया गया है।
किस मद में कितना
71.7 फीसद- स्वास्थ्य [38.49 अरब डॉलर]
0.5 फीसद- पर्यटन [0.26 अरब]
20 फीसद- समय बर्बादी [10.73 अरब]
7.8 फीसद- जल [4.21 अरब]
स्वास्थ्य पर असर
66 फीसद- डायरिया [25.5 अरब डॉलर]
1 फीसद- आंत्र संबंधी कृमि [0.31 अरब]
12 फीसद- एक्युट लोअर रेसपिरेटरी इंफेक्शन [4.6 अरब]
16 फीसद- अन्य [6.2 अरब]
0.2 फीसद- मलेरिया [0.08 अरब]
4 फीसद- खसरा [1.45 अरब]
1 फीसद- ट्रैकोमा [0.28 अरब]
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इनका मुंह तो बंद है लेकिन काम चालू

Sun, 28 Sep 2014

अपने बगीचों और आइटी कंपनियों के लिए मशहूर बेंगलूर पिछले कुछ साल से एक गलत वजह से जाना जाने लगा। कचरे से निपटने में बुरी तरह विफल रहने वाली यहां की बृहत बेंगलूर महानगर पालिका (बीबीएमपी) ने दुनिया का ध्यान खींचा। ऐसे में जहां यहां के आम लोग और उद्योगपति बीबीएमपी पर आरोप लगाने में व्यस्त थे, लोगों का एक समूह चुपचाप गंदे स्थलों की पहचान करके उनके सौंदर्यीकरण में मशगूल रहा। इस समूह की खास बात यह है कि ये लोग प्रवचन की जगह प्रयत्न में यकीन रखते हैं। यह है द अगली इंडियन समूह ।
लोग जहां कचरा फेंकते हैं, उसे ये काले निशान से क्रास करके पहचान करते हैं। वे उस स्थान का सौंदर्यीकरण कर देते हैं। इन सबके बावजूद समूह के सदस्यों को किसी प्रसिद्धि की भी भूख नहीं है। इनमें से अधिकांश अज्ञात ही बने रहकर केवल ब्लैक स्पॉट को सुंदर बनाना चाहते हैं। अभी तक शहर में इस समूह द्वारा 1154 स्थानों की पहचान करके उन्हें सुंदर बनाया जा चुका है। इस समूह का ध्येय वाक्य है, 'काम चालू मुंह बंद'। इनके काम से प्रभावित होकर बीबीएमपी ने कचरा फेंके जाने वाले स्थलों के सौंदर्यीकरण के लिए इनके साथ समझौता किया है।
संगठन की वेबसाइट पर लिखा है कि अब हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि देश की अधिकांश समस्याएं हम जैसे अगली इंडियंस के चलते हैं। किसी भी गली को देखो नागरिक मानकों की स्थिति दयनीय है। गंदगी के लगे अंबार को हम लोग सहते रहते हैं। इसके लिए न धन, न तंत्र और न ही यह समझने की जरूरत है कि यह कैसे होगा। यह केवल और केवल प्रवृत्ति और नजरिए के साथ सांस्कृतिक व्यवहार की बात है। अब हम अगली इंडियंस के लिए वक्त आ चुका है कि इस दिशा में कुछ करें। खुद को खुद से हम लोग ही बचा सकते हैं।
प्रेरक लोग
सिर्फ ऐसा ही नहीं है कि लोग गंदगी बिखेरने या फैली गंदगी को देख बुरा सा मुंह बनाकर निकल लेने में मशगूल हैं, इसी समाज के कुछ लोग चुपचाप गंदगी को साफ करने में भी जुटे हैं। इनका मुंह मास्क से बंद है लेकिन काम चालू है। हम सबको भी इनसे कुछ सीखना चाहिए।
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एक जरूरी अभियान

Thu, 02 Oct 2014

केंद्र सरकार की ओर से जोर-शोर से शुरू किए जा रहे स्वच्छ भारत अभियान को सफल होना ही चाहिए, क्योंकि इसमें पूरे देश का हित निहित है। देश के मान-सम्मान के साथ-साथ आम आदमी के अपने भले के लिए इस अभियान का सफल होना जरूरी है। यह आवश्यक है कि आम जनता इसे अपने अभियान के तौर पर ले। इसे सरकारी कार्यक्रम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह सरकारी कार्यक्रम है भी नहीं, लेकिन हालात ऐसे हैं कि मोदी सरकार को देश को साफ-सुथरा बनाने का काम एक तरह से अपने हाथ में लेना पड़ रहा है। औसत भारतीय अपने घर की साफ-सफाई के लिए कितना ही सजग क्यों न रहता हो, लेकिन सार्वजनिक स्थलों की सफाई को लेकर वह कुल मिलाकर बेपरवाह ही दिखता है। हालत यह है कि हमारे धार्मिक स्थलों में भी गंदगी के ढेर दिखते हैं। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि अगर कोई रोकने-टोकने वाला न हो तो साफ-सुथरे स्थलों में भी लोग कचरा फैलाने से बाज नहीं आते। यही कारण है कि भारत की गिनती उन देशों में होती है जहां सार्वजनिक स्थलों पर गंदगी का साम्राज्य रहता है। आर्थिक तौर पर देश का कद बढ़ने के बावजूद दुनिया के कई देशों में अभी भी भारत की छवि एक ऐसे देश की है जहां गंदगी जनित बीमारियों का प्रकोप छाया रहता है। सार्वजनिक स्थलों पर व्याप्त गंदगी के दुष्परिणाम कई रूपों में सामने आते हैं। गंदगी के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर केवल देश की छवि ही नहीं प्रभावित होती, बल्कि किस्म-किस्म की बीमारियां भी सिर उठाती रहती हैं। इन बीमारियों से न केवल लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि हजारों हजार लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं। इसके सामाजिक दुष्परिणाम भी सामने आते हैं और आर्थिक भी।
सार्वजनिक स्थलों में गंदगी की समस्या आज की नहीं है। हमारा देश इस समस्या से आजादी के पहले से ग्रस्त है और यही कारण रहा कि महात्मा गांधी ने गंदगी दूर करने के लिए भी अलख जगाई। आज यह अलख फिर जगाई जा रही है। यह आश्चर्यजनक है कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी सरकार ने वह नहीं सोचा जो मोदी सरकार ने न केवल सोचा, बल्कि उसे एक अभियान में बदल दिया। इस अभियान के तहत खुद प्रधानमंत्री सड़कों पर उतरकर झाडू लगाएंगे। नि:संदेह यह काम प्रधानमंत्री का नहीं है कि वह गंदगी के खिलाफ इस तरह झाडू लेकर सड़क पर उतरें, लेकिन आम जनता को प्रेरित करने के लिए इससे बेहतर और कोई तरीका भी नहीं हो सकता। जब प्रधानमंत्री के साथ-साथ उनके तमाम मंत्री और लाखों की संख्या में केंद्रीय सेवाओं के कर्मचारी स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत करने उतरे हैं तो आम जनता के लिए भी यह आवश्यक हो जाता है कि वह हर स्तर पर अपना योगदान दे। इस अभियान को इस रूप में आगे बढ़ाने की जरूरत है ताकि हर कोई यह समझे कि साफ-सफाई की जितनी जरूरत निजी जीवन में है उतनी ही सार्वजनिक जीवन में भी। गंदगी के प्रति बेपरवाह देश के रूप में भारत की छवि हमारे लिए एक दाग है और यह दाग तभी दूर होगा जब आम लोग सार्वजनिक सफाई को लेकर अपना मानसिकता बदलने के लिए तैयार होंगे।
[मुख्य संपादकीय]
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झाड़ू पोज से आगे

नवभारत टाइम्स| Oct 3, 2014,

गांधी जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत कर लोगों को अपने इर्द-गिर्द सफाई रखने की नसीहत दी है। प्रतीकात्मक तौर पर उन्होंने अपने साथी मंत्रियों के साथ सड़क पर झाड़ू लगाया। ऐसा करने वाले वे पहले राजनेता नहीं हैं। न ही इस तरह का सरकारी अभियान कोई पहली बार चलाया जा रहा है।

कभी नदी सफाई अभियान तो कभी किसी और नाम पर नेता न्यूज चैनलों में झाड़ू लिए दिखाई पड़ ही जाते हैं। लेकिन ऐसी तमाम कवायदों के बावजूद देश में साफ-सफाई कोई मुद्दा नहीं बन पाई है। आज दुनिया में भारत की छवि एक गंदे देश की है। भारत की मजबूत होती अर्थव्यवस्था, उसकी ताकत और भारतीयों की प्रतिभा की चर्चा के साथ यह भी जोड़ दिया जाता है कि भारत एक गंदा देश है।

पिछले ही साल चीन के कई ब्लॉगों पर गंगा में तैरती सड़ी-गली लाशों और भारतीय सड़कों पर पड़े कूड़े के ढेर वाली तस्वीरें छाई रहीं। इसे एक पड़ोसी की ईर्ष्या बताकर खारिज नहीं किया जा सकता। कुछ साल पहले इंटरनेशनल हाइजीन काउंसिल ने अपने एक सर्वेक्षण में निष्कर्ष निकाला कि औसत भारतीय घर बेहद गंदे और अस्वास्थ्यकर हैं।

काउंसिल ने सर्वेक्षण के लिए कमरों, बाथरूम और रसोई घर की साफ-सफाई को आधार बनाया था। उसके द्वारा जारी गंदे देशों की सूची में सबसे ऊपर वाला मुकाम मलयेशिया का था, और उसके ठीक नीचे भारत का नाम था। पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाता तो वो शर्तिया भारत को ही मिलता।

सफाई क्या वाकई भारतीय समाज के लिए कोई मुद्दा नहीं है? इस मामले में हमने महात्मा गांधी की भी नहीं सुनी। दरअसल, भारतीय जनमानस में सफाई को लेकर एक बुनियादी उलझन है। भारतीय संस्कृति का जोर सफाई के बजाय 'पवित्रता' पर है, जो या तो ईश्वर प्रदत्त होती है या व्यक्तिगत प्रयासों से अर्जित की जाती है।

अपने परिवेश को साफ-सुथरा और खुशहाल रखने के बजाय इसका जोर खुद को भीड़ से अलग रखने पर है। वर्ण व्यवस्था के साथ मजबूती से गुंथी हुई इस धारणा का व्यावहारिक रूप इस व्यवस्था की शक्ल में दिखा कि अस्पृश्य लोग नगर में कोई संकेत देते हुए प्रवेश करें, गले में हंडिया और पीछे झाड़ू लटकाए रहें। अपने ही समाज के कुछ लोगों को अमानवीय स्थितियों में डालकर भला पूरे समाज को साफ-सुथरा कैसे बनाया जा सकता था?

शायद इस बेफिक्रेपन का ही नतीजा है कि आज भी लोग-बाग अपने घर का कूड़ा बेहिचक किसी और के घर के सामने या सड़क पर फेंक देते हैं। सफाई को लेकर समाज की इस उदासीनता का भरपूर फायदा सरकारी तंत्र ने उठाया और इस काम के लिए बनी सारी संस्थाएं सफेद हाथी बनकर रह गईं।

भारतीय सफाई व्यवस्था का सूत्रवाक्य है- कि गंदगी एक जगह से उठाकर दूसरी जगह पहुंचा दी जाए। इसे बदला जा सकता है, लेकिन तभी, जब न सिर्फ नेता बल्कि सभी असरदार लोग झाड़ू पोज में फोटो खिंचाकर सुर्खरू होने का नाटक छोड़ें और अपने जीवन से लेकर कामकाज तक में सफाई को लेकर दिल से प्रतिबद्ध दिखें।
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सफाई की शुरुआत

02-10-14 08

जिस ‘स्वच्छ भारत’ अभियान की शुरुआत गांधी जयंती से हुई है, उसकी जरूरत के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का श्रेय भी देना ही होगा कि वह ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने सार्वजनिक सफाई को अपनी प्राथमिकता बनाया और स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोधन में इसे महत्व दिया। इस तरह के अभियान से एक फायदा यह होता है कि इसके उद्देश्य के प्रति लोगों में चर्चा होती है और जागरूकता आती है। लेकिन यह भी जरूरी है कि यह सिर्फ एक रस्म अदायगी और तस्वीर खिंचवाने का कार्यक्रम न बन जाए। सफाई की राह में असली चुनौतियां इस आयोजन के खत्म होने के बाद शुरू होती हैं। भारत में गंदगी की वजह आम नागरिकों से लेकर संभ्रांतों तक में इसे लेकर लापरवाही है। और सफाई सिर्फ झाड़ लगाने या शौचालय बनाने से नहीं हो जाएगी। सफाई की प्रक्रिया में एक-दूसरे से जुड़ी कई कड़ियां हैं, इनमें से एक भी कड़ी के न रहने से पूरी प्रक्रिया निर्थक हो जाती है। जैसे हम अब तक गंगा और यमुना के असफल सफाई अभियानों में देख सकते हैं। अरबों रुपये खर्च हो गए, लेकिन इन नदियों की जरा भी सफाई नहीं हो सकी। दुनिया में जो लगभग सौ करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं, उनमें से लगभग 60 प्रतिशत भारत में हैं। इसी से पता चलता है कि शौचालय बनाना कितना जरूरी है। लेकिन अब तक शौचालय बनाने के तमाम कार्यक्रम ज्यादा कामयाब इसलिए नहीं हुए, क्योंकि उनमें शौचालय बनाने की औपचारिकता भर थी। शौचालय बनाने जितना ही जरूरी उनका नियमित रखरखाव भी है। कई ग्रामीण इलाकों में शौचालय बनाने की मुहिम इसलिए नहीं चली, क्योंकि सेप्टिक टैंक के भर जाने पर उसका क्या किया जाए, इसकी न तो जानकारी थी और न ही कोई योजना। जरूरी यह है कि यदि सड़कों पर से कूड़ा हटाया जाए या शौचालय बनाया जाए, तो आगे भी उस गंदगी के प्रबंधन का सही इंतजाम हो। अगर शहरों की गंदगी नदियों में बहा दी गई या कूड़े के पहाड़ शहरों की सीमा के बाहर खड़े दिखते रहे, तो इस सफाई का कोई महत्व नहीं है। अभी हम जितनी सफाई करते हैं, उससे इकट्ठा होने वाली गंदगी को कहीं और छोड़ आते हैं, जहां वह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है। इसी तरह, औद्योगिक-व्यापारिक प्रदूषण के इंतजाम को भी इस अभियान का हिस्सा बनाना होगा, क्योंकि खेतों, जंगलों, नदियों को गंदा करने में उसकी भूमिका बड़ी है। सड़क पर कूड़ा फेंकने की व्यक्तिगत आदत से लेकर नदियों में शहरों के सीवर का पानी और औद्योगिक गंदगी बहाने की सांस्थानिक आदत तक कई कड़ियां हैं, जिन पर ध्यान देना होगा, तब हम देश की वास्तविक सफाई कर पाएंगे। भारतीय अपनी और अपने घर की सफाई तो कर लेते हैं, लेकिन घर की सीमा के बाहर गंदगी फैलाने में कोई संकोच नहीं करते हैं। इन आदतों को बदलने के लिए सरकार नहीं, बल्कि समाज को भी सक्रिय होना होगा। महात्मा गांधी ने सफाई को आजादी के आंदोलन का हिस्सा इसलिए बनाया था, क्योंकि समाज की बाहरी गंदगी उसके अंदर व्याप्त गंदगी को ही दिखाती है। गांधीजी सफाई को हमारे समाज में व्याप्त कुरीतियों और कमजोरियों को दूर करने का माध्यम बनाना चाहते थे। भारत में गंदगी की बड़ी वजह जाति-प्रथा है, क्योंकि उच्चवर्गीय लोग यह मानते हैं कि सफाई निम्न जातियों का काम है और ऊंची जाति के लोगों को यह काम नहीं करना चाहिए, चाहे कूड़ा उनके सामने फैला हो। हम उम्मीद करें, यह नया सफाई अभियान सिर्फ एक औपचारिकता नहीं रह जाएगा, बल्कि हमारे देश और समाज की वास्तविक सफाई कर पाएगा।
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स्वच्छ भारत का सपना

इस बार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर जिस तरह ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत हुई, वह बापू के अधूरे सपने को पूरा करने की मुश्किल लेकिन ईमानदार कोशिश है। इस अभियान का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने ठीक ही कहा कि महात्मा गांधी का ‘क्विट इंडिया’ का सपना तो पूरा हो गया, लेकिन उनके ‘क्लीन इंडिया’ के सपने को पूरा करने का दारोमदार हम पर है। जिस तरह प्रधानमंत्री ने राजनीतिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर इस अभियान को सफल बनाने की अपील की है, उससे साफ है कि देश को निर्मल बनाने के लिए वे पूरे देश को साथ लेना चाहते हैं। ऐसा जरूरी इसलिए भी है कि अलग-अलग सरकारों के देश को गंदगी मुक्त बनाने के प्रयास काफी हद तक असफल रहे हैं। सरकारें इस काम में आम लोगों को अपने साथ जोड़ने और उन्हें प्रेरित करने में विफल रही हैं। नतीजा सामने है कि देश कूड़े के ढेर से दबता जा रहा है। हमारे महानगर, मध्यम शहर, कस्बे और गांव सभी ओर गंदगी का नजारा दिखता है। इतना ही नहीं, जो नदियां हमारे लिए प्राकृतिक उपहार हैं और हमारी जीवनरेखा भी, उनकी दशा भी लगातार बदतर होती गई है। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री देश की सफाई के काम को जनांदोलन में बदलने की अपील कर रहे हैं, तो यह समय की मांग है। अभियान की शुरुआत बेहद प्रभावशाली रही है। प्रधानमंत्री ने जिस तरह मंगल मिशन की सफलता को रेखांकित करते हुए देशवासियों को इस कठिन काम में सफलता मिलने का यकीन दिलाया है, उससे तमाम लोग प्रेरित होंगे। सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें आम लोगों से लेकर अलग-अलग क्षेत्रों की सफल और नामचीन हस्तियों को जोड़ा जा रहा है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि खुद प्रधानमंत्री ने जिन नौ लोगों को इस अभियान से जुड़ने के लिए चुना उनमें कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री शशि थरूर का नाम भी है। इतना ही नहीं, सफाई के कार्य में योगदान करने वालों का जिक्र करते वक्त प्रधानमंत्री ने कांग्रेस सेवादल का भी नाम लिया। बहरहाल, इस अभियान की शुरुआत अपेक्षित रही है। अब जरूरी है कि दो अक्टूबर के बाद भी इसके प्रति सरकार और आम लोगों की संजीदगी कायम रहे। शहरों, कस्बों और गांवों की सफाई का काम तो प्राथमिकता पर है ही, कचरा प्रबंधन को लेकर भी तत्परता से पहल होनी चाहिए। शौचालय की उपलब्धता का मसला भी इसी से जुड़ा है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री करते भी रहे हैं। यह देखना अच्छा है कि सरकार देश को स्वच्छ बनाने के इस मिशन को न केवल अपना भरपूर वित्तीय समर्थन दे रही है, बल्कि कॉरपोरेट जगत से भी अपेक्षा की गई है कि वह सामाजिक दायित्व के तहत खर्च होने वाली अधिकांश राशि को भी सफाई के काम और शौचालय निर्माण पर व्यय करें। चूंकि प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत मिशन को पूरा करने के लिए वर्ष 2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती तक की समय सीमा निर्धारित कर दी है, लिहाजा जरूरी है कि कोई कसर शेष न रहे। यह हमारे समक्ष देश को गंदगी मुक्त कराने और ब्रांड इंडिया को चमकदार बनाने का सुनहरा मौका है।
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स्वच्छता का सवाल

जनसत्ता 3 अक्तूबर, 2014: गांधीजी के जन्म दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद सफाई अभियान में शामिल होकर स्वच्छता का जो संदेश दिया है, वह बापू की विरासत को सहेजने की दिशा में एक अहम कदम हो सकता है। गांधीजी आजादी के आंदोलन के दौरान जब राजनीति के मोर्चे पर अंगरेजों से जूझ रहे थे, तब भी अपने आसपास की साफ-सफाई को लेकर उतने ही सचेत रहते थे और सड़क पर चलते हुए गंदगी दिख जाने पर खुद उसकी सफाई में जुट जाते थे। यह उस इलाके के लोगों के लिए एक बड़ा संदेश होता था और इसका असर यह दिखता कि आसपास के लोग साफ-सफाई के काम में शामिल हो जाते थे। गांधीजी की उसी सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी खुद हाथ में झाड़ू उठाना जरूरी समझा, ताकि उसका संदेश सीधे जनता तक पहुंचे। लेकिन इसका महत्त्व तभी तक बना रह सकता है जब यह अपनी गंभीरता और निरंतरता नहीं खोए। ऐसी खबरें भी आर्इं कि भाजपा सरकार के कुछ मंत्री साफ-सुथरी जगहों पर जानबूझ कर बिखेरे गए कूड़े पर झाड़ू लगा रहे थे। जाहिर है, इस दिखावे का मकसद सिर्फ प्रचार पाना था और अगर यही हाल रहा तो इस अभियान का अंजाम भी पिछली सरकार द्वारा शुरू किए गए अभियान जैसा हो सकता है। खुले में शौच की समस्या पर काबू पाने के लिए हर घर में शौचालय के साथ-साथ स्वच्छता के संदेश को प्रचारित-प्रसारित करने के मकसद से यूपीए सरकार ने ‘निर्मल भारत’ अभियान चलाया था। प्रधानमंत्री की ताजा पहल को उसी का विस्तारित रूप कहा जा सकता है। मगर अब तक के अनुभव यही हैं कि ऐसे अभियान ईमानदारी और प्रतिबद्धता के अभाव में थोड़े ही समय बाद दम तोड़ देते हैं। सरकारी महकमों से लेकर समाज तक में उसे लेकर उदासीनता का भाव नजर आने लगता है।
यह छिपी बात नहीं है कि अपने घर को साफ रखने वाले ज्यादातर लोगों को इस बात की फिक्र नहीं होती कि उनके दरवाजे के बाहर फैली गंदगी बजबजाती रहती है और उसके लिए वे खुद भी जिम्मेदार होते हैं। दरअसल, यह मान लिया जाता है कि सफाई का काम सिर्फ सरकारी महकमों का है। लेकिन क्या यह अपने नागरिक कर्तव्यों से मुंह मोड़ना नहीं है? इसके अलावा औद्योगिक कचरा भी एक बड़ी समस्या है, जिसने आज हमारे देश की गंगा और यमुना जैसी कई नदियों का स्वाभाविक जीवन छीन लिया है। स्वच्छता या साफ-सफाई के प्रधानमंत्री के ताजा अभियान का विस्तार अगर औद्योगिक कचरे पर भी काबू पाने में होता है, तो यह पहल शायद ज्यादा सार्थक होगी। बहरहाल, यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री जिस स्वच्छता को आंदोलन बनाने की बात कर रहे हैं, उसी काम में लगे लाखों सफाईकर्मियों के बदतर हालात और वेतन या दूसरी सुविधाओं पर ध्यान देना सरकारों को जरूरी नहीं लगता। इसलिए इनकी समस्याओं का भी तत्काल हल निकाला जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल किले से हर घर में शौचालय की जरूरत पर जोर दिया था। यह खुले में शौच की समस्या का हल है। मगर कानूनन पाबंदी के बावजूद आज भी देश के कई हिस्से में एक खास जाति के बहुत सारे लोग हाथ से मैला साफ करने के काम में लगे हुए हैं। यह किसी भी सभ्य समाज को शर्मिंदा करने के लिए काफी है। इस समस्या को जड़ से खत्म किए बिना स्वच्छता का कोई भी संदेश अधूरा रहेगा।
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महात्मा का सपना, मोदी का मिशन

विश्लेषण अरुण तिवारी
एक थाने के बाहर झाड़ू लगाते प्रधानमंत्री, रेलवे स्टेशन की सफाई करते रेलमंत्री, सफाई के लिए पैतृक गांव गोद लेतीं जल संसाधन मंत्री, नाला साफ करते एक विपक्षी पार्टी के प्रमुख, सड़कों पर झाडू उठाये मुंबइया सितारे और ‘न गंदगी करूंगा और न करने दूंगा’ कहकर शपथ लेते 31 लाख केन्द्रीय कर्मचारी। दिखावटी हों, तो भी कितने दुर्लभ दृश्य थे ये! ‘नायक’ एक फिल्म ही तो थी, किंतु एक दिन के मुख्यमंत्री ने खलनायक को छोड़ किस देशभक्त के दिल पर छाप न छोड़ी होगी? इस पहल का विरोध करने वालों व दूसरी पार्टियों के लोगों को अपने से यह सवाल अवश्य पूछना चाहिए कि यह राजनीति हो, तो भी क्या नई तरह की राजनीति नहीं है? महात्मा गांधी ने भी तो शक्ति व सत्ता की जगह ‘स्वराज’ और ‘सत्याग्रह’ जैसे नये शब्द देकर नये तरह की राजनीति की कोशिश की थी। क्या इस राजनीति से गुरेज किए जाने की जरूरत है? एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने अभियान को अच्छी पहल कहा किंतु क्या गांधी को अपना बताने वाली कांग्रेस को उनके सपने के लिए हाथ में झाड़ू थामने से गुरेज की जरूरत थी? मोदी की छूत से महात्मा के सपने को अछूत माना लेना, क्या गांधी को अच्छा लगता? दिमाग के जालें साफ करें तो जवाब मिल जायेगा। बारह वर्षीय बालक मोहनदास सोचता था कि उनका पाखाना साफ करने ऊका क्यों आता है? वह और घर वाले अपना पाखाना खुद साफ क्यों नहीं करते? किंतु क्या133 बरस बाद भी हम यह सोच पाये? जातीय भेदभाव व छुआछूत के उस युग में भी मोहनदास ऊका के साथ खेलकर खुश होता था। हमारी अन्य जातियां, आज भी वाल्मीकि समाज के बच्चों के साथ अपने बच्चों को खेलता देखकर खुश नहीं होती। विदेश से लौटने के बाद बैरिस्टर गांधी ने भारत में पहला सार्वजनिक भाषण बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया। मौका था, दीक्षांत समारोह का। बोलना था शिक्षा पर किुंत गांधी को बाबा विश्वनाथ मंदिर और गलियों की गंदगी ने इतना व्यथित किया कि वह बोले गंदगी पर। सौ बरस बाद भी हम अपनी तीर्थनगरियों के बारे में वैसा नहीं सोच पाये। कितने ही गांधीवादी व दलित नेता, गर्वनर से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक हुए, स्वच्छता को प्रतिष्ठित करने का ऐसा व्यापक हौसला क्या किसी ने दिखाया? ऐसे में यदि बाबा विश्वनाथ की नगरी से चुने एक जनप्रतिनिधि ने बतौर प्रधानमंत्री वैसा सोचने का हौसला दिखाया, तो क्या बुरा किया? बापू को राष्ट्रपिता मानने वाले भारतीय जन को यदि मोदी यह बता सके कि राष्ट्रपिता की जन्मतिथि, सिर्फ छुट्टी मनाने, भाषण सुनने या सुनाने के लिए नहीं होती; यह अपने निजी- सार्वजनिक जीवन में शुचिता के आत्मप्रयोग के लिए भी होती है; तो क्या यह आह्वान नकार देने लायक है? भारत की सड़कों, शौचालयों व अन्य सार्वजनिक स्थानों में कायम गंदगी और अश्लील बातें, राष्ट्रीय शर्म का विषय हैं। इस
बाबत किसी भी सकरात्मक पहल का स्वागत होना चाहिए। यह पहल संकेतों व प्रतीकों तक सीमित नहीं रहेगी। कई घोषणाओं ने इसका भी इजहार कर दिया है। सफाई के लिए 62,000 करोड़ का बजट; बजट जुटाने के लिए स्वच्छ भारत कोष की स्थापना, कारपोरेट जगत से सामाजिक जिम्मेदारी के तहत धन देने की अपील और गंदगी फैलाने वालों पर जुर्माना। 2019 तक 11 करोङ, 11 लाख शौचालय का लक्ष्य और 2,47,000 ग्राम पंचायतों में प्रत्येक को सालाना 20 लाख रुपये की राशि। शहरी विकास मंत्रालय ने एक लाख शौचालयों की घोषणा की है। मंत्रालय ने निजी शौचालय निर्माण में चार हजार, सामुदायिक में 40 प्रतिशत और ठोस कचरा प्रबंधन में 20 प्रतिशत अंशदान का ऐलान किया है। कोयला व बिजली मंत्रालय ने एक लाख शौचालय निर्माण की जिम्मेदारी ली है। सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों में ओएनजीसी ने 2500 सरकारी स्कूल, गेल ने 1021, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम ने 900 शौचालय निर्माण का वायदा किया है। हालांकि, कार्यक्रम यदि शौचालयों तक ही सीमित रहा, तो ‘स्वच्छ भारत’ की सफलता सीमित रह जायेगी। संप्रग सरकार की ‘निर्मल ग्राम योजना’ भी शौचालयों तक सिमटकर रह गई थी। सिर्फ पैसे और मशीनों के बूते हम शौचालयों से निकलने वाले मल को नहीं निपटा सकते। इसी बिना पर ग्रामीण इलाकों में घर-घर शौचालयों के सपने पर सवाल खड़े होते रहे हैं। वाल्मीकि बस्ती परिसर में प्रधानमंत्री ने जिस शौचालय का लोकार्पण किया, वह भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन द्वारा ईजाद खास जैविक तकनीक पर आधारित है। ऐसी कई तकनीकें साधक हो सकती हैं। इस चुनौती में औद्योगिक कचरे के अलावा ठोस कचरा निपटान को भी शामिल करना होगा। इलेक्ट्रॉनिक्स कचरा निपटान में बदहाली को लेकर राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने हाल में मंत्रालय को नोटिस भेजा है। यदि हम चाहते हैं कि कचरा न्यूनतम हो, तो हम ‘यूज एंड थ्रो’ प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करें। कचरे का निष्पादन स्त्रोत पर ही करने की पहल जरूरी है। पश्चिम के देशों से शहरों की सफाई का शास्त्र सीखने की बात गांधी जी ने भी की थी। किंतु यदि स्वच्छ भारत का यह मिशन, अमेरिका के साथ मिलकर भारत के 500 शहरों में संयुक्त रूप से ‘वाश’ कार्यक्रम के वादे में सिर्फ निजी कपंनियों के फायदे की पूर्ति के लिए शुरू किया गया साबित हुआ, तो तारीफ से पहले बकौल गांधी, जांच साध्य के साधन की शुचिता की करनी जरूरी होगी। सफाई कर्मचारियों की रोजी पहले ही ठेके के ठेले पर है। विदेशी कंपनियां और मशीनें आईं तो उनकी रोजी पर और बन आएगी। भारत दुनिया से बेहद खतरनाक किस्म का बेशुमार कचरा खरीदने वाला देश है। वह दुनिया के कचरा फेंकने वाले उद्योगों को अपने यहां न्योता देकर खुश होने वाला देश है। वह पहले अपनी हवा, पानी और भूमि को मलिन करने में यकीन रखता है और फिर उसे साफ करने के लिए कर्जदार होने में। यह ककहरा उलटा जा सकता है यदि हम सुनिश्चित करें कि ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन भारत के 20 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार व स्वरोजगार देने वाला साबित हो। एक आकलन के मुताबिक, भारत में हर रोज 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा पैदा होता है। इसके उचित से निष्पादन से 27 हजार करोड़ रुपये की खाद पैदा कर 45 लाख एकड़ बंजर को उपजाऊ भूमि में बदल 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा करने की क्षमता हासिल की जा सकती है। इससे दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस मिल सकती है। सरकार ने स्वच्छता को मिशन बनाया है, हम इसे आदत बनायें। ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन सफल रहा तो सफाई की सौगात दूर तक जायेगी। भारत की कृषि, आर्थिकी, रोजगार और सामाजिक दर्शन में कई स्वावलंबी परिवर्तन देखने को मिलेंगे। हालांकि यदि हम सफाई, स्वच्छता, शुचिता जैसे आग्रह के तहत गांधी के आत्मप्रयोग और सपने को सामने रखेंगे तो बात मलिन राजनीति, मलिन अर्थव्यवस्था, मलिन पर्यावरण, भ्रष्टाचार से लेकर मलिन मानसिकता के कई पहलुओं तक की करनी होगी। गांधी मानते थे कि यह भावना सबके मन में जम जानी चाहिए कि हम सब सफाईकर्मी हैं। दुआ कीजिए कि ‘स्वच्छ भारत’ हमें मानसिक रूप से इतना स्वच्छ बना सके कि हम धर्म व जाति की मलिन खाइयों को भी पाट सकें। इससे महात्मा का सपना पूरा होगा और मोदी का मिशन भी।
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प्रतीकों की राजनीति

प्रमोद मीणा
जनसत्ता 4 अक्तूबर, 2014: गांधीजी के जन्मदिन दो अक्तूबर से देश भर में स्वच्छ भारत अभियान का आगाज करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रतीकों की राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं। सरदार पटेल और कृष्ण का सफल प्रतीकात्मक चुनावी दोहन करने के बाद उनकी नजरें अब गांधी और झाड़ू को एक साथ साधने पर हैं। गांधी के नाम को हर चुनाव में भुनाती आई कांग्रेस दो अक्तूबर को एक रस्मी समारोह बना चुकी थी। अपने प्रतिपक्षी से उसका ही हथियार छीन कर उस पर ही वार करने का अवसर प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी कैसे खाली जाने देते! आपको याद ही होगा कि उग्र हिंदुत्व की एक अन्य ध्वजावाहक उमा भारती ने, जो आज केंद्र में मंत्री हैं, कांग्रेस से गांधी को छीन लेने का आह्वान किया था। अत: गांधी के जन्मदिन से आरंभ हुए स्वच्छ भारत अभियान को उसी भगवा आह्वान की पूर्ति की दिशा में एक राजनीतिक कदम समझा जाना चाहिए।
जिस व्यक्ति और जिस दल की गांधीवादी सिद्धांतों और मूल्यों में तनिक भी आस्था न रही हो, यकायक उसकी निष्ठा अगर गांधीवादी सफाई-कर्म में जग जाए, तो ऐसी निष्ठा पर संदेह क्योंकर न किया जाए। राजधानी दिल्ली के कश्मीरी दरवाजे वाली उसी हरिजन बस्ती और उसी वाल्मीकि मंदिर से प्रधानमंत्री ने सफाई अभियान की शुरुआत की, जहां कभी पूना पैक्ट के बाद गांधीजी आकर लगभग ढाई सौ दिन रहे थे। अछूत को हरिजन की संज्ञा देने वाले गांधीजी का यह हरिजन सेवा वाला कार्यक्रम दलितों को कांग्रेसी स्वाधीनता आंदोलन और हिंदू समाज से जोड़े रखने की मुहिम का हिस्सा था। पर साफ-सफाई जैसे अति महत्त्वपूर्ण कार्य को हेय दृष्टि से देखने वाला ब्राह्मणवादी हिंदू समाज आज भी सफाईकर्मियों और हरिजनों को सम्मान देने को तैयार नहीं है।
आज भी एक राज्य के दलित मुख्यमंत्री के मंदिर प्रवेश से हिंदुओं का मंदिर अपवित्र हो जाता है। ब्रिटिश शासनकाल में आधुनिक भारतीय शहरों-महानगरों की स्थापना के साथ-साथ इन शहरों की सफाई-व्यवस्था के लिए आसपास के गांवों से दलितों को शहरों में लाकर दलित बस्तियां भी बसाई गर्इं। लेकिन शहरी प्रशासन द्वारा गांवों से खदेड़ कर शहर में बसाने पर भी दलित उस अपमान और अस्पृश्यता से मुक्ति न पा सके जो सामंती ग्रामीण भारत की कड़वी सच्चाई रही है।
दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के झाड़ू ने कांग्रेस की सफाई की थी। उस झाड़ू की चुनावी भूत अभी तक भाजपा पर छाया हुआ है। इसी डर के चलते भाजपा जोड़-तोड़ की मार्फत दिल्ली राज्य में अपनी सरकार बनाने में जुटी हुई है। आप के इसी झाड़ू चुनाव चिह्न का प्रतीकात्मक अपहरण करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी दो अक्टूबर से स्वच्छ भारत अभियान चला रहे हैं ताकि स्वयं को और स्वयं की पार्टी को गांधी के साथ-साथ आम आदमी के झाड़ू का भी सच्चा वारिस सिद्ध कर सकें। इस प्रकार यह सारी मुहिम प्रतीकों पर अपना अधिकार सिद्ध करने की चुनावी कवायद है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री इन शहरी सफाईकर्मियों और दलित बस्तियों की सुध लेने की तत्परता भी दिखाएंगे या सिर्फ शहरों की खूबसूरती में बदनुमा दाग बन रही इन दलित बस्तियों के मतों की राजनीति तक वे सीमित रहेंगे। अगर उनके प्रति प्रधानमंत्री संवेदनशील हैं, तो उन्हें पहले उनका जीवन-स्तर सुधारने का प्रयास करना चाहिए था। आजादी के बाद जहां दलित राजनीति अपना महत्त्व खोती गई, वहीं निजीकरण और उदारीकरण के वर्तमान दौर में सफाईकर्मियों का जीवन-स्तर दयनीय हो गया।
सैंतालीस के तुरंत बाद सफाई सेवा को अत्यावश्यक सेवाओं की सूची में डाल कर सफाईकर्मियों से हड़ताल का अधिकार छीन लिया गया। अब वे अपनी वाजिब मांगों को लेकर हड़ताल और काम रोको प्रदर्शन करने के भी हकदार न रहे। हालांकि सफाईकर्मी के पद पर होने वाली सरकारी नियुक्ति से आजीविका की सुरक्षा पैदा हुई थी और दलितों के जीवन-स्तर में भी कुछ सुधार आया था। लेकिन नगर पालिकाएं और नगर निगम अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति का हवाला देकर जानबूझ कर सफाईकर्मी के पद पर स्थायी नियुक्तियां करने से मुंह चुराते रहे हैं। उदाहरण के लिए, गौत्तम घोष की फिल्म ‘पार’ में कोलकता शहर में नगर निगम के अंदर अस्थायी पदों पर रखे गए दलितों के भयावह शोषण और बेरोजगारी का जिक्र आया है। और अब नब्बे के बाद निजीकरण की जो सर्वभक्षी आंधी चल रही है, उसने तो साफ-सफाई करने वाली जातियों को एकदम हाशिये पर ही ला पटका है।
नगर पालिकाएं और नगर निगम आदि निकाय साफ-सफाई का काम अब ठेके पर दे रहे हैं। और ये ठेके लेने वाले अधिकतर लोग सवर्ण हैं जो न तो सफाई-कार्य की समस्याओं को जानते हैं और न मूलभूत सेवा-शर्तों का पालन करते हैं। पिछली सरकार की तर्ज पर बल्कि पहले से भी ज्यादा द्रुत गति से मोदी सरकार विदेशी निवेश को सुगम बनाने और भारतीय औद्योगिक घरानों को बेजा लाभ पहुंचाने के लिए जिस प्रकार श्रम कानूनों को सिलसिलेवार कमजोर करती जा रही है, वैसे में सफाईकर्मी के काम में लगे और अन्य दलित कैसे मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान की मंशा पर शक न करें!
गांधी के नाम पर स्वच्छ भारत अभियान चलाने वाले हमारे प्रधानमंत्री महोदय को पहले गांधीवाद का ककहरा सीखना चाहिए। गांधीजी खुद के घर की सफाई खुद करने पर बल देते थे, ताकि सफाई कर्म से किसी जातिविशेष को जोड़ना और फिर उसका अपमान करना बंद हो सके। लेकिन प्रधानमंत्री के पूर्र्व के एक बयान से तो यह साफ पता चलता है कि उन्हें दलित सफाईकर्मी की पीड़ा का अहसास तक नहीं है। वे तो सफाई कर्म में दलित की आनंदानुभूति की बातें करते हैं। गांधीजी तथाकथित आधुनिक शहरी सभ्यता के प्रदूषण और गंदगी के स्थान पर स्वच्छ आत्मनिर्भर ग्रामीण भारत का विकल्प दे रहे थे। गांधीजी बड़े-बड़े नगरों और महानगरों के इसलिए विरोधी रहे क्योंकि ये विशाल मानव अधिवास गंदगी और प्रदूषण के केंद्र बन जाते हैं। एक स्थान पर बड़ी संख्या में लोगों का जमाव कुदरती संतुलन को बिगाड़ देता है। और फिर ऊपर से आधुनिक नगरीय सभ्यता अधिकाधिक उपभोग और इस्तेमाल करो और फेंको (यूज ऐंड थ्रो) के दर्शन पर टिकी हुई है।
निजी स्वार्थ तक सीमित रहने वाली नगरीय सभ्यता को इससे कोई मतलब नहीं कि उपयोग के बाद कूड़े के ढेर बढ़ाने वाली इन उपभोक्ता वस्तुओं से हमारा पर्यावरण कितना ज्यादा नष्ट हो रहा है। अपने घर को चकाचक चमका कर सड़क पर घर का कचरा डाल पड़ोसी के लिए सिरदर्द पैदा करने वाले शहरी लोगों में शेष समाज और प्रकृति के प्रति किसी जबावदेही के दर्शन दीपक लेकर खोजने पर भी नहीं हो पाते। गांधीवाद गंदगी और प्रदूषण की जड़ नगरीय सभ्यता के दर्शन को ही सिरे से खारिज करने में यकीन करता है, न कि एक दिन का सफाई अभियान चला कर ऊपर से लीपापोती करना गांधीवादी सफाई कर्म है। पर हमारे प्रधानमंत्री तो अमेरिका के दिखाए रास्ते पर चल कर ‘स्मार्ट सिटी’ का राग अलापते नहीं थकते।
वाल्मीकि बस्ती से इस अभियान की शुरुआत के और मायने विखंडनवाद के माध्यम से आसानी से समझे जा सकते हैं। ऐसा करने पर प्रधानमंत्री की इस पहल के पीछे छिपे हिंदूवादी पूर्वग्रह भी निकल कर सामने आ जाते हैं। जातीय पवित्रता के झूठे फलसफे में विश्वास करने वाले ब्राह्मणवादी लोग उस जाति पर गंदा रहने और गंदगी फैलाने का आरोप लगाते हैं जो दुनिया भर में सफाई कर्म के लिए जानी जाती है। आपके अवचेतन में सदियों से घर कर रही यही उच्च जातीय मानसिकता आपके चेतन को निर्देशित करती है कि किसी दलित बस्ती से ही आप सफाई कर्म का आगाज करें ताकि आपके इस अहं को भी संतुष्टि मिल सके कि आप तो स्वच्छता के पुजारी हैं, पर दलित ही गंदे हैं। और दलितों की बस्ती से सफाई अभियान चला कर आप कोई मसीहाई काम करने जा रहे हैं। इस सोच में तब्दीली लाने की जरूरत है।
अगर दलित बस्तियां आजादी के छह दशक बाद भी कूड़े-करकट और गंदे पानी की नालियों से बदबदा रही हैं, वहां साफ-सफाई और शुद्ध हवा-पानी का कोई माकूल इंतजाम देखने को नहीं मिलता तो उसके लिए कौन जिम्मेवार है? वे प्रशासक जो शहर की अमीर बस्तियों में साफ-सफाई की चाक-चौबंद व्यवस्था रखते हैं, लेकिन उसी शहर के एक कोने पर आबाद सफाईकर्मियों की बस्ती की ओर मुंह उठा कर देखते भी नहीं। कारण कि ये दलित गरीब हैं जो आपकी पूंजीवादी सरकारों की प्राथमिकता में कभी आते नहीं।
आज उपभोक्तावाद उपभोग के स्तर से नागरिकता परिभाषित कर रहा है, अत: आपके नागरिक समाज में न दलित आ सकते हैं और न उनकी बस्तियों को नितांत मूलभूत नागरिक सुविधाएं प्रदान करना आपकी कार्यसूची का हिस्सा बन सकता है। एक-एक करसरकारी सेवाओं को बंद करके उनका निजीकरण करना आम दलित व्यक्ति के हित में कैसे हो सकता है?
इस संदर्भ में भीष्म साहनी कृत ‘तमस’ के उस प्रसंग को फिर से पढ़ने की जरूरत है जहां शहर के एक मुसलिम मुहल्ले में कुछ उच्च जातीय कांग्रेसी कार्यकर्ता गांधीजी के निर्देश पर तामीरी काम पर निकलते हैं। इनमें से एक कार्यकर्ता मास्टर रामदास दिन की रोशनी में झाड़ू हाथ में ले साफ-सफाई करना अपनी ब्राह्मण जाति की तौहीन बताता है। उसकी हिचकिचाहट और नाराजगी पर एक दूसरा कांग्रेसी शंकर कहता है कि ‘मास्टर जी हमें प्रचार करना है, कौन सचमुच की नालियां साफ करनी हैं।’ कथनी और करनी का यही अंतर कांग्रेसियों को आजाद भारत में गांधीवाद से दूर ले गया है।
आंबेडकर हिंदू कांग्रेसियों की इन दुरंगी नीतियों के चलते ही दलितों के भाग्य का फैसला उनके हाथों में सौंपने को तैयार न थे। 2014 के आम चुनावों में हुई कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय का कारण गांधीवादी आदर्शों का खुला परित्याग ही था। लेकिन जो नया निजाम गद्दी पर बैठा है, वह भी कांग्रेसियों की तरह क्या सिर्फ गांधी के नाम और सफाईकर्मियों की झाड़ू का चुनावी राजनीति में मात्र प्रतीक की तरह इस्तेमाल करेगा? या, इस स्वच्छ भारत अभियान के कुछ सामाजिक निहितार्थ भी निकलेंगे? कथनी और करनी की इस खाई को आंबेडकर ब्राह्मणवाद की मूलभूत चारित्रिक विशेषता बताते थे। गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि कथनी और करनी के इस भेद को दूर करना ही हो सकती है।
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बदलाव का नया अभियान

:Sun, 05 Oct 2014

गांधी जयंती पर शुरू किया गया स्वच्छ भारत अभियान हमारे देश की छवि बदलने में सहायक हो सकता है। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि अभी भारत की छवि एक ऐसे देश की है जहां के नागरिक साफ-सफाई को लेकर घोर लापरवाह हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान के साथ इसी प्रवृत्तिको समाप्त कर लोगों को साफ-सफाई के लिए प्रेरित करने का काम किया है। इस अभियान की जैसी शुरुआत हुई और प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सभी केंद्रीय मंत्रियों और लाखों कर्मचारियों ने साफ-सफाई के काम में जिस तरह अपना हाथ बंटाया उससे यह उम्मीद बंधती है कि भारत ने एक और बदलाव के लिए कमर कस ली है। हालांकि यह आसान काम नहीं है, क्योंकि साफ-सफाई के प्रति आम लोगों का लापरवाह और अनुशासनहीन रवैया हर कहीं नजर आता है। आखिर जब घरों के भीतर भी साफ-सफाई प्राथमिकता में सबसे नीचे आती हो तो यह कल्पना की जा सकती है कि मोदी और उनके सहयोगी जिस स्वच्छ भारत की कल्पना कर रहे हैं उसे साकार करना कितना कठिन है? देश में व्याप्त गंदगी का एक बड़ा कारण यही है कि लोगों को सार्वजनिक स्थलों को गंदा करने में तनिक भी संकोच नहीं होता। हद तो यह है कि हमारे समाज का एक वर्ग साफ-सुथरे स्थानों को भी गंदा करने में संकोच नहीं करता। कई बार तो साफ जगहों पर जानबूझकर गंदगी फैला दी जाती है। दरअसल यह एक प्रकार का मनोविकार है और इस विकार से देश को मुक्त करने के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
साफ-सफाई के प्रति सचेत न रहने की आदत हमें शर्मिदा भी करती है और दुनिया में हंसी का पात्र भी बनाती है। जब भी विदेशी पर्यटक भारत आते हैं तो वे जगह-जगह नजर आने वाली गंदगी देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। कुछ स्थानों को छोड़ दिया जाए तो देश में ऐसे स्थलों को खोजना मुश्किल है जिन्हें सही मायने में साफ-सुथरा कहा जा सके। यह स्थिति धार्मिक और पर्यटन स्थलों की भी है, जिनके बारे में यह अपेक्षा की जाती है कि वहां तनिक भी गंदगी न हो। हमारे शहर अतिक्रमण और ट्रैफिक की समस्याओं के साथ-साथ जगह-जगह घूमते जानवरों, सड़क के किनारे बिखरी पड़ी गंदगी और बजबजाती नालियों के लिए भी जाने जाते हैं। यह स्थिति देश के वातावरण को बुरी तरह प्रदूषित कर रही है।
साफ-सफाई के प्रति भारत के लोग दोहरा रवैया अपनाते हैं। अपने देश में वे साफ-सफाई के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझते, लेकिन जब विदेश जाते हैं तो उन तौर-तरीकों को अपनाने के लिए तैयार रहते हैं जो साफ-सफाई के मामले में वहां आवश्यक हैं। आज कई देश इसलिए प्रगति कर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने स्वच्छता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। दुनिया के अनेक देश भले ही आर्थिक संकट से गुजरे हों, लेकिन वे स्वच्छता के मानक तनिक भी नीचे नहीं होने देते। प्रधानमंत्री ने यह माना है कि देश को साफ-सुथरा बनाना केवल सरकार के वश की बात नहीं है। यह काम तभी हो सकेगा जब देश का प्रत्येक नागरिक साफ-सफाई के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझेगा। इसीलिए प्रधानमंत्री ने प्रत्येक नागरिक से सप्ताह में दो घंटे अपने आसपास की साफ-सफाई में लगाने की अपेक्षा करते हुए उन्हें शपथ दिलाई है कि वे न खुद गंदगी करेंगे और न ही अन्य किसी को करने देंगे। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने स्वच्छ भारत अभियान के तहत गांवों में शौचालयों के निर्माण के साथ-साथ सफाई व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य करने का संकल्प जताया है।
एक आंकड़े के अनुसार गांवों में करीब 60 प्रतिशत आबादी आज भी खुले में शौच के लिए विवश है। शौचलयों का निर्माण इसलिए आवश्यक है, क्योंकि खुले में शौच डायरिया, हैजे सरीखी बीमारियों का कारण बनता है। एक अनुमान के तहत भारत में प्रतिदिन एक हजार बच्चे अकेले डायरिया से मरते हैं। डायरिया का मूल कारण खुले में शौच, साफ-सफाई को लेकर लापरवाही ही है। अपने देश में 11 करोड़ से अधिक शौचालयों की आवश्यकता है। यह कठिन लक्ष्य है। इसी तरह कचरे का निस्तारण भी एक कठिन काम है। इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ-साथ आधुनिक तकनीक की भी आवश्यकता है। गंदगी के लिए नागरिकों को जिम्मेदार ठहराने के बावजूद इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सरकारें सीवर और नालों के निर्माण के मामले में अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने में नाकाम हैं। केंद्रीय सत्ता और राज्य सरकारों को मिलकर कोई ऐसा तंत्र बनाना होगा जिससे सीवर और नालों के निर्माण के साथ-साथ कूड़े-कचरे का हानिरहित निस्तारण भी हो सके। आम आदमी से यह ठीक अपेक्षा की जा रही है कि वह अपने घर और आसपास को साफ-सुथरा रखे, लेकिन उसे यह भी बताना होगा कि कूड़े को फेंका कहा जाए। यह निराशाजनक है कि राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय कूड़े के निस्तारण की भी व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं। यह तब है जब कूड़े से ऊर्जा अथवा खाद बनाने की तकनीक उपलब्ध है। इस तकनीक को सही तरह इस्तेमाल न करके हम गंदगी भी बढ़ा रहे हैं और एक औद्योगिक गतिविधि से भी वंचित हो रहे हैं।
प्रधानमंत्री जिस तरह गंदगी से निजात को आर्थिक उत्थान से जोड़ रहे हैं उसे समझने की आवश्यकता है। गंदगी से मुक्ति हमें आर्थिक तौर पर सक्षम भी बनाएगी। विश्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार अगर साफ-सफाई पर एक डॉलर खर्च किया जाए तो सेहत, शिक्षा आदि पर खर्च होने वाले नौ डालर बचाए जा सकते हैं। गंदगी के संदर्भ में इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारत एक गरीब देश है, क्योंकि स्वच्छता एक संस्कार है। इसका अमीरी-गरीबी से कोई संबंध नहीं। गंदगी न केवल हमारी प्रतिष्ठा को प्रभावित कर रही है, बल्कि थोक के भाव बीमारियां भी बांट रही है। इन बीमारियों के उपचार पर भारी-भरकम धन खर्च होता है। एक तरह से गंदगी आर्थिक तौर पर भी हमारी कमर तोड़ने का काम करती है। साफ-सफाई हो तो लोग बीमारियों से भी बचेंगे और स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च भी कम होगा। हालांकि हर कोई इससे परिचित हैं कि हर तरफ फैली गंदगी के कारण बीमारियों का जो प्रकोप फैलता है वह जीवनचर्या को महंगा बनाने का ही काम करता, फिर भी स्वच्छता के प्रति सतर्कता नहीं। जिस देश में बीमारियों का बोलबाला हो वह आर्थिक तौर पर कभी उन्नत नहीं हो सकता। नि:संदेह देश ने हर क्षेत्र में प्रगति की है। विज्ञान के क्षेत्र में हमने कई चमत्कार कर दिखाए हैं, लेकिन सीवर और नालों जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा सका है। जो नाले अथवा सीवर बने भी हैं वे गंदगी साफ करने में सहायक नहीं बन रहे हैं। नदियों के किनारे बने सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र सही तरह काम नहीं कर रहे हैं। अगर आजादी के बाद से ही साफ-सफाई के प्रति संकल्प दिखाया गया होता और सीवेज की उपयुक्त व्यवस्था की जाती तो आज गंदगी इतनी बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने नहीं होती।
स्वच्छ भारत अभियान के समक्ष मौजूद चुनौतियों को पूरा करने के लिए नागरिकों को भी आगे आना पड़ेगा। सरकार ऐसी रणनीति बना सकती है जिससे नागरिकों के श्रमदान से सफाई के उद्देश्य का बड़ा हिस्सा पूरा किया जा सके। एक बार नागरिकों में गंदगी न फैलाने और अपने आसपास के कूड़े-कचरे को साफ करने की आदत पड़ गई तो अगले चरण में स्वयंसेवी संगठनों की मदद लेकर स्वच्छ भारत की दिशा में कदम बढ़ाए जा सकते हैं। मोदी सरकार का यह अभियान सही ढंग से आगे बढ़े, यह सभी की जिम्मेदारी बन सके तो हम 2019 तक भारत की तस्वीर भी बदल सकते हैं और छवि भी।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]
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समाज स्वच्छता की शत्रु सवर्णता

समाज
यह दो अक्तूबर निसंदेह भिन्न रहा। भिन्न इस अर्थ में कि अपने सतत कर्मरत प्रधानमंत्री ने इसे जबर्दस्त तरीके से घटनापूर्ण बना दिया। तय कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने अपने हाथ में लंबी बांस वाली झाड़ू पकड़ी और अपने हिस्से की निर्धारित जगह पर कूड़ा बुहारना शुरू कर दिया। उनकी बुहारी हुई जगह सीमित और संकेतात्मक भले रही हो मगर मीडिया ने इसे असीमित और सार्वजनीन बना दिया। गांधी का जन्मदिन देखते ही देखते ‘स्वच्छ भारत अभियान’ दिवस में बदल गया। बड़े-बड़े मुख्यमंत्री, नेतागण, ठसक वाले अधिकारीगण, विविद्यालयों के कुलपति, प्राध्यापक, फिल्मों से जुड़े दिग्गज, स्वयंसेवी और सामाजिक- सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े लोग, नागर समाज के भद्र लोग आदि सभी यहां- वहां गंदगी बुहारते हुए कैमरे में कैद हुए। सबने वक्तव्य दिए कि देश को अब एक कदम स्वच्छता की ओर बढ़ाने की सख्त जरूरत है। प्रधानमंत्री ने कहा कि बापू अपने चिरविख्यात चश्मे से झांक रहे हैं, पूछ रहे हैं कि आखिर तुमने क्या किया। प्रधानमंत्री की भावभंगिमा से लगा कि बापू की 150वीं जयंती पर 2019 में वह बापू को सचमुच स्वच्छ भारत की श्रद्धांजलि देना चाहते हैं। जिस तरह बापू की नीयत पर संदेह करने का कोई कारण नहीं था कि वह भारत के सभी नागरिकों को स्वयं-स्वच्छताकर्मी के तौर पर देखना चाहते थे, इसी तरह अपने वर्तमान प्रधानमंत्री की नीयत पर भी संदेह करने का कोई कारण नहीं है कि वह भारत को सचमुच स्वच्छ देखना चाहते हैं। बापू ने बहुत पहले एक स्वच्छ भारत का सपना देखा था लेकिन यह सपना आज तक पूरा नहीं हुआ। इसीलिए आज के प्रधानमंत्री को आज फिर एक स्वच्छ भारत का सपना देखना पड़ा। अब देखना यह है कि यह सपना बापू के सपने की तरह अधूरा ही रह जाएगा या पूरा होने की ओर सचमुच एक कदम बढ़ा लेगा। यह वह शंका है जो मेरे मन में पर्याप्त जगह घेरे हुए है और इधर मीडिया में भी पर्याप्त जगह घेरे हुए दिखाई दी है। सबके मन में सवाल यही है कि इस दो अक्टूबर को गंदगी के विरुद्ध जिस स्वच्छता अभियान की औपचारिक शुरुआत की गई है वह अभियान सचमुच आगे बढ़ेगा या मात्र एक समारोही औपचारिकता बन कर रह जाएगा। ऐसे अभियान कई महानुभावों ने पहले भी कई बार शुरू किए थे लेकिन वे सिरे नहीं चढ़ सके। परंतु इस बार स्वयं एक कर्मठ प्रधानमंत्री ने इसकी शुरुआत की है इसलिए शंका के साथ-साथ लोगों को संभावनाएं भी नजर आ रही हैं। यहां मेरा मन शंकालु ज्यादा है। मैंने अपने पिछले लेख में भी यह शंका व्यक्त की थी, यहां फिर वही व्यक्त कर रहा हूं। भारतीय समाज वस्तुत: सवर्णतावादी संस्कारों और मूल्यों वाला समाज है जिसमें हीनश्रम अत्यधिक हेय माना जाता है। सवर्ण वह है जो श्रम न करे। सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च सवर्ण वह है जो बिल्कुल भी श्रम न करे और उसकी एवज में उसकी की गई गंदगी का सारा निस्तारण कोई और करे यानी कोई अवर्ण करें। यह सवर्णतावादी मानसिकता इतनी प्रबल रही है कि जब आरक्षण जैसी व्यवस्था के माध्यम से कथित अवर्णों के उद्धार की कल्पना की गई तो इसमें भी परोक्ष तौर पर यह निहित कर दिया गया कि दलितों-पिछड़ों को इस योग्य बना दो कि उन्हें हीनश्रम न करना पड़े। इस दो अक्तूबर को मीडियावालों ने प्रधानमंत्री की झाड़ू स्थली दिल्ली की बाल्मीकि बस्ती के लोगों से बात की तो सभी एक स्वर में यह कहते सुने गए कि वे सबके सब उस काम से बाहर निकलना चाहते हैं जो वे कर रहे हैं। यानी वे सड़कें, बस्तियां, नाली, सीवर साफ नहीं करना चाहते बल्कि अपने तई ऐसा काम चाहते हैं जिसके चलते उन्हें यह सब न करना पड़े। यानी वे सबके सब सवर्ण बनना चाहते हैं। हमें दरअसल बहुत पहले ही यह तय करना चाहिए था कि एक स्वस्थ और स्वच्छ समाज के लिए अवर्णता ज्यादा जरूरी है या सवर्णता। समाज के सर्वागीण विकास में अवर्णता बड़ी बाधा है या सवर्णता। समाज की स्वस्थ जिंदगी के लिए सवर्णता अनिवार्य है या अवर्णता। इन सवालों के सीधे और सरल उत्तर हैं कि समाज की जिंदगी के लिए अवर्णता एक ठोस शर्त है और सवर्णता एक निहायत ही खोखली शर्त। अवर्णता, जिससे हीनश्रम जुड़ा हुआ है, वह किसी भी स्वस्थ समाज की जीवन नाल है। समाज सवर्णता के बिना रह सकता है, अवर्णता के बिना नहीं। अवर्णता अनिवार्य कर्तव्य है, जबकि सवर्णता एक दंभपूर्ण पाखंड। चीन के शहर आज दुनिया के स्वच्छतम शहरों में गिने जाते हैं तो उसका कारण यह है कि उसने अपनी सांस्कृतिक क्रांति के दौरान कथित सवर्णो को अवर्ण बनाने का काम व्यापक तौर पर शुरू किया था। सफेदपोशों के हाथ में अनिवार्यत: झाड़ू थमा दी थी। हीनश्रम को वैयक्तिक व्यवहार का हिस्सा बना दिया था। कहने की जरूरत नहीं है कि हमारे यहां उलटी प्रक्रिया शुरू की गई थी जिसे आज पूरी तरह उलटने की जरूरत है। इसे उलटने की जरूरत इसलिए है कि इसे संस्कृति और संस्कार के तौर पर उलटे बिना भारत स्वच्छ नहीं हो सकता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अवर्णतावादी संस्कृति की स्थापना के लिए वह प्रतीकात्मकता भी जरूरी है जो इस दो अक्टूबर को प्रदर्शित हुई और जिसके अंतर्गत तमाम सवर्ण हाथ में झाड़ू लिए सफाई करते नजर आए। इससे एक छोटा-सा संदेश तो प्रचारित हुआ ही कि शारीरिक श्रम हेय नहीं है। परंतु इतना भर ही पर्याप्त नहीं है। प्रसंगवश संकेत करना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री की प्रतीकात्मकता में तमाम तबकों के लोग शामिल हुए, लेकिन वे बाबा, गुरु, संत, महंत, स्वामी और बापू लोग शामिल नहीं हुए जो सवर्णता और सवर्ण संस्कृति के ध्वजवाहक हैं और माने जाते हैं। सवर्णतावादी श्रम विरोधी संस्कृति के विरुद्ध स्वच्छतावादी श्रम साधक संस्कृति की स्थापना के लिए इनके हाथ में झाड़ू थमाना बेहद जरूरी है। जब तक इनके हाथ में झाडू नहीं आएगी, भारत स्वच्छ नहीं होगा। अगर प्रधानमंत्री स्वच्छ भारत के लिए सचमुच चिंतित हैं तो उन्हें स्वच्छता की प्रतीक अवर्णतावादी संस्कृति की स्थापना पर गंभीरता से सोचना चाहिए और हर उस प्रयास को सचेतन तौर पर बढ़ावा देना चाहिए जो सवर्णतावादी मानसिकता, व्यवहार और संस्कृति पर चोट करने वाला है।
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दाग मिटाने की कोशिश

Wed, 08 Oct 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वच्छता अभियान एक सराहनीय व सामयिक कदम है। यह आज हमारी देश की पहली आवश्यकताओं में से एक है। आप देश के किसी भी गली-कूचे में चले जाएं तो आपको कूड़े का ढेर ही मिलेगा। कण-कण में भगवान वाले देश में अब कूड़े ने जगह ले ली है। प्रधानमंत्री की यह पहल शोर-शराबे के साथ शुरू अवश्य हुई हो, पर इसके स्थायित्व को लेकर नए प्रश्न साथ में खड़े हैं। प्रधानमंत्री ने इसे हर तरह से दिशा देने की कोशिश की है और बड़े सितारों को भी प्रचार अभियान से जोड़ा है। इसका कुछ न कुछ फायदा जरूर होगा, पर यह वर्तमान हालात में नाकाफी है, क्योंकि कूड़े की जड़ का कारण हर घर में है। इस आंदोलन को बड़े गाजे-बाजे के साथ खड़ा नहीं किया जा सकता और न ही प्रचार काफी होगा।
समस्या यह है कि हमारे देश में नैतिक मूल्य सिरे से गायब हैं। अपने में परेशान हर व्यक्ति कूडे़ की एक और परेशानी का बोझ उठाना ही नहीं चाहता। लोग सोच सकते हैं कि इसके लिए व्यवस्थाएं सरकार के पास होनी चाहिए, क्योंकि वे टैक्स जो देते हैं। संभवत: हमारे यहां देश के प्रति श्रद्वा की कोई जगह नहीं है। मोदी अपने पद का सदुपयोग कर एक बड़ा आह्वान जरूर कर रहे हैं, लेकिन हर कोई यह देखना चाहेगा कि यह आवाज कितनी दूर जाएगी? हाथ में झाड़ू और सिर में पी कैप के साथ बड़ी भीड़ एकाध बार जरूर जुट जाएगी, लेकिन चंद रोज बाद क्या होगा? स्वच्छ भारत अभियान की सफलता के लिए बड़े और कड़े कदमों की आवश्यकता पड़ेगी। वैसे तो पश्चिमी सभ्यता से हमने बहुत कुछ लिया है फिर वह चाहे लिबास हो या भोजन, लेकिन एक और बड़ा और अच्छा हिस्सा इस सभ्यता में था, जिसकी तरफ हमने झांका तक नहीं। आप यूरोप में कहीं भी जाएं, वहां हर व्यक्ति सफाई के नैतिक दायित्व से जुड़ा है। अब वहां चॉकलेट, टॉफी, केले खाकर छिलके फेंकना बड़ा अपराध माना जाता है। बच्चे हों या बड़े, इस शिक्षा का असर समान रूप से दिखता है। हमारे देश में भी जब विदेशी सैलानी आते हैं तो वे अपने कचरे को अपने बैग में ही रखते हैं और उपयुक्त जगह ढूंढ़कर उससे मुक्त होते हैं। यह बात अलग है कि हमारे देश में हर जगह कूड़े के लिए उपयुक्त हो चुकी है, कहीं भी कुछ भी फेंका जा सकता है। यदि छोटे से देश श्रीलंका की ही बात करें तो वहां सरकार के साथ-साथ हर व्यक्ति सफाई के प्रति गंभीर दिखता है। यहां बात मात्र नैतिक मूल्यों की नहीं है, बल्कि एक ठोस व्यवस्था की भी है। हमने सफाई कर्मचारियों के भरोसे सारी व्यवस्था को छोड़ रखा है और इसके साथ ही खुद कूड़े के प्रति अपने व्यक्तिगत दायित्वों से मुक्त हो गए हैं। एक बार घर का कूड़ा बाहर फेंक दिया तो फिर सरकार ही जाने कि वह कैसे और कहां जाएगा।
इस मामले में हमें पश्चिमी देशों से सीख लेनी चाहिए, क्योंकि हमारे देश में नई भोगवादी सभ्यता उन्हीं की देन है, जिसने कूड़े की ऐसी समस्या को जन्म दिया है। जब हमने उनसे सीखकर भोगवादी व्यवस्था अपना ही ली है तो उसके प्रबंधन की बातें भी उन्हीं से सीखते तो अच्छा होता। आप जिधर भी जाएं स्विट्जरलैंड हो या नार्वे, इन सभी देशों में कूड़े के प्रति नैतिकता घर से ही शुरू हो जाती है। वहां कूडे़ को नियमित तरीके से ठिकाने लगाने की ठोस नीतियां और कानून हैं। घर के बाहर जैविक और अजैविक कचरों के लिए प्रबंध किया गया है। इतना ही नहीं यह फिर से उपयोग में आ सकें ऐसी तकनीकों की भी व्यवस्था है। वहां हर तरह के कचरे को आर्थिकी से जोड़ दिया जाता है। मसलन अगर वह जैविक कचरा है तो उसे खाद व ऊर्जा के लिए उपयोग में लाया जाता है, जबकि अजैविक कचरे को अन्य उद्योगों के साथ जोड़कर उपयोगी उत्पाद तैयार किए जाते हैं। मतलब साफ है कि कूड़ा पैसा कमाने के धंधे में परिवर्तित कर दिया गया है। वहां हर तरह के कचरे को संसाधन का दर्जा मिला है और उसे रोजगारपरक बनाया गया है। हमारे यहां कूड़ा उठाने के अलावा उसके उपयोग की अन्य कोई स्थायी योजना नहीं है, जिसे आर्थिक रूप से सफल कहा जाए। वैसे अपने देश में कई जगहों पर ऐसे प्रयोग हुए हैं और इसे रोजगार में बदलने की कोशिश की गई है। पुणे की एक संस्था इनोरा ने शहरी महिलाओं को घर के कचरे से जोड़कर टेरेस गार्डन तैयार किए हैं जिसमें सब्जियां उगती हैं। इसी तरह शहर के कचरे को नगर निगम ने खाद बनाने व बायोगैस के लिए उपयोग में लाने की कोशिश की। सब कुछ ठीक-ठाक है, पर ठेकेदार खुश नहीं, क्योंकि उसे ये लाभकारी नहीं दिखाई देता। दरअसल इसके लिए उत्पाद के खरीदार की उचित व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में अपार कूड़े को एक बड़े संसाधन के रूप में देखने की आवश्यकता है। इसके बड़े और विभिन्न तरह के उपयोग की संभावनाएं हैं। नए-नए शोध और उपयोग की संभावना को लेकर देश में कूड़े को संसाधन की दृष्टि से देखें और उसमें उपयुक्त मूल्यवृद्धि की जाए तो बात बन सकती है।
सरकार अगर गंभीर है तो समस्या व कूड़े के आकार को देखकर एक छोटा सा मंत्रालय बना सकती है। इसका एकसूत्रीय दायित्व व कार्य कूड़े-कचरे से रोजगारों का सृजन करना होना चाहिए। आज भी देश में कूड़ा-कचरा उठाने वाले करोड़ों से कम नहीं, जिन्होंने कुछ तो किया ही है और सच तो यह है कि वे ही इस पहल के अंबेसडर भी हैं। इन पर केंद्रित और अन्य जुड़े हुए पहलुओं पर कार्य करने के लिए सरकार को एक बड़ी व संगठित पहल करनी होगी। यह पहल विभाग या मंत्रालय के रूप में हो तभी शायद हम एक स्वच्छ भारत बना पाएंगे, वरना इस अभियान को भी पी कैप व झाड़ू फैशन की तरह ही सफाई पर्व के रूप में समझा जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी की इस भावना को अमलीजामा पहनाने के लिए भावुकता के साथ-साथ व्यावहारिकता की अधिक आवश्यकता है। ऐसा होने पर ही हम साफ दिल से सच्ची पहल कर सकेंगे और स्वच्छ देश का निर्माण कर पाएंगे।
[लेखक डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, जाने-माने पर्यावरणविद् हैं]
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सफाई की सही राह

Tue, 14 Oct 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चलाए गए सफाई अभियान का स्वागत किया ही जाना चाहिए। मगर यह अभियान तब तक सफल नहीं होगा जब तक नगरपालिका की कूड़ा निस्तारण व्यवस्था दुरुस्त नहीं होगी। सड़क पर झाड़ू लगाकर कूड़े को किनारे करने का लाभ तब ही है जब किनारे से उसे हटा लिया जाए। हटाया नहीं गया तो कूड़ा पुन: सड़क पर फैल ही जाएगा। हाल ही में ट्रेन में सफर करने का मौका मिला। स्लीपर कोच का कूड़ेदान भरा हुआ था। प्लेटफार्म पर कूड़ेदान नहीं था, मजबूरन कूड़े को बाहर फेंकना पड़ा। यदि हर केबिन में कूड़ेदान होता और उसकी नियमित रूप से सफाई होती तो उसे बाहर नहीं फेंकना पड़ता।
इस दिशा में आंध्र प्रदेश की बाब्बिली नगरपालिका के प्रयास सराहनीय हैं। यहां घर से दो प्रकार का कूड़ा अलग-अलग एकत्रित किया जाता है। किचन से निकले गीले कूड़े को पहले एक पार्क में निर्धारित स्थान पर पशुओं के खाने के लिए रख दिया जाता है। बत्ताख द्वारा मछली, सुअर द्वारा किचन वेस्ट तथा कुत्तो द्वारा मीट को खा लिया जाता है। शेष को कम्पोस्ट करके खाद के रूप में बेच दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक तथा मेटल को छांटकर कंपनियों को बेच दिया जाता है जहां इन्हें रिसाइकिल कर दिया जाता है। जो थोड़ा-बहुत बच जाता है उसे लैंडफिल में डाल दिया जाता है। आंध्र की ही सूर्यापेट नगरपालिका एक कदम और आगे है। यहां किराना दुकानों, मीट विक्रेताओं तथा होटलों द्वारा क्रेताओं को अपना थैला लाने पर एक से पांच रुपये की छूट दी जाती है। इन शहरों की सड़कें आज पूरी तरह साफ हैं। यहां झाड़ू लगाने की जरूरत कम ही है, क्योंकि नगरपालिका अपना काम कर रही है।
जो कूड़ा कंपोस्ट अथवा रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है उसे लैंडफिल में डाल दिया जाता है या फिर जलाकर इससे बिजली उत्पन्न की जाती है। लैंडफिल के लिए जगह ढूंढ़ना कठिन होता है, क्योंकि कोई मोहल्ला अपने आसपास कूड़े का ढेर नहीं देखना चाहता है। मेरे एक जानकार को गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके में एक फ्लैट पसंद आया, किंतु उन्होंने उसे नहीं खरीदा। कारण कि उसके सामने विशाल लैंडफिल था, जिस पर हजारों चीलें मंडराती रहती थीं।
कूड़े को जलाने की अलग समस्या है। दिल्ली के ओखला में 1700 टन कूड़ा जलाकर 18 मेगावाट बिजली प्रतिदिन बनाई जा रही है, लेकिन स्थानीय लोग इससे खुश नहीं हैं। कूड़ा जलाने से जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है। जहरीली राख उड़कर घरों पर गिरती है। लोगों ने नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल में इस बिजली कंपनी के विरुद्ध याचिका दायर कर रखी है। जो कूड़ा रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है वह मुख्यत: दो तरह का होता है। चाकलेट रैपर तथा आलू चिप्स के पैकेट प्लास्टिक तथा मेटल को आपस में फ्यूज करके बनाए गए हैं। इन्हें प्लास्टिक की तरह रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इनमें मेटल होता है और मेटल की तरह गलाया नहीं जा सकता है, क्योंकि इनमें प्लास्टिक होता है। इसी तरह अकसर कागज के डिब्बों को ऊपर से प्लास्टिक से लैमिनेट कर दिया जाता है। कुछ समय पूर्व मैं एक गत्ता फैक्ट्री चलाता था। फैक्ट्री के लिए सड़क से उठाए गए कागज के कूड़े को कच्चे माल के तौर पर खरीदा जाता था। कई मजदूर लगाकर इस कूड़े में से लैमिनेटेड कागज की छंटाई करते थे और इसे बॉयलर की फर्नेस में जलाया जाता था। कारण कि यह मशीन को जाम कर देता था। इस प्रकार के कूड़े का उत्पादन ही बंद कर दिया जाना चाहिए। तब प्लास्टिक, मेटल और कागज को अलग-अलग रिसाइकिल किया जा सकेगा। तभी सौ प्रतिशत कूड़े का निस्तारण किया जा सकता है। इसे जलाकर जहरीली गैसों को वायुमंडल में छोड़ने अथवा लैंडफिल बनाने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। न्यू एंड रिन्यूएबल एनर्जी मंत्रालय को यह रास्ता पसंद नहीं है। इनका ध्यान बिजली के उत्तारोत्तार अधिक उत्पादन मात्र पर केंद्रित है। यदि पूरा कूड़ा रिसाइकिल हो जाएगा तो बिजली का निर्माण नहीं हो पाएगा। वर्तमान में कूड़े से बिजली बनाने पर मंत्रालय द्वारा 10 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट की सब्सिडी दी जा रही है। कूड़ा सौ प्रतिशत रिसाइकिल हो जाएगा तो मंत्रालय का यह धंधा ठप पड़ जाएगा। यूं समझिए कि यह सब्सिडी कूड़े को रिसाइकिल करने के लिए नहीं दी जा रही है।
नगरपालिकाओं की समस्या वित्ताीय है। दो तरह के कूड़े को अलग-अलग एकत्रित करने, छांटने और कंपोस्ट बनाने में खर्च ज्यादा आता है। कंपोस्ट और छंटे माल की बिक्री से आमदनी कम होती है। बाब्बिली नगरपालिका द्वारा कूड़े के निस्तारण पर किए गए खर्च का मात्र 13 प्रतिशत इन माल की बिक्री से अर्जित किया जा रहा है। सूर्यापेट का इन मदों पर वार्षिक खर्च 418 लाख है, जबकि आमदनी मात्र सात लाख रुपये है। अर्थ हुआ कि कूड़े का पूर्णतया पुन: उपयोग तब ही संभव है जब नगरपालिकाओं को वित्ताीय मदद दी जाए। विषय केवल सफाई का नहीं है। कूड़े के सफल निस्तारण से जनता का स्वास्थ्य सुधरेगा। नगरपालिका कर्मियों द्वारा कूड़े को न हटाने और नालियों को साफ न करने से मच्छर पैदा होते हैं। मलेरिया तथा डेंगू जैसे रोगों का विस्तार होता है। कूड़े के निस्तारण से हमारे शहर सुंदर हो जाएंगे और विदेशी पर्यटक ज्यादा संख्या में आएंगे। फुटपाथ कूड़ा रहित होने से लोग फुटपाथ पर चलेंगे और रोड एक्सीडेंट कम होंगे। इन लाभों का आकलन किया जाए तो सरकार द्वारा स्वच्छ नगरपालिका के लिए सब्सिडी देना आर्थिक दृष्टि से भी उचित होगा।
अंतिम विषय कूड़ा बीनने वालों का है। आपने देखा होगा कि सड़क अथवा रेल पटरी के किनारे से लोग कूड़ा बीन कर बड़े झोले में भरकर कबाड़ियों को बेचते हैं। समस्या है कि इनके लिए खास किस्म के कूड़े को उठाना ही लाभदायक होता है। शेष कूड़े को वहीं छोड़ दिया जाता है यद्यपि इसे भी रिसाइकिल किया जा सकता है। इस दिशा में पुणे शहर हमारा मार्गदर्शन करता है। वहां कूड़ा बीनने वाले से छांटा हुआ संपूर्ण कूड़ा खरीद लिया जाता है। इनके द्वारा सड़कों, घरों तथा आफिसों से अधिकतर कूड़ा उठा लिया जाता है। शहर स्वयं साफ हो जाता है। देश को स्वच्छ बनाने के लिए कुछ विशेष कदम उठाने होंगे। पहला कि नगरपालिकाओं द्वारा कूड़ा कर्मियों पर सख्ती की जाए और इनके कार्य की ऑडिट हो। दूसरा, सभी ऐसे पैकिंग के सामान का उत्पादन बंद कर दिया जाए जिन्हें रिसाइकिल न किया जा सके। तीसरा नगरपालिकाओं को 100 प्रतिशत कूड़े को रिसाइकिल करने के लिए इंसेंटिव दिया जाए। चौथा, कूड़ा बीनने वालों के कल्याण एवं सम्मान के लिए इनके द्वारा एकत्रित संपूर्ण कूड़े को खरीदने की व्यवस्था की जाए। इन बुनियादी व्यवस्थाओं को स्थापित करने के बाद ही सड़क पर झाड़ू लगाना सार्थक होगा।
[लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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इच्छाशक्ति की कमी

Sun, 19 Oct 2014

दिल्ली में सफाई के लिए जिम्मेदार लोगों में इच्छाशक्ति की कमी का ही परिणाम है कि स्वच्छ भारत अभियान का राजधानी में कहीं भी उल्लेखनीय असर नहीं दिखाई दे रहा है। दिल्ली के तीनों नगर निगमों के तहत आने वाले इलाकों में यहां-वहां गंदगी आसानी से देखी जा सकती है, वहीं तमाम अति प्रमुख लोगों की रिहायश वाले नई दिल्ली नगर पालिका परिषद इलाके में भी सफाई का बुरा हाल है। एनडीएमसी और तीनों नगर निगमों का दावा है कि अभियान शुरू होने के बाद से उनके द्वारा प्रतिदिन उठाए जा रहे कूड़े की मात्रा में वृद्धि हुई है। एनडीएमसी 25 मीट्रिक टन, उत्तरी दिल्ली नगर निगम 700 मीट्रिक टन, दक्षिणी दिल्ली नगर निगम 900 मीट्रिक टन और पूर्वी दिल्ली नगर निगम 500 मीट्रिक टन अधिक कूड़ा उठाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन लुटियंस जोन में सांसदों की कोठियों के बाहर से लेकर नगर निगम मुख्यालय और राजधानी के प्रमुख बाजारों में गंदगी का साम्राज्य पूर्व की तरह व्याप्त है।
यह सही है कि राजनीतिक स्तर पर गंभीरता प्रदर्शित करने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन ये प्रयास जमीनी न होकर औपचारिक अधिक नजर आ रहे हैं। दिल्ली में सफाई के लिए जिम्मेदार एजेंसियों व संबंधित लोगों से अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह स्वच्छ भारत अभियान को गंभीरता से अपनाकर अन्य राज्यों व शहरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करें लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव और लापरवाह रवैये के कारण यह अत्यंत आवश्यक अभियान उदासीनता का शिकार हो रहा है। एनडीएमसी और नगर निगमों में अभियान को लेकर कोई विशेष उत्साह नहीं नजर आ रहा है जिसके परिणाम सामने हैं। इस अभियान के प्रति राजधानी में गंभीरता दिखाया जाना अत्यंत आवश्यक है। यह न सिर्फ लोगों को रहने योग्य स्वस्थ माहौल उपलब्ध कराएगा, बल्कि इससे गंदगी के कारण होने वाली बीमारियां भी अपेक्षाकृत कम होंगी। सरकारी एजेंसियों को पूरे उत्साह और इच्छाशक्ति के साथ इस कार्य में जुटना चाहिए और दिल्लीवासियों को उनका हरसंभव सहयोग करना चाहिए। यह सही है कि सफाई का दायित्व सरकारी एजेंसियों का है लेकिन दिल्लीवासियों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे अपने आस-पड़ोस को स्वच्छ रखें और स्वच्छता के इस अभियान को पूरी शक्ति के साथ आगे बढ़ाएं।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]
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अभियान का मान

Tue, 21 Oct 2014

गांधी जयंती पर देशभर में शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान में हिमाचल प्रदेश के लोगों ने भी खूब उत्साह दिखा। स्वच्छता की शपथ खाई गई व कई स्थानों पर सफाई की गई। नतीजा पहाड़ स्वच्छ दिखने लगे, आबोहवा में ताजगी का आभास हुआ। लेकिन यह जागरूकता कुछ दिनों की मेहमान बनकर ही रह गई। अभियान की सफलता के लिए प्रदेश के लोगों ने कुछ कदम तो बढ़ाए, लेकिन अब पलटकर फिर से वहीं पहुंचने लगे हैं, जहां से शुरुआत की थी। स्वच्छता के लिए ली गई शपथ शिथिल पड़ने लगी है और जागरूकता हवा हो गई। कुछ दिन बीतने के साथ ही अभियान की गति मंद पड़ी प्रतीत होती है। पहले की तरह कूड़े के ढेर दिखना आम बात है। बात चाहे राजधानी शिमला की हो या प्रदेश के अन्य स्थानों की, लोग संकल्प भूलते जा रहे हैं। स्वच्छता का अर्थ यह नहीं कि लोग सारे काम छोड़कर झाड़ू पकड़कर रोज गलियों की सफाई करें। जरूरत सिर्फ इतनी है कि छोटी-छोटी बातों का ध्यान रख स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाए। इसका अर्थ है तन एवं मन से स्वच्छता को आत्मसात करना। गंदगी देखकर उसे अनदेखा करने की आदत छोड़नी होगी। जिस तरह घर को सुंदर स्वच्छ बनाने के लिए प्रयास किए जाते हैं, वैसे ही प्रयास घर से बाहर भी होने चाहिए। यह भी जरूरी है कि लोगों को भी इसके लिए जागरूक करें ताकि वे गंदगी फैलाने से बचें। अकेला व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता। सामूहिक प्रयासों से ही बड़े मोर्चो पर विजय पाई जा सकती है। ऐसा नहीं कि सब कुछ गलत ही हुआ है। कई जगह लोग जागे है तो कहीं बच्चों ने बड़ों को जगाने का बीड़ा उठाया है। शिमला के चिल्ड्रन क्लब के बच्चे उन बड़ों के लिए सबक हैं, जो सब कुछ जानते हुए भी अंजान बनते हैं। कई अन्य संगठनों ने भी समाज को आईना दिखाने के लिए प्रयास किए हैं। यह समझना होगा कि समाज व अपनों के स्वस्थ व बेहतर कल के लिए सबको सफाई को आदत बनाना होगा। बेहतर होगा कि सभी मन से संकल्प लेकर स्वच्छता अभियान में जी-जान से जुट जाएं ताकि महात्मा गांधी का देखा स्वच्छ भारत का सपना पूरा करने में योगदान दे सकें। हमारे सामूहिक प्रयास से अगर दूसरे देशों के लोगों की भारत की छवि के बारे में बदलाव भी आता है तो यह बड़ी कामयाबी होगी। अगर ऐसा हो जाए तो यह बापू को प्रदेश की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
[स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश]
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जनभागीदारी जरूरी

Sat, 04 Oct 2014

दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू किए गए स्वच्छता अभियान की सार्थकता डॉक्टरों ने यह कह कर साबित कर दी है कि यदि लोग साफ-सफाई के प्रति सचेत हो जाएं तो मरीजों की संख्या में 50 फीसद तक की कमी लाई जा सकती है। इसकी वजह यह है कि एनीमिया, हैजा, कालरा, हेपेटाइटिस आदि 15 बीमारियां गंदगी के कारण ही फैलती हैं।
गंदगी के कारण ही मच्छर पैदा होते हैं जिनसे डेंगू और मलेरिया आदि का प्रकोप होता है। राजधानी में भी गंदगी एक बड़ी समस्या है। नई दिल्ली और शहर के पॉश इलाकों को छोड़ दें तो राजधानी के अन्य इलाकों में साफ-सफाई की बेहद कमी है। दिल्ली में करीब 1600 अनधिकृत कॉलोनियां हैं। इनमें बुनियादी नागरिक सुविधाओं का सख्त अभाव है। सीवर का कचरा घर के सामने बने नालों से बहता है और चारों ओर गंदगी का आलम है।
सरकारी एजेंसियों की ओर से भी इन इलाकों में स्वच्छता को लेकर लापरवाही ही देखी जाती है। सैकड़ों की संख्या में मौजूद झुग्गी-झोपड़ियों की हालत बेहद दयनीय है। यहां पर लोग नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। ऐसे इलाकों में यदि गंदगी के कारण फैलने वाली कोई महामारी फैलती है तो उसका बड़ा व्यापक असर होता है। शहर के बाकी हिस्सों में भी गंदगी के कारण ही मच्छरों की फौज खड़ी होती है ओर बड़ी संख्या में मलेरिया, डेंगू आदि के मरीज अस्पतालों में पहुंचते हैं।
राजधानी पहले ही प्रदूषण की समस्या से जूझ रही है। वाहनों से निकलने वाला धुआं वातावरण में जहर घोल रहा है जिससे आम लोगों की सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। दूसरी ओर कूड़े-कचरे की गंदगी से भी लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बढ़ता है। सरकारी तौर पर शुरू किया गया स्वच्छता अभियान निश्चित तौर पर एक बेहतर पहल है, लेकिन केवल सरकार के भरोसे इस अभियान की सफलता की उम्मीद करना ठीक नहीं होगा।
जब तक आम लोग इस अभियान की महत्ता को नहीं समडोंगे और खुद आगे बढ़कर साफ-सफाई में नहीं जुटेंगे, तब तक इसका पूरा लाभ उन्हें नहीं मिल पाएगा। लिहाजा, सरकार के स्तर पर यह जरूरी है कि लोगों तक यह संदेश पहुंचाया जाए कि किस प्रकार सफाई का उनके स्वास्थ्य से सीधा संबंध है और इस ओर ध्यान देकर कितनी बीमारियों पर लगाम लगाई जा सकती है। यह याद रखना होगा कि एक बेहतर शुरुआत को अंजाम तक पहुंचाना जरूरी है।
यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा संख्या में आम लोग इसमें भागीदारी करें।
(स्थानीय संपादकीय: नई दिल्ली)



शिक्षक दिवस संबोधन




नई शिक्षा नीति की जरूरतें

Sat, 13 Sep 2014

शिक्षा के ढांचे में किस ढंग के बदलाव और सुधार की आवश्यकता है उन्हें रेखांकित कर रहे हैं एस. शंकर
प्रधानमंत्री के शिक्षक दिवस संबोधन के बाद मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा नई शिक्षा नीति की तैयारी की घोषणा स्वागत योग्य है। यह आशा जगाती है कि शिक्षा में नई सरकार धीरे-धीरे, किंतु सार्थक कदम उठा सकती है। किंतु ऐसा हो सके, इसके लिए तीन बातों पर ध्यान रखना जरूरी है। पहला, दिखावे की बातों में न पड़ना। यह कहना इसलिए जरूरी है, क्योंकि विगत कई दशकों से शिक्षा विमर्श और परिणामस्वरूप शिक्षा दस्तावेज भी प्राय: हर तरह की बनावटी बातों से भरे रहे हैं। अत: नया शिक्षा-दस्तावेज बनाने में दिखावे वाली और कागजी लफ्फाजी से बचना नई शिक्षा नीति दस्तावेज का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। यह संभव है, यह प्रधानमंत्री केपांच सितंबर वाले उद्बोधन से दिखता है। उन्होंने बड़ी-बड़ी, किताबी किस्म की बातों से हटकर सीधी-सादी, समझ में आने लायक, क्रियान्वित की जाने वाली बातें ही कही। यही नई शिक्षा नीति में भी होना चाहिए। दूसरी इसी से जुड़ी बात है कि नकली उपलब्धियों का आंकड़ा दिखाना हमारे शिक्षा कार्यक्रमों का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। शिक्षा आंकड़े अविश्वसनीय हैं। उदाहरण के लिए कहा जाता है कि अमुक राज्य में इस वर्ष इतने लाख बच्चों ने आठवीं कक्षा पास की। किंतु वास्तविकता क्या है? उन बच्चों में कई लाख ऐसे हैं जिन्हें अपना नाम लिखना भी नहीं आता।
इस दुर्गति का कारण यह है कि वर्षो पहले यह विचित्र निर्देश जारी किया गया कि किसी बच्चे की आठवीं कक्षा तक प्रोन्नति न रोकी जाए। यह नि:संदेह वैसे ही शिक्षा शास्त्रियों की सलाह पर किया गया होगा जिन्हें विदेशी अंध-नकल की आदत है। आशा करें, नई सरकार ऐसे शिक्षा शास्त्रियों से बचेगी। हमें वास्तविक शिक्षित बच्चे और युवा चाहिए। यही कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के लिए भी सही है। हम स्वयं को, अपने बच्चों को और दुनिया को धोखा दे रहे हैं। यह तो हमारे देश की विशाल आबादी है, जिससे यह घृणित, लज्जाजनक और बचकानी धोखाधड़ी छिपी रही है। तीसरी बात है शिक्षा और रोजगार-ट्रेनिंग का घालमेल। यह साफ-साफ समझ लिया जाना चाहिए कि हरेक युवा को रोजगार की जरूरत और उस का शिक्षित होना अलग-अलग बातें हैं। अशिक्षित व्यक्ति भी बड़े भारी रोजगार का संचालक हो सकता है और बढि़या रोजगार में लगा हुआ व्यक्ति भी अशिक्षित हो सकता है। इस नाजुक बिंदु को ठीक-ठीक समझने का अवसर आ गया है। नहीं तो हम कभी न समझ सकेंगे कि तरह-तरह के घोटालों, गड़बड़ियों, व्यभिचार आदि में लगे हुए लोगों में कथित सुशिक्षित लोगों की संख्या इतनी बड़ी क्यों है?
उम्मीद है कि नई शिक्षा नीति में संस्कारों की शिक्षा यानी वास्तविक शिक्षा को रेखांकित किया जाएगा। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीईआरटी का ध्येय वाक्य है-'विद्ययामृतमश्नुते'। हमारे बड़बोले बौद्धिकों और शिक्षाशास्त्रियों में बिरले ही होंगे जो इसका अर्थ या स्त्रोत भी बता सकें। यह उदाहरण है कि हमारा चालू शिक्षा-विमर्श और शिक्षा योजनाएं आदि बनाने वाले कितने खोखले हैं। अभी जाने-माने भारतीय शिक्षाविद कहे जाने वाले कई लोग 'हमारा धर्म-चिंतन', 'संस्कार', 'भारतीय गौरव', 'देशभक्ति' जैसे शब्दों का उल्लेख होते ही संकोच में पड़ जाते हैं। उनके विमर्श, लेखन, दस्तावेज आदि में 'डाइवर्सिटी', 'मायनोरिटी', 'सेक्युलरिज्म', 'जेंडर', 'मल्टी-कल्चरल' जैसे जुमलों का दर्जनों बार प्रयोग सुना जा सकता है। किंतु सत्यनिष्ठा, सेवा, अनुशासन, संयम, शौर्य, देश-रक्षा आदि का एक बार भी नहीं। यह मतवादीकरण ही है कि बच्चों की शिक्षा में स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, अज्ञेय जैसे अनेक महापुरुषों की सुचिंतित सीख को जानबूझकर उपेक्षित किया गया है। जैसे, विवेकानंद ने कहा था, संस्कृत शब्दों में अद्भुत शक्ति भरी हुई है। उनके उच्चारण मात्र से शक्ति का बोध होता है। उपनिषद्, रामायण, महाभारत जैसे कालजयी शास्त्र विश्व की अनमोल धरोहरों में गिने जाते हैं। उनका पठन-पाठन एक जीवंत सत्संग है जिससे विवेक ही नहीं, शक्ति भी मिलती है।
रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था कि विद्यार्थियों को प्रत्येक दिन कम से कम एक बार गायत्री-मंत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए। किंतु ऐसी मूल्यवान सीखों से बच्चों को मानो प्लेग की तरह बचाया गया है। बदले में पश्चिमी अनुकरण या निर्देश पर नितांत भौतिकवादी और सामाजिक विभेदकारी, दुराग्रही पाठ पढ़ाने की जिद रही है। ऐसी बौद्धिकता, शिक्षा नहीं, राजनीति केंद्रित रही है। यह बच्चों को आत्मिक रूप से निर्बल, व्यक्तिवादी और नितांत राज्याश्रित अकेला 'उपभोक्ता' बनाती है। समय रहते इस घातक प्रवृत्ति को रोकना जरूरी है। यह सब इसलिए छिपा रहा है, क्योंकि शिक्षा के प्रति समझ में ही विकृति भर गई है। 'शिक्षा को रोजगार से जोड़ो' के नारे ने समय के साथ हमारी शिक्षा को मात्र रोजगार-ट्रेनिंग में बदल दिया। तदनुरूप विश्वविद्यालयों ने विश्वविद्यालय शब्द का अर्थ ही खो दिया। यह याद रहे कि विश्वविद्यालय सदैव बड़े ज्ञानियों, बौद्धिकों का केंद्र होते रहे हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ था-सर्वोच्च चिंतन केंद्र। वहां समाज के चिंतक, मार्गदर्शक, नीतिकार निखरते थे। रोजगार का प्रशिक्षण दूसरी चीज थी, जिसका हर समाज में अलग स्थान था। श्री अरविंद ने कहा था-किसी भी महान देश का बौद्धिक पतन हमेशा इन्हीं तीन गुणों के क्षरण से आरंभ होता है। जो हैं-विवेकपूर्ण तर्क करने की क्षमता, तुलना और विभेद करने की क्षमता तथा अभिव्यक्ति की क्षमता। इससे समझें कि युवाओं में इन क्षमताओं के सतत विकास की कितनी आवश्यकता है।
हमें उस घातक प्रवृत्ति पर सोचना चाहिए जो केवल धन कमाने के प्रशिक्षण को ही 'शिक्षा' का पर्याय बना रही है। भारत के युवा केवल तकनीकी, मशीनी और कार्यालय चलाने वाले मजदूर, प्रबंधक आदि भर बन रहे हैं। उन्हें कितनी ही अच्छी आय हो रही हो, वे अपने ही देश, समाज के वर्तमान और भविष्य के बारे में सोचने-विचारने में असमर्थ होंगे। स्वयं अपने अस्तित्व, जीवन-मूल्य और भूमिका के बारे में वे कुछ ढंग का सोच-विचार नहीं कर सकेंगे। आशा है, नई शिक्षा नीति इन बातों का भी संज्ञान लेगी और विकृतियों को भी सुधारेगी।
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प्रधानमंत्री की कक्षा

05-09-14 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई नई परंपराएं स्थापित की हैं और शिक्षक दिवस के अवसर पर देश भर के छात्रों को संबोधित करना भी ऐसी ही परंपरा है। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी गुजरात के छात्रों को शिक्षक दिवस के अवसर पर संबोधित करते थे, प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इसे राष्ट्रीय स्तर पर किया है। प्रधानमंत्री के इस तरह संबोधित करने पर कई अच्छी-बुरी प्रतिक्रियाएं आई हैं। प्रधानमंत्री के समर्थक कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री के इस तरह छात्रों को संबोधित करने में कुछ बुरा नहीं है, इससे छात्रों को प्रेरणा मिलेगी। आलोचकों का यह कहना है कि छात्रों और शिक्षकों को जबर्दस्ती इस कार्यक्रम में भाग लेना पड़ा है और इस तरह मोदी अपना प्रचार कर रहे हैं। कुछ राज्य सरकारों ने भी इसका विरोध किया था। सरकार का कहना है कि इस कार्यक्रम को सुनना, न सुनना स्वैच्छिक था और किसी किस्म की अनिवार्यता नहीं थी, फिर भी ज्यादातर स्कूलों ने इस भाषण के लाइव प्रसारण को सुनने के लिए इंतजाम किए थे और यह भी सुनिश्चित किया था कि छात्र इस कार्यक्रम में भाग लें। अगर इससे जुड़े विवादों को छोड़ भी दें, तो यह कहा जा सकता है कि अगर इस कार्यक्रम से शिक्षा की समस्याओं पर नए सिरे से विचार करने की शुरुआत होती है, तो यह इसकी उपलब्धि होगी। प्रधानमंत्री का देश भर के छात्रों को एक साथ संबोधित करना स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक नई घटना है और यह शिक्षा में सुधार की शुरुआत बन सके, तो इस कार्यक्रम को सार्थक माना जा सकता है। जाहिर है, जिस क्षेत्र में प्रधानमंत्री खुद इस तरह दिलचस्पी लें, उसे सरकार की प्राथमिकता माना जाएगा और अगर इस तरह शिक्षा की तरक्की के रास्ते खुलें, तो यह अच्छी शुरुआत होगी। इस वक्त भारत में शिक्षा क्षेत्र अनेक विरोधाभासों में घिरा हुआ है। एक ओर तमाम भारतवासी यह मानते हैं कि शिक्षा बेहतर भविष्य के लिए एक गारंटी है और समाज के सबसे कमजोर हिस्सों के लोग भी अपना पेट काटकर बच्चों को पढ़ा रहे हैं। दूसरी ओर, शिक्षा के लिए उतने संस्थान और संसाधन मौजूद नहीं हैं। जो शिक्षा उपलब्ध है, वह बहुत महंगी है और उसकी गुणवत्ता भी संदिग्ध है। शिक्षा की गुणवत्ता की समस्या पर प्रधानमंत्री ने भी ध्यान दिलाया। उनके समूचे भाषण में यह स्वर दिखता है कि शिक्षा को जैसा होना चाहिए, उसे जो काम करना चाहिए, वह भारत में नहीं हो रहा है। इस संदर्भ में उन्होंने बार-बार जापान का भी उदाहरण दिया। उन्होंने इस बात पर भी गौर किया कि छात्र बड़े होकर शिक्षक नहीं बनना चाहते। आधुनिक अर्थव्यवस्था को ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था माना जाता है, यानी जिस देश के पास जितने उच्च शिक्षित और रचनाशील नागरिक होंगे, उस देश की अर्थव्यवस्था उतनी ही तरक्की करेगी। प्रधानमंत्री ने इस बात को भी याद दिलाया कि भारत को कभी विश्व गुरु माना जाता था और देश को वह सम्मान फिर से पाना चाहिए। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश के हर स्कूल में शौचालय होना जरूरी है और इस भाषण में भी उन्होंने इस बात का जिक्र किया। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री का ध्यान इस अत्यंत बुनियादी सुविधा पर गंभीरता से है। महात्मा गांधी ने आजादी के आंदोलन के साथ सार्वजनिक सफाई के मुद्दे को जोड़ा था। वह जानते थे कि सार्वजनिक सफाई से हमारे समाज में व्याप्त सामाजिक जड़ता और कुरीतियों की सफाई जुड़ी हुई है। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तक्षेप से स्कूलों में साफ-सुथरे शौचालय बन पाएं, तो यह हमारी शिक्षा में लगे जालों की सफाई की भी शुरुआत हो सकती है।


Thursday 4 September 2014

प्रधानमंत्री मोदी का स्वतंत्रता दिवस भाषण


प्रधानमंत्री मोदी का स्वतंत्रता दिवस भाषण ज्यों का त्यों

नवभारतटाइम्स.कॉम | Aug 15, 2014, 

मेरे प्यारे देशवासियो,
आज देश और दुनिया में फैले हुए सभी हिन्दुस्तानी आज़ादी का पर्व मना रहे हैं। इस आज़ादी के पावन पर्व पर प्यारे देशवासियों को भारत के प्रधान सेवक की अनेक-अनेक शुभकामनाएँ।
मैं आपके बीच प्रधान मंत्री के रूप में नहीं, प्रधान सेवक के रूप में उपस्थित हूँ। देश की आज़ादी की जंग कितने वर्षों तक लड़ी गई, कितनी पीढ़ियाँ खप गईं, अनगिनत लोगों ने बलिदान दिए, जवानी खपा दी, जेल में ज़िन्दगी गुज़ार दी। देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने वाले समर्पित उन सभी आज़ादी के सिपाहियों को मैं शत-शत वंदन करता हूँ, नमन करता हूँ। आज़ादी के इस पावन पर्व पर भारत के कोटि-कोटि जनों को भी मैं प्रणाम करता हूँ और आज़ादी की जंग के लिए जिन्होंने कुर्बानियां दीं, उनका पुण्य स्मरण करते हुए आज़ादी के इस पावन पर्व पर मां भारती के कल्याण के लिए हमारे देश के गरीब, पीड़ित, दलित, शोषित, समाज के पिछड़े हुए सभी लोगों के कल्याण का, उनके लिए कुछ न कुछ कर गुज़रने का संकल्प करने का पर्व है। मेरे प्यारे देशवासियो, राष्ट्रीय पर्व, राष्ट्रीय चरित्र को निखारने का एक अवसर होता है। राष्ट्रीय पर्व से प्रेरणा ले करके भारत के राष्ट्रीय चरित्र, जन-जन का चरित्र जितना अधिक निखरे, जितना अधिक राष्ट्र के लिए समर्पित हो, सारे कार्यकलाप राष्ट्रहित की कसौटी पर कसे जाएँ, अगर उस प्रकार का जीवन जीने का हम संकल्प करते हैं, तो आज़ादी का पर्व भारत को नई ऊँचाइयों पर ले जाने का एक प्रेरणा पर्व बन सकता है। 
मेरे प्यारे देशवासियो, यह देश राजनेताओं ने नहीं बनाया है, यह देश शासकों ने नहीं बनाया है, यह देश सरकारों ने भी नहीं बनाया है, यह देश हमारे किसानों ने बनाया है, हमारे मजदूरों ने बनाया है, हमारी माताओं और बहनों ने बनाया है, हमारे नौजवानों ने बनाया है, हमारे देश के ऋषियों ने, मुनियों ने, आचार्यों ने, शिक्षकों ने, वैज्ञानिकों ने, समाजसेवकों ने, पीढ़ी दर पीढ़ी कोटि-कोटि जनों की तपस्या से आज राष्ट्र यहाँ पहुँचा है। देश के लिए जीवन भर साधना करने वाली ये सभी पीढ़ियां, सभी महानुभाव अभिनन्दन के अधिकारी हैं। यह भारत के संविधान की शोभा है, भारत के संविधान का सामर्थ्य है कि एक छोटे से नगर के गरीब परिवार के एक बालक ने आज लाल किले की प्राचीर पर भारत के तिरंगे झण्डे के सामने सिर झुकाने का सौभाग्य प्राप्त किया। यह भारत के लोकतंत्र की ताकत है, यह भारत के संविधान रचयिताओं की हमें दी हुई अनमोल सौगात है। मैं भारत के संविधान के निर्माताओं को इस पर नमन करता हूँ। 
भाइयो एवं बहनो, आज़ादी के बाद देश आज जहां पहुंचा है, उसमें इस देश के सभी प्रधान मंत्रियों का योगदान है, इस देश की सभी सरकारों का योगदान है, इस देश के सभी राज्यों की सरकारों का भी योगदान है। मैं वर्तमान भारत को उस ऊँचाई पर ले जाने का प्रयास करने वाली सभी पूर्व सरकारों को, सभी पूर्व प्रधान मंत्रियों को, उनके सभी कामों को, जिनके कारण राष्ट्र का गौरव बढ़ा है, उन सबके प्रति इस पल आदर का भाव व्यक्त करना चाहता हूँ, मैं आभार की अभिव्यक्ति करना चाहता हूं। यह देश पुरातन सांस्कृतिक धरोहर की उस नींव पर खड़ा है, जहाँ पर वेदकाल में हमें एक ही मंत्र सुनाया जाता है, जो हमारी कार्य संस्कृति का परिचय है, हम सीखते आए हैं, पुनर्स्मरण करते आए हैं- "संगच्छध्वम् संवदध्वम् सं वो मनांसि जानताम्।" हम साथ चलें, मिलकर चलें, मिलकर सोचें, मिलकर संकल्प करें और मिल करके हम देश को आगे बढ़ाएँ। इस मूल मंत्र को ले करके सवा सौ करोड़ देशवासियों ने देश को आगे बढ़ाया है। कल ही नई सरकार की प्रथम संसद के सत्र का समापन हुआ। मैं आज गर्व से कहता हूं कि संसद का सत्र हमारी सोच की पहचान है, हमारे इरादों की अभिव्यक्ति है। हम बहुमत के बल पर चलने वाले लोग नहीं हैं, हम बहुमत के बल पर आगे बढ़ना नहीं चाहते हैं। हम सहमति के मजबूत धरातल पर आगे बढ़ना चाहते हैं। "संगच्छध्वम्" और इसलिए इस पूरे संसद के कार्यकाल को देश ने देखा होगा। सभी दलों को साथ लेकर, विपक्ष को जोड़ कर, कंधे से कंधा मिलाकर चलने में हमें अभूतपूर्व सफलता मिली है और उसका यश सिर्फ प्रधान मंत्री को नहीं जाता है, उसका यश सिर्फ सरकार में बैठे हुए लोगों को नहीं जाता है, उसका यश प्रतिपक्ष को भी जाता है, प्रतिपक्ष के सभी नेताओं को भी जाता है, प्रतिपक्ष के सभी सांसदों को भी जाता है और लाल किले की प्राचीर से, गर्व के साथ, मैं इन सभी सांसदों का अभिवादन करता हूं। सभी राजनीतिक दलों का भी अभिवादन करता हूं, जहां सहमति के मजबूत धरातल पर राष्ट्र को आगे ले जाने के महत्वपूर्ण निर्णयों को कर-करके हमने कल संसद के सत्र का समापन किया। 
भाइयो-बहनो, मैं दिल्ली के लिए आउटसाइडर हूं, मैं दिल्ली की दुनिया का इंसान नहीं हूं। मैं यहां के राज-काज को भी नहीं जानता। यहां की एलीट क्लास से तो मैं बहुत अछूता रहा हूं, लेकिन एक बाहर के व्यक्ति ने, एक आउटसाइडर ने दिल्ली आ करके पिछले दो महीने में, एक इनसाइडर व्यू लिया, तो मैं चौंक गया! यह मंच राजनीति का नहीं है, राष्ट्रनीति का मंच है और इसलिए मेरी बात को राजनीति के तराजू से न तोला जाए। मैंने पहले ही कहा है, मैं सभी पूर्व प्रधान मंत्रियों, पूर्व सरकारों का अभिवादन करता हूं, जिन्होंने देश को यहां तक पहुंचाया। मैं बात कुछ और करने जा रहा हूं और इसलिए इसको राजनीति के तराजू से न तोला जाए। मैंने जब दिल्ली आ करके एक इनसाइडर व्यू देखा, तो मैंने अनुभव किया, मैं चौंक गया। ऐसा लगा जैसे एक सरकार के अंदर भी दर्जनों अलग-अलग सरकारें चल रही हैं। हरेक की जैसे अपनी-अपनी जागीरें बनी हुई हैं। मुझे बिखराव नज़र आया, मुझे टकराव नज़र आया। एक डिपार्टमेंट दूसरे डिपार्टमेंट से भिड़ रहा है और यहां तक‍ भिड़ रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खट-खटाकर एक ही सरकार के दो डिपार्टमेंट आपस में लड़ाई लड़ रहे हैं। यह बिखराव, यह टकराव, एक ही देश के लोग! हम देश को कैसे आगे बढ़ा सकते हैं? और इसलिए मैंने कोशिश प्रारम्भ की है, उन दीवारों को गिराने की, मैंने कोशिश प्रारम्भ की है कि सरकार एक असेम्बल्ड एन्टिटी नहीं, लेकिन एक ऑर्गेनिक युनिटी बने, ऑर्गेनिक एन्टिटी बने। एकरस हो सरकार - एक लक्ष्य, एक मन, एक दिशा, एक गति, एक मति - इस मुक़ाम पर हम देश को चलाने का संकल्प करें। हम चल सकते हैं। इन दिनों अखबारों में चर्चा चलती है कि मोदी जी की सरकार आ गई, अफसर लोग समय पर ऑफिस जाते हैं, समय पर ऑफिस खुल जाते हैं, लोग पहुंच जाते हैं। मैं देख रहा था, हिन्दुस्तान के नैशनल न्यूज़पेपर कहे जाएं, टीवी मीडिया कहा जाए, प्रमुख रूप से ये खबरें छप रही थीं। सरकार के मुखिया के नाते तो मुझे आनन्द आ सकता है कि देखो भाई, सब समय पर चलना शुरू हो गया, सफाई होने लगी, लेकिन मुझे आनन्द नहीं आ रहा था, मुझे पीड़ा हो रही थी। वह बात मैं आज पब्लिक में कहना चाहता हूं। इसलिए कहना चाहता हूं कि इस देश में सरकारी अफसर समय पर दफ्तर जाएं, यह कोई न्यूज़ होती है क्या? और अगर वह न्यूज़ बनती है, तो हम कितने नीचे गए हैं, कितने गिरे हैं, इसका वह सबूत बन जाती है और इसलिए भाइयो-बहनो, सरकारें कैसे चली हैं? आज वैश्विक स्पर्धा में कोटि-कोटि भारतीयों के सपनों को साकार करना होगा तो यह "होती है", "चलती है", से देश नहीं चल सकता। जन-सामान्य की आशा-आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए, शासन व्यवस्था नाम का जो पुर्जा है, जो मशीन है, उसको और धारदार बनाना है, और तेज़ बनाना है, और गतिशील बनाना है और उस दिशा में हम प्रयास कर रहे हैं और मैं आपको विश्वास देता हूं, मेरे देशवासियो, इतने कम समय से दिल्ली के बाहर से आया हूं, लेकिन मैं देशवासियों को विश्वास दिलाता हूं कि सरकार में बैठे हुए लोगों का सामर्थ्य बहुत है - चपरासी से लेकर कैबिनेट सेक्रेटरी तक हर कोई सामर्थ्यवान है, हरेक की एक शक्ति है, उसका अनुभव है। मैं उस शक्ति को जगाना चाहता हूं, मैं उस शक्ति को जोड़ना चाहता हूं और उस शक्ति के माध्यम से राष्ट्र कल्याण की गति को तेज करना चाहता हूं और मैं करके रहूंगा। यह हम पाकर रहेंगे, हम करके रहेंगे, यह मैं देशवासियों को विश्वास दिलाना चाहता हूं और यह मैं 16 मई को नहीं कह सकता था, लेकिन आज दो-ढाई महीने के अनुभव के बाद, मैं 15 अगस्त को तिरंगे झंडे के साक्ष्य से कह रहा हूं, यह संभव है, यह होकर रहेगा।
भाइयो-बहनो, क्या देश के हमारे जिन महापुरुषों ने आज़ादी दिलाई, क्या उनके सपनों का भारत बनाने के लिए हमारा भी कोई कर्तव्य है या नहीं है, हमारा भी कोई राष्ट्रीय चरित्र है या नहीं है? उस पर गंभीरता से सोचने का समय आ गया है। 
भाइयो-बहनो, कोई मुझे बताए कि हम जो भी कर रहे हैं दिन भर, शाम को कभी अपने आपसे पूछा कि मेरे इस काम के कारण मेरे देश के गरीब से गरीब का भला हुआ या नहीं हुआ, मेरे देश के हितों की रक्षा हुई या नहीं हुई, मेरे देश के कल्याण के काम में आया या नहीं आया? क्या सवा सौ करोड़ देशवासियों का यह मंत्र नहीं होना चाहिए कि जीवन का हर कदम देशहित में होगा? दुर्भाग्य कैसा है? आज देश में एक ऐसा माहौल बना हुआ है कि किसी के पास कोई भी काम लेकर जाओ, तो कहता है, "इसमें मेरा क्या"? वहीं से शुरू करता है, "इसमें मेरा क्या" और जब उसको पता चलेगा कि इसमें उसका कुछ नहीं है, तो तुरन्त बोलता है, "तो फिर मुझे क्या"? "ये मेरा क्या" और "मुझे क्या", इस दायरे से हमें बाहर आना है। हर चीज़ अपने लिए नहीं होती है। कुछ चीज़ें देश के लिए भी हुआ करती हैं और इसलिए हमारे राष्ट्रीय चरित्र को हमें निखारना है। "मेरा क्या", "मुझे क्या", उससे ऊपर उठकर "देशहित के हर काम के लिए मैं आया हूं, मैं आगे हूं", यह भाव हमें जगाना है। 
भाइयो-बहनो, आज जब हम बलात्कार की घटनाओं की खबरें सुनते हैं, तो हमारा माथा शर्म से झुक जाता है। लोग अलग-अलग तर्क देते हैं, हर कोई मनोवैज्ञानिक बनकर अपने बयान देता है, लेकिन भाइयो-बहनो, मैं आज इस मंच से मैं उन माताओं और उनके पिताओं से पूछना चाहता हूं, हर मां-बाप से पूछना चाहता हूं कि आपके घर में बेटी 10 साल की होती है, 12 साल की होती है, मां और बाप चौकन्ने रहते हैं, हर बात पूछते हैं कि कहां जा रही हो, कब आओगी, पहुंचने के बाद फोन करना। बेटी को तो सैकड़ों सवाल मां-बाप पूछते हैं, लेकिन क्या कभी मां-बाप ने अपने बेटे को पूछने की हिम्मत की है कि कहां जा रहे हो, क्यों जा रहे हो, कौन दोस्त है? आखिर बलात्कार करने वाला किसी न किसी का बेटा तो है। उसके भी तो कोई न कोई मां-बाप हैं। क्या मां-बाप के नाते, हमने अपने बेटे को पूछा कि तुम क्या कर रहे हो, कहां जा रहे हो? अगर हर मां-बाप तय करे कि हमने बेटियों पर जितने बंधन डाले हैं, कभी बेटों पर भी डाल करके देखो तो सही, उसे कभी पूछो तो सही। 
भाइयो-बहनो, कानून अपना काम करेगा, कठोरता से करेगा, लेकिन समाज के नाते भी, हर मां-बाप के नाते हमारा दायित्व है। कोई मुझे कहे, यह जो बंदूक कंधे पर उठाकर निर्दोषों को मौत के घाट उतारने वाले लोग कोई माओवादी होंगे, कोई आतंकवादी होंगे, वे किसी न किसी के तो बेटे हैं। मैं उन मां-बाप से पूछना चाहता हूं कि अपने बेटे से कभी इस रास्ते पर जाने से पहले पूछा था आपने? हर मां-बाप जिम्मेवारी ले, इस गलत रास्ते पर गया हुआ आपका बेटा निर्दोषों की जान लेने पर उतारू है। न वह अपना भला कर पा रहा है, न परिवार का भला कर पा रहा है और न ही देश का भला कर पा रहा है और मैं हिंसा के रास्ते पर गए हुए, उन नौजवानों से कहना चाहता हूं कि आप जो भी आज हैं, कुछ न कुछ तो भारतमाता ने आपको दिया है, तब पहुंचे हैं। आप जो भी हैं, आपके मां-बाप ने आपको कुछ तो दिया है, तब हैं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, कंधे पर बंदूक ले करके आप धरती को लाल तो कर सकते हो, लेकिन कभी सोचो, अगर कंधे पर हल होगा, तो धरती पर हरियाली होगी, कितनी प्यारी लगेगी। कब तक हम इस धरती को लहूलुहान करते रहेंगे? और हमने पाया क्या है? हिंसा के रास्ते ने हमें कुछ नहीं दिया है। 
भाइयो-बहनो, मैं पिछले दिनों नेपाल गया था। मैंने नेपाल में सार्वजनिक रूप से पूरे विश्व को आकर्षित करने वाली एक बात कही थी। एक ज़माना था, सम्राट अशोक जिन्होंने युद्ध का रास्ता लिया था, लेकिन हिंसा को देख करके युद्ध छोड़, बुद्ध के रास्ते पर चले गए। मैं देख रहा हूं कि नेपाल में कोई एक समय था, जब नौजवान हिंसा के रास्ते पर चल पड़े थे, लेकिन आज वही नौजवान संविधान की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्हीं के साथ जुड़े लोग संविधान के निर्माण में लगे हैं और मैंने कहा था, शस्त्र छोड़कर शास्त्र के रास्ते पर चलने का अगर नेपाल एक उत्तम उदाहरण देता है, तो विश्व में हिंसा के रास्ते पर गए हुए नौजवानों को वापस आने की प्रेरणा दे सकता है। 
भाइयो-बहनो, बुद्ध की भूमि, नेपाल अगर संदेश दे सकती है, तो क्या भारत की भूमि दुनिया को संदेश नहीं दे सकती है? और इसलिए समय की मांग है, हम हिंसा का रास्ता छोड़ें, भाईचारे के रास्ते पर चलें।
भाइयो-बहनो, सदियों से किसी न किसी कारणवश साम्प्रदायिक तनाव से हम गुज़र रहे हैं, देश विभाजन तक हम पहुंच गए। आज़ादी के बाद भी कभी जातिवाद का ज़हर, कभी सम्पद्रायवाद का ज़हर, ये पापाचार कब तक चलेगा? किसका भला होता है? बहुत लड़ लिया, बहुत लोगों को काट लिया, बहुत लोगों को मार दिया। भाइयो-बहनो, एक बार पीछे मुड़कर देखिए, किसी ने कुछ नहीं पाया है। सिवाय भारत मां के अंगों पर दाग लगाने के हमने कुछ नहीं किया है और इसलिए, मैं देश के उन लोगों का आह्वान करता हूं कि जातिवाद का ज़हर हो, सम्प्रदायवाद का ज़हर हो, आतंकवाद का ज़हर हो, ऊंच-नीच का भाव हो, यह देश को आगे बढ़ाने में रुकावट है। एक बार मन में तय करो, दस साल के लिए मोरेटोरियम तय करो, दस साल तक इन तनावों से हम मुक्त समाज की ओर जाना चाहते हैं और आप देखिए, शांति, एकता, सद्भावना, भाईचारा हमें आगे बढ़ने में कितनी ताकत देता है, एक बार देखो।
मेरे देशवासियो, मेरे शब्दों पर भरोसा कीजिए, मैं आपको विश्वास दिलाता हूं। अब तक किए हुए पापों को, उस रास्ते को छोड़ें, सद्भावना, भाईचारे का रास्ता अपनाएं और हम देश को आगे ले जाने का संकल्प करें। मुझे विश्वास है कि हम इसको कर सकते हैं।
भाइयो-बहनो, जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ रहा है, आधुनिकता का हमारे मन में एक भाव जगता है, पर हम करते क्या हैं? क्या कभी सोचा है कि आज हमारे देश में सेक्स रेशियो का क्या हाल है? 1 हजार लड़कों पर 940 बेटियाँ पैदा होती हैं। समाज में यह असंतुलन कौन पैदा कर रहा है? ईश्वर तो नहीं कर रहा है। मैं उन डॉक्टरों से अनुरोध करना चाहता हूं कि अपनी तिजोरी भरने के लिए किसी माँ के गर्भ में पल रही बेटी को मत मारिए। मैं उन माताओं, बहनों से कहता हूं कि आप बेटे की आस में बेटियों को बलि मत चढ़ाइए। कभी-कभी माँ-बाप को लगता है कि बेटा होगा, तो बुढ़ापे में काम आएगा। मैं सामाजिक जीवन में काम करने वाला इंसान हूं। मैंने ऐसे परिवार देखे हैं कि पाँच बेटे हों, पाँचों के पास बंगले हों, घर में दस-दस गाड़ियाँ हों, लेकिन बूढ़े माँ-बाप ओल्ड एज होम में रहते हैं, वृद्धाश्रम में रहते हैं। मैंने ऐसे परिवार देखे हैं। मैंने ऐसे परिवार भी देखे हैं, जहाँ संतान के रूप में अकेली बेटी हो, वह बेटी अपने सपनों की बलि चढ़ाती है, शादी नहीं करती और बूढ़े माँ-बाप की सेवा के लिए अपने जीवन को खपा देती है। यह असमानता, माँ के गर्भ में बेटियों की हत्या, इस 21वीं सदी के मानव का मन कितना कलुषित, कलंकित, कितना दाग भरा है, उसका प्रदर्शन कर रहा है। हमें इससे मुक्ति लेनी होगी और यही तो आज़ादी के पर्व का हमारे लिए संदेश है।
अभी राष्ट्रमंडल खेल हुए हैं। भारत के खिलाड़ियों ने भारत को गौरव दिलाया है। हमारे करीब 64 खिलाड़ी जीते हैं। हमारे 64 खिलाड़ी मेडल लेकर आए हैं, लेकिन उनमें 29 बेटियाँ हैं। इस पर गर्व करें और उन बेटियों के लिए ताली बजाएं। भारत की आन-बान-शान में हमारी बेटियों का भी योगदान है, हम इसको स्वीकार करें और उन्हें भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ लेकर चलें, तो सामाजिक जीवन में जो बुराइयाँ आई हैं, हम उन बुराइयों से मुक्ति पा सकते हैं। इसलिए भाइयो-बहनो, एक सामाजिक चरित्र के नाते, एक राष्ट्रीय चरित्र के नाते हमें उस दिशा में जाना है। भाइयो-बहनो, देश को आगे बढ़ाना है, तो विकास - एक ही रास्ता है। सुशासन - एक ही रास्ता है। देश को आगे ले जाने के लिए ये ही दो पटरियाँ हैं - गुड गवर्नेंस एंड डेवलपमेंट, उन्हीं को लेकर हम आगे चल सकते हैं। उन्हीं को लेकर चलने का इरादा लेकर हम चलना चाहते हैं। मैं जब गुड गवर्नेंस की बात करता हूँ, तब आप मुझे बताइए कि कोई प्राइवेट में नौकरी करता है, अगर आप उसको पूछोगे, तो वह कहता है कि मैं जॉब करता हूँ, लेकिन जो सरकार में नौकरी करता है, उसको पूछोगे, तो वह कहता है कि मैं सर्विस करता हूँ। दोनों कमाते हैं, लेकिन एक के लिए जॉब है और एक के लिए सर्विस है। मैं सरकारी सेवा में लगे सभी भाइयों और बहनों से प्रश्न पूछता हूँ कि क्या कहीं यह 'सर्विस' शब्द, उसने अपनी ताकत खो तो नहीं दी है, अपनी पहचान खो तो नहीं दी है? सरकारी सेवा में जुड़े हुए लोग 'जॉब' नहीं कर रहे हैं, 'सेवा' कर रहे हैं, 'सर्विस' कर रहे हैं। इसलिए इस भाव को पुनर्जीवित करना, एक राष्ट्रीय चरित्र के रूप में इसको हमें आगे ले जाना, उस दिशा में हमें आगे बढ़ना है।
भाइयो-बहनो, क्या देश के नागरिकों को राष्ट्र के कल्याण के लिए कदम उठाना चाहिए या नहीं उठाना चाहिए? आप कल्पना कीजिए, सवा सौ करोड़ देशवासी एक कदम चलें, तो यह देश सवा सौ करोड़ कदम आगे चला जाएगा। लोकतंत्र, यह सिर्फ सरकार चुनने का सीमित मायना नहीं है। लोकतंत्र में सवा सौ करोड़ नागरिक और सरकार कंधे से कंधा मिला कर देश की आशा-आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए काम करें, यह लोकतंत्र का मायना है। हमें जन-भागीदारी करनी है। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के साथ आगे बढ़ना है। हमें जनता को जोड़कर आगे बढ़ना है। उसे जोड़ने में आगे बढ़ने के लिए, आप मुझे बताइए कि आज हमारा किसान आत्महत्या क्यों करता है? वह साहूकार से कर्ज़ लेता है, कर्ज़ दे नहीं सकता है, मर जाता है। बेटी की शादी है, गरीब आदमी साहूकार से कर्ज़ लेता है, कर्ज़ वापस दे नहीं पाता है, जीवन भर मुसीबतों से गुज़रता है। मेरे उन गरीब परिवारों की रक्षा कौन करेगा?
भाइयो-बहनो, इस आज़ादी के पर्व पर मैं एक योजना को आगे बढ़ाने का संकल्प करने के लिए आपके पास आया हूँ - 'प्रधान मंत्री जनधन योजना'। इस 'प्रधान मंत्री जनधन योजना' के माध्यम से हम देश के गरीब से गरीब लोगों को बैंक अकाउंट की सुविधा से जोड़ना चाहते हैं। आज करोड़ों-करोड़ परिवार हैं, जिनके पास मोबाइल फोन तो हैं, लेकिन बैंक अकाउंट नहीं हैं। यह स्थिति हमें बदलनी है। देश के आर्थिक संसाधन गरीब के काम आएँ, इसकी शुरुआत यहीं से होती है। यही तो है, जो खिड़की खोलता है। इसलिए 'प्रधान मंत्री जनधन योजना' के तहत जो अकाउंट खुलेगा, उसको डेबिट कार्ड दिया जाएगा। उस डेबिट कार्ड के साथ हर गरीब परिवार को एक लाख रुपए का बीमा सुनिश्चित कर दिया जाएगा, ताकि अगर उसके जीवन में कोई संकट आया, तो उसके परिवारजनों को एक लाख रुपए का बीमा मिल सकता है।
भाइयो-बहनो, यह देश नौजवानों का देश है। 65 प्रतिशत देश की जनसंख्या 35 वर्ष से कम आयु की है। हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा नौजवान देश है। क्या हमने कभी इसका फायदा उठाने के लिए सोचा है? आज दुनिया को स्किल्ड वर्कफोर्स की जरूरत है। आज भारत को भी स्किल्ड वर्कफोर्स की जरूरत है। कभी-कभार हम अच्छा ड्राइवर ढूँढ़ते हैं, नहीं मिलता है, प्लम्बर ढूँढ़ते हैं, नहीं मिलता है, अच्छा कुक चाहिए, नहीं मिलता है। नौजवान हैं, बेरोजगार हैं, लेकिन हमें जैसा चाहिए, वैसा नौजवान मिलता नहीं है। देश के विकास को यदि आगे बढ़ाना है, तो 'स्किल डेवलपमेंट' और 'स्किल्ड इंडिया' यह हमारा मिशन है। हिन्दुस्तान के कोटि-कोटि नौजवान स्किल सीखें, हुनर सीखें, उसके लिए पूरे देश में जाल होना चाहिए और घिसी-पिटी व्यवस्थाओं से नहीं, उनको वह स्किल मिले, जो उन्हें आधुनिक भारत बनाने में काम आए। वे दुनिया के किसी भी देश में जाएँ, तो उनके हुनर की सराहना हो और हम दो प्रकार के विकास को लेकर चलना चाहते हैं। मैं ऐसे नौजवानों को भी तैयार करना चाहता हूँ, जो जॉब क्रिएटर हों और जो जॉब क्रिएट करने का सामर्थ्य नहीं रखते, संयोग नहीं है, वे विश्व के किसी भी कोने में जाकर आँख में आँख मिला करके अपने बाहुबल के द्वारा, अपनी उँगलियों के हुनर के द्वारा, अपने कौशल्य के द्वारा विश्व का हृदय जीत सकें, ऐसे नौजवानों का सामर्थ्य हम तैयार करना चाहते हैं। भाइयो-बहनो, स्किल डेवलपमेंट को बहुत तेज़ी से आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर मैं यह करना चाहता हूं।
भाइयो-बहनो, विश्व बदल चुका है। मेरे प्यारे देशवासियो, विश्व बदल चुका है। अब भारत अलग-थलग, अकेला एक कोने में बैठकर अपना भविष्य तय नहीं कर सकता। विश्व की आर्थिक व्यवस्थाएँ बदल चुकी हैं और इसलिए हम लोगों को भी उसी रूप में सोचना होगा। सरकार ने अभी कई फैसले लिए हैं, बजट में कुछ घोषणाएँ की हैं और मैं विश्व का आह्वान करता हूँ, विश्व में पहुँचे हुए भारतवासियों का भी आह्वान करता हूँ कि आज अगर हमें नौजवानों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार देना है, तो हमें मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देना पड़ेगा। इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट की जो स्थिति है, उसमें संतुलन पैदा करना हो, तो हमें मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर बल देना होगा। हमारे नौजवानों की जो विद्या है, सामर्थ्य है, उसको अगर काम में लाना है, तो हमें मैन्युफैक्चरिंग की ओर जाना पड़ेगा और इसके लिए हिन्दुस्तान की भी पूरी ताकत लगेगी, लेकिन विश्व की शक्तियों को भी हम निमंत्रण देते हैं। इसलिए मैं आज लाल किले की प्राचीर से विश्व भर में लोगों से कहना चाहता हूँ, "कम, मेक इन इंडिया," "आइए, हिन्दुस्तान में निर्माण कीजिए।" दुनिया के किसी भी देश में जाकर बेचिए, लेकिन निर्माण यहाँ कीजिए, मैन्युफैक्चर यहाँ कीजिए। हमारे पास स्किल है, टेलेंट है, डिसिप्लिन है, कुछ कर गुज़रने का इरादा है। हम विश्व को एक सानुकूल अवसर देना चाहते हैं कि आइए, "कम, मेक इन इंडिया" और हम विश्व को कहें, इलेक्ट्रिकल से ले करके इलेक्ट्रॉनिक्स तक "कम, मेक इन इंडिया", केमिकल्स से ले करके फार्मास्युटिकल्स तक "कम, मेक इन इंडिया", ऑटोमोबाइल्स से ले करके ऐग्रो वैल्यू एडीशन तक "कम, मेक इन इंडिया", पेपर हो या प्लास्टिक "कम, मेक इन इंडिया", सैटेलाइट हो या सबमेरीन "कम, मेक इन इंडिया"। ताकत है हमारे देश में! आइए, मैं निमंत्रण देता हूं।
भाइयो-बहनो, मैं देश के नौजवानों का भी एक आवाहन करना चाहता हूं, विशेष करके उद्योग क्षेत्र में लगे हुए छोटे-छोटे लोगों का आवाहन करना चाहता हूं। मैं देश के टेक्निकल एजुकेशन से जुड़े हुए नौजवानों का आवाहन करना चाहता हूं। जैसे मैं विश्व से कहता हूं "कम, मेक इन इंडिया", मैं देश के नौजवानों को कहता हूं - हमारा सपना होना चाहिए कि दुनिया के हर कोने में यह बात पहुंचनी चाहिए, "मेड इन इंडिया"। यह हमारा सपना होना चाहिए। क्या मेरे देश के नौजवानों को देश-सेवा करने के लिए सिर्फ भगत सिंह की तरह फांसी पर लटकना ही अनिवार्य है? भाइयो-बहनो, लालबहादुर शास्त्री जी ने "जय जवान, जय किसान" एक साथ मंत्र दिया था। जवान, जो सीमा पर अपना सिर दे देता है, उसी की बराबरी में "जय जवान" कहा था। क्यों? क्योंकि अन्न के भंडार भर करके मेरा किसान भारत मां की उतनी ही सेवा करता है, जैसे जवान भारत मां की रक्षा करता है। यह भी देश सेवा है। अन्न के भंडार भरना, यह भी किसान की सबसे बड़ी देश सेवा है और तभी तो लालबहादुर शास्त्री ने "जय जवान, जय किसान" कहा था।
भाइयो-बहनो, मैं नौजवानों से कहना चाहता हूं, आपके रहते हुए छोटी-मोटी चीज़ें हमें दुनिया से इम्पोर्ट क्यों करनी पड़ें? क्या मेरे देश के नौजवान यह तय कर सकते हैं, वे ज़रा रिसर्च करें, ढूंढ़ें कि भारत कितने प्रकार की चीज़ों को इम्पोर्ट करता है और वे फैसला करें कि मैं अपने छोटे-छोटे काम के द्वारा, उद्योग के द्वारा, मेरा छोटा ही कारखाना क्यों न हो, लेकिन मेरे देश में इम्पोर्ट होने वाली कम से कम एक चीज़ मैं ऐसी बनाऊंगा कि मेरे देश को कभी इम्पोर्ट न करना पड़े। इतना ही नहीं, मेरा देश एक्सपोर्ट करने की स्थिति में आए। अगर हिन्दुस्तान के लाखों नौजवान एक-एक आइटम ले करके बैठ जाएं, तो भारत दुनिया में एक्सपोर्ट करने वाला देश बन सकता है और इसलिए मेरा आग्रह है, नौजवानों से विशेष करके, छोटे-मोटे उद्योगकारों से - दो बातों में कॉम्प्रोमाइज़ न करें, एक ज़ीरो डिफेक्ट, दूसरा ज़ीरो इफेक्ट। हम वह मैन्युफैक्चरिंग करें, जिसमें ज़ीरो डिफेक्ट हो, ताकि दुनिया के बाज़ार से वह कभी वापस न आए और हम वह मैन्युफैक्चरिंग करें, जिससे ज़ीरो इफेक्ट हो, पर्यावरण पर इसका कोई नेगेटिव इफेक्ट न हो। ज़ीरो डिफेक्ट, ज़ीरो इफेक्ट के साथ मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का सपना ले करके अगर हम आगे चलते हैं, तो मुझे विश्वास है, मेरे भाइयो-बहनो, कि जिस काम को ले करके हम चल रहे हैं, उस काम को पूरा करेंगे।
भाइयो-बहनो, पूरे विश्व में हमारे देश के नौजवानों ने भारत की पहचान को बदल दिया है। विश्व भारत को क्या जानता था? ज्यादा नहीं, अभी 25-30 साल पहले तक दुनिया के कई कोने ऐसे थे जो हिन्दुस्तान के लिए यही सोचते थे कि ये तो "सपेरों का देश" है। ये सांप का खेल करने वाला देश है, काले जादू वाला देश है। भारत की सच्ची पहचान दुनिया तक पहुंची नहीं थी, लेकिन भाइयो-बहनो, हमारे 20-22-23 साल के नौजवान, जिन्होंने कम्प्यूटर पर अंगुलियां घुमाते-घुमाते दुनिया को चकित कर दिया। विश्व में भारत की एक नई पहचान बनाने का रास्ता हमारे आई.टी. प्रोफेशन के नौजवानों ने कर दिया। अगर यह ताकत हमारे देश में है, तो क्या देश के लिए हम कुछ सोच सकते हैं? इसलिए हमारा सपना "डिजिटल इंडिया" है। जब मैं "डिजिटल इंडिया" कहता हूं, तब ये बड़े लोगों की बात नहीं है, यह गरीब के लिए है। अगर ब्रॉडबेंड कनेक्टिविटी से हिन्दुस्तान के गांव जुड़ते हैं और गांव के आखिरी छोर के स्कूल में अगर हम लॉन्ग डिस्टेंस एजुकेशन दे सकते हैं, तो आप कल्पना कर सकते हैं कि हमारे उन गांवों के बच्चों को कितनी अच्छी शिक्षा मिलेगी। जहां डाक्टर नहीं पहुंच पाते, अगर हम टेलिमेडिसिन का नेटवर्क खड़ा करें, तो वहां पर बैठे हुए गरीब व्यक्ति को भी, किस प्रकार की दवाई की दिशा में जाना है, उसका स्पष्ट मार्गदर्शन मिल सकता है।
सामान्य मानव की रोजमर्रा की चीज़ें - आपके हाथ में मोबाइल फोन है, हिन्दुस्तान के नागरिकों के पास बहुत बड़ी तादाद में मोबाइल कनेक्टिविटी है, लेकिन क्या इस मोबाइल गवर्नेंस की तरफ हम जा सकते हैं? अपने मोबाइल से गरीब आदमी बैंक अकाउंट ऑपरेट करे, वह सरकार से अपनी चीज़ें मांग सके, वह अपनी अर्ज़ी पेश करे, अपना सारा कारोबार चलते-चलते मोबाइल गवर्नेंस के द्वारा कर सके और यह अगर करना है, तो हमें 'डिजिटल इंडिया' की ओर जाना है। और 'डिजिटल इंडिया' की तरफ जाना है, तो इसके साथ हमारा यह भी सपना है, हम आज बहुत बड़ी मात्रा में विदेशों से इलेक्ट्रॉनिक गुड्ज़ इम्पोर्ट करते हैं। आपको हैरानी होगी भाइयो-बहनो, ये टीवी, ये मोबाइल फोन, ये आईपैड, ये जो इलेक्ट्रॉनिक गुड्ज़ हम लाते हैं, देश के लिए पेट्रोलियम पदार्थों को लाना अनिवार्य है, डीज़ल और पेट्रोल लाते हैं, तेल लाते हैं। उसके बाद इम्पोर्ट में दूसरे नम्बर पर हमारी इलैक्ट्रॉनिक गुड्ज़ हैं। अगर हम 'डिजिटल इंडिया' का सपना ले करके इलेक्ट्रॉनिक गुड्ज़ के मैन्युफैक्चर के लिए चल पड़ें और हम कम से कम स्वनिर्भर बन जाएं, तो देश की तिजोरी को कितना बड़ा लाभ हो सकता है और इसलिए हम इस 'डिजिटल इंडिया' को ले करके जब आगे चलना चाहते हैं, तब ई-गवर्नेंस। ई-गवर्नेंस ईजी गवर्नेंस है, इफेक्टिव गवर्नेंस है और इकोनॉमिकल गवर्नेंस है। ई-गवर्नेंस के माध्यम से गुड गवर्नेंस की ओर जाने का रास्ता है। एक जमाना था, कहा जाता था कि रेलवे देश को जोड़ती है । ऐसा कहा जाता था। मैं कहता हूं कि आज आईटी देश के जन-जन को जोड़ने की ताकत रखती है और इसलिए हम 'डिजिटल इंडिया' के माध्यम से आईटी के धरातल पर यूनिटी के मंत्र को साकार करना चाहते हैं।
भाइयो-बहनो, अगर हम इन चीजों को ले करके चलते हैं, तो मुझे विश्वास है कि 'डिजिटल इंडिया' विश्व की बराबरी करने की एक ताकत के साथ खड़ा हो जाएगा, हमारे नौजवानों में वह सामर्थ्य है, यह उनको वह अवसर दे रहा है।
भाइयो-बहनो, हम टूरिज्म को बढ़ावा देना चाहते हैं। टूरिज्म से गरीब से गरीब व्यक्ति को रोजगार मिलता है। चना बेचने वाला भी कमाता है, ऑटो-रिक्शा वाला भी कमाता है, पकौड़े बेचने वाला भी कमाता है और एक चाय बेचने वाला भी कमाता है। जब चाय बेचने वाले की बात आती है, तो मुझे ज़रा अपनापन महसूस होता है। टूरिज्म के कारण गरीब से गरीब व्यक्ति को रोज़गार मिलता है। लेकिन टूरिज्म के अंदर बढ़ावा देने में भी और एक राष्ट्रीय चरित्र के रूप में भी हमारे सामने सबसे बड़ी रुकावट है हमारे चारों तरफ दिखाई दे रही गंदगी । क्या आज़ादी के बाद, आज़ादी के इतने सालों के बाद, जब हम 21 वीं सदी के डेढ़ दशक के दरवाजे पर खड़े हैं, तब क्या अब भी हम गंदगी में जीना चाहते हैं? मैंने यहाँ सरकार में आकर पहला काम सफाई का शुरू किया है। लोगों को आश्चर्य हुआ कि क्या यह प्रधान मंत्री का काम है? लोगों को लगता होगा कि यह प्रधान मंत्री के लिए छोटा काम होगा, मेरे लिए बहुत बड़ा काम है। सफाई करना बहुत बड़ा काम है। क्या हमारा देश स्वच्छ नहीं हो सकता है? अगर सवा सौ करोड़ देशवासी तय कर लें कि मैं कभी गंदगी नहीं करूंगा तो दुनिया की कौन-सी ताकत है, जो हमारे शहर, गाँव को आकर गंदा कर सके? क्या हम इतना-सा संकल्प नहीं कर सकते हैं?
भाइयो-बहनो, 2019 में महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती आ रही है। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती हम कैसे मनाएँ? महात्मा गाँधी, जिन्होंने हमें आज़ादी दी, जिन्होंने इतने बड़े देश को दुनिया के अंदर इतना सम्मान दिलाया, उन महात्मा गाँधी को हम क्या दें? भाइयो-बहनो, महात्मा गाँधी को सबसे प्रिय थी - सफाई, स्वच्छता। क्या हम तय करें कि सन् 2019 में जब हम महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती मनाएँगे, तो हमारा गाँव, हमारा शहर, हमारी गली, हमारा मोहल्ला, हमारे स्कूल, हमारे मंदिर, हमारे अस्पताल, सभी क्षेत्रों में हम गंदगी का नामोनिशान नहीं रहने देंगे? यह सरकार से नहीं होता है, जन-भागीदारी से होता है, इसलिए यह काम हम सबको मिल कर करना है।
भाइयो-बहनो, हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। क्या कभी हमारे मन को पीड़ा हुई कि आज भी हमारी माताओं और बहनों को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है? डिग्निटी ऑफ विमेन, क्या यह हम सबका दायित्व नहीं है? बेचारी गाँव की माँ-बहनें अँधेरे का इंतजार करती हैं, जब तक अँधेरा नहीं आता है, वे शौच के लिए नहीं जा पाती हैं। उसके शरीर को कितनी पीड़ा होती होगी, कितनी बीमारियों की जड़ें उसमें से शुरू होती होंगी! क्या हमारी माँ-बहनों की इज्ज़त के लिए हम कम-से-कम शौचालय का प्रबन्ध नहीं कर सकते हैं? भाइयो-बहनो, किसी को लगेगा कि 15 अगस्त का इतना बड़ा महोत्सव बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने का अवसर होता है। भाइयो-बहनो, बड़ी बातों का महत्व है, घोषणाओं का भी महत्व है, लेकिन कभी-कभी घोषणाएँ एषणाएँ जगाती हैं और जब घोषणाएँ परिपूर्ण नहीं होती हैं, तब समाज निराशा की गर्त में डूब जाता है। इसलिए हम उन बातों के ही कहने के पक्षधर हैं, जिनको हम अपने देखते-देखते पूरा कर पाएँ। भाइयो-बहनो, इसलिए मैं कहता हूँ कि आपको लगता होगा कि क्या लाल किले से सफाई की बात करना, लाल किले से टॉयलेट की बात बताना, यह कैसा प्रधान मंत्री है? भाइयो-बहनो, मैं नहीं जानता हूँ कि मेरी कैसी आलोचना होगी, इसे कैसे लिया जाएगा, लेकिन मैं मन से मानता हूँ। मैं गरीब परिवार से आया हूँ, मैंने गरीबी देखी है और गरीब को इज़् ज़त मिले, इसकी शुरूआत यहीं से होती है। इसलिए 'स्वच्छ भारत' का एक अभियान इसी 2 अक्टूबर से मुझे आरम्भ करना है और चार साल के भीतर-भीतर हम इस काम को आगे बढ़ाना चाहते हैं। एक काम तो मैं आज ही शुरू करना चाहता हूँ और वह है- हिन्दुस्तान के सभी स्कूलों में टॉयलेट हो, बच्चियों के लिए अलग टॉयलेट हो, तभी तो हमारी बच्चियाँ स्कूल छोड़ कर भागेंगी नहीं। हमारे सांसद जो एमपीलैड फंड का उपयोग कर रहे हैं, मैं उनसे आग्रह करता हूँ कि एक साल के लिए आपका धन स्कूलों में टॉयलेट बनाने के लिए खर्च कीजिए। सरकार अपना बजट टॉयलेट बनाने में खर्च करे। मैं देश के कॉरपोरेट सेक्टर्स का भी आह्वान करना चाहता हूँ कि कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत आप जो खर्च कर रहे हैं, उसमें आप स्कूलों में टॉयलेट बनाने को प्राथमिकता दीजिए। सरकार के साथ मिलकर, राज्य सरकारों के साथ मिलकर एक साल के भीतर-भीतर यह काम हो जाए और जब हम अगले 15 अगस्त को यहाँ खड़े हों, तब इस विश्वास के साथ खड़े हों कि अब हिन्दुस्तान का ऐसा कोई स्कूल नहीं है, जहाँ बच्चे एवं बच्चियों के लिए अलग टॉयलेट का निर्माण होना बाकी है।
भाइयो-बहनो, अगर हम सपने लेकर चलते हैं तो सपने पूरे भी होते हैं। मैं आज एक विशेष बात और कहना चाहता हूँ। भाइयो-बहनो, देशहित की चर्चा करना और देशहित के विचारों को देना, इसका अपना महत्व है। हमारे सांसद, वे कुछ करना भी चाहते हैं, लेकिन उन्हें अवसर नहीं मिलता है। वे अपनी बात बता सकते हैं, सरकार को चिट्ठी लिख सकते हैं, आंदोलन कर सकते हैं, मेमोरेंडम दे सकते हैं, लेकिन फिर भी, खुद को कुछ करने का अवसर मिलता नहीं है। मैं एक नए विचार को लेकर आज आपके पास आया हूं। हमारे देश में प्रधान मंत्री के नाम पर कई योजनाएं चल रही हैं, कई नेताओं के नाम पर ढेर सारी योजनाएं चल रही हैं, लेकिन मैं आज सांसद के नाम पर एक योजना घोषित करता हूं - "सांसद आदर्श ग्राम योजना"। हम कुछ पैरामीटर्स तय करेंगे और मैं सांसदों से आग्रह करता हूं कि वे अपने इलाके में तीन हजार से पांच हजार के बीच का कोई भी गांव पसंद कर लें और कुछ पैरामीटर्स तय हों - वहां के स्थल, काल, परिस्थिति के अनुसार, वहां की शिक्षा, वहां का स्वास्थ्य, वहां की सफाई, वहां के गांव का वह माहौल, गांव में ग्रीनरी, गांव का मेलजोल, कई पैरामीटर्स हम तय करेंगे और हर सांसद 2016 तक अपने इलाके में एक गांव को आदर्श गांव बनाए। इतना तो कर सकते हैं न भाई! करना चाहिए न! देश बनाना है तो गांव से शुरू करें। एक आदर्श गांव बनाएं और मैं 2016 का टाइम इसलिए देता हूं कि नयी योजना है, लागू करने में, योजना बनाने में कभी समय लगता है और 2016 के बाद, जब 2019 में वह चुनाव के लिए जाए, उसके पहले और दो गांवों को करे और 2019 के बाद हर सांसद, 5 साल के कार्यकाल में कम से कम 5 आदर्श गांव अपने इलाके में बनाए। जो शहरी क्षेत्र के एम.पीज़ हैं, उनसे भी मेरा आवाहन है कि वे भी एक गांव पसंद करें। जो राज्य सभा के एम.पीज़ हैं, उनसे भी मेरा आग्रह है, वे भी एक गांव पसंद करें।
हिन्दुस्तान के हर जिले में, अगर हम एक आदर्श गांव बनाकर देते हैं, तो सभी अगल-बगल के गांवों को खुद उस दिशा में जाने का मन कर जाएगा। एक मॉडल गांव बना करके देखें, व्यवस्थाओं से भरा हुआ गांव बनाकर देखें। 11 अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण जी की जन्म जयंती है। मैं 11 अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण जी की जन्म जयंती पर एक "सांसद आदर्श ग्राम योजना" का कम्प्लीट ब्ल्यूप्रिंट सभी सांसदों के सामने रख दूंगा, सभी राज्य सरकारों के सामने रख दूंगा और मैं राज्य सरकारों से भी आग्रह करता हूं कि आप भी इस योजना के माध्यम से, अपने राज्य में जो अनुकूलता हो, वैसे सभी विधायकों के लिए एक आदर्श ग्राम बनाने का संकल्प करिए। आप कल्पना कर सकते हैं, देश के सभी विधायक एक आदर्श ग्राम बनाएं, सभी सांसद एक आदर्श ग्राम बनाएं। देखते ही देखते हिन्दुस्तान के हर ब्लॉक में एक आदर्श ग्राम तैयार हो जाएगा, जो हमें गांव की सुख-सुविधा में बदलाव लाने के लिए प्रेरणा दे सकता है, हमें नई दिशा दे सकता है और इसलिए इस "सांसद आदर्श ग्राम योजना" के तहत हम आगे बढ़ना चाहते हैं।
भाइयो-बहनो, जब से हमारी सरकार बनी है, तब से अखबारों में, टी.वी. में एक चर्चा चल रही है कि प्लानिंग कमीशन का क्या होगा? मैं समझता हूं कि जिस समय प्लानिंग कमीशन का जन्म हुआ, योजना आयोग का जन्म हुआ, उस समय की जो स्थितियाँ थीं, उस समय की जो आवश्यकताएँ थीं, उनके आधार पर उसकी रचना की गई। इन पिछले वर्षों में योजना आयोग ने अपने तरीके से राष्ट्र के विकास में उचित योगदान दिया है। मैं इसका आदर करता हूं, गौरव करता हूं, सम्मान करता हूं, सत्कार करता हूं, लेकिन अब देश की अंदरूनी स्थिति भी बदली हुई है, वैश्विक परिवेश भी बदला हुआ है, आर्थिक गतिविधि का केंद्र सरकारें नहीं रही हैं, उसका दायरा बहुत फैल चुका है। राज्य सरकारें विकास के केन्द्र में आ रही हैं और मैं इसको अच्छी निशानी मानता हूँ। अगर भारत को आगे ले जाना है, तो यह राज्यों को आगे ले जाकर ही होने वाला है। भारत के फेडेरल स्ट्रक्चर की अहमियत पिछले 60 साल में जितनी थी, उससे ज्यादा आज के युग में है। हमारे संघीय ढाँचे को मजबूत बनाना, हमारे संघीय ढाँचे को चेतनवंत बनाना, हमारे संघीय ढाँचे को विकास की धरोहर के रूप में काम लेना, मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्री की एक टीम का फॉर्मेशन हो, केन्द्र और राज्य की एक टीम हो, एक टीम बनकर आगे चले, तो इस काम को अब प्लानिंग कमीशन के नए रंग-रूप से सोचना पड़ेगा। इसलिए लाल किले की इस प्राचीर से एक बहुत बड़ी चली आ रही पुरानी व्यवस्था में उसका कायाकल्प भी करने की जरूरत है, उसमें बहुत बदलाव करने की आवश्यकता है। कभी-कभी पुराने घर की रिपेयरिंग में खर्चा ज्यादा होता है लेकिन संतोष नहीं होता है। फिर मन करता है, अच्छा है, एक नया ही घर बना लें और इसलिए बहुत ही कम समय के भीतर योजना आयोग के स्थान पर, एक क्रिएटिव थिंकिंग के साथ राष्ट्र को आगे ले जाने की दिशा, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की दिशा, संसाधनों का ऑप्टिमम युटिलाइजेशन, प्राकृतिक संसाधनों का ऑप्टिमम युटिलाइजेशन, देश की युवा शक्ति के सामर्थ्य का उपयोग, राज्य सरकारों की आगे बढ़ने की इच्छाओं को बल देना, राज्य सरकारों को ताकतवर बनाना, संघीय ढाँचे को ताकतवर बनाना, एक ऐसे नये रंग-रूप के साथ, नये शरीर, नयी आत्मा के साथ, नयी सोच के साथ, नयी दिशा के साथ, नये विश्वास के साथ, एक नये इंस्टीट्यूशन का हम निर्माण करेंगे और बहुत ही जल्द योजना आयोग की जगह पर यह नया इंस्टीट्यूट काम करे, उस दिशा में हम आगे बढ़ने वाले हैं।
भाइयो-बहनो, आज 15 अगस्त महर्षि अरविंद का भी जन्म जयंती का पर्व है। महर्षि अरविंद ने एक क्रांतिकारी से निकल कर योग गुरु की अवस्था को प्राप्त किया था। उन्होंने भारत के भाग्य के लिए कहा था कि "मुझे विश्वास है, भारत की दैविक शक्ति, भारत की आध्यात्मिक विरासत विश्व कल्याण के लिए अहम भूमिका निभाएगी"। इस प्रकार के भाव महर्षि अरविन्द ने व्यक्त किए थे। मेरी महापुरुषों की बातों में बड़ी श्रद्धा है। मेरी त्यागी, तपस्वी ऋषियों और मुनियों की बातों में बड़ी श्रद्धा है और इसलिए मुझे आज लाल किले की प्राचीर से स्वामी विवेकानन्द जी के वे शब्द याद आ रहे हैं जब स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था, "मैं मेरी आँखों के सामने देख रहा हूँ।" विवेकानन्द जी के शब्द थे - "मैं मेरी आँखों के सामने देख रहा हूँ कि फिर एक बार मेरी भारतमाता जाग उठी है, मेरी भारतमाता जगद्गुरु के स्थान पर विराजमान होगी, हर भारतीय मानवता के कल्याण के काम आएगा, भारत की यह विरासत विश्व के कल्याण के लिए काम आएगी।" ये शब्द स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने तरीके से कहे थे। भाइयो-बहनो, विवेकानन्द जी के शब्द कभी असत्य नहीं हो सकते। स्वामी विवेकानन्द जी के शब्द, भारत को जगद्गुरु देखने का उनका सपना, उनकी दीर्घदृष्टि, उस सपने को पूरा करना हम लोगों का कर्तव्य है। दुनिया का यह सामर्थ्यवान देश, प्रकृति से हरा-भरा देश, नौजवानों का देश, आने वाले दिनों में विश्व के लिए बहुत कुछ कर सकता है।
भाइयो-बहनो, लोग विदेश की नीतियों के संबंध में चर्चा करते हैं। मैं यह साफ मानता हूं कि भारत की विदेश नीति के कई आयाम हो सकते हैं, लेकिन एक महत्वपूर्ण बात है, जिस पर मैं अपना ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं कि हम आज़ादी की जैसे लड़ाई लड़े, मिल-जुलकर लड़े थे, तब तो हम अलग नहीं थे, हम साथ-साथ थे। कौन सी सरकार हमारे साथ थी? कौन से शस्त्र हमारे पास थे? एक गांधी थे, सरदार थे और लक्षावती स्वातंत्र्य सेनानी थे और इतनी बड़ी सल्तनत थी। उस सल्तनत के सामने हम आज़ादी की जंग जीते या नहीं जीते? विदेशी ताकतों को परास्त किया या नहीं किया? भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया या नहीं किया? हमीं तो थे, हमारे ही तो पूर्वज थे, जिन्होंने यह सामर्थ्य दिखाई थी। समय की मांग है, सत्ता के बिना, शासन के बिना, शस्त्र के बिना, साधनों के बिना भी इतनी बड़ी सल्तनत को हटाने का काम अगर हिंदुस्तान की जनता कर सकती है, तो भाइयो-बहनो, हम क्या गरीबी को हटा नहीं सकते? क्या हम गरीबी को परास्त नहीं कर सकते हैं? क्या हम गरीबी के खिलाफ लड़ाई जीत नहीं सकते हैं? मेरे सवा सौ करोड़ प्यारे देशवासियो, आओ! आओ, हम संकल्प करें, हम गरीबी को परास्त करें, हम विजयश्री को प्राप्त करें। भारत से गरीबी का उन्मूलन हो, उन सपनों को लेकर हम चलें और पड़ोसी देशों के पास भी यही तो समस्या है! क्यों न हम सार्क देशों के सभी साथी दोस्त मिल करके गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ने की योजना बनाएं? हम मिल करके लड़ाई लड़ें, गरीबी को परास्त करें। एक बार देखें तो सही, मरने-मारने की दुनिया को छोड़ करके जीवित रहने का आनंद क्या होता है! यही तो भूमि है, जहां सिद्दार्थ के जीवन की घटना घटी थी। एक पंछी को एक भाई ने तीर मार दिया और एक दूसरे भाई ने तीर निकाल करके बचा लिया। मां के पास गए - पंछी किसका, हंस किसका? मां से पूछा, मारने वाले का या बचाने वाले का? मां ने कहा, बचाने वाले का। मारने वाले से बचाने वाले की ताकत ज्यादा होती है और वही तो आगे जा करके बुद्ध बन जाता है। वही तो आगे जा करके बुद्ध बन जाता है और इसलिए, मैं पड़ोस के देशों से मिल-जुल करके गरीबी के खिलाफ लड़ाई को लड़ने के लिए सहयोग चाहता हूं, सहयोग करना चाहता हूं और हम मिल करके, सार्क देश मिल करके, हम दुनिया में अपनी अहमियत खड़ी कर सकते हैं, हम दुनिया में एक ताकत बनकर उभर सकते हैं। आवश्यकता है, हम मिल-जुल करके चलें, गरीबी से लड़ाई जीतने का सपना ले करके चलें, कंधे से कंधा मिला करके चलें। मैं भूटान गया, नेपाल गया, सार्क देशों के सभी महानुभाव शपथ समारोह में आए, एक बहुत अच्छी शुभ शुरुआत हुई है। तो निश्चित रूप से अच्छे परिणाम मिलेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है और देश और दुनिया में भारत की यह सोच, हम देशवासियों का भला करना चाहते हैं और विश्व के कल्याण में काम आ सकें, हिन्दुस्तान ऐसा हाथ फहराना चाहता है। इन सपनों को ले करके, पूरा करके, आगे बढ़ने का हम प्रयास कर रहे हैं।
भाइयो-बहनो, आज 15 अगस्त को हम देश के लिए कुछ न कुछ करने का संकल्प ले करके चलेंगे। हम देश के लिए काम आएं, देश को आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर चलेंगे और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं भाइयो-बहनो, मैं मेरी सरकार के साथियों को भी कहता हूं, अगर आप 12 घंटे काम करोगे, तो मैं 13 घंटे करूंगा। अगर आप 14 घंटे कर्म करोगे, तो मैं 15 घंटे करूंगा। क्यों? क्योंकि मैं प्रधान मंत्री नहीं, प्रधान सेवक के रूप में आपके बीच आया हूं। मैं शासक के रूप में नहीं, सेवक के रूप में सरकार लेकर आया हूं। भाइयो-बहनो, मैं विश्वास दिलाता हूं कि इस देश की एक नियति है, विश्व कल्याण की नियति है, यह विवेकानन्द जी ने कहा था। इस नियति को पूर्ण करने के लिए भारत का जन्म हुआ है, इस हिन्दुस्तान का जन्म हुआ है। इसकी परिपूर्ति के लिए सवा सौ करोड़ देशवासियों को तन-मन से मिलकर राष्ट्र के कल्याण के लिए आगे बढ़ना है।
मैं फिर एक बार देश के सुरक्षा बलों, देश के अर्द्ध सैनिक बलों, देश की सभी सिक्योरिटी फोर्सेज़ को, मां-भारती की रक्षा के लिए, उनकी तपस्या, त्याग, उनके बलिदान पर गौरव करता हूं। मैं देशवासियों को कहता हूं, "राष्ट्रयाम् जाग्रयाम् वयम्", "Eternal vigilance is the price of liberty". हम जागते रहें, सेना जाग रही है, हम भी जागते रहें और देश नए कदम की ओर आगे बढ़ता रहे, इसी एक संकल्प के साथ हमें आगे बढ़ना है। सभी मेरे साथ पूरी ताकत से बोलिए -
भारत माता की जय, भारत माता की जय, भारत माता की जय।
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द।
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!
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प्रधान सेवक का उदय
Sat, 16 Aug 2014

चूंकि भारत में द्वंद्वात्मक प्रजातंत्र है लिहाजा मीडिया का मूल काम सत्ता की गलतियों से, नेता की कमियों और सरकार की खामियों से जनता को अवगत कराना है। इस पैमाने पर मैं आमतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आलोचक रहा हूं, लेकिन अद्भुत था लाल किले की प्राचीर से किसी प्रधानमंत्री का वह भाषण। किसी भी दृष्टिकोण से उस भाषण में कोई दोष निकालना मात्र हठधर्मिता होगी। वह किसी राजनेता का परंपरागत 'हम बनाम वे' के भाव में दर्शकों को दिया जा रहा भाषण नहीं था, बल्कि लगता था कि एक ऐसा समाज-सुधारक भावना के संतुलित अतिरेक में बोल रहा है। यह कहना मुश्किल होगा कि प्राचीर पर मोदी स्टेट्समैन बड़े थे या समाज सुधारक बड़े।
यह मोदी का आत्मविश्वास ही था कि वह प्रधानमंत्री के रूप में स्वतंत्रता दिवस भाषण को बगैर लिखे बोले। जिस तरह का देश में माहौल है उसमें बगैर किसी बुलेट-प्रूफ केबिन में बंद हुए धाराप्रवाह एक घंटे से अधिक समय तक बोलना अपने सुरक्षा बलों पर भरोसा दर्शाता है। मैंने नेहरू को भी सुना है। अटल बिहारी वाजपेयी को भी इसी प्राचीर से बोलते हुए सुना है। पर मोदी का भाषण न केवल अलग था, बल्कि पहली बार लगा कि कोई प्रधानमंत्री अभिभावक भी है तो समाज सुधारक भी। शासन का मुखिया भी है तो सेवक भाव भी रखता है। आध्यात्मिक गुरु भी है तो गरीबों का मसीहा भी। अद्वैतवाद से अवमूल्यन तक लगभग हर पहलू पर एक संदेश देकर मोदी ने न केवल अपने को जनता से कनेक्ट किया, बल्कि उसे सोचने पर मजबूर किया कि क्या वे यही भारत अपनी अगली पीढ़ी के लिए छोड़ जाएंगे? क्या पिछले 67 सालों में आपने कभी किसी प्रधानमंत्री को यह कहते सुना कि मां-बाप अगर अपने बेटे से पूछे कि तुम कहां जा रहे हो, किसलिए जा रहे हो तो आज यह दुष्कर्म की घटनाएं ना होंगी? यह गहरी बात है। एक ऐसे समय में जब अभिभावकों का अपने बेटों पर नियंत्रण कम हो रहा है और नतीजतन लंपटता चरम पर हो) (किशोरों द्वारा किए गए दुष्कर्म व अन्य अपराध इसके गवाह है) तो मोदी का उलाहना हर अभिभावक के लिए गहरी नसीहत है। मोदी की इस अपील में न तो कोई वोट पाने की चाहत थी, न ही कोई अपने को उचित ठहराने की जिद्दोजेहद। एक निर्दोष गुजारिश थी। परिवार को फिर से संगठित कर सोशल पुलिसिंग को या पारिवारिक नियंत्रण को फिर से बहाल करने की। युवा पौध में विकृति घर से शुरू होती है, यह समाजशास्त्रीय सत्य है। इसी पौध को फिर से जंगल की झाड़ी ना बनाकर बाग में तराशे फलदार पेड़ लगाने की ललक उनमें नजर आ रही थी।
तीन बार इस इसरार के साथ कि मेरी बात के राजनीतिक मायने ना निकाले जाएं, मोदी ने शासन में पनपे आपसी दुराव का जिक्र करते हुए कहा कि सरकार के ही दो विभाग एक दूसरे के खिलाफ अदालत में गए थे, एक विभाग और दूसरे विभाग में कोई तालमेल नहीं था। ठीक इसके पहले प्रधानमंत्री ने विपक्ष को साथ लेकर चलने की प्रतिबद्धता जताई और हाल में खत्म हुए संसद सत्र के दौरान सभी पार्टियों के सकारात्मक भाव की जबरदस्त प्रशंसा की। कहीं वो बनाम हम का भाव नहीं था। दुखती रगों को मात्र छूना ही नहीं, उन पर हल्के से दबाव डालकर मवाद निकालना मोदी की भाषण कला का अहम अंग है। लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए एक बार फिर प्रधानमंत्री ने उन रगों को झकझोरा। मीडिया लिखता है कि नई सरकार के आने का बाद अफसर समय से आने लगे। यह खबर किसी भी प्रधानमंत्री को खुश कर सकती है, पर मुझे दु:ख हुआ कि सरकारी कर्मचारी का समय पर आना भी मीडिया की खबर है। दरअसल पिछले 67 सालों में हम अफसरों के गैर जिम्मेदाराना रवैये के इतने आदी हो चुके हैं कि अब उनका समय से आना भी खबर बन जाता है।
अपने भाषण की शुरुआत ही मोदी ने अपने को प्रधान सेवक कह शुरू की और यहीं से शुरू हुआ जनता से उनका कनेक्ट। याद आता है स्वामी विवेकानंद का शिकागो भाषण, जिसमें उनके ब्रदर्स एंड सिस्टर्स कहकर संबोधन करते ही पूरा अमेरिका उनका मुरीद हो गया। आजकल गुरुओं का जमाना है। कोई लव गुरु कहलाता है तो कोई मैनेजमेंट गुरु तो मोदी को कनेक्ट गुरु कहना गलत नहीं होगा। आज के भाषण के विशेष पहलू हैं जनता को भोवोत्तेजित (इंस्पायर) करके अपने अंदर झांकने की उत्कंठा पैदा करना और यह विश्वास दिलाना कि तुम एक कदम बढ़ो हम दस कदम बढें़गे। पिछले कुछ दशकों में राजनेताओं ने यह क्षमता खो दी थी कि उनकी बातों पर जनता विश्वास करे। जनता से कनेक्ट होने के कुछ और नमूने देखिए। हल से हरियाली, कम मेक इन इंडिया (आओ और भारत में उत्पादन करो) केमिकल से फार्मास्यूटिकल तक, सांसद मॉडल ग्राम योजना, डिजिटल इंडिया, आदर्श ग्राम, जीरो-डिफेक्ट, जीरो इफेक्ट, प्रधानमंत्री से प्रधान सेवक, प्रधानमंत्री जनधन योजना, बेटियों पर इतने बंधन, बेटों पर कोई नहीं, ये जुमले आम राजनीतिक जुमलों से हटकर थे। इनके जरिये मोदी ने जनता से सीधा संवाद बनाया लाल किले के भाषण से।
दंगों के वातावरण पर भी उसी गरिमा से मोदी ने प्रहार किया। कहीं कोई हिंदू-मुसलमान टाइप परंपरागत या पंथनिरपेक्षता की दुहाई नहीं। सीधा संवाद-आओ, हम मरने-मारने की दुनिया को छोड़ कर जीवन देने वाला समाज बनाएं। मोदी ने इन सबके अलावा जो सबसे क्रांतिकारी घोषणा की वह थी हर गरीब परिवार को एक लाख का बीमा। आजाद भारत में शायद यह पहली बार सोचा गया कि सोशल सिक्योरिटी का कवच देकर गरीबों को भी भविष्य की चिंता के दंश से मुक्त किया जाए। देश में नए आंकड़े के अनुसार सात करोड़ के करीब गरीब परिवार हैं। परिवार के मुखिया के निधन पर परिवार के सदस्य यतीम हो जाते हैं, शिक्षा न मिलने से बच्चे लंपटता या अपराध की ओर उन्मुख होते हैं और अभाव में ऐसे परिवार गरीबी की उस गर्त में चले जाते हैं जहां से निकलना असंभव होता है। मोदी की यह योजना दूरगामी और क्रांतिकारी परिणाम देने वाली है।
अपने को देश की सीमाओं से बाहर निकलते हुए मोदी ने पूरे सार्क देशों की गरीबी पर आघात किया और संदेश था-हम सब मिलकर इससे लड़ें। यह अपील चीन द्वारा पाकिस्तान या नेपाल को दी जाने वाली कुटिल मदद से काफी अलग थी, एक निर्दोष भरोसा दिलाने का प्रयास था। कुल मिलकर लाल किले की प्राचीर से हुआ मोदी का भाषण दुनिया के विश्वविद्यालयों में 'हाउ टू कनेक्ट विद द मासेज' (कैसे हो जनता से तादात्म्य) पढ़ाए जाने लायक है।
[एनके सिंह: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं]
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परिवर्तन का प्रस्थान-¨बदु
Sat, 16 Aug 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से बेहद प्रभावशाली भाषण देकर शासन के अपने दृष्टिकोण को एक सर्वथा नए रूप में प्रस्तुत किया। उनके इस संबोधन की हर तरफ सराहना हो रही है। मोदी के लिए यह क्षण विशेष था, क्योंकि चाय बेचने से लेकर प्रधानमंत्री पद तक पहुंचना उनके लिए और साथ ही भारतीय लोकतंत्र के लिए भी एक बड़ी उपलब्धि है। तमाम पश्चिमी राजनीतिक पंडितों ने भारत को आजादी मिलने के तत्काल बाद ही यह घोषणा कर दी थी कि एक देश जिसकी आबादी अतिविशाल हो, जहां बड़े पैमाने पर गरीबी और निरक्षरता हो वह अपने लोकतंत्र को बचा पाने में समर्थ नहीं हो सकता। हालांकि भारतीय मतदाताओं ने इसे सदैव गलत साबित किया और आज पूरी दुनिया यह स्वीकार कर रही है कि भारत में सही मायने में एक स्थिर और वास्तविक लोकतंत्र है। तमाम विकासशील देश भारत को राजनीतिक आदर्श के तौर पर देखते हैं और प्रेरणा पाते हैं। अफगानिस्तान इसका एक उदाहरण है, जिसने विशेष रूप से भारत से आग्रह किया है कि वह उसके यहां संसद का निर्माण करे।
स्वाधीनता दिवस लोगों के लिए एक ऐसा अवसर भी है जब आंतरिक और वाच् चुनौतियों के संदर्भ में भारत के समक्ष मौजूद समस्याओं पर विचार किया जाना चाहिए। देश की आर्थिक शक्ति, उसका सामाजिक तानाबाना, सांस्कृतिक अनुगूंज और राजनीतिक स्थिरता हमें वह ऊर्जा व संसाधन मुहैया कराती है जिससे हम वाच् चुनौतियों का सामना कर सकते हैं और अपनी सुरक्षा नीतियों को तय कर सकते हैं। हमने आर्थिक तौर पर बहुत कुछ हासिल किया है, लेकिन अत्यधिक प्रतिस्पर्धी दुनिया में अभी भी लंबी दूरी तय करनी है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय हमारे नेताओं ने पहचान लिया था कि राष्ट्रों के समुदाय में भारत अपना सही स्थान फिर से हासिल कर लेगा। इसके लिए सामाजिक सुधार जरूरी था ताकि जनसामान्य को समानता के साथ-साथ बेहतर आर्थिक हालात प्रदान किया जा सके। इतिहास बताता है कि शताब्दियों से विदेशी आक्रांता इसलिए सफल हुए, क्योंकि भारतीय समाज बिखरा हुआ था, जिस कारण राष्ट्रीयता का कोई भाव विकसित नहीं हो सका। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी इतिहास की इस बात को समझ लिया है और इसी कारण वह समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। सबका साथ सबका विकास का उनका नारा भारत के लिए उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है, जिसकी सराहना दुनिया के दूसरे देश भी कर रहे हैं। भारतीय विदेश नीति के समक्ष तमाम चुनौतियां हैं। हमारे हितों को न केवल अपने निकट पड़ोसी देशों, बल्कि व्यापक एशियाई क्षेत्र और वैश्विक स्तर पर भी खतरा अथवा चुनौती बरकरार है। बहुत बार सुना गया है कि भारत को मित्र बनाने की जरूरत है और कई बार यह भी कहा जाता है कि भूटान को छोड़कर कोई भी देश भारत का वास्तविक मित्र नहीं है। लोगों को यह बात अच्छे से समझने की आवश्यकता है कि अंतरराष्ट्रीय संबंध मित्रता नहीं, बल्कि हितों के आधार पर चलते हैं।
प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनेता लॉर्ड पॉम‌र्स्टन ने 19वीं शताब्दी में कहा था कि देशों के स्थायी मित्र अथवा शत्रु नहीं, बल्कि स्थायी हित होते हैं। यह पाठ भारत को अवश्य ही सीखना चाहिए। विदेश नीति को लेकर हमें अपने नजरिये को बदलने की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वर्तमान समय में मीडिया तत्काल प्रतिक्रिया की मांग करता है और कई बार स्थिति तार्किक और उपयुक्तता के बजाय भावनात्मक हो जाती है। कई बार भारत जैसा एक बड़ा देश भी अपनी विशाल गरीबी के कारण अपने हितों की रक्षा के लिए अलग-थलग पड़ जाता है। एक ऐसा ही अवसर हाल में तब आया जब भारत को डब्ल्यूटीओ में अंतरराष्ट्रीय व्यापार सरलीकरण समझौते के खिलाफ उतरना पड़ा। भारत खुले अंतरराष्ट्रीय व्यापार के पक्ष में है, लेकिन खाद्यान्न सुरक्षा के मद्देनजर उसे खाद्यान्न संग्रहण की आवश्यकता है। जब अन्य सभी दूसरे देश भारत की मांगों को मानने को तैयार नहीं हुए तो यह जरूरी था कि प्रधानमंत्री मोदी कोई निर्णय लेते, फिर भले ही भारत अलग-थलग पड़ता। मोदी को अभी भी विदेश और सुरक्षा नीति को अधिक बेहतर तरीके से संभालने की आवश्यकता है। सार्क देशों पर ध्यान देकर मोदी ने भारत की विकास यात्रा के संदर्भ में सही दिशा में कदम उठाया है। अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के प्रमुखों को दिया गया उनका निमंत्रण और भूटान तथा नेपाल की सफल यात्रा अच्छे कदम साबित हुए। मोदी सरकार की वास्तविक परीक्षा पाकिस्तान को संभालने अथवा उससे निपटने और अफगानिस्तान में भारतीय हितों की रक्षा होगी। उन्हें पाकिस्तान के प्रति एक सतत और वास्तविकता पर आधारित नीति को अपनाना होगा, जिसे संप्रग सरकार कभी नहीं कर सकी। पिछले 25 वर्षो में कोई भी सरकार भारत के खिलाफ जारी आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान से प्रभावी तरीके से नहीं निपट सकी। लोगों को विश्वास है कि मोदी इस समस्या का कोई समाधान खोज सकेंगे।
वर्तमान में इराक में इस्लामिक कट्टरपंथ का तेजी से प्रसार हुआ है। समूचा पश्चिम एशियाई क्षेत्र उथल-पुथल के दौर में है, जिससे भारत का बड़ा आर्थिक हित दांव पर है। यहां पर तकरीबन 60 लाख भारतीय काम करते हैं। इसके लिए जरूरी होगा कि सरकार खतरनाक क्षेत्रों से भारतीय कामगारों को हटाने के साथ-साथ अन्य बातों पर भी ध्यान दे। बड़ी शक्तियों के साथ अपने समीकरण पर ध्यान देना होगा जिसमें अमेरिका, रूस, चीन और यूरोपीय संघ शामिल हैं। भारत को व्यापक हितों की रक्षा और उसके संव‌र्द्धन के लिए सबके साथ तालमेल बनाना होगा। ब्रिक्स देशों के नेताओं के साथ मोदी की मुलाकात एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन सभी की आंखें अगले माह उनकी अमेरिका यात्रा पर टिकी हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था को तेजी देने के लिए अमेरिकी तकनीक आवश्यक है। इस संदर्भ में अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया तथा जापान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। भारत के विकास में जापान महत्वपूर्ण साझेदार बन सकता है। भारत को अपने हितों के आधार पर बाजार को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। यह मोदी के लिए एक परीक्षा है कि वह किस तरह विदेश, सामरिक और आर्थिक नीतियों के मोर्चे पर स्वतंत्रता कायम करते हैं ताकि भारत अपनी ऐतिहासिक यात्रा को जारी रख सके।
(विवेक काटजू: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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चौखटों के पार
नवभारत टाइम्स | Aug 16, 2014

लाल किले से पहली बार देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई चौखटों के पार निकलकर जनता के दिल को छूने की कोशिश की। देश पर मंडराते आतंकवाद के खतरे ने हमारे प्रधानमंत्रियों को बुलेट प्रूफ बॉक्स के भीतर से लोगों को संबोधित करने का आदी बना दिया था। इस अघोषित परंपरा को तोड़कर मोदी ने लोगों को आश्वस्त किया कि हम खतरों को पीछे छोड़ चुके हैं। लिखित भाषण का ढर्रा छोड़कर उन्होंने एक और लीक तोड़ी और स्वाभाविक अंदाज में अपनी बातें कहीं। संवाद की यह जीवंतता वर्षों बाद दिखाई दी। संसदीय जनतंत्र में प्रधानमंत्री सरकारी कामकाज निपटाने वाला अफसर नहीं होता। वह जनता का दोस्त और अभिभावक भी होता है। उसके साथ लोगों की आशाएं-आकांक्षाएं जुड़ी होती हैं। इसलिए उसके संवाद के तौर-तरीके से नागरिक और सिस्टम का एक रिश्ता बनता है। पिछले कुछ समय से यह रिश्ता छीज रहा था। मोदी ने इसमें फिर से गर्माहट लाने का प्रयास किया है। वह अपने कुछ पूर्ववर्तियों की तरह यह कहकर नहीं रह गए कि सरकार की ओर से वे लोगों को कई सारे तोहफे देंगे। इसके बजाय उन्होंने लोगों का आह्वान किया कि वे देश को बदलने के लिए आगे आएं और सरकार के साथ एकजुट होकर काम करें। संभवत: यह भी पहली बार ही हुआ है कि इस आधिकारिक संबोधन में किसी पीएम ने सामाजिक जीवन के पहलू छुए। प्रधानमंत्री ने साफ कहा कि हमारी सारी नसीहतें सिर्फ बेटियों के लिए होती हैं, बेटों को कुछ कहना हमें जरूरी नहीं लगता। अगर हम बेटों पर ध्यान देना शुरू करें, तो बलात्कार की घटनाएं रुक सकती हैं। मोदी को सत्ता संभाले अभी तीन महीने भी नहीं हुए हैं, लिहाजा उपलब्धियां गिनाने के लिए उनके पास कुछ नहीं है। फिर भी जिन योजनाओं की घोषणा उन्होंने की है, उससे लोगों में उम्मीद पैदा हुई है। 64 वर्ष पुरानी संस्था योजना आयोग को समाप्त करके उसकी जगह एक नए संस्थान की स्थापना का निर्णय साहसिक कहा जाएगा। भारतीय व्यवस्था को हर स्तर पर जड़ता से बाहर निकालने के लिए ऐसे कई आउट ऑफ बॉक्स कदम उठाने होंगे। देश के कमजोर वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई 'जन धन योजना' भी महत्वपूर्ण है। इसके तहत हर गरीब व्यक्ति को बैंक खाते की सुविधा देने के साथ ही जीवन बीमा का संरक्षण भी प्रदान किया जाएगा। इन शानदार संकेतों के बीच सवाल सिर्फ एक है कि क्या मोदी के शब्द उन तबकों को भी छू पाए हैं, जो उनको संशय से देखते रहे हैं? अगर इस भाषण ने अल्पसंख्यकों, कमजोर तबकों, दक्षिण और पूर्वोत्तर के लोगों में भी ऐसा ही उत्साह जगाया हो तो देश के सामने मौजूद आधे सवाल अभी से हल मान लिए जाने चाहिए।
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श्रेष्ठ भारत का सपना
Sun, 17 Aug 2014

आजाद भारत में जन्म लेने वाले पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से अपने यादगार संबोधन के जरिये खुद को एक नए रूप में प्रस्तुत किया। मोदी ने अपने शब्दों से देशवासियों को उत्साहित तो किया ही, उन्हें देश और समाज के प्रति उनकी जिम्मेदारी की याद भी दिलाई। मोदी का संबोधन दस वर्ष तक लगातार बतौर पीएम देश को संबोधित करने वाले मनमोहन सिंह के भाषणों से सर्वथा अलग था। मोदी अपनी चिर-परिचित शैली में किसी लिखित भाषण के बिना बोले। पूरे देश के साथ उनका संवाद लोगों में यह भरोसा पैदा कर रहा था कि सुधार और बदलाव की अपेक्षाएं पूरी होंगी। इस भरोसे के साथ ही लोगों से राष्ट्रहित के लिए आगे आने का आग्रह भी किया गया-इस नसीहत के साथ कि मेरा क्या और मुझे क्या वाली मानसिकता अब छोड़नी होगी। विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस ने स्वाभाविक रूप से मोदी के भाषण की आलोचना की और इसे चुनावी संबोधन करार दिया, लेकिन खुद कांग्रेस के नेता भी यह जानते हैं कि पिछले चुनाव में पार्टी की करारी पराजय के लिए कहीं न कहीं जनता से संवाद स्थापित करने में मनमोहन सिंह की कमजोरी जिम्मेदार है। मनमोहन सिंह की ही तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी आम जनता से सीधे संपर्क स्थापित करने में नाकाम ही रहे। मोदी के संबोधन की आलोचना कांग्रेस की हताशा की ही परिचायक है।
लाल किले से मोदी के संबोधन की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि उन्होंने कई ऐसे सामाजिक मुद्दों को छुआ जो देश की आत्मा को झकझोर रहे हैं। दुष्कर्म, कन्या भ्रूण हत्या, गंदगी, शौचालयों के अभाव से लेकर पारिवारिक मूल्यों में बिखराव तक के मुद्दे हमारे माथे पर कलंक की तरह हैं, लेकिन उनके प्रति शासन की या तो स्पष्ट सोच सामने नहीं आती या फिर कभी-कभार रस्मी बातें कर दी जाती हैं। उन्होंने यह बिल्कुल सही सवाल उठाया कि क्या कभी माता-पिता अपने बेटों से यह पूछते हैं कि वे कहां जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं? नि:संदेह यदि अभिभावक अपनी संतानों के चाल-चलन पर निगाह रख सकें तो कई समस्याओं पर अंकुश लगाया जा सकता है।
बेटियों की सुरक्षा को लेकर मोदी के सीधे सवालों ने देश की महिलाओं को आश्वस्त किया कि शासन में शीर्ष पर बैठा व्यक्ति उनकी सुरक्षा को लेकर गंभीर है। महिलाओं के लिए शौचालयों के निर्माण की उनकी प्रतिबद्धता का भी विशेष महत्व है। मोदी ने इसे महिलाओं की गरिमा और सम्मान से संबद्ध किया। अपने संबोधन के दौरान ही उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि एक प्रधानमंत्री के लिए लाल किले की प्राचीर से इन मुद्दों का जिक्त्र करना अटपटा लग सकता है, लेकिन वह इन्हें गंभीर मसला मानते हैं और उनके निदान के लिए प्रतिबद्ध हैं। मोदी ने आम जनता को उनकी जिम्मेदारी की याद दिलाने के साथ शासन के तौर-तरीकों में बुनियादी बदलाव का भरोसा भी दिलाया। योजना आयोग को उसके मूल स्वरूप में समाप्त कर आज के परिवेश और चुनौतियों के लिहाज से उपयुक्त एक नई संस्था के रूप में सामने लाने का वादा कर प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह बंधे-बंधाए ढर्रे पर ही चलने वाले नहीं हैं। उन्होंने देश के संघीय ढांचे को और अधिक मजबूत बनाने के लिए योजनाओं में राज्यों की सक्त्रिय भागीदारी पर भी जोर दिया। उनका यह विचार टीम इंडिया के रूप में भारत को आगे ले जाने के उनके इरादे के अनुरूप है। इसके साथ ही उन्होंने देश के सभी नागरिकों को बैंकिंग सेवाओं के दायरे में लाने के साथ ही उद्योगीकरण का माहौल कायम करने पर बल दिया।
उद्योगीकरण के लिए मोदी केनए मंत्र-कम, मेक इन इंडिया ने देश-दुनिया का ध्यान खींचा है। इससे यह झलक मिलती है कि वह विकास की किस दिशा की ओर बढ़ना चाहते हैं। उन्होंने सेटेलाइट से लेकर सबमरीन तक के भारत में निर्माण का जो नारा दिया वह आज एक सपने की तरह लग सकता है, लेकिन भारत में ऐसी साम‌र्थ्य है कि इस सपने का साकार किया जा सके। मोदी सरकार निर्माण के क्षेत्र में बड़े और तकनीक पर आधारित उद्योगों के साथ-साथ छोटे और मझोले उद्योगों को भी भरपूर प्रोत्साहन देना चाहती है। इससे निश्चित रूप से बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन होगा और अर्थव्यवस्था को अपेक्षित रफ्तार भी मिलेगी। मोदी सरकार के कामकाज के मौजूदा तौर-तरीकों में सुधार करना चाहते हैं, इसका संकेत उनके इस कथन से भी मिलता है कि एक बाहरी के रूप में दिल्ली आकर जब उन्होंने शासन के ढांचे को देखा तो यह देखकर चकित रह गए कि सरकार के भीतर ही कई सरकारें काम कर रही थीं। इससे जाहिर है कि पहले की सरकारों ने मंत्रालयों के बीच समन्वय पर सही तरीके से ध्यान नहीं दिया। समन्वय के इस अभाव ने ही सरकार के कामकाज में रुकावटें पैदा करने के साथ ही धन की बर्बादी भी कराई। मोदी इस स्थिति को बदलने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वह नौकरशाही को भी सुशासन में योगदान देने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपने लंबे अनुभव से वह यह जानते हैं कि शासन की प्राथमिकताओं के प्रति नौकरशाही का अनुकूल रवैया कितना महत्वपूर्ण है।
एक प्रधानमंत्री के संबोधन में कुछ न कुछ राजनीतिक संदेश भी होता है। इस लिहाज से मोदी का भाषण भी अपवाद नहीं है। उन्होंने सांसदों के लिए एक-एक आदर्श गांव विकसित करने की योजना का ऐलान कर राजनेताओं को एक नई तरह की जिम्मेदारी देने की बात कही। उन्होंने इसी तर्ज पर विधायकों को भी आदर्श गांव योजना चलाने का सुझाव दिया। मोदी ने इस योजना का पूरा खाका जल्द ही प्रस्तुत करने का भरोसा दिलाया है। मोदी की इस पहल के सार्थक नतीजे सामने आने ही चाहिए। अगर इस योजना के तहत प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में एक-एक आदर्श गांव विकसित हो सके तो उनके आसपास के इलाके स्वत: ही विकास की पटरी पर चल निकलेंगे। एक सांसद अथवा विधायक के लिए तीन से पांच हजार की आबादी वाले किसी गांव को हर सुविधा और संसाधनों से लैस करना बहुत मुश्किल कार्य नहीं होना चाहिए।
मोदी ने लाल किले से विदेश नीति के संदर्भ में अपना जो दृष्टिकोण प्रदर्शित किया वह भी कम उल्लेखनीय नहीं। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी प्राथमिकता भारत के पड़ोसी हैं और वह उनके साथ मिलकर गरीबी से लड़ना और उसे परास्त करना चाहते हैं। वह भारत के साथ-साथ पूरे क्षेत्र की शांति और प्रगति के लिए आस-पास के देशों के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। दक्षेस देशों के प्रति उनका झुकाव एक सुविचारित नीति का हिस्सा है। वैसे तो मोदी ने इस अवसर पर पाकिस्तान को कोई सीधी चेतावनी देने से परहेज किया, लेकिन संकेतों में इस्लामाबाद को यह नसीहत अवश्य दे दी कि जिस तरह आजादी की लड़ाई मिलकर लड़ी गई थी उसी तरह अपनी समस्याओं के हल के लिए आगे क्यों नहीं बढ़ा जा सकता? भारत और पाकिस्तान कई मामलों में एक जैसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि वे इन समस्याओं का सामना मिलकर करें? मोदी के इस कथन में विदेश नीति के कई महत्वपूर्ण संकेत छिपे हैं। इन संकेतों को दक्षिण एशियाई देशों, विशेषकर पाकिस्तान को सही रूप में समझना होगा।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]
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भरोसा बढ़ाने वाला भाषण
Sat, 16 Aug 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रभावी भाषण कला से परिचित होने के बावजूद इसे लेकर देश भर में उत्सुकता थी कि वह स्वाधीनता संघर्ष के प्रतीक लाल किले की प्राचीर से अपने प्रथम संबोधन में क्या बोलते हैं और कैसा बोलते हैं? अपेक्षा के अनुरूप उन्होंने लिखित भाषण का सहारा नहीं लिया और न ही लोक-लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगाई। इस बारे में उन्होंने स्पष्ट भी किया कि वह उन बातों को ही कहने के पक्षधर हैं जिन्हें अपने समय में पूरा कर पाएं। बावजूद इसके उन्होंने कुछ चुनिंदा घोषणाएं भी कीं और उनके जरिये यह और अच्छे से स्पष्ट हुआ कि वह लीक से हटकर चलने के साथ देश के कायाकल्प का संकल्प भी लिए हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह रहा कि लाल किले की प्राचीर से राजनेता नरेंद्र मोदी एक ऐसे राजनीतिज्ञ के रूप में उभरते दिखे जो परंपरागत राजनीति के दायरे से निकल कर भी बहुत कुछ करना चाहते हैं। उन्होंने अपने भाषण से लोगों को प्रेरित करने के साथ उन्हें राष्ट्र निर्माण में शामिल होने के लिए आगे आने को भी कहा। उन्होंने यह कहने में संकोच नहीं किया कि सब कुछ सरकारें नहीं कर सकतीं और बहुत से काम ऐसे हैं जिन्हें जनता की भागीदारी से ही पूरा किया जा सकता है और उसमें हाथ बंटाना उसकी जिम्मेदारी भी है। आज की पीढ़ी के लिए यह स्मरण करना कठिन है कि इसके पहले किसी प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर अथवा अन्य किसी मंच से वैसी बातें की हों जैसी नरेंद्र मोदी ने कीं। पता नहीं यह कब हुआ और क्यों कि आजादी के दौर के नेताओं के परिदृश्य से हटने के साथ ही जनता को प्रेरित करने और उसे अपने साथ जोड़ने की राजनीति बंद हो गई। इससे समाज सुधार की प्रक्रिया भी शिथिल पड़ गई। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि लोग इसे विस्मृत कर बैठे कि आम नागरिक के तौर पर उनके कुछ दायित्व भी हैं।
देर से ही सही, यह एक शुभ संकेत है कि नरेंद्र मोदी ने उन मुद्दों को महत्ता प्रदान की जिनके बारे में कोई राजनेता बोलता ही नहीं था। यह देखना सुखद है कि नरेंद्र मोदी ने आम लोगों को उनके कर्तव्यों की याद दिलाने के साथ उन्हें झकझोरा भी और उनसे बिना किसी लाग लपेट कुछ ऐसे सवाल भी किए जो कोई करता ही नहीं था। कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों था, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि इससे राजनेताओं और आम जनता में दूरी बढ़ी और जनमानस के बीच यह भाव पैदा हुआ कि जो भी करना है, सरकार को ही करना है। नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र निर्माण का जो खाका खींचा उसमें आम जनता को शामिल करने के साथ-साथ राज्य सरकारों और विपक्ष को भी समाहित किया। उनके भाषण को विपक्ष चाहे जिस रूप में ले, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि देश का उत्थान तभी संभव है जब शासन-प्रशासन के मौजूद तौर-तरीकों से मुक्ति पाई जाएगी। लाल किले से अपने पहले संबोधन के जरिये नरेंद्र मोदी ने देश की उम्मीदों को नए सिरे से जगाने का काम किया है। एक राष्ट्र के रूप में जो कुछ भारत की पहुंच के भीतर दिखता है उसे पाने के लिए यह आवश्यक है कि मोदी सरकार अपने प्रति लोगों के भरोसे को बनाए रखे, क्योंकि यह भरोसा ही वास्तविक बदलाव लाएगा।
[मुख्य संपादकीय]
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संबोधन और सवाल

जनसत्ता 16 अगस्त, 2014 : स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री के संबोधन को लेकर इस बार कुछ ज्यादा ही उत्सुकता थी तो इसकी वजहें जाहिर हैं। तीन दशक में पहली बार किसी पार्टी को लोकसभा में अपने दम पर बहुमत मिला है और सत्ता परिवर्तन ने दस साल बाद देश को नया प्रधानमंत्री दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस अवसर पर राष्ट्र से मुखातिब होने का यह पहला मौका था। फिर, इस बार के स्वाधीनता दिवस समारोह को खास बनाने के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। भाजपा सांसदों को हिदायत थी कि वे दिल्ली से बाहर न जाएं और समारोह में जरूर शामिल हों। लोग ज्यादा से ज्यादा तादाद में शिरकत करें इसके लिए मेट्रो से वहां मुफ्त जाने-आने की सुविधा दी गई। इससे पहले साल-दर-साल पंद्रह अगस्त पर तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का राष्ट्र के नाम संदेश काफी हद तक रस्मी होता था; कई बार यह भी लगता था जैसे बजट-भाषण का कोई अंश पढ़ा जा रहा हो। नरेंद्र मोदी अपनी वक्तृता के लिए जाने जाते हैं। इस मौके पर भी उन्होंने लिखित भाषण नहीं पढ़ा, सीधे बोले। इससे कई सालों से चली आ रही एकरसता टूटी। लेकिन राष्ट्रीय ध्वज फहराने के बाद लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए प्रधानमंत्री उत्साह का वैसा संचार नहीं कर सके, जैसी कि उनसे उम्मीद की जा रही थी। दरअसल, उन्होंने उन कई मुद््दों को छुआ ही नहीं जिन पर उन्हें जनादेश मिला है। भ्रष्टाचार और काले धन पर लगाम लगाने और महंगाई से निजात दिलाने का सपना दिखा कर उन्होंने अपनी पार्टी को अपूर्व कामयाबी दिलाई और सरकार बनाई। पर न उन्होंने महंगाई का जिक्र किया न काले धन और भ्रष्टाचार का। उनका ज्यादा ध्यान विदेशी निवेश को महिमामंडित करने और उसके लिए माहौल बनाने पर रहा। कई बार लगा वे बाहरी निवेशकों से ज्यादा मुखातिब हैं। एफडीआइ पर इतना जोर देना, वह भी स्वाधीनता दिवस के अवसर पर, क्या राष्ट्र के मनोबल को बढ़ाने वाला है? यह चर्चा पहले से थी कि योजना आयोग का स्वरूप बदलने की तैयारी चल रही है। अब तक के अनुभवों के आधार पर आयोग को अधिक गतिशील और कारगर बनाने की पहल हो तो किसे एतराज होगा! लेकिन प्रधानमंत्री ने जो संकेत दिए हैं उनसे यह अंदेशा पैदा होता है कि कहीं आयोग कॉरपोरेट क्षेत्र के हितों का खयाल रखने वाला निकाय तो नहीं बन जाएगा। योजना आयोग की बाबत उन्होंने जो कुछ कहा क्या उस पर मंत्रिमंडल में विचार हो चुका है? क्या वह संसद को मंजूर होगा? एक रोज पहले राष्ट्रपति ने राष्ट्र के नाम संदेश दिया था जिसमें उन्होंने देश में हाल में हुई सांप्रदायिक घटनाओं और असहिष्णुता की प्रवृत्ति पर चिंता जाहिर की और देशवासियों को आगाह किया। प्रधानमंत्री के संबोधन में भी सौहार्द का संदेश शामिल था। पर यह रस्म अदायगी थी या वे सचमुच सांप्रदायिकता और कट्टरता को लेकर चिंतित हैं! यह बिल्कुल जाहिर है कि ऐसी घटनाओं के पीछे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति ही सबसे बड़ी वजह है। इसलिए रस्मी तौर पर सौहार्द की बात दोहराने से कुछ नहीं होगा, बीमारी के कारण दूर करने होंगे। स्वाधीनता दिवस के समारोह विकास की बातें दोहराने की औपचारिकता से भी भरे रहते हैं। अच्छा यह होगा कि इन्हें दोहराते रहने के बजाय हम सच्चाई से रूबरू हों। क्यों पिछले दो दशक में दो लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी करने को मजबूर हुए? क्यों तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था और ऊंची विकास दर के दावों के बावजूद हर साल संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट में भारत दुनिया के सबसे गरीब देशों की कतार में खड़ा दिखता है? पंद्रह अगस्त हमारे देश के लिए जश्न का अवसर है तो आत्म-समीक्षा का भी।
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लाल किले से जो सुना हमने
कुमार प्रशांत

 जनसत्ता 19 अगस्त, 2014 : लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन से पहले उसकी हवा बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई थी;
संबोधन के बाद उसकी गूंज बनाए रखने की भी ताबड़तोड़ कोशिश जारी है। लेकिन हवा की हवा क्या थी और अब गूंज क्या है, यह मैं न आंक पा रहा हूं न जान पा रहा हूं। 
जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक कभी, किसी के लिए ऐसी हवा नहीं बनाई गई थी। नरेंद्र मोदी के लिए बनाई गई क्योंकि उनकी सारी राजनीति ही हवा के बल पर बनी हुई है। और हवा का चरित्र है कि वह टिकती नहीं है और रुकती नहीं है। नरेंद्र मोदी के पक्ष में दो बातें थीं- आजाद भारत में पैदा हुआ पहला प्रधानमंत्री और लंबे समय के बाद अपने बल पर बहुमत से बनी सरकार का मुखिया! दोनों ही कारण मजबूत थे लेकिन इनका रिश्ता लाल किले के भाषण की स्तरीयता से तो जुड़ता नहीं है। फिर भी मुझे यह बात खासतौर पर अच्छी लगी कि मोदी लिखित भाषण नहीं पढ़ेंगे, कि नरेंद्र मोदी पाषाणवत शीशे की दीवार में दुबक कर, देश की बहादुरी को नहीं ललकारेंगे! कितने दरिद्र बना दिए गए हैं हम कि ये सब बातें भी विशिष्टता में गिननी पड़ती हैं! 
प्रधानमंत्री ने दोनों बातें कीं- वे धाराप्रवाह बोले और शीशे की दीवार हटा कर बोले ! पिछले दस सालों से हम जिस बोदे किस्म का संबोधन लाल किले से सुनते (?) आ रहे थे, भाइयो और बहनो, उससे यह एकदम भिन्न था। हमारे सामने एक प्राणवान, ऊर्जावान प्रधानमंत्री खड़ा था जिसके पास अपनी भाषा थी, अपना तेवर था। उसकी गुजराती असर वाली हिंदी में एकाध खांटी गुजराती शब्दों की छौंक मुझे भा रही थी। मैं यह भी देख पा रहा था कि यह एक आदमी है जो सत्ताधारियों के कुनबे से नहीं आया है और उसके भीतर उस जमीन की याद ताजा है अभी, जहां से वह उठा है। मैं यह भी देख पा रहा था कि इस आदमी को पता है कि आज वह सबकी नजर में है और यह भी कि वह नजरों में बने रहने का गुर जानता है। लेकिन... इससे आगे? भाषण खत्म कर जब प्रधानमंत्री चले गए तो एक खोखला सन्नाटा अपनी जगह बनाने में कितनी आसानी से, कितनी जल्दी सफल हो गया! क्यों? क्योंकि प्रधानमंत्री ने कहा कुछ भी नहीं! ऐसा लगा कि वे शब्दों की तोप चलाते रहे और जब शब्द चुक गए तो वे चुप हो गए।   
प्रधानमंत्री ने जिस भारत की तस्वीर खींची उसका सत्त्व, उनके ही कहे मुताबिक बाजार है। वे कहते हैं कि जो देश बाजार में बिकता है और बाजार बनाता है वही सबसे अव्वल होता है, विश्वगुरु बनता है। मोदी के भारत को वहां पहुंचना है। इसकी कीमिया कहां है- मेक इन इंडिया का आमंत्रण और मेड इन इंडिया का साम्राज्य! चुनावी सभाओं में, जिसका नरेंद्र मोदी को खासा अभ्यास है, इस पर तालियां बजेंगी। लेकिन जब हम इस नारे को खोलते हैं तब क्या मिलता है? खाली हवा! 
मान लें कि मोदी की बात मान कर दुनिया भर की कंपनियां भारत में अपने उद्योग लगाने आएं तो हम उन्हें क्या देंगे- सस्ते मजदूर जिनकी सुरक्षा के लिए कोई श्रम कानून नहीं होगा? जमीन जो सरकारी दमन के कारण माटी के मोल मिल जाएगी? बिजली जो अपने देश में कितनी है और किस हाल में है, यह दूसरे किसी से नहीं, पीयूष गोयल से ही पूछ लीजिए? पानी जो बाढ़ और भयंकर जल-जमाव तो ला रहा है लेकिन न सींच पा रहा है न प्यास बुझा पा रहा है? और इन सबका इतना सारा दोहन करके विदेशी कंपनियां जो माल यहां बनाएंगी, वह बिकने और ज्यादा मुनाफा कमाने कहां जाएगा? दूसरे देशों के बाजार में ही न? 
यही मॉडल तो है जो चीन ने अपने यहां बना और चला रखा है। मेक और मेड, दोनों ठप्पों पर आज चीन का जैसा वैश्विक एकाधिकार है वैसा दूसरा किसका है? परचीन के समाज की, नागरिकों की, श्रमिकों की क्या स्थिति है। क्या हम अब वैसे ही समाज को आदर्श मानेंगे? संघ परिवार को चीनी मॉडल से ज्यादा एतराज न हो शायद, क्योंकि वह भी एकाधिकारी समाज में विश्वास करता है। लेकिन महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई के दौरान जिस लोकतंत्र के बीज बोए और आजादी मिलने के बाद से अब तक हमने जिस लोकतंत्र की सार्वजनिक साधना की है, क्या वह हमें चीन जैसा समाज बनाने देगा? इस पर सोचना जरूरी है। 
प्रधानमंत्री ने कहा कि आदर्श गांव बनाए जाएं; और उन्होंने उसकी एजेंसी भी बता दी कि सारे सांसद, विधायक अपने-अपने चुनाव क्षेत्र में हर साल एक गांव को आदर्श बनाने में लग जाएं। लक्ष्य भी सामने रख दिया- 2019 का चुनाव। 
अगर यह सत्ताकेंद्रित राजनीतिक कीमिया  किसी को रास आए तो भी यह सवाल बचा ही रहता है कि सारे सांसद-विधायक मिल कर आदर्श गांव बनाएंगे तो केंद्र और राज्यों की सरकारें क्या करेंगी? उनका लक्ष्य तो मोदीजी ने पहले ही तय कर दिया है, बजट में उसकी घोषणा भी हो चुकी है कि सौ आधुनिक शहर बसाए जाएंगे। लोग बनाएं आदर्श गांव और सरकार बनाए आदर्श-आधुनिक शहर तो इसमें से कैसे भारत की तस्वीर उभरती है? 
गांव या शहर के रूप में जिन्हें हम देखते हैं वे मिट््टी के लोंदे नहीं हैं कि जिन्हें आप मनचाहा आकार दे लेंगे। ये मनुष्यों की जिंदा संरचनाएं हैं जिनके पीछे इतिहास-भूगोल-परंपरा-संस्कृति की जिंदा ताकतें काम करती हैं। कैसे इनका तालमेल बिठाएंगे आप? जवाहरलाल भी ताउम्र इसी जाल में फंसे हाथ-पांव मारते रहे लेकिन गांधी के ग्राम स्वराज्य में छिपी आधुनिक भारत की तस्वीर देख और समझ नहीं पाए और नतीजा सामने है कि भारत के गांवों की कब्र पर खड़े हमारे शहर भी गंदगी, कुव्यवस्था, हिंसा, भ्रष्टाचार, मिथ्याचार, अपराध की लड़खड़ाती मीनारें बन गए हैं। दिल्ली में भी, अमदाबाद-वडोदरा में भी, मुंबई-चेन्नई और बंगलुरुमें भी इससे अलग क्या खड़ा हुआ है? समाज बनाने और होटल बनाने में कोई फर्क होता है या नहीं? क्या इनमें से हम कोई समाज बनता हुआ देख पा रहे हैं?  
प्रधानमंत्री ने अपने सामने एक बड़ा सपना यह रखा है कि देश का हर नागरिक बैंक से जोड़ा जाएगा। क्या होगा इससे? हमें इस अतिकेंद्रित बैंकिंग व्यवस्था की गहरी जांच करनी चाहिए। यह बड़े पूंजीवालों के हित में काम करने वाली निहायत ही अकुशल, भ्रष्ट और निजी लूट में संलग्न व्यवस्था है। आखिर जब हमारी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है तो राष्ट्रीयकृत हों कि निजी, इन बैंकों की इमारतें अट्टालिकाओं में कैसे बदल रही हैं, इनके लोगों की तनख्वाहें कहां पहुंच रही हैं, इनकी शाखाओं की चमक-दमक कैसे निखरती ही जा रही है? इनकी अकुशलता और गैर-जिम्मेदारी की अकथ कहानी किसी भी खाताधारक से सुन सकते हैं प्रधानमंत्री। प्रधानमंत्री बस इसका ही हिसाब देश के सामने रखें कि जिन किसानों ने पिछले बीस बरसों में आत्महत्या की है, उनमें से कितनों ने बैकों से कर्ज ले रखा था? 
गांव के सूदखोर महाजन की जगह सामाजिक न्याय में विश्वास करने वाली बैंकिंग व्यवस्था हम बना सके हैं क्या? हम इस राजनीतिक बेईमानी के जाल में न फंसें कि सरकारों ने चुनावों को ध्यान में रख कर किसानों का कब, कितना कर्ज माफ किया है। किसानों की कर्ज-माफी एक तरफ तो राजनीतिक घोटाला है, दूसरी तरफ सामान्य करदाता की बेशर्म लूट। बैंकों के विस्तार का आज एक ही मतलब है कि जिस विकेंद्रित ग्रामीण पूंजी तक सरकार और उद्योगों की पहुंच नहीं है, वह समेट कर शहरों में ले आई जाए और उसका मनमाना दोहन हो। 
लड़कियों-बेटियों को लेकर कितनी चिंता प्रकट की प्रधानमंत्री ने। लेकिन जैसी संरचना की तरफ उनकी दौड़ है, उसमें सारी दुनिया में लड़कियां र्इंधन की तरह इस्तेमाल की जाती हैं। मुनाफा बटोरने वाला बाजार हो या पर्यटन को उद्योग मानने वाली व्यवस्था, अपने हर माल को सेक्स की चासनी में लपेट कर बेचने वाला शहरी उद्योग हो या लड़कियों को रंभा या मेनका मान कर बरतने वाली राजनीति- कहां है जगह बेटियों की? तो नारे वोट ला सकते हैं लेकिन राजनीतिक-सामाजिक-बौद्धिक मान्यताएं बदलने का रास्ता इधर से नहीं गुजरता है।  
सारी उलझन यहीं पर है कि रास्ता क्या है और वह किधर से गुजरता है। चुनाव प्रचार के दौरान मतवाले हुए नरेंद्र मोदी हों कि आज सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री, महात्मा गांधी उन्हें एक ही बात के लिए याद आते हैं- सफाई। 
यह ठीक ही है कि गंगा की सफाई हो कि प्रधानमंत्री कार्यालय के कचरे की, महात्मा गांधी का झाड़ू हर जगह काम करता है, लेकिन प्रधानमंत्री जो भूल रहे हैं वह यह कि महात्मा गांधी का झाड़ू सबसे पहले दिमागी गंदगी की सफाई करता था। उस झाड़ू से सभी पिटे हैं- बिड़ला-बजाज भी, सोहरावर्दी और कांग्रेसी भी, संघ परिवारी और सरदार पटेल भी, सुभाष भी और हिटलर भी। जवाहरलाल से उत्तराधिकार वापस लेने तक गए वे और कांग्रेस को विसर्जित करने की लिखित सलाह तक दे डाली। दलितों की नुमाइंदगी का आंबेडकर का एकाधिकार जिसने कभी स्वीकार नहीं किया, उसी ने आजाद भारत के पहले मंत्रिमंडल में उनको जगह देने की जोरदार पैरवी की तो उसके पीछे भी दिमागी गंदगी पर झाड़ू चलाने की बात ही थी। मुसलिम सांप्रदायिकता को संगठित कर राजनीति करने की जिन्ना की रणनीति का आखिरी दम तक विरोध किया उन्होंने तो दूसरी तरफ भारतीय समाज में सभी धर्मावलंबियों की समान हैसियत बनाने के सवाल पर गोली खाई उन्होंने। जयप्रकाश नारायण को कांग्रेस का अध्यक्ष बना कर नेहरू-सरदार पर अंकुश लगाने की कोशिश की उन्होंने तो देश-विभाजन बचाने के लिए यह दुस्साहसी प्रस्ताव भी रखा कि सब कुछ उनके कंधों पर डाल कर कांग्रेस अलग हो जाए! लेकिन तब न कोई संघ परिवारी उनके समर्थन में आगे आया न कोई लीगी, न कोई कांग्रेसी, न कोई साम्यवादी। इस गांधी को भुला कर जिस तरह चलने की कोशिश प्रधानमंत्री कर रहे हैं वह उन्हें लाल किले तक भले पहुंचा दे, हिंसा से लाल हो रही भारत-भूमि को हरीतिमा से भरने का मौका नहीं देगी।
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