Thursday 4 September 2014

मोदी सरकार .... आकलन शुरू


सुशासन का आधार

Wednesday,Jun 04,2014

पिछले दस वर्षो में शासन के बिखरे सूत्रों को समेटना मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती मान रहे हैं मेघनाद देसाई
लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में न केवल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पहली बार अकेले अपने दम पर बहुमत हासिल किया, बल्कि शेष घटक दलों के साथ राजग को भी प्रचंड जनादेश मिला। इस जनादेश में सबसे बड़ी भूमिका उन युवाओं की रही, जो मोदी में अपना भविष्य देख रहे हैं। निश्चित ही मध्य वर्ग, युवा वर्ग, गरीब वर्ग के साथ-साथ बड़े उद्योगपतियों और छोटे व्यावसायिक वर्ग और किसान-मजदूरों को भी उनसे काफी उम्मीदें हैं। मोदी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि पिछली सरकार के कामकाज और रवैये से नाराज देश के आम जनमानस ने बहुत भरोसे से उन्हें अपना विश्वास सौंपा है। यही कारण है कि अपने भाषणों में बार-बार वह इसका उल्लेख करते हैं और पार्टी कार्यकर्ताओं को इसकी याद दिलाते हैं। उनके कामकाज के तरीके और निर्णयों में इसकी झलक मिलती है। काले धन पर एसआइटी के गठन का मसला हो या फिर मंत्रालयों का पुनर्गठन अथवा मंत्रियों को यह दिशानिर्देश देना कि वे अगले 100 दिनों का अपना एजेंडा तैयार करें, उनके रुख-रवैये को दर्शाता है। कुछ लोगों को यह थोड़ी जल्दबाजी लग सकती है, लेकिन सच्चाई यही है कि जिस तरह लोगों को उनसे उम्मीदें हैं वैसी स्थिति में उन्हें जल्द से जल्द कुछ कर दिखाने की आवश्यकता है, ताकि जनता में नई सरकार के प्रति भरोसा पैदा हो। मोदी अपने कदमों से यही संदेश भी देने की कोशिश कर रहे हैं कि सरकार काम में लग गई है और नतीजे भी जल्द दिखने शुरू हो जाएंगे।
देश के सामने फिलहाल जो ज्वलंत मुद्दे हैं उनमें महंगाई एक है। फौरी तौर पर जनता महंगाई से राहत चाहती है, लेकिन ऐसा संभव नहीं है। कम से कम दो-तीन महीने बाद ही महंगाई कम होना शुरू हो पाएगी, जबकि अगले पांच से छह महीनों में जनता राहत महसूस करने लगेगी। डीजल, पेट्रोल, गैस आदि के दामों को घटाने के लिए सरकार पर दबाव है, लेकिन इसके बजाय सरकार को दीर्घकालिक बातों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। समस्या महंगाई की बढ़ती दर को नियंत्रित करने की है, लोगों की आय बढ़ाने की है और अधिक से अधिक रोजगार सृजन की है। इसके लिए बंद पड़े उद्योगों को शुरू करने और नए उद्योगों के लिए समुचित माहौल तैयार करने के साथ-साथ विदेशी निवेश को आकर्षित करने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मंत्रियों को 100 दिनों का जो एजेंडा तैयार करने को कहा है, वह एक सांकेतिक कदम है। मेरे विचार से अगले 100 दिनों में शायद बहुत अच्छे परिणाम न मिल सकें, लेकिन जनता को कुछ भरोसा तो दिलाया ही जा सकता है।
आगामी 100 दिनों में जो काम किया जा सकता है उनमें अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए बड़े नीतिगत फैसले लेने के साथ-साथ, महंगाई कम करने तथा विकास दर को तेज करने के लिए कुछ ठोस निर्णय शामिल हैं। विदेशी निवेशकों का भरोसा लौटाया जा सकता है और कुछ क्षेत्रों में एफडीआइ की सीमा के संदर्भ में लंबित फैसले लिए जा सकते हैं। रक्षा क्षेत्र में 100 फीसद एफडीआइ की नीति भी एक क्रांतिकारी कदम है। खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ का मसला भी सरकार के पास लंबित है, जिसे राज्यों पर जबरन थोपे जाने के बजाय अपनी इच्छा से लागू करने की अनुमति दी जा सकती है। इसी तरह कोयला घोटाले से जुड़ी जांच कार्य को तेज किया जा सकता है और पिछली सरकार के कार्यकाल में अटकी पड़ी योजनाओं को शुरू किया जा सकता है और नीतिगत पंगुता की स्थिति को तोड़ा जा सकता है। इसके अलावा बुनियादी क्षेत्रों के विकास के साथ ही साथ आयात बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। यदि सरकार आगामी 100 दिनों में ऐसा कुछ कर सके तो एक बड़ी उपलब्धि होगी।
इस क्रम में मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेस का मोदी मंत्र भी महत्वपूर्ण है। इस मंत्र के मद्देनजर ही मोदी सरकार में मंत्रियों की संख्या कम से कम रखने की कोशिश हो रही है और कुछ मंत्रालयों को समाप्त करके दूसरे मंत्रालयों में समाहित करने का काम किया जा रहा है। प्रभावी शासन और बेहतर नतीजों की दृष्टि से यह एक उपयोगी कदम है। पिछली सरकार ने अपने घटक दलों को खुश करने के लिए जंबो मंत्रिमंडल के साथ कई अनावश्यक मंत्रालयों का भी गठन कर दिया था, जिसका उद्देश्य बेहतर शासन देने के बजाय घटक दलों को मलाई खाने का मौका देना था। इससे सरकार नीतिगत पंगुता की शिकार हुई और समन्वय के अभाव में योजनाओं-परियोजनाओं को लटकाया गया और भ्रष्टाचार के तमाम मामले सामने आए। इन बातों के मद्देनजर ही मोदी बिगड़ी व्यवस्था को ठीक करने में लगे हैं और कोशिश कर रहे हैं कि मंत्रियों के कार्यो में पारदर्शिता और निर्धारित समयसीमा में योजनाओं पर अमल हो। यह भी महत्वपूर्ण है कि मंत्रियों और सांसदों को निर्देश दिए गए हैं कि वे अपने स्टॉफ में परिवार अथवा रिश्तेदारों को न रखें। सबसे बड़ी बात है कि मोदी खुद इसकी निगरानी कर रहे हैं, जो पिछली सरकार में नदारद था। इसी तरह पिछले दस सालों से सरकार और जनता के टूटे संवाद को भी मोदी जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वह संगठन के पदाधिकारियों के साथ-साथ कार्यकर्ताओं से फीडबैक लेने का सिस्टम बना रहे हैं। यह एक शानदार शुरुआत कही जा सकती है। प्रधानमंत्री ने जनता से वादा किया है कि वह पांच वर्ष बाद लोगों के समक्ष अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करेंगे, जाहिर है उनका एजेंडा पांच वर्ष का नहीं, बल्कि उससे आगे का है और इसके लिए दीर्घकालिक काम करने होंगे। मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में युवा नेताओं को मौका दिया है। इसका अहसास राज्यमंत्रियों के दल को देखकर भी होता है। मोदी का यह नया प्रयोग है और निश्चित ही एक युवा देश में युवाओं को महत्व मिलना चाहिए। हालांकि अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह को बड़े मंत्रालय दिए गए हैं और राजग के कुछ घटक दल जैसे शिवसेना आदि में असंतोष भी है, लेकिन यह स्थायी समस्या नहीं है। संतुलन बनाए रखने के लिए आगे मंत्रिमंडल का विस्तार किया जाना शेष है, इसलिए अभी से किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ठीक नहीं।
चुनावों में विपक्षी दलों ने मोदी सरकार के आने से पड़ोसी देशों के साथ भारत के रिश्तों को लेकर सवाल उठाए थे, लेकिन मोदी ने शपथ ग्रहण के दिन पाकिस्तान समेत सार्क देशों के प्रमुखों को आमंत्रित करके इसका उत्तर दे दिया। पाकिस्तान के मामले में मोदी सरकार को इंच दर इंच कदम बढ़ाने की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि मोदी की तरह नवाज शरीफ की स्थिति उतनी मजबूत नहीं है। नवाज शरीफ पर पाक सेना के साथ-साथ आइएसआइ और कंट्टरपंथियों का दबाव है, इसलिए मुझे नहीं लगता कि कश्मीर के मसले पर कोई बड़ी सफलता हासिल की जा सकती है। पाकिस्तान के साथ व्यापार संबंधों में सुधार भी एक बड़ा कदम होगा। पाकिस्तान के संदर्भ में छोटी-छोटी चीजों से ही बड़े लक्ष्य की तरफ बढ़ना एक सुसंगत नीति होगी।
(लेखक जाने-माने अर्थशास्त्री हैं)
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भरोसे का अहसास   
   Monday,Jun 16,2014

यदि भारतीयों ने अगस्त 1947 में राजनीतिक आजादी हासिल की थी तो जुलाई 1991 में उन्हें आर्थिक आजादी मिली, लेकिन मई 2014 में उन्होंने अपनी गरिमा हासिल की। यह नरेंद्र मोदी की अभूतपूर्व जीत के महत्व को दर्शाता है। भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब नव मध्य वर्ग को अपनी उम्मीदों और आकांक्षाओं की पूर्ति का भरोसा जगा है। मोदी ने लाखों लोगों का विश्वास जगाया है कि उनका भविष्य बेहतर है और इस मामले में किसी तरह से पूर्वाग्रही होने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि अपने कामों से स्थिति को बदला जा सकता है। एक बेहतरीन पुस्तक बुर्जुआजी डिग्निटी में देरद्रे मैक्लॉस्की ने बताया है कि 19वीं शताब्दी और 20वीं सदी की शुरुआत में भी हालात कुछ ऐसे ही थे जब पश्चिम एक बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा था। उस समय औद्योगिक क्त्रांति के चलते मध्य वर्ग का उदय हुआ, जिसने पश्चिमी समाज के मूल ढर्रे को बदलकर रख दिया। मोदी की जीत से जहां लोगों का उत्साह बढ़ा था वहीं कुछ सप्ताह बाद उत्तार प्रदेश के बदायूं जिले में दो लड़कियों के साथ दुष्कर्म के बाद उनकी हत्या करके पेड़ पर टांगे जाने की घटना से लोगों का उत्साह कमजोर हुआ। यह एक जाति विशेष के साथ अपराध था, जो हमें बताता है कि एक बार फिर उत्तार प्रदेश देश के शेष हिस्सों से पीछे छूट रहा है। यह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की कानून विहीन सरकार पर भी सवालिया निशान खड़े करता है। इस घटना में दुष्कर्मी और हत्यारे पूरी तरह आश्वस्त थे कि उनकी जाति विशेष के कारण स्थानीय पुलिस उन्हें सुरक्षा-संरक्षण मुहैया कराएगी। पुलिस और प्रशासन में उस जाति विशेष के सदस्यों ने इस भयानक त्रासदी को हरसंभव ढकने-दबाने की कोशिश भी की।
अपराध की यह घटना समूचे भारत को यह बताने के लिए काफी है कि क्यों उत्तार प्रदेश में मोदी को इतनी प्रचंड जीत मिली। बदायूं कांड में शामिल लोगों की मानसिकता के उलट नरेंद्र मोदी को चुनने वाले विशिष्ट मतदाता जाति के विचार से प्रभावित नहीं थे और न ही वे हिंदू राष्ट्रवादी थे। यह युवा और मध्य वर्ग से संबंधित लोग थे, जो कुछ समय पूर्व ही गांवों से छोटे शहरों-कस्बों में आए थे। उन्होंने जीवन में पहली बार नौकरी पाई और हाथों में पहली बार मोबाइल थामा। वे अपने पिता की तुलना में कहीं अधिक बेहतर जीवन की आकांक्षा से प्रेरित थे। एक सामान्य कद-काठी के, अपने दम पर आगे बढ़े और स्टेशन पर कभी चाय बेचने वाले व्यक्ति ने उन्हें विकास का संदेश सुनाकर और सुशासन की बात कहकर प्रेरित कर दिया। नतीजतन जाति, धर्म और अपने गांव को भुलाकर लोगों ने मोदी के पक्ष में वोट दिया। ये युवा इस बात से आश्वस्त हुए कि उनकी लड़ाई अपने अन्य भारतीयों से नहीं, बल्कि एक ऐसे राज्य के खिलाफ है जो बिना पैसा दिए उन्हें जन्म प्रमाणपत्र भी नहीं देता।
इतना ही नहीं नरेंद्र मोदी ने इस समूह के मन में मध्य वर्ग की अन्य असुरक्षाओं को भी समाप्त किया। युवाओं ने यह पाया कि दूसरों की तुलना में आगे बढ़ने के लिए उन्हें अंग्रेजी की इतनी अधिक जरूरत नहीं है। उन्हें लगा कि अंग्रेजी नहीं बोलने वाला एक चाय वाला यदि देश का नेतृत्व कर सकता है तो इस भाषा में पारंगत न होना कोई गलती नहीं है। इससे युवाओं ने महसूस किया कि अपनी मातृभाषा में बोलने के बावजूद वे आधुनिक हो सकते हैं। जब उन्होंने अपनी टीवी स्क्त्रीन पर मोदी को बनारस के दशाश्वमेध घाट पर गंगा की आरती करते हुए देखा तो यह बात उन्हें दिल तक छू गई। अचानक ही हिंदू होने पर उनका शर्मिंदगी का भाव जाता रहा। अंग्रेजी भाषा में बात करने वाला सेक्युलर बुद्धिजीवी तबका उन्हें सदैव अंधविश्वासी कहकर चोट करता रहा और किसी तरह भी उन्हें क्षुद्र अथवा कमतर होने का अहसास कराता रहा। राजनीतिक मंचों पर अपने लंबे चुनाव अभियानों में मोदी ने उनके औपनिवेशिक मनोमस्तिष्क को बदलने और गौरवान्वित महसूस कराने की कोशिश की।
अमेरिकी विदेश विभाग के एक पूर्व कर्मचारी डॉ. वाल्टर एंडरसन ने कंप्यूटर विश्लेषण के माध्यम से अध्ययन में पाया कि मोदी ने कम से कम पांच सौ बार विकास शब्द का प्रयोग किया। एक युवा, जो उत्तारवर्ती सुधार की पीढ़ी से जुड़ा हो और जो अपने खुद के प्रयासों और कठिन परिश्रम से बड़ा हुआ हो, उसके लिए प्रतिस्पर्धी बाजार व्यवस्था में विकास का सूत्रवाक्य अवसर पाने का एक जरिया है। अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ भी इसे स्वातं‌र्त्य अथवा आजादी की प्राकृतिक प्रणाली मानते थे। यह प्रणाली गुजरात में फली-फूली और कोई आश्चर्य नहीं कि यह राज्य स्वतंत्रता सूचकांक के मामले में भारत के अन्य सभी राज्यों से बेहतर है। इस तरह की प्रणाली में सरकार का काम एक ऐसे माहौल का सृजन करना होता है जिसमें सभी व्यक्ति बिना किसी बाधा के अपने हितों के अनुकूल शांतिपूर्वक पारदर्शी बाजार व्यवस्था में काम कर सकें। ऐसी व्यवस्था के बाद एक अदृश्य हाथ धीरे-धीरे लोगों को गरिमापूर्ण तरीके से मध्य वर्गीय जीवन और बेहतर जीवन दशाओं की ओर अग्रसर करता है। आखिर गरिमा ही वह स्वतंत्रता है जो हमें बदलती है। कुल मिलाकर इस प्रक्त्रिया में आर्थिक निर्णयों में राजनीतिक कार्यालयों का दखल हटा और नौकरशाहों का स्थान बाजार ने लिया। जब मोदी कहते हैं कि हमें विकास को जनांदोलन बनाना होगा, तो वह क्त्रोनी कैपिटलिज्म के बजाय नियम आधारित पूंजीवाद को वैधता देते हैं। इस मामले में वह मार्गरेट थैचर और देंग की तरह दिखते हैं जिन्होंने जनविश्वास को बाजार से जोड़ा। यह एक ऐसा काम था जिसकी मनमोहन सिंह से अपेक्षा थी, लेकिन वह इसके लिए सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी को तैयार नहीं कर सके। मोदी को उनकी विफलता से सीख लेनी चाहिए और आरएसएस को हिंदुत्व के एजेंडे के बजाय विकास के एजेंडे के लिए तैयार करना चाहिए।
इस क्त्रम में हम बदायूं में दो लड़कियों के खिलाफ क्रूर हिंसा को नहीं भुला सकते। यह घटना बताती है कि हम सभ्य समाज से अभी भी कितने दूर हैं। हमें नहीं मालूम कि उत्तार प्रदेश और शेष भारत में दुष्कर्म की कितनी घटनाएं होती हैं और प्रतिदिन ऐसे कितने ही मामलों को शर्मवश दफना दिया जाता है, जिसमें जाति आधारित प्रशासन अहम भूमिका निभाता है। मोदी सभी समस्याओं को हल नहीं कर सकते, लेकिन वह अखिलेश यादव जैसे सत्ता में बैठे लोगों को ऐसे मामलों में जवाबदेह अवश्य बना सकते हैं। जब अखिलेश यादव से कानपुर में एक महिला पत्रकार ने इस दुष्कर्म के मामले में सवाल पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि आप तो सुरक्षित हैं? उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने भी मुंबई में रह रहे चार युवाओं को दुष्कर्म के मामले में अदालत द्वारा मौत की सजा सुनाए जाने पर कुछ ऐसा ही बयान दिया था। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि दोषी व्यक्ति एक ऐसे समुदाय से थे, जिससे वह वोट चाहते थे। पश्चिम की तरह अब भारत में भी लोगों की अपेक्षाएं बढ़ रही हैं। मोदी को चुनने के बाद गरिमापूर्ण जीवन के लिए जूझ रहा नया मतदाता वर्ग आत्मविश्वास से भरा हुआ है, लेकिन वह अधीर और निर्मम भी है। यदि नरेंद्र मोदी ने विकास और सुशासन का अपना वादा पूरा नहीं किया तो आगामी चुनावों में उन्हें दरकिनार करने में यह वर्ग संकोच नहीं करेगा।
लेखक गुरचरण दास, प्रख्यात स्तंभकार हैं]
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जटिल चुनौतियों की तस्वीर    
     Sunday,Jun 15,2014
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की अब तक की कार्यप्रणाली से यह स्पष्ट है कि वह सुधार के अपने व्यापक एजेंडे को मूर्तरूप देने के पहले व्यवस्थाओं को ठोक बजाकर दुरुस्त कर लेना चाहती है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि देश के अंदर हर क्षेत्र में जैसी समस्याएं उभर आई हैं उससे ऐसा आभास होता है जैसे वर्षो से कोई काम ही न किया गया हो। नई सरकार ने सबसे पहले बिखरी व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने का दुष्कर कार्य अपने हाथों में लिया है। वह सभी क्षेत्रों में नए दृष्टिकोण और नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ना चाहती है। इसकी झलक अर्थव्यवस्था, बुनियादी ढांचे के विकास, आंतरिक सुरक्षा, निर्धनता निवारण, गांवों का विकास, शहरीकरण की चुनौतियों, रोजगार जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर मोदी सरकार की नीतियों से मिलती है। ये नीतियां पूर्ववर्ती संप्रग सरकार से सर्वथा भिन्न हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो भी वक्तव्य दिए हैं, विशेषकर राष्ट्रपति के अभिभाषण पर दोनों सदनों में हुई बहस का उन्होंने जिस ढंग से जवाब दिया उसमें गंभीरता और पद की गरिमा की झलक साफ तौर पर दिखी। उन्होंने चुनाव प्रचार के बाद अपना जैसा राजनीतिक नजरिया पेश किया है वह उनकी परिपक्वता पर ही मुहर लगाता है। वह विपक्ष समेत सबको साथ लेकर चलने की बात कहीं अधिक विश्वास के साथ कह रहे हैं।
नरेंद्र मोदी ने दोनों सदनों में दिए गए अपने पहले भाषण में विकास और सुशासन के संकल्प को दोहराते हुए भारत के संघीय ढांचे का पूरा ख्याल रखने की जो बात कही वह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षो में राज्य सरकारों की ओर से ऐसी आवाजें सुनाई देती रही हैं कि केंद्र सरकार संघीय ढांचे का सम्मान नहीं कर रही है। इसके चलते केंद्र और राच्य अनेक अवसरों पर एक-दूसरे के खिलाफ खड़े नजर आने लगे। इसके विपरीत मोदी सरकार ने राच्य सरकारों के साथ टीम इंडिया के रूप में काम करने का एक सर्वथा नया विचार सामने रखा है। देश को आगे ले जाने के लिए केंद्र और राच्यों के बीच समन्वय और साथ ही राच्यों के बीच तालमेल बेहद आवश्यक है। संविधान राच्यों को अनेक अधिकार देता है, लेकिन संघीय ढांचे के रूप में उनकी कुछ जिम्मेदारियां भी हैं। केंद्र का यह दायित्व है कि वह राच्यों के साथ किसी तरह का भेदभाव न करे। इसी के साथ उसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई राच्य मनमानी न कर सके। जल अथवा अन्य संसाधनों के बंटवारे को लेकर राच्यों के एक-दूसरे के खिलाफ खड़े होने के अनेक प्रसंग सामने आ चुके हैं। यह भी जग जाहिर है कि कुछ राच्यों ने विदेश नीति को भी प्रभावित करने में संकोच नहीं किया है। सबको पता है कि तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की सरकारों के कारण श्रीलंका और बांग्लादेश के साथ हमारे संबंध किस तरह प्रभावित हुए? राच्यों को यह समझना होगा कि उनकी महत्वाकांक्षाएं राष्ट्रहित से ऊपर नहीं हो सकतीं। इसके साथ ही केंद्र को भी प्रत्येक राच्य को यह अहसास कराना होगा कि उनके हितों की अनदेखी नहीं की जाएगी। मोदी का संघीय ढांचे पर जोर देना इसका प्रमाण है कि वह राष्ट्र के विकास में राच्यों की भूमिका का महत्व समझ रहे हैं। चूंकि सुशासन की मोदी की अवधारणा में नौकरशाही एक विशेष स्थान रखती है इसलिए वह उसे प्रेरित करने, उस पर विश्वास जताने और खुद उसके अंदर भरोसा उत्पन्न करने की कोशिश पहले दिन से कर रहे हैं। नौकरशाही के प्रति उनके इस दृष्टिकोण का इसलिए विशेष महत्व है, क्योंकि विकास का कोई भी रोडमैप नौकरशाही के सहयोग के बिना न तो तैयार किया जा सकता है और न ही उस पर अमल किया जा सकता है।
राष्ट्रपति के अभिभाषण के रूप में मोदी सरकार का जो एजेंडा सामने आया वह काफी कुछ भाजपा के घोषणापत्र के अनुरूप है। अभिभाषण पर चर्चा में भाग लेते हुए विपक्ष के नेताओं ने जो कुछ कहा उसमें तार्किकता कम, औपचारिक विरोध का भाव अधिक नजर आया। चूंकि अपने देश में राजनीतिक दलों के लिए दलगत भावना से ऊपर उठकर बर्ताव करना कठिन होता है इसलिए विपक्षी दलों की ओर से आलोचना के नाम पर सरकार से मुख्य रूप से यही जानने की कोशिश की जाती रही कि राष्ट्रपति के अभिभाषण के माध्यम से सरकार ने जो एजेंडा सामने रखा है उसे कैसे और कब तक पूरा किया जा सकेगा? यह एक अव्यावहारिक प्रश्न है, क्योंकि विकास की इतनी अधिक योजनाओं के क्रियान्वयन की बारीकी कुछ घंटों की चर्चा में स्पष्ट करना संभव नहीं है। वैसे भी सरकार को उसकी योजनाओं पर अमल के लिए समय दिए बिना क्रियान्वयन पर सवाल उठाने का कोई मतलब नहीं। जैसे-जैसे सरकार का कार्य आगे बढ़ेगा वैसे-वैसे क्रियान्वयन की तस्वीर अपने आप स्पष्ट होती जाएगी। अभी तो महत्वपूर्ण यह है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण के रूप में सरकार ने व्यवस्थाओं में आमूल-चूल बदलाव की अपनी जो कार्ययोजना सामने रखी है वह सुधार की संभावनाओं के साथ देश के एक बड़े वर्ग को उत्साहित कर रही है। मोदी सरकार को सुधार के अपने पथ पर आगे बढ़ते हुए इसका ध्यान रखना चाहिए कि उसे समस्याओं का जो अंबार विरासत के रूप में मिला है उससे रातोंरात छुटकारा नहीं पाया जा सकता। बेहतर होगा कि सरकार देश के सामने यह अच्छी तरह स्पष्ट कर दे कि समस्याएं कहीं अधिक गंभीर हैं और इस कारण उनसे निपटने में समय लगेगा। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि दिल्ली में बिजली-पानी की किल्लत को लेकर विपक्षी दल कुछ इस तरह हायतौबा मचा रहे हैं जैसे मोदी सरकार वर्षो से केंद्र की सत्ता पर काबिज हो और जनता को जो संकट झेलना पड़ रहा है वह उसकी ही नाकामी की देन है। आखिर बिजली-पानी की किल्लत के लिए महज 15 दिन पुरानी मोदी सरकार को कैसे दोष दिया जा सकता है? देश के समक्ष यह स्पष्ट होना ही चाहिए कि इस संकट का असली दोषी कौन है और किसकी निष्क्रियता के कारण आधारभूत ढांचा पूरी तरह चरमरा गया? यह आम जनता को बरगलाने की कोशिश और ओछी राजनीति के अलावा और कुछ नहीं कि विपक्षी दल दिल्ली और साथ ही देश के अन्य हिस्सों में गहराते बिजली संकट के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराएं? बिजली की समस्या के साथ-साथ ऐसे तमाम मंत्रलय हैं जिनमें व्यवस्थाएं पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी हैं और उनका सीधा वास्ता जनता से पड़ता है। जनता के समक्ष तस्वीर पूरी तरह साफ करने के लिए मोदी सरकार अपनी तरफ से एक श्वेतपत्र भी प्रस्तुत कर सकती है।
मोदी सरकार की शुरुआत के आधार पर यह भरोसा किया जा सकता है कि एक नए भारत के निर्माण का सपना पूरा करने के लिए हर राच्य को समान निगाह से देखा जाएगा और क्षेत्र विशेष की समस्याओं के समाधान के लिए जो भी पहल होगी उसमें हर किसी का साथ लिया जाएगा। बिगड़ी व्यवस्थाएं ठीक करने में समय लगता है और मोदी सरकार कोई जादू की छड़ी लेकर पदारूढ़ नहीं हुई है। सुधार की जो व्यापक कार्ययोजना प्रस्तुत की गई है उसके नतीजे आने में कम से कम दो साल का समय लगना स्वाभाविक है। जनता जिस तरह बेहतर सुविधाओं की हकदार है उसी तरह मोदी और उनके साथियों को भी कुछ समय मिलना ही चाहिए।
[बदलाव के व्यापक एजेंडे के साथ व्यवस्थाएं सुधारने की मोदी सरकार की पहल का महत्व रेखांकित कर रहे हैं संजय गुप्त]
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क्या ऐसे ही गढ़ा जाएगा भारत का भविष्य

नवभारत टाइम्स | Jun 2, 2014
पूनम पाण्डे
बीजेपी ने अपने इलेक्शन मैनिफेस्टो में लिखा था कि 'देश की तरक्की के लिए शिक्षा ही सबसे शक्तिशाली औजार है और देश में शिक्षा को पुनर्जीवित और पुनर्गठित किए जाने की जरूरत है।' अफसोस की बात है कि बीजेपी की सरकार बनने के बाद सबसे बड़ा विवाद उसकी शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी को लेकर ही खड़ा हुआ है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लोगों की उम्मीदें परवान चढ़नी शुरू हो गई हैं, लेकिन स्मृति ईरानी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर उठा विवाद इन उम्मीदों के लिए एक झटके की तरह आया है।
गलतबयानी और बचाव
सवाल यह नहीं है कि किसी मिनिस्टर की एजुकेशनल क्वालिफिकेशन क्या होनी चाहिए? बिना किसी डिग्री के भी लोगों ने बड़े-बड़े काम किए हैं और डिग्री वाले नाकारे लोगों की भी कोई कमी नहीं है। लेकिन यहां सवाल डिग्री से कहीं बड़ा है। ह्यूमन रिसोर्स डिवेलपमेंट(एचआरडी) मिनिस्ट्री कई मामलों में बाकी मंत्रालयों जैसी नहीं है, जहां मिनिस्टर का काम सिर्फ अधिकारियों को हांकने तक सीमित रहता है। न ही इसकी जिम्मेदारी सिर्फ देश की वर्तमान परिस्थितियों तक सीमित है। देश का भविष्य बनाने का उत्तरदायित्व इस मिनिस्ट्री के कंधों पर है। बहुत बड़ी संख्या में एजुकेटेड और ट्रेंड वर्क फोर्स खड़ी किए बगैर क्या कोई देश विकसित देशों की पांत में खड़ा हो सकता है? दुर्भाग्य की बात है कि अपनी शिक्षा को लेकर गलतबयानी करके स्मृति ईरानी ने और राजनीतिक पैंतरेबाजी के लहजे में उनका बचाव करके कई वरिष्ठ मंत्रियों ने देश में उच्च शिक्षा की जरूरत को ही बेमानी बना दिया है। उम्मीद बांधने के लिए किसी संकेत की जरूरत तो होती ही है। यह संकेत चाहे संबंधित विभाग के मंत्री के एजुकेशनल बैकग्राउंड से मिले, चाहे उसके एरिया ऑफ इंटरेस्ट से मिले, या फिर अब तक संबंधित क्षेत्र से जुड़कर किए गए उसके काम से मिले। भले ही स्मृति ईरानी ने बीजेपी में पार्टी स्तर पर अपनी योग्यता साबित की हो, लेकिन अपने अभी तक के जीवन व्यवहार से वे ऐसा कोई भी संकेत देने में सफल नहीं रही हैं, जिससे लगे कि देश का भविष्य बनाने वाली इस मिनिस्ट्री की उम्मीदों पर वे खरी उतर पाएंगी। शायद इसीलिए उन्हें लेकर बीजेपी के घोर समर्थक भी सवाल उठा रहे हैं, और डिग्री को राजनीतिक या सरकारी कामकाज के लिए कतई अहम न मानने वाले लोग भी पीएम नरेंद्र मोदी के इस कदम को शंका से देख रहे हैं। चुनाव के दौरान अलग-अलग शहरों के अलग-अलग तबके के लोगों से बात कर यही लगा कि वे मोदी पर भरोसा जता रहे हैं तो इसलिए, क्योंकि महिलाओं को अपने बच्चों के पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी पा जाने की उम्मीद है और युवाओं को नौकरी के नए मौकों के रूप में बेहतर भविष्य की। अभी 12वीं के रिजल्ट आए हैं और अपने बच्चों को अच्छे इंस्टिट्यूट या यूनिवर्सिटी में दाखिला दिलाने के लिए पैरंट्स की दौड़ शुरू हो गई है। यह दौड़ हायर एजुकेशन तक ही सीमित नहीं है। यह तो नर्सरी एडमिशन के वक्त से ही शुरू हो जाती है शिक्षा को लेकर यह भागमभाग यही बताती है कि देश के एजुकेशन सिस्टम में आमूल-चूल बदलाव की जरूरत है। पिछले कई सालों से देश के सभी बच्चों को स्कूल पहुंचाने के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, लेकिन इसका नतीजा क्या है? 2011 की जनगणना के मुताबिक आज भी देश में 26 पर्सेंट लोग अनपढ़ हैं, जबकि चीन में यह आंकड़ा 7 पर्सेंट, रूस में 0.6 पर्सेंट और ब्राजील में 10 पर्सेंट का है। जो बच्चे स्कूल जाते भी हैं उनमें केवल 15 पर्सेंट लोग ही हाई स्कूल तक पढ़ पाते हैं और ग्रैजुएट होने का मौका सिर्फ 7 पर्सेंट को मिल पाता है। ड्रॉपआउट रेट बहुत ज्यादा है। ह्यूमन रिसोर्स डिवेलपमेंट मिनिस्ट्री की 2012-13 सालाना रिपोर्ट के मुताबिक एलिमेंट्री एजुकेशन (क्लास 1 से 8 तक) में ही ड्रॉप आउट रेट 40.6 पर्सेंट है। सीएजी की रिपोर्ट हर साल सरकारी स्कूलों की असलियत बताती है। प्राइवेट सेक्टर को आगे बढ़ाने के लिए एक साजिश के तहत सरकारी स्कूलों को बर्बाद किया गया है। हालत यह है कि अगर बिल्कुल मजबूरी न हो तो कोई भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं भेजेगा।
वादे हैं वादों का क्या
प्राइमरी और सेकंडरी एजुकेशन का लगभग पूरा सिस्टम प्राइवेट हाथों में चला गया है। सरकार की इसमें जरा भी पकड़ नहीं रही। धड़ाधड़ नए प्राइवेट स्कूल खुल रहे हैं और सबका एक ही मकसद है- एजुकेशन का धंधा करो। यह सिलसिला अब सेकंडरी एजुकेशन से आगे बढ़कर यूनिवर्सिटी स्तर तक पहुंच गया है। बस, दो-चार सालों की बात है, सरकारी खर्चे से चलने वाले विश्वविद्यालयों का हाल भी सरकारी स्कूलों जैसा ही हो जाएगा। फिर तो जिसके पास पैसे हों, शिक्षा उसकी। और मुनाफा शिक्षा का धंधा करने वालों का। बीजेपी के मैनिफेस्टो में कहा गया कि शिक्षा में सरकारी खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 6 पर्सेंट किया जाएगा। सिलेबस ऐसा होगा जो छात्रों को वक्त की चुनौतियों के हिसाब से तैयार करे। यूजीसी को महज अनुदान वितरण एजेंसी की बजाय उच्च शिक्षा आयोग का रूप देने और समूची शिक्षा को लेकर एक राष्ट्रीय आयोग बनाने की बात कही गई। लेकिन ये काम क्या एक ऐसे मिनिस्टर की कमान में हो पाएंगे, जिसके बैकग्राउंड और एरिया ऑफ इंटरेस्ट से इस दिशा में जरा भी पॉजिटिव संकेत नहीं मिलता?
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क्या मोदी सरकार देगी देश को गुड गवर्नेंस?

इकनॉमिक टाइम्स | Jun 1, 2014,
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान गुड गवर्नेंस का वादा किया था, लेकिन उनके मंत्रिमंडल को देखकर लगता है कि मोदी के लिए गुड गवर्नेंस दे पाना आसान नहीं होगा। मोदी के मंत्रिमंडल में क्या कमियां हैं तथा इसे कैसे और बेहतर बनाया जा सकता है इसकी समीक्षा कर रहे हैं जाने-माने पत्रकार चैतन्य कालबाग:-
तकरीबन 15 साल पहले 21 फरवरी 1999 को शरीफ और बीजेपी के एक और पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसमें शांति और परमाणु हथियारों पर लगाम लगाने की बात थी। 10 हफ्तों के बाद भारतीय सैनिक कारगिल में पाकिस्तान घुसपैठियों से लड़ाई लड़ रहे थे। वाजपेयी के मंत्रियों का दावा था कि पाकिस्तान की सेना ने शरीफ को इस मामले में अंधेरे में रखा। 5 महीने बाद शरीफ सत्ता से बाहर हो चुके थे और उनकी जगह परवेज मुशर्रफ थे। वाजपेयी सरकार को कारगिल के अलावा कंधार विमान अपहरण कांड और संसद पर हमले जैसे झटके झेलने पड़े। इन सभी वजहों को ध्यान में रखते हुए बीजेपी को मजबूत डिफेंस स्ट्रैटिजी बनाने की जरूरत है। मोदी ने इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व चीफ अजीत डोभाल को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाकर इस गोल की दिशा में कुछ काम किया है। हालांकि, अरुण जेटली को फाइनैंस और डिफेंस दोनों मिनिस्ट्री दिए जाने से संदेश ठीक नहीं गया है। दोनों मंत्रालयों पर फोकस करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। बदलाव की जरूरत वाले बाकी मंत्रालयों को पुराने ताश के पत्तों की तरफ अदल-बदल दिया गया। कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री मिनिस्ट्री को जूनियर मिनिस्टर के दायरे में ला दिया गया। रोजगार पैदा करने से जुड़े सभी मंत्रालयों को एक मैन्युफैक्चरिंग सुप्रीम के तहत लाया जाना चाहिए था, जिसके पास कॉर्पोरेट अफेयर्स और आंत्रप्रेन्योरशिप और इन्वेस्टमेंट से जुड़ा मंत्रालय भी होता। हमारे लेबर लॉ में तत्काल बदलाव की जरूरत है, लिहाजा लॉ और लेबर को भी एक ग्रुप में रखा जा सकता था। मोदी भारी-भरकम एचआर डिवेलपमेंट मिनिस्ट्री को खत्म कर एजुकेशन मिनिस्ट्री भी बना सकते थे। मोदी को ऐसी पावरफुल एनर्जी मिनिस्ट्री बनानी चाहिए थी, जिसमें पेट्रोलियम, नैचरल गैस, कोल, पावर और रिन्युएबल एनर्जी शामिल होते। साथ ही, ट्रांसपोर्टेशन के तहत शिपिंग, सिविल एविएशन, रेलवे, रोड ट्रांसपोर्ट और हाइवे मिनिस्ट्री को इकट्ठा किया जा सकता था। इसी तरह, फूड, पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन और फर्टिलाइजर्स को एक साथ लाया जा सकता था। यह सच है कि मोदी के पास 45 मेंबर्स की टीम है, जबकि मनमोहन सिंह सरकार में मंत्रियों की संख्या 70 थी। हालांकि, अगर इरादा सरकार को छोटा करना और फैसले की प्रक्रिया तेज करना है, तो मुझे मौजूदा नई टीम बहुत भरोसेमंद नहीं जान पड़ती। हालांकि मोदी कई शक्तियां अपने इर्द-गिर्द रखकर कुछ बेहतर कर सकते हैं।

हमारे लिए शर्म की बात

राष्ट्रपति भवन में राज्याभिषेक समारोह काफी शानदार रहा। बेशक हममें से कई नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित 4,000 लोगों में शामिल नहीं थे, लेकिन हम भी इससे अभीभूत होने से अछूते नहीं रहे। हालांकि, बराक ओबामा के 2009 के शपथ ग्रहण समारोह के मुकाबले इसे छोटा आयोजन ही माना जाएगा। ओबामा के शपथ ग्रहण में 18 लाख लोग शामिल हुए थे। जहां तक राष्ट्रपति भवन के प्रांगण की बात है, तो यह हमारे लिए शर्म की बात होनी चाहिए कि आजादी के 67 साल के बाद भी हम इतने बड़े मुल्क में एक ऐसी बिल्डिंग नहीं बना पाए हैं, जो साम्राज्य के समय की बनी लुटियंस की इमारत या फिर मुगलकाल के हुमायूं के मकबरे की तरह भी हो सके।
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आकलन शुरू

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मंत्रिमंडल के शपथ लेने को मनमोहन सरकार की विदाई अथवा दस साल बाद भाजपा सरकार के फिर सत्ता संभालने के रूप में देखने की बजाय परिवर्तन के ऎसे रूप में देखने की जरूरत है जहां उम्मीदें परवान चढ़ी हों और जनता चुटकी बजाते ही समस्याओं का निदान देखना चाहती हो। लोकसभा चुनाव में जय-पराजय, आरोप-प्रत्यारोप और वादों का दौर खत्म हो चुका है और मोदी सरकार के सामने अब कुछ नहीं बहुत कुछ करके दिखाने का समय शुरू हो चुका है। सत्ता का यह दौर ऎसी जिम्मेदारियों का दौर है जहां सरकार को जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरकर दिखाना होगा। बात महंगाई पर काबू पाने की हो या भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की अथवा विदेश नीति को चुस्त-दुरूस्त करने की। जनता की उम्मीदें बहुत हैं और यह जगाई भी स्वयं मोदी ने हैं। उन्होंने जनता से स्पष्ट बहुमत मांगा और उसने इतनी सीटें झोली में डाल दीं कि सरकार के पास अब बहाना भी नहीं बचा। मसलन, गठबंधन सरकार हो तो कहने का मौका मिल जाता है कि फलां दल नहीं मान रहा या फलां नेता काम में रोड़ा अटका रहा है। भाजपा की पिछली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार रही हो या निवर्तमान मनमोहन सरकार, सहयोगी दलों के दबाव में ही काम करती नजर आई। सरकारें बहुत से काम नहीं कर पाई तो उसकी वजह सहयोगियों का साथ नहीं देना भी माना जा सकता है लेकिन मोदी सरकार के सामने ऎसी कोई बाधा नहीं है। लिहाजा काम नहीं हो पाने के लिए जनता कोई बहाना सुनने को तैयार नहीं होगी। मोदी ने जो उम्मीदें जगाई, गुजरात मॉडल के सपने दिखाए, "मिनिमम गवर्नमेंट- मैक्सिमम गवर्नेस" का नारा दिया उसे पूरा करना असंभव नहीं तो आसान भी नहीं होगा। वष्ाोü से चल रहे सिस्टम को तोड़कर मोदी अपना नया तंत्र एकाएक विकसित कर पाएंगे, आसान नहीं है। फिर भी जो वादे किए हैं, न सिर्फ उन पर खरा उतरकर दिखाना होगा बल्कि कुछ ऎसा भी करके दिखाना होगा ताकि परवान पर चढ़ी उम्मीदों के पूरा होने में मदद मिले। मोदी ने अपनी टीम में किसे लिया और किसी नहीं, यह राजनीतिक बहस का विष्ाय हो सकता है लेकिन इतना तय है कि नई सरकार के कामकाज के आकलन का समय शुरू हो चुका है और आने वाले दिन ही बता पाएंगे कि "अच्छे दिन आए या नहीं और आए तो कितने"? 
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बदलाव की बड़ी तस्वीर

Fri, 15 Aug 2014
मोदी सरकार को सत्ता में आए करीब ढाई माह हो चुके हैं। इतने कम समय में किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना अभी बहुत जल्दबाजी होगी, लेकिन बदलाव के संकेत दिखने लगे हैं और एक बड़ी तस्वीर स्पष्ट होने लगी है। हां, इतना अवश्य है कि जहां लोगों को आमूलचूल बड़े परिवर्तन की अपेक्षा थी वहां निरंतरता पर आधारित छोटे-छोटे बदलाव नजर आ रहे हैं। बजट में बहुत बड़े बदलाव की अपेक्षा पाले बैठे लोगों को भी कुछ निराशा हुई है। इसी तरह जो लोग अनुदार हिंदू तानाशाही के उभार का डर पाले हुए थे वे ऐसा कुछ न होने के प्रति आश्वस्त हुए हैं। प्रधानमंत्री न तो अधिक तेजी से अपने प्रशंसकों की तमाम बड़ी अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हैं और न ही अपने दुश्मनों के डर को समूल खत्म कर सकते हैं। इससे पता चलता है कि भारत में किस तरह सत्ता का संचालन होता है। इस निरंतरता की सकारात्मक व्याख्या यही है कि यह भारतीय राज्य के दिनोंदिन अधिक परिपक्व होने को दर्शाता है। इसका नकारात्मक पहलू यह है कि मोदी भी शासन में रातोंरात बड़ा बदलाव शायद नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री ने स्वयं भी इससे अपनी मौन सहमति जताई है। वह अधूरे पड़े कामों को पूरा करने में जुटे हैं और यह कोई खराब बात नहीं है। जैसा कि वह कहते भी हैं कि काम करने वाले च्यादा बोलते नहीं। इस सरकार द्वारा किए गए थोड़े बहुत किए गए कार्य यही बताते हैं कि मोदी सरकार का मंत्र मौन क्रियान्वयन है। इस संदर्भ में जो महत्वपूर्ण बदलाव हुआ है वह केंद्रीय नौकरशाही के रुख-रवैये से संबंधित है। रिपोर्ट बताती हैं कि वही पुराने अफसर आम लोगों से अधिक आसानी से मिल रहे हैं, उनके फोन उठा रहे हैं और काम कर रहे हैं। समय पर मीटिंग हो रही हैं और यहां तक कि सुबह के नौ बजे भी अधिकारी बैठक कर रहे हैं। इराक में युद्ध क्षेत्र से जिस तरह 48 घंटों के भीतर केरल की नसरें को वापस उनके घर पहुंचाया गया वह प्रशासन के नए तौर तरीकों को दर्शाता है। दूसरा काम बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं में तेजी दिखाने का है, जिससे नए रोजगार अवसरों के सृजन की शुरुआत हुई है। तीसरा संकेत विदेश मंत्रालय में आए नए उत्साह और उद्देश्यपरकता का है। पड़ोसी देशों से संबंध सुधारे जा रहे हैं, जिससे हमारी सुरक्षा सुदृढ़ होगी। नेपाल, बांग्लादेश और भूटान के लोगों का नजरिया भारत के प्रति बदला है। इसी तरह एक और बड़ा प्रशासनिक बदलाव लोगों को प्रमाणपत्रों के प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा सत्यापन से निजात दिलाना है। अब जन्म प्रमाणपत्र, अंकपत्र आदि के सत्यापन के लिए राजपत्रित अधिकारियों के हस्ताक्षर अथवा नोटरी से हलफनामे की आवश्यकता नहीं होगी। आप गांवों में रहने वाली उन विधवाओं के बारे में कल्पना कीजिए जो सरकारी लाभ पाने के लिए एक अधिकारी से हस्ताक्षर कराने के लिए पूरे दिन यात्रा करने को विवश होती हैं और इसके लिए अंतत: उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है। वास्तविक दस्तावेजों की आवश्यकता अब भी होगी, लेकिन लालफीताशाही खत्म होगी और ब्रिटिश राज की औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति मिलेगी। इस क्त्रम में श्रम से संबंधित तीन बड़े सुधार किए गए हैं। हालांकि सरकार द्वारा इस दिशा में उठाए गए कदम पर्याप्त नहीं हैं, लेकिन इससे श्रम कानून में सुधार का रास्ता खुला है। इन सुधारों से कर्मचारी लाभान्वित होंगे और उद्योग-व्यापार कार्य अधिक आसान बनेगा। कंपनियों को नए कर्मचारियों की भर्ती करने में आसानी होगी और नियोक्ता नए लोगों को कौशल प्रशिक्षण देने के लिए प्रोत्साहित होंगे, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। इसी तरह निरीक्षणों के संबंध में श्रम मंत्रालय के नए कानूनों से छोटी विनिर्माण इकाइयों को श्रम निरीक्षकों के भय से निजात मिलेगी। हमारे निरीक्षकों को याद होना चाहिए कि यह प्रणाली 1880 में अपनाई गई थी। उस समय निरीक्षण के दो प्रकार थे। एक संदिग्ध के खिलाफ, जिसमें उसकी खामियों-कमियों को खोजा जाता था ताकि उन्हें ठीक किया जा सके। दूसरा काम मित्रवत मार्गदर्शन का था, जिसकी सदिच्छा चीजों को ठीक करने की होती थी। यह सही है कि भ्रष्ट श्रम निरीक्षक रातोंरात बदल नहीं जाएंगे, लेकिन उनके व्यवहार को अब कड़ाई से नियंत्रित अवश्य किया जा सकता है। जहां तक महंगाई की बात है तो सरकार ने एफसीआइ के गोदामों में पड़े 50 लाख से एक करोड़ टन खाद्यान्नों को बेचने की बात कही है। महज इसकी घोषणा से बाजार में खाद्यान्न कीमतों में गिरावट आ गई। इस कदम को दूसरी अन्य महत्वपूर्ण चीजों के मामले में भी अपनाया जा सकता है। सब्जियों के मामले में भी अधिक तेजी से हवाई जहाजों के माध्यम से रणनीतिक आयात के द्वारा सरकार आपूर्ति बढ़ाकर महंगाई को नियंत्रण में ला सकती है। कृषि उत्पाद बाजार समितियों अथवा एपीएमसी के एकाधिकार को खत्म करने के लिए निजी किसान मंडियों का सहारा लिया जा सकता है। बजट में शीतभंडारण गृहों की श्रृंखला स्थापित करने की बात कही गई है, इससे किसानों को लाभ होगा और उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत में कमी आएगी। संप्रग सरकार के समय में शुरू की गई आधार योजना अधिक तर्कसंगत बनाने की बात कही गई है, जो अच्छा कदम है। भुगतान के लिए बायोमीट्रिक तकनीक को मोबाइल फोन से जोड़े जाने से हजारों करोड़ की बचत होगी। इस तरह जवाबदेह प्रशासनिक कामकाज से आम लोगों को लाभ होगा। कुछ नकारात्मक बातें भी हुई हैं। मेरे विचार से डब्ल्यूटीओ वार्ता में भारत को विघ्नकर्ता की भूमिका नहीं निभानी चाहिए। भारत कृषि का बड़ा निर्यातक देश है और यह हमारे हित में है कि लालफीताशाही कम हो और सीमा शुल्क संबंधी औपचारिकताएं तर्कसंगत हों। भारत कमजोर बहुपक्षीय प्रणाली को कमतर आंक रहा है, जिससे अंतत: हमें ही सर्वाधिक लाभ होना है। कुल मिलाकर मोदी सरकार के कामों और उनकी कार्यशैली को देखते हुए हम कह सकते हैं कि नया मंत्र मौन क्रियान्वयन है। बहुत अधिक बातें और काम बहुत थोड़ा करने वाले हमारे देश में यह कार्यप्रणाली एक ताजी हवा की तरह है। जो लोग 15 अगस्त को प्रधानमंत्री से एक दूरदर्शी भाषण की अपेक्षा कर रहे हैं उनका इंतजार आज खत्म होगा।
[लेखक गुरचरण दास, प्रख्यात स्तंभकार हैं]
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सुशासन ही है हमारी प्रतिबद्धता

Mon, 29 Sep 2014

नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर जितनी उत्सुकता और आशाएं रही हैं लगभग उतने ही आरोप भी लगे और धारणाएं भी बनी या बनाई गई हैं। मंत्रियों के अधिकार और उनकी स्वतंत्रता, कांग्रेस काल में लिए गए फैसलों की पैकैजिंग, भ्रष्टाचार के खिलाफ सुस्ती जैसे कई सवाल उठाए जा रहे हैं। केंद्रीय विधि व दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इन सभी आरोपों को खारिज करते हुए और प्रधानमंत्री समेत कैबिनेट के कई सहयोगियों को जेपी मूवमेंट का योद्धा करार देते हुए कहा कि सुशासन प्रतिबद्धता है और मोदी लोकतांत्रिक तरीके से काम करते हैं। प्रस्तुत हैं आशुतोष झा से उनकी बातचीत के कुछ अंश-
सरकार ने सौ दिनों में ही जनता को सशक्त बनाने की कोशिश का दावा किया है, लेकिन बाहर धारणा है कि मोदी सरकार में मंत्री भी सशक्त नहीं है। उनके पास काम नहीं है और न ही करने की स्वतंत्रता है। आप क्या कहेंगे?
इससे बड़ा झूठ कोई नहीं हो सकता है। क्या यह किसी से छिपा है कि मोदीजी ने प्रधानमंत्री बनते ही एक बारगी अस्सी जीओएम भंग कर दिए। कहा-मंत्री फैसला लें। जहां पीएमओ की जरूरत होगी निर्देश दिया जाएगा। कैबिनेट में मोदीजी सारी चर्चा ध्यान से सुनते हैं। सबसे पूछते हैं। हां, वह यह जरूर चाहते हैं काम ईमानदारी से हो, प्रामाणिकता से हो और समय सीमा में हो। यह तो उनका अधिकार है। यही होना भी चाहिए। एक गलत धारणा बनाने की कोशिश हो रही है जो उचित नहीं है।
ऐसी कोशिशें कहां से हो रही हैं?
मैं नहीं जानता लेकिन जो भी हैं उन्हें न तो जानकारी है और न ही उनकी मंशा सही है।
उपलब्धियों को लेकर कांग्रेस सवाल उठा रही है। स्व प्रमाणीकरण के अधिकार से लेकर मंगलयान तक की शुरूआत उन्होंने की लेकिन श्रेय आपकी सरकार ले रही है?
कांग्रेस जितनी जल्दी भूल जाए कि वह सत्ता में नहीं है उतना अच्छा है। उन्होंने क्या किया, क्या नहीं किया वह दूसरी बात है, लेकिन यह सच्चाई है कि देश की जनता ने उनके काम करने के तरीके पर विश्वास नहीं किया। उन्हें तो यह चिंता करनी चाहिए कि वह 44 सीटों पर कैसे पहुंच गई। लेकिन अगर उन्हें अपने अतीत को ही देखकर खुश होना है तो मुझे कुछ नहीं कहना।
लेकिन यह भी तो सच्चाई है कि जिस 'आधार' की भाजपा आलोचना करती थी अब उसे ही परवान चढ़ाने की बात हो रही है। आपको उसका प्रशासनिक अधिकार दिया जा रहा है?
अभी प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ है। लेकिन हम यह जरूर कहना चाहते हैं कि जो भी अच्छी चीजें हैं उसका उपयोग किया जाएगा। नागरिकता का भी ध्यान रखा जाएगा। देश के विकास के लिए सभी टेक्नालाजी का इस्तेमाल किया जाएगा। आधार में कमी थी उसे दूर किया जाएगा।
क्या सरकार में इसकी कोई विवेचना हो रही है कि पिछले उपचुनावों में भाजपा को मुंह की क्यों खानी पड़ी है? क्या जनता आपकी उपलब्धियों की सूची से सहमत नहीं है?
उपचुनाव को इस नजरिये से देखना ठीक नहीं होगा। यह मैं स्वीकार करूंगा कि स्थानीय फैक्टर हैं तो उसका विचार करना पड़ेगा। कुछ जगहों पर हम हारे जहां जीत सकते थे। यह संकेत है कि हमें अपने उम्मीदवारों के चुनाव को और मजबूत करना होगा। कई स्थानों पर जीते भी हैं। लेकिन यह सच्चाई है कि जनता ने मोदीजी को चुना है और उन पर भरोसा है। इतनी जल्दी किसी फैसले पर पहुंचना सही आकलन नहीं होगा।
भाजपा जोड़ने की बात कर रही है लेकिन राजग के घटक टूट रहे हैं। वैचारिक स्तर पर जुड़ी शिवसेना के साथ बिखराव क्यों हुआ?
शिवसेना से हमारा कोई वैचारिक विरोध नहीं है। लेकिन राजनीति में साथ चलने वालों को संभाल कर चलना होता है। शिवसेना और भाजपा को अलग होना पड़ा जो दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन मैं इसमें सकारात्मक भविष्य देख रहा हूं जिससे भाजपा सार्थक विकल्प के रूप में खड़ी हुई है। इसका अच्छा नतीजा निकलेगा।
भ्रष्टाचार को आपकी पार्टी ने बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था, लेकिन लोकपाल को लेकर भी पूरी कार्यवाही नहीं हो पाई है? संसद में कई विधेयक लंबित हैं।
सुशासन की पहली निशानी तो शासन में ही दिखती है। क्या तीन-चार महीनों में आपको शासन में कहीं भ्रष्टाचार दिखा है। सारे निर्णय मेरिट पर हो रहे हैं। लोकपाल जैसे कुछ मामले में सुधार होने हैं, वह होंगे भी। लेकिन क्या कोई इससे इन्कार कर सकता है कि आप चाहे जितनी भी संस्थाएं बना लें, शासन में स्वच्छता और ईमानदारी इकबाल से होता है जो मोदी सरकार में है। शासन का आचरण नैतिक होना चाहिए। अगर नहीं होगा तो गंदगी होगी।
अभी न्यायपालिका से टकराव की कुछ घटनाएं हुई हैं। जाते जाते भी जस्टिस लोढ़ा ने उसका इजहार कर दिया। आप क्या कहेंगे?
मैं ज्यादा टिप्पणी करना नहीं चाहता हूं लेकिन यह जरूर कहूंगा कि हम न्यायपालिका की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं। यह इसलिए कह रहा हूं कि इस सरकार में कम से कम छह सात लोग जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, रविशंकर प्रसाद, अनंत कुमार। ये सब जेपी मूवमेंट से निकले हैं और उस समय हमने न्यायपालिका और प्रेस की आजादी पर हमले का विरोध किया था। न्यायपालिका की आजादी हमारी प्रतिबद्धता है।
डिजिटल इंडिया आपकी सरकार का बड़ा अभियान है और सीधे-सीधे आपके मंत्रालय से जुड़ा है। इसकी कार्ययोजना क्या है?
यह भारत को बदलने का क्रांतिकारी माध्यम है। अभी मैं ब्रूनेई से बैंकाक के रास्ते दिल्ली लौट रहा था। बैंकाक हवाई अड्डे पर समुद्र मंथन को प्रदर्शित करती बड़ी सी मूर्ति लगी है। मेरे सहयोगी ने उसके साथ मेरी फोटो खींचकर फेसबुक पर डाल दी। मेरा संदेश था-'भारत की सांस्कृतिक परंपरा की इस धरोहर को देखकर खुशी हुई। काश हम भारत में भी सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे फोटो लगा पाते।' 45 हजार लोगों ने कमेंट किया, पांच लाख लोगों ने देखा। यह एक नई दुनिया है। डिजिटल इंडिया के तीन सूत्र हैं-नागरिकों का सशक्तीकरण, सरकार का सरलीकरण और सूचना तंत्र के माध्यम से विकास की प्रक्त्रिया को आगे बढ़ाना। नेशनल आप्टिकल फाइबर नेटवर्क को हम 50 हजार पंचायत इस साल, एक लाख अगले साल और फिर एक लाख अगले साल तक ले जाएंगे। जनभागीदारी बढ़ाने में भी यह अहम है।
अभी प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया अभियान का उद्घाटन किया। क्या भारत में ऐसे किसी क्षेत्र की पहचान हुई जहां इलेक्ट्रानिक हब बनाया जाए?
भारत में हर साल करीब 100 बिलियन डॉलर का इलेक्ट्रानिक सामान आयात होता है। 2020 तक यह करीब 400 बिलियन डॉलर हो जाएगा। देश में 90 करोड़ लोग मोबाइल उपयोग करते हैं, लेकिन यहां नहीं बनता है। सिम कार्ड, सेट टाप बाक्स कुछ भी नहीं बनता है। हमने इसकी चिंता शुरू कर दी है। मुख्यमंत्रियों से हमने बात की है। उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं। करीब दो करोड़ लोगों को इससे रोजगार मिलेगा। छह अक्टूबर को भोपाल जा रहा हूं। जबलपुर में इसका शिलान्यास करूंगा। इसके अलावा आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री इलेक्ट्रानिक क्लस्टर के लिए प्रयासरत हैं। भुवनेश्वर में लगभग आठ क्लस्टर तय हो गए हैं, दो का फाइनल एप्रूवल हो गया है। हर राज्य की रुचि है और मैं खुद कोशिश कर रहा हूं कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य भी इस दिशा में आगे आएं।

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