Monday 27 October 2014

तथ्यों के आईने में




सुधार की इच्छाशक्ति

Wed, 15 Oct 2014 

अगर केवल आलोचना के लिए आलोचना करनी हो तो बात अलग है, लेकिन तथ्यों के आईने में देखें तो नरेंद्र मोदी सरकार के इतने कम दिनों के कार्यकाल की उपलब्धियां कम नहीं हैं। देश में अर्से से चली आ रही कुछ समस्याओं के समाधान के ठोस निर्णय लिए गए हैं। इस दिशा में ठोस कदम भी बढ़ाए गए हैं और पूरे देश की जनता को उम्मीद है कि आने वाले दिनों में उसकी समस्याओं का समाधान होगा। यह मामूली बात नहीं है कि पिछले कुछ वषरें में बाजार से लेकर आम जनता तक हर तरफ जो निराशा की धुंध छाई थी वह छंटी है। लोगों में आशा का संचार हुआ है और लोग नए उत्साह के साथ अपने कामकाज में जुटे हैं। यह लोगों को भी पता है कि चार-पांच महीने के अल्प कार्यकाल में कोई सरकार कितनी समस्याओं के समाधान की दिशा में काम कर सकती है। पिछले छह दशकों से चली आ रही समस्याओं का समाधान केवल सौ दिनों में कर देना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। ऐसी अपेक्षा करना न केवल हास्यास्पद, बल्कि आत्मप्रवंचना में जीने जैसी बात होगी। भारत की जनता अब आत्मप्रवंचना से उबरना चाहती है। उसने देखा है कि कैसे पहले उसकी एक समस्या के समाधान के लिए एक कानून बनाया जाता रहा है और उसका क्त्रियान्वयन न हो पाने के लिए उसकी निगरानी या उसमें संशोधन के लिए एक दूसरा कानून।
इस तरह कानूनों का एक पूरा ढेर लग गया, लेकिन समाधान कुछ नहीं हुआ। सरकारें कानून बनाकर निश्चिंत हो जाती हैं। उनके क्त्रियान्वयन पर उन्होंने कभी विशेष ध्यान नहीं दिया। नतीजा यह हुआ कि आम जनता यह मानने को विवश हुई कि वास्तव में कानून हाथी के दांत भर ही हैं। जनकल्याण के लिए बनी तमाम योजनाओं और कानूनों के क्त्रियान्वयन में ढिलाई के लिए नौकरशाही को जिम्मेदार ठहराकर सरकारें अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं। यह सोचने की भी जहमत किसी ने नहीं उठाई कि आखिर नौकरशाही को सही रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी किसकी है? निश्चित रूप से यह जिम्मेदारी सरकार की बनती है। सच तो यह है कि नौकरशाही अगर बिगड़ती है तो उसके पीछे भी कारण सरकार की ढिलाई ही होती है। सरकारी तंत्र में अगर भ्रष्टाचार आज एक परिपाटी बन गई है तो मोदी सरकार ने सरकारी तंत्र के इस ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंकने की कोशिश की है। उसने इस तंत्र को सुधारने की शुरुआत कर दी है। यह बात लंबे अर्से से कही जाती रही है कि सरकारी तंत्र में व्याप्त हीला-हवाली की प्रवृत्तिदेश को पीछे ले जा रही है, क्योंकि इससे न केवल सरकारी योजनाओं, बल्कि गैर-सरकारी कार्यक्त्रमों के क्त्रियान्वयन में भी देर लगती है। इस देरी के चलते लागत बढ़ती जाती है और लागत बढ़ने से क्त्रियान्वयन और मुश्किल होता जाता है। ऐसा नहीं है कि पहले की सरकारों को यह बात नहीं पता थी, लेकिन उनमें इसे ठीक करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव था। कभी इसके लिए कोई सार्थक और प्रभावी प्रयास दिखा हो, याद नहीं आता।
मोदी ने सबसे पहले मंत्रालयों और सरकारी कार्यालयों में समय से उपस्थिति को अनिवार्य बनाने की कोशिश की है। इस बात की प्रशंसा की जानी चाहिए कि अपने प्रयास में वह सफल भी हो रहे हैं। यह बात तो सरकार के विरोधी भी कहने लगे हैं कि इन कोशिशों का असर दिखने लगा है। कम से कम केंद्र सरकार के दिल्ली स्थित कार्यालयों में व्याप्त जड़ता का माहौल टूटने लगा है। इसके लिए पिछली सरकार के समय में ही प्रोजेक्ट मॉनिटरिंग ग्रुप की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन इसकी सक्त्रियता अब जाकर शुरू हुई है। नरेंद्र मोदी के कार्यभार संभालने से पहले तक न तो किसी को इस ग्रुप की जानकारी हो पाई थी और न ही इसके कामकाज की। अब इसकी सक्त्रियता और आवेदनों की प्रक्त्रिया के ऑनलाइन होने की शुरुआत का नतीजा साफ तौर पर देखा जा सकता है। वही कर्मचारी और अधिकारी जिन्हें परियोजनाओं की स्वीकृति में बाधक समझा जा रहा था, अब सही रास्ते सुझा रहे हैं। जाहिर है, सुस्ती का यह आलम केवल नौकरशाही के स्तर से नहीं था। यह पहली सरकार है जिसने अप्रासंगिक हो चुके पुराने कानूनों को हटाने की प्रक्त्रिया की शुरुआत की है। इस क्त्रम में अनुपयोगी कानूनों के चिन्हीकरण का काम चल रहा है। अभी तक ऐसे एक हजार कानून चिन्हित किए जा चुके हैं। ऐसा नहीं है कि पिछली सरकारों को इस बारे में पता नहीं था, लेकिन उन्हें खत्म करने की पहल किसी ने नहीं की। वर्तमान सरकार ने उन्हें खत्म करने की पहल की और साथ ही इस काम को गति देने के लिए समयानुसार व्यवस्था बनाई। सरकार की ये कोशिशें मामूली लग सकती हैं, लेकिन यह बात सभी जानते हैं कि इनके दूरगामी परिणाम सकारात्मक और व्यापक होंगे। प्रश्न यह भी उठता है कि यही मामूली प्रयास दूसरी सरकारें क्यों नहीं कर पाईं?
पिछली सरकारें यदि यह काम नहीं कर सकीं तो इसका एक ही कारण समझ में आता है वह यह कि उनमें से अधिकतर के पास भारत के संदर्भ में जमीनी सोच नहीं थी। अभिजात्य समाज से आए लोग यह कैसे समझ पाते कि एक गरीब किसान या मजदूर और उसके बच्चों को व्यवस्था में कहां-कहां और क्या-क्या भुगतना पड़ता है। मोदी को यह सब पता था इसीलिए उन्होंने आते ही प्रमाणपत्रों की अधिकारियों द्वारा सत्यापन की अनिवार्यता खत्म की और साथ ही सरकारी कामों में जटिलता को दूर करने के लिए डिजिटाइजेशन पर बल दिया। इसी तरह स्वच्छता अभियान को उन्होंने देशव्यापी स्वरूप देते हुए इसे जनांदोलन में तब्दील करने का काम किया है। गंगा सफाई अभियान भी एक बड़ा काम है, जिसे मोदी सरकार ने हाथ में लिया है। सभी जानते हैं कि व्यापक बदलाव की यह कोशिशें रंग लाएंगी, पर इनका पूरा असर दिखने अथवा परिणाम आने में समय लगेगा। पेड़ लगाते ही फल खाने का खयाल नहीं किया जा सकता। अभी तो यह शुरुआत है और एक अच्छी शुरुआत हुई है तो इसका असर दूर तक जाएगा ही।
[लेखक निशिकांत ठाकुर, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

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