Monday 27 October 2014

सांसद आदर्श ग्राम योजना




सांसद आदर्श ग्राम योजना 

Sun, 12 Oct 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकनायक जयप्रकाश की जयंती पर सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत कर एक और महत्वाकांक्षी योजना का श्रीगणेश किया है। इसके पहले वह गांधी जयंती पर स्वच्छ भारत अभियान शुरू कर चुके हैं और उसके पहले दीनदयाल उपाध्याय के जन्मदिन पर मेक इन इंडिया अभियान को हरी झंडी दिखा चुके हैं। सत्ता संभालने के छह माह के अंदर एक के बाद एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम आगे बढ़ाकर मोदी सरकार यही स्पष्ट कर रही है कि वह तेजी से काम करने में यकीन रखती है और उसकी निगाह सभी क्षेत्रों में समान रूप से है। आदर्श ग्राम योजना का मकसद यह है कि सभी सांसद पहले एक-एक गांव को आदर्श रूप देने में जुटें और फिर मौजूदा कार्यकाल में ही दो-दो और गांवों को इसी के लिए चुनें। यदि ऐसा हो सके तो अगले पांच सालों में करीब 2400 गांवों का कायाकल्प हो सकता है। यदि इस योजना में विधायक भी शामिल हो जाएं तो आदर्श रूप से विकसित होने वाले गांवों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है। जब हर जिले में दो-चार गांव आदर्श रूप में विकसित होते दिखेंगे तो अन्य गांवों में भी खुद को विकसित करने की ललक जागेगी और उसका लाभ पूरे ग्रामीण भारत को होगा। यदि देश के गांव उस रूप में विकसित हो सकें जैसा कि सोचा जा रहा है तो देश की तस्वीर पूरी तौर पर बदल सकती है। स्पष्ट है कि आदर्श ग्राम योजना ग्रामीण विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकती है।
चूंकि गांवों को आदर्श रूप से विकसित करने की योजना में सभी दलों के सांसदों के शामिल होने की अपेक्षा की गई है और यह एक ऐसी योजना है जिसे दल विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता इसलिए कम से कम इस मामले में दलगत राजनीति से ऊपर उठा जाना चाहिए। यह स्वागत योग्य है कि सांसद आदर्श ग्राम योजना के शुभारंभ के मौके पर कांग्रेस के भी कुछ सांसद उपस्थित हुए। तमाम शहरीकरण के बावजूद भारत अभी भी मूलत: गांवों का देश है। करीब 70 फीसद आबादी अभी भी गांवों में रहती है और यह भी किसी से छिपा नहीं कि हमारे गांव किस तरह बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं और इसके चलते ग्रामीण जीवन की कठिनाइयां बढ़ती ही जा रही हैं। यदि हमारे गांव स्वास्थ्य, शिक्षा के साथ-साथ अन्य आवश्यक सुविधाओं से लैस हो सकें तो देश की तमाम समस्याओं का समाधान हो सकता है। गांवों को आदर्श रूप से विकसित करने की योजना जितनी आकर्षक नजर आती है उस पर अमल करना उतना ही मुश्किल हो सकता है। इस मुश्किल को आसान बनाया जा सकता है यदि सांसद यह ठान लें कि उन्होंने जिन गांवों को गोद लिया है उन्हें वास्तव में संवारना है। चूंकि देश में कुछ गांव आदर्श रूप में विकसित हो चुके हैं इसलिए कोई कारण नहीं कि इस योजना को सफल न बनाया जा सके। एक योजना की सफलता उसके सही क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। इस योजना के सही तरह आगे बढ़ने की उम्मीद इसलिए की जा सकती है, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी योजनाओं के क्रियान्वयन के तौर-तरीकों में सुधार की प्रतिबद्धता जता रहे हैं।
[मुख्य संपादकीय]
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आदर्श ग्राम योजना

नवभारत टाइम्स| Oct 13, 2014,

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक और महत्वाकांक्षी कार्यक्रम 'सांसद आदर्श ग्राम योजना' की शुरुआत कर दी है। 15 अगस्त के अपने भाषण में उन्होंने सभी सांसदों और विधायकों से अपने-अपने क्षेत्र में आदर्श गांव विकसित करने की अपील की थी। इस योजना के तहत सभी सांसद 2019 तक तीन गांवों में बुनियादी और संस्थागत ढांचा विकसित करने की जिम्मेदारी उठाएंगे। मोदी खुद भी अपने लोकसभा क्षेत्र बनारस के रोहनियां इलाके के ककरहिया गांव को गोद लेंगे। योजना के तहत गांवों में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित किया जाएगा, साफ-सफाई रखी जाएगी और वहां शांति-सौहार्द के साथ लिंग समानता और सोशल जस्टिस कायम किया जाएगा। आदर्श ग्राम का एक कार्यभार महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना भी होगा। प्रधानमंत्री को उम्मीद है कि अगर इस तरह के कुछ गांव तैयार किए जाएं, तो बाकी गांव भी इसी तर्ज पर विकसित हो जाएंगे और ग्रामीण भारत का कायाकल्प हो जाएगा। मॉडल गांवों की अवधारणा में इंफ्रास्ट्रक्चर को छोड़ दें तो बाकी सारी बातें वहीं हैं जो पंचायती राज या अन्य ग्रामीण स्कीमों के संदर्भ में कही जाती रही हैं। तमाम दावों और आदर्श वचनों के बावजूद हमारे गांवों की हालत दिनोंदिन खराब ही होती जा रही है। कुछ संपन्न इलाकों को छोड़ दें तो गांवों में जीने के लिए आवश्यक बुनियादी चीजें भी नहीं हैं। इस कारण वहां से लोगों का पलायन हो रहा है। लेकिन क्या इन हालात को सुधारने का अकेला रास्ता यही है कि कुछ मॉडल गांव पेश कर दिए जाएं? सचाई यह है कि अघोषित रूप से कुछ मॉडल गांव आज भी मौजूद हैं। कई राजनेताओं ने अपने-अपने गांवों में ऐसी सुविधाएं जुटाई हैं, जिनके बारे में सुनकर पूरे देश में लोग ईर्ष्या से भर उठते हैं। लेकिन कुल मिलाकर वे चमकदार द्वीप ही साबित हुए हैं। एक भी पड़ोसी गांव का उद्धार उनके कारण नहीं हो सका। गांवों का मूलाधार है खेती और कृषि आधारित लघु उद्योग। लेकिन देश की विकास नीतियां इनके लिए घातक साबित हुई हैं। आजादी के बाद हरित क्रांति जरूर हुई पर एक सीमित दायरे में। अंतत: देश में इसने एक असंतुलन ही पैदा किया। सरकार की प्राथमिकताओं में खेती-बाड़ी की जगह काफी नीचे रही। सरकार की उपेक्षा के कारण वह दिन पर दिन एक अलाभदायक पेशा बनती जा रही है। उदारीकरण के बाद गांव के छोटे-मोटे उद्योग-धंधे और व्यवसाय भी खत्म हो गए हैं। सरकार रीयल एस्टेट या बड़े कल-कारखानों के लिए किसानों की जमीन ले रही है। सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार के चलते गांवों में इंफ्रास्ट्रक्चर सिरे से नदारद है। न तो वहां ढंग के स्कूल बन पाए, न अस्पताल। गांवों के सामाजिक जीवन को खाप पंचायतों या ऐसी ही दूसरी परंपरागत संस्थाओं के भरोसे छोड़ दिया गया। एक हद तक आत्मनिर्भर होकर, अपने लोगों के लिए रोजी-रोजगार के साधन मुहैया कराकर ही गांवों का विकास संभव है। ऐसी व्यवस्था के बगैर ऊपरी बदलाव सिर्फ फोटो खिंचाने के काम आएंगे। उनके टिकाऊ और व्यापक होने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। आदर्श ग्राम योजना में एमपीलैड स्कीम जैसी ही बंदरबांट न मचे, इसके लिए शुरू से इसकी सख्त मॉनिटरिंग जरूरी है।
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गांवों के दिन फिरेंगे

सौ ‘स्मार्ट’ शहरों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुख अब ‘स्मार्ट’ गांवों की तरफ मुड़ गया है। प्रधानमंत्री ‘संसद आदर्श ग्राम योजना’ के जरिए देश के छह लाख गांवों को उनका वह हक दिलाने कोशिश में दिख रहे हैं जिसकी परिकल्पना कभी राष्ट्रपिता बापू ने की थी। उनकी नजर में गांव गणतंत्र के लघु रूप थे जिनकी बुनियाद पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को खड़ा होना था। आजादी के छह दशकों में गांवों की बद से बदतर होती जा रही हालत का अनुभव बताता है कि महात्मा गांधी के सपनों के भारत से हम कितनी दूर भटक गए हैं। बापू को इनमें ‘लघु गणतंत्र’ की छवि दिखी थी क्योंकि सामाजिक व्यवस्था की इकाई होने के साथ इनमें प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्था में आत्मनिर्भरता वाला तेज हुआ करता था। स्वतंत्रता के बाद के वर्षो में, खास कर आर्थिक सुधारों के बाद, शहरों की तो चांदी हो गई लेकिन इसकी कीमत भी शायद देश की आत्मा कहे जाने वाले गांवों को ही चुकानी पड़ी। शिक्षा, स्वास्थ्य और व्यवसाय जैसी तमाम बुनियादी सुविधाओं का रुख शहरों की ओर मुड़ गया और गांव का जनजीवन अपनी नियति पर निर्भर रहने को मजबूर हो गया। मजबूरी के इसी माहौल ने गांवों से पलायन का दौर शुरू कर दिया जो आज भी चिंताजनक रूप से जारी है। तमाम सरकारें बेशक गांवों के विकास पर भारी- भरकम खर्च करने का दावा करती आई भी हैं लेकिन बिजली, पानी और शौचालय जैसी बुनियादी जरूरतों से महरूम हमारे गांवों की सचाई तो कुछ और ही बयां करती है। यह अच्छा हो रहा है कि अब तक गांवों के वोट बैंक से महज सत्ता का अकाउंट खोलने के आदी हो चले हमारे माननीय प्रतिनिधियों को ही इसका जिम्मा दिया गया है। सांसद कोष के नाम पर मिलने वाले करोड़ों से अगर चंद गांवों का भला भी हो जाता है तो इनकी राजनीति सार्थक हो जाएगी। पिछले दिनों में राजनेताओं से जिस प्रकार देश का मोहभंग होता दिख रहा है वह लोकतंत्र के लिए चिंता की बात है। इसलिए समय की जरूरत है कि जनता के प्रतिनिधि अपने इलाकों में विकास के दौड़ की अगुवाई करें और जनभागीदारी का तूफान खड़ा करें। पिछले अनुभवों के मद्देनजर इस योजना के नजरिए में एक मूलभूत बदलाव किया गया है- धन या अन्य चीजों को गांवों तक ठेलने की जगह उन्हें उनकी जरूरतों के अनुसार सुविधा मुहैया कराने की बात पर बल दिया गया है। जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि भी अब केवल वायदों पर नहीं चल पाएंगे, उन्हें हकीकत की जमीन पर अपने कहे का असर दिखाना पड़ेगा और विकास के नाम पर मिले पैसों के निष्पक्ष और प्रभावी इस्तेमाल की जवाबदेही भी उठानी पड़ेगी। प्रधानमंत्री मोदी इन्हें पहले ही ऐसी एक और जिम्मेदारी सौंप चुके हैं जिसमें उन्हें अपने क्षेत्र के स्कूलों में बालिकाओं के लिए शौचालय की गारंटी लेनी है। जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि जब विकास के लिए कमर कस कर मैदान में उतर पड़ेंगे तब देश को छलांगें मारने से कौन रोक सकता है!
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चुनिंदा विकास

जनसत्ता 13 अक्तूबर, 2014: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते सप्ताह सांसद आदर्श ग्राम योजना की घोषणा की। इसके लिए उन्होंने जयप्रकाश नारायण की जयंती का दिन चुना। तीन साल पहले लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आखिरी रथयात्रा इसी तिथि को जेपी के गांव सिताब दियारा से शुरू की थी। भ्रष्टाचार के विरोध में निकली उस रथयात्रा का हासिल क्या रहा? क्या नई योजना भी जेपी का नाम भुनाने की भाजपा की एक और कोशिश होकर रह जाएगी, या सचमुच इससे कोई खास फर्क पड़ेगा? चुनिंदा गांवों के विकास की योजना पहली बार सामने नहीं आई है। वित्तवर्ष 2009-10 में यूपीए सरकार ने इसी तरह का एक कार्यक्रम प्रधानमंत्री आदर्श गांव योजना के नाम से शुरू किया था। इसमें चुने जाने वाले गांव वे थे जिनमें अनुसूचित जातियों की आबादी पचास फीसद से अधिक हो। यह कसौटी मायने रखती थी, क्योंकि दलित हमारे समाज के सबसे दबे-शोषित समुदाय हैं। अलबत्ता उस योजना का हुआ, यह किसे मालूम है! नई योजना में वैसी कोई सामाजिक कसौटी नहीं रखी गई है। एक और महत्त्वपूर्ण फर्क यह है कि इसे प्रधानमंत्री या केंद्र सरकार को नहीं, सांसदों को अंजाम देना है। प्रधानमंत्री ने हर सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र का कोई ऐसा गांव चुनने को कहा है जिसकी जनसंख्या तीन हजार से पांच हजार के बीच हो।
हर सांसद को एक गांव को चुन कर 2016 तक उसे आदर्श गांव के रूप में विकसित करना है। उसके बाद 2019 तक दो गांव और गोद लेने होंगे। इस तरह अगले आम चुनाव तक हर सांसद को तीन गांवों को मॉडल गांव बनाना होगा। गांव का चुनाव सांसद अपनी मर्जी से करेंगे। प्रधानमंत्री ने यह हिदायत जरूर दी है कि सांसद अपने या अपने किसी रिश्तेदार के गांव का चयन न करें, ताकि पक्षपात की शिकायत नहीं रहे। लेकिन इस योजना को लेकर पहला सवाल यही उठता है कि क्या चुनिंदा गावों पर ही विशेष ध्यान देने से बाकी ग्रामीण भारत के प्रति भेदभाव नहीं होगा? अगर यह पहल रंग लाती है तो जाहिर है प्रधानमंत्री इसका श्रेय लूटने से क्यों चूकेंगे? और अगर यह योजना संतोषजनक परिणाम नहीं दे पाएगी, तो उसके लिए सांसद जिम्मेवार होंगे। पर सियासी गणित से ज्यादा अहम सवाल यह है कि क्या ग्रामीण भारत के विकास के तकाजे को इस तरह चुने हुए गांवों पर केंद्रित कर देने की नीति सही है?
सरकार कोई सामाजिक संस्था नहीं है कि वह एक क्षेत्र विशेष में विकास का नमूना पेश करने तक सीमित रहे, उसे तो समूची आबादी के बारे में सोचना चाहिए। ग्रामीण इलाकों को ध्यान में रख कर मनरेगा, भारत निर्माण जैसी कई योजनाएं शुरू की गर्इं। इनके अमल में बहुत-सी खामियां रही होंगी। उन्हें दूर कर उनका ज्यादा कारगर क्रियान्वयन करने के बजाय ऐसी नीति क्यों अपनाई जा रही है जिससे बाकी गांव खुद को उपेक्षित महसूस करें? फिर, एक और अहम सवाल यह है कि क्या गांवों के विकास को कृषि की बेहतरी के तकाजे से अलग करके देखा जा सकता है? पिछले दो दशक में लाखों किसान खुदकुशी करने को मजबूर हुए। यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है, जो इस कटु सच्चाई की ही देन है कि खेती घाटे का धंधा होकर रह गई है। गांवों से रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन जारी है। दूसरी ओर, मोदी सरकार ने मनरेगा के मद में कटौती कर दी है। हमारे सांसद सरकार के तमाम फैसलों और नीतियों पर मुहर लगाते हैं। उन्हें इन फैसलों और नीतियों को अधिक जनपक्षीय बनाने पर जोर देना चाहिए, या किसी खास गांव पर अपना ध्यान केंद्रित करने पर?
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सांसदों की परीक्षा की आदर्श योजना

विश्लेषण अरुण तिवारी

पंडित दीनदयाल उपाध्याय, महात्मा गांधी और जेपी; तीन वैचारिक शक्तियां, तीन तारीखें और तीन श्रीगणोश- क्रमश: 25 सितम्बर को ‘मेक इन इंडिया’, दो अक्तूबर को ‘स्वच्छ भारत’ और 11 अक्टूबर को ‘सांसद आदर्श ग्राम’। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं; इसके भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे अच्छी राजनीति की शुरुआत कहा। विपक्षी इसे दिखावटी बोल कह रहे हैं। हम इसे प्रासंगिक विचारों को व्यवहार में उतारने की एक सकारात्मक कवायद के तौर पर भी देख सकते हैं। आज हमारे राजनेता व राजनीतिक कार्यकर्ता अपने दलों के प्रेरकों से न तो पूर्ण परिचित होते हैं और न उनके संदेशों के अनुकरण में कोई रुचि रखते हैं। यही कारण है कि पार्टियां भिन्न होने के बावजूद हम राजनीतिक कार्यकर्ताओं व नेताओं के चरित्र में बहुत भिन्नता नहीं पाते। ऐसे में आदर्श ग्राम योजना भिन्न होने का एक मौका प्रदान करती है। यह योजना अच्छे विचारों को कर्म में उतारने में विास रखने वाले सांसदों को आगे आने का एक अवसर देती है। सिर्फ जनप्रतिनिधि नहीं, जनता को भी चाहिए कि वह इस योजना का उपयोग, जनप्रतिनिधि और जनता के साझे उपक्रम का नायाब नमूना पेश करने की पायलट परियोजना के तौर पर करे। आप निराशा जता सकते हैं कि जो संसद, खुद आज तक आदर्श सांसदों का गांव नहीं बन पाई, उसके सांसदों से सांसद आदर्श ग्राम योजना में प्रस्तावित मूल्यों की स्थापना की पहल की उम्मीद ही बेमानी है। हम कह सकते हैं कि जो सांसद, स्वयं सामाजिक न्याय, स्वानुशासन, पारदर्शिता और जवाबदेही के मानकों पर कभी खरे नहीं उतरे, उनसे कैसे उम्मीद करें कि वे योजना के गांवों में ये मूल्य स्थापित कर सकेंगे ? बस यही निराशा, इस योजना को लेकर आशा का संचार करती है। यह योजना सिर्फ पैसे की सफाई साबित न हो, इसलिए इसको सिर्फ ढांचागत विकास तक सीमित नहीं रखा गया है। दांतों की सफाई, हाथों की सफाई, मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता, सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता, व्यायाम, योग, खेल जैसी छोटी- छोटी गतिविधियों को इसमें शामिल किया गया है। ये गतिविधियां स्वावलंबन लाएंगी या आयोडीन नमक, टीका, टूथपेस्ट और पोषण के नाम पर बढ़े बाजार का गांव में दखल और बढ़ाएंगी; यह एक अलग और समग्र बहस का विषय है। फिर भी हम ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ में शामिल लैंगिक समानता, महिला सुरक्षा, सामाजिक न्याय, उत्थान, शांति, सौहार्द, साफ-सफाई और पर्यावरण की बेहतरी की जरूरत को नकार नहीं सकते। सार्वजनिक जीवन में सहयोग, आत्मनिर्भरता, स्वानुशासन, पारदर्शिता तथा जवाबदेही जैसे मूल्यों को सुनिश्चित करना जैसी शत्रे इस योजना की सफलता के मानक हैं। इन मूल्यों की पूर्ति के प्रतिशत पर ही योजना की सफलता का प्रतिशत तय होगा। इन मूल्यों और इन्हें लागू करने की जिम्मेदारी सांसदों पर डालने का विचार ही इस योजना को अंबेडकर ग्राम और प्रधानमंत्री ग्राम विकास योजना जैसी पूर्व योजनाओं से भिन्न बनाता है। सांसद आदर्श ग्राम योजना जाति, धर्म तथा अमीरी-गरीबी के आधार पर विभेद नहीं करती। यह इसका गुण भी हो सकता है, अवगुण भी। यह सांसदों की ईमानदारी पर निर्भर करेगा। इस दृष्टि से सांसद आदर्श ग्राम योजना सांसदों के आदर्श की परीक्षा की पहल भी है। यह सांसदों का ऐसा इम्तहान है, जिसमें जनता का भी फायदा होने वाला है। सांसद इस परीक्षा में फेल न हों, इसके लिए विनोबा, गांधी और जेपी की लिखी इबारत उन्हें दे दी गई है। उन्हें सिर्फ इस इबारत को दोबारा लिखना है। गौर करें तो भारतीय ग्राम संस्कृति, भिन्न जाति-धर्म-वर्ण-वर्ग के होते हुए भी ये सब न होकर समुदाय हो जाने की संस्कृति रही है। समुदाय की भारतीय परिकल्पना का आधार दो सांस्कृतिक बुनियाद हैं- ‘सहजीवन’ और ‘सहअस्तित्व’। बकौल लॉर्ड मेटकाफ, यह समुदाय हो जाना ही विविधता में एकता है। समुदाय होकर ही भारत का गांव समाज सदियों तक ऐसी परिस्थितियों में भी टिका रहा, जिन परिस्थितियों में दूसरी हर वस्तु, व्यवस्था का अस्तित्व मिट जाता है। यदि गांव की मूल शक्ति बनी रहे, तो गांव कभी नहीं मिटता। गांव की मूल शक्तियां क्या हैं? शुद्धता, स्वावलंबन, साझा, सामाजिक जीवंतता और कम से कम बाहरी दखल गांव की मूल शक्ति हैं। बाजार, कानून का दखल और चुनावी राजनीति गांवों के समक्ष पेश तीन मुख्य चुनौतियां हैं। समाधान है, बाजार की जगह, अपना पानी, अपनी मेड़, अपना खेत, अपनी रोटी, अपनी बोली, अपना भेष; कानून के दखल की जगह सही मायने में अपनी ग्रामसभा, अपनी पंचायत और चुनाव की जगह सर्वसम्मति। संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार- ये किसी भी समुदाय के संचालन के पांच सूत्र हैं। इन पांच सूत्रों को सुचारु बनाकर ही आज हम गांवों की खो गई मूल शक्ति लौटा सकते हैं। इसंिबंदु पर आदर्श ग्राम का गांधी विचार, प्रत्येक गांव को एक पूर्ण गणराज्य के रूप में देखता था। नेहरू लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण चाहते थे। राजीव गांधी ने संविधान के 73वें संशोधन के जरिए सत्ता सीधे गांव के हाथ में सौंपने का सपना देखा। विनोबा गांव को गोकुल बनाना चाहते थे। उनके आदर्श गांव में गीता और कुरान के मिलने, चरखे का सूरज निकलने, समता के पौधों पनपने, एक बनने-नेक बनने, भूमिहीन को भूमि और गरीबी से मुक्ति के सपने थे। विनोबा चाहते थे कि घर-परिवार की तरह, गांव भी एक परिवार जैसा हो। जयप्रकाश ने सहभागी लोकतंत्र की परिकल्पना की थी। लोहिया ने केंद्र, राज्य, स्थानीय निकाय और ग्राम सभा को चार खंभे मानकर चौखंभा विकास की अवधारणा सामने रखी। सांसद आदर्श गांव की इस परिकल्पना में कुछ जोड़ने-घटाने से पहले देखना चाहिए कि आज हमें खेल के मैदान से ज्यादा जरूरत, चारागाह की है। चारा होगा तो मवेशियों की संख्या बढ़ाने में मदद मिलेगी, खेतों को खाद मिलेगी, उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ेगी और गांव की सेहत की भी। जहां कभी एक ग्रामीण पर एक मवेशी का अनुपात था, आज सात व्यक्ति पर एक मवेशी का अनुपात है। मवेशियों की पर्याप्त संख्या अकाल में आत्महत्या को रोक सकती है। अत: आदर्श गांव की परिकल्पना में अच्छे मवेशी, अच्छा पानी, अच्छी खेती और अच्छे बीज को भी शामिल करना चाहिए। देश के प्राथमिक विद्यालयों के एक चौथाई अध्यापक अनुपस्थित रहते हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बिना डॉक्टर और नसरे के भरोसे चलते हैं। आदर्श ग्राम वह माना जाए जहां अध्यापक/डॉक्टर/ग्राम सेवक पूरा समय आएं भी और अपना काम निभाएं भी। जिस गांव के सभी बच्चे पढ़ें। कोई बेरोजगार न हो। सभी को कुछ न कुछ हुनर आता हो। गांव में कोई मुकदमा न हो। गांव में कोई निजी साहूकार का कर्जदार न हो। ग्रामसभा व पंचायत अपने अधिकार और कर्त्तव्य की पूरी पालना करते हों। केंद्र व राज्य की योजनाओं का पूरा लाभ प्रत्येक लाभार्थी को मिलता हो। जिस गांव का निवासी अपने काम के लिए घूस न देता हो, न प्रधान, पंच, कोटेदार और ग्रामसेवक को घूस खाने देता हो। गौर करें कि अभी 65 प्रतिशत ग्रामीण आबादी का देश होने के बावजूद खेती का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान मात्र 19 प्रतिशत है। निर्माण उद्योग का योगदान 55 प्रतिशत है। मोदी जी इसे और बढ़ाने की बात कह रहे हैं। यदि यह योगदान सिर्फ विदेशी निवेश और शहरी उद्योगों के जरिए बढ़ाने की कोशिश की गई, तो आदर्श और गैर आदर्श ग्राम की बात तो दूर की है; गांवों का गांव बने रहना ही मुश्किल होगा। सरकार लघु-मध्यम उद्योग नीति लाने वाली है। अच्छा हो कि सरकार, ग्रामोद्योगों के लाइसेंस, उत्पादन को आसान बनाने व उत्पादों की सरकारी खरीद व निर्यात में हिस्सेदारी बढ़ाने वाली किसी नीति की घोषणा करे। गौरतलक है कि 1972 में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देकर इंदिरा गांधी ने भी लोगों की उम्मीदों को आसमान पर चढ़ाया था। किंतु 1972 से 1977 के बीच सत्ता और व्यवस्था में भरपूर गिरावट हुई। तब जेपी का बिगुल बजा था और गरीबी हटाने का नारा देने वाली प्रधानमंत्री को खुद हटना पड़ा था। यह चुनौती वर्तमान प्रधानमंत्री के लिए भी रहेगी। जनता पांच साल में नहीं, बीच के हर चुनाव में भी सेलेक्ट और रिजेक्ट करेगी।

1 comment:

Mr. Vikas Kumar Gupta said...

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