आगे बढ़े स्वच्छता अभियान
नवभारत टाइम्स | Sep 13, 2014
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित स्वच्छ भारत अभियान को आगे बढ़ाते हुए शिक्षा मंत्रालय ने स्वच्छ विद्यालय मुहिम चलाने की बात कही है। इस दिशा में ढंग से आगे बढ़ा गया तो आने वाली पीढ़ी स्वच्छता को एक जीवन मूल्य के रूप में अपना सकेगी। आज की हालत देख कर इस बात का अंदाजा मिलना मुश्किल है कि कभी हमारे समाज में स्वच्छता या शुचिता को कितना ऊंचा स्थान हासिल था। यह अलग बात है कि यह आग्रह तब मुख्य तौर पर ग्रामीण परिवेश के जीवन पर केंद्रित था। शहरी जीवन में उन संस्कारों को लागू करने के बारे में कभी सोचा भी नहीं गया। दूसरी बात यह कि शुचिता पर जोर प्राय: पूजा-पाठ की भावनाओं से जुड़ा था। नतीजा यह हुआ कि अपने परिवेश को साफ रखने की जरूरत आम तौर पर खुद को अशुद्ध न होने देने की इच्छा में बदलती गई। यही कारण रहा कि साफ-सफाई हमारी जीवन शैली का हिस्सा नहीं बन सकी। उलटे इसका जिम्मा समाज के एक खास हिस्से को सौंप कर उस समूह को ही कथित सभ्य समाज से काट दिया गया। इस तरह खुद को अशुद्ध होने से बचाने की भावना ने समाज के एक हिस्से को त्याज्य और दूसरे को स्वार्थी-स्वकेंद्रित बनाया। इस तरह पूरे समाज को अमानवीयता के गर्त में डाल दिया गया। आज भी हम अपने घर को तो साफ करते हैं, पर कूड़ा उसी घर के बाहर डाल आते हैं, बगैर यह सोचे कि इससे हमारे मोहल्ले में कितनी दुर्गंध, कितनी गंदगी फैलेगी। इस मानसिकता के अनगिन उदाहरण हमें रोज चलते-फिरते दिखते हैं। बड़ी-बड़ी महंगी गाड़ियों में बैठे लोग कार का शीशा जरा सा नीचे करके अंदर से खाली बोतल या चिप्स के खाली पैकेट बाहर सड़क पर गिरा देते हैं। सिगनल पर कुछ सेकंड के लिए गाड़ी रोकने का मौका मिले तो दरवाजा खोलकर आधा किलो गुटकेदार थूक सड़क पर निकाल देते हैं और धड़ल्ले से आगे बढ़ जाते हैं। यह हाल देश के सभी शहरों का है। देश भर के नगर निगम और नगरपालिकाएं इस मोर्चे पर लगभग नाकारा साबित हुई हैं। हां, कोई एक चमकता हुआ अपवाद अगर है तो वह है दिल्ली मेट्रो। अपने सीमित क्षेत्र में ही सही, पर इसने सफाई को एक सामाजिक मूल्य के रूप में न केवल स्थापित किया है बल्कि यात्रियों में इसकी स्वीकार्यता भी बनाई है। यह इस बात का ठोस सबूत है कि अगर दंड और प्रोत्साहन की दोतरफा नीति को प्रभावी ढंग से अमल में लाया जाए तो कुछ ही वर्षों में सरकारी दफ्तर, अस्पताल, सड़कें और गली-मुहल्ले- सब चमकते नजर आ सकते हैं।
------------------------------------------------------------------------------------------
Sun, 28 Sep 2014
कूड़ा-करकट या कचरे की समस्या केवल विकासशील देशों से नहीं जुड़ी है। विकसित देशों में भी यह एक गंभीर मसला है। उनके यहां तेज उपभोक्तावाद और डिस्पोजेबल उत्पादों की अति खपत के चलते प्रति व्यक्ति कूड़ा पैदा करने का अनुपात अधिक है। यह बात और है कि सर्वाधिक कूड़ा पैदा करने के बावजूद अपने कुशल प्रबंधन, संसाधन और संस्कृति के बूते वे अपने देश व पर्यावरण को साफ रखने में सक्षम हैं। दुनिया के कई देश इसे पर्यावरण के साथ जोड़कर भी देखते हैं। साफ-सफाई के मसले पर भारत को दोतरफा लड़ाई लड़नी पड़ रही है। एक तो यहां गंदगी के निपटान वाले संसाधन नहीं है, लिहाजा लोग गंदगी फैलाने को विवश हैं। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है कि जन शौचालय न होने के चलते लोग दीवारों पर पेशाब करते हैं। दूसरी ओर बड़ी समस्या यह है कि यहां स्वच्छता का अभाव है। जो थोड़े बहुत संसाधन हैं, हम उनके इस्तेमाल से परहेज करते हैं। सामने कूड़ेदान या शौचालय दिख रहा है लेकिन कूड़ा ऐसे ही फेंक देंगे और कहीं भी निवृत हो लेंगे। भारत में खुले में शौच आज बड़ी समस्या है। स्वच्छ पेयजल का संकट है। तमाम जल स्रोत दूषित होते जा रहे हैं। ऐसे में साफ-सफाई रखकर ही हम राष्ट्र को स्वस्थ रख सकते हैं। विभिन्न देशों में गंदगी से निपटने के लिए उठाए जाने वाले कदम इस तरह हैं।
कूड़ेदान
कई देशों में जगह-जगह कूड़ेदान रखे जाते हैं। सभी सार्वजनिक स्थलों, सड़कों आदि पर इन्हें प्रशासन द्वारा रख दिया जाता है। स्वच्छता की संस्कृति विकसित कर चुके ये लोग अपने कूड़े को इसमें डाल जाते हैं जिसे स्थानीय काउंसिल द्वारा उठवा लिया जाता है। ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसा प्रयोग नहीं किया गया है, लेकिन जनता से लेकर प्रशासन तक की उदासीनता इसे विफल कर देती है।
अभियान
कई बार स्वयंसेवक विभिन्न संगठनों के सहयोग से गलियों और सड़कों पर पड़े कूड़े को उठाते हैं। सफाई अभियान चलाए जाते हैं जिनके तहत एक पूरे इलाके की सभी गंदगी को साफ किया जाता है। उत्तरी अमेरिका में राजमार्गो को अपनाने का कार्यक्रम चलता है। इसके तहत कंपनियां और संगठन सड़क के एक हिस्से को साफ रखने की प्रतिबद्धता जाहिर करते हैं। केन्या के एक शहर में ऐसे कूड़े से कलाकृतियां बनाकर बेची जाती हैं।
स्थलों की देखरेख
कई देशों में तकनीक के सहारे गंदगी फैलाने वालों पर निगाह रखी जाती है। जापान में जियोग्राफिक इंफार्मेशन सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है।
कानून
कुछ देशों में कंटेनर डिपोजिट कानून बनाए गए हैं। इसके तहत लोगों को कूड़ा जमा करने के लिए प्रेरित किया जाता है, बाद में अलुमिनियम कैन, शीशे व प्लास्टिक की बोतलों आदि के लिए लाभ भी पहुंचाया जाता है। जर्मनी, न्यूयार्क, नीदरलैंड्स और बेल्जियम के कुछ हिस्से में इस तरह के कानून लागू हैं। इस कानून के चलते जर्मनी के किसी सड़क पर कैन या प्लास्टिक की बोतल नहीं दिखाई देती। नीदरलैंड्स में भी कूड़े की मात्रा में अप्रत्याशित गिरावट आई।
सजा
कई देशों में कूड़ा और गंदगी फैलाने वालों के लिए सख्त दंड का प्रावधान है।
अमेरिका: 500 डॉलर का अर्थदंड, सामुदायिक सेवा या दोनों हो सकती है। अधिकांश राजमागरें और पार्को के लिए यह सजा 1000 डॉलर या एक साल की जेल है।
ब्रिटेन: दोषी साबित होने पर अधिकतम 2500 पौंड का अर्थदंड लग सकता है।
ऑस्ट्रेलिया: राज्यों के स्तर पर कानून। अर्थदंड का भी प्रावधान।
नीदरलैंड्स: गलियों में कूड़ा फेंकने पर पुलिस जुर्माना कर सकती है।
सिंगापुर: 1965 में स्वतंत्र हुआ देश आज प्रति व्यक्ति आय के मामले में अमेरिका सहित कई विकसित देशों के कान काटे हुए हैं। तीसरे पायदान पर। बताने को देश के पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं। पेयजल के लिए भी मलेशिया पर निर्भर। कहीं भी कूड़ा फेंकने पर 200 डॉलर का अर्थदंड। कोई भी दलील नहीं सुनी जाएगी। च्युंगम पर प्रतिबंध। बिक्री पर भी सजा हो सकता है। अवारा कुत्ते यहां नहीं पाए जाते।
*****
कूड़े के रूप में दुनिया में सर्वाधिक फेंका जाने वाला सामान सिगरेट के टोटे हैं। 4.5 ट्रिलियन टोटे सालाना फेंके जाते हैं। सिगरेट के इन बचे हुए टुकड़ों के अपक्षय होने का समय अलग-अलग है। कुछ के अपक्षय होने में पांच साल तो कुछ में 400 साल तक लग जाते हैं।
-----------------------
Sun, 28 Sep 2014
कसर
गंदगी फैलाना मानो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो। सरे राह चलते कहीं भी थूक देना, पान-खैनी और गुटखे की पीक उगल देना, खाली हुए पैकेट-प्लास्टिक थैली- बोतल या कैन को बिना झिझक यूं ही हवा में उछाल देना जैसे हमारी शान का प्रतीक हो। ऐसा करना हम सबको बहुत सुकून देता है। ऐसा करते हुए हम यह किंचित मात्र नहीं सोचते कि इसका दुष्प्रभाव क्या है।
असर
बचपन में साफ-सफाई को लेकर हम सबको नसीहतें मिली होंगी कि कुत्ता भी जहां बैठता है, वहां पूंछ से साफ कर लेता है। हम ऐसी तमाम नसीहतों को भुला बैठे हैं। शायद इसके पीछे हमारी यह मानसिकता काम करती है कि इस जगह से हमारा क्या लेना देना। गंदी हो मेरी बला से। हमारा घर-ऑफिस तो साफ ही रहता है। नहीं.. इसी मानसिकता को तो बदलने की जरूरत है। जिस स्थान को आप गंदा करते हैं वहां कोई और उठता-बैठता है। हर साल हम आप अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा बीमारियों पर खर्च कर देते हैं। ऐसे में अगर अपने आसपास को हम साफ सुथरा रखेंगे तो एक तो नकद बचत स्पष्ट दिखेगी। हमारे परिजन स्वस्थ रहेंगे। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ दिमाग वास करेगा और अच्छे विचार, संस्कार पुष्पित पल्लवित होंगे। इसी क्रम में पूरा देश आगे बढ़ सकता है।
सफर
साफ-सफाई को सबसे बड़ा काम बताने वाले महात्मा गांधी की जयंती से सरकार स्वच्छ इंडिया अभियान की शुरुआत करने जा रही है। अक्टूबर, 2019 तक के पांच वर्ष के अंतराल में समूचे देश को स्वच्छ करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए दो लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इसके तहत पूरे देश में साफ-सफाई को बढ़ावा देने वाले संसाधनों का निर्माण कराया जाएगा और एक संस्कृति विकसित करने के लिए लोगों को जागरूक किया जाएगा। सरकार की नियति साफ है और मंशा एकदम स्पष्ट। जरूरत है लोगों के खुलेमन से इस अभियान से जुड़ने की। कब तक साफ-सफाई का जिम्मा सरकार पर छोड़ते रहेंगे। कब तक संसाधनों का रोना रोते रहेंगे। मसला बाहरी के साथ-साथ आंतरिक सफाई का भी है। ऐसे में अपनी गंदगी को लेकर दुनिया में जगहंसाई का पात्र बनने वाले भारत को स्वच्छ और निर्मल बनाने के लिए अपनी सोच और संस्कृति में बदलाव लाना आज हमारे लिए सबसे बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या सिर्फ सरकारी संसाधनों के बूते स्वच्छ भारत की परिकल्पना संभव है?
हां 19 फीसद
नहीं 81 फीसद
क्या कूड़े को कहीं भी फेंकने से पहले आप विचार करते हैं?
हां 87 फीसद
नहीं 15 फीसद
आपकी आवाज
प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान चलाकर एक उदाहरण पेश किया है। जिसे पूरा करना हर भारतीय की जिम्मेदारी है। -चंदन सिंह
जब कूड़ा फेंकते हुए हर नागरिक को देश का ख्याल आएगा, तब वह कचरा कूड़ेदान में डालेगा। तभी भारत में बदलाव आएगा। -मधुराज कुमार
अपने घर को साफ रखने के साथ घर के बाहर भी सफाई किए जाने पर ध्यान देना होगा। -अश्विनी सिंह
बहुत से लोग लापरवाही के चलते कूड़े को सड़कों पर डाल देते हैं, जो हमारे लिए ही नुकसानदायक होता है। -इरा श्रीवास्तव
सरकारी संसाधन सिर्फ सुविधाएं मुहैया करा सकते हैं परंतु स्वच्छ भारत की संकल्पना सभी भारतीयों की जागरुकता व भागीदारी के बिना साकार रूप नहीं लेगी। देश को साफ-सुथरा रखना हम सबका फर्ज है। -सचिनकुमार7337@जीमेल.कॉम
हमें कहीं भी कूड़ा डालने से पहले यह सोचना चाहिए कि हम कूड़ा कहां फेक रहे हैं। इस पर सबसे पहले मच्छर आएंगे और फिर वायु प्रदूषण फैलेगा। -सिंघलप्राची1997@जीमेल.कॉम
खरी खरी
हर आदमी को खुद का सफाईकर्मी होना चाहिए।
* * *
किसी परिवार के सदस्य खुद के घर को तो साफ रखते हैं लेकिन पड़ोसी के घर के बारे में उनकी कोई रुचि नहीं होती।
* * *
स्वतंत्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्वच्छता
------------------
Sun, 28 Sep 2014
आखिरकार जोश से लबरेज प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान ने भारतीयों को कूड़े और कचरे पर बात करने के प्रति प्रोत्साहित किया है। साथ ही यह सोचने पर भी विवश किया है कि समस्या कितनी गंभीर है। तो आइए और इसे खत्म करें। हर साल भारत में छह करोड़ टन कूड़ा पैदा होता है। चिंतन का मानना है कि कम से कम 20 फीसद बिना एकत्र किया कूड़ा बड़े शहरों और छोटे शहरों में यहां-वहां छितराया रहता है। जिन्हें एकत्र करके कूड़ाघर तक पहुंचाया भी जाता है वे अपने विषाक्त रसायनों से जल को और ग्रीन हाउस गैसों से वायु को प्रदूषित करते हैं। इसके अलावा मक्खी और मच्छरों के लिए यह स्थान स्वर्ग सरीखा होता है। दुर्गध बोनस है।
धरती को सुरक्षित रखते हुए कचरे से निपटने की कारगर व्यवस्था अपनाने के लिए हमें अमूलचूल बदलाव करने होंगे। हमारे प्रमुख मंत्रालयों (पर्यावरण और शहरी) नए कानून और नियम बनाने की प्रक्रिया में हैं, लेकिन इसका सबसे बड़ा खतरा यह है कि कचरे के प्रबंधन के प्रमुख स्तंभों से उनका बहुत सरोकार नहीं है। कचरे का कम होना ही कचरे के प्रबंधन की रीढ़ है। अगर कम कचरा पैदा करेंगे तो कम कचरे से ही निपटना होगा। इसीलिए कई शहरों में प्लास्टिक थैलियों पर पाबंदी है। हालांकि हमारे कचरे का कुछ हिस्सा विषाक्त होता है। लिहाजा उन्हें सामान्य तरीके से नहीं निपटाया जा सकता है। दुनिया भर में यह इसके लिए एक खास प्रक्रिया अमल में लाई जाती है। घातक पारा युक्त बैटरी, सीएफएल इत्यादि विषाक्त उत्पाद निर्माता कंपनियों के साथ इसके कचरे को निपटाने की जिम्मेदारी साझा की जाती है।
भारत के संदर्भ में समाधान तलाशने के साथ स्थानीय लोगों को सचेत करने किए जाने की भी जरूरत है। इनमें सब जगह पाए जाने वाले भारतीय पर्यावरण विशेषज्ञ 'कबाड़ी' को भी शामिल किया जाना चाहिए। कबाड़ी अपने कचरे का करीब 20 फीसद हिस्सा रीसाइकिल करता है। कंपोस्ट के लिए बाजार सृजित किए जाने की भी जरूरत है। अगर खत्म करने के लिए कम कचरा होगा तो प्रदूषण भी कम होगा। लेकिन इन सबको हमारे कानून और नियमों की मुख्यधारा में शामिल करना होगा। नगरपालिका स्तर के अधिकारियों की सोच में यह बैठाना होगा जिन्हें अल्प प्रशिक्षण और संसाधनों के साथ संकट के दौरान झोंक दिया जाता है।
अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए भी ऐसा करना बेहतर रहेगा, क्योंकि रीसाइक्लिंग से ऐसे छिपे तत्व मिलते हैं जिनका फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है। हमें एक आदर्श बदलाव की जरूरत है। जहां हम निपटान को महज कचरा प्रबंधन की जगह संसाधनों की कुशलता समझें। अब वह युग आ गया है जब किसी शहर की स्वच्छता का मानक इससे तय होगा कि वह अपने कचरे को कितना बेहतर तरीके से उठाता और कितने सुरक्षित रूप से वह उन्हें कूड़ाघर तक पहुंचाता है।
अहम सुझाव
* नगरपालिकाओं को यह समझने में मदद की जाए कि हर बेकार वस्तु एक संसाधन है।
* एक राष्ट्रीय सलाहकार निकाय हो, जो एक दूसरे क्षेत्र के विशेषज्ञों को जोड़े, यह सुनिश्चित करे कि नियमों का पालन हो रहा है, व्यापक साझेदारी के लिए नागरिकों को जोड़े।
* कचरे से जुड़े प्रदूषण की माप हो। सूचना आनलाइन की जाए।
* जागरूकता बढ़ाने पर निवेश किया जाए।
-भारती चतुर्वेदी [निदेशक, चिंतन एनवायरमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप]
----------------------------
:Sun, 28 Sep 2014
स्वच्छता के सबसे बड़े अभियान के क्रियान्वयन की दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत सारे कदम उठाए हैं। गांधी जयंती के दिन 2 अक्टूबर को केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए कोई सार्वजनिक अवकाश नहीं होगा और सभी सरकारी कर्मचारी मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान में अपनी भागीदारी निभाएंगे। यह सही समय पर चलाया गया अभियान है जो एक अच्छे इरादे से युक्त है, लेकिन सवाल यही है कि क्या यह सफल होगा और क्या स्वच्छ भारत का सपना पूरा हो सकेगा?
वर्ष 1903 में गांधीजी बनारस गए, जहां उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर को देखा। वहां के हालात देखकर उन्होंने टिप्पणी की, 'भनभनाती मक्खियों के झुंड और दुकानदारों द्वारा मचाया जाने वाला शोर निश्चित रूप से तीर्थयात्रियों के लिए बहुत ही असहनीय था'। इस संदर्भ में गांधीजी ने यह भी लिखा कि बावजूद इसके यहां लोग ध्यान और मेल-मिलाप के माहौल की अपेक्षा करते हैं जो स्पष्ट रूप से नदारद है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर सड़े हुए फूलों की दुर्गध आती है। इस क्रम में वह आगे लिखते हैं, 'मैं इस तीर्थस्थान के चारों तरफ भगवान की तलाश में घूमा, लेकिन यहां की गंदगी और अपवित्रता के बीच उन्हें ढूंढ़ पाने में विफल रहा'।
गांधीजी द्वारा स्वच्छता और सफाई के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित किए जाने के बावजदू आज 100 वर्षो बाद भी भारत में बहुत थोड़ा ही बदलाव आया है। यदि हमारे धार्मिक स्थानों अथवा तीर्थस्थलों की हालत ऐसी है तो कोई भी कल्पना कर सकता है कि हम भारतीय कितनी गंदगी अथवा अपवित्रता में रहते होंगे। यह भी कि हम गंदगी की कितनी कम परवाह करते हैं और हर ओर इसे फैलाने के प्रति उदारभाव रखते हैं। वास्तव में गंदगी फैलाना और कहीं भी थूक देना हमारी आदत में शुमार हो चुका है। हमारी सड़कें खुले गंदगी के स्थान में तब्दील हो चुकी हैं और पार्को की हालत भी कुछ ऐसी ही है। हमारे देश में स्वच्छता कभी भी प्राथमिकता नहीं रही और इस हेतु धन का अभाव भी एक प्रमुख समस्या है। स्वच्छता ऐसा कोई रिवाज नहीं है जिसे हम दिन अथवा सप्ताह के हिसाब से ध्यान दें। हमारी इस समस्या के मूल में स्वच्छता की संस्कृति का अभाव मुख्य है। यह भी कम हास्यास्पद नहीं है कि जो लोग हमारे आवास के चारों तरफ साफ-सफाई रखने का काम करते हैं वह खुद बहुत गंदगी में रहते हैं। कुल मिलाकर न केवल हमारे अपने जीवन में गंदगी और अपवित्रता होती है, बल्कि ऐसे मामलों में बहुत उदार रुख रखते हैं। सार्वजनिक जगहों पर पेशाब करना, खुले में शौच जाना, गंदगी, कूड़ा फैलाना और अपवित्रता जैसी चीजें शायद ही किसी की नजरों में न आती हों। इसे आप होटल, हॉस्पिटल, घरों, कार्यस्थलों, ट्रेनों, हवाई जहाजों और यहां तक कि धार्मिक स्थलों में भी देख सकते हैं। सबसे खराब बात यह है कि हम भारतीय इस मामले में बहुत सतही और रक्षात्मक हैं। कुछ वर्ष पहले डच अथवा हालैंड के एक राजनयिक ने मुझसे कहा कि आज तक मैं जहां कहीं भी रहा हूं उनमें नई दिल्ली सबसे खराब जगह है। यहां तक कि उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को कूड़ा घर करार दिया। दिल्लीवासी इन बातों की कभी परवाह नहीं करते। यहां तक कि पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी कहा कि यदि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाए तो हमारे शहर आसानी से इसे जीत सकते हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जहां कुछ देश, समाज और लोग स्वच्छता पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हैं वहीं कहीं पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता है। नार्वे के ओस्लो में लोगों की रोचक आदत है। यह शहर अपने कूड़े से ऊष्मा और बिजली पैदा करता है। इस प्रक्रिया में यह देश इतना माहिर हो चुका है कि यहां कूड़े की किल्लत पैदा हो गई है। जरूरत पूरी करने के लिए इसे कूड़ा ब्रिटेन सहित अन्य जगहों से आयात करना पड़ रहा है। कई उत्तरी यूरोपीय देशों में भी ऐसा ही होता है।
हममें से अधिकांश लोग गंदगी के लिए सरकारी एजेंसियों को दोष देते हैं। दोषारोपण एक राष्ट्रीय प्रवृत्ति बन गई है। एक ओर जहां कमजोर कानून है तो दूसरी ओर इनका क्रियान्वयन और भी अधिक लचर है। अपनी जवाबदेही को लेकर किसी को भी कानून का डर नहीं है। क्या इस बार कुछ अलग होगा? पूर्व के अनुभवों को देखते हुए कोई आश्चर्य नहीं कि यह अभियान भी किसी ऐसी ही नियति का शिकार हो जाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह अभियान 'गंदगी फेंकने से वातावरण ही नहीं, आत्मा भी मैली होती है' या 'सफाई में भगवान बसते हैं' जैसे नारों और खाली ख्वाहिशों तक नहीं सीमित रहेगा।
-आश नारायण रॉय [निदेशक, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, दिल्ली]
------------------------
:Sun, 28 Sep 2014
विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक अपर्याप्त साफ-सफाई और स्वच्छता की हर साल भारत को 54 अरब डॉलर कीमत चुकानी पड़ती है। यह रकम 2006 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 6.4 फीसद के बराबर है। यही नहीं, यह चपत देश के कई राज्यों के कुल आय से भी अधिक है।
स्वच्छता के सही तरीके अपनाकर भारत 32.6 अरब डॉलर हर साल बचा सकता है। यह रकम 2006 में देश की जीडीपी के 3.9 हिस्से के बराबर है। इससे प्रतिव्यक्ति 1321 रुपये का लाभ सुनिश्चित किया जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जैसे माचिस की एक तीली संपूर्ण दुनिया को स्वाहा करने की ताकत रखती है उसी तरह बहुत सूक्ष्म मात्रा की गंदगी भी महामारी फैला सकती है। उदाहरण के लिए एक ग्राम मल में एक करोड़ विषाणु हो सकते हैं, दस लाख जीवाणु हो सकते हैं, एक हजार परजीवी हो सकते हैं और 100 परजीवियों के अंडे हो सकते हैं।
सफाई से कमाई
विश्व बैंक के शोध के अनुसार अगर शौचालय के इस्तेमाल में वृद्धि की जाए, स्वच्छता और साफ-सफाई के तरीके अपनाए जाएं तो स्वास्थ्य पर पड़ने वाले समग्र असर को 45 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है जबकि जल, लोगों के कल्याण और पर्यटन नुकसान पूरे टाले जा सकते हैं।
बड़ा बाजार
शोध के अनुसार भारत में स्वच्छता के एक बड़े बाजार की पर्याप्त संभावनाएं हैं। 2007-2020 के दौरान यह बाजार 152 अरब डॉलर का हो सकता है। इनमें से 67 अरब डॉलर (64 फीसद) इंफ्रास्ट्रक्टर, 54 अरब डॉलर (36 फीसद) प्रचालन और रखरखाव सेवाओं के लिए होगा। साफ-सफाई से जुड़े बाजार की सालाना वृद्धि 2007 में जहां 6.6 अरब डॉलर की है, 2020 में यह 15.1 अरब डॉलर होगी।
गंभीर नतीजे
अपर्याप्त साफ-सफाई और स्वच्छता के चलते लोग मारे जाते हैं। बीमारियां होती हैं। पर्यावरण प्रदूषित होता है। लोगों का कल्याण क्षीण होता है। इन सब परिणामों से से सब कोई वाकिफ होता है लेकिन खराब स्वच्छता के आर्थिक असर का आकलन अब तक ढंग से नहीं किया गया है।
किस मद में कितना
71.7 फीसद- स्वास्थ्य [38.49 अरब डॉलर]
0.5 फीसद- पर्यटन [0.26 अरब]
20 फीसद- समय बर्बादी [10.73 अरब]
7.8 फीसद- जल [4.21 अरब]
स्वास्थ्य पर असर
66 फीसद- डायरिया [25.5 अरब डॉलर]
1 फीसद- आंत्र संबंधी कृमि [0.31 अरब]
12 फीसद- एक्युट लोअर रेसपिरेटरी इंफेक्शन [4.6 अरब]
16 फीसद- अन्य [6.2 अरब]
0.2 फीसद- मलेरिया [0.08 अरब]
4 फीसद- खसरा [1.45 अरब]
1 फीसद- ट्रैकोमा [0.28 अरब]
----------------------------------
Sun, 28 Sep 2014
अपने बगीचों और आइटी कंपनियों के लिए मशहूर बेंगलूर पिछले कुछ साल से एक गलत वजह से जाना जाने लगा। कचरे से निपटने में बुरी तरह विफल रहने वाली यहां की बृहत बेंगलूर महानगर पालिका (बीबीएमपी) ने दुनिया का ध्यान खींचा। ऐसे में जहां यहां के आम लोग और उद्योगपति बीबीएमपी पर आरोप लगाने में व्यस्त थे, लोगों का एक समूह चुपचाप गंदे स्थलों की पहचान करके उनके सौंदर्यीकरण में मशगूल रहा। इस समूह की खास बात यह है कि ये लोग प्रवचन की जगह प्रयत्न में यकीन रखते हैं। यह है द अगली इंडियन समूह ।
लोग जहां कचरा फेंकते हैं, उसे ये काले निशान से क्रास करके पहचान करते हैं। वे उस स्थान का सौंदर्यीकरण कर देते हैं। इन सबके बावजूद समूह के सदस्यों को किसी प्रसिद्धि की भी भूख नहीं है। इनमें से अधिकांश अज्ञात ही बने रहकर केवल ब्लैक स्पॉट को सुंदर बनाना चाहते हैं। अभी तक शहर में इस समूह द्वारा 1154 स्थानों की पहचान करके उन्हें सुंदर बनाया जा चुका है। इस समूह का ध्येय वाक्य है, 'काम चालू मुंह बंद'। इनके काम से प्रभावित होकर बीबीएमपी ने कचरा फेंके जाने वाले स्थलों के सौंदर्यीकरण के लिए इनके साथ समझौता किया है।
संगठन की वेबसाइट पर लिखा है कि अब हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि देश की अधिकांश समस्याएं हम जैसे अगली इंडियंस के चलते हैं। किसी भी गली को देखो नागरिक मानकों की स्थिति दयनीय है। गंदगी के लगे अंबार को हम लोग सहते रहते हैं। इसके लिए न धन, न तंत्र और न ही यह समझने की जरूरत है कि यह कैसे होगा। यह केवल और केवल प्रवृत्ति और नजरिए के साथ सांस्कृतिक व्यवहार की बात है। अब हम अगली इंडियंस के लिए वक्त आ चुका है कि इस दिशा में कुछ करें। खुद को खुद से हम लोग ही बचा सकते हैं।
प्रेरक लोग
सिर्फ ऐसा ही नहीं है कि लोग गंदगी बिखेरने या फैली गंदगी को देख बुरा सा मुंह बनाकर निकल लेने में मशगूल हैं, इसी समाज के कुछ लोग चुपचाप गंदगी को साफ करने में भी जुटे हैं। इनका मुंह मास्क से बंद है लेकिन काम चालू है। हम सबको भी इनसे कुछ सीखना चाहिए।
----------------------------
Thu, 02 Oct 2014
केंद्र सरकार की ओर से जोर-शोर से शुरू किए जा रहे स्वच्छ भारत अभियान को सफल होना ही चाहिए, क्योंकि इसमें पूरे देश का हित निहित है। देश के मान-सम्मान के साथ-साथ आम आदमी के अपने भले के लिए इस अभियान का सफल होना जरूरी है। यह आवश्यक है कि आम जनता इसे अपने अभियान के तौर पर ले। इसे सरकारी कार्यक्रम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह सरकारी कार्यक्रम है भी नहीं, लेकिन हालात ऐसे हैं कि मोदी सरकार को देश को साफ-सुथरा बनाने का काम एक तरह से अपने हाथ में लेना पड़ रहा है। औसत भारतीय अपने घर की साफ-सफाई के लिए कितना ही सजग क्यों न रहता हो, लेकिन सार्वजनिक स्थलों की सफाई को लेकर वह कुल मिलाकर बेपरवाह ही दिखता है। हालत यह है कि हमारे धार्मिक स्थलों में भी गंदगी के ढेर दिखते हैं। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि अगर कोई रोकने-टोकने वाला न हो तो साफ-सुथरे स्थलों में भी लोग कचरा फैलाने से बाज नहीं आते। यही कारण है कि भारत की गिनती उन देशों में होती है जहां सार्वजनिक स्थलों पर गंदगी का साम्राज्य रहता है। आर्थिक तौर पर देश का कद बढ़ने के बावजूद दुनिया के कई देशों में अभी भी भारत की छवि एक ऐसे देश की है जहां गंदगी जनित बीमारियों का प्रकोप छाया रहता है। सार्वजनिक स्थलों पर व्याप्त गंदगी के दुष्परिणाम कई रूपों में सामने आते हैं। गंदगी के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर केवल देश की छवि ही नहीं प्रभावित होती, बल्कि किस्म-किस्म की बीमारियां भी सिर उठाती रहती हैं। इन बीमारियों से न केवल लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि हजारों हजार लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं। इसके सामाजिक दुष्परिणाम भी सामने आते हैं और आर्थिक भी।
सार्वजनिक स्थलों में गंदगी की समस्या आज की नहीं है। हमारा देश इस समस्या से आजादी के पहले से ग्रस्त है और यही कारण रहा कि महात्मा गांधी ने गंदगी दूर करने के लिए भी अलख जगाई। आज यह अलख फिर जगाई जा रही है। यह आश्चर्यजनक है कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी सरकार ने वह नहीं सोचा जो मोदी सरकार ने न केवल सोचा, बल्कि उसे एक अभियान में बदल दिया। इस अभियान के तहत खुद प्रधानमंत्री सड़कों पर उतरकर झाडू लगाएंगे। नि:संदेह यह काम प्रधानमंत्री का नहीं है कि वह गंदगी के खिलाफ इस तरह झाडू लेकर सड़क पर उतरें, लेकिन आम जनता को प्रेरित करने के लिए इससे बेहतर और कोई तरीका भी नहीं हो सकता। जब प्रधानमंत्री के साथ-साथ उनके तमाम मंत्री और लाखों की संख्या में केंद्रीय सेवाओं के कर्मचारी स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत करने उतरे हैं तो आम जनता के लिए भी यह आवश्यक हो जाता है कि वह हर स्तर पर अपना योगदान दे। इस अभियान को इस रूप में आगे बढ़ाने की जरूरत है ताकि हर कोई यह समझे कि साफ-सफाई की जितनी जरूरत निजी जीवन में है उतनी ही सार्वजनिक जीवन में भी। गंदगी के प्रति बेपरवाह देश के रूप में भारत की छवि हमारे लिए एक दाग है और यह दाग तभी दूर होगा जब आम लोग सार्वजनिक सफाई को लेकर अपना मानसिकता बदलने के लिए तैयार होंगे।
[मुख्य संपादकीय]
----------------------------------
नवभारत टाइम्स| Oct 3, 2014,
गांधी जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत कर लोगों को अपने इर्द-गिर्द सफाई रखने की नसीहत दी है। प्रतीकात्मक तौर पर उन्होंने अपने साथी मंत्रियों के साथ सड़क पर झाड़ू लगाया। ऐसा करने वाले वे पहले राजनेता नहीं हैं। न ही इस तरह का सरकारी अभियान कोई पहली बार चलाया जा रहा है।
कभी नदी सफाई अभियान तो कभी किसी और नाम पर नेता न्यूज चैनलों में झाड़ू लिए दिखाई पड़ ही जाते हैं। लेकिन ऐसी तमाम कवायदों के बावजूद देश में साफ-सफाई कोई मुद्दा नहीं बन पाई है। आज दुनिया में भारत की छवि एक गंदे देश की है। भारत की मजबूत होती अर्थव्यवस्था, उसकी ताकत और भारतीयों की प्रतिभा की चर्चा के साथ यह भी जोड़ दिया जाता है कि भारत एक गंदा देश है।
पिछले ही साल चीन के कई ब्लॉगों पर गंगा में तैरती सड़ी-गली लाशों और भारतीय सड़कों पर पड़े कूड़े के ढेर वाली तस्वीरें छाई रहीं। इसे एक पड़ोसी की ईर्ष्या बताकर खारिज नहीं किया जा सकता। कुछ साल पहले इंटरनेशनल हाइजीन काउंसिल ने अपने एक सर्वेक्षण में निष्कर्ष निकाला कि औसत भारतीय घर बेहद गंदे और अस्वास्थ्यकर हैं।
काउंसिल ने सर्वेक्षण के लिए कमरों, बाथरूम और रसोई घर की साफ-सफाई को आधार बनाया था। उसके द्वारा जारी गंदे देशों की सूची में सबसे ऊपर वाला मुकाम मलयेशिया का था, और उसके ठीक नीचे भारत का नाम था। पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाता तो वो शर्तिया भारत को ही मिलता।
सफाई क्या वाकई भारतीय समाज के लिए कोई मुद्दा नहीं है? इस मामले में हमने महात्मा गांधी की भी नहीं सुनी। दरअसल, भारतीय जनमानस में सफाई को लेकर एक बुनियादी उलझन है। भारतीय संस्कृति का जोर सफाई के बजाय 'पवित्रता' पर है, जो या तो ईश्वर प्रदत्त होती है या व्यक्तिगत प्रयासों से अर्जित की जाती है।
अपने परिवेश को साफ-सुथरा और खुशहाल रखने के बजाय इसका जोर खुद को भीड़ से अलग रखने पर है। वर्ण व्यवस्था के साथ मजबूती से गुंथी हुई इस धारणा का व्यावहारिक रूप इस व्यवस्था की शक्ल में दिखा कि अस्पृश्य लोग नगर में कोई संकेत देते हुए प्रवेश करें, गले में हंडिया और पीछे झाड़ू लटकाए रहें। अपने ही समाज के कुछ लोगों को अमानवीय स्थितियों में डालकर भला पूरे समाज को साफ-सुथरा कैसे बनाया जा सकता था?
शायद इस बेफिक्रेपन का ही नतीजा है कि आज भी लोग-बाग अपने घर का कूड़ा बेहिचक किसी और के घर के सामने या सड़क पर फेंक देते हैं। सफाई को लेकर समाज की इस उदासीनता का भरपूर फायदा सरकारी तंत्र ने उठाया और इस काम के लिए बनी सारी संस्थाएं सफेद हाथी बनकर रह गईं।
भारतीय सफाई व्यवस्था का सूत्रवाक्य है- कि गंदगी एक जगह से उठाकर दूसरी जगह पहुंचा दी जाए। इसे बदला जा सकता है, लेकिन तभी, जब न सिर्फ नेता बल्कि सभी असरदार लोग झाड़ू पोज में फोटो खिंचाकर सुर्खरू होने का नाटक छोड़ें और अपने जीवन से लेकर कामकाज तक में सफाई को लेकर दिल से प्रतिबद्ध दिखें।
--------------
02-10-14 08
जिस ‘स्वच्छ भारत’ अभियान की शुरुआत गांधी जयंती से हुई है, उसकी जरूरत के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का श्रेय भी देना ही होगा कि वह ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने सार्वजनिक सफाई को अपनी प्राथमिकता बनाया और स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोधन में इसे महत्व दिया। इस तरह के अभियान से एक फायदा यह होता है कि इसके उद्देश्य के प्रति लोगों में चर्चा होती है और जागरूकता आती है। लेकिन यह भी जरूरी है कि यह सिर्फ एक रस्म अदायगी और तस्वीर खिंचवाने का कार्यक्रम न बन जाए। सफाई की राह में असली चुनौतियां इस आयोजन के खत्म होने के बाद शुरू होती हैं। भारत में गंदगी की वजह आम नागरिकों से लेकर संभ्रांतों तक में इसे लेकर लापरवाही है। और सफाई सिर्फ झाड़ लगाने या शौचालय बनाने से नहीं हो जाएगी। सफाई की प्रक्रिया में एक-दूसरे से जुड़ी कई कड़ियां हैं, इनमें से एक भी कड़ी के न रहने से पूरी प्रक्रिया निर्थक हो जाती है। जैसे हम अब तक गंगा और यमुना के असफल सफाई अभियानों में देख सकते हैं। अरबों रुपये खर्च हो गए, लेकिन इन नदियों की जरा भी सफाई नहीं हो सकी। दुनिया में जो लगभग सौ करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं, उनमें से लगभग 60 प्रतिशत भारत में हैं। इसी से पता चलता है कि शौचालय बनाना कितना जरूरी है। लेकिन अब तक शौचालय बनाने के तमाम कार्यक्रम ज्यादा कामयाब इसलिए नहीं हुए, क्योंकि उनमें शौचालय बनाने की औपचारिकता भर थी। शौचालय बनाने जितना ही जरूरी उनका नियमित रखरखाव भी है। कई ग्रामीण इलाकों में शौचालय बनाने की मुहिम इसलिए नहीं चली, क्योंकि सेप्टिक टैंक के भर जाने पर उसका क्या किया जाए, इसकी न तो जानकारी थी और न ही कोई योजना। जरूरी यह है कि यदि सड़कों पर से कूड़ा हटाया जाए या शौचालय बनाया जाए, तो आगे भी उस गंदगी के प्रबंधन का सही इंतजाम हो। अगर शहरों की गंदगी नदियों में बहा दी गई या कूड़े के पहाड़ शहरों की सीमा के बाहर खड़े दिखते रहे, तो इस सफाई का कोई महत्व नहीं है। अभी हम जितनी सफाई करते हैं, उससे इकट्ठा होने वाली गंदगी को कहीं और छोड़ आते हैं, जहां वह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है। इसी तरह, औद्योगिक-व्यापारिक प्रदूषण के इंतजाम को भी इस अभियान का हिस्सा बनाना होगा, क्योंकि खेतों, जंगलों, नदियों को गंदा करने में उसकी भूमिका बड़ी है। सड़क पर कूड़ा फेंकने की व्यक्तिगत आदत से लेकर नदियों में शहरों के सीवर का पानी और औद्योगिक गंदगी बहाने की सांस्थानिक आदत तक कई कड़ियां हैं, जिन पर ध्यान देना होगा, तब हम देश की वास्तविक सफाई कर पाएंगे। भारतीय अपनी और अपने घर की सफाई तो कर लेते हैं, लेकिन घर की सीमा के बाहर गंदगी फैलाने में कोई संकोच नहीं करते हैं। इन आदतों को बदलने के लिए सरकार नहीं, बल्कि समाज को भी सक्रिय होना होगा। महात्मा गांधी ने सफाई को आजादी के आंदोलन का हिस्सा इसलिए बनाया था, क्योंकि समाज की बाहरी गंदगी उसके अंदर व्याप्त गंदगी को ही दिखाती है। गांधीजी सफाई को हमारे समाज में व्याप्त कुरीतियों और कमजोरियों को दूर करने का माध्यम बनाना चाहते थे। भारत में गंदगी की बड़ी वजह जाति-प्रथा है, क्योंकि उच्चवर्गीय लोग यह मानते हैं कि सफाई निम्न जातियों का काम है और ऊंची जाति के लोगों को यह काम नहीं करना चाहिए, चाहे कूड़ा उनके सामने फैला हो। हम उम्मीद करें, यह नया सफाई अभियान सिर्फ एक औपचारिकता नहीं रह जाएगा, बल्कि हमारे देश और समाज की वास्तविक सफाई कर पाएगा।
------------------------
इस बार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर जिस तरह ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत हुई, वह बापू के अधूरे सपने को पूरा करने की मुश्किल लेकिन ईमानदार कोशिश है। इस अभियान का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने ठीक ही कहा कि महात्मा गांधी का ‘क्विट इंडिया’ का सपना तो पूरा हो गया, लेकिन उनके ‘क्लीन इंडिया’ के सपने को पूरा करने का दारोमदार हम पर है। जिस तरह प्रधानमंत्री ने राजनीतिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर इस अभियान को सफल बनाने की अपील की है, उससे साफ है कि देश को निर्मल बनाने के लिए वे पूरे देश को साथ लेना चाहते हैं। ऐसा जरूरी इसलिए भी है कि अलग-अलग सरकारों के देश को गंदगी मुक्त बनाने के प्रयास काफी हद तक असफल रहे हैं। सरकारें इस काम में आम लोगों को अपने साथ जोड़ने और उन्हें प्रेरित करने में विफल रही हैं। नतीजा सामने है कि देश कूड़े के ढेर से दबता जा रहा है। हमारे महानगर, मध्यम शहर, कस्बे और गांव सभी ओर गंदगी का नजारा दिखता है। इतना ही नहीं, जो नदियां हमारे लिए प्राकृतिक उपहार हैं और हमारी जीवनरेखा भी, उनकी दशा भी लगातार बदतर होती गई है। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री देश की सफाई के काम को जनांदोलन में बदलने की अपील कर रहे हैं, तो यह समय की मांग है। अभियान की शुरुआत बेहद प्रभावशाली रही है। प्रधानमंत्री ने जिस तरह मंगल मिशन की सफलता को रेखांकित करते हुए देशवासियों को इस कठिन काम में सफलता मिलने का यकीन दिलाया है, उससे तमाम लोग प्रेरित होंगे। सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें आम लोगों से लेकर अलग-अलग क्षेत्रों की सफल और नामचीन हस्तियों को जोड़ा जा रहा है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि खुद प्रधानमंत्री ने जिन नौ लोगों को इस अभियान से जुड़ने के लिए चुना उनमें कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री शशि थरूर का नाम भी है। इतना ही नहीं, सफाई के कार्य में योगदान करने वालों का जिक्र करते वक्त प्रधानमंत्री ने कांग्रेस सेवादल का भी नाम लिया। बहरहाल, इस अभियान की शुरुआत अपेक्षित रही है। अब जरूरी है कि दो अक्टूबर के बाद भी इसके प्रति सरकार और आम लोगों की संजीदगी कायम रहे। शहरों, कस्बों और गांवों की सफाई का काम तो प्राथमिकता पर है ही, कचरा प्रबंधन को लेकर भी तत्परता से पहल होनी चाहिए। शौचालय की उपलब्धता का मसला भी इसी से जुड़ा है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री करते भी रहे हैं। यह देखना अच्छा है कि सरकार देश को स्वच्छ बनाने के इस मिशन को न केवल अपना भरपूर वित्तीय समर्थन दे रही है, बल्कि कॉरपोरेट जगत से भी अपेक्षा की गई है कि वह सामाजिक दायित्व के तहत खर्च होने वाली अधिकांश राशि को भी सफाई के काम और शौचालय निर्माण पर व्यय करें। चूंकि प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत मिशन को पूरा करने के लिए वर्ष 2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती तक की समय सीमा निर्धारित कर दी है, लिहाजा जरूरी है कि कोई कसर शेष न रहे। यह हमारे समक्ष देश को गंदगी मुक्त कराने और ब्रांड इंडिया को चमकदार बनाने का सुनहरा मौका है।
------------------------------
जनसत्ता 3 अक्तूबर, 2014: गांधीजी के जन्म दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद सफाई अभियान में शामिल होकर स्वच्छता का जो संदेश दिया है, वह बापू की विरासत को सहेजने की दिशा में एक अहम कदम हो सकता है। गांधीजी आजादी के आंदोलन के दौरान जब राजनीति के मोर्चे पर अंगरेजों से जूझ रहे थे, तब भी अपने आसपास की साफ-सफाई को लेकर उतने ही सचेत रहते थे और सड़क पर चलते हुए गंदगी दिख जाने पर खुद उसकी सफाई में जुट जाते थे। यह उस इलाके के लोगों के लिए एक बड़ा संदेश होता था और इसका असर यह दिखता कि आसपास के लोग साफ-सफाई के काम में शामिल हो जाते थे। गांधीजी की उसी सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी खुद हाथ में झाड़ू उठाना जरूरी समझा, ताकि उसका संदेश सीधे जनता तक पहुंचे। लेकिन इसका महत्त्व तभी तक बना रह सकता है जब यह अपनी गंभीरता और निरंतरता नहीं खोए। ऐसी खबरें भी आर्इं कि भाजपा सरकार के कुछ मंत्री साफ-सुथरी जगहों पर जानबूझ कर बिखेरे गए कूड़े पर झाड़ू लगा रहे थे। जाहिर है, इस दिखावे का मकसद सिर्फ प्रचार पाना था और अगर यही हाल रहा तो इस अभियान का अंजाम भी पिछली सरकार द्वारा शुरू किए गए अभियान जैसा हो सकता है। खुले में शौच की समस्या पर काबू पाने के लिए हर घर में शौचालय के साथ-साथ स्वच्छता के संदेश को प्रचारित-प्रसारित करने के मकसद से यूपीए सरकार ने ‘निर्मल भारत’ अभियान चलाया था। प्रधानमंत्री की ताजा पहल को उसी का विस्तारित रूप कहा जा सकता है। मगर अब तक के अनुभव यही हैं कि ऐसे अभियान ईमानदारी और प्रतिबद्धता के अभाव में थोड़े ही समय बाद दम तोड़ देते हैं। सरकारी महकमों से लेकर समाज तक में उसे लेकर उदासीनता का भाव नजर आने लगता है।
यह छिपी बात नहीं है कि अपने घर को साफ रखने वाले ज्यादातर लोगों को इस बात की फिक्र नहीं होती कि उनके दरवाजे के बाहर फैली गंदगी बजबजाती रहती है और उसके लिए वे खुद भी जिम्मेदार होते हैं। दरअसल, यह मान लिया जाता है कि सफाई का काम सिर्फ सरकारी महकमों का है। लेकिन क्या यह अपने नागरिक कर्तव्यों से मुंह मोड़ना नहीं है? इसके अलावा औद्योगिक कचरा भी एक बड़ी समस्या है, जिसने आज हमारे देश की गंगा और यमुना जैसी कई नदियों का स्वाभाविक जीवन छीन लिया है। स्वच्छता या साफ-सफाई के प्रधानमंत्री के ताजा अभियान का विस्तार अगर औद्योगिक कचरे पर भी काबू पाने में होता है, तो यह पहल शायद ज्यादा सार्थक होगी। बहरहाल, यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री जिस स्वच्छता को आंदोलन बनाने की बात कर रहे हैं, उसी काम में लगे लाखों सफाईकर्मियों के बदतर हालात और वेतन या दूसरी सुविधाओं पर ध्यान देना सरकारों को जरूरी नहीं लगता। इसलिए इनकी समस्याओं का भी तत्काल हल निकाला जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल किले से हर घर में शौचालय की जरूरत पर जोर दिया था। यह खुले में शौच की समस्या का हल है। मगर कानूनन पाबंदी के बावजूद आज भी देश के कई हिस्से में एक खास जाति के बहुत सारे लोग हाथ से मैला साफ करने के काम में लगे हुए हैं। यह किसी भी सभ्य समाज को शर्मिंदा करने के लिए काफी है। इस समस्या को जड़ से खत्म किए बिना स्वच्छता का कोई भी संदेश अधूरा रहेगा।
---------------------------
विश्लेषण अरुण तिवारी
एक थाने के बाहर झाड़ू लगाते प्रधानमंत्री, रेलवे स्टेशन की सफाई करते रेलमंत्री, सफाई के लिए पैतृक गांव गोद लेतीं जल संसाधन मंत्री, नाला साफ करते एक विपक्षी पार्टी के प्रमुख, सड़कों पर झाडू उठाये मुंबइया सितारे और ‘न गंदगी करूंगा और न करने दूंगा’ कहकर शपथ लेते 31 लाख केन्द्रीय कर्मचारी। दिखावटी हों, तो भी कितने दुर्लभ दृश्य थे ये! ‘नायक’ एक फिल्म ही तो थी, किंतु एक दिन के मुख्यमंत्री ने खलनायक को छोड़ किस देशभक्त के दिल पर छाप न छोड़ी होगी? इस पहल का विरोध करने वालों व दूसरी पार्टियों के लोगों को अपने से यह सवाल अवश्य पूछना चाहिए कि यह राजनीति हो, तो भी क्या नई तरह की राजनीति नहीं है? महात्मा गांधी ने भी तो शक्ति व सत्ता की जगह ‘स्वराज’ और ‘सत्याग्रह’ जैसे नये शब्द देकर नये तरह की राजनीति की कोशिश की थी। क्या इस राजनीति से गुरेज किए जाने की जरूरत है? एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने अभियान को अच्छी पहल कहा किंतु क्या गांधी को अपना बताने वाली कांग्रेस को उनके सपने के लिए हाथ में झाड़ू थामने से गुरेज की जरूरत थी? मोदी की छूत से महात्मा के सपने को अछूत माना लेना, क्या गांधी को अच्छा लगता? दिमाग के जालें साफ करें तो जवाब मिल जायेगा। बारह वर्षीय बालक मोहनदास सोचता था कि उनका पाखाना साफ करने ऊका क्यों आता है? वह और घर वाले अपना पाखाना खुद साफ क्यों नहीं करते? किंतु क्या133 बरस बाद भी हम यह सोच पाये? जातीय भेदभाव व छुआछूत के उस युग में भी मोहनदास ऊका के साथ खेलकर खुश होता था। हमारी अन्य जातियां, आज भी वाल्मीकि समाज के बच्चों के साथ अपने बच्चों को खेलता देखकर खुश नहीं होती। विदेश से लौटने के बाद बैरिस्टर गांधी ने भारत में पहला सार्वजनिक भाषण बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया। मौका था, दीक्षांत समारोह का। बोलना था शिक्षा पर किुंत गांधी को बाबा विश्वनाथ मंदिर और गलियों की गंदगी ने इतना व्यथित किया कि वह बोले गंदगी पर। सौ बरस बाद भी हम अपनी तीर्थनगरियों के बारे में वैसा नहीं सोच पाये। कितने ही गांधीवादी व दलित नेता, गर्वनर से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक हुए, स्वच्छता को प्रतिष्ठित करने का ऐसा व्यापक हौसला क्या किसी ने दिखाया? ऐसे में यदि बाबा विश्वनाथ की नगरी से चुने एक जनप्रतिनिधि ने बतौर प्रधानमंत्री वैसा सोचने का हौसला दिखाया, तो क्या बुरा किया? बापू को राष्ट्रपिता मानने वाले भारतीय जन को यदि मोदी यह बता सके कि राष्ट्रपिता की जन्मतिथि, सिर्फ छुट्टी मनाने, भाषण सुनने या सुनाने के लिए नहीं होती; यह अपने निजी- सार्वजनिक जीवन में शुचिता के आत्मप्रयोग के लिए भी होती है; तो क्या यह आह्वान नकार देने लायक है? भारत की सड़कों, शौचालयों व अन्य सार्वजनिक स्थानों में कायम गंदगी और अश्लील बातें, राष्ट्रीय शर्म का विषय हैं। इस
बाबत किसी भी सकरात्मक पहल का स्वागत होना चाहिए। यह पहल संकेतों व प्रतीकों तक सीमित नहीं रहेगी। कई घोषणाओं ने इसका भी इजहार कर दिया है। सफाई के लिए 62,000 करोड़ का बजट; बजट जुटाने के लिए स्वच्छ भारत कोष की स्थापना, कारपोरेट जगत से सामाजिक जिम्मेदारी के तहत धन देने की अपील और गंदगी फैलाने वालों पर जुर्माना। 2019 तक 11 करोङ, 11 लाख शौचालय का लक्ष्य और 2,47,000 ग्राम पंचायतों में प्रत्येक को सालाना 20 लाख रुपये की राशि। शहरी विकास मंत्रालय ने एक लाख शौचालयों की घोषणा की है। मंत्रालय ने निजी शौचालय निर्माण में चार हजार, सामुदायिक में 40 प्रतिशत और ठोस कचरा प्रबंधन में 20 प्रतिशत अंशदान का ऐलान किया है। कोयला व बिजली मंत्रालय ने एक लाख शौचालय निर्माण की जिम्मेदारी ली है। सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों में ओएनजीसी ने 2500 सरकारी स्कूल, गेल ने 1021, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम ने 900 शौचालय निर्माण का वायदा किया है। हालांकि, कार्यक्रम यदि शौचालयों तक ही सीमित रहा, तो ‘स्वच्छ भारत’ की सफलता सीमित रह जायेगी। संप्रग सरकार की ‘निर्मल ग्राम योजना’ भी शौचालयों तक सिमटकर रह गई थी। सिर्फ पैसे और मशीनों के बूते हम शौचालयों से निकलने वाले मल को नहीं निपटा सकते। इसी बिना पर ग्रामीण इलाकों में घर-घर शौचालयों के सपने पर सवाल खड़े होते रहे हैं। वाल्मीकि बस्ती परिसर में प्रधानमंत्री ने जिस शौचालय का लोकार्पण किया, वह भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन द्वारा ईजाद खास जैविक तकनीक पर आधारित है। ऐसी कई तकनीकें साधक हो सकती हैं। इस चुनौती में औद्योगिक कचरे के अलावा ठोस कचरा निपटान को भी शामिल करना होगा। इलेक्ट्रॉनिक्स कचरा निपटान में बदहाली को लेकर राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने हाल में मंत्रालय को नोटिस भेजा है। यदि हम चाहते हैं कि कचरा न्यूनतम हो, तो हम ‘यूज एंड थ्रो’ प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करें। कचरे का निष्पादन स्त्रोत पर ही करने की पहल जरूरी है। पश्चिम के देशों से शहरों की सफाई का शास्त्र सीखने की बात गांधी जी ने भी की थी। किंतु यदि स्वच्छ भारत का यह मिशन, अमेरिका के साथ मिलकर भारत के 500 शहरों में संयुक्त रूप से ‘वाश’ कार्यक्रम के वादे में सिर्फ निजी कपंनियों के फायदे की पूर्ति के लिए शुरू किया गया साबित हुआ, तो तारीफ से पहले बकौल गांधी, जांच साध्य के साधन की शुचिता की करनी जरूरी होगी। सफाई कर्मचारियों की रोजी पहले ही ठेके के ठेले पर है। विदेशी कंपनियां और मशीनें आईं तो उनकी रोजी पर और बन आएगी। भारत दुनिया से बेहद खतरनाक किस्म का बेशुमार कचरा खरीदने वाला देश है। वह दुनिया के कचरा फेंकने वाले उद्योगों को अपने यहां न्योता देकर खुश होने वाला देश है। वह पहले अपनी हवा, पानी और भूमि को मलिन करने में यकीन रखता है और फिर उसे साफ करने के लिए कर्जदार होने में। यह ककहरा उलटा जा सकता है यदि हम सुनिश्चित करें कि ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन भारत के 20 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार व स्वरोजगार देने वाला साबित हो। एक आकलन के मुताबिक, भारत में हर रोज 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा पैदा होता है। इसके उचित से निष्पादन से 27 हजार करोड़ रुपये की खाद पैदा कर 45 लाख एकड़ बंजर को उपजाऊ भूमि में बदल 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा करने की क्षमता हासिल की जा सकती है। इससे दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस मिल सकती है। सरकार ने स्वच्छता को मिशन बनाया है, हम इसे आदत बनायें। ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन सफल रहा तो सफाई की सौगात दूर तक जायेगी। भारत की कृषि, आर्थिकी, रोजगार और सामाजिक दर्शन में कई स्वावलंबी परिवर्तन देखने को मिलेंगे। हालांकि यदि हम सफाई, स्वच्छता, शुचिता जैसे आग्रह के तहत गांधी के आत्मप्रयोग और सपने को सामने रखेंगे तो बात मलिन राजनीति, मलिन अर्थव्यवस्था, मलिन पर्यावरण, भ्रष्टाचार से लेकर मलिन मानसिकता के कई पहलुओं तक की करनी होगी। गांधी मानते थे कि यह भावना सबके मन में जम जानी चाहिए कि हम सब सफाईकर्मी हैं। दुआ कीजिए कि ‘स्वच्छ भारत’ हमें मानसिक रूप से इतना स्वच्छ बना सके कि हम धर्म व जाति की मलिन खाइयों को भी पाट सकें। इससे महात्मा का सपना पूरा होगा और मोदी का मिशन भी।
---------------------------------
प्रमोद मीणा
जनसत्ता 4 अक्तूबर, 2014: गांधीजी के जन्मदिन दो अक्तूबर से देश भर में स्वच्छ भारत अभियान का आगाज करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रतीकों की राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं। सरदार पटेल और कृष्ण का सफल प्रतीकात्मक चुनावी दोहन करने के बाद उनकी नजरें अब गांधी और झाड़ू को एक साथ साधने पर हैं। गांधी के नाम को हर चुनाव में भुनाती आई कांग्रेस दो अक्तूबर को एक रस्मी समारोह बना चुकी थी। अपने प्रतिपक्षी से उसका ही हथियार छीन कर उस पर ही वार करने का अवसर प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी कैसे खाली जाने देते! आपको याद ही होगा कि उग्र हिंदुत्व की एक अन्य ध्वजावाहक उमा भारती ने, जो आज केंद्र में मंत्री हैं, कांग्रेस से गांधी को छीन लेने का आह्वान किया था। अत: गांधी के जन्मदिन से आरंभ हुए स्वच्छ भारत अभियान को उसी भगवा आह्वान की पूर्ति की दिशा में एक राजनीतिक कदम समझा जाना चाहिए।
जिस व्यक्ति और जिस दल की गांधीवादी सिद्धांतों और मूल्यों में तनिक भी आस्था न रही हो, यकायक उसकी निष्ठा अगर गांधीवादी सफाई-कर्म में जग जाए, तो ऐसी निष्ठा पर संदेह क्योंकर न किया जाए। राजधानी दिल्ली के कश्मीरी दरवाजे वाली उसी हरिजन बस्ती और उसी वाल्मीकि मंदिर से प्रधानमंत्री ने सफाई अभियान की शुरुआत की, जहां कभी पूना पैक्ट के बाद गांधीजी आकर लगभग ढाई सौ दिन रहे थे। अछूत को हरिजन की संज्ञा देने वाले गांधीजी का यह हरिजन सेवा वाला कार्यक्रम दलितों को कांग्रेसी स्वाधीनता आंदोलन और हिंदू समाज से जोड़े रखने की मुहिम का हिस्सा था। पर साफ-सफाई जैसे अति महत्त्वपूर्ण कार्य को हेय दृष्टि से देखने वाला ब्राह्मणवादी हिंदू समाज आज भी सफाईकर्मियों और हरिजनों को सम्मान देने को तैयार नहीं है।
आज भी एक राज्य के दलित मुख्यमंत्री के मंदिर प्रवेश से हिंदुओं का मंदिर अपवित्र हो जाता है। ब्रिटिश शासनकाल में आधुनिक भारतीय शहरों-महानगरों की स्थापना के साथ-साथ इन शहरों की सफाई-व्यवस्था के लिए आसपास के गांवों से दलितों को शहरों में लाकर दलित बस्तियां भी बसाई गर्इं। लेकिन शहरी प्रशासन द्वारा गांवों से खदेड़ कर शहर में बसाने पर भी दलित उस अपमान और अस्पृश्यता से मुक्ति न पा सके जो सामंती ग्रामीण भारत की कड़वी सच्चाई रही है।
दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के झाड़ू ने कांग्रेस की सफाई की थी। उस झाड़ू की चुनावी भूत अभी तक भाजपा पर छाया हुआ है। इसी डर के चलते भाजपा जोड़-तोड़ की मार्फत दिल्ली राज्य में अपनी सरकार बनाने में जुटी हुई है। आप के इसी झाड़ू चुनाव चिह्न का प्रतीकात्मक अपहरण करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी दो अक्टूबर से स्वच्छ भारत अभियान चला रहे हैं ताकि स्वयं को और स्वयं की पार्टी को गांधी के साथ-साथ आम आदमी के झाड़ू का भी सच्चा वारिस सिद्ध कर सकें। इस प्रकार यह सारी मुहिम प्रतीकों पर अपना अधिकार सिद्ध करने की चुनावी कवायद है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री इन शहरी सफाईकर्मियों और दलित बस्तियों की सुध लेने की तत्परता भी दिखाएंगे या सिर्फ शहरों की खूबसूरती में बदनुमा दाग बन रही इन दलित बस्तियों के मतों की राजनीति तक वे सीमित रहेंगे। अगर उनके प्रति प्रधानमंत्री संवेदनशील हैं, तो उन्हें पहले उनका जीवन-स्तर सुधारने का प्रयास करना चाहिए था। आजादी के बाद जहां दलित राजनीति अपना महत्त्व खोती गई, वहीं निजीकरण और उदारीकरण के वर्तमान दौर में सफाईकर्मियों का जीवन-स्तर दयनीय हो गया।
सैंतालीस के तुरंत बाद सफाई सेवा को अत्यावश्यक सेवाओं की सूची में डाल कर सफाईकर्मियों से हड़ताल का अधिकार छीन लिया गया। अब वे अपनी वाजिब मांगों को लेकर हड़ताल और काम रोको प्रदर्शन करने के भी हकदार न रहे। हालांकि सफाईकर्मी के पद पर होने वाली सरकारी नियुक्ति से आजीविका की सुरक्षा पैदा हुई थी और दलितों के जीवन-स्तर में भी कुछ सुधार आया था। लेकिन नगर पालिकाएं और नगर निगम अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति का हवाला देकर जानबूझ कर सफाईकर्मी के पद पर स्थायी नियुक्तियां करने से मुंह चुराते रहे हैं। उदाहरण के लिए, गौत्तम घोष की फिल्म ‘पार’ में कोलकता शहर में नगर निगम के अंदर अस्थायी पदों पर रखे गए दलितों के भयावह शोषण और बेरोजगारी का जिक्र आया है। और अब नब्बे के बाद निजीकरण की जो सर्वभक्षी आंधी चल रही है, उसने तो साफ-सफाई करने वाली जातियों को एकदम हाशिये पर ही ला पटका है।
नगर पालिकाएं और नगर निगम आदि निकाय साफ-सफाई का काम अब ठेके पर दे रहे हैं। और ये ठेके लेने वाले अधिकतर लोग सवर्ण हैं जो न तो सफाई-कार्य की समस्याओं को जानते हैं और न मूलभूत सेवा-शर्तों का पालन करते हैं। पिछली सरकार की तर्ज पर बल्कि पहले से भी ज्यादा द्रुत गति से मोदी सरकार विदेशी निवेश को सुगम बनाने और भारतीय औद्योगिक घरानों को बेजा लाभ पहुंचाने के लिए जिस प्रकार श्रम कानूनों को सिलसिलेवार कमजोर करती जा रही है, वैसे में सफाईकर्मी के काम में लगे और अन्य दलित कैसे मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान की मंशा पर शक न करें!
गांधी के नाम पर स्वच्छ भारत अभियान चलाने वाले हमारे प्रधानमंत्री महोदय को पहले गांधीवाद का ककहरा सीखना चाहिए। गांधीजी खुद के घर की सफाई खुद करने पर बल देते थे, ताकि सफाई कर्म से किसी जातिविशेष को जोड़ना और फिर उसका अपमान करना बंद हो सके। लेकिन प्रधानमंत्री के पूर्र्व के एक बयान से तो यह साफ पता चलता है कि उन्हें दलित सफाईकर्मी की पीड़ा का अहसास तक नहीं है। वे तो सफाई कर्म में दलित की आनंदानुभूति की बातें करते हैं। गांधीजी तथाकथित आधुनिक शहरी सभ्यता के प्रदूषण और गंदगी के स्थान पर स्वच्छ आत्मनिर्भर ग्रामीण भारत का विकल्प दे रहे थे। गांधीजी बड़े-बड़े नगरों और महानगरों के इसलिए विरोधी रहे क्योंकि ये विशाल मानव अधिवास गंदगी और प्रदूषण के केंद्र बन जाते हैं। एक स्थान पर बड़ी संख्या में लोगों का जमाव कुदरती संतुलन को बिगाड़ देता है। और फिर ऊपर से आधुनिक नगरीय सभ्यता अधिकाधिक उपभोग और इस्तेमाल करो और फेंको (यूज ऐंड थ्रो) के दर्शन पर टिकी हुई है।
निजी स्वार्थ तक सीमित रहने वाली नगरीय सभ्यता को इससे कोई मतलब नहीं कि उपयोग के बाद कूड़े के ढेर बढ़ाने वाली इन उपभोक्ता वस्तुओं से हमारा पर्यावरण कितना ज्यादा नष्ट हो रहा है। अपने घर को चकाचक चमका कर सड़क पर घर का कचरा डाल पड़ोसी के लिए सिरदर्द पैदा करने वाले शहरी लोगों में शेष समाज और प्रकृति के प्रति किसी जबावदेही के दर्शन दीपक लेकर खोजने पर भी नहीं हो पाते। गांधीवाद गंदगी और प्रदूषण की जड़ नगरीय सभ्यता के दर्शन को ही सिरे से खारिज करने में यकीन करता है, न कि एक दिन का सफाई अभियान चला कर ऊपर से लीपापोती करना गांधीवादी सफाई कर्म है। पर हमारे प्रधानमंत्री तो अमेरिका के दिखाए रास्ते पर चल कर ‘स्मार्ट सिटी’ का राग अलापते नहीं थकते।
वाल्मीकि बस्ती से इस अभियान की शुरुआत के और मायने विखंडनवाद के माध्यम से आसानी से समझे जा सकते हैं। ऐसा करने पर प्रधानमंत्री की इस पहल के पीछे छिपे हिंदूवादी पूर्वग्रह भी निकल कर सामने आ जाते हैं। जातीय पवित्रता के झूठे फलसफे में विश्वास करने वाले ब्राह्मणवादी लोग उस जाति पर गंदा रहने और गंदगी फैलाने का आरोप लगाते हैं जो दुनिया भर में सफाई कर्म के लिए जानी जाती है। आपके अवचेतन में सदियों से घर कर रही यही उच्च जातीय मानसिकता आपके चेतन को निर्देशित करती है कि किसी दलित बस्ती से ही आप सफाई कर्म का आगाज करें ताकि आपके इस अहं को भी संतुष्टि मिल सके कि आप तो स्वच्छता के पुजारी हैं, पर दलित ही गंदे हैं। और दलितों की बस्ती से सफाई अभियान चला कर आप कोई मसीहाई काम करने जा रहे हैं। इस सोच में तब्दीली लाने की जरूरत है।
अगर दलित बस्तियां आजादी के छह दशक बाद भी कूड़े-करकट और गंदे पानी की नालियों से बदबदा रही हैं, वहां साफ-सफाई और शुद्ध हवा-पानी का कोई माकूल इंतजाम देखने को नहीं मिलता तो उसके लिए कौन जिम्मेवार है? वे प्रशासक जो शहर की अमीर बस्तियों में साफ-सफाई की चाक-चौबंद व्यवस्था रखते हैं, लेकिन उसी शहर के एक कोने पर आबाद सफाईकर्मियों की बस्ती की ओर मुंह उठा कर देखते भी नहीं। कारण कि ये दलित गरीब हैं जो आपकी पूंजीवादी सरकारों की प्राथमिकता में कभी आते नहीं।
आज उपभोक्तावाद उपभोग के स्तर से नागरिकता परिभाषित कर रहा है, अत: आपके नागरिक समाज में न दलित आ सकते हैं और न उनकी बस्तियों को नितांत मूलभूत नागरिक सुविधाएं प्रदान करना आपकी कार्यसूची का हिस्सा बन सकता है। एक-एक करसरकारी सेवाओं को बंद करके उनका निजीकरण करना आम दलित व्यक्ति के हित में कैसे हो सकता है?
इस संदर्भ में भीष्म साहनी कृत ‘तमस’ के उस प्रसंग को फिर से पढ़ने की जरूरत है जहां शहर के एक मुसलिम मुहल्ले में कुछ उच्च जातीय कांग्रेसी कार्यकर्ता गांधीजी के निर्देश पर तामीरी काम पर निकलते हैं। इनमें से एक कार्यकर्ता मास्टर रामदास दिन की रोशनी में झाड़ू हाथ में ले साफ-सफाई करना अपनी ब्राह्मण जाति की तौहीन बताता है। उसकी हिचकिचाहट और नाराजगी पर एक दूसरा कांग्रेसी शंकर कहता है कि ‘मास्टर जी हमें प्रचार करना है, कौन सचमुच की नालियां साफ करनी हैं।’ कथनी और करनी का यही अंतर कांग्रेसियों को आजाद भारत में गांधीवाद से दूर ले गया है।
आंबेडकर हिंदू कांग्रेसियों की इन दुरंगी नीतियों के चलते ही दलितों के भाग्य का फैसला उनके हाथों में सौंपने को तैयार न थे। 2014 के आम चुनावों में हुई कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय का कारण गांधीवादी आदर्शों का खुला परित्याग ही था। लेकिन जो नया निजाम गद्दी पर बैठा है, वह भी कांग्रेसियों की तरह क्या सिर्फ गांधी के नाम और सफाईकर्मियों की झाड़ू का चुनावी राजनीति में मात्र प्रतीक की तरह इस्तेमाल करेगा? या, इस स्वच्छ भारत अभियान के कुछ सामाजिक निहितार्थ भी निकलेंगे? कथनी और करनी की इस खाई को आंबेडकर ब्राह्मणवाद की मूलभूत चारित्रिक विशेषता बताते थे। गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि कथनी और करनी के इस भेद को दूर करना ही हो सकती है।
-----------------------------
:Sun, 05 Oct 2014
गांधी जयंती पर शुरू किया गया स्वच्छ भारत अभियान हमारे देश की छवि बदलने में सहायक हो सकता है। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि अभी भारत की छवि एक ऐसे देश की है जहां के नागरिक साफ-सफाई को लेकर घोर लापरवाह हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान के साथ इसी प्रवृत्तिको समाप्त कर लोगों को साफ-सफाई के लिए प्रेरित करने का काम किया है। इस अभियान की जैसी शुरुआत हुई और प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सभी केंद्रीय मंत्रियों और लाखों कर्मचारियों ने साफ-सफाई के काम में जिस तरह अपना हाथ बंटाया उससे यह उम्मीद बंधती है कि भारत ने एक और बदलाव के लिए कमर कस ली है। हालांकि यह आसान काम नहीं है, क्योंकि साफ-सफाई के प्रति आम लोगों का लापरवाह और अनुशासनहीन रवैया हर कहीं नजर आता है। आखिर जब घरों के भीतर भी साफ-सफाई प्राथमिकता में सबसे नीचे आती हो तो यह कल्पना की जा सकती है कि मोदी और उनके सहयोगी जिस स्वच्छ भारत की कल्पना कर रहे हैं उसे साकार करना कितना कठिन है? देश में व्याप्त गंदगी का एक बड़ा कारण यही है कि लोगों को सार्वजनिक स्थलों को गंदा करने में तनिक भी संकोच नहीं होता। हद तो यह है कि हमारे समाज का एक वर्ग साफ-सुथरे स्थानों को भी गंदा करने में संकोच नहीं करता। कई बार तो साफ जगहों पर जानबूझकर गंदगी फैला दी जाती है। दरअसल यह एक प्रकार का मनोविकार है और इस विकार से देश को मुक्त करने के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
साफ-सफाई के प्रति सचेत न रहने की आदत हमें शर्मिदा भी करती है और दुनिया में हंसी का पात्र भी बनाती है। जब भी विदेशी पर्यटक भारत आते हैं तो वे जगह-जगह नजर आने वाली गंदगी देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। कुछ स्थानों को छोड़ दिया जाए तो देश में ऐसे स्थलों को खोजना मुश्किल है जिन्हें सही मायने में साफ-सुथरा कहा जा सके। यह स्थिति धार्मिक और पर्यटन स्थलों की भी है, जिनके बारे में यह अपेक्षा की जाती है कि वहां तनिक भी गंदगी न हो। हमारे शहर अतिक्रमण और ट्रैफिक की समस्याओं के साथ-साथ जगह-जगह घूमते जानवरों, सड़क के किनारे बिखरी पड़ी गंदगी और बजबजाती नालियों के लिए भी जाने जाते हैं। यह स्थिति देश के वातावरण को बुरी तरह प्रदूषित कर रही है।
साफ-सफाई के प्रति भारत के लोग दोहरा रवैया अपनाते हैं। अपने देश में वे साफ-सफाई के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझते, लेकिन जब विदेश जाते हैं तो उन तौर-तरीकों को अपनाने के लिए तैयार रहते हैं जो साफ-सफाई के मामले में वहां आवश्यक हैं। आज कई देश इसलिए प्रगति कर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने स्वच्छता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। दुनिया के अनेक देश भले ही आर्थिक संकट से गुजरे हों, लेकिन वे स्वच्छता के मानक तनिक भी नीचे नहीं होने देते। प्रधानमंत्री ने यह माना है कि देश को साफ-सुथरा बनाना केवल सरकार के वश की बात नहीं है। यह काम तभी हो सकेगा जब देश का प्रत्येक नागरिक साफ-सफाई के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझेगा। इसीलिए प्रधानमंत्री ने प्रत्येक नागरिक से सप्ताह में दो घंटे अपने आसपास की साफ-सफाई में लगाने की अपेक्षा करते हुए उन्हें शपथ दिलाई है कि वे न खुद गंदगी करेंगे और न ही अन्य किसी को करने देंगे। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने स्वच्छ भारत अभियान के तहत गांवों में शौचालयों के निर्माण के साथ-साथ सफाई व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य करने का संकल्प जताया है।
एक आंकड़े के अनुसार गांवों में करीब 60 प्रतिशत आबादी आज भी खुले में शौच के लिए विवश है। शौचलयों का निर्माण इसलिए आवश्यक है, क्योंकि खुले में शौच डायरिया, हैजे सरीखी बीमारियों का कारण बनता है। एक अनुमान के तहत भारत में प्रतिदिन एक हजार बच्चे अकेले डायरिया से मरते हैं। डायरिया का मूल कारण खुले में शौच, साफ-सफाई को लेकर लापरवाही ही है। अपने देश में 11 करोड़ से अधिक शौचालयों की आवश्यकता है। यह कठिन लक्ष्य है। इसी तरह कचरे का निस्तारण भी एक कठिन काम है। इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ-साथ आधुनिक तकनीक की भी आवश्यकता है। गंदगी के लिए नागरिकों को जिम्मेदार ठहराने के बावजूद इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सरकारें सीवर और नालों के निर्माण के मामले में अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने में नाकाम हैं। केंद्रीय सत्ता और राज्य सरकारों को मिलकर कोई ऐसा तंत्र बनाना होगा जिससे सीवर और नालों के निर्माण के साथ-साथ कूड़े-कचरे का हानिरहित निस्तारण भी हो सके। आम आदमी से यह ठीक अपेक्षा की जा रही है कि वह अपने घर और आसपास को साफ-सुथरा रखे, लेकिन उसे यह भी बताना होगा कि कूड़े को फेंका कहा जाए। यह निराशाजनक है कि राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय कूड़े के निस्तारण की भी व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं। यह तब है जब कूड़े से ऊर्जा अथवा खाद बनाने की तकनीक उपलब्ध है। इस तकनीक को सही तरह इस्तेमाल न करके हम गंदगी भी बढ़ा रहे हैं और एक औद्योगिक गतिविधि से भी वंचित हो रहे हैं।
प्रधानमंत्री जिस तरह गंदगी से निजात को आर्थिक उत्थान से जोड़ रहे हैं उसे समझने की आवश्यकता है। गंदगी से मुक्ति हमें आर्थिक तौर पर सक्षम भी बनाएगी। विश्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार अगर साफ-सफाई पर एक डॉलर खर्च किया जाए तो सेहत, शिक्षा आदि पर खर्च होने वाले नौ डालर बचाए जा सकते हैं। गंदगी के संदर्भ में इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारत एक गरीब देश है, क्योंकि स्वच्छता एक संस्कार है। इसका अमीरी-गरीबी से कोई संबंध नहीं। गंदगी न केवल हमारी प्रतिष्ठा को प्रभावित कर रही है, बल्कि थोक के भाव बीमारियां भी बांट रही है। इन बीमारियों के उपचार पर भारी-भरकम धन खर्च होता है। एक तरह से गंदगी आर्थिक तौर पर भी हमारी कमर तोड़ने का काम करती है। साफ-सफाई हो तो लोग बीमारियों से भी बचेंगे और स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च भी कम होगा। हालांकि हर कोई इससे परिचित हैं कि हर तरफ फैली गंदगी के कारण बीमारियों का जो प्रकोप फैलता है वह जीवनचर्या को महंगा बनाने का ही काम करता, फिर भी स्वच्छता के प्रति सतर्कता नहीं। जिस देश में बीमारियों का बोलबाला हो वह आर्थिक तौर पर कभी उन्नत नहीं हो सकता। नि:संदेह देश ने हर क्षेत्र में प्रगति की है। विज्ञान के क्षेत्र में हमने कई चमत्कार कर दिखाए हैं, लेकिन सीवर और नालों जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा सका है। जो नाले अथवा सीवर बने भी हैं वे गंदगी साफ करने में सहायक नहीं बन रहे हैं। नदियों के किनारे बने सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र सही तरह काम नहीं कर रहे हैं। अगर आजादी के बाद से ही साफ-सफाई के प्रति संकल्प दिखाया गया होता और सीवेज की उपयुक्त व्यवस्था की जाती तो आज गंदगी इतनी बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने नहीं होती।
स्वच्छ भारत अभियान के समक्ष मौजूद चुनौतियों को पूरा करने के लिए नागरिकों को भी आगे आना पड़ेगा। सरकार ऐसी रणनीति बना सकती है जिससे नागरिकों के श्रमदान से सफाई के उद्देश्य का बड़ा हिस्सा पूरा किया जा सके। एक बार नागरिकों में गंदगी न फैलाने और अपने आसपास के कूड़े-कचरे को साफ करने की आदत पड़ गई तो अगले चरण में स्वयंसेवी संगठनों की मदद लेकर स्वच्छ भारत की दिशा में कदम बढ़ाए जा सकते हैं। मोदी सरकार का यह अभियान सही ढंग से आगे बढ़े, यह सभी की जिम्मेदारी बन सके तो हम 2019 तक भारत की तस्वीर भी बदल सकते हैं और छवि भी।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]
--------------------------------
समाज
यह दो अक्तूबर निसंदेह भिन्न रहा। भिन्न इस अर्थ में कि अपने सतत कर्मरत प्रधानमंत्री ने इसे जबर्दस्त तरीके से घटनापूर्ण बना दिया। तय कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने अपने हाथ में लंबी बांस वाली झाड़ू पकड़ी और अपने हिस्से की निर्धारित जगह पर कूड़ा बुहारना शुरू कर दिया। उनकी बुहारी हुई जगह सीमित और संकेतात्मक भले रही हो मगर मीडिया ने इसे असीमित और सार्वजनीन बना दिया। गांधी का जन्मदिन देखते ही देखते ‘स्वच्छ भारत अभियान’ दिवस में बदल गया। बड़े-बड़े मुख्यमंत्री, नेतागण, ठसक वाले अधिकारीगण, विविद्यालयों के कुलपति, प्राध्यापक, फिल्मों से जुड़े दिग्गज, स्वयंसेवी और सामाजिक- सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े लोग, नागर समाज के भद्र लोग आदि सभी यहां- वहां गंदगी बुहारते हुए कैमरे में कैद हुए। सबने वक्तव्य दिए कि देश को अब एक कदम स्वच्छता की ओर बढ़ाने की सख्त जरूरत है। प्रधानमंत्री ने कहा कि बापू अपने चिरविख्यात चश्मे से झांक रहे हैं, पूछ रहे हैं कि आखिर तुमने क्या किया। प्रधानमंत्री की भावभंगिमा से लगा कि बापू की 150वीं जयंती पर 2019 में वह बापू को सचमुच स्वच्छ भारत की श्रद्धांजलि देना चाहते हैं। जिस तरह बापू की नीयत पर संदेह करने का कोई कारण नहीं था कि वह भारत के सभी नागरिकों को स्वयं-स्वच्छताकर्मी के तौर पर देखना चाहते थे, इसी तरह अपने वर्तमान प्रधानमंत्री की नीयत पर भी संदेह करने का कोई कारण नहीं है कि वह भारत को सचमुच स्वच्छ देखना चाहते हैं। बापू ने बहुत पहले एक स्वच्छ भारत का सपना देखा था लेकिन यह सपना आज तक पूरा नहीं हुआ। इसीलिए आज के प्रधानमंत्री को आज फिर एक स्वच्छ भारत का सपना देखना पड़ा। अब देखना यह है कि यह सपना बापू के सपने की तरह अधूरा ही रह जाएगा या पूरा होने की ओर सचमुच एक कदम बढ़ा लेगा। यह वह शंका है जो मेरे मन में पर्याप्त जगह घेरे हुए है और इधर मीडिया में भी पर्याप्त जगह घेरे हुए दिखाई दी है। सबके मन में सवाल यही है कि इस दो अक्टूबर को गंदगी के विरुद्ध जिस स्वच्छता अभियान की औपचारिक शुरुआत की गई है वह अभियान सचमुच आगे बढ़ेगा या मात्र एक समारोही औपचारिकता बन कर रह जाएगा। ऐसे अभियान कई महानुभावों ने पहले भी कई बार शुरू किए थे लेकिन वे सिरे नहीं चढ़ सके। परंतु इस बार स्वयं एक कर्मठ प्रधानमंत्री ने इसकी शुरुआत की है इसलिए शंका के साथ-साथ लोगों को संभावनाएं भी नजर आ रही हैं। यहां मेरा मन शंकालु ज्यादा है। मैंने अपने पिछले लेख में भी यह शंका व्यक्त की थी, यहां फिर वही व्यक्त कर रहा हूं। भारतीय समाज वस्तुत: सवर्णतावादी संस्कारों और मूल्यों वाला समाज है जिसमें हीनश्रम अत्यधिक हेय माना जाता है। सवर्ण वह है जो श्रम न करे। सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च सवर्ण वह है जो बिल्कुल भी श्रम न करे और उसकी एवज में उसकी की गई गंदगी का सारा निस्तारण कोई और करे यानी कोई अवर्ण करें। यह सवर्णतावादी मानसिकता इतनी प्रबल रही है कि जब आरक्षण जैसी व्यवस्था के माध्यम से कथित अवर्णों के उद्धार की कल्पना की गई तो इसमें भी परोक्ष तौर पर यह निहित कर दिया गया कि दलितों-पिछड़ों को इस योग्य बना दो कि उन्हें हीनश्रम न करना पड़े। इस दो अक्तूबर को मीडियावालों ने प्रधानमंत्री की झाड़ू स्थली दिल्ली की बाल्मीकि बस्ती के लोगों से बात की तो सभी एक स्वर में यह कहते सुने गए कि वे सबके सब उस काम से बाहर निकलना चाहते हैं जो वे कर रहे हैं। यानी वे सड़कें, बस्तियां, नाली, सीवर साफ नहीं करना चाहते बल्कि अपने तई ऐसा काम चाहते हैं जिसके चलते उन्हें यह सब न करना पड़े। यानी वे सबके सब सवर्ण बनना चाहते हैं। हमें दरअसल बहुत पहले ही यह तय करना चाहिए था कि एक स्वस्थ और स्वच्छ समाज के लिए अवर्णता ज्यादा जरूरी है या सवर्णता। समाज के सर्वागीण विकास में अवर्णता बड़ी बाधा है या सवर्णता। समाज की स्वस्थ जिंदगी के लिए सवर्णता अनिवार्य है या अवर्णता। इन सवालों के सीधे और सरल उत्तर हैं कि समाज की जिंदगी के लिए अवर्णता एक ठोस शर्त है और सवर्णता एक निहायत ही खोखली शर्त। अवर्णता, जिससे हीनश्रम जुड़ा हुआ है, वह किसी भी स्वस्थ समाज की जीवन नाल है। समाज सवर्णता के बिना रह सकता है, अवर्णता के बिना नहीं। अवर्णता अनिवार्य कर्तव्य है, जबकि सवर्णता एक दंभपूर्ण पाखंड। चीन के शहर आज दुनिया के स्वच्छतम शहरों में गिने जाते हैं तो उसका कारण यह है कि उसने अपनी सांस्कृतिक क्रांति के दौरान कथित सवर्णो को अवर्ण बनाने का काम व्यापक तौर पर शुरू किया था। सफेदपोशों के हाथ में अनिवार्यत: झाड़ू थमा दी थी। हीनश्रम को वैयक्तिक व्यवहार का हिस्सा बना दिया था। कहने की जरूरत नहीं है कि हमारे यहां उलटी प्रक्रिया शुरू की गई थी जिसे आज पूरी तरह उलटने की जरूरत है। इसे उलटने की जरूरत इसलिए है कि इसे संस्कृति और संस्कार के तौर पर उलटे बिना भारत स्वच्छ नहीं हो सकता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अवर्णतावादी संस्कृति की स्थापना के लिए वह प्रतीकात्मकता भी जरूरी है जो इस दो अक्टूबर को प्रदर्शित हुई और जिसके अंतर्गत तमाम सवर्ण हाथ में झाड़ू लिए सफाई करते नजर आए। इससे एक छोटा-सा संदेश तो प्रचारित हुआ ही कि शारीरिक श्रम हेय नहीं है। परंतु इतना भर ही पर्याप्त नहीं है। प्रसंगवश संकेत करना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री की प्रतीकात्मकता में तमाम तबकों के लोग शामिल हुए, लेकिन वे बाबा, गुरु, संत, महंत, स्वामी और बापू लोग शामिल नहीं हुए जो सवर्णता और सवर्ण संस्कृति के ध्वजवाहक हैं और माने जाते हैं। सवर्णतावादी श्रम विरोधी संस्कृति के विरुद्ध स्वच्छतावादी श्रम साधक संस्कृति की स्थापना के लिए इनके हाथ में झाड़ू थमाना बेहद जरूरी है। जब तक इनके हाथ में झाडू नहीं आएगी, भारत स्वच्छ नहीं होगा। अगर प्रधानमंत्री स्वच्छ भारत के लिए सचमुच चिंतित हैं तो उन्हें स्वच्छता की प्रतीक अवर्णतावादी संस्कृति की स्थापना पर गंभीरता से सोचना चाहिए और हर उस प्रयास को सचेतन तौर पर बढ़ावा देना चाहिए जो सवर्णतावादी मानसिकता, व्यवहार और संस्कृति पर चोट करने वाला है।
--------------------------
Wed, 08 Oct 2014
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वच्छता अभियान एक सराहनीय व सामयिक कदम है। यह आज हमारी देश की पहली आवश्यकताओं में से एक है। आप देश के किसी भी गली-कूचे में चले जाएं तो आपको कूड़े का ढेर ही मिलेगा। कण-कण में भगवान वाले देश में अब कूड़े ने जगह ले ली है। प्रधानमंत्री की यह पहल शोर-शराबे के साथ शुरू अवश्य हुई हो, पर इसके स्थायित्व को लेकर नए प्रश्न साथ में खड़े हैं। प्रधानमंत्री ने इसे हर तरह से दिशा देने की कोशिश की है और बड़े सितारों को भी प्रचार अभियान से जोड़ा है। इसका कुछ न कुछ फायदा जरूर होगा, पर यह वर्तमान हालात में नाकाफी है, क्योंकि कूड़े की जड़ का कारण हर घर में है। इस आंदोलन को बड़े गाजे-बाजे के साथ खड़ा नहीं किया जा सकता और न ही प्रचार काफी होगा।
समस्या यह है कि हमारे देश में नैतिक मूल्य सिरे से गायब हैं। अपने में परेशान हर व्यक्ति कूडे़ की एक और परेशानी का बोझ उठाना ही नहीं चाहता। लोग सोच सकते हैं कि इसके लिए व्यवस्थाएं सरकार के पास होनी चाहिए, क्योंकि वे टैक्स जो देते हैं। संभवत: हमारे यहां देश के प्रति श्रद्वा की कोई जगह नहीं है। मोदी अपने पद का सदुपयोग कर एक बड़ा आह्वान जरूर कर रहे हैं, लेकिन हर कोई यह देखना चाहेगा कि यह आवाज कितनी दूर जाएगी? हाथ में झाड़ू और सिर में पी कैप के साथ बड़ी भीड़ एकाध बार जरूर जुट जाएगी, लेकिन चंद रोज बाद क्या होगा? स्वच्छ भारत अभियान की सफलता के लिए बड़े और कड़े कदमों की आवश्यकता पड़ेगी। वैसे तो पश्चिमी सभ्यता से हमने बहुत कुछ लिया है फिर वह चाहे लिबास हो या भोजन, लेकिन एक और बड़ा और अच्छा हिस्सा इस सभ्यता में था, जिसकी तरफ हमने झांका तक नहीं। आप यूरोप में कहीं भी जाएं, वहां हर व्यक्ति सफाई के नैतिक दायित्व से जुड़ा है। अब वहां चॉकलेट, टॉफी, केले खाकर छिलके फेंकना बड़ा अपराध माना जाता है। बच्चे हों या बड़े, इस शिक्षा का असर समान रूप से दिखता है। हमारे देश में भी जब विदेशी सैलानी आते हैं तो वे अपने कचरे को अपने बैग में ही रखते हैं और उपयुक्त जगह ढूंढ़कर उससे मुक्त होते हैं। यह बात अलग है कि हमारे देश में हर जगह कूड़े के लिए उपयुक्त हो चुकी है, कहीं भी कुछ भी फेंका जा सकता है। यदि छोटे से देश श्रीलंका की ही बात करें तो वहां सरकार के साथ-साथ हर व्यक्ति सफाई के प्रति गंभीर दिखता है। यहां बात मात्र नैतिक मूल्यों की नहीं है, बल्कि एक ठोस व्यवस्था की भी है। हमने सफाई कर्मचारियों के भरोसे सारी व्यवस्था को छोड़ रखा है और इसके साथ ही खुद कूड़े के प्रति अपने व्यक्तिगत दायित्वों से मुक्त हो गए हैं। एक बार घर का कूड़ा बाहर फेंक दिया तो फिर सरकार ही जाने कि वह कैसे और कहां जाएगा।
इस मामले में हमें पश्चिमी देशों से सीख लेनी चाहिए, क्योंकि हमारे देश में नई भोगवादी सभ्यता उन्हीं की देन है, जिसने कूड़े की ऐसी समस्या को जन्म दिया है। जब हमने उनसे सीखकर भोगवादी व्यवस्था अपना ही ली है तो उसके प्रबंधन की बातें भी उन्हीं से सीखते तो अच्छा होता। आप जिधर भी जाएं स्विट्जरलैंड हो या नार्वे, इन सभी देशों में कूड़े के प्रति नैतिकता घर से ही शुरू हो जाती है। वहां कूडे़ को नियमित तरीके से ठिकाने लगाने की ठोस नीतियां और कानून हैं। घर के बाहर जैविक और अजैविक कचरों के लिए प्रबंध किया गया है। इतना ही नहीं यह फिर से उपयोग में आ सकें ऐसी तकनीकों की भी व्यवस्था है। वहां हर तरह के कचरे को आर्थिकी से जोड़ दिया जाता है। मसलन अगर वह जैविक कचरा है तो उसे खाद व ऊर्जा के लिए उपयोग में लाया जाता है, जबकि अजैविक कचरे को अन्य उद्योगों के साथ जोड़कर उपयोगी उत्पाद तैयार किए जाते हैं। मतलब साफ है कि कूड़ा पैसा कमाने के धंधे में परिवर्तित कर दिया गया है। वहां हर तरह के कचरे को संसाधन का दर्जा मिला है और उसे रोजगारपरक बनाया गया है। हमारे यहां कूड़ा उठाने के अलावा उसके उपयोग की अन्य कोई स्थायी योजना नहीं है, जिसे आर्थिक रूप से सफल कहा जाए। वैसे अपने देश में कई जगहों पर ऐसे प्रयोग हुए हैं और इसे रोजगार में बदलने की कोशिश की गई है। पुणे की एक संस्था इनोरा ने शहरी महिलाओं को घर के कचरे से जोड़कर टेरेस गार्डन तैयार किए हैं जिसमें सब्जियां उगती हैं। इसी तरह शहर के कचरे को नगर निगम ने खाद बनाने व बायोगैस के लिए उपयोग में लाने की कोशिश की। सब कुछ ठीक-ठाक है, पर ठेकेदार खुश नहीं, क्योंकि उसे ये लाभकारी नहीं दिखाई देता। दरअसल इसके लिए उत्पाद के खरीदार की उचित व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में अपार कूड़े को एक बड़े संसाधन के रूप में देखने की आवश्यकता है। इसके बड़े और विभिन्न तरह के उपयोग की संभावनाएं हैं। नए-नए शोध और उपयोग की संभावना को लेकर देश में कूड़े को संसाधन की दृष्टि से देखें और उसमें उपयुक्त मूल्यवृद्धि की जाए तो बात बन सकती है।
सरकार अगर गंभीर है तो समस्या व कूड़े के आकार को देखकर एक छोटा सा मंत्रालय बना सकती है। इसका एकसूत्रीय दायित्व व कार्य कूड़े-कचरे से रोजगारों का सृजन करना होना चाहिए। आज भी देश में कूड़ा-कचरा उठाने वाले करोड़ों से कम नहीं, जिन्होंने कुछ तो किया ही है और सच तो यह है कि वे ही इस पहल के अंबेसडर भी हैं। इन पर केंद्रित और अन्य जुड़े हुए पहलुओं पर कार्य करने के लिए सरकार को एक बड़ी व संगठित पहल करनी होगी। यह पहल विभाग या मंत्रालय के रूप में हो तभी शायद हम एक स्वच्छ भारत बना पाएंगे, वरना इस अभियान को भी पी कैप व झाड़ू फैशन की तरह ही सफाई पर्व के रूप में समझा जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी की इस भावना को अमलीजामा पहनाने के लिए भावुकता के साथ-साथ व्यावहारिकता की अधिक आवश्यकता है। ऐसा होने पर ही हम साफ दिल से सच्ची पहल कर सकेंगे और स्वच्छ देश का निर्माण कर पाएंगे।
[लेखक डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, जाने-माने पर्यावरणविद् हैं]
------------------------
Tue, 14 Oct 2014
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चलाए गए सफाई अभियान का स्वागत किया ही जाना चाहिए। मगर यह अभियान तब तक सफल नहीं होगा जब तक नगरपालिका की कूड़ा निस्तारण व्यवस्था दुरुस्त नहीं होगी। सड़क पर झाड़ू लगाकर कूड़े को किनारे करने का लाभ तब ही है जब किनारे से उसे हटा लिया जाए। हटाया नहीं गया तो कूड़ा पुन: सड़क पर फैल ही जाएगा। हाल ही में ट्रेन में सफर करने का मौका मिला। स्लीपर कोच का कूड़ेदान भरा हुआ था। प्लेटफार्म पर कूड़ेदान नहीं था, मजबूरन कूड़े को बाहर फेंकना पड़ा। यदि हर केबिन में कूड़ेदान होता और उसकी नियमित रूप से सफाई होती तो उसे बाहर नहीं फेंकना पड़ता।
इस दिशा में आंध्र प्रदेश की बाब्बिली नगरपालिका के प्रयास सराहनीय हैं। यहां घर से दो प्रकार का कूड़ा अलग-अलग एकत्रित किया जाता है। किचन से निकले गीले कूड़े को पहले एक पार्क में निर्धारित स्थान पर पशुओं के खाने के लिए रख दिया जाता है। बत्ताख द्वारा मछली, सुअर द्वारा किचन वेस्ट तथा कुत्तो द्वारा मीट को खा लिया जाता है। शेष को कम्पोस्ट करके खाद के रूप में बेच दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक तथा मेटल को छांटकर कंपनियों को बेच दिया जाता है जहां इन्हें रिसाइकिल कर दिया जाता है। जो थोड़ा-बहुत बच जाता है उसे लैंडफिल में डाल दिया जाता है। आंध्र की ही सूर्यापेट नगरपालिका एक कदम और आगे है। यहां किराना दुकानों, मीट विक्रेताओं तथा होटलों द्वारा क्रेताओं को अपना थैला लाने पर एक से पांच रुपये की छूट दी जाती है। इन शहरों की सड़कें आज पूरी तरह साफ हैं। यहां झाड़ू लगाने की जरूरत कम ही है, क्योंकि नगरपालिका अपना काम कर रही है।
जो कूड़ा कंपोस्ट अथवा रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है उसे लैंडफिल में डाल दिया जाता है या फिर जलाकर इससे बिजली उत्पन्न की जाती है। लैंडफिल के लिए जगह ढूंढ़ना कठिन होता है, क्योंकि कोई मोहल्ला अपने आसपास कूड़े का ढेर नहीं देखना चाहता है। मेरे एक जानकार को गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके में एक फ्लैट पसंद आया, किंतु उन्होंने उसे नहीं खरीदा। कारण कि उसके सामने विशाल लैंडफिल था, जिस पर हजारों चीलें मंडराती रहती थीं।
कूड़े को जलाने की अलग समस्या है। दिल्ली के ओखला में 1700 टन कूड़ा जलाकर 18 मेगावाट बिजली प्रतिदिन बनाई जा रही है, लेकिन स्थानीय लोग इससे खुश नहीं हैं। कूड़ा जलाने से जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है। जहरीली राख उड़कर घरों पर गिरती है। लोगों ने नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल में इस बिजली कंपनी के विरुद्ध याचिका दायर कर रखी है। जो कूड़ा रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है वह मुख्यत: दो तरह का होता है। चाकलेट रैपर तथा आलू चिप्स के पैकेट प्लास्टिक तथा मेटल को आपस में फ्यूज करके बनाए गए हैं। इन्हें प्लास्टिक की तरह रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इनमें मेटल होता है और मेटल की तरह गलाया नहीं जा सकता है, क्योंकि इनमें प्लास्टिक होता है। इसी तरह अकसर कागज के डिब्बों को ऊपर से प्लास्टिक से लैमिनेट कर दिया जाता है। कुछ समय पूर्व मैं एक गत्ता फैक्ट्री चलाता था। फैक्ट्री के लिए सड़क से उठाए गए कागज के कूड़े को कच्चे माल के तौर पर खरीदा जाता था। कई मजदूर लगाकर इस कूड़े में से लैमिनेटेड कागज की छंटाई करते थे और इसे बॉयलर की फर्नेस में जलाया जाता था। कारण कि यह मशीन को जाम कर देता था। इस प्रकार के कूड़े का उत्पादन ही बंद कर दिया जाना चाहिए। तब प्लास्टिक, मेटल और कागज को अलग-अलग रिसाइकिल किया जा सकेगा। तभी सौ प्रतिशत कूड़े का निस्तारण किया जा सकता है। इसे जलाकर जहरीली गैसों को वायुमंडल में छोड़ने अथवा लैंडफिल बनाने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। न्यू एंड रिन्यूएबल एनर्जी मंत्रालय को यह रास्ता पसंद नहीं है। इनका ध्यान बिजली के उत्तारोत्तार अधिक उत्पादन मात्र पर केंद्रित है। यदि पूरा कूड़ा रिसाइकिल हो जाएगा तो बिजली का निर्माण नहीं हो पाएगा। वर्तमान में कूड़े से बिजली बनाने पर मंत्रालय द्वारा 10 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट की सब्सिडी दी जा रही है। कूड़ा सौ प्रतिशत रिसाइकिल हो जाएगा तो मंत्रालय का यह धंधा ठप पड़ जाएगा। यूं समझिए कि यह सब्सिडी कूड़े को रिसाइकिल करने के लिए नहीं दी जा रही है।
नगरपालिकाओं की समस्या वित्ताीय है। दो तरह के कूड़े को अलग-अलग एकत्रित करने, छांटने और कंपोस्ट बनाने में खर्च ज्यादा आता है। कंपोस्ट और छंटे माल की बिक्री से आमदनी कम होती है। बाब्बिली नगरपालिका द्वारा कूड़े के निस्तारण पर किए गए खर्च का मात्र 13 प्रतिशत इन माल की बिक्री से अर्जित किया जा रहा है। सूर्यापेट का इन मदों पर वार्षिक खर्च 418 लाख है, जबकि आमदनी मात्र सात लाख रुपये है। अर्थ हुआ कि कूड़े का पूर्णतया पुन: उपयोग तब ही संभव है जब नगरपालिकाओं को वित्ताीय मदद दी जाए। विषय केवल सफाई का नहीं है। कूड़े के सफल निस्तारण से जनता का स्वास्थ्य सुधरेगा। नगरपालिका कर्मियों द्वारा कूड़े को न हटाने और नालियों को साफ न करने से मच्छर पैदा होते हैं। मलेरिया तथा डेंगू जैसे रोगों का विस्तार होता है। कूड़े के निस्तारण से हमारे शहर सुंदर हो जाएंगे और विदेशी पर्यटक ज्यादा संख्या में आएंगे। फुटपाथ कूड़ा रहित होने से लोग फुटपाथ पर चलेंगे और रोड एक्सीडेंट कम होंगे। इन लाभों का आकलन किया जाए तो सरकार द्वारा स्वच्छ नगरपालिका के लिए सब्सिडी देना आर्थिक दृष्टि से भी उचित होगा।
अंतिम विषय कूड़ा बीनने वालों का है। आपने देखा होगा कि सड़क अथवा रेल पटरी के किनारे से लोग कूड़ा बीन कर बड़े झोले में भरकर कबाड़ियों को बेचते हैं। समस्या है कि इनके लिए खास किस्म के कूड़े को उठाना ही लाभदायक होता है। शेष कूड़े को वहीं छोड़ दिया जाता है यद्यपि इसे भी रिसाइकिल किया जा सकता है। इस दिशा में पुणे शहर हमारा मार्गदर्शन करता है। वहां कूड़ा बीनने वाले से छांटा हुआ संपूर्ण कूड़ा खरीद लिया जाता है। इनके द्वारा सड़कों, घरों तथा आफिसों से अधिकतर कूड़ा उठा लिया जाता है। शहर स्वयं साफ हो जाता है। देश को स्वच्छ बनाने के लिए कुछ विशेष कदम उठाने होंगे। पहला कि नगरपालिकाओं द्वारा कूड़ा कर्मियों पर सख्ती की जाए और इनके कार्य की ऑडिट हो। दूसरा, सभी ऐसे पैकिंग के सामान का उत्पादन बंद कर दिया जाए जिन्हें रिसाइकिल न किया जा सके। तीसरा नगरपालिकाओं को 100 प्रतिशत कूड़े को रिसाइकिल करने के लिए इंसेंटिव दिया जाए। चौथा, कूड़ा बीनने वालों के कल्याण एवं सम्मान के लिए इनके द्वारा एकत्रित संपूर्ण कूड़े को खरीदने की व्यवस्था की जाए। इन बुनियादी व्यवस्थाओं को स्थापित करने के बाद ही सड़क पर झाड़ू लगाना सार्थक होगा।
[लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
------------------------------
Sun, 19 Oct 2014
दिल्ली में सफाई के लिए जिम्मेदार लोगों में इच्छाशक्ति की कमी का ही परिणाम है कि स्वच्छ भारत अभियान का राजधानी में कहीं भी उल्लेखनीय असर नहीं दिखाई दे रहा है। दिल्ली के तीनों नगर निगमों के तहत आने वाले इलाकों में यहां-वहां गंदगी आसानी से देखी जा सकती है, वहीं तमाम अति प्रमुख लोगों की रिहायश वाले नई दिल्ली नगर पालिका परिषद इलाके में भी सफाई का बुरा हाल है। एनडीएमसी और तीनों नगर निगमों का दावा है कि अभियान शुरू होने के बाद से उनके द्वारा प्रतिदिन उठाए जा रहे कूड़े की मात्रा में वृद्धि हुई है। एनडीएमसी 25 मीट्रिक टन, उत्तरी दिल्ली नगर निगम 700 मीट्रिक टन, दक्षिणी दिल्ली नगर निगम 900 मीट्रिक टन और पूर्वी दिल्ली नगर निगम 500 मीट्रिक टन अधिक कूड़ा उठाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन लुटियंस जोन में सांसदों की कोठियों के बाहर से लेकर नगर निगम मुख्यालय और राजधानी के प्रमुख बाजारों में गंदगी का साम्राज्य पूर्व की तरह व्याप्त है।
यह सही है कि राजनीतिक स्तर पर गंभीरता प्रदर्शित करने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन ये प्रयास जमीनी न होकर औपचारिक अधिक नजर आ रहे हैं। दिल्ली में सफाई के लिए जिम्मेदार एजेंसियों व संबंधित लोगों से अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह स्वच्छ भारत अभियान को गंभीरता से अपनाकर अन्य राज्यों व शहरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करें लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव और लापरवाह रवैये के कारण यह अत्यंत आवश्यक अभियान उदासीनता का शिकार हो रहा है। एनडीएमसी और नगर निगमों में अभियान को लेकर कोई विशेष उत्साह नहीं नजर आ रहा है जिसके परिणाम सामने हैं। इस अभियान के प्रति राजधानी में गंभीरता दिखाया जाना अत्यंत आवश्यक है। यह न सिर्फ लोगों को रहने योग्य स्वस्थ माहौल उपलब्ध कराएगा, बल्कि इससे गंदगी के कारण होने वाली बीमारियां भी अपेक्षाकृत कम होंगी। सरकारी एजेंसियों को पूरे उत्साह और इच्छाशक्ति के साथ इस कार्य में जुटना चाहिए और दिल्लीवासियों को उनका हरसंभव सहयोग करना चाहिए। यह सही है कि सफाई का दायित्व सरकारी एजेंसियों का है लेकिन दिल्लीवासियों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे अपने आस-पड़ोस को स्वच्छ रखें और स्वच्छता के इस अभियान को पूरी शक्ति के साथ आगे बढ़ाएं।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]
------------------
Tue, 21 Oct 2014
गांधी जयंती पर देशभर में शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान में हिमाचल प्रदेश के लोगों ने भी खूब उत्साह दिखा। स्वच्छता की शपथ खाई गई व कई स्थानों पर सफाई की गई। नतीजा पहाड़ स्वच्छ दिखने लगे, आबोहवा में ताजगी का आभास हुआ। लेकिन यह जागरूकता कुछ दिनों की मेहमान बनकर ही रह गई। अभियान की सफलता के लिए प्रदेश के लोगों ने कुछ कदम तो बढ़ाए, लेकिन अब पलटकर फिर से वहीं पहुंचने लगे हैं, जहां से शुरुआत की थी। स्वच्छता के लिए ली गई शपथ शिथिल पड़ने लगी है और जागरूकता हवा हो गई। कुछ दिन बीतने के साथ ही अभियान की गति मंद पड़ी प्रतीत होती है। पहले की तरह कूड़े के ढेर दिखना आम बात है। बात चाहे राजधानी शिमला की हो या प्रदेश के अन्य स्थानों की, लोग संकल्प भूलते जा रहे हैं। स्वच्छता का अर्थ यह नहीं कि लोग सारे काम छोड़कर झाड़ू पकड़कर रोज गलियों की सफाई करें। जरूरत सिर्फ इतनी है कि छोटी-छोटी बातों का ध्यान रख स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाए। इसका अर्थ है तन एवं मन से स्वच्छता को आत्मसात करना। गंदगी देखकर उसे अनदेखा करने की आदत छोड़नी होगी। जिस तरह घर को सुंदर स्वच्छ बनाने के लिए प्रयास किए जाते हैं, वैसे ही प्रयास घर से बाहर भी होने चाहिए। यह भी जरूरी है कि लोगों को भी इसके लिए जागरूक करें ताकि वे गंदगी फैलाने से बचें। अकेला व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता। सामूहिक प्रयासों से ही बड़े मोर्चो पर विजय पाई जा सकती है। ऐसा नहीं कि सब कुछ गलत ही हुआ है। कई जगह लोग जागे है तो कहीं बच्चों ने बड़ों को जगाने का बीड़ा उठाया है। शिमला के चिल्ड्रन क्लब के बच्चे उन बड़ों के लिए सबक हैं, जो सब कुछ जानते हुए भी अंजान बनते हैं। कई अन्य संगठनों ने भी समाज को आईना दिखाने के लिए प्रयास किए हैं। यह समझना होगा कि समाज व अपनों के स्वस्थ व बेहतर कल के लिए सबको सफाई को आदत बनाना होगा। बेहतर होगा कि सभी मन से संकल्प लेकर स्वच्छता अभियान में जी-जान से जुट जाएं ताकि महात्मा गांधी का देखा स्वच्छ भारत का सपना पूरा करने में योगदान दे सकें। हमारे सामूहिक प्रयास से अगर दूसरे देशों के लोगों की भारत की छवि के बारे में बदलाव भी आता है तो यह बड़ी कामयाबी होगी। अगर ऐसा हो जाए तो यह बापू को प्रदेश की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
[स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश]
-----------------------
Sat, 04 Oct 2014
दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू किए गए स्वच्छता अभियान की सार्थकता डॉक्टरों ने यह कह कर साबित कर दी है कि यदि लोग साफ-सफाई के प्रति सचेत हो जाएं तो मरीजों की संख्या में 50 फीसद तक की कमी लाई जा सकती है। इसकी वजह यह है कि एनीमिया, हैजा, कालरा, हेपेटाइटिस आदि 15 बीमारियां गंदगी के कारण ही फैलती हैं।
गंदगी के कारण ही मच्छर पैदा होते हैं जिनसे डेंगू और मलेरिया आदि का प्रकोप होता है। राजधानी में भी गंदगी एक बड़ी समस्या है। नई दिल्ली और शहर के पॉश इलाकों को छोड़ दें तो राजधानी के अन्य इलाकों में साफ-सफाई की बेहद कमी है। दिल्ली में करीब 1600 अनधिकृत कॉलोनियां हैं। इनमें बुनियादी नागरिक सुविधाओं का सख्त अभाव है। सीवर का कचरा घर के सामने बने नालों से बहता है और चारों ओर गंदगी का आलम है।
सरकारी एजेंसियों की ओर से भी इन इलाकों में स्वच्छता को लेकर लापरवाही ही देखी जाती है। सैकड़ों की संख्या में मौजूद झुग्गी-झोपड़ियों की हालत बेहद दयनीय है। यहां पर लोग नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। ऐसे इलाकों में यदि गंदगी के कारण फैलने वाली कोई महामारी फैलती है तो उसका बड़ा व्यापक असर होता है। शहर के बाकी हिस्सों में भी गंदगी के कारण ही मच्छरों की फौज खड़ी होती है ओर बड़ी संख्या में मलेरिया, डेंगू आदि के मरीज अस्पतालों में पहुंचते हैं।
राजधानी पहले ही प्रदूषण की समस्या से जूझ रही है। वाहनों से निकलने वाला धुआं वातावरण में जहर घोल रहा है जिससे आम लोगों की सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। दूसरी ओर कूड़े-कचरे की गंदगी से भी लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बढ़ता है। सरकारी तौर पर शुरू किया गया स्वच्छता अभियान निश्चित तौर पर एक बेहतर पहल है, लेकिन केवल सरकार के भरोसे इस अभियान की सफलता की उम्मीद करना ठीक नहीं होगा।
जब तक आम लोग इस अभियान की महत्ता को नहीं समडोंगे और खुद आगे बढ़कर साफ-सफाई में नहीं जुटेंगे, तब तक इसका पूरा लाभ उन्हें नहीं मिल पाएगा। लिहाजा, सरकार के स्तर पर यह जरूरी है कि लोगों तक यह संदेश पहुंचाया जाए कि किस प्रकार सफाई का उनके स्वास्थ्य से सीधा संबंध है और इस ओर ध्यान देकर कितनी बीमारियों पर लगाम लगाई जा सकती है। यह याद रखना होगा कि एक बेहतर शुरुआत को अंजाम तक पहुंचाना जरूरी है।
यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा संख्या में आम लोग इसमें भागीदारी करें।
(स्थानीय संपादकीय: नई दिल्ली)
वैश्विक संकट
Sun, 28 Sep 2014
कूड़ा-करकट या कचरे की समस्या केवल विकासशील देशों से नहीं जुड़ी है। विकसित देशों में भी यह एक गंभीर मसला है। उनके यहां तेज उपभोक्तावाद और डिस्पोजेबल उत्पादों की अति खपत के चलते प्रति व्यक्ति कूड़ा पैदा करने का अनुपात अधिक है। यह बात और है कि सर्वाधिक कूड़ा पैदा करने के बावजूद अपने कुशल प्रबंधन, संसाधन और संस्कृति के बूते वे अपने देश व पर्यावरण को साफ रखने में सक्षम हैं। दुनिया के कई देश इसे पर्यावरण के साथ जोड़कर भी देखते हैं। साफ-सफाई के मसले पर भारत को दोतरफा लड़ाई लड़नी पड़ रही है। एक तो यहां गंदगी के निपटान वाले संसाधन नहीं है, लिहाजा लोग गंदगी फैलाने को विवश हैं। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है कि जन शौचालय न होने के चलते लोग दीवारों पर पेशाब करते हैं। दूसरी ओर बड़ी समस्या यह है कि यहां स्वच्छता का अभाव है। जो थोड़े बहुत संसाधन हैं, हम उनके इस्तेमाल से परहेज करते हैं। सामने कूड़ेदान या शौचालय दिख रहा है लेकिन कूड़ा ऐसे ही फेंक देंगे और कहीं भी निवृत हो लेंगे। भारत में खुले में शौच आज बड़ी समस्या है। स्वच्छ पेयजल का संकट है। तमाम जल स्रोत दूषित होते जा रहे हैं। ऐसे में साफ-सफाई रखकर ही हम राष्ट्र को स्वस्थ रख सकते हैं। विभिन्न देशों में गंदगी से निपटने के लिए उठाए जाने वाले कदम इस तरह हैं।
कूड़ेदान
कई देशों में जगह-जगह कूड़ेदान रखे जाते हैं। सभी सार्वजनिक स्थलों, सड़कों आदि पर इन्हें प्रशासन द्वारा रख दिया जाता है। स्वच्छता की संस्कृति विकसित कर चुके ये लोग अपने कूड़े को इसमें डाल जाते हैं जिसे स्थानीय काउंसिल द्वारा उठवा लिया जाता है। ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसा प्रयोग नहीं किया गया है, लेकिन जनता से लेकर प्रशासन तक की उदासीनता इसे विफल कर देती है।
अभियान
कई बार स्वयंसेवक विभिन्न संगठनों के सहयोग से गलियों और सड़कों पर पड़े कूड़े को उठाते हैं। सफाई अभियान चलाए जाते हैं जिनके तहत एक पूरे इलाके की सभी गंदगी को साफ किया जाता है। उत्तरी अमेरिका में राजमार्गो को अपनाने का कार्यक्रम चलता है। इसके तहत कंपनियां और संगठन सड़क के एक हिस्से को साफ रखने की प्रतिबद्धता जाहिर करते हैं। केन्या के एक शहर में ऐसे कूड़े से कलाकृतियां बनाकर बेची जाती हैं।
स्थलों की देखरेख
कई देशों में तकनीक के सहारे गंदगी फैलाने वालों पर निगाह रखी जाती है। जापान में जियोग्राफिक इंफार्मेशन सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है।
कानून
कुछ देशों में कंटेनर डिपोजिट कानून बनाए गए हैं। इसके तहत लोगों को कूड़ा जमा करने के लिए प्रेरित किया जाता है, बाद में अलुमिनियम कैन, शीशे व प्लास्टिक की बोतलों आदि के लिए लाभ भी पहुंचाया जाता है। जर्मनी, न्यूयार्क, नीदरलैंड्स और बेल्जियम के कुछ हिस्से में इस तरह के कानून लागू हैं। इस कानून के चलते जर्मनी के किसी सड़क पर कैन या प्लास्टिक की बोतल नहीं दिखाई देती। नीदरलैंड्स में भी कूड़े की मात्रा में अप्रत्याशित गिरावट आई।
सजा
कई देशों में कूड़ा और गंदगी फैलाने वालों के लिए सख्त दंड का प्रावधान है।
अमेरिका: 500 डॉलर का अर्थदंड, सामुदायिक सेवा या दोनों हो सकती है। अधिकांश राजमागरें और पार्को के लिए यह सजा 1000 डॉलर या एक साल की जेल है।
ब्रिटेन: दोषी साबित होने पर अधिकतम 2500 पौंड का अर्थदंड लग सकता है।
ऑस्ट्रेलिया: राज्यों के स्तर पर कानून। अर्थदंड का भी प्रावधान।
नीदरलैंड्स: गलियों में कूड़ा फेंकने पर पुलिस जुर्माना कर सकती है।
सिंगापुर: 1965 में स्वतंत्र हुआ देश आज प्रति व्यक्ति आय के मामले में अमेरिका सहित कई विकसित देशों के कान काटे हुए हैं। तीसरे पायदान पर। बताने को देश के पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं। पेयजल के लिए भी मलेशिया पर निर्भर। कहीं भी कूड़ा फेंकने पर 200 डॉलर का अर्थदंड। कोई भी दलील नहीं सुनी जाएगी। च्युंगम पर प्रतिबंध। बिक्री पर भी सजा हो सकता है। अवारा कुत्ते यहां नहीं पाए जाते।
*****
कूड़े के रूप में दुनिया में सर्वाधिक फेंका जाने वाला सामान सिगरेट के टोटे हैं। 4.5 ट्रिलियन टोटे सालाना फेंके जाते हैं। सिगरेट के इन बचे हुए टुकड़ों के अपक्षय होने का समय अलग-अलग है। कुछ के अपक्षय होने में पांच साल तो कुछ में 400 साल तक लग जाते हैं।
-----------------------
स्वच्छ स्वस्थ भारत
Sun, 28 Sep 2014
कसर
गंदगी फैलाना मानो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो। सरे राह चलते कहीं भी थूक देना, पान-खैनी और गुटखे की पीक उगल देना, खाली हुए पैकेट-प्लास्टिक थैली- बोतल या कैन को बिना झिझक यूं ही हवा में उछाल देना जैसे हमारी शान का प्रतीक हो। ऐसा करना हम सबको बहुत सुकून देता है। ऐसा करते हुए हम यह किंचित मात्र नहीं सोचते कि इसका दुष्प्रभाव क्या है।
असर
बचपन में साफ-सफाई को लेकर हम सबको नसीहतें मिली होंगी कि कुत्ता भी जहां बैठता है, वहां पूंछ से साफ कर लेता है। हम ऐसी तमाम नसीहतों को भुला बैठे हैं। शायद इसके पीछे हमारी यह मानसिकता काम करती है कि इस जगह से हमारा क्या लेना देना। गंदी हो मेरी बला से। हमारा घर-ऑफिस तो साफ ही रहता है। नहीं.. इसी मानसिकता को तो बदलने की जरूरत है। जिस स्थान को आप गंदा करते हैं वहां कोई और उठता-बैठता है। हर साल हम आप अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा बीमारियों पर खर्च कर देते हैं। ऐसे में अगर अपने आसपास को हम साफ सुथरा रखेंगे तो एक तो नकद बचत स्पष्ट दिखेगी। हमारे परिजन स्वस्थ रहेंगे। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ दिमाग वास करेगा और अच्छे विचार, संस्कार पुष्पित पल्लवित होंगे। इसी क्रम में पूरा देश आगे बढ़ सकता है।
सफर
साफ-सफाई को सबसे बड़ा काम बताने वाले महात्मा गांधी की जयंती से सरकार स्वच्छ इंडिया अभियान की शुरुआत करने जा रही है। अक्टूबर, 2019 तक के पांच वर्ष के अंतराल में समूचे देश को स्वच्छ करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए दो लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इसके तहत पूरे देश में साफ-सफाई को बढ़ावा देने वाले संसाधनों का निर्माण कराया जाएगा और एक संस्कृति विकसित करने के लिए लोगों को जागरूक किया जाएगा। सरकार की नियति साफ है और मंशा एकदम स्पष्ट। जरूरत है लोगों के खुलेमन से इस अभियान से जुड़ने की। कब तक साफ-सफाई का जिम्मा सरकार पर छोड़ते रहेंगे। कब तक संसाधनों का रोना रोते रहेंगे। मसला बाहरी के साथ-साथ आंतरिक सफाई का भी है। ऐसे में अपनी गंदगी को लेकर दुनिया में जगहंसाई का पात्र बनने वाले भारत को स्वच्छ और निर्मल बनाने के लिए अपनी सोच और संस्कृति में बदलाव लाना आज हमारे लिए सबसे बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या सिर्फ सरकारी संसाधनों के बूते स्वच्छ भारत की परिकल्पना संभव है?
हां 19 फीसद
नहीं 81 फीसद
क्या कूड़े को कहीं भी फेंकने से पहले आप विचार करते हैं?
हां 87 फीसद
नहीं 15 फीसद
आपकी आवाज
प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान चलाकर एक उदाहरण पेश किया है। जिसे पूरा करना हर भारतीय की जिम्मेदारी है। -चंदन सिंह
जब कूड़ा फेंकते हुए हर नागरिक को देश का ख्याल आएगा, तब वह कचरा कूड़ेदान में डालेगा। तभी भारत में बदलाव आएगा। -मधुराज कुमार
अपने घर को साफ रखने के साथ घर के बाहर भी सफाई किए जाने पर ध्यान देना होगा। -अश्विनी सिंह
बहुत से लोग लापरवाही के चलते कूड़े को सड़कों पर डाल देते हैं, जो हमारे लिए ही नुकसानदायक होता है। -इरा श्रीवास्तव
सरकारी संसाधन सिर्फ सुविधाएं मुहैया करा सकते हैं परंतु स्वच्छ भारत की संकल्पना सभी भारतीयों की जागरुकता व भागीदारी के बिना साकार रूप नहीं लेगी। देश को साफ-सुथरा रखना हम सबका फर्ज है। -सचिनकुमार7337@जीमेल.कॉम
हमें कहीं भी कूड़ा डालने से पहले यह सोचना चाहिए कि हम कूड़ा कहां फेक रहे हैं। इस पर सबसे पहले मच्छर आएंगे और फिर वायु प्रदूषण फैलेगा। -सिंघलप्राची1997@जीमेल.कॉम
खरी खरी
हर आदमी को खुद का सफाईकर्मी होना चाहिए।
* * *
किसी परिवार के सदस्य खुद के घर को तो साफ रखते हैं लेकिन पड़ोसी के घर के बारे में उनकी कोई रुचि नहीं होती।
* * *
स्वतंत्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्वच्छता
------------------
इसे कूड़ा-कचरा नहीं, कीमत कहिए जनाब
Sun, 28 Sep 2014
आखिरकार जोश से लबरेज प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान ने भारतीयों को कूड़े और कचरे पर बात करने के प्रति प्रोत्साहित किया है। साथ ही यह सोचने पर भी विवश किया है कि समस्या कितनी गंभीर है। तो आइए और इसे खत्म करें। हर साल भारत में छह करोड़ टन कूड़ा पैदा होता है। चिंतन का मानना है कि कम से कम 20 फीसद बिना एकत्र किया कूड़ा बड़े शहरों और छोटे शहरों में यहां-वहां छितराया रहता है। जिन्हें एकत्र करके कूड़ाघर तक पहुंचाया भी जाता है वे अपने विषाक्त रसायनों से जल को और ग्रीन हाउस गैसों से वायु को प्रदूषित करते हैं। इसके अलावा मक्खी और मच्छरों के लिए यह स्थान स्वर्ग सरीखा होता है। दुर्गध बोनस है।
धरती को सुरक्षित रखते हुए कचरे से निपटने की कारगर व्यवस्था अपनाने के लिए हमें अमूलचूल बदलाव करने होंगे। हमारे प्रमुख मंत्रालयों (पर्यावरण और शहरी) नए कानून और नियम बनाने की प्रक्रिया में हैं, लेकिन इसका सबसे बड़ा खतरा यह है कि कचरे के प्रबंधन के प्रमुख स्तंभों से उनका बहुत सरोकार नहीं है। कचरे का कम होना ही कचरे के प्रबंधन की रीढ़ है। अगर कम कचरा पैदा करेंगे तो कम कचरे से ही निपटना होगा। इसीलिए कई शहरों में प्लास्टिक थैलियों पर पाबंदी है। हालांकि हमारे कचरे का कुछ हिस्सा विषाक्त होता है। लिहाजा उन्हें सामान्य तरीके से नहीं निपटाया जा सकता है। दुनिया भर में यह इसके लिए एक खास प्रक्रिया अमल में लाई जाती है। घातक पारा युक्त बैटरी, सीएफएल इत्यादि विषाक्त उत्पाद निर्माता कंपनियों के साथ इसके कचरे को निपटाने की जिम्मेदारी साझा की जाती है।
भारत के संदर्भ में समाधान तलाशने के साथ स्थानीय लोगों को सचेत करने किए जाने की भी जरूरत है। इनमें सब जगह पाए जाने वाले भारतीय पर्यावरण विशेषज्ञ 'कबाड़ी' को भी शामिल किया जाना चाहिए। कबाड़ी अपने कचरे का करीब 20 फीसद हिस्सा रीसाइकिल करता है। कंपोस्ट के लिए बाजार सृजित किए जाने की भी जरूरत है। अगर खत्म करने के लिए कम कचरा होगा तो प्रदूषण भी कम होगा। लेकिन इन सबको हमारे कानून और नियमों की मुख्यधारा में शामिल करना होगा। नगरपालिका स्तर के अधिकारियों की सोच में यह बैठाना होगा जिन्हें अल्प प्रशिक्षण और संसाधनों के साथ संकट के दौरान झोंक दिया जाता है।
अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए भी ऐसा करना बेहतर रहेगा, क्योंकि रीसाइक्लिंग से ऐसे छिपे तत्व मिलते हैं जिनका फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है। हमें एक आदर्श बदलाव की जरूरत है। जहां हम निपटान को महज कचरा प्रबंधन की जगह संसाधनों की कुशलता समझें। अब वह युग आ गया है जब किसी शहर की स्वच्छता का मानक इससे तय होगा कि वह अपने कचरे को कितना बेहतर तरीके से उठाता और कितने सुरक्षित रूप से वह उन्हें कूड़ाघर तक पहुंचाता है।
अहम सुझाव
* नगरपालिकाओं को यह समझने में मदद की जाए कि हर बेकार वस्तु एक संसाधन है।
* एक राष्ट्रीय सलाहकार निकाय हो, जो एक दूसरे क्षेत्र के विशेषज्ञों को जोड़े, यह सुनिश्चित करे कि नियमों का पालन हो रहा है, व्यापक साझेदारी के लिए नागरिकों को जोड़े।
* कचरे से जुड़े प्रदूषण की माप हो। सूचना आनलाइन की जाए।
* जागरूकता बढ़ाने पर निवेश किया जाए।
-भारती चतुर्वेदी [निदेशक, चिंतन एनवायरमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप]
----------------------------
संसाधन के साथ संस्कृति का भी अभाव
:Sun, 28 Sep 2014
स्वच्छता के सबसे बड़े अभियान के क्रियान्वयन की दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत सारे कदम उठाए हैं। गांधी जयंती के दिन 2 अक्टूबर को केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए कोई सार्वजनिक अवकाश नहीं होगा और सभी सरकारी कर्मचारी मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान में अपनी भागीदारी निभाएंगे। यह सही समय पर चलाया गया अभियान है जो एक अच्छे इरादे से युक्त है, लेकिन सवाल यही है कि क्या यह सफल होगा और क्या स्वच्छ भारत का सपना पूरा हो सकेगा?
वर्ष 1903 में गांधीजी बनारस गए, जहां उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर को देखा। वहां के हालात देखकर उन्होंने टिप्पणी की, 'भनभनाती मक्खियों के झुंड और दुकानदारों द्वारा मचाया जाने वाला शोर निश्चित रूप से तीर्थयात्रियों के लिए बहुत ही असहनीय था'। इस संदर्भ में गांधीजी ने यह भी लिखा कि बावजूद इसके यहां लोग ध्यान और मेल-मिलाप के माहौल की अपेक्षा करते हैं जो स्पष्ट रूप से नदारद है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर सड़े हुए फूलों की दुर्गध आती है। इस क्रम में वह आगे लिखते हैं, 'मैं इस तीर्थस्थान के चारों तरफ भगवान की तलाश में घूमा, लेकिन यहां की गंदगी और अपवित्रता के बीच उन्हें ढूंढ़ पाने में विफल रहा'।
गांधीजी द्वारा स्वच्छता और सफाई के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित किए जाने के बावजदू आज 100 वर्षो बाद भी भारत में बहुत थोड़ा ही बदलाव आया है। यदि हमारे धार्मिक स्थानों अथवा तीर्थस्थलों की हालत ऐसी है तो कोई भी कल्पना कर सकता है कि हम भारतीय कितनी गंदगी अथवा अपवित्रता में रहते होंगे। यह भी कि हम गंदगी की कितनी कम परवाह करते हैं और हर ओर इसे फैलाने के प्रति उदारभाव रखते हैं। वास्तव में गंदगी फैलाना और कहीं भी थूक देना हमारी आदत में शुमार हो चुका है। हमारी सड़कें खुले गंदगी के स्थान में तब्दील हो चुकी हैं और पार्को की हालत भी कुछ ऐसी ही है। हमारे देश में स्वच्छता कभी भी प्राथमिकता नहीं रही और इस हेतु धन का अभाव भी एक प्रमुख समस्या है। स्वच्छता ऐसा कोई रिवाज नहीं है जिसे हम दिन अथवा सप्ताह के हिसाब से ध्यान दें। हमारी इस समस्या के मूल में स्वच्छता की संस्कृति का अभाव मुख्य है। यह भी कम हास्यास्पद नहीं है कि जो लोग हमारे आवास के चारों तरफ साफ-सफाई रखने का काम करते हैं वह खुद बहुत गंदगी में रहते हैं। कुल मिलाकर न केवल हमारे अपने जीवन में गंदगी और अपवित्रता होती है, बल्कि ऐसे मामलों में बहुत उदार रुख रखते हैं। सार्वजनिक जगहों पर पेशाब करना, खुले में शौच जाना, गंदगी, कूड़ा फैलाना और अपवित्रता जैसी चीजें शायद ही किसी की नजरों में न आती हों। इसे आप होटल, हॉस्पिटल, घरों, कार्यस्थलों, ट्रेनों, हवाई जहाजों और यहां तक कि धार्मिक स्थलों में भी देख सकते हैं। सबसे खराब बात यह है कि हम भारतीय इस मामले में बहुत सतही और रक्षात्मक हैं। कुछ वर्ष पहले डच अथवा हालैंड के एक राजनयिक ने मुझसे कहा कि आज तक मैं जहां कहीं भी रहा हूं उनमें नई दिल्ली सबसे खराब जगह है। यहां तक कि उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को कूड़ा घर करार दिया। दिल्लीवासी इन बातों की कभी परवाह नहीं करते। यहां तक कि पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी कहा कि यदि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाए तो हमारे शहर आसानी से इसे जीत सकते हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जहां कुछ देश, समाज और लोग स्वच्छता पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हैं वहीं कहीं पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता है। नार्वे के ओस्लो में लोगों की रोचक आदत है। यह शहर अपने कूड़े से ऊष्मा और बिजली पैदा करता है। इस प्रक्रिया में यह देश इतना माहिर हो चुका है कि यहां कूड़े की किल्लत पैदा हो गई है। जरूरत पूरी करने के लिए इसे कूड़ा ब्रिटेन सहित अन्य जगहों से आयात करना पड़ रहा है। कई उत्तरी यूरोपीय देशों में भी ऐसा ही होता है।
हममें से अधिकांश लोग गंदगी के लिए सरकारी एजेंसियों को दोष देते हैं। दोषारोपण एक राष्ट्रीय प्रवृत्ति बन गई है। एक ओर जहां कमजोर कानून है तो दूसरी ओर इनका क्रियान्वयन और भी अधिक लचर है। अपनी जवाबदेही को लेकर किसी को भी कानून का डर नहीं है। क्या इस बार कुछ अलग होगा? पूर्व के अनुभवों को देखते हुए कोई आश्चर्य नहीं कि यह अभियान भी किसी ऐसी ही नियति का शिकार हो जाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह अभियान 'गंदगी फेंकने से वातावरण ही नहीं, आत्मा भी मैली होती है' या 'सफाई में भगवान बसते हैं' जैसे नारों और खाली ख्वाहिशों तक नहीं सीमित रहेगा।
-आश नारायण रॉय [निदेशक, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, दिल्ली]
------------------------
बड़ी चपत
:Sun, 28 Sep 2014
विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक अपर्याप्त साफ-सफाई और स्वच्छता की हर साल भारत को 54 अरब डॉलर कीमत चुकानी पड़ती है। यह रकम 2006 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 6.4 फीसद के बराबर है। यही नहीं, यह चपत देश के कई राज्यों के कुल आय से भी अधिक है।
स्वच्छता के सही तरीके अपनाकर भारत 32.6 अरब डॉलर हर साल बचा सकता है। यह रकम 2006 में देश की जीडीपी के 3.9 हिस्से के बराबर है। इससे प्रतिव्यक्ति 1321 रुपये का लाभ सुनिश्चित किया जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जैसे माचिस की एक तीली संपूर्ण दुनिया को स्वाहा करने की ताकत रखती है उसी तरह बहुत सूक्ष्म मात्रा की गंदगी भी महामारी फैला सकती है। उदाहरण के लिए एक ग्राम मल में एक करोड़ विषाणु हो सकते हैं, दस लाख जीवाणु हो सकते हैं, एक हजार परजीवी हो सकते हैं और 100 परजीवियों के अंडे हो सकते हैं।
सफाई से कमाई
विश्व बैंक के शोध के अनुसार अगर शौचालय के इस्तेमाल में वृद्धि की जाए, स्वच्छता और साफ-सफाई के तरीके अपनाए जाएं तो स्वास्थ्य पर पड़ने वाले समग्र असर को 45 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है जबकि जल, लोगों के कल्याण और पर्यटन नुकसान पूरे टाले जा सकते हैं।
बड़ा बाजार
शोध के अनुसार भारत में स्वच्छता के एक बड़े बाजार की पर्याप्त संभावनाएं हैं। 2007-2020 के दौरान यह बाजार 152 अरब डॉलर का हो सकता है। इनमें से 67 अरब डॉलर (64 फीसद) इंफ्रास्ट्रक्टर, 54 अरब डॉलर (36 फीसद) प्रचालन और रखरखाव सेवाओं के लिए होगा। साफ-सफाई से जुड़े बाजार की सालाना वृद्धि 2007 में जहां 6.6 अरब डॉलर की है, 2020 में यह 15.1 अरब डॉलर होगी।
गंभीर नतीजे
अपर्याप्त साफ-सफाई और स्वच्छता के चलते लोग मारे जाते हैं। बीमारियां होती हैं। पर्यावरण प्रदूषित होता है। लोगों का कल्याण क्षीण होता है। इन सब परिणामों से से सब कोई वाकिफ होता है लेकिन खराब स्वच्छता के आर्थिक असर का आकलन अब तक ढंग से नहीं किया गया है।
किस मद में कितना
71.7 फीसद- स्वास्थ्य [38.49 अरब डॉलर]
0.5 फीसद- पर्यटन [0.26 अरब]
20 फीसद- समय बर्बादी [10.73 अरब]
7.8 फीसद- जल [4.21 अरब]
स्वास्थ्य पर असर
66 फीसद- डायरिया [25.5 अरब डॉलर]
1 फीसद- आंत्र संबंधी कृमि [0.31 अरब]
12 फीसद- एक्युट लोअर रेसपिरेटरी इंफेक्शन [4.6 अरब]
16 फीसद- अन्य [6.2 अरब]
0.2 फीसद- मलेरिया [0.08 अरब]
4 फीसद- खसरा [1.45 अरब]
1 फीसद- ट्रैकोमा [0.28 अरब]
----------------------------------
इनका मुंह तो बंद है लेकिन काम चालू
Sun, 28 Sep 2014
अपने बगीचों और आइटी कंपनियों के लिए मशहूर बेंगलूर पिछले कुछ साल से एक गलत वजह से जाना जाने लगा। कचरे से निपटने में बुरी तरह विफल रहने वाली यहां की बृहत बेंगलूर महानगर पालिका (बीबीएमपी) ने दुनिया का ध्यान खींचा। ऐसे में जहां यहां के आम लोग और उद्योगपति बीबीएमपी पर आरोप लगाने में व्यस्त थे, लोगों का एक समूह चुपचाप गंदे स्थलों की पहचान करके उनके सौंदर्यीकरण में मशगूल रहा। इस समूह की खास बात यह है कि ये लोग प्रवचन की जगह प्रयत्न में यकीन रखते हैं। यह है द अगली इंडियन समूह ।
लोग जहां कचरा फेंकते हैं, उसे ये काले निशान से क्रास करके पहचान करते हैं। वे उस स्थान का सौंदर्यीकरण कर देते हैं। इन सबके बावजूद समूह के सदस्यों को किसी प्रसिद्धि की भी भूख नहीं है। इनमें से अधिकांश अज्ञात ही बने रहकर केवल ब्लैक स्पॉट को सुंदर बनाना चाहते हैं। अभी तक शहर में इस समूह द्वारा 1154 स्थानों की पहचान करके उन्हें सुंदर बनाया जा चुका है। इस समूह का ध्येय वाक्य है, 'काम चालू मुंह बंद'। इनके काम से प्रभावित होकर बीबीएमपी ने कचरा फेंके जाने वाले स्थलों के सौंदर्यीकरण के लिए इनके साथ समझौता किया है।
संगठन की वेबसाइट पर लिखा है कि अब हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि देश की अधिकांश समस्याएं हम जैसे अगली इंडियंस के चलते हैं। किसी भी गली को देखो नागरिक मानकों की स्थिति दयनीय है। गंदगी के लगे अंबार को हम लोग सहते रहते हैं। इसके लिए न धन, न तंत्र और न ही यह समझने की जरूरत है कि यह कैसे होगा। यह केवल और केवल प्रवृत्ति और नजरिए के साथ सांस्कृतिक व्यवहार की बात है। अब हम अगली इंडियंस के लिए वक्त आ चुका है कि इस दिशा में कुछ करें। खुद को खुद से हम लोग ही बचा सकते हैं।
प्रेरक लोग
सिर्फ ऐसा ही नहीं है कि लोग गंदगी बिखेरने या फैली गंदगी को देख बुरा सा मुंह बनाकर निकल लेने में मशगूल हैं, इसी समाज के कुछ लोग चुपचाप गंदगी को साफ करने में भी जुटे हैं। इनका मुंह मास्क से बंद है लेकिन काम चालू है। हम सबको भी इनसे कुछ सीखना चाहिए।
----------------------------
एक जरूरी अभियान
Thu, 02 Oct 2014
केंद्र सरकार की ओर से जोर-शोर से शुरू किए जा रहे स्वच्छ भारत अभियान को सफल होना ही चाहिए, क्योंकि इसमें पूरे देश का हित निहित है। देश के मान-सम्मान के साथ-साथ आम आदमी के अपने भले के लिए इस अभियान का सफल होना जरूरी है। यह आवश्यक है कि आम जनता इसे अपने अभियान के तौर पर ले। इसे सरकारी कार्यक्रम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह सरकारी कार्यक्रम है भी नहीं, लेकिन हालात ऐसे हैं कि मोदी सरकार को देश को साफ-सुथरा बनाने का काम एक तरह से अपने हाथ में लेना पड़ रहा है। औसत भारतीय अपने घर की साफ-सफाई के लिए कितना ही सजग क्यों न रहता हो, लेकिन सार्वजनिक स्थलों की सफाई को लेकर वह कुल मिलाकर बेपरवाह ही दिखता है। हालत यह है कि हमारे धार्मिक स्थलों में भी गंदगी के ढेर दिखते हैं। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि अगर कोई रोकने-टोकने वाला न हो तो साफ-सुथरे स्थलों में भी लोग कचरा फैलाने से बाज नहीं आते। यही कारण है कि भारत की गिनती उन देशों में होती है जहां सार्वजनिक स्थलों पर गंदगी का साम्राज्य रहता है। आर्थिक तौर पर देश का कद बढ़ने के बावजूद दुनिया के कई देशों में अभी भी भारत की छवि एक ऐसे देश की है जहां गंदगी जनित बीमारियों का प्रकोप छाया रहता है। सार्वजनिक स्थलों पर व्याप्त गंदगी के दुष्परिणाम कई रूपों में सामने आते हैं। गंदगी के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर केवल देश की छवि ही नहीं प्रभावित होती, बल्कि किस्म-किस्म की बीमारियां भी सिर उठाती रहती हैं। इन बीमारियों से न केवल लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि हजारों हजार लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं। इसके सामाजिक दुष्परिणाम भी सामने आते हैं और आर्थिक भी।
सार्वजनिक स्थलों में गंदगी की समस्या आज की नहीं है। हमारा देश इस समस्या से आजादी के पहले से ग्रस्त है और यही कारण रहा कि महात्मा गांधी ने गंदगी दूर करने के लिए भी अलख जगाई। आज यह अलख फिर जगाई जा रही है। यह आश्चर्यजनक है कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी सरकार ने वह नहीं सोचा जो मोदी सरकार ने न केवल सोचा, बल्कि उसे एक अभियान में बदल दिया। इस अभियान के तहत खुद प्रधानमंत्री सड़कों पर उतरकर झाडू लगाएंगे। नि:संदेह यह काम प्रधानमंत्री का नहीं है कि वह गंदगी के खिलाफ इस तरह झाडू लेकर सड़क पर उतरें, लेकिन आम जनता को प्रेरित करने के लिए इससे बेहतर और कोई तरीका भी नहीं हो सकता। जब प्रधानमंत्री के साथ-साथ उनके तमाम मंत्री और लाखों की संख्या में केंद्रीय सेवाओं के कर्मचारी स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत करने उतरे हैं तो आम जनता के लिए भी यह आवश्यक हो जाता है कि वह हर स्तर पर अपना योगदान दे। इस अभियान को इस रूप में आगे बढ़ाने की जरूरत है ताकि हर कोई यह समझे कि साफ-सफाई की जितनी जरूरत निजी जीवन में है उतनी ही सार्वजनिक जीवन में भी। गंदगी के प्रति बेपरवाह देश के रूप में भारत की छवि हमारे लिए एक दाग है और यह दाग तभी दूर होगा जब आम लोग सार्वजनिक सफाई को लेकर अपना मानसिकता बदलने के लिए तैयार होंगे।
[मुख्य संपादकीय]
----------------------------------
झाड़ू पोज से आगे
नवभारत टाइम्स| Oct 3, 2014,
गांधी जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत कर लोगों को अपने इर्द-गिर्द सफाई रखने की नसीहत दी है। प्रतीकात्मक तौर पर उन्होंने अपने साथी मंत्रियों के साथ सड़क पर झाड़ू लगाया। ऐसा करने वाले वे पहले राजनेता नहीं हैं। न ही इस तरह का सरकारी अभियान कोई पहली बार चलाया जा रहा है।
कभी नदी सफाई अभियान तो कभी किसी और नाम पर नेता न्यूज चैनलों में झाड़ू लिए दिखाई पड़ ही जाते हैं। लेकिन ऐसी तमाम कवायदों के बावजूद देश में साफ-सफाई कोई मुद्दा नहीं बन पाई है। आज दुनिया में भारत की छवि एक गंदे देश की है। भारत की मजबूत होती अर्थव्यवस्था, उसकी ताकत और भारतीयों की प्रतिभा की चर्चा के साथ यह भी जोड़ दिया जाता है कि भारत एक गंदा देश है।
पिछले ही साल चीन के कई ब्लॉगों पर गंगा में तैरती सड़ी-गली लाशों और भारतीय सड़कों पर पड़े कूड़े के ढेर वाली तस्वीरें छाई रहीं। इसे एक पड़ोसी की ईर्ष्या बताकर खारिज नहीं किया जा सकता। कुछ साल पहले इंटरनेशनल हाइजीन काउंसिल ने अपने एक सर्वेक्षण में निष्कर्ष निकाला कि औसत भारतीय घर बेहद गंदे और अस्वास्थ्यकर हैं।
काउंसिल ने सर्वेक्षण के लिए कमरों, बाथरूम और रसोई घर की साफ-सफाई को आधार बनाया था। उसके द्वारा जारी गंदे देशों की सूची में सबसे ऊपर वाला मुकाम मलयेशिया का था, और उसके ठीक नीचे भारत का नाम था। पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाता तो वो शर्तिया भारत को ही मिलता।
सफाई क्या वाकई भारतीय समाज के लिए कोई मुद्दा नहीं है? इस मामले में हमने महात्मा गांधी की भी नहीं सुनी। दरअसल, भारतीय जनमानस में सफाई को लेकर एक बुनियादी उलझन है। भारतीय संस्कृति का जोर सफाई के बजाय 'पवित्रता' पर है, जो या तो ईश्वर प्रदत्त होती है या व्यक्तिगत प्रयासों से अर्जित की जाती है।
अपने परिवेश को साफ-सुथरा और खुशहाल रखने के बजाय इसका जोर खुद को भीड़ से अलग रखने पर है। वर्ण व्यवस्था के साथ मजबूती से गुंथी हुई इस धारणा का व्यावहारिक रूप इस व्यवस्था की शक्ल में दिखा कि अस्पृश्य लोग नगर में कोई संकेत देते हुए प्रवेश करें, गले में हंडिया और पीछे झाड़ू लटकाए रहें। अपने ही समाज के कुछ लोगों को अमानवीय स्थितियों में डालकर भला पूरे समाज को साफ-सुथरा कैसे बनाया जा सकता था?
शायद इस बेफिक्रेपन का ही नतीजा है कि आज भी लोग-बाग अपने घर का कूड़ा बेहिचक किसी और के घर के सामने या सड़क पर फेंक देते हैं। सफाई को लेकर समाज की इस उदासीनता का भरपूर फायदा सरकारी तंत्र ने उठाया और इस काम के लिए बनी सारी संस्थाएं सफेद हाथी बनकर रह गईं।
भारतीय सफाई व्यवस्था का सूत्रवाक्य है- कि गंदगी एक जगह से उठाकर दूसरी जगह पहुंचा दी जाए। इसे बदला जा सकता है, लेकिन तभी, जब न सिर्फ नेता बल्कि सभी असरदार लोग झाड़ू पोज में फोटो खिंचाकर सुर्खरू होने का नाटक छोड़ें और अपने जीवन से लेकर कामकाज तक में सफाई को लेकर दिल से प्रतिबद्ध दिखें।
--------------
सफाई की शुरुआत
02-10-14 08
जिस ‘स्वच्छ भारत’ अभियान की शुरुआत गांधी जयंती से हुई है, उसकी जरूरत के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का श्रेय भी देना ही होगा कि वह ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने सार्वजनिक सफाई को अपनी प्राथमिकता बनाया और स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोधन में इसे महत्व दिया। इस तरह के अभियान से एक फायदा यह होता है कि इसके उद्देश्य के प्रति लोगों में चर्चा होती है और जागरूकता आती है। लेकिन यह भी जरूरी है कि यह सिर्फ एक रस्म अदायगी और तस्वीर खिंचवाने का कार्यक्रम न बन जाए। सफाई की राह में असली चुनौतियां इस आयोजन के खत्म होने के बाद शुरू होती हैं। भारत में गंदगी की वजह आम नागरिकों से लेकर संभ्रांतों तक में इसे लेकर लापरवाही है। और सफाई सिर्फ झाड़ लगाने या शौचालय बनाने से नहीं हो जाएगी। सफाई की प्रक्रिया में एक-दूसरे से जुड़ी कई कड़ियां हैं, इनमें से एक भी कड़ी के न रहने से पूरी प्रक्रिया निर्थक हो जाती है। जैसे हम अब तक गंगा और यमुना के असफल सफाई अभियानों में देख सकते हैं। अरबों रुपये खर्च हो गए, लेकिन इन नदियों की जरा भी सफाई नहीं हो सकी। दुनिया में जो लगभग सौ करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं, उनमें से लगभग 60 प्रतिशत भारत में हैं। इसी से पता चलता है कि शौचालय बनाना कितना जरूरी है। लेकिन अब तक शौचालय बनाने के तमाम कार्यक्रम ज्यादा कामयाब इसलिए नहीं हुए, क्योंकि उनमें शौचालय बनाने की औपचारिकता भर थी। शौचालय बनाने जितना ही जरूरी उनका नियमित रखरखाव भी है। कई ग्रामीण इलाकों में शौचालय बनाने की मुहिम इसलिए नहीं चली, क्योंकि सेप्टिक टैंक के भर जाने पर उसका क्या किया जाए, इसकी न तो जानकारी थी और न ही कोई योजना। जरूरी यह है कि यदि सड़कों पर से कूड़ा हटाया जाए या शौचालय बनाया जाए, तो आगे भी उस गंदगी के प्रबंधन का सही इंतजाम हो। अगर शहरों की गंदगी नदियों में बहा दी गई या कूड़े के पहाड़ शहरों की सीमा के बाहर खड़े दिखते रहे, तो इस सफाई का कोई महत्व नहीं है। अभी हम जितनी सफाई करते हैं, उससे इकट्ठा होने वाली गंदगी को कहीं और छोड़ आते हैं, जहां वह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है। इसी तरह, औद्योगिक-व्यापारिक प्रदूषण के इंतजाम को भी इस अभियान का हिस्सा बनाना होगा, क्योंकि खेतों, जंगलों, नदियों को गंदा करने में उसकी भूमिका बड़ी है। सड़क पर कूड़ा फेंकने की व्यक्तिगत आदत से लेकर नदियों में शहरों के सीवर का पानी और औद्योगिक गंदगी बहाने की सांस्थानिक आदत तक कई कड़ियां हैं, जिन पर ध्यान देना होगा, तब हम देश की वास्तविक सफाई कर पाएंगे। भारतीय अपनी और अपने घर की सफाई तो कर लेते हैं, लेकिन घर की सीमा के बाहर गंदगी फैलाने में कोई संकोच नहीं करते हैं। इन आदतों को बदलने के लिए सरकार नहीं, बल्कि समाज को भी सक्रिय होना होगा। महात्मा गांधी ने सफाई को आजादी के आंदोलन का हिस्सा इसलिए बनाया था, क्योंकि समाज की बाहरी गंदगी उसके अंदर व्याप्त गंदगी को ही दिखाती है। गांधीजी सफाई को हमारे समाज में व्याप्त कुरीतियों और कमजोरियों को दूर करने का माध्यम बनाना चाहते थे। भारत में गंदगी की बड़ी वजह जाति-प्रथा है, क्योंकि उच्चवर्गीय लोग यह मानते हैं कि सफाई निम्न जातियों का काम है और ऊंची जाति के लोगों को यह काम नहीं करना चाहिए, चाहे कूड़ा उनके सामने फैला हो। हम उम्मीद करें, यह नया सफाई अभियान सिर्फ एक औपचारिकता नहीं रह जाएगा, बल्कि हमारे देश और समाज की वास्तविक सफाई कर पाएगा।
------------------------
स्वच्छ भारत का सपना
इस बार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर जिस तरह ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत हुई, वह बापू के अधूरे सपने को पूरा करने की मुश्किल लेकिन ईमानदार कोशिश है। इस अभियान का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने ठीक ही कहा कि महात्मा गांधी का ‘क्विट इंडिया’ का सपना तो पूरा हो गया, लेकिन उनके ‘क्लीन इंडिया’ के सपने को पूरा करने का दारोमदार हम पर है। जिस तरह प्रधानमंत्री ने राजनीतिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर इस अभियान को सफल बनाने की अपील की है, उससे साफ है कि देश को निर्मल बनाने के लिए वे पूरे देश को साथ लेना चाहते हैं। ऐसा जरूरी इसलिए भी है कि अलग-अलग सरकारों के देश को गंदगी मुक्त बनाने के प्रयास काफी हद तक असफल रहे हैं। सरकारें इस काम में आम लोगों को अपने साथ जोड़ने और उन्हें प्रेरित करने में विफल रही हैं। नतीजा सामने है कि देश कूड़े के ढेर से दबता जा रहा है। हमारे महानगर, मध्यम शहर, कस्बे और गांव सभी ओर गंदगी का नजारा दिखता है। इतना ही नहीं, जो नदियां हमारे लिए प्राकृतिक उपहार हैं और हमारी जीवनरेखा भी, उनकी दशा भी लगातार बदतर होती गई है। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री देश की सफाई के काम को जनांदोलन में बदलने की अपील कर रहे हैं, तो यह समय की मांग है। अभियान की शुरुआत बेहद प्रभावशाली रही है। प्रधानमंत्री ने जिस तरह मंगल मिशन की सफलता को रेखांकित करते हुए देशवासियों को इस कठिन काम में सफलता मिलने का यकीन दिलाया है, उससे तमाम लोग प्रेरित होंगे। सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें आम लोगों से लेकर अलग-अलग क्षेत्रों की सफल और नामचीन हस्तियों को जोड़ा जा रहा है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि खुद प्रधानमंत्री ने जिन नौ लोगों को इस अभियान से जुड़ने के लिए चुना उनमें कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री शशि थरूर का नाम भी है। इतना ही नहीं, सफाई के कार्य में योगदान करने वालों का जिक्र करते वक्त प्रधानमंत्री ने कांग्रेस सेवादल का भी नाम लिया। बहरहाल, इस अभियान की शुरुआत अपेक्षित रही है। अब जरूरी है कि दो अक्टूबर के बाद भी इसके प्रति सरकार और आम लोगों की संजीदगी कायम रहे। शहरों, कस्बों और गांवों की सफाई का काम तो प्राथमिकता पर है ही, कचरा प्रबंधन को लेकर भी तत्परता से पहल होनी चाहिए। शौचालय की उपलब्धता का मसला भी इसी से जुड़ा है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री करते भी रहे हैं। यह देखना अच्छा है कि सरकार देश को स्वच्छ बनाने के इस मिशन को न केवल अपना भरपूर वित्तीय समर्थन दे रही है, बल्कि कॉरपोरेट जगत से भी अपेक्षा की गई है कि वह सामाजिक दायित्व के तहत खर्च होने वाली अधिकांश राशि को भी सफाई के काम और शौचालय निर्माण पर व्यय करें। चूंकि प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत मिशन को पूरा करने के लिए वर्ष 2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती तक की समय सीमा निर्धारित कर दी है, लिहाजा जरूरी है कि कोई कसर शेष न रहे। यह हमारे समक्ष देश को गंदगी मुक्त कराने और ब्रांड इंडिया को चमकदार बनाने का सुनहरा मौका है।
------------------------------
स्वच्छता का सवाल
जनसत्ता 3 अक्तूबर, 2014: गांधीजी के जन्म दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद सफाई अभियान में शामिल होकर स्वच्छता का जो संदेश दिया है, वह बापू की विरासत को सहेजने की दिशा में एक अहम कदम हो सकता है। गांधीजी आजादी के आंदोलन के दौरान जब राजनीति के मोर्चे पर अंगरेजों से जूझ रहे थे, तब भी अपने आसपास की साफ-सफाई को लेकर उतने ही सचेत रहते थे और सड़क पर चलते हुए गंदगी दिख जाने पर खुद उसकी सफाई में जुट जाते थे। यह उस इलाके के लोगों के लिए एक बड़ा संदेश होता था और इसका असर यह दिखता कि आसपास के लोग साफ-सफाई के काम में शामिल हो जाते थे। गांधीजी की उसी सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी खुद हाथ में झाड़ू उठाना जरूरी समझा, ताकि उसका संदेश सीधे जनता तक पहुंचे। लेकिन इसका महत्त्व तभी तक बना रह सकता है जब यह अपनी गंभीरता और निरंतरता नहीं खोए। ऐसी खबरें भी आर्इं कि भाजपा सरकार के कुछ मंत्री साफ-सुथरी जगहों पर जानबूझ कर बिखेरे गए कूड़े पर झाड़ू लगा रहे थे। जाहिर है, इस दिखावे का मकसद सिर्फ प्रचार पाना था और अगर यही हाल रहा तो इस अभियान का अंजाम भी पिछली सरकार द्वारा शुरू किए गए अभियान जैसा हो सकता है। खुले में शौच की समस्या पर काबू पाने के लिए हर घर में शौचालय के साथ-साथ स्वच्छता के संदेश को प्रचारित-प्रसारित करने के मकसद से यूपीए सरकार ने ‘निर्मल भारत’ अभियान चलाया था। प्रधानमंत्री की ताजा पहल को उसी का विस्तारित रूप कहा जा सकता है। मगर अब तक के अनुभव यही हैं कि ऐसे अभियान ईमानदारी और प्रतिबद्धता के अभाव में थोड़े ही समय बाद दम तोड़ देते हैं। सरकारी महकमों से लेकर समाज तक में उसे लेकर उदासीनता का भाव नजर आने लगता है।
यह छिपी बात नहीं है कि अपने घर को साफ रखने वाले ज्यादातर लोगों को इस बात की फिक्र नहीं होती कि उनके दरवाजे के बाहर फैली गंदगी बजबजाती रहती है और उसके लिए वे खुद भी जिम्मेदार होते हैं। दरअसल, यह मान लिया जाता है कि सफाई का काम सिर्फ सरकारी महकमों का है। लेकिन क्या यह अपने नागरिक कर्तव्यों से मुंह मोड़ना नहीं है? इसके अलावा औद्योगिक कचरा भी एक बड़ी समस्या है, जिसने आज हमारे देश की गंगा और यमुना जैसी कई नदियों का स्वाभाविक जीवन छीन लिया है। स्वच्छता या साफ-सफाई के प्रधानमंत्री के ताजा अभियान का विस्तार अगर औद्योगिक कचरे पर भी काबू पाने में होता है, तो यह पहल शायद ज्यादा सार्थक होगी। बहरहाल, यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री जिस स्वच्छता को आंदोलन बनाने की बात कर रहे हैं, उसी काम में लगे लाखों सफाईकर्मियों के बदतर हालात और वेतन या दूसरी सुविधाओं पर ध्यान देना सरकारों को जरूरी नहीं लगता। इसलिए इनकी समस्याओं का भी तत्काल हल निकाला जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल किले से हर घर में शौचालय की जरूरत पर जोर दिया था। यह खुले में शौच की समस्या का हल है। मगर कानूनन पाबंदी के बावजूद आज भी देश के कई हिस्से में एक खास जाति के बहुत सारे लोग हाथ से मैला साफ करने के काम में लगे हुए हैं। यह किसी भी सभ्य समाज को शर्मिंदा करने के लिए काफी है। इस समस्या को जड़ से खत्म किए बिना स्वच्छता का कोई भी संदेश अधूरा रहेगा।
---------------------------
महात्मा का सपना, मोदी का मिशन
विश्लेषण अरुण तिवारी
एक थाने के बाहर झाड़ू लगाते प्रधानमंत्री, रेलवे स्टेशन की सफाई करते रेलमंत्री, सफाई के लिए पैतृक गांव गोद लेतीं जल संसाधन मंत्री, नाला साफ करते एक विपक्षी पार्टी के प्रमुख, सड़कों पर झाडू उठाये मुंबइया सितारे और ‘न गंदगी करूंगा और न करने दूंगा’ कहकर शपथ लेते 31 लाख केन्द्रीय कर्मचारी। दिखावटी हों, तो भी कितने दुर्लभ दृश्य थे ये! ‘नायक’ एक फिल्म ही तो थी, किंतु एक दिन के मुख्यमंत्री ने खलनायक को छोड़ किस देशभक्त के दिल पर छाप न छोड़ी होगी? इस पहल का विरोध करने वालों व दूसरी पार्टियों के लोगों को अपने से यह सवाल अवश्य पूछना चाहिए कि यह राजनीति हो, तो भी क्या नई तरह की राजनीति नहीं है? महात्मा गांधी ने भी तो शक्ति व सत्ता की जगह ‘स्वराज’ और ‘सत्याग्रह’ जैसे नये शब्द देकर नये तरह की राजनीति की कोशिश की थी। क्या इस राजनीति से गुरेज किए जाने की जरूरत है? एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने अभियान को अच्छी पहल कहा किंतु क्या गांधी को अपना बताने वाली कांग्रेस को उनके सपने के लिए हाथ में झाड़ू थामने से गुरेज की जरूरत थी? मोदी की छूत से महात्मा के सपने को अछूत माना लेना, क्या गांधी को अच्छा लगता? दिमाग के जालें साफ करें तो जवाब मिल जायेगा। बारह वर्षीय बालक मोहनदास सोचता था कि उनका पाखाना साफ करने ऊका क्यों आता है? वह और घर वाले अपना पाखाना खुद साफ क्यों नहीं करते? किंतु क्या133 बरस बाद भी हम यह सोच पाये? जातीय भेदभाव व छुआछूत के उस युग में भी मोहनदास ऊका के साथ खेलकर खुश होता था। हमारी अन्य जातियां, आज भी वाल्मीकि समाज के बच्चों के साथ अपने बच्चों को खेलता देखकर खुश नहीं होती। विदेश से लौटने के बाद बैरिस्टर गांधी ने भारत में पहला सार्वजनिक भाषण बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया। मौका था, दीक्षांत समारोह का। बोलना था शिक्षा पर किुंत गांधी को बाबा विश्वनाथ मंदिर और गलियों की गंदगी ने इतना व्यथित किया कि वह बोले गंदगी पर। सौ बरस बाद भी हम अपनी तीर्थनगरियों के बारे में वैसा नहीं सोच पाये। कितने ही गांधीवादी व दलित नेता, गर्वनर से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक हुए, स्वच्छता को प्रतिष्ठित करने का ऐसा व्यापक हौसला क्या किसी ने दिखाया? ऐसे में यदि बाबा विश्वनाथ की नगरी से चुने एक जनप्रतिनिधि ने बतौर प्रधानमंत्री वैसा सोचने का हौसला दिखाया, तो क्या बुरा किया? बापू को राष्ट्रपिता मानने वाले भारतीय जन को यदि मोदी यह बता सके कि राष्ट्रपिता की जन्मतिथि, सिर्फ छुट्टी मनाने, भाषण सुनने या सुनाने के लिए नहीं होती; यह अपने निजी- सार्वजनिक जीवन में शुचिता के आत्मप्रयोग के लिए भी होती है; तो क्या यह आह्वान नकार देने लायक है? भारत की सड़कों, शौचालयों व अन्य सार्वजनिक स्थानों में कायम गंदगी और अश्लील बातें, राष्ट्रीय शर्म का विषय हैं। इस
बाबत किसी भी सकरात्मक पहल का स्वागत होना चाहिए। यह पहल संकेतों व प्रतीकों तक सीमित नहीं रहेगी। कई घोषणाओं ने इसका भी इजहार कर दिया है। सफाई के लिए 62,000 करोड़ का बजट; बजट जुटाने के लिए स्वच्छ भारत कोष की स्थापना, कारपोरेट जगत से सामाजिक जिम्मेदारी के तहत धन देने की अपील और गंदगी फैलाने वालों पर जुर्माना। 2019 तक 11 करोङ, 11 लाख शौचालय का लक्ष्य और 2,47,000 ग्राम पंचायतों में प्रत्येक को सालाना 20 लाख रुपये की राशि। शहरी विकास मंत्रालय ने एक लाख शौचालयों की घोषणा की है। मंत्रालय ने निजी शौचालय निर्माण में चार हजार, सामुदायिक में 40 प्रतिशत और ठोस कचरा प्रबंधन में 20 प्रतिशत अंशदान का ऐलान किया है। कोयला व बिजली मंत्रालय ने एक लाख शौचालय निर्माण की जिम्मेदारी ली है। सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों में ओएनजीसी ने 2500 सरकारी स्कूल, गेल ने 1021, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम ने 900 शौचालय निर्माण का वायदा किया है। हालांकि, कार्यक्रम यदि शौचालयों तक ही सीमित रहा, तो ‘स्वच्छ भारत’ की सफलता सीमित रह जायेगी। संप्रग सरकार की ‘निर्मल ग्राम योजना’ भी शौचालयों तक सिमटकर रह गई थी। सिर्फ पैसे और मशीनों के बूते हम शौचालयों से निकलने वाले मल को नहीं निपटा सकते। इसी बिना पर ग्रामीण इलाकों में घर-घर शौचालयों के सपने पर सवाल खड़े होते रहे हैं। वाल्मीकि बस्ती परिसर में प्रधानमंत्री ने जिस शौचालय का लोकार्पण किया, वह भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन द्वारा ईजाद खास जैविक तकनीक पर आधारित है। ऐसी कई तकनीकें साधक हो सकती हैं। इस चुनौती में औद्योगिक कचरे के अलावा ठोस कचरा निपटान को भी शामिल करना होगा। इलेक्ट्रॉनिक्स कचरा निपटान में बदहाली को लेकर राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने हाल में मंत्रालय को नोटिस भेजा है। यदि हम चाहते हैं कि कचरा न्यूनतम हो, तो हम ‘यूज एंड थ्रो’ प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करें। कचरे का निष्पादन स्त्रोत पर ही करने की पहल जरूरी है। पश्चिम के देशों से शहरों की सफाई का शास्त्र सीखने की बात गांधी जी ने भी की थी। किंतु यदि स्वच्छ भारत का यह मिशन, अमेरिका के साथ मिलकर भारत के 500 शहरों में संयुक्त रूप से ‘वाश’ कार्यक्रम के वादे में सिर्फ निजी कपंनियों के फायदे की पूर्ति के लिए शुरू किया गया साबित हुआ, तो तारीफ से पहले बकौल गांधी, जांच साध्य के साधन की शुचिता की करनी जरूरी होगी। सफाई कर्मचारियों की रोजी पहले ही ठेके के ठेले पर है। विदेशी कंपनियां और मशीनें आईं तो उनकी रोजी पर और बन आएगी। भारत दुनिया से बेहद खतरनाक किस्म का बेशुमार कचरा खरीदने वाला देश है। वह दुनिया के कचरा फेंकने वाले उद्योगों को अपने यहां न्योता देकर खुश होने वाला देश है। वह पहले अपनी हवा, पानी और भूमि को मलिन करने में यकीन रखता है और फिर उसे साफ करने के लिए कर्जदार होने में। यह ककहरा उलटा जा सकता है यदि हम सुनिश्चित करें कि ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन भारत के 20 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार व स्वरोजगार देने वाला साबित हो। एक आकलन के मुताबिक, भारत में हर रोज 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा पैदा होता है। इसके उचित से निष्पादन से 27 हजार करोड़ रुपये की खाद पैदा कर 45 लाख एकड़ बंजर को उपजाऊ भूमि में बदल 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा करने की क्षमता हासिल की जा सकती है। इससे दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस मिल सकती है। सरकार ने स्वच्छता को मिशन बनाया है, हम इसे आदत बनायें। ‘स्वच्छ भारत’ का यह मिशन सफल रहा तो सफाई की सौगात दूर तक जायेगी। भारत की कृषि, आर्थिकी, रोजगार और सामाजिक दर्शन में कई स्वावलंबी परिवर्तन देखने को मिलेंगे। हालांकि यदि हम सफाई, स्वच्छता, शुचिता जैसे आग्रह के तहत गांधी के आत्मप्रयोग और सपने को सामने रखेंगे तो बात मलिन राजनीति, मलिन अर्थव्यवस्था, मलिन पर्यावरण, भ्रष्टाचार से लेकर मलिन मानसिकता के कई पहलुओं तक की करनी होगी। गांधी मानते थे कि यह भावना सबके मन में जम जानी चाहिए कि हम सब सफाईकर्मी हैं। दुआ कीजिए कि ‘स्वच्छ भारत’ हमें मानसिक रूप से इतना स्वच्छ बना सके कि हम धर्म व जाति की मलिन खाइयों को भी पाट सकें। इससे महात्मा का सपना पूरा होगा और मोदी का मिशन भी।
---------------------------------
प्रतीकों की राजनीति
प्रमोद मीणा
जनसत्ता 4 अक्तूबर, 2014: गांधीजी के जन्मदिन दो अक्तूबर से देश भर में स्वच्छ भारत अभियान का आगाज करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रतीकों की राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं। सरदार पटेल और कृष्ण का सफल प्रतीकात्मक चुनावी दोहन करने के बाद उनकी नजरें अब गांधी और झाड़ू को एक साथ साधने पर हैं। गांधी के नाम को हर चुनाव में भुनाती आई कांग्रेस दो अक्तूबर को एक रस्मी समारोह बना चुकी थी। अपने प्रतिपक्षी से उसका ही हथियार छीन कर उस पर ही वार करने का अवसर प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी कैसे खाली जाने देते! आपको याद ही होगा कि उग्र हिंदुत्व की एक अन्य ध्वजावाहक उमा भारती ने, जो आज केंद्र में मंत्री हैं, कांग्रेस से गांधी को छीन लेने का आह्वान किया था। अत: गांधी के जन्मदिन से आरंभ हुए स्वच्छ भारत अभियान को उसी भगवा आह्वान की पूर्ति की दिशा में एक राजनीतिक कदम समझा जाना चाहिए।
जिस व्यक्ति और जिस दल की गांधीवादी सिद्धांतों और मूल्यों में तनिक भी आस्था न रही हो, यकायक उसकी निष्ठा अगर गांधीवादी सफाई-कर्म में जग जाए, तो ऐसी निष्ठा पर संदेह क्योंकर न किया जाए। राजधानी दिल्ली के कश्मीरी दरवाजे वाली उसी हरिजन बस्ती और उसी वाल्मीकि मंदिर से प्रधानमंत्री ने सफाई अभियान की शुरुआत की, जहां कभी पूना पैक्ट के बाद गांधीजी आकर लगभग ढाई सौ दिन रहे थे। अछूत को हरिजन की संज्ञा देने वाले गांधीजी का यह हरिजन सेवा वाला कार्यक्रम दलितों को कांग्रेसी स्वाधीनता आंदोलन और हिंदू समाज से जोड़े रखने की मुहिम का हिस्सा था। पर साफ-सफाई जैसे अति महत्त्वपूर्ण कार्य को हेय दृष्टि से देखने वाला ब्राह्मणवादी हिंदू समाज आज भी सफाईकर्मियों और हरिजनों को सम्मान देने को तैयार नहीं है।
आज भी एक राज्य के दलित मुख्यमंत्री के मंदिर प्रवेश से हिंदुओं का मंदिर अपवित्र हो जाता है। ब्रिटिश शासनकाल में आधुनिक भारतीय शहरों-महानगरों की स्थापना के साथ-साथ इन शहरों की सफाई-व्यवस्था के लिए आसपास के गांवों से दलितों को शहरों में लाकर दलित बस्तियां भी बसाई गर्इं। लेकिन शहरी प्रशासन द्वारा गांवों से खदेड़ कर शहर में बसाने पर भी दलित उस अपमान और अस्पृश्यता से मुक्ति न पा सके जो सामंती ग्रामीण भारत की कड़वी सच्चाई रही है।
दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के झाड़ू ने कांग्रेस की सफाई की थी। उस झाड़ू की चुनावी भूत अभी तक भाजपा पर छाया हुआ है। इसी डर के चलते भाजपा जोड़-तोड़ की मार्फत दिल्ली राज्य में अपनी सरकार बनाने में जुटी हुई है। आप के इसी झाड़ू चुनाव चिह्न का प्रतीकात्मक अपहरण करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी दो अक्टूबर से स्वच्छ भारत अभियान चला रहे हैं ताकि स्वयं को और स्वयं की पार्टी को गांधी के साथ-साथ आम आदमी के झाड़ू का भी सच्चा वारिस सिद्ध कर सकें। इस प्रकार यह सारी मुहिम प्रतीकों पर अपना अधिकार सिद्ध करने की चुनावी कवायद है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री इन शहरी सफाईकर्मियों और दलित बस्तियों की सुध लेने की तत्परता भी दिखाएंगे या सिर्फ शहरों की खूबसूरती में बदनुमा दाग बन रही इन दलित बस्तियों के मतों की राजनीति तक वे सीमित रहेंगे। अगर उनके प्रति प्रधानमंत्री संवेदनशील हैं, तो उन्हें पहले उनका जीवन-स्तर सुधारने का प्रयास करना चाहिए था। आजादी के बाद जहां दलित राजनीति अपना महत्त्व खोती गई, वहीं निजीकरण और उदारीकरण के वर्तमान दौर में सफाईकर्मियों का जीवन-स्तर दयनीय हो गया।
सैंतालीस के तुरंत बाद सफाई सेवा को अत्यावश्यक सेवाओं की सूची में डाल कर सफाईकर्मियों से हड़ताल का अधिकार छीन लिया गया। अब वे अपनी वाजिब मांगों को लेकर हड़ताल और काम रोको प्रदर्शन करने के भी हकदार न रहे। हालांकि सफाईकर्मी के पद पर होने वाली सरकारी नियुक्ति से आजीविका की सुरक्षा पैदा हुई थी और दलितों के जीवन-स्तर में भी कुछ सुधार आया था। लेकिन नगर पालिकाएं और नगर निगम अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति का हवाला देकर जानबूझ कर सफाईकर्मी के पद पर स्थायी नियुक्तियां करने से मुंह चुराते रहे हैं। उदाहरण के लिए, गौत्तम घोष की फिल्म ‘पार’ में कोलकता शहर में नगर निगम के अंदर अस्थायी पदों पर रखे गए दलितों के भयावह शोषण और बेरोजगारी का जिक्र आया है। और अब नब्बे के बाद निजीकरण की जो सर्वभक्षी आंधी चल रही है, उसने तो साफ-सफाई करने वाली जातियों को एकदम हाशिये पर ही ला पटका है।
नगर पालिकाएं और नगर निगम आदि निकाय साफ-सफाई का काम अब ठेके पर दे रहे हैं। और ये ठेके लेने वाले अधिकतर लोग सवर्ण हैं जो न तो सफाई-कार्य की समस्याओं को जानते हैं और न मूलभूत सेवा-शर्तों का पालन करते हैं। पिछली सरकार की तर्ज पर बल्कि पहले से भी ज्यादा द्रुत गति से मोदी सरकार विदेशी निवेश को सुगम बनाने और भारतीय औद्योगिक घरानों को बेजा लाभ पहुंचाने के लिए जिस प्रकार श्रम कानूनों को सिलसिलेवार कमजोर करती जा रही है, वैसे में सफाईकर्मी के काम में लगे और अन्य दलित कैसे मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान की मंशा पर शक न करें!
गांधी के नाम पर स्वच्छ भारत अभियान चलाने वाले हमारे प्रधानमंत्री महोदय को पहले गांधीवाद का ककहरा सीखना चाहिए। गांधीजी खुद के घर की सफाई खुद करने पर बल देते थे, ताकि सफाई कर्म से किसी जातिविशेष को जोड़ना और फिर उसका अपमान करना बंद हो सके। लेकिन प्रधानमंत्री के पूर्र्व के एक बयान से तो यह साफ पता चलता है कि उन्हें दलित सफाईकर्मी की पीड़ा का अहसास तक नहीं है। वे तो सफाई कर्म में दलित की आनंदानुभूति की बातें करते हैं। गांधीजी तथाकथित आधुनिक शहरी सभ्यता के प्रदूषण और गंदगी के स्थान पर स्वच्छ आत्मनिर्भर ग्रामीण भारत का विकल्प दे रहे थे। गांधीजी बड़े-बड़े नगरों और महानगरों के इसलिए विरोधी रहे क्योंकि ये विशाल मानव अधिवास गंदगी और प्रदूषण के केंद्र बन जाते हैं। एक स्थान पर बड़ी संख्या में लोगों का जमाव कुदरती संतुलन को बिगाड़ देता है। और फिर ऊपर से आधुनिक नगरीय सभ्यता अधिकाधिक उपभोग और इस्तेमाल करो और फेंको (यूज ऐंड थ्रो) के दर्शन पर टिकी हुई है।
निजी स्वार्थ तक सीमित रहने वाली नगरीय सभ्यता को इससे कोई मतलब नहीं कि उपयोग के बाद कूड़े के ढेर बढ़ाने वाली इन उपभोक्ता वस्तुओं से हमारा पर्यावरण कितना ज्यादा नष्ट हो रहा है। अपने घर को चकाचक चमका कर सड़क पर घर का कचरा डाल पड़ोसी के लिए सिरदर्द पैदा करने वाले शहरी लोगों में शेष समाज और प्रकृति के प्रति किसी जबावदेही के दर्शन दीपक लेकर खोजने पर भी नहीं हो पाते। गांधीवाद गंदगी और प्रदूषण की जड़ नगरीय सभ्यता के दर्शन को ही सिरे से खारिज करने में यकीन करता है, न कि एक दिन का सफाई अभियान चला कर ऊपर से लीपापोती करना गांधीवादी सफाई कर्म है। पर हमारे प्रधानमंत्री तो अमेरिका के दिखाए रास्ते पर चल कर ‘स्मार्ट सिटी’ का राग अलापते नहीं थकते।
वाल्मीकि बस्ती से इस अभियान की शुरुआत के और मायने विखंडनवाद के माध्यम से आसानी से समझे जा सकते हैं। ऐसा करने पर प्रधानमंत्री की इस पहल के पीछे छिपे हिंदूवादी पूर्वग्रह भी निकल कर सामने आ जाते हैं। जातीय पवित्रता के झूठे फलसफे में विश्वास करने वाले ब्राह्मणवादी लोग उस जाति पर गंदा रहने और गंदगी फैलाने का आरोप लगाते हैं जो दुनिया भर में सफाई कर्म के लिए जानी जाती है। आपके अवचेतन में सदियों से घर कर रही यही उच्च जातीय मानसिकता आपके चेतन को निर्देशित करती है कि किसी दलित बस्ती से ही आप सफाई कर्म का आगाज करें ताकि आपके इस अहं को भी संतुष्टि मिल सके कि आप तो स्वच्छता के पुजारी हैं, पर दलित ही गंदे हैं। और दलितों की बस्ती से सफाई अभियान चला कर आप कोई मसीहाई काम करने जा रहे हैं। इस सोच में तब्दीली लाने की जरूरत है।
अगर दलित बस्तियां आजादी के छह दशक बाद भी कूड़े-करकट और गंदे पानी की नालियों से बदबदा रही हैं, वहां साफ-सफाई और शुद्ध हवा-पानी का कोई माकूल इंतजाम देखने को नहीं मिलता तो उसके लिए कौन जिम्मेवार है? वे प्रशासक जो शहर की अमीर बस्तियों में साफ-सफाई की चाक-चौबंद व्यवस्था रखते हैं, लेकिन उसी शहर के एक कोने पर आबाद सफाईकर्मियों की बस्ती की ओर मुंह उठा कर देखते भी नहीं। कारण कि ये दलित गरीब हैं जो आपकी पूंजीवादी सरकारों की प्राथमिकता में कभी आते नहीं।
आज उपभोक्तावाद उपभोग के स्तर से नागरिकता परिभाषित कर रहा है, अत: आपके नागरिक समाज में न दलित आ सकते हैं और न उनकी बस्तियों को नितांत मूलभूत नागरिक सुविधाएं प्रदान करना आपकी कार्यसूची का हिस्सा बन सकता है। एक-एक करसरकारी सेवाओं को बंद करके उनका निजीकरण करना आम दलित व्यक्ति के हित में कैसे हो सकता है?
इस संदर्भ में भीष्म साहनी कृत ‘तमस’ के उस प्रसंग को फिर से पढ़ने की जरूरत है जहां शहर के एक मुसलिम मुहल्ले में कुछ उच्च जातीय कांग्रेसी कार्यकर्ता गांधीजी के निर्देश पर तामीरी काम पर निकलते हैं। इनमें से एक कार्यकर्ता मास्टर रामदास दिन की रोशनी में झाड़ू हाथ में ले साफ-सफाई करना अपनी ब्राह्मण जाति की तौहीन बताता है। उसकी हिचकिचाहट और नाराजगी पर एक दूसरा कांग्रेसी शंकर कहता है कि ‘मास्टर जी हमें प्रचार करना है, कौन सचमुच की नालियां साफ करनी हैं।’ कथनी और करनी का यही अंतर कांग्रेसियों को आजाद भारत में गांधीवाद से दूर ले गया है।
आंबेडकर हिंदू कांग्रेसियों की इन दुरंगी नीतियों के चलते ही दलितों के भाग्य का फैसला उनके हाथों में सौंपने को तैयार न थे। 2014 के आम चुनावों में हुई कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय का कारण गांधीवादी आदर्शों का खुला परित्याग ही था। लेकिन जो नया निजाम गद्दी पर बैठा है, वह भी कांग्रेसियों की तरह क्या सिर्फ गांधी के नाम और सफाईकर्मियों की झाड़ू का चुनावी राजनीति में मात्र प्रतीक की तरह इस्तेमाल करेगा? या, इस स्वच्छ भारत अभियान के कुछ सामाजिक निहितार्थ भी निकलेंगे? कथनी और करनी की इस खाई को आंबेडकर ब्राह्मणवाद की मूलभूत चारित्रिक विशेषता बताते थे। गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि कथनी और करनी के इस भेद को दूर करना ही हो सकती है।
-----------------------------
बदलाव का नया अभियान
:Sun, 05 Oct 2014
गांधी जयंती पर शुरू किया गया स्वच्छ भारत अभियान हमारे देश की छवि बदलने में सहायक हो सकता है। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि अभी भारत की छवि एक ऐसे देश की है जहां के नागरिक साफ-सफाई को लेकर घोर लापरवाह हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान के साथ इसी प्रवृत्तिको समाप्त कर लोगों को साफ-सफाई के लिए प्रेरित करने का काम किया है। इस अभियान की जैसी शुरुआत हुई और प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सभी केंद्रीय मंत्रियों और लाखों कर्मचारियों ने साफ-सफाई के काम में जिस तरह अपना हाथ बंटाया उससे यह उम्मीद बंधती है कि भारत ने एक और बदलाव के लिए कमर कस ली है। हालांकि यह आसान काम नहीं है, क्योंकि साफ-सफाई के प्रति आम लोगों का लापरवाह और अनुशासनहीन रवैया हर कहीं नजर आता है। आखिर जब घरों के भीतर भी साफ-सफाई प्राथमिकता में सबसे नीचे आती हो तो यह कल्पना की जा सकती है कि मोदी और उनके सहयोगी जिस स्वच्छ भारत की कल्पना कर रहे हैं उसे साकार करना कितना कठिन है? देश में व्याप्त गंदगी का एक बड़ा कारण यही है कि लोगों को सार्वजनिक स्थलों को गंदा करने में तनिक भी संकोच नहीं होता। हद तो यह है कि हमारे समाज का एक वर्ग साफ-सुथरे स्थानों को भी गंदा करने में संकोच नहीं करता। कई बार तो साफ जगहों पर जानबूझकर गंदगी फैला दी जाती है। दरअसल यह एक प्रकार का मनोविकार है और इस विकार से देश को मुक्त करने के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
साफ-सफाई के प्रति सचेत न रहने की आदत हमें शर्मिदा भी करती है और दुनिया में हंसी का पात्र भी बनाती है। जब भी विदेशी पर्यटक भारत आते हैं तो वे जगह-जगह नजर आने वाली गंदगी देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। कुछ स्थानों को छोड़ दिया जाए तो देश में ऐसे स्थलों को खोजना मुश्किल है जिन्हें सही मायने में साफ-सुथरा कहा जा सके। यह स्थिति धार्मिक और पर्यटन स्थलों की भी है, जिनके बारे में यह अपेक्षा की जाती है कि वहां तनिक भी गंदगी न हो। हमारे शहर अतिक्रमण और ट्रैफिक की समस्याओं के साथ-साथ जगह-जगह घूमते जानवरों, सड़क के किनारे बिखरी पड़ी गंदगी और बजबजाती नालियों के लिए भी जाने जाते हैं। यह स्थिति देश के वातावरण को बुरी तरह प्रदूषित कर रही है।
साफ-सफाई के प्रति भारत के लोग दोहरा रवैया अपनाते हैं। अपने देश में वे साफ-सफाई के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझते, लेकिन जब विदेश जाते हैं तो उन तौर-तरीकों को अपनाने के लिए तैयार रहते हैं जो साफ-सफाई के मामले में वहां आवश्यक हैं। आज कई देश इसलिए प्रगति कर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने स्वच्छता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। दुनिया के अनेक देश भले ही आर्थिक संकट से गुजरे हों, लेकिन वे स्वच्छता के मानक तनिक भी नीचे नहीं होने देते। प्रधानमंत्री ने यह माना है कि देश को साफ-सुथरा बनाना केवल सरकार के वश की बात नहीं है। यह काम तभी हो सकेगा जब देश का प्रत्येक नागरिक साफ-सफाई के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझेगा। इसीलिए प्रधानमंत्री ने प्रत्येक नागरिक से सप्ताह में दो घंटे अपने आसपास की साफ-सफाई में लगाने की अपेक्षा करते हुए उन्हें शपथ दिलाई है कि वे न खुद गंदगी करेंगे और न ही अन्य किसी को करने देंगे। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने स्वच्छ भारत अभियान के तहत गांवों में शौचालयों के निर्माण के साथ-साथ सफाई व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य करने का संकल्प जताया है।
एक आंकड़े के अनुसार गांवों में करीब 60 प्रतिशत आबादी आज भी खुले में शौच के लिए विवश है। शौचलयों का निर्माण इसलिए आवश्यक है, क्योंकि खुले में शौच डायरिया, हैजे सरीखी बीमारियों का कारण बनता है। एक अनुमान के तहत भारत में प्रतिदिन एक हजार बच्चे अकेले डायरिया से मरते हैं। डायरिया का मूल कारण खुले में शौच, साफ-सफाई को लेकर लापरवाही ही है। अपने देश में 11 करोड़ से अधिक शौचालयों की आवश्यकता है। यह कठिन लक्ष्य है। इसी तरह कचरे का निस्तारण भी एक कठिन काम है। इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ-साथ आधुनिक तकनीक की भी आवश्यकता है। गंदगी के लिए नागरिकों को जिम्मेदार ठहराने के बावजूद इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सरकारें सीवर और नालों के निर्माण के मामले में अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने में नाकाम हैं। केंद्रीय सत्ता और राज्य सरकारों को मिलकर कोई ऐसा तंत्र बनाना होगा जिससे सीवर और नालों के निर्माण के साथ-साथ कूड़े-कचरे का हानिरहित निस्तारण भी हो सके। आम आदमी से यह ठीक अपेक्षा की जा रही है कि वह अपने घर और आसपास को साफ-सुथरा रखे, लेकिन उसे यह भी बताना होगा कि कूड़े को फेंका कहा जाए। यह निराशाजनक है कि राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय कूड़े के निस्तारण की भी व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं। यह तब है जब कूड़े से ऊर्जा अथवा खाद बनाने की तकनीक उपलब्ध है। इस तकनीक को सही तरह इस्तेमाल न करके हम गंदगी भी बढ़ा रहे हैं और एक औद्योगिक गतिविधि से भी वंचित हो रहे हैं।
प्रधानमंत्री जिस तरह गंदगी से निजात को आर्थिक उत्थान से जोड़ रहे हैं उसे समझने की आवश्यकता है। गंदगी से मुक्ति हमें आर्थिक तौर पर सक्षम भी बनाएगी। विश्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार अगर साफ-सफाई पर एक डॉलर खर्च किया जाए तो सेहत, शिक्षा आदि पर खर्च होने वाले नौ डालर बचाए जा सकते हैं। गंदगी के संदर्भ में इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारत एक गरीब देश है, क्योंकि स्वच्छता एक संस्कार है। इसका अमीरी-गरीबी से कोई संबंध नहीं। गंदगी न केवल हमारी प्रतिष्ठा को प्रभावित कर रही है, बल्कि थोक के भाव बीमारियां भी बांट रही है। इन बीमारियों के उपचार पर भारी-भरकम धन खर्च होता है। एक तरह से गंदगी आर्थिक तौर पर भी हमारी कमर तोड़ने का काम करती है। साफ-सफाई हो तो लोग बीमारियों से भी बचेंगे और स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च भी कम होगा। हालांकि हर कोई इससे परिचित हैं कि हर तरफ फैली गंदगी के कारण बीमारियों का जो प्रकोप फैलता है वह जीवनचर्या को महंगा बनाने का ही काम करता, फिर भी स्वच्छता के प्रति सतर्कता नहीं। जिस देश में बीमारियों का बोलबाला हो वह आर्थिक तौर पर कभी उन्नत नहीं हो सकता। नि:संदेह देश ने हर क्षेत्र में प्रगति की है। विज्ञान के क्षेत्र में हमने कई चमत्कार कर दिखाए हैं, लेकिन सीवर और नालों जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा सका है। जो नाले अथवा सीवर बने भी हैं वे गंदगी साफ करने में सहायक नहीं बन रहे हैं। नदियों के किनारे बने सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र सही तरह काम नहीं कर रहे हैं। अगर आजादी के बाद से ही साफ-सफाई के प्रति संकल्प दिखाया गया होता और सीवेज की उपयुक्त व्यवस्था की जाती तो आज गंदगी इतनी बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने नहीं होती।
स्वच्छ भारत अभियान के समक्ष मौजूद चुनौतियों को पूरा करने के लिए नागरिकों को भी आगे आना पड़ेगा। सरकार ऐसी रणनीति बना सकती है जिससे नागरिकों के श्रमदान से सफाई के उद्देश्य का बड़ा हिस्सा पूरा किया जा सके। एक बार नागरिकों में गंदगी न फैलाने और अपने आसपास के कूड़े-कचरे को साफ करने की आदत पड़ गई तो अगले चरण में स्वयंसेवी संगठनों की मदद लेकर स्वच्छ भारत की दिशा में कदम बढ़ाए जा सकते हैं। मोदी सरकार का यह अभियान सही ढंग से आगे बढ़े, यह सभी की जिम्मेदारी बन सके तो हम 2019 तक भारत की तस्वीर भी बदल सकते हैं और छवि भी।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]
--------------------------------
समाज स्वच्छता की शत्रु सवर्णता
समाज
यह दो अक्तूबर निसंदेह भिन्न रहा। भिन्न इस अर्थ में कि अपने सतत कर्मरत प्रधानमंत्री ने इसे जबर्दस्त तरीके से घटनापूर्ण बना दिया। तय कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने अपने हाथ में लंबी बांस वाली झाड़ू पकड़ी और अपने हिस्से की निर्धारित जगह पर कूड़ा बुहारना शुरू कर दिया। उनकी बुहारी हुई जगह सीमित और संकेतात्मक भले रही हो मगर मीडिया ने इसे असीमित और सार्वजनीन बना दिया। गांधी का जन्मदिन देखते ही देखते ‘स्वच्छ भारत अभियान’ दिवस में बदल गया। बड़े-बड़े मुख्यमंत्री, नेतागण, ठसक वाले अधिकारीगण, विविद्यालयों के कुलपति, प्राध्यापक, फिल्मों से जुड़े दिग्गज, स्वयंसेवी और सामाजिक- सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े लोग, नागर समाज के भद्र लोग आदि सभी यहां- वहां गंदगी बुहारते हुए कैमरे में कैद हुए। सबने वक्तव्य दिए कि देश को अब एक कदम स्वच्छता की ओर बढ़ाने की सख्त जरूरत है। प्रधानमंत्री ने कहा कि बापू अपने चिरविख्यात चश्मे से झांक रहे हैं, पूछ रहे हैं कि आखिर तुमने क्या किया। प्रधानमंत्री की भावभंगिमा से लगा कि बापू की 150वीं जयंती पर 2019 में वह बापू को सचमुच स्वच्छ भारत की श्रद्धांजलि देना चाहते हैं। जिस तरह बापू की नीयत पर संदेह करने का कोई कारण नहीं था कि वह भारत के सभी नागरिकों को स्वयं-स्वच्छताकर्मी के तौर पर देखना चाहते थे, इसी तरह अपने वर्तमान प्रधानमंत्री की नीयत पर भी संदेह करने का कोई कारण नहीं है कि वह भारत को सचमुच स्वच्छ देखना चाहते हैं। बापू ने बहुत पहले एक स्वच्छ भारत का सपना देखा था लेकिन यह सपना आज तक पूरा नहीं हुआ। इसीलिए आज के प्रधानमंत्री को आज फिर एक स्वच्छ भारत का सपना देखना पड़ा। अब देखना यह है कि यह सपना बापू के सपने की तरह अधूरा ही रह जाएगा या पूरा होने की ओर सचमुच एक कदम बढ़ा लेगा। यह वह शंका है जो मेरे मन में पर्याप्त जगह घेरे हुए है और इधर मीडिया में भी पर्याप्त जगह घेरे हुए दिखाई दी है। सबके मन में सवाल यही है कि इस दो अक्टूबर को गंदगी के विरुद्ध जिस स्वच्छता अभियान की औपचारिक शुरुआत की गई है वह अभियान सचमुच आगे बढ़ेगा या मात्र एक समारोही औपचारिकता बन कर रह जाएगा। ऐसे अभियान कई महानुभावों ने पहले भी कई बार शुरू किए थे लेकिन वे सिरे नहीं चढ़ सके। परंतु इस बार स्वयं एक कर्मठ प्रधानमंत्री ने इसकी शुरुआत की है इसलिए शंका के साथ-साथ लोगों को संभावनाएं भी नजर आ रही हैं। यहां मेरा मन शंकालु ज्यादा है। मैंने अपने पिछले लेख में भी यह शंका व्यक्त की थी, यहां फिर वही व्यक्त कर रहा हूं। भारतीय समाज वस्तुत: सवर्णतावादी संस्कारों और मूल्यों वाला समाज है जिसमें हीनश्रम अत्यधिक हेय माना जाता है। सवर्ण वह है जो श्रम न करे। सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च सवर्ण वह है जो बिल्कुल भी श्रम न करे और उसकी एवज में उसकी की गई गंदगी का सारा निस्तारण कोई और करे यानी कोई अवर्ण करें। यह सवर्णतावादी मानसिकता इतनी प्रबल रही है कि जब आरक्षण जैसी व्यवस्था के माध्यम से कथित अवर्णों के उद्धार की कल्पना की गई तो इसमें भी परोक्ष तौर पर यह निहित कर दिया गया कि दलितों-पिछड़ों को इस योग्य बना दो कि उन्हें हीनश्रम न करना पड़े। इस दो अक्तूबर को मीडियावालों ने प्रधानमंत्री की झाड़ू स्थली दिल्ली की बाल्मीकि बस्ती के लोगों से बात की तो सभी एक स्वर में यह कहते सुने गए कि वे सबके सब उस काम से बाहर निकलना चाहते हैं जो वे कर रहे हैं। यानी वे सड़कें, बस्तियां, नाली, सीवर साफ नहीं करना चाहते बल्कि अपने तई ऐसा काम चाहते हैं जिसके चलते उन्हें यह सब न करना पड़े। यानी वे सबके सब सवर्ण बनना चाहते हैं। हमें दरअसल बहुत पहले ही यह तय करना चाहिए था कि एक स्वस्थ और स्वच्छ समाज के लिए अवर्णता ज्यादा जरूरी है या सवर्णता। समाज के सर्वागीण विकास में अवर्णता बड़ी बाधा है या सवर्णता। समाज की स्वस्थ जिंदगी के लिए सवर्णता अनिवार्य है या अवर्णता। इन सवालों के सीधे और सरल उत्तर हैं कि समाज की जिंदगी के लिए अवर्णता एक ठोस शर्त है और सवर्णता एक निहायत ही खोखली शर्त। अवर्णता, जिससे हीनश्रम जुड़ा हुआ है, वह किसी भी स्वस्थ समाज की जीवन नाल है। समाज सवर्णता के बिना रह सकता है, अवर्णता के बिना नहीं। अवर्णता अनिवार्य कर्तव्य है, जबकि सवर्णता एक दंभपूर्ण पाखंड। चीन के शहर आज दुनिया के स्वच्छतम शहरों में गिने जाते हैं तो उसका कारण यह है कि उसने अपनी सांस्कृतिक क्रांति के दौरान कथित सवर्णो को अवर्ण बनाने का काम व्यापक तौर पर शुरू किया था। सफेदपोशों के हाथ में अनिवार्यत: झाड़ू थमा दी थी। हीनश्रम को वैयक्तिक व्यवहार का हिस्सा बना दिया था। कहने की जरूरत नहीं है कि हमारे यहां उलटी प्रक्रिया शुरू की गई थी जिसे आज पूरी तरह उलटने की जरूरत है। इसे उलटने की जरूरत इसलिए है कि इसे संस्कृति और संस्कार के तौर पर उलटे बिना भारत स्वच्छ नहीं हो सकता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अवर्णतावादी संस्कृति की स्थापना के लिए वह प्रतीकात्मकता भी जरूरी है जो इस दो अक्टूबर को प्रदर्शित हुई और जिसके अंतर्गत तमाम सवर्ण हाथ में झाड़ू लिए सफाई करते नजर आए। इससे एक छोटा-सा संदेश तो प्रचारित हुआ ही कि शारीरिक श्रम हेय नहीं है। परंतु इतना भर ही पर्याप्त नहीं है। प्रसंगवश संकेत करना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री की प्रतीकात्मकता में तमाम तबकों के लोग शामिल हुए, लेकिन वे बाबा, गुरु, संत, महंत, स्वामी और बापू लोग शामिल नहीं हुए जो सवर्णता और सवर्ण संस्कृति के ध्वजवाहक हैं और माने जाते हैं। सवर्णतावादी श्रम विरोधी संस्कृति के विरुद्ध स्वच्छतावादी श्रम साधक संस्कृति की स्थापना के लिए इनके हाथ में झाड़ू थमाना बेहद जरूरी है। जब तक इनके हाथ में झाडू नहीं आएगी, भारत स्वच्छ नहीं होगा। अगर प्रधानमंत्री स्वच्छ भारत के लिए सचमुच चिंतित हैं तो उन्हें स्वच्छता की प्रतीक अवर्णतावादी संस्कृति की स्थापना पर गंभीरता से सोचना चाहिए और हर उस प्रयास को सचेतन तौर पर बढ़ावा देना चाहिए जो सवर्णतावादी मानसिकता, व्यवहार और संस्कृति पर चोट करने वाला है।
--------------------------
दाग मिटाने की कोशिश
Wed, 08 Oct 2014
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वच्छता अभियान एक सराहनीय व सामयिक कदम है। यह आज हमारी देश की पहली आवश्यकताओं में से एक है। आप देश के किसी भी गली-कूचे में चले जाएं तो आपको कूड़े का ढेर ही मिलेगा। कण-कण में भगवान वाले देश में अब कूड़े ने जगह ले ली है। प्रधानमंत्री की यह पहल शोर-शराबे के साथ शुरू अवश्य हुई हो, पर इसके स्थायित्व को लेकर नए प्रश्न साथ में खड़े हैं। प्रधानमंत्री ने इसे हर तरह से दिशा देने की कोशिश की है और बड़े सितारों को भी प्रचार अभियान से जोड़ा है। इसका कुछ न कुछ फायदा जरूर होगा, पर यह वर्तमान हालात में नाकाफी है, क्योंकि कूड़े की जड़ का कारण हर घर में है। इस आंदोलन को बड़े गाजे-बाजे के साथ खड़ा नहीं किया जा सकता और न ही प्रचार काफी होगा।
समस्या यह है कि हमारे देश में नैतिक मूल्य सिरे से गायब हैं। अपने में परेशान हर व्यक्ति कूडे़ की एक और परेशानी का बोझ उठाना ही नहीं चाहता। लोग सोच सकते हैं कि इसके लिए व्यवस्थाएं सरकार के पास होनी चाहिए, क्योंकि वे टैक्स जो देते हैं। संभवत: हमारे यहां देश के प्रति श्रद्वा की कोई जगह नहीं है। मोदी अपने पद का सदुपयोग कर एक बड़ा आह्वान जरूर कर रहे हैं, लेकिन हर कोई यह देखना चाहेगा कि यह आवाज कितनी दूर जाएगी? हाथ में झाड़ू और सिर में पी कैप के साथ बड़ी भीड़ एकाध बार जरूर जुट जाएगी, लेकिन चंद रोज बाद क्या होगा? स्वच्छ भारत अभियान की सफलता के लिए बड़े और कड़े कदमों की आवश्यकता पड़ेगी। वैसे तो पश्चिमी सभ्यता से हमने बहुत कुछ लिया है फिर वह चाहे लिबास हो या भोजन, लेकिन एक और बड़ा और अच्छा हिस्सा इस सभ्यता में था, जिसकी तरफ हमने झांका तक नहीं। आप यूरोप में कहीं भी जाएं, वहां हर व्यक्ति सफाई के नैतिक दायित्व से जुड़ा है। अब वहां चॉकलेट, टॉफी, केले खाकर छिलके फेंकना बड़ा अपराध माना जाता है। बच्चे हों या बड़े, इस शिक्षा का असर समान रूप से दिखता है। हमारे देश में भी जब विदेशी सैलानी आते हैं तो वे अपने कचरे को अपने बैग में ही रखते हैं और उपयुक्त जगह ढूंढ़कर उससे मुक्त होते हैं। यह बात अलग है कि हमारे देश में हर जगह कूड़े के लिए उपयुक्त हो चुकी है, कहीं भी कुछ भी फेंका जा सकता है। यदि छोटे से देश श्रीलंका की ही बात करें तो वहां सरकार के साथ-साथ हर व्यक्ति सफाई के प्रति गंभीर दिखता है। यहां बात मात्र नैतिक मूल्यों की नहीं है, बल्कि एक ठोस व्यवस्था की भी है। हमने सफाई कर्मचारियों के भरोसे सारी व्यवस्था को छोड़ रखा है और इसके साथ ही खुद कूड़े के प्रति अपने व्यक्तिगत दायित्वों से मुक्त हो गए हैं। एक बार घर का कूड़ा बाहर फेंक दिया तो फिर सरकार ही जाने कि वह कैसे और कहां जाएगा।
इस मामले में हमें पश्चिमी देशों से सीख लेनी चाहिए, क्योंकि हमारे देश में नई भोगवादी सभ्यता उन्हीं की देन है, जिसने कूड़े की ऐसी समस्या को जन्म दिया है। जब हमने उनसे सीखकर भोगवादी व्यवस्था अपना ही ली है तो उसके प्रबंधन की बातें भी उन्हीं से सीखते तो अच्छा होता। आप जिधर भी जाएं स्विट्जरलैंड हो या नार्वे, इन सभी देशों में कूड़े के प्रति नैतिकता घर से ही शुरू हो जाती है। वहां कूडे़ को नियमित तरीके से ठिकाने लगाने की ठोस नीतियां और कानून हैं। घर के बाहर जैविक और अजैविक कचरों के लिए प्रबंध किया गया है। इतना ही नहीं यह फिर से उपयोग में आ सकें ऐसी तकनीकों की भी व्यवस्था है। वहां हर तरह के कचरे को आर्थिकी से जोड़ दिया जाता है। मसलन अगर वह जैविक कचरा है तो उसे खाद व ऊर्जा के लिए उपयोग में लाया जाता है, जबकि अजैविक कचरे को अन्य उद्योगों के साथ जोड़कर उपयोगी उत्पाद तैयार किए जाते हैं। मतलब साफ है कि कूड़ा पैसा कमाने के धंधे में परिवर्तित कर दिया गया है। वहां हर तरह के कचरे को संसाधन का दर्जा मिला है और उसे रोजगारपरक बनाया गया है। हमारे यहां कूड़ा उठाने के अलावा उसके उपयोग की अन्य कोई स्थायी योजना नहीं है, जिसे आर्थिक रूप से सफल कहा जाए। वैसे अपने देश में कई जगहों पर ऐसे प्रयोग हुए हैं और इसे रोजगार में बदलने की कोशिश की गई है। पुणे की एक संस्था इनोरा ने शहरी महिलाओं को घर के कचरे से जोड़कर टेरेस गार्डन तैयार किए हैं जिसमें सब्जियां उगती हैं। इसी तरह शहर के कचरे को नगर निगम ने खाद बनाने व बायोगैस के लिए उपयोग में लाने की कोशिश की। सब कुछ ठीक-ठाक है, पर ठेकेदार खुश नहीं, क्योंकि उसे ये लाभकारी नहीं दिखाई देता। दरअसल इसके लिए उत्पाद के खरीदार की उचित व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में अपार कूड़े को एक बड़े संसाधन के रूप में देखने की आवश्यकता है। इसके बड़े और विभिन्न तरह के उपयोग की संभावनाएं हैं। नए-नए शोध और उपयोग की संभावना को लेकर देश में कूड़े को संसाधन की दृष्टि से देखें और उसमें उपयुक्त मूल्यवृद्धि की जाए तो बात बन सकती है।
सरकार अगर गंभीर है तो समस्या व कूड़े के आकार को देखकर एक छोटा सा मंत्रालय बना सकती है। इसका एकसूत्रीय दायित्व व कार्य कूड़े-कचरे से रोजगारों का सृजन करना होना चाहिए। आज भी देश में कूड़ा-कचरा उठाने वाले करोड़ों से कम नहीं, जिन्होंने कुछ तो किया ही है और सच तो यह है कि वे ही इस पहल के अंबेसडर भी हैं। इन पर केंद्रित और अन्य जुड़े हुए पहलुओं पर कार्य करने के लिए सरकार को एक बड़ी व संगठित पहल करनी होगी। यह पहल विभाग या मंत्रालय के रूप में हो तभी शायद हम एक स्वच्छ भारत बना पाएंगे, वरना इस अभियान को भी पी कैप व झाड़ू फैशन की तरह ही सफाई पर्व के रूप में समझा जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी की इस भावना को अमलीजामा पहनाने के लिए भावुकता के साथ-साथ व्यावहारिकता की अधिक आवश्यकता है। ऐसा होने पर ही हम साफ दिल से सच्ची पहल कर सकेंगे और स्वच्छ देश का निर्माण कर पाएंगे।
[लेखक डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, जाने-माने पर्यावरणविद् हैं]
------------------------
सफाई की सही राह
Tue, 14 Oct 2014
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चलाए गए सफाई अभियान का स्वागत किया ही जाना चाहिए। मगर यह अभियान तब तक सफल नहीं होगा जब तक नगरपालिका की कूड़ा निस्तारण व्यवस्था दुरुस्त नहीं होगी। सड़क पर झाड़ू लगाकर कूड़े को किनारे करने का लाभ तब ही है जब किनारे से उसे हटा लिया जाए। हटाया नहीं गया तो कूड़ा पुन: सड़क पर फैल ही जाएगा। हाल ही में ट्रेन में सफर करने का मौका मिला। स्लीपर कोच का कूड़ेदान भरा हुआ था। प्लेटफार्म पर कूड़ेदान नहीं था, मजबूरन कूड़े को बाहर फेंकना पड़ा। यदि हर केबिन में कूड़ेदान होता और उसकी नियमित रूप से सफाई होती तो उसे बाहर नहीं फेंकना पड़ता।
इस दिशा में आंध्र प्रदेश की बाब्बिली नगरपालिका के प्रयास सराहनीय हैं। यहां घर से दो प्रकार का कूड़ा अलग-अलग एकत्रित किया जाता है। किचन से निकले गीले कूड़े को पहले एक पार्क में निर्धारित स्थान पर पशुओं के खाने के लिए रख दिया जाता है। बत्ताख द्वारा मछली, सुअर द्वारा किचन वेस्ट तथा कुत्तो द्वारा मीट को खा लिया जाता है। शेष को कम्पोस्ट करके खाद के रूप में बेच दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक तथा मेटल को छांटकर कंपनियों को बेच दिया जाता है जहां इन्हें रिसाइकिल कर दिया जाता है। जो थोड़ा-बहुत बच जाता है उसे लैंडफिल में डाल दिया जाता है। आंध्र की ही सूर्यापेट नगरपालिका एक कदम और आगे है। यहां किराना दुकानों, मीट विक्रेताओं तथा होटलों द्वारा क्रेताओं को अपना थैला लाने पर एक से पांच रुपये की छूट दी जाती है। इन शहरों की सड़कें आज पूरी तरह साफ हैं। यहां झाड़ू लगाने की जरूरत कम ही है, क्योंकि नगरपालिका अपना काम कर रही है।
जो कूड़ा कंपोस्ट अथवा रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है उसे लैंडफिल में डाल दिया जाता है या फिर जलाकर इससे बिजली उत्पन्न की जाती है। लैंडफिल के लिए जगह ढूंढ़ना कठिन होता है, क्योंकि कोई मोहल्ला अपने आसपास कूड़े का ढेर नहीं देखना चाहता है। मेरे एक जानकार को गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके में एक फ्लैट पसंद आया, किंतु उन्होंने उसे नहीं खरीदा। कारण कि उसके सामने विशाल लैंडफिल था, जिस पर हजारों चीलें मंडराती रहती थीं।
कूड़े को जलाने की अलग समस्या है। दिल्ली के ओखला में 1700 टन कूड़ा जलाकर 18 मेगावाट बिजली प्रतिदिन बनाई जा रही है, लेकिन स्थानीय लोग इससे खुश नहीं हैं। कूड़ा जलाने से जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है। जहरीली राख उड़कर घरों पर गिरती है। लोगों ने नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल में इस बिजली कंपनी के विरुद्ध याचिका दायर कर रखी है। जो कूड़ा रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है वह मुख्यत: दो तरह का होता है। चाकलेट रैपर तथा आलू चिप्स के पैकेट प्लास्टिक तथा मेटल को आपस में फ्यूज करके बनाए गए हैं। इन्हें प्लास्टिक की तरह रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इनमें मेटल होता है और मेटल की तरह गलाया नहीं जा सकता है, क्योंकि इनमें प्लास्टिक होता है। इसी तरह अकसर कागज के डिब्बों को ऊपर से प्लास्टिक से लैमिनेट कर दिया जाता है। कुछ समय पूर्व मैं एक गत्ता फैक्ट्री चलाता था। फैक्ट्री के लिए सड़क से उठाए गए कागज के कूड़े को कच्चे माल के तौर पर खरीदा जाता था। कई मजदूर लगाकर इस कूड़े में से लैमिनेटेड कागज की छंटाई करते थे और इसे बॉयलर की फर्नेस में जलाया जाता था। कारण कि यह मशीन को जाम कर देता था। इस प्रकार के कूड़े का उत्पादन ही बंद कर दिया जाना चाहिए। तब प्लास्टिक, मेटल और कागज को अलग-अलग रिसाइकिल किया जा सकेगा। तभी सौ प्रतिशत कूड़े का निस्तारण किया जा सकता है। इसे जलाकर जहरीली गैसों को वायुमंडल में छोड़ने अथवा लैंडफिल बनाने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। न्यू एंड रिन्यूएबल एनर्जी मंत्रालय को यह रास्ता पसंद नहीं है। इनका ध्यान बिजली के उत्तारोत्तार अधिक उत्पादन मात्र पर केंद्रित है। यदि पूरा कूड़ा रिसाइकिल हो जाएगा तो बिजली का निर्माण नहीं हो पाएगा। वर्तमान में कूड़े से बिजली बनाने पर मंत्रालय द्वारा 10 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट की सब्सिडी दी जा रही है। कूड़ा सौ प्रतिशत रिसाइकिल हो जाएगा तो मंत्रालय का यह धंधा ठप पड़ जाएगा। यूं समझिए कि यह सब्सिडी कूड़े को रिसाइकिल करने के लिए नहीं दी जा रही है।
नगरपालिकाओं की समस्या वित्ताीय है। दो तरह के कूड़े को अलग-अलग एकत्रित करने, छांटने और कंपोस्ट बनाने में खर्च ज्यादा आता है। कंपोस्ट और छंटे माल की बिक्री से आमदनी कम होती है। बाब्बिली नगरपालिका द्वारा कूड़े के निस्तारण पर किए गए खर्च का मात्र 13 प्रतिशत इन माल की बिक्री से अर्जित किया जा रहा है। सूर्यापेट का इन मदों पर वार्षिक खर्च 418 लाख है, जबकि आमदनी मात्र सात लाख रुपये है। अर्थ हुआ कि कूड़े का पूर्णतया पुन: उपयोग तब ही संभव है जब नगरपालिकाओं को वित्ताीय मदद दी जाए। विषय केवल सफाई का नहीं है। कूड़े के सफल निस्तारण से जनता का स्वास्थ्य सुधरेगा। नगरपालिका कर्मियों द्वारा कूड़े को न हटाने और नालियों को साफ न करने से मच्छर पैदा होते हैं। मलेरिया तथा डेंगू जैसे रोगों का विस्तार होता है। कूड़े के निस्तारण से हमारे शहर सुंदर हो जाएंगे और विदेशी पर्यटक ज्यादा संख्या में आएंगे। फुटपाथ कूड़ा रहित होने से लोग फुटपाथ पर चलेंगे और रोड एक्सीडेंट कम होंगे। इन लाभों का आकलन किया जाए तो सरकार द्वारा स्वच्छ नगरपालिका के लिए सब्सिडी देना आर्थिक दृष्टि से भी उचित होगा।
अंतिम विषय कूड़ा बीनने वालों का है। आपने देखा होगा कि सड़क अथवा रेल पटरी के किनारे से लोग कूड़ा बीन कर बड़े झोले में भरकर कबाड़ियों को बेचते हैं। समस्या है कि इनके लिए खास किस्म के कूड़े को उठाना ही लाभदायक होता है। शेष कूड़े को वहीं छोड़ दिया जाता है यद्यपि इसे भी रिसाइकिल किया जा सकता है। इस दिशा में पुणे शहर हमारा मार्गदर्शन करता है। वहां कूड़ा बीनने वाले से छांटा हुआ संपूर्ण कूड़ा खरीद लिया जाता है। इनके द्वारा सड़कों, घरों तथा आफिसों से अधिकतर कूड़ा उठा लिया जाता है। शहर स्वयं साफ हो जाता है। देश को स्वच्छ बनाने के लिए कुछ विशेष कदम उठाने होंगे। पहला कि नगरपालिकाओं द्वारा कूड़ा कर्मियों पर सख्ती की जाए और इनके कार्य की ऑडिट हो। दूसरा, सभी ऐसे पैकिंग के सामान का उत्पादन बंद कर दिया जाए जिन्हें रिसाइकिल न किया जा सके। तीसरा नगरपालिकाओं को 100 प्रतिशत कूड़े को रिसाइकिल करने के लिए इंसेंटिव दिया जाए। चौथा, कूड़ा बीनने वालों के कल्याण एवं सम्मान के लिए इनके द्वारा एकत्रित संपूर्ण कूड़े को खरीदने की व्यवस्था की जाए। इन बुनियादी व्यवस्थाओं को स्थापित करने के बाद ही सड़क पर झाड़ू लगाना सार्थक होगा।
[लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
------------------------------
इच्छाशक्ति की कमी
Sun, 19 Oct 2014
दिल्ली में सफाई के लिए जिम्मेदार लोगों में इच्छाशक्ति की कमी का ही परिणाम है कि स्वच्छ भारत अभियान का राजधानी में कहीं भी उल्लेखनीय असर नहीं दिखाई दे रहा है। दिल्ली के तीनों नगर निगमों के तहत आने वाले इलाकों में यहां-वहां गंदगी आसानी से देखी जा सकती है, वहीं तमाम अति प्रमुख लोगों की रिहायश वाले नई दिल्ली नगर पालिका परिषद इलाके में भी सफाई का बुरा हाल है। एनडीएमसी और तीनों नगर निगमों का दावा है कि अभियान शुरू होने के बाद से उनके द्वारा प्रतिदिन उठाए जा रहे कूड़े की मात्रा में वृद्धि हुई है। एनडीएमसी 25 मीट्रिक टन, उत्तरी दिल्ली नगर निगम 700 मीट्रिक टन, दक्षिणी दिल्ली नगर निगम 900 मीट्रिक टन और पूर्वी दिल्ली नगर निगम 500 मीट्रिक टन अधिक कूड़ा उठाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन लुटियंस जोन में सांसदों की कोठियों के बाहर से लेकर नगर निगम मुख्यालय और राजधानी के प्रमुख बाजारों में गंदगी का साम्राज्य पूर्व की तरह व्याप्त है।
यह सही है कि राजनीतिक स्तर पर गंभीरता प्रदर्शित करने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन ये प्रयास जमीनी न होकर औपचारिक अधिक नजर आ रहे हैं। दिल्ली में सफाई के लिए जिम्मेदार एजेंसियों व संबंधित लोगों से अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह स्वच्छ भारत अभियान को गंभीरता से अपनाकर अन्य राज्यों व शहरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करें लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव और लापरवाह रवैये के कारण यह अत्यंत आवश्यक अभियान उदासीनता का शिकार हो रहा है। एनडीएमसी और नगर निगमों में अभियान को लेकर कोई विशेष उत्साह नहीं नजर आ रहा है जिसके परिणाम सामने हैं। इस अभियान के प्रति राजधानी में गंभीरता दिखाया जाना अत्यंत आवश्यक है। यह न सिर्फ लोगों को रहने योग्य स्वस्थ माहौल उपलब्ध कराएगा, बल्कि इससे गंदगी के कारण होने वाली बीमारियां भी अपेक्षाकृत कम होंगी। सरकारी एजेंसियों को पूरे उत्साह और इच्छाशक्ति के साथ इस कार्य में जुटना चाहिए और दिल्लीवासियों को उनका हरसंभव सहयोग करना चाहिए। यह सही है कि सफाई का दायित्व सरकारी एजेंसियों का है लेकिन दिल्लीवासियों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे अपने आस-पड़ोस को स्वच्छ रखें और स्वच्छता के इस अभियान को पूरी शक्ति के साथ आगे बढ़ाएं।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]
------------------
अभियान का मान
Tue, 21 Oct 2014
गांधी जयंती पर देशभर में शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान में हिमाचल प्रदेश के लोगों ने भी खूब उत्साह दिखा। स्वच्छता की शपथ खाई गई व कई स्थानों पर सफाई की गई। नतीजा पहाड़ स्वच्छ दिखने लगे, आबोहवा में ताजगी का आभास हुआ। लेकिन यह जागरूकता कुछ दिनों की मेहमान बनकर ही रह गई। अभियान की सफलता के लिए प्रदेश के लोगों ने कुछ कदम तो बढ़ाए, लेकिन अब पलटकर फिर से वहीं पहुंचने लगे हैं, जहां से शुरुआत की थी। स्वच्छता के लिए ली गई शपथ शिथिल पड़ने लगी है और जागरूकता हवा हो गई। कुछ दिन बीतने के साथ ही अभियान की गति मंद पड़ी प्रतीत होती है। पहले की तरह कूड़े के ढेर दिखना आम बात है। बात चाहे राजधानी शिमला की हो या प्रदेश के अन्य स्थानों की, लोग संकल्प भूलते जा रहे हैं। स्वच्छता का अर्थ यह नहीं कि लोग सारे काम छोड़कर झाड़ू पकड़कर रोज गलियों की सफाई करें। जरूरत सिर्फ इतनी है कि छोटी-छोटी बातों का ध्यान रख स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाए। इसका अर्थ है तन एवं मन से स्वच्छता को आत्मसात करना। गंदगी देखकर उसे अनदेखा करने की आदत छोड़नी होगी। जिस तरह घर को सुंदर स्वच्छ बनाने के लिए प्रयास किए जाते हैं, वैसे ही प्रयास घर से बाहर भी होने चाहिए। यह भी जरूरी है कि लोगों को भी इसके लिए जागरूक करें ताकि वे गंदगी फैलाने से बचें। अकेला व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता। सामूहिक प्रयासों से ही बड़े मोर्चो पर विजय पाई जा सकती है। ऐसा नहीं कि सब कुछ गलत ही हुआ है। कई जगह लोग जागे है तो कहीं बच्चों ने बड़ों को जगाने का बीड़ा उठाया है। शिमला के चिल्ड्रन क्लब के बच्चे उन बड़ों के लिए सबक हैं, जो सब कुछ जानते हुए भी अंजान बनते हैं। कई अन्य संगठनों ने भी समाज को आईना दिखाने के लिए प्रयास किए हैं। यह समझना होगा कि समाज व अपनों के स्वस्थ व बेहतर कल के लिए सबको सफाई को आदत बनाना होगा। बेहतर होगा कि सभी मन से संकल्प लेकर स्वच्छता अभियान में जी-जान से जुट जाएं ताकि महात्मा गांधी का देखा स्वच्छ भारत का सपना पूरा करने में योगदान दे सकें। हमारे सामूहिक प्रयास से अगर दूसरे देशों के लोगों की भारत की छवि के बारे में बदलाव भी आता है तो यह बड़ी कामयाबी होगी। अगर ऐसा हो जाए तो यह बापू को प्रदेश की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
[स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश]
-----------------------
जनभागीदारी जरूरी
Sat, 04 Oct 2014
दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू किए गए स्वच्छता अभियान की सार्थकता डॉक्टरों ने यह कह कर साबित कर दी है कि यदि लोग साफ-सफाई के प्रति सचेत हो जाएं तो मरीजों की संख्या में 50 फीसद तक की कमी लाई जा सकती है। इसकी वजह यह है कि एनीमिया, हैजा, कालरा, हेपेटाइटिस आदि 15 बीमारियां गंदगी के कारण ही फैलती हैं।
गंदगी के कारण ही मच्छर पैदा होते हैं जिनसे डेंगू और मलेरिया आदि का प्रकोप होता है। राजधानी में भी गंदगी एक बड़ी समस्या है। नई दिल्ली और शहर के पॉश इलाकों को छोड़ दें तो राजधानी के अन्य इलाकों में साफ-सफाई की बेहद कमी है। दिल्ली में करीब 1600 अनधिकृत कॉलोनियां हैं। इनमें बुनियादी नागरिक सुविधाओं का सख्त अभाव है। सीवर का कचरा घर के सामने बने नालों से बहता है और चारों ओर गंदगी का आलम है।
सरकारी एजेंसियों की ओर से भी इन इलाकों में स्वच्छता को लेकर लापरवाही ही देखी जाती है। सैकड़ों की संख्या में मौजूद झुग्गी-झोपड़ियों की हालत बेहद दयनीय है। यहां पर लोग नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। ऐसे इलाकों में यदि गंदगी के कारण फैलने वाली कोई महामारी फैलती है तो उसका बड़ा व्यापक असर होता है। शहर के बाकी हिस्सों में भी गंदगी के कारण ही मच्छरों की फौज खड़ी होती है ओर बड़ी संख्या में मलेरिया, डेंगू आदि के मरीज अस्पतालों में पहुंचते हैं।
राजधानी पहले ही प्रदूषण की समस्या से जूझ रही है। वाहनों से निकलने वाला धुआं वातावरण में जहर घोल रहा है जिससे आम लोगों की सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। दूसरी ओर कूड़े-कचरे की गंदगी से भी लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बढ़ता है। सरकारी तौर पर शुरू किया गया स्वच्छता अभियान निश्चित तौर पर एक बेहतर पहल है, लेकिन केवल सरकार के भरोसे इस अभियान की सफलता की उम्मीद करना ठीक नहीं होगा।
जब तक आम लोग इस अभियान की महत्ता को नहीं समडोंगे और खुद आगे बढ़कर साफ-सफाई में नहीं जुटेंगे, तब तक इसका पूरा लाभ उन्हें नहीं मिल पाएगा। लिहाजा, सरकार के स्तर पर यह जरूरी है कि लोगों तक यह संदेश पहुंचाया जाए कि किस प्रकार सफाई का उनके स्वास्थ्य से सीधा संबंध है और इस ओर ध्यान देकर कितनी बीमारियों पर लगाम लगाई जा सकती है। यह याद रखना होगा कि एक बेहतर शुरुआत को अंजाम तक पहुंचाना जरूरी है।
यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा संख्या में आम लोग इसमें भागीदारी करें।
(स्थानीय संपादकीय: नई दिल्ली)