Wednesday 24 September 2014

शिक्षक दिवस संबोधन




नई शिक्षा नीति की जरूरतें

Sat, 13 Sep 2014

शिक्षा के ढांचे में किस ढंग के बदलाव और सुधार की आवश्यकता है उन्हें रेखांकित कर रहे हैं एस. शंकर
प्रधानमंत्री के शिक्षक दिवस संबोधन के बाद मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा नई शिक्षा नीति की तैयारी की घोषणा स्वागत योग्य है। यह आशा जगाती है कि शिक्षा में नई सरकार धीरे-धीरे, किंतु सार्थक कदम उठा सकती है। किंतु ऐसा हो सके, इसके लिए तीन बातों पर ध्यान रखना जरूरी है। पहला, दिखावे की बातों में न पड़ना। यह कहना इसलिए जरूरी है, क्योंकि विगत कई दशकों से शिक्षा विमर्श और परिणामस्वरूप शिक्षा दस्तावेज भी प्राय: हर तरह की बनावटी बातों से भरे रहे हैं। अत: नया शिक्षा-दस्तावेज बनाने में दिखावे वाली और कागजी लफ्फाजी से बचना नई शिक्षा नीति दस्तावेज का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। यह संभव है, यह प्रधानमंत्री केपांच सितंबर वाले उद्बोधन से दिखता है। उन्होंने बड़ी-बड़ी, किताबी किस्म की बातों से हटकर सीधी-सादी, समझ में आने लायक, क्रियान्वित की जाने वाली बातें ही कही। यही नई शिक्षा नीति में भी होना चाहिए। दूसरी इसी से जुड़ी बात है कि नकली उपलब्धियों का आंकड़ा दिखाना हमारे शिक्षा कार्यक्रमों का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। शिक्षा आंकड़े अविश्वसनीय हैं। उदाहरण के लिए कहा जाता है कि अमुक राज्य में इस वर्ष इतने लाख बच्चों ने आठवीं कक्षा पास की। किंतु वास्तविकता क्या है? उन बच्चों में कई लाख ऐसे हैं जिन्हें अपना नाम लिखना भी नहीं आता।
इस दुर्गति का कारण यह है कि वर्षो पहले यह विचित्र निर्देश जारी किया गया कि किसी बच्चे की आठवीं कक्षा तक प्रोन्नति न रोकी जाए। यह नि:संदेह वैसे ही शिक्षा शास्त्रियों की सलाह पर किया गया होगा जिन्हें विदेशी अंध-नकल की आदत है। आशा करें, नई सरकार ऐसे शिक्षा शास्त्रियों से बचेगी। हमें वास्तविक शिक्षित बच्चे और युवा चाहिए। यही कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के लिए भी सही है। हम स्वयं को, अपने बच्चों को और दुनिया को धोखा दे रहे हैं। यह तो हमारे देश की विशाल आबादी है, जिससे यह घृणित, लज्जाजनक और बचकानी धोखाधड़ी छिपी रही है। तीसरी बात है शिक्षा और रोजगार-ट्रेनिंग का घालमेल। यह साफ-साफ समझ लिया जाना चाहिए कि हरेक युवा को रोजगार की जरूरत और उस का शिक्षित होना अलग-अलग बातें हैं। अशिक्षित व्यक्ति भी बड़े भारी रोजगार का संचालक हो सकता है और बढि़या रोजगार में लगा हुआ व्यक्ति भी अशिक्षित हो सकता है। इस नाजुक बिंदु को ठीक-ठीक समझने का अवसर आ गया है। नहीं तो हम कभी न समझ सकेंगे कि तरह-तरह के घोटालों, गड़बड़ियों, व्यभिचार आदि में लगे हुए लोगों में कथित सुशिक्षित लोगों की संख्या इतनी बड़ी क्यों है?
उम्मीद है कि नई शिक्षा नीति में संस्कारों की शिक्षा यानी वास्तविक शिक्षा को रेखांकित किया जाएगा। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीईआरटी का ध्येय वाक्य है-'विद्ययामृतमश्नुते'। हमारे बड़बोले बौद्धिकों और शिक्षाशास्त्रियों में बिरले ही होंगे जो इसका अर्थ या स्त्रोत भी बता सकें। यह उदाहरण है कि हमारा चालू शिक्षा-विमर्श और शिक्षा योजनाएं आदि बनाने वाले कितने खोखले हैं। अभी जाने-माने भारतीय शिक्षाविद कहे जाने वाले कई लोग 'हमारा धर्म-चिंतन', 'संस्कार', 'भारतीय गौरव', 'देशभक्ति' जैसे शब्दों का उल्लेख होते ही संकोच में पड़ जाते हैं। उनके विमर्श, लेखन, दस्तावेज आदि में 'डाइवर्सिटी', 'मायनोरिटी', 'सेक्युलरिज्म', 'जेंडर', 'मल्टी-कल्चरल' जैसे जुमलों का दर्जनों बार प्रयोग सुना जा सकता है। किंतु सत्यनिष्ठा, सेवा, अनुशासन, संयम, शौर्य, देश-रक्षा आदि का एक बार भी नहीं। यह मतवादीकरण ही है कि बच्चों की शिक्षा में स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, अज्ञेय जैसे अनेक महापुरुषों की सुचिंतित सीख को जानबूझकर उपेक्षित किया गया है। जैसे, विवेकानंद ने कहा था, संस्कृत शब्दों में अद्भुत शक्ति भरी हुई है। उनके उच्चारण मात्र से शक्ति का बोध होता है। उपनिषद्, रामायण, महाभारत जैसे कालजयी शास्त्र विश्व की अनमोल धरोहरों में गिने जाते हैं। उनका पठन-पाठन एक जीवंत सत्संग है जिससे विवेक ही नहीं, शक्ति भी मिलती है।
रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था कि विद्यार्थियों को प्रत्येक दिन कम से कम एक बार गायत्री-मंत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए। किंतु ऐसी मूल्यवान सीखों से बच्चों को मानो प्लेग की तरह बचाया गया है। बदले में पश्चिमी अनुकरण या निर्देश पर नितांत भौतिकवादी और सामाजिक विभेदकारी, दुराग्रही पाठ पढ़ाने की जिद रही है। ऐसी बौद्धिकता, शिक्षा नहीं, राजनीति केंद्रित रही है। यह बच्चों को आत्मिक रूप से निर्बल, व्यक्तिवादी और नितांत राज्याश्रित अकेला 'उपभोक्ता' बनाती है। समय रहते इस घातक प्रवृत्ति को रोकना जरूरी है। यह सब इसलिए छिपा रहा है, क्योंकि शिक्षा के प्रति समझ में ही विकृति भर गई है। 'शिक्षा को रोजगार से जोड़ो' के नारे ने समय के साथ हमारी शिक्षा को मात्र रोजगार-ट्रेनिंग में बदल दिया। तदनुरूप विश्वविद्यालयों ने विश्वविद्यालय शब्द का अर्थ ही खो दिया। यह याद रहे कि विश्वविद्यालय सदैव बड़े ज्ञानियों, बौद्धिकों का केंद्र होते रहे हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ था-सर्वोच्च चिंतन केंद्र। वहां समाज के चिंतक, मार्गदर्शक, नीतिकार निखरते थे। रोजगार का प्रशिक्षण दूसरी चीज थी, जिसका हर समाज में अलग स्थान था। श्री अरविंद ने कहा था-किसी भी महान देश का बौद्धिक पतन हमेशा इन्हीं तीन गुणों के क्षरण से आरंभ होता है। जो हैं-विवेकपूर्ण तर्क करने की क्षमता, तुलना और विभेद करने की क्षमता तथा अभिव्यक्ति की क्षमता। इससे समझें कि युवाओं में इन क्षमताओं के सतत विकास की कितनी आवश्यकता है।
हमें उस घातक प्रवृत्ति पर सोचना चाहिए जो केवल धन कमाने के प्रशिक्षण को ही 'शिक्षा' का पर्याय बना रही है। भारत के युवा केवल तकनीकी, मशीनी और कार्यालय चलाने वाले मजदूर, प्रबंधक आदि भर बन रहे हैं। उन्हें कितनी ही अच्छी आय हो रही हो, वे अपने ही देश, समाज के वर्तमान और भविष्य के बारे में सोचने-विचारने में असमर्थ होंगे। स्वयं अपने अस्तित्व, जीवन-मूल्य और भूमिका के बारे में वे कुछ ढंग का सोच-विचार नहीं कर सकेंगे। आशा है, नई शिक्षा नीति इन बातों का भी संज्ञान लेगी और विकृतियों को भी सुधारेगी।
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प्रधानमंत्री की कक्षा

05-09-14 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई नई परंपराएं स्थापित की हैं और शिक्षक दिवस के अवसर पर देश भर के छात्रों को संबोधित करना भी ऐसी ही परंपरा है। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी गुजरात के छात्रों को शिक्षक दिवस के अवसर पर संबोधित करते थे, प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इसे राष्ट्रीय स्तर पर किया है। प्रधानमंत्री के इस तरह संबोधित करने पर कई अच्छी-बुरी प्रतिक्रियाएं आई हैं। प्रधानमंत्री के समर्थक कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री के इस तरह छात्रों को संबोधित करने में कुछ बुरा नहीं है, इससे छात्रों को प्रेरणा मिलेगी। आलोचकों का यह कहना है कि छात्रों और शिक्षकों को जबर्दस्ती इस कार्यक्रम में भाग लेना पड़ा है और इस तरह मोदी अपना प्रचार कर रहे हैं। कुछ राज्य सरकारों ने भी इसका विरोध किया था। सरकार का कहना है कि इस कार्यक्रम को सुनना, न सुनना स्वैच्छिक था और किसी किस्म की अनिवार्यता नहीं थी, फिर भी ज्यादातर स्कूलों ने इस भाषण के लाइव प्रसारण को सुनने के लिए इंतजाम किए थे और यह भी सुनिश्चित किया था कि छात्र इस कार्यक्रम में भाग लें। अगर इससे जुड़े विवादों को छोड़ भी दें, तो यह कहा जा सकता है कि अगर इस कार्यक्रम से शिक्षा की समस्याओं पर नए सिरे से विचार करने की शुरुआत होती है, तो यह इसकी उपलब्धि होगी। प्रधानमंत्री का देश भर के छात्रों को एक साथ संबोधित करना स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक नई घटना है और यह शिक्षा में सुधार की शुरुआत बन सके, तो इस कार्यक्रम को सार्थक माना जा सकता है। जाहिर है, जिस क्षेत्र में प्रधानमंत्री खुद इस तरह दिलचस्पी लें, उसे सरकार की प्राथमिकता माना जाएगा और अगर इस तरह शिक्षा की तरक्की के रास्ते खुलें, तो यह अच्छी शुरुआत होगी। इस वक्त भारत में शिक्षा क्षेत्र अनेक विरोधाभासों में घिरा हुआ है। एक ओर तमाम भारतवासी यह मानते हैं कि शिक्षा बेहतर भविष्य के लिए एक गारंटी है और समाज के सबसे कमजोर हिस्सों के लोग भी अपना पेट काटकर बच्चों को पढ़ा रहे हैं। दूसरी ओर, शिक्षा के लिए उतने संस्थान और संसाधन मौजूद नहीं हैं। जो शिक्षा उपलब्ध है, वह बहुत महंगी है और उसकी गुणवत्ता भी संदिग्ध है। शिक्षा की गुणवत्ता की समस्या पर प्रधानमंत्री ने भी ध्यान दिलाया। उनके समूचे भाषण में यह स्वर दिखता है कि शिक्षा को जैसा होना चाहिए, उसे जो काम करना चाहिए, वह भारत में नहीं हो रहा है। इस संदर्भ में उन्होंने बार-बार जापान का भी उदाहरण दिया। उन्होंने इस बात पर भी गौर किया कि छात्र बड़े होकर शिक्षक नहीं बनना चाहते। आधुनिक अर्थव्यवस्था को ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था माना जाता है, यानी जिस देश के पास जितने उच्च शिक्षित और रचनाशील नागरिक होंगे, उस देश की अर्थव्यवस्था उतनी ही तरक्की करेगी। प्रधानमंत्री ने इस बात को भी याद दिलाया कि भारत को कभी विश्व गुरु माना जाता था और देश को वह सम्मान फिर से पाना चाहिए। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश के हर स्कूल में शौचालय होना जरूरी है और इस भाषण में भी उन्होंने इस बात का जिक्र किया। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री का ध्यान इस अत्यंत बुनियादी सुविधा पर गंभीरता से है। महात्मा गांधी ने आजादी के आंदोलन के साथ सार्वजनिक सफाई के मुद्दे को जोड़ा था। वह जानते थे कि सार्वजनिक सफाई से हमारे समाज में व्याप्त सामाजिक जड़ता और कुरीतियों की सफाई जुड़ी हुई है। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तक्षेप से स्कूलों में साफ-सुथरे शौचालय बन पाएं, तो यह हमारी शिक्षा में लगे जालों की सफाई की भी शुरुआत हो सकती है।


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